कभी किसी काम से आपको उस दुकान तक जाना पड़े, जहाँ बोर्ड लगा होता है, अलानी प्रापर्टीज़ या फलाने एसोसिएट्स का, मतलब किसी प्रॉपर्टी डीलर के पास, तो याद रखिएगा, वह झूठ का पुलिंदा होता है, उसके भीतर सिर्फ़ झूठ भरा होता है, ढेरों झूठ। रजिस्टरों, फ़ाइलों और दीवार पर चिपके मकानों और कॉलोनियों के चित्रों और नक़्शों के बीच घूमती कुर्सी पर बैठा हुआ जब वह कहेगा कि फलानी ज़मीन, मकान या फ्लैट बस आख़िरी बचा है, सिर्फ़ आपके लिए, यह झूठ होगा। वह उनकी जो क़ीमत या किराया बताएगा वह झूठ होगी। जब वह कहेगा कि उस मकान के मालिक माथुर साहब हमेशा के लिए विदेश जा रहे हैं, इसलिए औने-पौने में जल्दी से जल्दी उसे बेचना चाहते हैं, यह झूठ होगा, हो सकता है कि वह मकान माथुर साहब का हो ही न। जब वह आपसे कहेगा कि यह ज़मीन या मकान इससे सस्ते में मिल ही नहीं सकता और आप जल्दी फ़ैसला कर लें, क्योंकि उसके लिए तीन और जने भी इच्छुक हैं, यह सफ़ेद झूठ होगा। जब वह अपनी पत्नी को चिपकाकर उसके कानों में दिलरूबा, जानेमन जैसे प्यार भरे शब्द कहता है, वे झूठ होते हैं, वह अपनी पत्नी से नफ़रत करता है, और कभी बहुत ख़ुश होकर उन्मुक्त हँसी और आह्लाद-भरे स्वर में अपने बच्चों से जब वह कहता है, बोलो क्या चाहोगे, वह भी झूठ होता है, उस वक़्त वह चाहता है कि वे दूर चले जाएँ उसकी आँखों के सामने से। जब वह कहता है कि फलाने काम से दिल्ली जा रहा हूँ, तब वह मुज़फ़्फ़रनगर जा रहा होता है, या ज़्यादा से ज़्यादा मेरठ तक पहुँचकर उसे रुक जाना होता है। जब वह दाँतों में दर्द बताता है तब उसे सर्दी-जुकाम, मुँह में छाले या पेट में मरोड़ या गुदगुदी, कुछ भी हो सकता है, या कुछ भी नहीं। जीवन-भर कही गई उसकी हज़ारों-लाखों बातों में से कोई एक संयोगवश सच होती है, शेष सब झूठ होती हैं, या अनर्गल, कल्पनाप्रसूत और बेमतलब, इसमें इस धंधे में आने से पहले की गई बातों को छोड़ दिया जा सकता है। वह दोनों तरह से झूठ बोलता है। वह, जानते-बूझते, और वे, जो किसी न किसी तरह के अज्ञान से उपजते हैं, और वे तमाम ग़लत बातें भी, जो कई बार विद्वत्ता के आधिक्य का नतीजा होती हैं। उसे कभी रोता देखें तो दया दर्शाते हुए उसकी ओर न बढ़ जाएँ, वह अपने भीतर खिलखिलाकर हँसता हुआ दोहरा हो रहा होगा। अगर कभी वह बीमार पड़ा हो, और उसकी हाँफती, टूटती साँसों से संकेत मिले कि वह बस, जाने वाला है, तब भी डॉक्टर को बुलाने की कोई ज़रूरत नहीं, ठीक उस क्षण जब दम घुटने की आवाज़ आएगी और पास में खड़ी उसकी परेशान, पस्तहाल बीवी का विलाप फूट पड़ने को होगा, उसकी आँखों की पुतलियों में एक नामालूम हरकत होगी, फिर उसके होंठ हौले से हिलेंगे, एक डूबती, धीमी आवाज़ से वह कहेगा...पानी (शानदार एक्टिंग, एक भावावेगपूर्ण ड्रामा), फिर चंद क्षणों में वह फुर्ती से उठ बैठेगा, और अपने कुत्ते को आवाज़ देगा।
इतनी नफ़रत से भरकर केशव उन दिनों तमाम प्रॉपर्टी डीलरों के बारे में ऐसा कहा करता था। सन् 80-81 के उन दिनों में इस शहर में ज़मीनों की क़ीमतें अचानक आकाश छूने लगी थीं और कुकुरमुत्तों की तरह हर सड़क पर, हर गली में प्रॉपर्टी डीलरों की दुकानें खुल गई थीं। उसके बड़े भाई रजिस्ट्री ऑफ़िस की अपनी क्लर्की छोड़कर इस धंधे में आ गए थे, और अपने बीवी-बच्चों के साथ अलग रहने लगे थे, बाक़ी परिवार को उसके हाल पर छोड़कर साल भर में उनके पास लाल रंग की मारूति आ गई थी, और घर में न जाने क्या-क्या सामान। सर्वेश्वर उसकी बातें सुनकर कहता था कि यह सच है, मगर एक बेपरदा, खुलेआम ज़ाहिर सच, इसे इतना ज़ोर से कहने की क्या ज़रूरत है।...उन ख़ुशनुमा मौक़ों को छोड़कर, जब वह एक तरह के सागरीय उल्लास में, स्वप्निल आवाज़ में लगातार बोलता जाता था, ख़ून से उठती और ख़ून तक उतरती बातें। आमतौर पर नहीं और तब उसके बीमार चेहरे पर चिपकी उसकी रक्तमय आँखें बोलती थीं, मगर तब उसे समझ पाना, पढ़ पाना मुश्किल लगता था, जैसे कोई अज्ञात इबारत हो किसी प्राचीन भाषा में लिखी। कोने की चटाई पर वह लेटा रहता था, कमरे में होने वाली दूसरी बातों से बेख़बर, और शिरीष शर्मा, जिसकी लेखक बनने की तमन्ना थी, उसकी तरफ़ इशारा कर कहता था, “श...श..., दिवंगत आत्माओं से वार्तालाप में व्यस्त है वह, उसे मत छेड़ो।”
वह दुबला-पतला-सूखा लड़का था, जिसकी हड्डियों में बहुत कम फ़ास्फ़ोरस, मगर विचारों और सपनों का बहुत ज़्यादा आवागमन था, और उसके रक्त में अत्यधिक उफान और असंयम। हाथों का तकिया बनाए वह लेटा रहता था और उसके भीतर, आदमी की अमरता के गान जैसा बंजारनों का एक ढोल बजता रहता था या कोई कविता, जिसमें शब्द बेशक मामूली, सबसे साधारण हों, मगर ख़ूब रोशनी हो, चौंधिया देने वाली चमक, और जिसे पूरा पढ़ते हुए साँस रुकने लगे।...कोने में एक हीटर था जिस पर बार-बार चाय बनाई जाती थी। एक टूटी-सी चारपाई दूसरे कोने में। उस कमरे में वे सब पढ़ाई करने के बहाने से जुटते थे और बंद दरवाज़ों के पीछे दुनिया-जहान की बातें चलती रहती थीं—पत्तियों की सरसराहट की तरह चलने वाली लड़कियों के बारे में, दुनिया भर के साहित्य में से छाँटी गई उम्मीद जगाने और हसरत भड़काने वाली कविताएँ, और राजनीति और संस्कृति के बारे में, और बेस और सुपरस्ट्रक्चर के संबंधों जैसे फ़िलॉसॉफ़िकल सवालों पर। तीखी-चीख़ती आवाज़ों में बहसें होती थीं जिनका अंत होता था कभी एक शोकातुर क़िस्म की ख़ामोशी में जिसके बाद सब लोग आहिस्ता उतरते अँधेरे में धीमे-धीमे सिर झुकाए बाहर निकलते थे—कभी एक बेरोक, उल्लसित रक्त-प्रवाह के साथ बारात जैसी दमकती रोशनी में जिसमें आपका मन चाहता है ख़ूब शोर हो, चुप्पी को आईनों की तरह तोड़ देने वाला कोई तेज़ रफ़्तार संगीत, और थोड़ी-सी पी ली जाए। उसका घर कॉलेज के सबसे क़रीब पड़ता था और बाहर गली की तरफ़ खुलने वाला उसकी नीची, सीली छत और मटमैली दीवारों वाला कोठरीनुमा कमरा बैठकों और बहसों का एक स्थायी ठिकाना था। आते-आते वहाँ झाँक जाने का एक नियम-सा बन गया था। आदेश अवस्थी, जो अब बीमा एजेंट बन गया है, आलोक श्रीवास्तव डॉक्टर, एक बड़े नर्सिंग होम का मालिक, गुरविंदर सिंह बैंक में कैशियर, शिरीष शर्मा जो उत्तर-आधुनिकतावादी लेखक है, पहले मार्क्सवादी था और जिसका विवाह अभी पिछले दिनों हुआ है, बाक़ी सब जनों में सबसे देरी से और केशव, वह तो...और शुक्ला और घोष, और तमाम दूसरे लोग जो उस ज़माने में छात्र थे, वहाँ जुटते थे शाम से देर रात तक, उनमें से कोई कभी-कभी रात भर। वह पंद्रह साल पुराना समय था, अब मन के सुनसान तलघर में कहीं उसकी काठ-कबाड़-सी स्मृतियाँ हैं, जिन्हें कभी-कभी सपने में हरकत करता, पसीजा हुआ हाथ छूता, टटोलता, फिर वैसे ही रख देता है—पुरानी एक तस्वीर, एक फ़्रेम, एक शतरंज बोर्ड जिसके साथ कुछ टूटी-फूटी मुहरें, एक बेंत की कुर्सी जिसकी धज्जियाँ उड़ चुकीं, एक कभी की रुक चुकी दीवार घड़ी, और एक अपनी चिमनी की याद में सूख चुकी लालटेन का पिंजर, मगर वहीं कोने में पड़ी है एक वायलिन भी, जो वैसी ही बजती है, उतनी ही शानदार, केवल पहले से बहुत धीमी, मद्धिम आवाज़ में, जिसे सुनने को साँस रोकनी पड़ती है।
वह छोटी-छोटी ईंटों से कोई सौ साल पहले बना एक पुराना, जर्जर मकान था जिसमें दो मंज़िलें थीं और लैंसीस कमरों में दस या बारह किराएदार। ऊपर की मंज़िल में एक क़तार में सीलन-भरे, खस्ताहाल फ़र्श वाले बरसाती जैसे कमरे थे जिनमें कबाड़ भरा रहता था, और सर्वदा एक गहन चुप्पी। नीचे की मंज़िल में सर्वेश्वर के परिवार के अलावा दफ़्तरों के बाबू, एक टैक्सी ड्राइवर, एक मास्टर साहब, एक होम्योपैथी के डॉक्टर और एक अकेला आदमी रहता था जिसकी चाय की दुकान थी, और उसके कमरे पर हमेशा ताला लगा रहता था। वह पता नहीं कब आता और चला जाता था। हाँ, एक नाई की दुकान भी तो, एक ही कमरा जो उसका घर भी था, दुकान भी, उसमें आना-जाना पीछे की सड़क से होता था, वहाँ दीवार पर हीरोकट चेहरे थे और रेडियो हमेशा चीख़ता रहता था। और एक अकेले, अँधेरे कमरे में एक स्मगलर रहा था, मिचमिची आँखों और चौकन्ने चेहरेवाला एक अधेड़ आदमी जो बिल्ली की तरह दबे पाँव चलता था और बुलाने पर चौंककर देखता था—बीच-बीच में वह कई दिनों के लिए ग़ायब हो जाता था, उन दिनों में वह जंगलों में ग़ैर-क़ानूनी रूप से लकड़ियाँ कटवाता, लदवाता था, पुलिस और जंगलात के अफ़सरों को पटाता था, यही उसका धंधा था और उसे स्कूल में पढ़ी महादेवी वर्मा, दिनकर और अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की बहुत सारी कविताएँ याद थीं। कभी-कभी वह इन लोगों को चाय पिलाने अपने कमरे में ले जाता था। उसका परिवार बहुत दूर मुज़फ़्फ़र नगर में रहता था, जहाँ वह बताता था कि उसके भाइयों ने उसकी बेशुमार संपत्ति हड़प कर रखी थी, जिसे वापस पाने की वह कोशिश कर रहा था, और वह उसे वापस मिलने ही वाली थी, बस अगले चंद दिनों या महीनों में, उसके बाद तो ज़िंदगी भर ऐश होगी। वह कहता, “तुम लोग भी साथ चलना, मौज़ करना।” फिर वह कुछ पैसे उधार माँगने की कोशिश करता था। केशव ने एक बार कहा कि उस स्मगलर के मुँह से कविताएँ सुनना, अजीब, अशुभ जैसा कुछ लगता है, किसी अनिष्ट का सूचक और वह किसी दिन उसे गली में रोककर कहेगा कि वह उन सारी कविताओं को अपने दिमाग़ से पोंछ डाले, चुपचाप एक शरीफ़ आदमी की तरह कविताओं के विश्व से बाहर चला जाए—और वह ऐसा कर देता अगर उन्हीं दिनों कॉलेज में यह फुसफुसाहट न फैल जाती कि साहित्य पढ़ाने वाले एक प्रोफ़ेसर अपनी बीवी को लात-जूतों से पीटते हैं।
...वह मकान किसी ज़माने में किसी पुराने रईस या अँग्रेज़ की हवेली रहा होगा, और तमाम मालिकों के नाम दाख़िल-ख़ारिज होते हुए अब सेना से रिटायर एक सूबेदार साहब के पास था, जिन्होंने तीन कमरे अपने पास रखकर बाक़ी को किराए पर चढ़ा दिया था, जिनमें से दो में उनका परिवार रहता था, और एक में थी एक प्रिंटिंग प्रेस जहाँ के फीके अँधेरे में एक कंपोज़िटर लोहे के अक्षर बीनता रहता था, और बीड़ी और स्याही की गंध भरी रहती थी। रोज़ सुबह और शाम हर किराएदार के मकान के आगे अँगीठियाँ जलती थीं, कोयले की गंध और सफ़ेद धुआँ आँगन में और हर कमरे में भर जाता था और होम्योपैथी का डॉक्टर चीख़ते-चिल्लाते बाहर आता था और बकने-झकने के बाद अपना कमरा बंद कर लेता था क्योंकि उसकी दवाइयाँ धुएँ से ख़राब हो सकती थीं।
