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गोलंबर

golambar

हरिवंश नारायण

और अधिकहरिवंश नारायण

    यशोधरा! “मैंने रात में एक स्वप्न देखा है। बड़ा अजीब लग रहा है। सोचते-बोलते रतन घबराने लगा।

    'दिन में कुछ देखे होंगे, वही याद गया होगा। मैं भी तो बहुत कुछ स्वप्न में देखती रहती हूँ, लेकिन नींद खुलते ही भूल जाती हूँ। कभी कुछ सच होता नहीं।'

    यशोधरा रतन के बेचैन मन को विचलित करने की कोशिश करने लगी।

    'नहीं यशोधरा! मैंने तो बचपन से ही देखा है- सारे स्वप्न सच्चे निकलते हैं। यह बात जरूर है कि थोड़ी दूर से गुज़रती है। क्या बताऊँ! कहूँगा तो विश्वास नहीं करोगी। बचपन में एक स्वप्न देखा भगवान शंकर अपना त्रिशूल लेकर मुझे खदेड़ रहे हैं और मैं भागता जा रहा हूँ। रास्ते में ब्रह्मा जी मिले। उन्होंने मदद की। तुरत कहा-

    'बेटे! बैठ जाओ, पैखाना करने के लिए। शंकर जी कुछ नहीं करेंगे।' मैं बैठ गया। भगवान शंकर त्रिशूल लेकर खड़े रहे, लेकिन मुझपर हाथ नहीं उठाया।'

    'क्या भगवान शंकर से आपकी भेंट बाद में हुई? ब्रह्मा जी मिले?' यशोधरा ने पूछा।

    'ओफ्फोह! स्वप्न का परिणाम सीधा नहीं होता। जानती हो, क्या हुआ? जीवन में मुझे कई ब्रह्मा और कई शंकर मिले, लेकिन सभी ने एक ही रास्ता बताया। मैं हमेशा आगे बढ़ता गया। क्यों? क्योंकि कभी मैंने मन में मैल इकट्ठा किया ही नहीं।'

    बात मेरी समझ में नहीं आयी 'यशोधरा ने कहा।'

    'देखो! हर इन्सान के रास्ते में बाधाएँ आती हैं। अपने आप नहीं आती, किसी के द्वारा डाली जाती हैं। लेकिन, इस प्रकृति में, यानि कहो कि इस दुनिया में हर चीज का काट उपलब्ध है। बस, यही समझ लो कि उन बाधाओं का काट भी मनुष्य ही बनता है। भगवान शंकर और ब्रह्मा तो प्रतीक थे। खैर छोड़ो! देखो, क्या होता है!'

    रतन ऑफिस गया। आवास से एक सौ फीट की दूरी पर ऑफिस थी। प्राकृतिक आपदाएँ सालो भर परेशान करती रहती हैं। कभी बाढ़, कभी सुखाड़, कभी लू, कभी शीतलहरी। अखबार के पन्नों पर प्रतिदिन ठंड से मृत्यु के समाचारों ने रतन को जनवरी-फरवरी के महीनों में भी परेशान कर रखा है।

    आखिर कम्बल किसे दिया जाए? जरूरतमन्द लोगों से अधिक दबाव बेजरूरतमन्द लोगों का है। मुँह भी तो वही लोग खोलते हैं। लोगों का मुँह बन्द कर रखना ही नौकरी की सफलता है। दरख्वास्त नहीं पड़े, जाँच कमिटी नहीं बैठ जाए- इसकी चिन्ता एक ओर और राहत सही-सही बँट जाए-यह चिन्ता दूसरी ओर। इन दो धाराओं के बीच रतन उपलाने लगा। मिलनेवालों के बीच रतन आज मूक बना हुआ था। यशोधरा की बुलाहट आयी- गरम- गरम मछली-भात खाने के लिए। स्वप्न की बातें मन में पुनः हलचल पैदा करने लगीं।

    रतन का दाहिना हाथ मछली-भात पर, लेकिन दिल-दिमाग उस खपड़ैल मकान की ड्योढ़ी में था, जहाँ माँ रतन को स्कूल से आने के बाद खिलाया करती थी। घर में चावल रहने पर कर्ज-महाजन, अइँचा-पइँचा करके पाव भर भी जरूर गदका देती। पंखा झलते-झलते थाली को भी निहारती। ममता की इस मूर्ति के मुँह से एक ही आवाज निकलती- 'किसी तरह पढ़-लिखकर आदमी बन जाओ!'

