कुटिया पर मुझे साढ़े सात बजे तक पहुँच जाना था और सात बज गए थे। एक तो मेरी जेब में रिक्शे-भर के लिए मुद्रा नहीं थी, दूसरे आज इस जाड़े की पहली बारिश हुई थी और इस समय रात के सात बजे तेज़ हवा थी। जाड़े में ठंडी के अनुपात से हमारा शरीर सिकुड़ जाता है और चाल धीमी हो जाती है। तो धीमी गति से कुटिया पर साढ़े सात बजे कैसे पहुँचा जा सकता था।
मैंने मुफ़लर से कानों के साथ-साथ समूचे सिर को ढक लिया। गर्दन पर लाकर दोनों किनारों को गाँठ लगाई। अब मैं अपनी समझ से सर्दी से महफूज़ कुटिया तक पहुँच सकता था। मुफ़लर के भीतर से मेरी आँखें और नाक झलक रही होंगी।
कुटिया में आज हम दोस्तों का सामूहिक विदाई समारोह था। कहने को तो, हम बड़े दिन की छुट्टियों में घर जा रहे थे। पर इस बार का जाना साधारण प्रस्थान नहीं था। इस बार हमारे गमन में उत्साह नहीं मजबूरी थी। घरों से मनीआर्डर आने की अवधि बढ़ती जा रही थी और हम किसी भी कंपटीशन में उत्तीर्ण नहीं हो रहे थे। हमने कुछ अख़बारों में दफ़्तरों और रेडियो स्टेशन में चक्कर मारे। पहली बात तो वहाँ काम का टोटा था। गर काम था, तो क्षणजीवी क़िस्म का। उसमें भी श्रम ज़्यादा और धन कम का सिद्धांत सर्वमान्य था।
सबसे पहले रघुराज ने घोषणा की, “मैं घर चला जाऊँगा। इलाहाबाद में मेरा पेट भी नहीं भर पाता है।”
कृष्णमणि त्रिपाठी ने गंभीरता का नाटक करते हुए कहा, “सब्र करो और ईश्वर पर भरोसा रखो। ऊपर वाला जिसका मुँह चीरता है, उसे रोटी भी देता है।”
हम हँस पड़े। कृष्णमणि की यह पुरानी आदत थी। वह नास्तिक था और ईश्वर की बात करके वह ईश्वर का मज़ाक़ उड़ाता था। उसका चेहरा मुलायम था और हाथों पर बड़े-बड़े घने बाल थे।
यह प्रारंभ था। बाद में एक दिन हुआ यह कि फ़ैसला हो गया, हम अपने-अपने घरों को चले जाएँगे।
विनोद ने कहा था, हम इस तरह नहीं जाएँगे। हम एक दिन जाएँगे और जाने के एक दिन पहले मेरे कमरे पर बैठक होगी और उसमें मैं शराब सर्व करूँगा।
विनोद ने अपने कमरे का नाम ‘कुटिया’ रखा था। मैं विनोद के कमरे पर जा रहा था। कुटिया जा रहा था। जहाँ पर मेरे बाक़ी दोस्त मिलेंगे। वे भी कल मेरी तरह इस शहर को छोड़ देंगे।
आगे की कहानी संक्षिप्त, सुखहीन और मंथर है, इसलिए मैं थोड़ा पहले की कहानी बताना चाहूँगा। उसमें उन्मुक्त विस्तार, प्रसन्नता और गति है। तो आख़िर चीज़ें इतनी उलट-पुलट क्यों हो गई, यह रहस्य मैं इस उन्मुक्त, प्रसन्नता और गति से भरे हिस्से के बाद, यानी अभी-अभी जहाँ पर कहानी ठहरी थी, उसके बाद के अंश में खोलूँगा...
विनोद से मेरी पहली मुलाक़ात एक गोष्ठी में हुई थी। उसमें उसने कविताएँ पढ़ीं, जिनकी मैंने जमकर धुनाई की। सचमुच उस गोष्ठी में उसकी कविताएँ रुई थीं और मैं धुनिया। बस उस गोष्ठी के बाद विनोद मेरा दोस्त बन गया। हमारी गाढ़ी छनने लगी। हमारी जो कुछ लोगों की मंडली थी, उसमें सिफ़ारिश करके मैंने उसका दाख़िला करा दिया। उधर उसका दाख़िला हुआ था और इधर मेरा मकान-मालिक सात महीनों का बक़ाया किराया माँगने में हरामीपन की हद तक उतर आया। एक बार मैंने मज़ाक़ में मामला रफ़ा-दफ़ा करने की ग़र्ज़ से कहा, “नौ महीने हो जाने दीजिए। सात महीने में जच्चा-बच्चा दोनों को ख़तरा रहता है।” सुनकर मकान-मालिक ने पिच्च से थूक दिया। पान की पीक ने मेरी वाक्पटुता की रेड मार दी थी।
आख़िरकार मैंने पाया कि इस मामले में सात महीने का मुक्त निवास भी उपलब्धि है, मंडली में कमरा तलाश करने की बात चलाई। अगले दिन सभी कमरे की खोज में सक्रिय हो गए। नवागंतुक विनोद भी इस काम में जोत दिया गया था।
कमरे के मामले में मकान-मालिक सिद्धांतवादी होते हैं। उन्होंने कुछ सिद्धांत बना रखे थे, जैसे शादीशुदा लोगों को ही किराएदार बनाएँगे। नौकरीवालों को वरीयता देंगे। नौकरी स्थानांतरणवाली हो। कुछ लोग गोश्त-मछली खाने पर पाबंदी लगाते, तो कुछ रात में देर से आने पर। वग़ैरा...वग़ैरा...!