रात हो जाने पर वह मकान अंधकार में एक जगमग जलयान जैसा लगता था—हर खिड़की पर रोशनी का एक चमचमाता चकत्ता होता था और तमाम तरह की आवाज़ों का शोरगुल उठता रहता था—बिगुल की तरह बजता रेडियो, उसकी उठती-गिरती आवाज़, कोने से आती प्रिंटिंग प्रेस की लगातार खट-खट, किसी को चिल्लाकर बुलाता कोई, और बच्चों का रोना-चीख़ना। बाक़ी गली ख़ामोश रहती थी, केवल तेज़ हवा में खिड़कियों के परदे साँय-साँय बाहर को लपकते थे। सर्वेश्वर का कमरा बंद रहता था और भीतर बहुत तेज़ और ज़हीन दिमाग़ों वाले ऊपर लिखे और बहुत सारे लोग फुसफुसाहटों में बातें करते थे—बे-आवाज़ समय के भीतर जो पक रहा था उसके और बहुत दूर पर स्थित किसी सुनहरे सूर्योदय के बारे में, ताज़ा पढ़ी किताबों और मार्क्सवाद के बारे में और शहर भर की वे लड़कियाँ, या वह कोई एक लड़की, जो इतनी ख़ूबसूरत हो कि उसके लिए एक ही शब्द दिमाग़ में आए—नृशंस, जिसके बारे में जल्दी से बताना चाहता है यह लेखक कि वैसी एक मगर केवल एक ही लड़की हिंदुस्तान के नगर और क़स्बे में है, किसी अन्य समय में जीने वाली, अपने साम्राज्य की मलिका—और वे स्त्रियाँ, जिनकी बदचलनी के क़िस्से फैलने लगे थे क्योंकि वे आकाशगंगाओं तक जाना चाहती थीं, और...और सर्वशक्तिमान के बारे में। हाँ, ईश्वर भी और क्यों नहीं। बे-अक़्ल और बुद्धू लड़कों को छोड़कर उसके होने न होने के बारे में बीस-बाईस बरस की उम्र में हर व्यक्ति बहसें करता, करना चाहता है—सुबह से कुछ देर बाद की तीखी और अकलुष धूप जैसी उस उम्र में जब शरीर के गोपन भेद और महान किताबों के मतलब धीरे-धीरे खुलना शुरू होते हैं। तमाम प्रचलित धारणाओं की तरह यह झूठ है कि ईश्वर से मतलब केवल उन्हें होता है जिन्हें उम्र काफ़ी थका या छका चुकती है, यानी बूढ़ों को—कभी चुपके से बीस बरस के लड़कों की बातें सुनिए। अधिक से अधिक पच्चीस बरस की आयु तक उसके बारे में किसी न किसी नतीजे पर पहुँच जाया जाता है, या तो माता-पिता और परंपरा से मिलने वाला वही बहुत पुराना, पुराकालीन, एंटीकनुमा ईश्वर, विचारों को बहकने से रोकने वाला ख़ानदानी कनटोप या फिर आज तक के मानवीय इतिहास में जीवन की क्रूरता के प्रतिवाद में जो रचे, सोचे गए, उन ऊष्णतम विचारों और शक्तिशाली शब्दों का एक दीर्घावधि तक रक्त में घुलते रहना, किसी एक रात अँधेरे में तीन बजे की नींद में कोई आवाज़ सुनकर उठ बैठना और ईश्वर की बाधा को पार कर जाना। उस निःशब्द घुप अँधेरी रात में तुम देखते हो चारों तरफ़, हृदय में एक भयग्रस्त उथल-पुथल होती है, मन काँपता है, तेज़ हवाओं में फँसकर जैसे कोई पौधा या पत्ती फड़फड़ाती है—मगर फिर कहीं से आता है एक चिरयुवा अनश्वर हाथ, कंधों पर दोस्ताना तरीक़े से थपथपाता है। वह सब कुछ से विदाई लेने का क्षण होता है...निकल पड़ने का कंपास और एटलस लेकर, झोले में कुछ किताबों के साथ, दुस्साहसी, विश्वव्यापी यात्राओं पर।...मगर इसका सिर्फ़ इतना ही मतलब है, या होना चाहिए, कि तब ईश्वर अपने तमाम आध्यात्मिक और रहस्यमय अर्थों को तजकर मानवीय मायने धारण करता है। वह जो अँधेरे में कहीं से आता है अचानक, उसका भी नाम ख़ुदा होता है, कुछ और थोड़े ही—यूँ तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता उसे कुछ नाम दे दिया जाए। यह याद रखना ज़रूरी है, हमेशा, हमेशा, हमेशा...कि भरी दुपहरी लालटेन लेकर ईश्वर की मृत्यु की घोषणा जिस दार्शनिक ने की थी, बाद में उसकी किताबें फ़ासीवादियों की पाठ्य-पुस्तकें थीं—बेशक यह भुलाते हुए नहीं कि सारी दुनिया में फ़ासीवादियों की सबसे ज़्यादा, सबसे पहली कोशिश होती है कि ख़ुदा उनकी तस्दीक़ करे, उनके समर्थन में हाथ खड़ा करे।...ईश्वर उसके बाद भी सपनों में आता है, इस बार भिखारी-सा चेहरा, लाठी पकड़े, चीथड़े पहने और काला-कलूटा। केवल उसकी गहरी आँखें नीली, पूर्व से पश्चिम तक। आप उससे कुछ कहना चाहते हैं, मगर एक अधटूटी हकलाहट में कुछ कहा नहीं जाता, और वह चला जाता है और आपको बहुत शर्म आती है।
यह ईश्वर के बारे में इस नैरेटर के ख़्याल नहीं, सर्वेश्वर पुराण था जिसे वह कभी-कभी किसी गरमी की दोपहर में, जब सूर्य नीचे झुक आता था, और पृथ्वी की पपड़ी सुलगने लगती थी, कबाड़ी बाज़ार या लाइब्रेरी से लाई बहुत सारे ज्ञात-अज्ञात लेखकों, ज्ञानियों, विद्वानों की किताबों के बीच फ़र्श पर बैठकर सुनता था, जिसे सुनकर शिरीष शर्मा उसकी पीठ पीछे कहता था कि वह दरअसल ‘डीपली रेलीजियस’ है, और उस वक़्त जबकि वह एक उदास चुप्पी में मार्क्सवाद बुदबुदाता है, उस वक़्त भी उसके दिमाग में मेटाफ़िजिक्स होती है और, कि इस आदमी का जीवन बीतेगा बस ख़ूबसूरत शब्दों की खुसर-फुसर में, उनसे वह अपनी आजीविका भी कमा लेगा, मगर इससे ज़्यादा कुछ नहीं। और ख़ुदा न खास्ता वह लेखक, कवि या प्रोफ़ेसर अध्यापक जैसा कुछ बन गया तो उसके पाठकों और छात्रों की आत्माएँ और मस्तिष्क हरदम लबालब रहा करेंगे, एक महान रचनात्मक शक्ति से भरे हुए—मगर उस वक़्त जब वे तैयार होंगे इस देश और समाज में हर समय, हर घड़ी चल रही उस बहुत बड़ी लड़ाई में उतरने को, दिमाग़ में उसके शब्द और वाक्यांश दोहराते हुए, वह उस समय वैष्णोदेवी जाने वाली ट्रेन में बैठा होगा। शिरीष शर्मा ने सर्वेश्वर को इन बातों का जवाब देने का कभी मौक़ा नहीं दिया, मगर केशव ने उसे एक बार दीवार के पास रोककर साफ़-साफ़ समझाया था कि ये टिप्पणियाँ ओछी और बेवकूफ़ाना थीं, क्योंकि सर्वेश्वर की बातों से ऐसा कोई नतीजा नहीं निकलता, दूसरे, हर हाल में यह बेहतर है कि ईश्वर से शुरुआत में निबट लिया जाए क्योंकि शुरुआत में उससे कतराने का नतीजा होता है आख़िर में उसी तक लौट आना, और फिर ख़ुदा और ख़ुदा में भी फ़र्क़ होता है। शिरीष अपनी ख़ाली-ख़ाली आँखों से उसे ख़ामोश ताकता रहा था।
शिरीष शर्मा के बारे में थोड़ी तफ़सील से यह, कि वह इस मंडली में अभी कुछ ही दिन हुए दाख़िल हुआ था। उसका छोटा-सा गाँव पहाड़ों के पीछे कहीं था जहाँ इंटरमीडिएट की पढ़ाई करने के बाद आगे की पढ़ाई करने वह यहाँ आया था और बतौर पेइंग गेस्ट पी.डब्ल्यू.डी से रिटायर एक इंजीनियर साहब की बड़ी-सी शानदार कोठी के एक कमरे में रहता था। इन इंजीनियर साहब के पिता उसी के गाँव में किसी सुदूर ज़माने में रोज़ी-रोटी की तलाश में यहाँ आए थे, उन्हें गुज़रे हुए भी अब एक लंबा अरसा हो चुका था। अपने गाँव का जब वह ज़िक्र करता था तो लगता था कि ग्रहों के शुभाशुभ कितने योग जुड़े हैं उससे, मसलन वहाँ धीमे-धीमे हिलते पेड़ थे, पहाड़ी हवाओं में फँसकर जो यूँ फड़फड़ाते थे जैसे निर्बाध भागती एक अश्व-सेना...उसके घर के सामने एक चुपचाप नदी बहती थी और उसमें सूर्य के परावर्तित होते सिंदूरी रंग के प्रकाश में शिकारी कुत्तों की तरह एक-दूसरे का पीछा करती, मगर एक ही विराट रचना के अंशों की तरह विलक्षण रूपाकृतियाँ प्रकट होती थीं, उस नदी पर बने एक पुराने पुल पर चढ़ना ऐसा होता था जैसे किसी भग्न रोमन क़िले की कगार पर, और वहाँ से नीचे झाँकना ज्यों काल में ताकना, मतलब यह कि बेहिसाब अभिव्यक्तियाँ जीवन की—मगर कई बार कहने के बावजूद वह कभी किसी को अपने गाँव नहीं ले गया जिसकी वजह वही जानता होगा। वह किसी को कभी अपने कमरे पर भी नहीं ले गया, क्योंकि वह बताता था कि वह मैला-कुचैला कमरा है, और वहाँ चाय का भी कोई इंतज़ाम नहीं है, हालाँकि सबको मालूम था कि उसकी चाय, खाना, नाश्ता किराए में शामिल है, और उस जे.ई. की बेटी (उसका नाम भी मालूम था सबको, डॉली) जब उसके कमरे में नाश्ता लेकर आती है तो वह उसकी उँगलियाँ सहला देता है, और वह लड़की भी...और कोई आँख मारकर कह भी देता था, यार सबसे ज़्यादा मज़े तो तेरे ही हैं। यह लड़की मुहल्ले के एक हीरोनुमा लड़के के साथ अभिनेत्री बनने मुंबई भागकर जा चुकी थी, और उनके पीछे-पीछे जे.ई. भी गया था और हफ़्ता-भर उसे हर स्टूडियो में और समुद्र तटों पर तलाशता रहा था। आख़िर वह फ़िल्मिस्तान स्टूडियो के बाहर उसी लड़के के साथ एक चाय की दुकान में चाय पीती मिली थी। वह उसे समझा-बुझाकर किसी तरह वापस लाया था, लड़का वहीं रह गया था।...शिरीष शर्मा उन सबमें सबसे ज़्यादा ज़हीन था, सबसे ज़्यादा पढ़ता था, और उसके पास बहुत तेज़, तर्कशील, विश्लेषणपरक दिमाग़ था, हालाँकि दूर की कौड़ी लाने और अलग दिखने की चाह में अक्सर उसके तर्क बेहूदे होते थे, पिट जाने के बाद भी जिन्हें वह पीटता चला जाता था, मसलन, किसी ने एक बार कहा कि क्रांति के बाद सोवियत संघ से गोगोल की ‘ओवरकोट' के मुक़ाबले की एक भी रचना नहीं आई, अधिकतर जो लिखा गया वे ट्रैक्टरों और सामूहिक फ़ार्मों पर लिखी कचरा कविताएँ थीं। सर्वेश्वर ने इसका जवाब दिया यह कहकर कि क्रांति के बाद शताब्दियों में पहली बार लाखों जनगण को ज़ुबान मिली थी और यह स्वाभाविक था कि पहली कोशिश में उनकी रचनाएँ रद्दी हों, और किसी ने शोलोखोव, गोर्की, मायकोवस्की, पास्तरनाक और येस्येनिन का ज़िक्र करना चाहा, मगर शिरीष शर्मा, सुनिए, शिरीष शर्मा कहता है कि उन तमाम कूड़ा रचनाओं को क्रांति की सफलता के प्रमाण के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि महान गौरवग्रंथ वहीं रचे जाते हैं जहाँ समाज पाप और पतन में डूबा होता है। इस पर केशव ने उसे इतनी ज़ोर से चीख़कर चुप कराया कि उसका चेहरा फक पड़ गया।
बहसें चलती रहती थीं, और बीच-बीच में सर्वेश्वर तमाम उत्सुक चेहरों और तन्मय तकती आँखों के जमाव के बीच अपनी शांत और अविचलित आवाज़ में कविताएँ, प्रेम से सराबोर कविताएँ होती थीं, अग्निशिखा-सी उन काल्पनिक कन्याओं को संबोधित, जिनकी आँखों में विषाद और कामनाएँ होती थीं। यह श्मशान में मंत्रपाठ की तरह किन्हीं गुमसुम रहस्यों को टटोलना था, या दुरात्माओं को भगाने के लिए सहस्त्रनाम का पाठ। कविताओं में सबसे प्रिय लगता था ‘प्रिय’ शब्द, जब भी वह आता था हर्षनाद की एक हल्की गूँज-सी उठती थी और ‘द्वंद्ववाद’ शब्द बातचीत में सबसे ज़्यादा आता था। कविताओं की अति हो जाने पर घोष बीच-बीच में ज़रूर कह देता था कि यार किस चक्कर में पड़े हो, यह बताओ कि पढ़ाई पूरी होने के बाद धंधे-पानी का क्या जुगाड़ होगा। यह घोष, जिसके पिता की लोहे के सामान और हार्डवेयर की एक छोटी-सी दुकान थी, कॉमर्स का छात्र था और शाम को लाइब्रेरी जाकर पूरे मनोयोग से ‘फ़ाइनेंशियल एक्सप्रेस’ जैसे अख़बार और ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ का बिजनेस एंड इकॉनामी पेज पढ़ा करता था, माथे पर गहरी लकीरें डालकर किसी जासूस की तरह टोह लेते हुए कि मुल्क की अर्थव्यवस्था किस तरफ़ जा रही थी और उसका अगला मुकाम कौन-सा था। वह अक्सर रात के समय आता था और कमरे में बे-आवाज़ प्रवेश करता था, दीवार पर उसकी वृहत्काय, काली छाया पड़ती रहती थी। कोने में खड़ा रहकर वह कहता था कि तुम लोग ब्रेख्त और प्लेखानोव के साथ क्या मगजमारी करते हो, जिसका कहीं से कोई जवाब न आने पर, देर तक ख़ामोशी छायी रहने के बाद, वह अपने कुबड़े कंधों और काली छाया को समेटकर चुपके से अँधेरे में चला जाता था।