    खाने के बाद जो कुछ बचता, शिवानी चाट-पोंछकर कुछ ही कौर में साफ कर देती।रतन खाते-खाते चौंक गया। यशोधरा घबरा गयी। बोली-'क्या सोच रहे थे आप? क्यों घबरा गये? आपने तो स्वप्न पर पहले कभी इतना विश्वास नहीं किया?'

    पता नहीं यशोधरा! पहले के स्वप्न और आज के स्वप्न में काफी अन्तर दिखाई पड़ रहा है। मैंने कहा है कि स्वप्न का परिणाम देर से गुज़रता है। ऐसा लग रहा है कि यह स्वप्न नजदीक से गुज़रेगा। बरबस माँ बाद रही है। लगता है, मुझे खोज रही है, बुला रही है। खाना हटा लो

    रतन खाना छोड़कर आँगन में हाथ धोने गया। डाकिये की आवाज़ आयी 'सर! टेलीग्राम।'

    लिफाफा खुला। लगा, पूरा वाक्य एक ही शब्द था। आँखें बरसने लगीं। यशोधरा-बच्चे पलंग पर लोंघड़ गये। चीत्कार शुरू हो गयी। परिजन दौड़ पड़े। रामायण और महाभारत के कई प्रसंग पेश किये जाने लगे, लेकिन आँखों की बरसात थम नहीं रही थी। हर जीवन की यही कहानी है जो आया है, सो जायेगा।

    मंगली ने अपनी बाँहों में यशोधरा को कस लिया। ढाढ़स देने लगी। रतन को भी समझाने लगी, तसल्ली देने लगी- माँ जी ने तो अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया। अब आपलोगों को बेटा-बहू का फर्ज निभाना है। बेचारी सब कुछ पूरा कर गयीं। हिम्मत कीजिए! आँसुओं को रोकिए!

    आँखों की गहराई समुद्र से ज्यादा है। जितना भी बहायेंगे, सूखेंगी नहीं।

    मंगली काम करते-करते यशोधरा को बेटी समझने लगी थी। हर काम में हाथ बंटाकर यशोधरा पर काबू पा चुकी थी। ढाढ़स बंधाने वालों का तांता लगा था। छठ्ठू सिंह उम्र में रतन के पिता समान थे। उन्होंने समझाने की कोशिश की- 'यह सब किसे नहीं देखना है? आप तो दूसरों को ढाढ़स बँधाते हैं। यदि आप ही ऐसा करेंगे तो और लोगों का क्या होगा, लोग किसे देखकर हिम्मत करेंगे?'

    'छठ्ठू जी! क्या मैं इन ज़हरीले आँसुओं को बाहर भी नहीं करूँ? निकालने दीजिए इन्हें! यदि ऐसा नहीं करूँगा तो शायद पागल हो जाऊँगा।'

    बोलते-बोलते रतन की आँखों से पुनः धारा फूट गयी। लोगों की कतार इतनी लम्बी हो गयी थी कि आसुओं की बरसात कुछ थम गयी। कई घरों से रात का भोजन आया। बच्चों ने थोड़ा-बहुत खाया! यशोधरा और रतन की भूख स्मृतियों में विलीन हो चुकी थी। रात कटी। सुबह बच्चे समेत दोनों

    उस घाट पर पहुँचे, जहाँ से लंच खुलती है और गंगा पार करती है। घटवार को पता चला। तुरंत प्रथम श्रेणी का सबसे ऊपरी कमरा सुरक्षित कर दिया। दूसरों के लिए उस दिन प्रथम श्रेणी की बुकिंग बन्द रही। धारा पश्चिम से पूरब बह रही थी और लंच उत्तर से दक्षिण। मोटर लंच ज्योंही धारे की ओर बढ़ी, धाराओं से खेलने लगी। रतन की निगाहें उछलती तरंगों पर टिकी थीं। यशोधरा घबरा रही थी।

    'ओफ्फोह यशोधरा! तुम घबरायी क्यों हो? माँ अपनी बाँहों में खेला रही है। दो दिन बीत गये। पाँचों तत्वों के अणु धाराओं के साथ वहाँ पहुँच चुके हैं। पूरी माँ इसी में है। हमलोगों के बेचैन मन को शान्त कर रही है।'

    यशोधरा चुप थी। बात समझ से बाहर थी।

    'चलो चलो, नीचे चलो! माँ इन्हीं धाराओं से गुजर रही है। चलकर स्पर्श करो!'