मैं इन सभी मानदंडों पर अयोग्य था फिर भी छल-प्रपंच कर कमरा प्राप्त ही कर लेता। दरअसल हम भी कोई ऐरे-ग़ैरे नहीं थे। मेरा और मेरी मंडली का भी एक सिद्धांत था कमरे को लेकर। कमरा उसी मकान में लिया जाएगा जिसमें और जिसके आसपास नैसर्गिक सौंदर्य हो, यानी सुंदरियाँ हों। इस बात की जानकारी हेतु हमारे पास उपाय था। हम पान और चाय की दुकानों पर ग़ौर करते, जहाँ मुस्टंडों का जमावड़ा होता, उसके आसपास कमरा पाने के लिए जद्द-ओ-जहद करते। कमरा न मिले यह दीगर बात है किंतु हमारे प्रयोग की प्रामाणिकता कभी भी संदेहवती नहीं हो पाई थी। वाक़ई वहाँ सुंदरियाँ होतीं। चाय-पान की दुकानों के अलावा एक और दिशासूचक था हमारे पास पड़ताल का। हम मकान के छज्जों और छतों पर दृष्टिपात करते। यदि शलवार, कुर्ते, दुपट्टे या अंतरंग वस्त्र लटकते होते, तो हम वहाँ बातचीत करना मुनासिब समझते।
विनोद इस प्रसंग में कुछ ज़्यादा ही मुद्दहर निकाला। नैसर्गिक सौंदर्य या नैसर्गिक सौंदर्य के वस्त्र देखता तो पहुँच जाता और पूछता, “मकान ख़ाली है क्या?” “नहीं” सुनने के बाद वह प्रश्न करने लगता कि बताया जाए आसपास में कोई मकान ख़ाली है? ख़ैर, काफ़ी छानबीन के बाद एक कमरा मिला। बातचीत के पहले हमने छज्जे पर कुँवारे कपड़े देखे और छत पर तीन नैसर्गिक सौंदर्य।
मकान-मालिक को तुरंत एडवांस दिया और पहली तारीख़ से रहने की बात पक्की कर ली। जब हम कमरे में आए तो यह ज़िंदगी का बहुत बड़ा घोटाला साबित हुआ था। मंडली के प्रत्येक सदस्य का चेहरा ग़मगीन हो गया था। वे तीनों सौंदर्य विभूतियाँ रिश्तेदार थीं जो मंडली से बेवफ़ाई करके चली गई थीं रघुराज ने कहा, “सालियों के शलवार, कुर्ते और दुपट्टे अब कहीं और टँगते होंगे और युवा पीढ़ी को दिशाभ्रमित करते होंगे।” प्रदीप ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘सब माया है।’ और कमरे में कोरस शुरू हो गया:—
माया महा ठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलें
बोले मधुरी बानी।
केशव के कमला है बैठी शिव के भवन भवानी
पंडा के मूरति होई बैठी तीरथ में भई पानी...
योगी के योगिन है बैठी राजा के घर रानी।
काहू के हीरा है बैठी काहू के कौड़ी कानी...
भक्त के भक्तिन है बैठी ब्रह्मा के ब्रह्मानी।
कहै कबीर सुनो हो संतो वह अब अकथ कहानी...
माया महा ठगिनि हम जानी।
मंडली में कई लोग थे, प्रदीप, रघुराज, कृष्णमणि त्रिपाठी, विनोद, दीनानाथ, त्रिलोकी, मदन मिश्रा आदि। हम विश्वविद्यालय के बेहद पढ़-लिखे लड़कों में थे। हमारी पढ़ाई-लिखाई वह नहीं थी, जो गुरुओं के पाजामे का नाड़ा खोलने से आती है। हम उस तरह के पढ़ने वाले भी नहीं थे, जो प्रकट हो जाने वाले ग्रस्त रोगी की तरह अपने बाड़े में ही दुबके रहते हैं। राजनीतिक रुझान भी थी हमारी।
हम लोग लड़कियों के दीवाने थे। कोई हमारी आंतरिक बातें सुनता तो हमें लंपट और लुच्चा मान लेता। मगर हम ऐसे गिरे हुए नहीं थे। लड़कियों के प्रति यह आसक्ति वास्तव में जिज्ञासा और खेल थी। सीमा का अतिक्रमण हराम था हमारे लिए। सच कहूँ, हम इतने नैतिक थे कि अवसर को ठुकरा देते थे। वैसे तो हम लोगों की तरफ़ अनेक लड़कियाँ लपकती थीं। हम अपने-अपने विभाग के हीरो थे। यह भी बता दूँ कि चिकने-चुपड़े गालों, सफाचट मूँछों और दौलत की वजह से हीरो नहीं थे। बल्कि हम में से अधिसंख्या तो दाढ़ी भी रखते थे। जहाँ तक दौलत का प्रश्न है, तो हम लड़कियों से प्राय: चंदा माँगते थे। इस राह पर त्रिलोकी दो डग आगे था। वह व्यक्तिगत कामों के लिए भी लड़कियों से चंदा वसूलता। लेकिन वह उन नेताओं की तरह नहीं था जो सामूहिक कल्याण के लिए चंदा लेकर अपने तेल-फुलेल पर ख़र्च करते हैं। त्रिलोकी को जब निजी काम के लिए ज़रूरत होती, तो ज़रूरत बतलाकर पैसा लेता। वह कहता, “विभा, भोजन के लिए पैसा नहीं है, लाओ निकालो।”
एक बार एक लड़की ने त्रिलोकी से पूछा, “तुम हम लड़कियों से ही क्यों हमेशा चंदा माँगते हो?”