बीच का जर्जर, झूलता दरवाज़ा हमेशा बंद रहता था। उस दरवाज़े में छेद और दरारें थीं, और ठीक उस समय, जब किसी मुश्किल-सी लगती कविता के मानी मुट्ठी में पकड़ने को ही होता था हाथ, पता नहीं किसका चेहरा झाँकता नज़र आ जाता था, किसी बदसूरत डायन जैसा, चुड़ैल जैसा चेहरा... यह ग़रीबी के लिए लिखा जा रहा है—सबकी आँखों में घूरकर देखता था, इस तरह कि उनकी हँसी उनके चेहरे पर ही जम जाए। सर्वेश्वर का विकलांग बाप दिन-भर धूप में एक तख़्त पर लेटा रहता था और अपने बड़े बेटे और उसकी बीवी को माँ-बहन की बुरी-बुरी गालियाँ देता रहता था कि साले हरामी हैं, कामचोर, निकम्मे। उसके भाई का एक साल का बच्चा अपने घुटनों पर आँगन में इधर-उधर डोलता रहता था, जहाँ-तहाँ टट्टी कर देता था। भाई बेरोज़गार था, आस-पड़ोस में छोटे-मोटे काम करता था, जैसे शादियों में शामियाने, सजावट आदि का इंतज़ाम और दो-चार सौ रुपए बना लेता था। बाप बिजली विभाग से रिटायर्ड था, लोग कहते थे कि वह बिजली के धक्के से एक टाँग खो बैठा था और फिर निकाल दिया गया था। एक बहन थी जिसकी उम्र उस समय बारह-चौदह साल थी। उसे बेहोशी के दौर पड़ते थे, जिसका इलाज करने को पड़ोस के उन डॉक्टर साहब की गोलियाँ बिल्कुल बे-असर साबित हो रही थीं। तब उसका चेहरा एकदम पीला पड़ जाता था। बहुत देर तक पानी के छींटे मारने के बाद वह होश में आती थी और पानी एकटक, थकन-भरी आँखों से आस-पास जमा लोगों को ताकती थी। उन दिनों उसके भाई की पत्नी फिर पेट से थी और केवल पेटीकोट में आँगन में इधर-उधर चलती हुई वह बहुत भद्दी नज़र आती थी।
पंद्रह साल पुराने वे सभी दिन एक जैसे थे इसलिए कभी-कभी लगता था जैसे समय एक जगह ठहर गया हो, मगर वह लगातार बीतता जा रहा था, वैसे ही जैसे सिनेमा में प्रोजेक्टर के पहिए अपनी उसी रफ़्तार से चलते जाते हैं, उस समय भी जब पर्दे पर कोई जमा हुआ फ़्रीज़ शॉट दर्शाया जा रहा हो। लेकिन भीतर के गहराइयों में कहीं इच्छाओं की हलचल शुरू हो चुकी थी, जिन्हें बढ़ते जाना था अब एक जल्दबाज़ी और उतावलेपन के साथ। सर्वेश्वर के अलावा सब लोग किसी रोमांच के घटित होने की प्रतीक्षा में थे। वे नाटकीय और आश्चर्य-भरी घटनाओं के जमावड़े और शोरगुल के बीच एक रोमांच से दूसरे तक दौड़ते हुए जाना चाहते थे, इंतज़ार था बस, कि परवरदिगार आए सीटी बजाए। शिरीष शर्मा चाहता था अपने प्रथम संकलन का प्रकाशन। घोष का तय था कि बी.कॉम.के बाद अपने पिता की दुकान पर बैठेगा। आलोक श्रीवास्तव सी.पी.एम.टी. में सफल होने के बाद डॉक्टरी पढ़ने किसी दूसरे शहर चला गया था। कुछ लोग प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे। आदेश अवस्थी की जेब से एक बार बीड़ी निकालने के साथ गिरा था बंपर प्राइज़ वाला कोई लॉटरी का टिकट। उन्हीं दिनों एक दुर्घटना हुई थी। केशव के बड़े भाई अपने अनाड़ीपन में अपनी लाल मारूति को पहाड़ों में बहुत ऊँचाई पर ले गए थे जहाँ सड़कें हिमपात से भीगी, शीशे की तरह चिकनी थीं। कार सैकड़ों फ़ीट नीचे पहाड़ की तली में जा गिरी थी, और उतनी ऊँचाई से नज़र आने लगा था ख़ून का एक छोटा-सा छींटा। उसमें से लाश निकालने के लिए अगले दिन और तेज धूप का इंतज़ार करना पड़ा था। रोने-धोने का दौर समाप्त होने के बाद केशव की भाभी ने थकान लदे चेहरे और थमे हुए आँसुओं के साथ उससे विनती की थी कि वह मकानों-ज़मीनों के अधूरे छूट गए सौदों को पूरा कर दे जिनमें उनका अपना भी काफ़ी पैसा फँसा हुआ था, इसमें अपना कमीशन वह जितना चाहे ख़ुद तय कर ले, मगर अचानक टूट पड़ी उस विपदा में वह उनकी मदद न करेगा तो वे लोग...।
सर्वेश्वर सब लोगों के बीच से, चलती बहस के बीच, एक दिन बुलबुले की तरह ग़ायब हो गया। उसे पूरब के एक सीमांत ज़िले के किसी दूरदराज़ गाँव में स्कूल मास्टर की मामूली-सी नौकरी मिली थी, वह बाक़ी सबको बिना बताए, बिना किसी से मिले, चुपके से वहाँ चला गया था। उसके बाद वह कभी लौटकर नहीं आया, अपने घरवालों से मिलने भी नहीं। अपने घरवालों को वह शुरू के दो-तीन साल दो-चार सौ रुपए भेजता रहता था, फिर वह नौकरी पता नहीं किन कारणों से उससे छिन गई, मगर उसके बाद भी वह वापस नहीं आया। बस आधी-अधूरी ख़बरें आती थीं जिन्हें अंदाज़ों से पूरा करना होता था। कई सालों के बाद सुना गया कि उसने वहीं पर विवाह भी कर लिया था, फिर यह कि वह बेहद तंगी में था, मतलब यह कि एक जकड़दार जीवन के बीच, मगर शायद हताश या परेशान नहीं, इसलिए कि वह जहाँ भी था, अपने जैसे बहुत सारे साथियों के बीच था। वे कुछ राजनीतिक, विचारात्मक काम करते थे—नुक्कड़ नाटक, सभाएँ, गोष्ठियाँ, छात्रों और दिहाड़ी पर खटने वालों के बीच कुछ काम, एक छोटे से अनियतकालीन अख़बार का प्रकाशन भी—वह और उसकी पत्नी दोनों, और उनके बहुत सारे संगी-साथी। उनके पास फुरसत कहाँ थी। इस शहर से उसका नाता पूरी तरह टूट चुका था। कभी वहाँ से छपने वाली पत्रिका में उसका कोई लेख, उसके बारे में कोई समाचार देखने को मिल जाता था। प्रकाश और छाया के बीच की दरारों में से साल गुज़रते गए, निःशब्द बेहवा दुपहरियाँ और कालिख-भरी रातें। इस बीच यहाँ पर उसका वह सौ साल पुराना मकान गिर गया था—बीच में इस इलाक़े में जो एक बड़ा भूकंप आया था, जिसमें व्यापक विनाश हुआ था और उसकी ख़बरें अख़बारों में छायी रही थीं—उसमें वह एक मलबे के ढेर में बदल गया था। सर्वेश्वर उस समय भी नहीं आ पाया था, हाँ उसने अपने एक साथी को ज़रूर भेजा था जो कुछ दिन उसके घरवालों के साथ रहा था। मकान के मलबे में फँसकर बहुत सारे लोग घायल हुए थे। होम्योपैथी के डॉक्टर छत के एक बड़े टुकड़े की चोट से दवा की बारीक़ सफ़ेद गोलियों और अल्कोहल की गंध के बीच मारे गए थे। वह स्मगलर भी घायल हुआ था और मरहम-पट्टी के बाद सीधे मुज़फ़्फ़र नगर वापस चला गया था। सर्वेश्वर का बाप भी घायल हुआ था क्योंकि वह बैसाखी समेत जल्दी से बाहर नहीं भाग पाया था। वह दस-पंद्रह दिन अस्पताल में रहा था। फिर वे बाद में किसी दूसरे मुहल्ले में किसी और मकान में किराए पर रहने लगे थे। मकान के मालिक सूबेदार साहब को एक खरोंच भी नहीं आई थी, न उसके घरवालों में से किसी को, और उसे यह फ़ायदा हुआ था कि बरसों से जमे हुए किराएदार रातों-रात मकान ख़ाली कर गए थे और अब वहाँ कुछ भी बनवाया जा सकता था, कोई मार्केटिंग कॉम्पलेक्स या अठमंजिला इमारत। पंद्रह साल के बाद आदेश अवस्थी के पास सर्वेश्वर की एक उत्तेजित, भड़कते हुए आवेगों से भरी चिट्ठी आई थी जिसमें उसने लिखा था कि इस जगह से एक लंबी अनुपस्थिति ने उसे किस क़दर व्याकुल कर दिया था, और वह चंद दिनों के लिए घर आ रहा था। उसकी बहन की शादी थी। उसके जाने और आने के बीच जो समय बीत गया था वह पंद्रह साल का एक बेहद, बेहद लंबा वक़्फ़ा था, मगर दूसरी तरह से देखा जाए तो, बस थोड़ी ही देर तो।
उस दिन सुबह से बारिश हो रही थी। अवस्थी ने एक बेचैन, ऐंठी हुई नींद के बीच अपनी आँखें खोलीं, और कमरे के सूनेपन में उसके दिमाग की परतें फाड़ते, जैसे भागकर चले आए बहुत सारे डरावने शब्द और विचार। वे रात भर कुत्ते की तरह उसके सिरहाने बैठे रहते थे... सुबह बढ़ाते थे अपनी लारदार ज़ुबान और दोस्ताना पंजा। वह बीमा एजेंट था, और उसका काम इन्हीं शब्दों से चलता था जैसे दर्ज़ी का कैंची से चलता है और नाई का उस चमड़े की पट्टी से जिस पर रगड़कर वह अपना उस्तरा चमकाता है। वह दिन-भर शहर के घरों, दुकानों, दफ़्तरों में लोगों से मिलता, उन्हें एक हॉरर कथा सुनाता घूमता था कि मौत दबे पाँव उसके पीछे चल रही थी, कभी भी, कहीं भी झपट्टा मारने को तैयार, और वे मर गए तो उनके बाल-बच्चे...इस कहानी को वह अधिक से अधिक डरावनी बनाता था, और होता यह था कि जब वह यह कहानी सुनता था तो ख़ुद सुनता भी था, और इसकी वजह से उसके भीतर व्याप गया था एक खिंचा हुआ सन्नाटा और काई की तरह जमी रहने वाली घिग्घी। वह हर दूसरे-चौथे महीने अपने नाम से एक नई पॉलिसी लेता था, ख़ुद अपना सबसे बड़ा कस्टमर था वह और उसका लगभग सारा वेतन बीमे की क़िश्तों में चला जाता था। वह उठकर धीरे-धीरे सुबह के काम निपटाने लगा। वह बारिश रुकने की राह देख रहा था और सोच रहा था कि दफ़्तर जाए या नहीं, कि हाथ में छाता पकड़े वह ठेकेदार आया था जो उसका मकान बनवा रहा था। वह तीन-चार तरह की टाइलें उससे पसंद करवाने लाया था जो उसके बाथरूम में लगनी थीं। तभी पड़ोस की एक बच्ची एक गीली चिट्ठी गेट के पास फेंक गई, यह कहकर कि पिछले दिन डाकिया ग़लती से उनके घर दे गया था। बारिश में जाकर उसने वह चिट्ठी उठाई और भागते हुए वापस आया। वह काफ़ी देर तक उसकी हैंडराइटिंग पहचानने की कोशिश करता रहा। एक साँस में चिट्ठी पढ़ डालने के बाद ठेकेदार से उसने कहा कि वह सब उठाकर ले जाए। यह सब बाद में देखा जाएगा।
“चिट्ठी में कोई ऐसी-वैसी ख़बर है?” ठेकेदार ने जाते-जाते पूछा।
“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, सब ठीक है। अभी आप चलें।” उसने कहा।
उसके घर में बड़े-बड़े बालों और बॉर्बी डॉल जैसे चेहरे वाली एक गोरी चिट्टी औरत उसकी बीवी जो एक बड़े शहर और अमीर बाप की लड़की थी, खिड़की के पास मूढ़े पर बैठकर बाहर को देख रही थी, झमाझम बारिश। उसके पास तिपाई पर टेलीफ़ोन था। अवस्थी ने डॉ. आलोक श्रीवास्तव को फ़ोन मिलाया जो उस वक़्त शहर के दूसरे किनारे पर अपने क्लीनिक में एक काफ़ी मांसल मरीज़ औरत से झींक रहा था। वह मोटी औरत बदमिज़ाज और चिड़चिड़ी भी थी और कह रही थी कि वह उससे छह महीने से इलाज करवा रही थी, अभी तक उसके हाथ-पैरों की झनझनाहट ठीक क्यों नहीं हुई, और उसके ख़ून से लबालब भरे सीने में ख़ाली-ख़ाली-सा क्यों लगता है, मगर मुँहलगी थी क्योंकि डॉक्टर के एक परिचित की बीवी थी। “कौन?” डॉक्टर ने फ़ोन में कहा। अवस्थी ने कहा, “मैं अवस्थी।” “कौन अवस्थी?” डॉक्टर ने फिर कहा।
“अवस्थी को छोड़ो पहले मेरी बात का जवाब दो।” मोटी मरीज़ औरत ने बीच में कहा, बे-तमीज़ जो थी, और बे-सब्र। “मैं आदेश अवस्थी। मेरी आवाज़ नहीं पहचानी?” “बारिश की वजह से आवाज़ साफ़ नहीं आ रही।” “सर्वेश्वर आ रहा है। शायद कल या परसों, उसकी बहन की शादी है।” “कौन सर्वेश्वर?” यह उसकी बीवी थी जो टेलीफ़ोन पर कान लगाए हुए थी। “कौन सर्वेश्वर?” डॉक्टर ने पूछा। “अब यह भी बताना होगा? सर्वेश्वर...” अवस्थी ने कहा। “कौन सर्वेश्वर?” बीवी ने फिर कहा, वह उससे टेलीफ़ोन छीन लेना चाहती थी, मगर वह उसे एक हाथ से किसी तरह रोकते हुए जल्दी-जल्दी बात करता रहा। उधर उस मोटी मरीज़ औरत ने फिर बीच में कुछ कहना चाहा। डॉक्टर ने फ़ोन पर हाथ रखकर उसे झिड़कते हुए कहा, “चुप बैठिए थोड़ी देर।” “कौन है यह सर्वेश्वर?” बीवी ने फिर एक चीख़ती आवाज़ में कहा। अवस्थी अपने को न रोक सका, उसने एक हाथ से उसे पीछे धकेलते हुए झुँझलाकर कहा कि यार ज़रा चुप रहो, बात करने दोगी?