    दोनों उतर गये। बच्चे ऊपर ही रह गये। दोनों ने धाराओं से चुल्लू में पानी लेकर अपने शरीर पर छिड़का। उसी धारा के पानी से मुँह धोया और प्रणाम किया।

    लंच गंगा पार कर गयी। रेल में सवार होकर सभी पटना आये।

    'सुनिए! ज़रा मन्दिर हो लीजिए! हनुमान जी ज़िन्दा देवता हैं। सबके दुख हरते हैं।'

    समय और परिस्थितियाँ मनुष्य से सब कुछ मनवा लेती हैं। दोनों मन्दिर गये और उदास लौटे। हनुमान जी ने तो कुछ बताया और ही कुछ हरा। बोले तक नहीं।

    'यशोधरा! तुम कहती हो कि ज़िन्दा देवता हैं, तो बोलते क्यों नहीं?'

    यशोधरा चुप हो जाती है। बच्चे समेत गोलम्बर के पास पहुँचती है। जीवन की घटनाएँ क्रमवार आने लगीं। रतन सोचने लगा-

    कितना बौना हो गया है यह गोलम्बर! कभी खुला था। आज लोहे की ज़ंजीर पहना दी गयी है इसे। जिस किसी की इसने मदद की, उसकी परिधि बढ़ती गयी, लेकिन इसकी परिधि को लोगों ने संकुचित कर दिया।

    मैं कह रही हूँ कि आप सोचना बन्द कर दीजिए!

    'कुछ तो नहीं सोच रहा हूँ।'

    यशोधरा रतन की आँखें निहारने लगी। डबडबाती आँखें देखकर बोली-

    'सोच कैसे नहीं रहे हैं?”

    “नहीं यशोधरा। ऐसी कोई बात नहीं। यह गोलम्बर एक कहानी है। कोई दस वर्ष पहले में पहली बार पटना आया था- नयी तमन्नाओं के साथ पढ़ने के लिए नाम लिखवाने। शाम हो गयी थी। अचानक हल्ला हुआ था कि एक नेताजी दुनिया छोड़ चुके। ट्रेन, बस- जो जहाँ थी, वहीं रुक गयी। सड़कों पर लीचियों से भरी टोकरियों को छीन छीन कर लुटा दिया गया। भूखा इन्साफ नहीं देखता। होश नहीं था। पेट की ज्वाला आदमी को स्वार्थी बना देती है। खाया और खाकर इसी अहाते में गमछी बिछाकर लेट गया। माँ भी साथ थी। बकरी पालती थी। जोड़ा पाठी बेचकर मेरे साथ आयी थी। गोलम्बर के इस अहाते में नींद नहीं रही थी। माँ बैठी रही, मैं लेटा रहा। देखता रहा- कई झुण्ड लोग ट्रेन से उतरे और कई रास्ते पकड़े। पता तब चला, जब उनमें से कुछ मायूस होकर तौटे और इसी गोलम्बर में अपनी- अपनी चादरें बिछाकर लेट गये। एक ने दूसरे से कहा- 'दुनिया में कहीं कुछ नहीं है। अरे देखो, में मन्दिर गया। कहाँ कुछ मिला? उदास ही तो लौट आया।”

    दूसरे ने कहा- 'भाई। लोग कहते है कि मस्जिद में खुदा मिलते ही हैं। मैंने जिसे देखा, वह कुछ बोला तक नहीं।'

    तीसरे ने कहा- 'भाई। तुमलोग तो बेकार चादर चढ़ाते हो, लड्डू चढ़ाते हो। मैंने प्रार्थना और इसने भजन से काम लिया। तुमतोग भी सिर्फ ठेहुनियाँ मारो और पद्मासन लगाओ। नही मिलेगा तो नहीं मिलेगा, खर्च तो नहीं होगा।'

    में लेटा-लेटा सारा कुछ सुन रहा था। माँ से बातें कर रहा था। माँ ने समझाया- 'बेटा। हर घर मंदिर है। कोई कहीं का देवता है और कहीं का पुजारी।