“क्योंकि वे दयालु होती हैं। लड़के घाघ और क्रूर होते हैं।”
त्रिलोकी की इस स्थिति की वजह उसकी एक ख़राब आदत थी। घर से जब उसका मनीआर्डर आता तो वह सनक जाता। रिक्शा के नीचे उसके पाँव नहीं उतरते थे। दोस्तों के साथ नॉनवेज खाता और सिनेमा देखता। एक-दो बार जन-कल्याण भी कराता। ‘जल-कल्याण’ मंडली में शराब का कोड था और ‘देशभक्ति’ प्यार-मोहब्बत का। हाँ तो हफ़्ते-भर में त्रिलोकी के पैसे चुक जाते और वह सड़क पर आ जाता।
कमोबेश मंडली के हर सदस्य की स्थिति यही थी। हमारी त्रासदी थी कि हम सुखमय जीवन जीने की कामना रखते थे किंतु हमारे मनीआर्डर वानप्रस्थ पहुँचाने वाले थे। यह दीगर बात है कि सब लोग त्रिलोकी की तरह महीने के पहले हफ़्ते में ही कंगाल नहीं होते थे लेकिन महीने के अंत में भोजन को लेकर तीन तिकड़म करना सभी की बाध्यता थी। कृष्णमणि होटल में रजिस्टर देखता। जितने मीटिंग वह अपने एक रिश्तेदार के यहाँ खाकर संतुलन स्थापित करता। मदन मिश्र प्रायः कमरे में खिचड़ी पकाकर मेस में एब्सेंट लगवाता। रघुराज भूखा रहकर भी हँसते रहने की क्षमता अर्जित कर चुका था। प्रदीप जिसमें ऐसी कोई योग्यता नहीं थी, लोगों के यहाँ घूम-घूमकर खाता। पंकज सक्सेना शर्मीला था, सो मंडली ने विनोद को समझा दिया था, वह उसका सत्कार करता। विनोद फले-फूले परिचितों से सम्मानजनक रक़म क़र्ज़ लेता था, जिसे कभी नहीं चुकाता था।
छुट्टियों के बाद युनिवर्सिटी खुली थी, इसलिए लोगों के चेहरों पर एक ख़ास तरह का नयापन और उल्लास था। पर ये चीज़ें उतनी नहीं थीं, जितनी इस मौक़े पर होनी चाहिए थीं। क्योंकि कल इस जाड़े की पहली बारिश हुई और आज हवा तेज़ चल रही थी, इसलिए लोग ठंड से सिकुड़े हुए थे।
मैं कुछ ज़्यादा ही पहले अपने हिंदी विभाग आ गया था, इसलिए सामने के लॉन में खड़ा धूप खा रहा था। मुझे त्रिपाठी का इंतिज़ार था कि वह आए तो चलकर चाय पी जाय। मोहन अग्रवाल साले का पीरियड कौन अटेंड करे।
मैं सदानंदजी के अलावा और किसी का पीरियड अटैंड नहीं करता था क्योंकि बाक़ी अध्यापक पढ़ाई के नाम पर कथावाचन करते थे या ख़ुद सही किताब से नक़ल करके इमला लिखवाते थे। एम.ए. में नक़ल का इमला मैंने इनकी कक्षाओं का बायकाट कर दिया पर मेरे इस कुकर्म पर वे भन्नाने की जगह परम प्रसन्न हो गए। क्योंकि अब क्लास में निर्भीक भाव से लघुशंका-दीर्घशंका समाधान कर सकते थे...
मुझे त्रिपाठी पर झुंझलाहट हुई, आ क्यों नहीं रहा है। कहीं डूब गया होगा बतरस में। त्रिलोकी को बोलने का भयानक चस्का था। उसके बारे में प्रसिद्ध था कि त्रिलोकी जब बोलना शुरू करता है तो सामनेवाला केवल कान होता है और वह केवल मुँह।
“मैं कहता हूँ, निकल जाओ... निकल जाओ...”