बीच में दो झगड़ालू और कटखनी औरतों की चिल्ल-पों से परे उसने किसी तरह यह ख़बर दूसरी तरफ पहुँचाई कि सर्वेश्वर दो-एक दिनों में आ रहा है। जब उसने टेलीफ़ोन रखा तो उसकी बीवी बिल्ली की तरह उस पर झपटी और पास के दीवान पर उसे गिरा दिया। “कौन है यह सर्वेश्वर, कब आ रहा है, कहाँ से आ रहा है, मुझे सारी बात मालूम होनी चाहिए।” उसने कहा। इसके पीछे की कहानी दरअसल यह थी कि उसके दोस्तों में काफ़ी आवारा, शराबी और लेखकनुमा लोग थे। शादी के बाद वह एक साल तक सब कुछ ख़ामोशी से देखती रही थी, और फिर उसे कहना शुरू कर दिया था कि वह यहाँ से ट्रांसफ़र कराए, और उसके दोस्तों में से किसी के आने पर वह उनके मुँह पर दरवाज़ा बंद कर देती थी। यही नहीं उसने मुहल्ले के दो-चार लड़के भी तैयार कर लिए थे कि वे कहीं आस-पास नज़र आएँ तो उन्हें छिपकर कंकड़ मारे जाएँ तो वह उन्हें इनाम देगी। अब कोई नहीं आता था। उसने कहा, “तुम्हारे सारे फालतू-नाकारा दोस्तों को मुश्किल से भगाया है। अब दुबारा वहीं चक्कर शुरू हुआ तो मुझे भाग जाना होगा।” वह इस बात पर भी नाराज़ थी कि वह इस शहर में मकान बनवा रहा था, कहीं और क्यों नहीं, जहाँ लेखकों-कलाकारों का कोई चक्कर न हो। उधर वह मोटी औरत मिट्टी के ढूह की तरह अब बिल्कुल ख़ामोश बैठी थी। डॉक्टर ने उससे कहा कि आप भीतर जाकर दवा ले लें। फिर उसने घंटी बजाकर अटेंडेंट को बुलाया और कहा कि मैं आधे घंटे के लिए जा रहा हूँ। मरीज़ों को रोके रखो। वह अपने घर गया जो क्लीनिक से जुड़ा हुआ था, और बेडरूम में जाकर बड़े-से बिस्तर पर ख़ामोशी से लेट गया, ताबूत में लेटने की तरह, उसकी इच्छा शीशे में अपना चेहरा देखने हुई, आँखों के नीचे की लकीरों से अंदाज़ा लगाने की कि वह कौन-सा समय था, और कितनी उम्र बीत चुकी थी, कितनी बाक़ी बची थी।
अवस्थी की बीवी ख़राब मूड में बिस्तर पर औंधी लेटी हुई थी। वह स्टेट बैंक ऑफ़ पटियाला में गुरविंदर को फ़ोन मिला रहा था, जो उस समय इतने सारे रुपयों के बीच था कि उन्हें एक के ऊपर एक लगाया जो छत को फोड़ती वह मीनार काफ़ी ऊँचाई तक जाती। फ़ोन पाकर उसने कहा, “सर्वेश्वर! इतने सालों के बाद? कब आ रहा है?”
“कल या परसों ही। चिट्ठी कुछ लेट मिली है।”
“अच्छा? इतने सालों के बाद उससे मिलना पता नहीं कैसा लगेगा। उसने तारीख़ नहीं लिखी?”
“उसकी बहन की शादी छह तारीख़ को है, परसों। उस दिन तो वह यहाँ होगा ही। उसके एकाध दिन के बाद हम लोग, सब पुराने दोस्त, कहीं पर मिलेंगे। एक लंबी बैठक होगी, रात भर। ठीक है न! बस यही सूचना देनी थी।”
“बाक़ी सब लोगों को बता दिया है?”
“मैं कोशिश कर रहा हूँ, फ़ोन पर! हाँ, शिरीष को तुम बता देना, उसके पास टेलीफ़ोन नहीं है। उसका घर तुम्हारे घर के नज़दीक ही है।”
फ़ोन में केवल गूँ...गूँ...की गूँजती आवाज़ थी। सींखचों वाली खिड़की के पार कुछ डबडबाई आँखें उसे ताक रही थीं। उसने खिड़की बंद कर दी और मैनेजर के नाम आधी छुट्टी की दरख़ास्त लिखी। परेशान चेहरे और अपलक आँखों वाला मैनेजर अपने केबिन से उसके पास आया और पूछा, “क्या बात है? अचानक छुट्टी किसलिए?”
“मेरी तबीयत ठीक नहीं है। मुझे सिर में चक्कर आ रहा है। कोई आदमी यहाँ लगाइए जो सारे रुपए गिन ले।”
खिड़की के परे धक्का-मुक्की शुरू हो गई थी। मैनेजर ने हताश भाव से भीड़ की तरफ़ देखा और उससे कहा कि वह खिड़की पर खड़े लोगों को निपटाए, वह कोई इंतज़ाम करता है। थोड़ी देर के बाद एक अन्य व्यक्ति आया और तेज़ी से उँगलियाँ चलाते हुए नोट गिनने लगा। वह चुपचाप बैंक के बाहर चला आया। बाहर अब बे-रौनक़ आसमान था जहाँ बवंडर बादलों को धक्का मारकर छितरा रहा था और सूर्य की पतली तप्त किरणें झाँकने लगी थीं। बरसात अब बिल्कुल रुक चुकी थीं उसने एक टैंपो पकड़ा और सवारियों के बीच फँसा हुआ, वाहन की थरथराहट के साथ काँपते हुए, थोड़ी ही देर में अपने घर पहुँच गया। यह तीन कमरों का छोटा-सा मकान शहर के बिल्कुल बीच एक कॉलोनी में था, जहाँ उसका परिवार रहता था—माँ-पिता, पत्नी और दो बच्चे।
“आज इतनी ज़ल्दी कैसे?” उसकी पत्नी ने उसे देखकर पूछा।
“कुछ नहीं, तबीयत ख़राब थी, छुट्टी लेकर आ गया। कोई ऐसी चिंता की बात नहीं है। मैं थोड़ी देर भीतर जाकर लेटता हूँ। बच्चों से कह देना, शोर न करें। दोपहर के बाद शायद घोष आएगा, तब मुझे उठा देना।”
वह भीतर के कमरे में जाकर लेट गया, शवासन की मुद्रा में। वह एक घंटे तक सोता रहा, एक स्वप्न देखता रहा। उस स्वप्न में भी वह उसी मुद्रा में लेटा हुआ था जिसमें सचमुच और उस स्वप्न में उसे नींद नहीं आ रही थी। वह बे-नींद सपना उसकी नींद के भीतर इस तरह घुस रहा था, जैसे खंज़र म्यान में सरकता है, खटाखट...बहुत देर के बाद जब वह उठकर बैठा तो उसने जाना कि वह सोया नहीं था, एक पल के लिए भी।
घोष के घर में उस वक़्त तेज़ आवाज़ में टेलीफ़ोन बजा था, जिसमें वहाँ से दो-तीन घंटे की दूरी पर एक दूसरे शहर से बदहवास आवाज़ में यह सूचना थी कि वहाँ रहने वाली उसकी बहन उस दिन सुबह छत पर कपड़े फैलाते हुए सीढ़ियों पर फिसलकर लुढ़कते हुए नीचे आ गिरी थी और ख़ून में सने कपड़ों में तेज़ी से अस्पताल ले जाई गई थी। दो-तीन घंटे के ऑपरेशन के बाद वह बच गई थी मगर अभी तक बेहोश थी, मगर उसके गर्भ का बच्चा मर चुका था। आप फ़ौरन पहुँचने की कोशिश करें। घोष स्तब्ध, टेलीफ़ोन को घूरता रह गया था, एक घुटी-सी चीख़ उसके गले से निकली थी। फिर वह भीतर के कमरे में लपका था जहाँ उसके पिता उस वक़्त अपनी दोपहर की नींद ले रहे थे। वह चुपचाप उन्हें देखता रहा, एक विचित्र तरीक़े से स्याह पड़ गए उनके नाक-नक़्श और मृतक की-सी निष्प्राण नींद। अभी दो महीने पहले ही तो उनकी माँ, हमेशा दुखियारी, खीझी हुई, परेशान रहने वाली माँ—तब भी जब उनकी पुरानी, पुश्तैनी दुकान से कुछ ख़ास निकलता न था और तंगी बनी रहती थी, और फिर उसने इतना सारा पैसा कमाकर दिखा दिया था, तब भी... हमेशा एक पीली, भूरी, मनहूस उदासी का एप्रन पहने रहने वाली—उन्हें छोड़कर गई थी। जब वह मरी थी केवल उस वक़्त उसने उतारा था अपना वह जीवन भर का लबादा, और उसकी लाश थी स्फटिक-सी सफ़ेद। उसके जाने के बाद घर में मरघट जैसा सन्नाटा छाया रहता था और नींद में चलते आदमियों या अंधों जैसी वीरान आँखों से वे एक-दूसरे को ताकते रहते थे। अचानक उसे कुछ याद आया और वह कपड़े बदलकर बाहर निकाला और चंद ही क्षणों में सड़क पर चला आया। सड़कों पर गड्ढों में बारिश का पानी जमा था, बीच में कहीं-कहीं सड़कें पूरी तरह पानी में डूबी हुई थीं। गुरविंदर के घर तक पहुँचने में उसे काफ़ी समय लग गया।
“कहाँ हैं सरदार जी?” उसने भीतर घुसते ही कहा।
“भीतर लेटे हैं। आप बैठो, मैं उन्हें बुलाती हूँ।” गुरविंदर की पत्नी ने कहा।
गुरविंदर सिंह भीतर के कमरे के दरवाज़े पर नज़र आया। वह बहुत थका और पीला लग रहा था। उसकी आँखों में अधूरी नींद थी।
“मैं इस समय बहुत जल्दी में हूँ। तू वह बैंक में खाता खुलवाने वाले फ़ॉर्म लाया?”
“नहीं, मैं भूल गया।”
घोष हताश भाव से सोफ़े पर बैठ गया।
“भूल गया का क्या मतलब? आज तय नहीं हुआ था कि... मैं केवल इसी काम के लिए तेज़ी से भागता आया हूँ, जबकि आज बहुत बुरी ख़बर आई है। मेरी बहन का एक्सीडेंट हो गया है, वह हॉस्पिटल में बेहोश पड़ी है। अभी पिताजी के साथ वहाँ जाना है। अभी उन्हें बताया भी नहीं है।”
“क्यों, क्या हुआ? बहन बेहोश पड़ी है, और तूने घर में किसी को बताया नहीं, और तू खाता खुलवाने के लिए...”
“अभी टेलीफ़ोन पर ख़बर आई थी। मैंने सोचा पहले उनके दस्तख़त करवा लूँ, फिर बताऊँ, लेकिन तू फ़ॉर्म ही नहीं लाया।”
“क्यों? बताया क्यों नहीं?” गुरविंदर ने ग़ुस्से में कहा।
“यार, मदर के जाने के बाद उनकी किसी चीज़ में दिलचस्पी नहीं रह गई है। अध्यात्म ज़ोर मारने लगा है। हरिद्वार, ऋषिकेश में किसी आश्रम में जाकर रहने की बात करते हैं। अब यह ख़बर सुनकर सीधे बोरिया-बिस्तर उठाकर चल ही न दें, फिर... अच्छा पार्टनरशिप डीड पर ही दस्तख़त हो जाएँ, मैं साथ लाया हूँ। तू भाभी को बुला...”