    यशोधरा! आज तक मैं माँ की उस बात को भूल नहीं सका

    यशोधरा की भी आँखें डबडबा गयीं। वह मूक हो गयी। अब समझाने की बारी रतन की गयी।

    'यशोधरा! मेरी माँ के हृदय की परिधि असीम थी। आज लगता है, उस परिधि के चारों ओर मैं अणु की तरह चक्कर काट रहा हूँ और माँ मुझे उस परिधि से भागने नहीं दे रही है। जानती हो! वह निरक्षर थी, लेकिन कभी ऐसा लगता नहीं था कि वह अक्षरों को नहीं पहचानती थी। जो भी बोलती, शाश्वत सत्य बोलती। मैं तो उस निरक्षर माँ का आभारी हूँ, जो मेरी पढ़ाई को अपनी पढ़ाई समझती रही। मुझे तो ऐसा लगता है कि यदि मेरी माँ जागी नहीं होती तो मैं सोया रह जाता। माँ ने मुझे वह औजार दिया है, जो कभी घिसेगा, कभी टूटेगा और जिसमें जंग ही पकड़ेगा। समय के साथ उसकी धार और तेज बनती जायेगी।'

    बच्चे समेत दोनों बस पर बैठ गये और गाँव के निकट पहुँच गये। बहुत सारे टमटम खड़े थे। कुछ गोला के भी थे। दो-चार परिचितों पर नज़रें पड़ीं। प्रणाम-पाति भी हुई, लेकिन सिर हिलाने के अलावे किसी ने कुछ नहीं बताया। टमटम पर सवार होने की इच्छा नहीं हुई, लेकिन गोपाल ने बरबस बैठा लिया।

    'कहो गोपाल भैया! तुम भी कुछ बता नहीं रहे हो?'

    'जानते ही हो, क्या बताऊँ? बेचारी चाची के चले जाने से गोला का आकार छोटा हो गया। सारे लोग दुखी हैं।'

    गोपाल के ये शब्द पुनः आँसू बरसाने के लिए काफी थे। रतन की आँखें झरझराने लगीं। टमटम गोला पहुँच गया। सारे लोग रतन की इंतजारी में थे। नजर पड़ते ही पिताजी फफक पड़े।

    रतन ड्योढ़ी में पहुँचा। अन्दर गया। संयोग से पीढ़ा वहीं बिछा था,

    जहाँ माँ रतन को पंखे झलकर खिलाया करती थी। जाने-अनजाने रतन उसी पीढ़े पर बैठ गया। बहन पानी लेकर आयी। रतन की आँख और नाक दोनों से पानी बहने लगा।

    रतन कभी चूल्हा निहारता, कभी मटकी, कभी टेहरी, कभी सिकहर। कमरे में घुसकर उस खाट को देखता, जिसपर माँ के साथ सोया करता। जहाँ भी नजर जाती, वहाँ उसे माँ का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता। गाँव के

    काफी लोग इकट्ठे हुए बच्चे बच्च्यिाँ, बूढ़े जवान। सब की नजरें रतन पर टिकी थीं। जितने लोग आते, कहकर चले जाते माँ हो तो ऐसी, बेटा हो तो ऐसा। हर की दुआ साथ लगने लगी। रतन को इन दुआओं से ताकत मिली। मन को वश में किया और भूत को छोड़कर वर्तमान पर जम गया। सोचने लगा-

    “अब माँ जहाँ रहेगी, खुश रखूँगा।”

    पुरोहित जी आये। शांति की तैयारी हुई।

    'गाँव के सारे गरीब-अमीर तुम्हारी माँ को अपनी माँ के समान समझते थे। पूरे गाँव की माँ थी वह। उसके भोज में सारे गरीब-अमीर शर्गिंद होंगे'- पुरोहित जी ने कहा।

    माँ से बड़ी कोई देवी नहीं, पिता से बड़ा कोई देवता नहीं और पत्नी से बड़ा कोई मित्र नहीं होता रतन मन ही मन सोच रहा था। महापात्र जी पधारे। विचित्र लीला है। आम दिनों में आदमी जिसे देखना नहीं चाहता, आज के दिन उसे ही पूजता है। महापात्र बोलते गये और रतन पूरा करता गया। सोचा 'माँ के मरने के बाद मों को लेकर कोई विवाद हो, कोई असंतुष्ट हो।' तिल-दूध पीकर महापात्र विदा हुए। अब ब्रह्म-भोज की तैयारी शुरू हुई। लोग पंक्तिबद्ध बैठ गये। जलेबियाँ चलने लगीं। एक ब्राह्मण ने आहिस्ते जलेबी माँगी। परोसनेवाले बढ़ गये। ब्राह्मण क्रोध में उठकर खड़े हो गये। रतन घबरा गया। हाथ जोड़कर उसने प्रार्थना की। रतन की आवाज़ ने उस ब्राह्मण के क्रोध को घोल लिया। भोज चल ही रहा था कि जागा पहुँचा। आवाज से ही उसकी पहचान हो गयी। रतन ने दौड़कर उसे बैठाया। उसके भोजन के लिए दही-चूड़ा मँगवाया। जागा ने दही-चूड़ा मिलाकर पूरे लप में उठाया और माँ के नाम की जयकार करते हुए लप को कंठ तक ले जाकर अचानक रोक दिया। बोला- 'माँ तो कंठ पकड़ रही है।'