मेरे विभाग में उसके आने का एक उद्देश्य सुंदरियों को देखना भी होता था। यहाँ एम.ए. के दोनों भागों में लड़कियों की तादाद लड़कों से ज़्यादा होती थी, इसलिए यह विभाग अन्य छात्रों का तीर्थ होता था। यहाँ लोग विपरीत सेक्स के चक्कर में इस तरह मंडराते, जैसे अस्पताल और मंदिरों के आसपास मंडराते हैं। वैसे यह विश्वविद्यालय का मीरगंज बोला जाता था। मीरगंज इलाहाबाद का वह स्थल है, जो नैतिकतावादी लोग बहुत सतर्क होकर घुसते और टिकते हैं और बाहर निकलते हैं।
तभी सदानंदजी का स्कूटर रुका और वह अपना हैल्मेट हाथ में झुलाते हुए आने लगे। हमारी मंडली उनका बेहद सम्मान करती थी लेकिन उनसे हमारे संबंध बेतकल्लुफ़ थे। एक बार हमने उनसे शराब के लिए रुपए भी लिए थे। वह अपनी मेधा और वामपंथी रुझान के अतिरिक्त एक अन्य प्रकरण की वजह से भी चर्चित थे, उन्होंने प्रेम-विवाह किया था किंतु विभाग की अध्यापिका सुनीता निगम से प्रेम करते थे। दोनों दुस्साहसी थे और भरे विभाग में एक-दूसरे का हाथ पकड़ लेते थे। कई लोगों ने उन्हें सिविल लाइंस के एक अच्छे रेस्तराँ में देखा-सुना था। गुरु के बारे में ज़्यादा क्या कहा जाए, समझदार के लिए इशारा काफ़ी है। मतलब यह, कि विवाह न करने के बावजूद दोनों दंपती थे।
सदानंदजी मुझे देखकर मुस्कुराए और पास आकर मेरी अभी हाल में छपी एक कविता की तारीफ़ करने लगे। मैंने सोचा इस तारीफ़ को कोई सुंदरी सुनती तो आनंद था। तभी एम.ए. प्रीवियस की नई किंतु सुंदर लड़की उपमा श्रीवास्तव दिखी। हम दोनों का हल्का-हल्का चक्कर भी चल रहा था। मैं उसे बुलाकर सदानंदजी से परिचय कराने लगा। परिचय के बाद मैंने कहा, “हाँ तो सर, मेरी उस कविता में कोई कमी हो तो वह भी कहें, तारीफ़ तो आपने बहुत कर दी।”
वह मुस्कुराकर बोले, “नहीं भई, यह तुम्हारी बहुत अच्छी कविता है।”
“सर प्रणाम!” त्रिलोकी आ गया था। आज हम चार लोग धूप के एक वृत्त में खड़े थे। तभी विभागाध्यक्ष महेश प्रसाद जिन्हें मंडली गोबर-गणेश कहती थी, लपड़-झपड़ आते दिखाई पड़े। उन्हें देखकर उपमा थोड़ी दूर खिसककर खड़ी हो गई। कई दूसरे लोगों ने भी अपनी पोजीशन बदल ली। क्योंकि सदानंदजी और गोबर-गणेशजी में दाँतकटी दुश्मनी थी। गोबर-गणेशजी हिंदी विभाग का अध्यक्ष होने के नाते अपने को साहित्यकार लगाते थे पर साहित्य में मान्यता सदानंदजी की थी। इसके अतिरिक्त गणेशजी प्रो. वी.सी. लॉबी में थे जबकि सदानंदजी एंटी.वी.सी. लॉबी में थे।
और सबसे ख़ास बात, इस विश्वविद्यालय के अध्यापकों में ब्राह्मण और कायस्थ जाति के लोग शक्तिशाली थे जबकि सदानंदजी सिंह थे। इस मामले में भी गणेशजी का कहना था कि असल में वह सिंह नहीं यादव थे। सदानंदजी मथुरा के नंद कुलवंशी थे।
गणेशजी निकट आए, तो सदानंदजी ने नहीं लेकिन मैंने और त्रिलोकी ने प्रणाम किया। जवाब में उनका सिर काँपा तक नहीं और आगे बढ़ गए। त्रिलोकी उनके पीछे हो लिया, “सर, हमारा और आपका मुद्दा आज हर हालत में साफ़ हो जाना चाहिए।”
मैं भी सदानंदजी को छोड़कर लपका। त्रिलोकी गणेशजी के संग उनके कमरे में घुस गया, तो मैं चिक से सटकर खड़ा हो गया।
“कैसा मुद्दा?” गणेशजी हाँफ़ रहे थे।
“भक्ति आंदोलन के सामाजिक कारण क्या थे?”
“उस दिन बताया था। सुना नहीं क्या?” उन्होंने किसी बच्चे की तरह चिढ़कर कहा।
“उस दिन भक्ति आंदोलन के सामाजिक कारण बतलाने के नाम पर आप सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश करते रहे।”
“मैं तुम्हें क्यों बताऊँ सामाजिक आधार?” तुम तो हिंदी के छात्र हो नहीं। आउटसाइडर होकर मेरे विभाग में कैसे घुसे?
त्रिलोकी कुर्सी खिसकाकर खड़ा हो गया। हाथ के पंजों को मेज़ पर रखकर थोड़ा-सा झुक गया, “भक्ति आंदोलन पर हिंदी वालों का बैनामा है क्या? रही बात आउटसाइडर की, तो जो साले लुच्चे-बदमाश आपके विभाग में आँख सेंकने आते हैं, उनको कभी आपने मना किया? मना किया? आंय? उनको मना करने में आपकी दुप-दुप होती है। मीना बाज़ार बना रखा है हिंदी डिपार्टमेंट को। महानगरों की सिटी बसें बना रखा है।”
“मैं कहता हूँ, निकल जाओ यहाँ से।”
“तो आप मुझे बाहर निकाल रहे हैं। मैं हिंदी का विद्यार्थी न होते हुए भी आपको चैलेंज करता हूँ कि हिंदी साहित्य ही नहीं, संसार के साहित्य के किसी मसले पर बहस कर लें। बहस में अगर जीत जाएँ तो मैं पेशाब से अपनी मूँछें मुड़ा दूँगा।”
“मैं कहता हूँ, निकल जाओ....निकल जाओ....”
“मुझसे निकलने को कह रहे हैं। दुरदुरा रहे हैं जबकि मैं साहित्य का योग्य अध्येता हूँ और गुंडों को आप शेल्टर देते हैं। मैं जा रहा हूँ लेकिन जाते-जाते एक बात कह देना चाहता हूँ कि क्या कारण है, जबसे आप हेड हुए, यहाँ केवल लड़कियों ने टाप किया?”
वह तमतमाया हुआ बाहर आ गया। मैंने ख़ुश होकर उसकी पीठ पर हाथ रखा, “वाह गुरु! मज़ा आ गया। चलो, लल्ला की दुकान पर तुम्हें चाय पिलाता हूँ।”
“अबे पहले एक ठो सिगरेट तो पिला।”
“हाँ...हाँ...गुरु...लो...”