सरदारनी किचन में जाकर चाय बनाने लगी थी, बाहर की बातचीत पर कान लगाए हुए।
“नहीं, आज कोई दस्तख़त नहीं होंगे। तुझे फ़ौरन जाना चाहिए। आज नहीं...
“लेकिन क्यों?”
“बस आज नहीं, फिर देखा जाएगा।”
“लेकिन आज क्यों नहीं?”
“आज बहन ज़िंदगी और मौत के बीच है। ऐसे समय में यह सब नहीं, तुझे फ़ौरन वहाँ जाना चाहिए।”
गुरविंदर सिंह के पिता का एक छोटा-सा ज़मीन का टुकड़ा शहर से कोई दस-बारह कि.मी. की दूरी पर था। वह इलाक़ा इंडस्ट्रियल एस्टेट के रूप में विकसित किया जा रहा था। घोष ने उससे कहा था कि वह ज़मीन वह उसे बेच दे, जितना उसका दाम है, चाहे तो उससे दस-बीस हज़ार ज़्यादा पर, मगर गुरविंदर बहुत चालाक था (नहीं, वह नहीं, दरअसल उसकी बीवी जो एक खानदानी बिजनेस परिवार से थी और शादी के बाद से ही उसकी जान खाए जाती थी कि वह नौकरी छोड़कर कोई व्यापार करे और रातों में वे सेक्स के साथ एक-दूसरे के कानों में पैसे और व्यापार की बातें उच्चारा करते थे, फुसफुसाहटों में नींद आने तक, फिर वे साथ-साथ सपना देखते थे एक ही सपना—एक के ऊपर एक रखी हुई नोटों की गड्डियों का) उसने कहा था कि वह उस ज़मीन को मुफ़्त में अपने पास समझे, और बदले में वहाँ मिनरल वाटर की जो फ़ैक्ट्री लगाने जा रहा था उसमें उसे पच्चीस प्रतिशत का हिस्सेदार बनाए। घोष नहीं माना था, उसने कहा था, यार तू पचास हज़ार, एक लाख ज़्यादा ले ले, मगर गुरविंदर के कान में सरदारनी प्रेत की तरह पंजाबी में फुसफुसाती रहती थी, अड़े रहो, झुकना मत और आख़िर में घोष को झुकना पड़ा था। गुरविंदर सरकारी नौकरी में था और उधर घोष के साथ टैक्स का कोई लफड़ा था, इसलिए इस फैक्ट्री में घोष के पिता और गुरविंदर की बीवी को पार्टनर बनाना था। कल रात गुरविंदर की बीवी ने बच्चों की कॉपी में कैलकुलेटर से बहुत देर तक कोई हिसाब लगाया था, फिर परेशान होकर पीले, ज़र्द, पसीने से सराबोर चेहरे के साथ उससे कहा था कि चालीस प्रतिशत से कम के हिस्से पर राज़ी होना घाटे का सौदा है।
“बस अब जाऊँगा ही। इसमें पाँच मिनट लगेंगे। तू बुला तो भाभी को।” घोष ने कहा।
“नहीं, आज नहीं, कह दिया न इस बारे में फिर बात करेंगे तसल्ली से।”
“बात क्या करनी है!”
“कल-परसों तक अगर तू लौट आया, तब तसल्ली से बैठेंगे। तभी दस्तख़त हो जाएँगे। आज नहीं।”
घोष उसे ख़ाली-ख़ाली से देखता रहा। उसका चेहरा पसीने से लथपथ था, और साँसें फूली हुईं। फिर वह उठा और हताश, हौले क़दमों से बाहर चला गया। इस समय तक अँधेरा पूरी तरह घिर चुका था। धीमी रफ़्तार से सरकती हुई उसकी कार गली के मोड़ पर ओझल हो गई। उसके जाने के बाद गुरविंदर कुछ देर यूँ ही ख़ाली बैठा रहा, कुछ सोचते हुए। फिर घड़ी पर उसकी निगाह गई तो वह उठकर बाहर जाने के लिए कपड़े बदलने लगा। भीतर के कमरे से उसकी पत्नी आई और उसे सवालिया आँखों से देखने लगी जिस पर उसने कहा कि वह अभी थोड़ी देर में लौट आएगा। उसने स्कूटर निकाला। थोड़ी ही देर में वह पड़ोस की एक कॉलोनी में एक बड़ी-सी कोठी में पहुँचा, जो इस वक़्त अँधेरे में डूबी हुई थी। कोठी के बाहर के हिस्से में एक दुकान थी जो इस वक़्त बंद थी, केवल एक मद्धिम बल्ब की रोशनी में उसका बोर्ड चमक रहा था—डॉली ब्यूटी पॉर्लर। शिरीष शर्मा, उत्तर-आधुनिकतावादी लेखक, यहीं पिछवाड़े की तरफ़ किराए के कमरे में रहता था। गुरविंदर ने बाहर से शिरीष को आवाज़ दी, जिसका कोई उत्तर न मिलने पर वह गेट खोलकर पीछे की तरह जाने लगा। उसी क्षण उसे लगा जैसे मकान के भीतर से कुछ लड़ाई-झगड़े की आवाज़ें आ रही हों, फिर वे सहसा रुक गईं, मगर एक दबी हुई सिसकी, अँधेरे में कहीं से आती हुई, उसके साथ-साथ चलती रही। दाहिनी तरफ़ से अचानक उसे एक आवाज सुनाई दी, “किससे मिलना है आपको?” उसने अँधेरे में आँखें गड़ाकर देखा, शिरीष का मकान मालिक, वह जे.ई. कुर्सी पर काली या कत्थई शॉल लपेटे बैठा हुआ था जैसे किसी का इंतज़ार कर रहा हो। वह उठकर उसके पास चला आया। कहीं दूर से आती एक पतली प्रकाश किरण में वह बहुत बूढ़ा लग रहा था, और उसके कंधे झुके हुए थे।
“शिरीष...” उसने कहा।
“वह तो शायद नहीं है।” बूढ़े ने एक हाँफती, परेशानी आवाज़ में कहा।
“कहाँ गया है?”
“पता नहीं।”
कुछ देर के लिए ख़ामोशी छा गई। एक खिंचता हुआ सन्नाटा।
“मैं थोड़ी देर इंतज़ार कर लेता हूँ। शायद अभी आ जाए।”
शिरीष के कमरे के बाहर अँधेरा था, भीतर खिड़कियों के शीशों के पीछे से हल्की रोशनी नज़र आ रही थी। उसने आवाज़ दी, शिरीष, लेकिन भीतर ख़ामोशी रही। उसने दरवाज़े को धक्का दिया और वह खुल गया। उसे मालूम था कि कहीं आस-पास जाने पर शिरीष कमरे में ताला नहीं लगाता था। वहाँ उसका बिखरा हुआ बिस्तर था और कुर्सी-मेज़, ज़मीन पर एक चटाई और बहुत सारी किताबें, पत्रिकाएँ वगैरह। कमरे में आदमियों की गंध भरी हुई थी, जैसे कोई अभी-अभी, जल्दी में कहीं उठकर गया हो। वहाँ एक और बंद दरवाज़ा था, मकान मालिक के हिस्से में खुलने वाला। वह बिस्तर पर बैठकर बहुत देर इंतज़ार करता रहा, मगर उसके आने का कहीं से कोई संकेत न मिलने पर उसने एक काग़ज़ पर सर्वेश्वर के आने की सूचना लिखी और उसे पेपरवेट के नीचे दबाकर चुपचाप दबे क़दमों से वापस चला आया। बाहर उसका मकान मालिक गेट के पास वैसे ही खड़ा था। उसने कहा, “शिरीष मिला?”
“नहीं, वह तो अपने कमरे में नहीं है।” उसने कहा।
बूढ़ा जैसे संतुष्ट हो गया। उसने कहा, “उससे कुछ कहना हो तो...”
“मैंने उसके लिए एक मैसेज उसकी मेज़ पर छोड़ दिया है।” गुरविंदर ने कहा।
उसके जाने के एक मिनट के बाद शिरीष के कमरे का बीच का दरवाज़ा भड़ाक से खुला।
बेतरतीब बालों में घबराए हुए चेहरे के साथ शिरीष, और उसके पीछे चमड़े की जैकिटों में बेरहम चेहरों वाले दो आदमी बाहर आए। शिरीष के चेहरे का रक्त निचुड़ा हुआ था, वह कालिख पुता लग रहा था, जैसे आदमी न हो, अँधेरे का एक टूटा टुकड़ा हो, और उसकी आँखों के सामने भी अँधेरा छा रहा था। अँधेरा फैलता-सा लग रहा था, जैसे किसी फूटे हुए बल्ब से फूटता है, इर्द-गिर्द, भीतर बाहर और सब तरफ़। वह बिस्तर पर बैठ गया, और वे दोनों उसे घेरकर खड़े हो गए।
“क्या चाहते हो तुम लोग?” उसने थकान भरी, काँपती आवाज़ में कहा।
ख़ामोशी से, दबे पाँवों वे दोनों गुंडे थोड़ी देर पहले शिरीष के कमरे में घुसे थे। वह उस वक़्त कुर्सी-मेज़ पर बैठा कुछ पढ़ रहा था। अचानक उन्हें देखकर वह चौंक गया था, एक छोटी-सी चीख़ उसके गले से निकली थी। उनमें एक काफ़ी कम उम्र का कमसिन जवान था, दूसरे की फ़्रेंचकट दाढ़ी थी। वे उसे घेरकर खड़े हो गए थे और धमकियों भरी तेज़ आवाज़ में उससे कुछ कहते रहे थे। वह चुपचाप सुनता रहा था। बाहर से बुलाए जाने की आवाज़ आने पर उसने ‘प्लीज़’ के साथ उनसे मिन्नत की थी कि जो भी आया है, उसे चला जाने दें, उसके सामने कोई तमाशा नहीं होना चाहिए। उन लोगों ने उसकी बात मान ली थी, और वे तीनों भीतर के दरवाज़े के पीछे छुप गए थे, साँस रोके।
“क्या फिर से बताने की ज़रूरत है?” उनमें से एक ने चीख़ती आवाज़ में कहा।
“देखिए, आप पढ़े-लिखे लेखक टाइप आदमी हैं। सुना है आपकी कहानियाँ भी छपती रहती हैं। हम लेखकों की बहुत इज़्ज़त करते हैं, इसलिए शराफ़त से पेश आ रहे हैं।”
“हम आपसे यह नहीं कह रहे कि अभी या कल ही कमरा ख़ाली हो जाए।” दूसरे आदमी ने कहा, “आराम से कोई दूसरा मकान देख लीजिए, हफ़्ते, दस-पंद्रह दिन में, चाहें तो एक महीना ले लीजिए। देखिए, आपके यहाँ रहने से आपकी भी बदनामी है, डॉली की भी। लोग क्या-क्या बातें करते हैं, आप जानते हैं?”