    'नहीं बाबा! मेरी माँ ने आज तक किसी का कंठ नहीं पकड़ा। आप ऐसा नहीं बोलें। जो आपकी इच्छा हो, माँग लीजिए, लेकिन माँ को शब्दों से बदनाम मत कीजिए!' जागा खुश हो गया और प्रभावित भी। उसने वही रेट माँगा, जो अन्य जगहों पर मोल-मोलई के बाद मिलता है।

    सारे विधि-विधान पूरे हुए। बारी-बारी से मेहमानों की विदाई हुई। अतिथियों के जाने के बाद घर सूना हो गया।

    रतन रुक भी तो नहीं सकता। रोजी-रोटी का प्रश्न था। चलने लगा। पिताजी सामने खड़े थे। ज्योंही रतन का पहला कदम बढ़ा, पिता की आँखों से आँसुओं के फब्बारे फूट पड़े। बिना कुछ बोले रतन कुछ नये-नये नोटों से पिता को शांत करने की निरर्थक कोशिश करने लगा। धातु और कागज के टुकड़ों से मन का दर्द सोखा नहीं जा सकता। विह्वल पिता को देखकर रतन के चलने की योजना उस दिन स्थगित हो गयी। रात में बातें होने लगीं। दूसरों को तो बहुत कुछ बताते हैं, लेकिन अपने को मुक्त नहीं कर पाते। पुराने ख्यालों के आते ही डूब जाते हैं। रतन ही समझाने की कोशिश करता है।

    सवेरा होते ही रतन ने पिताजी को मना लिया।

    'मन नहीं लगे, तो बेधड़क चले आइए' रतन ने कहा। ऐसे ही वादों और आश्वासनों के साथ रतन गोला छोड़ चला। पड़ोस की महिलाएँ ओझल होने तक निहारती रहीं। रतन खामोश आगे बढ़ता जा रहा था। सोच रहा था- 'माँ छूट गयी, गाँव छूट रहा है, बहनें छूट रही हैं और छूट रहे हैं सारे प्रियजन। क्या गोपाल भैया! कुछ देर बाद तुम भी छूट जाओगे न?'

    'रतन! छूट तो जाओगे तुम। मुझे तो बस इसी गाँव में रहना है, इन्हीं लोगों के बीच रहना है। याद है तुम्हें? तुमने मैट्रिक पास किया था। जब गाँव छोड़े थे, गोबर्द्धन कितना परेशान था! मैं खेत में हल जोत रहा था और तुम पगडंडियों से विदा हो रहे थे। याद है मेरा गीत-

    'दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे…?'

    'पूरा का पूरा याद है गोपाल भैया! वह तो स्मृति बनकर रह गया है। कहाँ गया वह बचपन और कहाँ गये वे आम के वृक्ष! जब सोचता हूँ तो पढ़ना-लिखना बेकार सा लगता है। जीवन में गहरी खाई पैदा हो गयी है, जिसे भरकर सड़क नहीं बना सकता। पुल बनाता हूँ, मगर वह पुल भी हर समय साथ नहीं देता, मौके मौके पर टूट जाता है।'

    घोड़ा आगे बढ़ने से इन्कार करने लगा। गोपाल ने हल्की चाबुक लगायी।

    'आहाहा! गोपाल भैया! क्यों मारते हो इसे?'