हम दोनों सिगेरट पी रहे थे। पढ़ने में रुचि रखने वाले लड़के-लड़कियाँ हमें मुग्ध भाव से देख रहे थे। लेकिन पास नहीं आ सकते थे। क्योंकि उन नन्हें-मुन्ने प्यारे बच्चों को अच्छे नंबर लाने थे।
उपमा श्रीवास्तव भी एक कोने में खड़ी होकर हमें देख रही थी। त्रिलोकी मुस्कुराया, “कहो कब तक भाभीजी को देवर दिखलाते रहोगे। वैसे उनके बग़ल वाली मेरी श्रीमती हो सकती है।”
“श्री शादीशुदा! सपने देखना छोड़ दो।” मैंने कहा।
“लेनिन के अनुसार सपने हर इंसान को देखने चाहिए।”
“वह तो दिन वाला सपना है, तुम तो रातवाले सपने देख रहे हो।”
“तुम कुँवारे साले स्वप्न-दोष से आगे जा ही नहीं पाते...”
“हा...हा...हा...” मैंने ठहाका लगाया और कहा, “इस बात का फ़ैसला लल्ला की दुकान पर होगा।”
लल्ला की दुकान पर लड़कों का ख़ूब जमावड़ा होता था जिसकी ख़ास वजहें थीं। दुकान युनिवर्सिटी और कई हॉस्टलों के निकट थी। फिर सामने विमेन्स हॉस्टल था। इसके अलावा लल्ला ने एक हिस्से में जनरल स्टोर्स की दुकान खोल ली थी। वीमेन्स हॉस्टल के आस-पास यह इकलौती अच्छी दुकान थी, सो हमेशा दो-चार लड़कियाँ ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त करती मिलतीं।
मैं और त्रिलोकी दुकान पर पहुँचे, वहाँ इलेक्शन की चर्चा थी। हमने चर्चा में शरीक होने के पहले जनरल स्टोर्स की तरफ़ देखा, कुछ लड़कियाँ और कुछ सामान्य जन सामान ख़रीद रहे थे। त्रिलोकी ने मुझे कोंचा, “वो पीली साडीवाली को देखो।” मैंने देखा, गोरा रंग और बड़ी-बड़ी आँखों वाली थी वह। पीली साड़ी ने उसके गोरेपन को चंदन का रंग बना दिया था। शेम्पू किए चमकते हुए बाल घुँघराले और कटे हुए थे।
मैंने उसे पहले भी कई बार देखा था। वह भेष बदला करती थी। कभी शलवार-कुर्ते में होती तो कभी पैंट-शर्ट में तो कभी स्कर्ट में। उसके कपड़े कभी ढीले होते तो कभी चुस्त। आज पीली साड़ी पहने थी और अलौकिक बाला लग रही थी।
“देख लिया।” मैंने बताया।
“क्या प्रतिक्रिया है?”
“भारत में मोनालिसा।”
“सी...ई...ई...यह पंकज सक्सेना की है। पंकज की योजना है, नौकरी लगते ही शादी कर लेगा।”
“ईश्वर इसे अखंड सौभाग्यवती बनाए।” मैंने कहा। हम दोनों आकर दुकान के स्टूल पर बैठ गए। छात्र संघ के चुनाव परिणाम पर चर्चा चल रही थी। इस बार हमारी मंडली जिस संगठन से जुड़ी थी, उसने भी अध्यक्ष पद के लिए प्रत्याशी खड़ा किया था जिसने अच्छी तरह शिकस्त खाई थी। दरअसल आज़ादी के बाद इस विश्वविद्यालय के छात्रसंघ का इतिहास रहा है कि अध्यक्ष की कुर्सी पर किसी ठाकुर या ब्राह्मण ने ही पादा है और प्रकाशन मंत्री की कुर्सी कोई हिजड़ा-भड़वा टाइप का ही आदमी गंधवाता रहा है। अध्यक्ष विगत अनेक वर्षों से भारतीय राजनीति के एक धुर कूटनीतिक बहुखंडीजी की उँगलियों और आँखों की संगीत, चित्रकला और भाषा को तत्क्षण समझ लेनेवाला होता रहा है। इसके मूल में छिपा रहस्य यह है कि बहुखंडीजी पहले इस बात का जायज़ा लेते हैं कि कौन दो सबसे वरिष्ठ प्रतिद्वंद्वी हैं। फिर उनका कुबेर दोनों को समृद्ध करता है। इसके बावजूद इस बार हमारा संगठन बहुखंडीजी की मंशा का खंड-खंड करता। बहुखंडीजी ही क्यों, शराब के बड़े ठेकेदार सीताराम बरनवाल, उद्योगपति हाफ़िज़, सभी के फ़न को कुचलता हमारा संगठन। सभी की लपलपाती जीभ को सिद्धाँतों के धागे से नापता हमारा संगठन। लेकिन चुनाव की पिछली रात जनेऊ घूम गया। बहुखंडीजी का प्रत्याशी इस बार ब्राह्मण था। मशाल जुलूस निकालने के बाद वह सभी छात्रावासों में गया और अपनी जाति के लोगों की मीटिंग कर पानी भरने की रस्सी जितनी मोटी जनेऊ निकालकर गिड़गिड़ाया, “जनेऊ की लाज रखो।” और हम हार गए।
हम छात्र-संघ के चुनाव की चर्चा में डूब-उतरा ही रहे थे कि रघुराज हाँफ़ता हुआ आया और मुझसे तथा त्रिलोकी से एक साथ बोला, “छ: समोसे खिलाओ।”
हम समझ गए, आज खाना नहीं खाया है उसने। इस समय वह थोड़ा बुझा हुआ भी था कि त्रिलोकी ने उससे पूछा, “कहाँ से आ रहे हो महाराज?”