उधर अँधेरे में वह जे.ई. कुर्सी पर शॉल लपेटे बैठा था। उसकी आँखें गेट पर लगी थीं और कान पीछे के कमरे में।
“या फिर उससे अगर वाक़ई इश्क़ है तो शादी कर लो। इसमें क्या बुराई हैं? फिर आराम से रहते रहो, बिना किराए के। जितना आप अपनी नौकरी और कहानियों से कमाते होंगे, उससे ज़्यादा ही कमाई होगी ब्यूटी पॉर्लर की। भाई साहब, आप तो...मैं आपकी जगह होता तो...” फ़्रेंचकट दाढ़ीवाला हँस रहा था, कमीना।
शिरीष सिर झुकाए बिस्तर पर बैठा रहा। वे दोनों शांति से कमरे से बाहर चले गए। उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था और साँस तेज़ चल रही थी। वह अपनी साँसों को स्थिर करने की कोशिश करता हुआ लेट गया। पटाखे की आवाज़ के साथ उसके भेजे की चर्बी में बहुत सारे विचार और ख़्याल धँसे थे, छर्रों की तरह, गड्डमड्ड और बेतरतीब। वह उन्हें तरतीबवार लगाना, बारी-बारी सोचना चाहता था। उसके घर से एक कि.मी. दूर एक मंदिर से शाम की घंटियों की आवाज़ उसके कानों में पड़ने लगी थी, इतनी दूर से बहुत मद्धिम और मुलायम। उसने अंदाज़ लगाया, उस जे.ई. के रिटायर होने पर उसे कितना मिला होगा और ऊपर की कमाई कहाँ जमा की होगी, और इस मकान की क़ीमत कितनी होगी, और डॉली की उम्र कितनी।
उसकी निगाह अचानक मेज़ पर पेपरवेट के नीचे दबे काग़ज़ पर गई। उसने उसे उठाकर पढ़ा। भड़ाक से उसके ऊपर पुरानी, बीती हुई बातों का एक ढेर आकर गिरा, और फिर कमरे के सन्नाटे में एक साथ बहुत सारा समय बीत गया। पुनःस्मरण के प्रयास में उसके सीने में दाहिनी तरफ़ एक दरार फैलने लगी, पहले पतली और धीरे-धीरे बड़ी होती हुई। उसने काग़ज़ दुबारा पढ़ा, सर्वेश्वर कल या परसों आ रहा था। उसे ध्यान आया, परसों ही तो टाउन हाल में वह कथा-सम्मेलन होने वाला था जिसमें दिल्ली से एक बड़े उत्तर-आधुनिकतावादी व्याख्याकार को सदारत करने आना था। उस सम्मेलन का सारा इंतज़ाम शिरीष के ज़िम्मे था, उसी की कोशिशों से वह यहाँ पर हो रहा था और हफ़्ते भर से वह उसी की दौड़-भाग में लगा हुआ था, चंदा लेना, पोस्टर, पर्चे, निमंत्रण पत्र छपवाना वगैरह। सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं, अब केवल यू.पी. रोडवेज़ की डीलक्स बस में गाजे-बाजे और धूमधाम के साथ उत्तर-आधुनिकतावादी व्याख्याकार का आना बाक़ी था। वह तेज़ी से उठा, तैयार हुआ। बाहर के अँधेरे में तेज़ क़दमों से चलता हुआ वह सड़क के पार चला आया जहाँ एक पी.सी.ओ. की छोटी-सी दुकान थी। उसने दुकान में बैठे आदमी को काग़ज़ पर नंबर लिखकर पकड़ाया। लाल अंक मॉनिटर पर उभरे। आवाज़ आई, इस तरफ़ की सभी टेलीफ़ोन लाइनें व्यस्त हैं, कृपया थोड़ी देर बाद फ़ोन करें। वह उत्तर-आधुनिकतावादी व्याख्याकार को कहना चाहता था कि सम्मेलन वाले दिन उसे अचानक एक बहुत ज़रूरी काम से बाहर जाना पड़ रहा था, वह उसमें हाज़िर नहीं हो सकेगा, और कुछ और ज़रूरी बातें। उसने फिर नंबर मिलाया, फिर वही आवाज़ आई। कई बार नंबर मिलाने के बाद दूसरी तरफ़ घंटी बजी, बहुत देर तक बजती रही। उत्तर-आधुनिक व्याख्याकार अपने घर पर नहीं था, कहाँ गुम था, ख़ुद जाने। दिल्ली एक विराट शहर था, जहाँ सब कुछ विराट, विशाल, विकराल था—विराट सड़कें, इमारतें, मोटरें, बसें, धूल, धुआँ, इतना शोर, इतना साहित्य, हे ईश्वर, और इतनी साहित्य-चर्चा, इतनी संस्कृति, कला, इतनी भाषा और इतने लोग। उस अकल्पनीय रूप से विराट नगर के एक ख़ाली, ख़ामोश कमरे में एक घंटी बहुत देर तक किसी ख़तरे या चेतावनी की घंटी की तरह बजती रही, फिर शिरीष ने टेलीफ़ोन रख दिया और थके, क्लांत क़दमों से अपने कमरे में वापस आकर बिस्तर पर लेट गया। थोड़ी देर लेटे रहने, कुछ सोचते रहने के बाद उसने किताबों की ऊँची शेल्फ़ के सामने स्टूल खिसकाकर सबसे ऊपर के खाने से दो-तीन पुरानी, धूल सनी, फटे पन्नों वाली पुस्तकें निकालीं। दो-तीन बार बिस्तर के किनारे पर उन्हें फटकार कर उसने धूल साफ़ की और फिर मेज़ पर बैठकर उन्हें पढ़ने की कोशिश करने लगा, पहले मन ही मन, फिर ज़ोर-ज़ोर से, जैसे खोई हुई याददाश्त को जगाने की कोशिश कर रहा हो...जैसे इम्तिहान की तैयारी में बच्चे पढ़ते हैं और समय को तेज़ी से बीतता देखकर भयभीत हो जाते है, जल्दी-जल्दी पलटते हैं पन्ने। उन किताबों में से एक थी अठारहवीं शताब्दी के इंग्लैंड के औद्योगिक क्रांति से पहले के ग्रामीण, खेतिहर जीवन के बारे में बहुत धीमी गति से चलने वाला एक मोटा उपन्यास, जिसकी ज़िल्द ग़ायब थी, और दूसरी मायकोव्स्की की कविताओं का एक संकलन, जिसमें वह कविता थी, जिसमें ग्रीष्म की गर्मी में धधकते सूरज को चिल्लाकर कहता है कवि, अबे लो लोफर नीचे उतर। और तीसरी, उसे आश्चर्य हुआ कविता-कहानी की किताबों के बीच वह कोई पुराना मेडिकल जनरल...शायद डॉ. आलोक श्रीवास्तव कभी भूल गया हो, उसमें इंसान के जन्म और प्रसव-पीड़ा के बारे में कुछ लेख थे, जिनके बीच स्त्री के आंतरिक अंगों के रेखाचित्र थे और उन्हें देखते हुए एक छटपटाती निर्वसन स्त्री का चित्र दिमाग़ में उभरने लगता था, जिसके कंधों को कसकर थामे हुए कोई नर्स या दाई, और उसके भिंचे हुए दाँतों के बीच से बहती हुई एक दबी भिंची चीख...गों...गों...गों...गों...
उसकी निगाह अचानक दाईं तरफ़ की दीवार पर लगे दर्पण पर गई। उसने देखा धुँधले प्रकाश में उसका चेहरा पीतवर्णी, पसीने से तरबतर था और लग रहा था जैसे वह संसार का एकदम अकेला, बिल्कुल तन्हा प्राणी हो। वह काँपते हुए हाथों से हलकोर रहा था अपनी कई दिनों की, उलझी हुई दाढ़ी। उसे अचानक महसूस हुआ कि वह बूढ़ा हो गया था, उसके कमरे की छत कुछ नीचे झुक आई थी, दीवारों से पलस्तर झड़ने लगा था, फिर उसके नीचे की नंगी, सूखी दीवारें चटखने लगी थीं, भरभराकर ढह जाने को तैयार...देखते-देखते उसका कमरा खंडहर में तब्दील हो गया था जिसमें मकड़ी के जाले नीचे तक लटक रहे थे और उनके बीच अपनी कुर्सी पर बैठा वह आस्तीन से आँसू पोंछ रहा था, बुखार की तरह बढ़ती, लहू की लकीर की तरह जमती इस इच्छा के साथ कि किसी भी तरकीब से दूर से नज़र आने वाली अनाच्छादित पहाड़ियों के पीछे अपने गाँव वापस पहुँच जाए... जहाँ धीमे-धीमे हिलते पेड़ थे, पहाड़ी हवाओं में फँसकर जो, और उसके सामने एक चुपचाप नदी....उस पर बना पुराना पुल। मगर पाँच फ़ुट सात इंच लंबे सैंतीस साल के आदमी के रूप में नहीं जो चालीस नंबर की बनियान पहनता था, दस साल का बच्चा बनकर, सर्दियों में जिसकी नाक बहती रहती थी, और सारा क़िस्सा फिर से, नए से शुरू करना...।
आदेश अवस्थी रात को सोने के लिए पलंग पर मच्छरदानी लगा रहा था कि उसे ध्यान आया, अरे, केशव तो रह ही गया। उसने टेलीफ़ोन के पास से नंबरों की डायरी उठाई, पन्ने पलटकर उसका नंबर निकाला। केशव का दफ़्तर या दुकान, जो चाहें कह लें, उसका प्रॉपर्टी डीलर का धंधा जवाहर नगर में मेन चौराहे के सामने एक अधूरे बने मकान के एक कमरे में था—दफ़्तर भी क्या, बस एक कुर्सी-मेज़, और एक टेलीफ़ोन और दोपहर में नींद आए तो झपकी लेने के लिए बिस्तर भी। थोड़ी देर पहले बिजली चली गई थी और वह अँधेरे में टटोलते हुए दफ़्तर का ताला लगा रहा था कि टेलीफ़ोन घनघनाने लगा था। ताला दुबारा खोलकर अँधेरे में ही उसने टेलीफ़ोन उठाया था। उधर अवस्थी था, उसकी वह पहचानी-सी आवाज़, जिसे वह कई बरसों के बाद सुन रहा था, “पहचाना, मैं अवस्थी!” केशव ने कहा था, “यार ऐसी कमज़ोर नहीं है याददाश्त (झूठ बोल रहा था, उसकी याददाश्त बहुत कमज़ोर थी), बड़ी मुद्दत के बाद याद किया, कहाँ से बोल रहा है?” “यहाँ से, और कहाँ से।” अवस्थी ने कहा था। “सर्वेश्वर आ रहा है, दो-एक दिन में। उसकी बहन की शादी है, उसमें भाग लेने के लिए। तो उसके एकाध दिन के बाद हम कहीं पर मिलते है। सर्वेश्वर ने लिखा है कि वह सब पुराने दोस्तों से मिलना चाहेगा। मैंने आज दिन भर में सबको ख़बर दे दी है।” केशव ख़ामोश रहा था, काफ़ी देर तक कोई आवाज़ न सुन पाने पर अवस्थी ने कहा था, “केशव, सुन रहा है न?” तब केशव ने कहा था, “कौन सर्वेश्वर?”
“तू सर्वेश्वर को भूल गया? सर्वेश्वर...अपना पुराना दोस्त। जो...”
“वह तो मर गया कब का?”
“कैसी बात कर रहा है?”
“उसे तो मरे दस साल हो गए। वह अभी ज़िंदा है?”
“..........................“
“अगर वह ज़िंदा है तो यहाँ आने का कोई इरादा नहीं रखता, और रखता है तो यहाँ पहुँच नहीं पाएगा।
कहीं रास्ते में ही...”
टेलीफ़ोन तारों पर चढ़कर एक हाँफती-सी आवाज़ उसके कानों तक आई थी, और फिर टेलीफ़ोन तारों की अपनी, काँपती हुई, अनिष्टकर-सी आवाज़। अँधेरे में अपना दफ़्तर बंद कर वह अपने घर चलने लगा था जहाँ एक ख़ाली, सुनसान बैठक उसकी प्रतीक्षा में थी। उसकी पत्नी, बच्चे किसी शादी में शहर से बाहर गए थे। वह अँधेरे में घूरता हुआ, तेज़ क़दमों से चल रहा था, जैसे कोई उसके पीछे-पीछे चलता हुआ, उसे धक्का दे रहा हो। वह चाहता था सीधे घर जाकर बिस्तर में लेटकर एक कोमल लोरी या ठंडे चुंबनों जैसी नींद सोना (क्या पता चाहता हो सिर्फ़ शराब के नशे में बेसुध और स्मृतिहीन पड़ा रहना, प्रॉपर्टी डीलरों की इच्छाओं का भी क्या भरोसा), मगर जानता था कि रात को जो नींद आएगी, वह घरघराहट भरी होगी जैसे सीने में घास-फूस या रद्दी काग़ज़ों का कचरा भरा हो। वह तब तक का समय सावधानीपूर्वक ख़र्च करना चाहता था। वह रेलवे स्टेशन के पास उस बार की तरफ़ चलने लगा जहाँ पोखरियाल, एक ठेकेदार और तिवारी, एक और प्रॉपर्टी डीलर, उसके धंधे का साथी, उसका इंतज़ार कर रहे थे। तिवारी ने उस दिन एक होटल बेचा था, और पचास-साठ हज़ार का कमीशन कमाया था, और थोड़ी देर पहले केशव को फ़ोन किया था कि आ जा प्यारे, आज तो...बार में घुसते ही मक्खियों की भनभनाहट जैसे शोर ने उसे घेर लिया। पोखरियाल और तिवारी कोने की मेज़ पर बैठे थे वहीं से उन्होंने उसे भीतर घुसते देखा और आवाज़ देकर पास बुला लिया। वहाँ हल्के नीले अँधेरे में अलग-अलग मेज़ों पर प्रेतों की तरह लोग फुसफुसा रहे थे। कोने में टेबल लैप की रोशनी में काउंटर पर एक झुका हुआ सिर पैसों का हिसाब कर रहा था। वे काफ़ी देर पीते रहे, पीते-पीते उसकी चेतना पर धुँध छाने लगी, उसने आँखें बंद कर पीछे कुर्सी पर पीठ टिका दी, जैसे नींद में हो। चाहता था शराब की नैया में कहीं दूर बहते जाना, मगर उसने किसी खंदक में उतरते जाने जैसा महसूस किया, और तेज़ी से बढ़ती थकान। बीच में बहुत सारे क्षण यूँ ही बीत गए, फिर उसे महसूस हुआ कोई उसे हिलाकर जगा रहा है। उसने आँखें खोलीं। पोखरियाल और तिवारी उसके ऊपर झुके हुए थे, और तिवारी कह रहा था, “तबीयत तो ठीक है न?”