    देख रहे हो न! कितनी शैतानी कर रहा है? अकड़ जाता है।''

    'नहीं तो। बेचारा आने वक्त तो कभी नहीं अकड़ा। दौड़ता हुआ आया था। आज इसने अपनी गति धीमी क्यों कर दी? घोड़े के मन को पढ़ो गोपाल भैया! इसकी भावनाओं की कद्र करो! यह अकड़ता नहीं, कुछ कहता है।'

    'मैं भी तो चाबुक मार नहीं रहा हूँ, कुछ कह रहा हूँ।'

    साथ रहते-रहते यशोधरा रतन के मन को पढ़ना जान गयी थी।

    बोली-

    'दोनों मजबूर हैं। अपनी-अपनी जगह पर सही है'

    गोपाल समझ गया कि यशोधरा क्या कहना चाहती है। खामोश हो गया। घोड़े ने भी चाल पकड़ ली।

    सड़क किनारे बरगद का वह पेड़ मिला, जहाँ स्कूल से लौटते वक्त रतन रुककर आराम कर लिया करता था। यादें आने लगीं। गम्भीर बन गया।

    'क्यों रतन! इतने गम्भीर क्यों हो गये?

    'भइया! इस बरगद की ठंडी छाँव भी छूट रही है। याद है मुझे। गुरू जी के साथ करीव नौ बजे रात में लौट रहा था कुछ प्रश्न पत्रों को लेकर। जब भी प्रश्न-पत्र लाना होता था, गुरूजी मुझे ही साथ रखते थे। कारण था- मैं प्रश्नपत्रों को खोलकर पढ़ता नहीं था। जब हमलोग इस बरगद के समीप पहुँचे, तब मुझे खाँसी आयी। गुरूजी ने कहा- खाँसो मत! इस बरगद की डालियों पर चोर बैठे रहते हैं। गुरूजी ने एक नया बाइपास बनाया और आधा किलोमीटर का चक्कर कटवा दिया।

    'मैंने तो कभी सुना था कि बरगद के पेड़ पर देवता रहते हैं। चोर-डाकू, भूत-प्रेत कहाँ से आये?'

    टमटम बढ़ता जा रहा था। ज्यों-ज्यों बस स्टैंड नजदीक रहा था. गोपाल के हाथ की लगाम ढीली पड़ती जा रही थी। बस स्टैंड पहुँचा। रतन पचास रुपये का एक करेंसी नोट गोपाल को थमाने लगा। गोपाल इन्कार करने लगा।

    'नहीं भैया! यदि आप नहीं लीजियेगा तो इस पैसे से घोड़े को चना खिला दीजियेगा! बड़ी मेहनत की है इसने।'फिर भी गोपाल ने पैसे नहीं लिये।

    रतन यशोधरा और बच्च्चों के साथ बस पर बैठ गया और पटना गया। बस छोड़कर जंक्शन की ओर बढ़ा। पुनः वही गोलम्बर सामने गया। रतन की आँखों में फिर वही सारे दृश्य एक के बाद एक उभरने लगे। आँसुओं को तो रतन ने थाम लिया था, लेकिन दिल का दर्द बढ़ता जा रहा था। आँखों के सामने वे पत्नी-बच्चे अदृश्य जैसे लग रहे थे। निगाहें गोलम्बर के केन्द्रबिन्दु पर टिकी थीं। बरबस गणितीय माप के अन्दाज पर गोलम्बर के अन्दर वहीं जाकर बैठ गया, जहाँ पहली बार आकर सोया था। बच्चों के साथ यशोधरा भी बैठ गयी।

    'देखती हो यशोधरा! यह जो गोलम्बर है न, इसमें पूरी दुनिया सिमट जाती है।'

    'यह कैसे पापा? - बड़े लड़के ने पूछा।'

    'देखो बेटे! पढ़े हो कि पृथ्वी अंडे की तरह गोल है? इस गोलम्बर को देखो इसकी शक्ल भी वैसी ही है। दुनिया के हर कोने से लोग आते हैं, जिन्हें ज़रूरत पड़ती है, वे यहाँ ठहरते हैं और चले जाते हैं। धरती को देखो! इस धरती पर लोग अनजान बनकर आते हैं, पड़ाव डालते हैं, पहचान बनाते हैं और चले जाते हैं। यह धरती बड़े धैर्य से सबका बोझ उठाती है, माँ की तरह। यह गोलम्बर ऐसी माँ है जो आने वाले हर अनजान को आँचल का सुख देती है। जब इस गोलम्बर को देखता हूँ तो इसके केन्द्र में माँ की तस्वीर दिखाई देती है, चेहरा साफ-साफ नजर आता है- बिना किसी माध्यम के। मुझे विश्वास है कि मेरी माँ हमेशा इसी गोलम्बर में रहेगी और मैं जब चाहूँगा, आकर देख लिया करूँगा।'

    स्रोत :
    • रचनाकार : हरिवंश नारायण
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए सुशांत कुमार शर्मा के सौजन्य से
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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