“यार, दो लड़कियों से आरूढ़ रिक्शे के पीछे साइकिल लगाई। रिक्शा सिनेमा हाल के पास रुका। मैं भी देखने लगा फ़िल्म।”
हम समझ गए, अब रघुराज शुरू हो गया है। मैंने पूछा, “कैसी थी फ़िल्म?”
“ठीक ही थी, बस अश्लीलता का अभाव था।” रघुराज की विशेषता थी कि मूड की स्थिति में संसार के सभी क्रिया व्यापार के मूल्याँकन के लिए उसके पास इकलौता बंटखरा सेक्स था।
“और लड़कियाँ कैसी थी?” त्रिलोकी का प्रश्न था।
“क्षमा करना यार, मैं बताना भूल गया। उसमें एक लड़की थी, दूसरी नव-विवाहिता थी, भाभीजी!”
“पर तुम किसके लिए प्रयासरत थे?”
“दोनों के लिए। बेशक दोनों के लिए, लेकिन ज़्यादा भाभीजी के लिए।”
“लेकिन रघुराज, मैंने प्रायः देखा है कि तुम्हें शादी-शुदा औरतें ज़्यादा अच्छी लगती हैं। इसकी वजह क्या है?”
“इसकी वजह वे ज़्यादा ची...ची...नहीं करतीं...”
“वाह रघुराज, तुम्हारी पकड़ बहुत अच्छी है। तुमको लेखक होना चाहिए। उपन्यास पर काम करो रघुराज।”
“कर रहा हूँ। एक उपन्यास पर काम कर रहा हूँ—अतृप्त काम वासना का ज़िंदा दस्तावेज़। और एक कहानी पूरी की है—इलाहाबाद के तीन लड़कों को देखकर दिल्ली की लड़कियाँ विद्रोह कर घर से बाहर।” उसने ज़ोर का ठहाका लगाया, “साले लेखकों की दुम। आज तक मैंने कुछ लिखा है? जो अब लिखूँगा। फिर आज तक बाँझ औरत के कभी संतान हुई है? हा...हा...हा...”
रघुराज अब अपनी रौ में था। हमने वहाँ से उठ लेना ही बेहतर समझा, क्योंकि वहाँ मंडली से बाहर के कई लड़के थे जिनकी निगाह में हम ब्रह्मचारी क़िस्म के सरल सीधे माने जाते थे।
हम उठने लगे तो दूसरे लोगों ने हमें रोका लेकिन हम रुके नहीं। थोड़ी ही दूर बढ़े होंगे कि रघुराज ने अपना काम शुरू कर दिया। आने-जानेवाली प्रत्येक लड़की को वह टकटकी बाँधकर देखता। हमने टोका तो कहने लगा, “कहाँ क़ायदे से देख पाता हूँ। ईश्वर ने एक आँख पीछे भी दी होती, तो कितना आनंद होता।”
मैंने सलाह दी, “तुम इसके लिए तपस्या शुरू कर दो।”
“ठीक है।” वह ठिठक गया, “मैं यहीं धूनी रमाऊँगा।” ठीक सामने विमेन्स हॉस्टल था। मुझे इसकी यह आदत बिलकुल अच्छी नहीं लगी, देखो तुम विमेन्स हॉस्टल के बारे में कुछ मत कहना।”
“क्यों?”
“क्योंकि जब सूरज डूब जाता है तो अँधेरे में लड़कियों का यह हॉस्टल मुझे एक अद्भुत रहस्य लोक-सा लगता है...मेरे भीतर इसके लिए एक पवित्र भाव है।”
“देखो बालक! वैसे मैं तुम्हारे तथाकथित पवित्र बोध को अपवित्र नहीं करना चाहता।” रघुराज गंभीर हो गया, लेकिन अज्ञान की वजह से जन्मी पवित्रता कोई वज़न नहीं रखती इसलिए तुम चाहो, तो मैं तुम्हारी जिज्ञासा को शाँत कर सकता हूँ। चाहते हो?”
त्रिलोकी बोल पड़ा, “हाँ...हाँ...महाराज बताओ...”
“तो सुनो।” वह रुक गया। हम लोगों को पल-भर देखा। फिर धीरे-धीरे चलते हुए कहने लगा, मैं कुछ बताने से पहले एक सवाल करना चाहता हूँ। बताओ, इस हॉस्टल में पी.एस.एफ. से जुड़ी लड़कियाँ अधिक क्यों हैं? हमारे संगठन की तरफ़ वे ज़्यादा आकर्षित क्यों नहीं होती?”