पूँजीवाद और इतिहास के नमक के बारे में वह कुछ कहना चाहता था, और पेरिस कम्यून, महान लेनिन और गोर्की और अठारह सौ सत्तावन के आजादी के संग्राम और चेकोस्लावाकिया के बारे में, जहाँ ‘लिडिस’ एक गाँव था जहाँ छोटे-छोटे बच्चों के घुँघराले, सुनहरे बाल और निप्पल और नैपकिन एक म्यूजियम में प्रदर्शित थे जिन्हें फासिस्टों ने गला घोंटकर मार डाला था। और भी बहुत कुछ जो इतिहास में गुज़रा था और अब शराबघर के घनतर अँधेरे में दिमाग से रगड़ खाता गुज़र रहा था। उसके पास इतिहास की मास्टर्स डिग्री थी जो उसने नक़ या रट्टा मारकर हासिल नहीं की थी, मगर उसने कुछ भी नहीं कहा, कहता तो उसके मुँह से सब कुछ झूठ में सना हुआ—एक बहुत धीमी, कमज़ोर आवाज़ में उसने यही कहा कि मै चलता हूँ, बहुत थक गया हूँ। वहाँ से एक अँधेरी, निर्जन गली के छोटे रास्ते से वह सीधे अपने घर गया और बिस्तर पर लेटकर आँखें मूँद लीं। नींद आने से कुछ क्षण पहले उसने खिड़की के परे एक रोने की आवाज़ सुनी। उसने उठकर खिड़की खोलकर बाहर अँधेरे में झाँका। वहाँ कोई न था। वह खिड़की बंद कर दुबारा लेट गया। वह आवाज़ फिर भी आती रही।
लोहे के तारों के गुच्छे या शरीर में ख़ून की शिराओं की तरह बहुत सारी मोड़ों और मरोड़ों वाली वे गलियाँ एक-दूसरे में उलझी हुई थीं, जहाँ की भीड़भाड़ और शोर-शराबे के बीच आदेश अवस्थी बहुत देर से सर्वेश्वर का मकान तलाश रहा था। वह हर गली और सड़क से कई बार गुज़र चुका था। गलियों में सब्जी के ठेले, मिठाइयाँ और चाय की दुकानें थीं, सड़क पर बरसात के दिनों का कीचड़ और मक्खियाँ और कचरे से कुछ तलाशते जानवर, और दुकानों के बीच इक्का-दुक्का मकान जो ताबूत के ढक्कन की तरह बंद थे, दोपहर की नींद में ग़र्क़, निःशब्द और एक दम एकाकी। वहाँ कोई ऐसा घर नहीं था, जहाँ शादी की चहल-पहल हो या लाउडस्पीकर पर शोर। भीड़ और शोर भरी बे-छोर गलियों में वह चलता रहा, बहुत देर तक। दोपहर का सूरज सरकता हुआ दूर चला गया और धीरे-धीरे झुटपुटा होने लगा।
सर्वेश्वर का मकान बहुत मुश्किल से मिला, एक लकड़ी की टाल के पीछे ठूँसे हुए मकान के एक हिस्से में। मैली काली दीवारों वाला वह एक बहुत पुराना मकान था, जहाँ नीचे एक कमरे के भारी-भरकम दरवाज़े पर ताला लटक रहा था, और बरामदे के किनारे से लकड़ी की पेंचदार सीढ़ियाँ ऊपर चली गई थीं। हल्की धुँध-सा धुआँ फैला हुआ था वहाँ, पता नहीं कहाँ से आता हुआ। हिलती, काँपती सीढ़ियों पर चढ़कर वह ऊपर गया और दरवाज़े पर दस्तक दी। कई बार खटखटाने के बाद भी भीतर कोई हलचल नहीं हुई। वह वापस मुड़ने वाला था कि भीतर से कुंडी खड़कने की आवाज़ सुनाई दी। किसी बच्चे ने दरवाज़ा खोला था। वह उसे पहचानता नहीं था। वह ख़ामोश उसे देखता रहा।
“सर्वेश्वर का घर यही है?” बच्चा कुछ न बोला, उसकी भावशून्य, एकटक आँखें उसके चेहरे पर जमी रहीं। भीतर से ठक्-ठक् की आवाज़ के साथ सर्वेश्वर का बाप उसकी बैसाखी पर चलते हुए आया। उसने किसी कोने में स्विच ऑन किया। पीले रंग की एक मद्धिम, मरी-मरी-सी रोशनी कमरे में फैल गई। आपको किससे मिलना है?” सर्वेश्वर के पिता ने पूछा।
“सर्वेश्वर...” उसने हथेलियों से चेहरे का पसीना पोंछते हुए कहा। गुच्छा-मुच्छा दरी को छोड़कर वह बच्चा भीतर जाकर एक फ़ोल्डिंग कुर्सी को कमरे में खिसका लाया। आदेश कुर्सी पर बैठ गया और सर्वेश्वर का पिता सावधानी से बैसाखियाँ हटाते हुए उसके सामने चारपाई पर।
“मैं सर्वेश्वर का दोस्त हूँ”, उसने कहा, “उसकी बहन की शादी है न! उसकी चिट्ठी आई थी। वह आ चुका है?”
पीछे घर में सन्नाटा था। एक अटल, असहनीय ख़ामोशी।
“सर्वेश्वर आया या नहीं, मैं यह पता करने आया था।”
सर्वेश्वर के पिता ने सिर हिलाया। वह बिना कुछ बात किए काफ़ी देर तक ख़ामोश बैठे रहे।
“मैं चलता हूँ। कल फिर पता कर लूँगा।” उसने उठते हुए कहा।
सर्वेश्वर का पिता बैठा रहा। उसे लगा जैसे उसने सुना ही नहीं। वह चुपचाप बाहर चला आया।
सर्वेश्वर उस समय गाड़ी के दूसरे दर्जे के एक खचाखच डिब्बे में यात्रियों के बीच ठुँसा हुआ बैठा था। गाड़ी उस समय बस्ती और गोंडा के बीच कहीं थी। वह बहुत धीमी रफ़्तार से चल रही थी और हर स्टेशन पर खड़ी हो जाती थी। ट्रेन में भारी पेटियों और बिस्तरों के साथ बासी, गंधाते कपड़ों में अधिकतर देहाती लोग थे, कुछ पतलून-क़मीज़ों में बाबूनुमा आदमी भी। डिब्बे में हर तरफ़ लोग ठुँसे हुए बैठे थे, नीचे के फ़र्श पर भी, मगर एक अजीब, आसामान्य ख़ामोशी थी, ट्रेन की अपनी आवाज़ के अलावा बियाबान जैसी निःशब्दता। उसके पास एक झोला था जिसमें एक डायरी, दो-तीन किताबें, और खाने का ख़ाली डिब्बा और कुछ कपड़े थे। उसके नुकीली हड्डियों वाले चेहरे पर कई दिनों की बढ़ी हुई दाढ़ी थी, और थकान भरी दृष्टि से सामने देखता हुआ वह कुछ कमज़ोर लग रहा था।
गाड़ी जब आगे आती है, मन पीछे जाता है, भगोड़े की तरह तेज़ रफ़्तार, जैसे छूटकर कहीं जाना चाहता हो, अपने पैरों पर भागता हुआ वह कहीं नहीं रुकता, ट्रेन के रुक जाने के बाद भी। बहुत देर से गाड़ी एक छोटे-से स्टेशन पर ठहरी हुई थी। बाहर एक सुनसान प्लेटफ़ॉर्म था, और उनके पीछे दोपहर की। धूप में सूखते खेत। उनके बीच की पगडंडी पर बहुत दूर कोई साइकिल चलाता आ रहा था। स्टेशन के ठीक पीछे एक एकाकी, ध्वस्त झोंपड़ी थी, और डिब्बे में खाँसने की कुछ आवाज़ें थीं, बाहर की निःशब्दता में इस तरह धँसती हुई जैसे पानी में पत्थर डूबता है, बे-आवाज़। सर्वेश्वर की आँखें भारी और उनींदी होने लगीं, उनकी चमक बुझ गई। शायद उसी पल एकाएक, या उससे कुछ पल आगे-पीछे, या किसी और समय, कौन जाने, उसका हौसला पस्त होने लगा था। उसने अपने झोले से एक किताब निकाली और निरख-निरखकर पढ़ने की कोशिश करने लगा। लेकिन मन नहीं लगा, उसकी आँखों के सामने सब कुछ धुँधला हो रहा था और सीने में कोई बोझ उठता आ रहा था। वह उठकर लोगों के बीच जगह बनाते हुए, डिब्बे की दीवार का सहारा लेते हुए किसी तर टॉयलेट में पहुँचा और वॉश बेसिन में मुँह झुकाकर खड़ा हो गया। उसके पेट से एक प्रबल वेग के साथ कुछ उठा और वॉश बेसिन में उलट गया, पीले पानी जैसा कुछ और उसमें रात के खाने के साथ खाने के साथ ख़ून के दो-चार टुकड़े।
वह लड़खड़ाते पैरों से अपनी बर्थ पर लौटा और वहाँ की सँकरी जगह में अपने को अटाते हुए किसी तरह लेट गया, छत पर आँखें गड़ाए। फिर एक झटके से ट्रेन आगे बढ़ी और उसकी आँखें मुँद गईं।
ट्रेन आधे घंटे के बाद फिर जंगल में रुक गई। सर्वेश्वर की आँखें ऊपर की तरफ़ चढ़ गई थीं और थरथराहट ने उस पर क़ाबू पा लिया था। कितनी दूर तक रह सकता है दिलेराना अंदाज़, और एक आदमी, थोड़े-से लोग, कितनी ज़िम्मेदारी उठा सकते हैं। उसे पत्ते की तरह काँपता देखकर सब यात्री उसके ऊपर झुक आए। औरतें कुछ दूर, आदमी कुछ पास। एक चीख़ की आवाज़, उसके पीछे किसी बच्चे की अचानक रूलाई, और फिर बहुत सारी मिली-जुली आवाज़ों का शोर उठा, डिब्बा अचानक जैसे चौंक कर नींद से जागा हो। “इसकी हालत ख़राब है, इसके साथ कोई है क्या?” कहीं से आवाज़ आई और फिर थोड़ी देर चुप्पी छा गई। धीमे-धीमे सरकती गाड़ी एक छोटे-से स्टेशन में घुसी और उसके रुकने से पहले ही मज़दूर जैसे नाक-नक़्शवाला एक आदमी प्लेटफ़ॉर्म पर कूदा और एक डिब्बे में पानी भर कर ले आया। दौड़ता हुआ वह वापस आया और भीड़ में घुसते हुए पानी का कटोरा उसकी तरफ़ बढ़ाने की कोशिश करने लगा, मगर काफ़ी हिलाने-डुलाने के बावजूद उसकी आँखें मुँदी रहीं, वह इस समय तक बेहोश हो चुका था। जब वह उसे पिलाने की कोशिश कर रहा था, तब ट्रेन के आख़िरी डिब्बे से काफी लंबे कद का पचास की उम्र के आस-पास का एक आदमी जिसकी बड़ी-बड़ी बुद्धिमान आँखें थीं, झक सफ़ेद दाढ़ी और दिमाग़ से पराकाष्ठा तक पहुँचा हुआ ग़ुस्सा, डिब्बे के डंडों को पकड़ कर धीरे-धीरे प्लेटफ़ॉर्म पर उतरा।
इस आदमी की धमनियों में जो तेज़ रफ़्तार ख़ून था, वह यूँ तो मिला था उसे हर व्यक्ति की तरह उसके माता-पिता से, मगर उसमें थोड़ा-सा, शायद एक छोटी परखनली जितना, मिला हुआ था मनुष्य जाति के कुछ सर्वोत्कृष्ट, सबसे शानदार और महान, तेजस्वी लोगों, पुरखों का चमकदार लहू—मानव जाति के बीच चुपके-चुपके चलता हुआ, कई कंधे बदल कर उस तक पहुँचा था। (वह न क़ब्र की मिट्टी के रास्ते समुद्रों में जाकर मिलता है, न विद्युत शवदाह गृह में भाप बनकर उड़ता है। वह केवल आततायियों का मवाद मिश्रित ख़ून होता है, जो ज़मीन पर बह जाता है। बाक़ी सब लोगों, साधारण लोगों और असाधारण, महान जनों का रक्त आगे यात्रा करता है, किसी घटिया, नस्लपरस्त आनुवंशिकी के नियमों के बाहर—कुछ का थोड़ी दूर तक, बहुत थोड़े से लोगों का बहुत दूर तक। इसी में कहीं तलाशने पर मिलेगा मूर्ख आध्यात्मिकों के इस सनातन सवाल का भी उत्तर, कि मरने के बाद देह कहाँ जाती है।) बहुत सारे मृत व्यक्तियों के शरीरों, आशाओं, सपनों, एकांत में कहे गए शब्दों, ऊँचे-नीचे रक्तचाप और आँसुओं और खाँसियों को योगफल होता है हर व्यक्ति, और फ़र्क़ केवल इतना होता है कि कौन-से मृतक और कितने...जैसे इस व्यक्ति के थे। उनमें पैगंबर या मसीहा या वे अति मेधावी लोग नहीं शामिल थे जो तत्वचिंतन करते या ग्रंथ बाँचते, किताबें लिखते हैं, न वे जो दूरबीनों में झाँक कर अंतरिक्ष और नक्षत्रों की गहराई, मोटाई नापते हैं—ये सब काम अपनी जगह पर बेशक ज़रूरी होते हैं, दरअसल बहुत ज़रूरी, मगर यहाँ पर जिनका ज़िक्र है, वे कुछ दूसरी ही तरह के लोग थे, जो दूसरे मुल्कों में मौत या बीमारी से लड़ने पहुँच जाते हैं, जैसे डॉ. कोटनीस, या जो किसी बीमारी का इलाज ढूँढ़ने को पागल कुत्ते की लार सीरिंज से अपनी नसों में उतारने का चरम दुस्साहस कर सकते हैं, जैसे डॉ. लुईस पाश्चर, या जो रेडियम के विकिरण से अपने को छलनी कर लेते हैं, डॉ. मेरी क्यूरी और उनके पति की तरह, और दुत्कार कर भगा देते हैं, मल्टीनेशनल कंपनी के मोटे मैनेजर को जो माल कमाने की संभावनाएँ सूँघता हुआ उनके पास करेंसी नोट और व्यापारिक प्रस्ताव लेकर पहुँचता है, यह कहकर कि उनका अविष्कार पूरी मानव जाति के लिए है, बिल्कुल मुफ़्त—और इसी तरह के बहुत, बहुत सारे लोग।
उदाहरण की तरह ऊपर बताए गए लोगों की तरह वह व्यक्ति भी पेशे से डॉक्टर था, मगर वैज्ञानिक नहीं, साथ ही वह एक बेहद ग़ुस्सैल आदमी था, बे-पनाह गुस्सा, और जीवन-भर साथी डॉक्टरों की चेतावनी सुनता आया था कि वह अपने क्रोध पर क़ाबू पाए, चाहे इसके लिए ध्यान किया करे या शवासन, वरना किसी दिन ब्रेनहेमरेज होगा, चलते-चलते वह लुढ़क जाएगा और उसका चश्मा दूसरी तरफ़। वह थोड़ी देर पहले साथ में सफ़र कर रहे एक दुकानदार से झगड़ पड़ा था कि उसने गत्ते के बहुत सारे डिब्बे इस तरह रास्ते के बीच रख दिए थे कि लोगों का आना-जाना असंभव हो गया था। वह गार्ड से झगड़ने उतरा था इस बात पर, कि उस कम्पार्टमेंट में पानी नहीं आ रहा था और टट्टी-पेशाब रोके हुए बच्चे बुरी तरह चीख़ रहे थे। गार्ड साहब अपने डिब्बे में नज़र नहीं आए तो वह स्टेशन मास्टर से मिलने के लिए उसके कमरे की तरफ़ आने लगा। तभी उसने सर्वेश्वर के डिब्बे के पास भीड़ देखी और भीतर घुसकर एक ही क्षण में स्थिति को समझ लिया। वह कम्पार्टमेंट में ठुँसी हुई भीड़ को डाँट-फटकार कर लोगों को हटाता हुआ उसके पास पहुँचा और उसकी कलाई उठाकर धड़कनों का हिसाब देखने लगा, दूसरे हाथ से उसने उसकी खाल को चुटकी में पकड़कर खींचा। सर्वेश्वर की साँसे धौंकनी की तरह तेज़ चल रही थीं।
“कौन है इसके साथ, इसकी तबीयत तो बहुत ख़राब है। इसे लगता है लू लगी है, डीहाइड्रेशन...” कहीं से कोई आवाज़ नहीं आई। उसने कहा, “स्टेशन मास्टर को बुलवाना होगा, यहाँ रेलवे का डॉक्टर होगा शायद।” उसने पास बैठे एक धूप का चश्मा लगाए नौजवान को ‘ए पतलून मास्टर’ कहते हुए हाथ पकड़कर खड़ा किया और कहा कि वह दौड़कर स्टेशन मास्टर को बुलाकर लाए और कुछ और लोगों को काफ़ी तेज़ आवाज़ में डाँट कर दूर कर दिया। एक आदमी की मदद से उसने उसके तपते हुए शरीर को खिड़की के पास खिसका दिया और जूते खोलकर नीचे रख दिए।
सफ़ेद वर्दी में उस नौजवान के साथ स्टेशन मास्टर थोड़ी देर में आया।
“इस आदमी को उतारना होगा।” उसने स्टेशन मास्टर से कहा, “यह आगे सफ़र नहीं कर सकता।”
“क्यों, क्या हुआ?”
“इसकी तबीयत काफ़ी ख़राब है। बेहोश हो गया है।”
“जनाब, यह तो छोटा-सा स्टेशन है,” स्टेशन मास्टर ने कहा, “आगे बाराबंकी या लखनऊ में ढंग का...”
“नहीं, वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते रात हो जाएगी,” उसने सख़्ती से कहा, “यहाँ रेलवे का अस्पताल...”
“यहाँ कोई अस्पताल नहीं है। यह छोटा-सा स्टेशन है।” स्टेशन मास्टर ने कहा और वापस जाने लगा। उस आदमी ने उसकी सफ़ेद वर्दी को पकड़कर पीछे खींचा।
“मि. स्टेशन मास्टर...” उस आदमी का ग़ुस्सा भड़क उठा था, “यहाँ लोग क्या कभी बीमार नहीं पड़ते? क्या करते हैं फिर वो?”
“देखिए, यहाँ एक छोटा-सा प्राइमरी हेल्थ सेंटर है, जहाँ डॉक्टर हफ़्ते में एक दिन आता है। आज तो...
“कोई बात नहीं, मैं डॉक्टर हूँ। वहाँ कुछ दवाइयाँ तो होंगी। फ़ौरन इसे उतरवाइए। कोई स्ट्रेचर, कुछ है... दो एक आदमी बुलवाइए... देख क्या रहे हैं?” वह ग़ुस्से में भर्राई और तीखी आवाज़ में चीख़ रहा था। गाड़ी खड़ी रही। इंजन बार-बार सीटी मार रहा था। सब डिब्बों की खिड़कियों से बाहर सिर झाँक रहे थे।
“देखिए, वह हेल्थ सेंटर तो इस समय बंद होगा। उसकी चाभी...” स्टेशन मास्टर अब कुछ सहम गया था।
चाभी ढुँढ़वाइए, फ़ौरन, और न मिले तो ताला तुड़वा दीजिए। देखिए, इस आदमी को अगर...“ वह अब हकलाने लगा था। उसकी भूरी तरल आँखें भयानक लग रही थीं, और उसके चेहरे से लग रहा था कि कुछ देर और स्टेशन मास्टर बिना कुछ किए खड़ा रहेगा तो वह उसे थप्पड़ मार देगा। स्टेशन मास्टर अपने कमरे तक जाकर दो खलासियों को बुलाकर लाया। तेज़-तेज़ क़दमों से अपने डिब्बे तक जाकर डॉक्टर ने अपना सामान बाहर निकाल लिया। दो यात्रियों ने बेहोश सर्वेश्वर को स्ट्रेचर पर लिटाया। उसका झोला उसके सिर के पास रख दिया गया। इंजन ने फिर सीटी दी। गाड़ी हौले से खिसकने लगी।
स्टेशन मास्टर आगे-आगे चल रहा था, और उसके पीछे-पीछे दोपहर के भभकते सूरज के नीचे डॉक्टर स्ट्रेचर के साथ-साथ और पीछे एक कुली जिसने उसका समान उठा रखा था। प्लेटफ़ॉर्म पार कर कुछ सीढ़ियाँ उतरने के बाद रेलवे के दो-चार मकानों के बीच वह छोटा-सा अस्पताल था। वह कोई पुरानी, टूटी-फूटी, भग्न, जर्जर जगह थी जैसे ध्वंसावशेष हो—उल्कापात के बाद का या कोई कालातीत नगर—उत्खनन में ज़मीन से निकला हुआ, सदियों पुरानी अजीब आब-ओ-हवा, और उस ज़माने के लोगों की हड्डियों समेत दो-एक मकानों के निवासियों ने खिड़कियों से देखा, और उत्सुकतावश धीरे-धीरे पास चले आए। अपनी हाँफती साँसों को सँभालने के लिए डॉक्टर एक क्षण ठहर गया, और तब उसने उनके चेहरों की तरफ़ देखा जो उसे महसूस हुए ममियों की मानिंद उदासीन, अपलक भावशून्य—और तब अचानक उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। वह पहले ही जान लेता था, उसमें महसूसने की जैसे कोई अतींद्रिय ताक़त थी। स्टेशन मास्टर ने जेब से चाभी निकालकर कमरा खोला। भीतर के धूल, अँधेरे और ईथर की एक बासी गंध के बीच दोनों खलासियों ने सर्वेश्वर को एक ऊँची, लंबी मेज़ पर लिटा दिया। डॉक्टर ने उसकी कलाई उठाई, वह बर्फ़ की तरह ठंडी थी। एक रूई के रेशे को वह उसकी नाक के पास लाया। फिर वह जल्दी-जल्दी एक बदहवास तरीक़े से उसके सीने को मलने-दबाने लगा, काफ़ी देर तक। फिर उसने अपनी चेष्टा छोड़ दी और हताशा में मेज़ पर एक मुक्का मारा, और भीड़ के बीच से होता हुआ तेज़ी से दूर जाने लगा, बाक़ी सब लोगों से अपना चेहरा छुपाने की कोशिश करते हुए, किसी एकांत जगह की तलाश में। उसे अब बेहद ग़ुस्सा था ख़ुदा पर।
शिरीष शर्मा को सुबह ध्यान आया था कि ख़ास क़रीबी लोगों के लिए शराब का इंतज़ाम करने का उसे ध्यान ही नहीं रहा और शादी की व्यस्तता में पाँच मिनट निकालकर उसने पी.सी.ओ. से गुरविंदर को फ़ोन किया था, और यह ज़िम्मेदारी उसी पर डाल दी थी। गुरविंदर ने बैंक की एक पार्टी, आर्मी से रिटायर एक सिपाही को उसके घर से स्कूटर के पीछे बिठाया था, और उसके साथ आर्मी कैंटीन जाकर चार बोतलों का इंतज़ाम किया था। शाम को स्कूटर की डिक्की में बोतलों समेत वक़्त से काफ़ी पहले वह वहाँ पहुँच गया था, जहाँ उसका सारा मूड ख़राब हो गया था, यह देखकर कि बारात शिरीष की कॉलोनी के किनारे के मंदिर में सज रही थी। यह एक उल्टी बारात थी, घूमते-फिरते शिरीष के घर तक वापस आनी थी। वह मंदिर में भी नहीं गया, बाहर से ही कानों के पर्दे फाड़ देने वाला भयानक शोरगुल सुनता रहा। भीड़ में उसे दूर से आदेश अवस्थी नज़र आया तो उसने उसे इशारा कर अपने पास बुलाया और कहा, इस आदमी की अक्ल देखी, शादी के लिए उसे यही जगह मिली, अब पी लो मंदिर में बैठकर। आदेश अवस्थी ने उसे दिलासा देते हुए कहा, “घबरा मत यार, अभी कुछ इंतज़ाम करता हूँ।” वे वहाँ से एक कि.मी. दूर शिरीष के रंग-बिरंगी रोशनियों से जगमगाते घर में वापस गए, जहाँ उसने भीड़ के बीच सफ़ारी सूट के साथ गुलाबी साफा पहने से अंदर-बाहर जाते जे.ई. को तलाशा और अंकल जी कहकर एक तरफ़ से ले गया। पता चला कि शिरीष के पीछे वाले कमरे में गाँव से आए उसके माता-पिता और रिश्तेदारों का सामान बंद था और उसकी चाभी उन्हीं के पास थी। बहरहाल, फिर भी समाधान निकल आया, कोठी के आगे वाले हिस्से में जो ब्यूटी पॉर्लर था, वह किस काम के लिए था, जिसकी चाभी जे.ई ने चुपके से उसे यह कहते हुए थमाई कि प्लीज शोर न हो, देखिए घर में लेडीज़ हैं। थोड़ी देर के बाद एक छोटी-सी कोलाहल करती भीड़ में सारे लोग दुकान का शटर आधा उठाकर भीतर लिपस्टिक, नेलपॉलिशों और तमाम रंग-रोगनों की गंध के बीच वहाँ पड़ी हुई बेंच पर जम गए, एक आदमी ने अपने लिए शीशे के समाने की नाईनुमा कुर्सी हथियाई। लाउडस्पीकर दुकान के ठीक ऊपर लगा था, और फ़िल्मी गानों का इतना शोर हो रहा था कि सब लोगों को चिल्लाकर बातें करनी पड़ रही थीं। केशव कुछ देर से पहुँचा था, उसके पहुँचते ही दर्जन-भर गिलास उसके स्वागत में उठे थे। थोड़ी-सी जगह में वे सब ठुँसकर, एक दूसरे से चिपके हुए बैठे थे। केशव के लिए खिसककर जगह बनाई गई और गुरविंदर सिंह ने बैगपाइपर की बोतल से उसके लिए एक गिलास में डाली, तब उसने मना करते हुए कहा, नहीं, मैं नहीं लूँगा, मैंने छोड़ रखी है। सब जानते थे कि वह झूठ बोल रहा है, और ज़बरदस्ती उसके हाथ में गिलास थमा दिया गया।
आदेश अवस्थी ने अपने कोने की जगह से केशव से चिल्लाकर कहा कि वह कई महीनों से मिलना चाहता था, मगर संयोग नहीं बन रहा था, उसे कुछ ज़रूरी बात करनी थी। घोष और अवस्थी ने अपनी जगहों की अदला-बदली की, और अवस्थी केशव से लगभग चिपककर बैठ गया। लाउडस्पीकर के कान फाड़ते शोर में उसने कहा कि वह यह जानना चाहता था कि केशव को पहले से कैसे पता चल गया था कि सर्वेश्वर...क्या उसके पास भविष्य को देख लेने की शक्ति थी। केशव को कुछ सुनाई नहीं दिया। आदेश ने उसके कानों के पास चीख़ते हुए कहा कि क्या उसके पास आने वाली घटनाओं को जान-बूझ लेने की कोई सिद्धि थी, पहले से वह कैसे जानता था कि सर्वेश्वर... सफ़र के दौरान...। केशव बहुत मुश्किल से उसकी बात समझ पाया, और फिर उसने उसके कानों में कहा कि वह तो बस ऐसे ही कह दिया था, उसका कोई मतलब नहीं था। आदेश अवस्थी ने कहा, “ज़ोर से, मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा।” केशव उसके कानों के पास चिल्लाया, “बस ऐसे ही कह दिया था, उसके पीछे कोई विचार या तर्क नहीं था। जिस तरह हज़ारों, बिना सोचे-विचारे, बातें करता है। हर व्यक्ति, बस वैसे ही....” अवस्थी को फिर भी कुछ समझ में नहीं आया तो उसने पास से गुज़रते किसी लड़के को चिल्लाकर कहा, बंद करो यार यह शोर, मगर न उस लड़के ने सुना न शोर बंद हुआ। आदेश अवस्थी ने फिर पूछा, क्या कह रहा था। केशव ने फिर कहा, इस बार एक थकी-सी आवाज़ में, कि उसने बस यूँ ही कह दिया था, इसका मतलब नहीं कि वह पहले से जानता था या उसके पास कोई ताक़त थी, बाद की घटनाओं को पहले देख लेने की। ऐसा कुछ भी नहीं था। आदेश कुछ कहना चाहता था कि अचानक बिजली चली गई और घुप अंधकार और सन्नाटा छा गया। उस ख़ामोश अँधेरे में किसी प्रेत की तरह केशव की ठंडी, डरावनी आवाज़ सुनाई दी कि वैसे यह जान लेने के लिए न भविष्यवक्ता की सिद्धि चाहिए थी, न आइन्स्टीन का दिमाग़, वह विचारों और सपनों की विदाई का वक़्त था, और सब विचारवान, स्वप्नलीन व्यक्तियों के एक-एक चिरंतन वर्तमान, सर्वदा एक-सी भीड़-बाज़ारों में, और सूर्य आकाश के बीचों-बीच स्थिर हो जाएगा, और दुनिया की सारी घड़ियाँ रुक जाएँगी। तब तक जेनरेटर चालू कर दिया गया था, वह ब्यूटी पार्लर के बिल्कुल पास रखा था। झटके के साथ रोशनी और शोर वापस आए, और दीवार पर लगे बड़े-बड़े आईनों में उनके भूतों जैसे अक्स, जिनके बीच वहाँ मौजूद किसी ने, जो केशव को नहीं जानता था, पड़ोस में बैठे घोष से पूछा कि ये कौन साहब हैं। घोष ने उसे कहा कि वह केशव है, उसके बचपन का दोस्त। उस आदमी ने फिर पूछा कि काम-धंधा क्या करते हैं, जिस पर घोष ने बताया कि वह नामी प्रॉपर्टी डीलर है, कभी कोई ज़मीन, मकान, हवेली, खेत, होटल, कोई सिनेमाघर, अस्पताल, क़ब्रिस्तान, मीनार जितनी ऊँची बिल्डिंग या मीनार, या मक़बरा, कुछ भी ख़रीदना, बेचना हो तो...
- पुस्तक : श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ (1990-2000)
- संपादक : उमा शंकर चौधरी
- प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस
- संस्करण : 2010
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