“तुम ही बताओ महाराज! सब तुम ही बताओ!” त्रिलोकी ने व्यग्र होकर कहा।
“ठीक है, मैं ही बताता हूँ। इसलिए कि पी.एस.एफ. भद्र लोगों की वर्चस्ववाली संस्था है। उसमें लड़कियाँ इसलिए जाती हैं कि उससे जुड़कर उनमें अपने को विशिष्ट समझने का एहसास होता है। देखो, आजकल संपन्न घरों के सदस्यों में सामाजिक कार्य करने का चस्का जो पकड़ता जा रहा है लेकिन उनके ये कार्य मूलतः जनता के संघर्ष की धार को कुंद करने के लिए होते हैं, यही बिंदु पी.एस.एफ. और इन सुविधाभोगी लड़कियों के बीच सेतु का काम करता है।”
“रघुराज, हमने पी.एस.एफ. और लड़कियों के संबंध पर प्रकाश डालने के लिए प्रार्थना की नहीं थी।” मैंने अधीर होकर कहा। त्रिलोकी ने भी मेरी बात पर हामी भरी। रघुराज भड़क गया, “तुम लोग तभी तो अच्छे लेखक नहीं बन सके।” वह ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगा, “केंद्रीय तत्त्व को समझे बिना यथार्थ को फैलाने की कोशिश करते हो। यही हड़बड़ी वाली आदत रही, तो शीघ्रपतन के रोगी कहलाओगे...”
हमने हाथ जोड़ लिया, “अच्छा भइया सुनाओ! सुनाओ!”
“चलो क्षमा कर देता हूँ। हाँ तो मेरी उपरोक्त बात से तत्त्व निकला कि विमेन्स हॉस्टल की अधिसंख्या लड़कियाँ आर्थिक दृष्टि से दुरुस्त परिवारों से जुड़ी हैं। लेकिन इससे क्या होता है। यहाँ भी कई तरह की भिन्नाताएँ कई तरह की कहलों को जन्म देती हैं। अब बहुत संभव है, थानेदार की बिटिया का मनीआर्डर और जूनियर इंजीनियर की बिटिया का मनीआर्डर क्रमश: डिप्टी, एस.पी. और असिस्टेंट इंजीनियर की बिटिया के मनीआर्डरों से ज़्यादा रुपयों का होता हो। ऐसी स्थिति में पहली दोनों का घमंड अपने बाप के पैसों का होगा, दूसरी दोनों को अपने-अपने बाप के पद का। दूसरी तरफ़ हीनता भी अपने बाप के पद का। दूसरी तरफ़ हीनता भी अपने बाप के कारण होगी कि एक का बाप पैसा रखते हुए भी मातहत है, दूसरे का बाप अफ़सर होते हुए भी मातहत से कम समृद्ध। लड़कियों के बीच कलह का एक प्रमुख कारण यह है। तुम लोग जानते ही हो, इन लड़कियों में होड़ की भावना बड़ी प्रबल होती है। वे पैंटी से लेकर प्रेम तक में अपनी चीज़ को श्रेष्ठ देखना चाहती हैं। कम-से-कम दूसरों से उन्नीस तो नहीं ही दिखना चाहती हैं। अब जिसकी माली हैसियत अपेक्षाकृत पिछड़ी होती है, वे गड़बड़-सड़बड़ हो जाती हैं। ऐसे में पहला काम किसी मालदार प्रेमी को पटा लेने का होता है। इसके बावजूद कमी पड़ी तो पतन शुरू हो जाता है...” इतना कहकर रघुराज चुप हो गया। हम भी चुप हो गए। कुछ देर बाद मैंने कहा, “और कुछ ज्ञान दोगे?”
“समय क्या है?”
“तीन चालीस।”
“तो त्रिलोकी तुम भी सुनो, हमें चलना भी है। चार तीस पर जाकर सांस्कृतिक प्रपंच की विरोध करना है।”
“पर तुमने यह नाम क्यों दिया?”
“क्योंकि किसी भी स्वस्थ कला के निर्माण के लिए इसकी समाज से प्रतिक्रिया अनिवार्य होती है पर जिनको तुम लोगों आज डंडा करोगे, वे स्वयं रचते, स्वयं आनंदित होते हैं।” हम अल्फ़्रेड पार्क यहाँ से आधा घंटा में आसानी से पहुँच सकते थे। यानी कि हमारे पास बीस मिनट का वक़्त था। पर हमने तय किया कि वहीं चलते हैं। वहाँ हम धूप का एक टुकड़ा खोजेंगे और बीस मिनट लेटे रहेंगे।
शहीद पार्क से इकट्ठा होकर हमें कला भवन के लिए कूच करना था। बाक़ी लोग वहीं मिलने वाले थे।
मंडली के नेतृत्व में तमाम युवा कलाकार छात्र भवन में हो रहे नाट्य समारोह का विरोध करने वाले थे। क्योंकि कला भवन एक सरकारी संस्था थी और इसके कार्यक्रम जनता और उसके अपने कलाकारों से मुँह मोड़े रखते थे। इसमें दर्शक श्रोता अफ़सर वग़ैरा होते और कलाकार विदेशी मेकअप में ऐंठे रहने वाले। यहाँ शराब की झमाझम बारिश और रासलीला के प्रयत्न की सुरसुरी समय-असमय हर समय देखी जा सकती थी।
विनोद ने कहीं से कार्यक्रम का पास उपलब्ध कर लिया था। योजना यह थी कि वह हमारे विरोध के पर्चों का बंडल झोले में छुपाकर भीतर हो जाएगा और भीतर जितना बाँट सकेगा, बाँटेगा, बाक़ी लोग बाहर नारेबाज़ी करेंगे। कलाभवन की कमर तोड़ने की अब हम ठान चुके थे...
तो मंडली के लोगों का एक रूप था बौद्धिक मस्त और निर्भय।
ज़िंदादिली की रोशनाई में डूबी क़लमें थे हम।
पर हम और भी कुछ थे। कहीं कुछ बुरा देखें, बुरा सुनें—हम क्रोध से काँपने लगते। इतने अजीब थे हम कि यदि ख़ुद ही ग़लत कह या कर जाते तो ख़ुद पर ही ख़फ़ा होने लगते।
हम पोस्टर चिपकाते। नारे लगाते। हम जुलूसों में होते, सभाओं में होते, हड़तालों में होते। हम पुलिस और गुप्तचरी के रजिस्टर में दर्ज थे। सचमुच हम पढ़ाकू और लड़ाकू थे।
हम गर्म तंदूर पर पक रही रोटियाँ थे।
लेकिन हम ऊपर उड़ते गैस-भरे रंग-बिरंग ग़ुब्बारों की तरह थे। हम उड़ रहे थे...हम उड़ रहे थे... उड़ते-उड़ते हम ऐसे वायुमंडल में पहुँचे जहाँ हम फूट गए। अब हम नीचे की ओर गिर रहे थे। अपना संतुलन खोए हम नीचे की ओर गिर रहे थे। हमारा क्या होगा, हमें पता नहीं था...।
हमें नौकरी मिल नहीं रही थी जबकि वह हमारे लिए साँस थी इस वक़्त।
उपमा मुझसे उखड़ी-उखड़ी रहने लगी। जब भी मिलती मशविरा देती कि मुझे कंपटीशन की पढ़ाई और मेहनत से करनी चाहिए। इस पर मैं क्रुद्ध हो जाता। धीरे-धीरे हमारे संबंधों के पाँव उखड़ने लगे...।
सदानंदजी भी मंडली से दोस्ताना अंदाज़ में नहीं मिलते। वह मंडली पर दया करने लगे थे।
अब हम भोजन के लिए लाल-तिकड़म नहीं करते थे। न होने पर भूखे रह जाते। उधार लेने का मनोबल भी खो चुके थे हम।
कोई हमसे पूछता, क्या कर रहे हो? तो प्रत्युत्तर में हम काँपने लगते। किसी से मिलने के पहले ही हमारे दिल की धड़कन तेज़ हो जाती। कहीं पूछ न लिया जाए, क्या कर रहा हूँ मैं?
आपस में भी मिलना कम होने लगा। हम परस्पर कतराने लगे। हमारे बीच मोहब्बत बदस्तूर थी पर बातचीत में हम थोड़ा कटखने हो गए थे। एकबार हम लोग छुट्टियों में अपने-अपने घर गए। लौटने पर हम सभी थके और हारे हुए लग रहे थे। हमने अपने माता-पिता-परिचितों को निराश किया था जिससे वे चिढ़ गए थे। उन्होंने हमें हिकारत से देखा था और हम हार गए थे। थक गए थे।
फिर भी हमने तय किया था कि हम घर चले जाएँगे। हम 'कुटिया' पर इकट्ठा होने वाले थे—अपने-अपने घरों को प्रस्थान करने के लिए।
हम ख़ुशी या फ़ायदे के लिए नहीं वापस हो रहे थे। हम मजबूर थे। क्योंकि यहाँ तो जीना मुहाल हो गया था। गुज़ारा मुश्किल था।
बाद की कहानी यह कि हम कुटिया पर इकट्ठा हो गए थे। विनोद का यह कमरा आधुनिक शैली का था पर उसकी जीवन-पद्धति ने इस आधुनिकता का कबाड़ा कर दिया था। किताबें और कपड़े हर जगह फैले हुए थे। उसने हर जगह रंगीन तस्वीरें चिपका रखी थीं। चेग्वारा की बग़ल में एक सुंदरी कूल्हे मटका रही थी...
सबसे पहले त्रिलोकी बहका। वह हाथों में शराब का गिलास लेकर खड़ा हो गया और बोला, “भाइयो और बहनो!”
“नेताजी, यहाँ कोई लौंडिया नहीं है।” प्रदीप चिल्लाया। वह भी हल्के, बहुत हल्के सुरूर में आ गया था।
“बड़े अफ़सोस की बात है।” त्रिलोकी दुखी होकर बोला, “यह भारतवर्ष के लिए बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि हम जैसे महान युवकों के पास न प्रेमिकाएँ है और न नौकरियाँ। हम किसके सहारे जिएँ?”
“मैं जानता हूँ...। जानता हूँ...। लो मैं बैठ जाता हूँ...पब्लिक साली अब समझदार हो गई है...सवाल-जवाब करने लगी है...”
“सवाल-जवाब ही तो नहीं कर रही है जनता, वर्ना हमारी यह दशा नहीं होती...नहीं होती...।” दीनानाथ ने धीमे से कहा।
त्रिलोकी को छोड़कर बाक़ी मंडली अभी नशे में नहीं थीं। नशे की पूर्वावस्था सुरूर में थी।
“आख़िर हम यहाँ क्यों इकट्ठा हुए हैं?” मदन मिश्र दार्शनिक अंदाज़ से बोला। मैंने “यहाँ हम विदाई-समारोह के उपलक्ष्य में एकत्र हुए हैं।”
“नहीं।” प्रदीप ने बताया, “यह बैठक हमारे सुख की शोकसभा है। हमारे पास जो भी सुख था, इस बैठक के पहले ख़त्म हो गया। कल से हम दुखी दुनिया के दुखी नागरिक होंगे।”
“हम नागरिक नहीं हैं। दुखी दुनिया के नागरिक मज़दूर और किसान होते हैं, जिनके श्रम का शोषण होता है। हमारे पास तो सामाजिक श्रम करने का भी अधिकार नहीं है।” त्रिलोकी तैश में आ गया था, जिसके पास कोई काम नहीं होता, वह आदमी नहीं होता। हम आदमी नहीं हैं...इस व्यवस्था ने हमें आदमी नहीं रहने दिया...हमसे हमारा होना छीन लिया गया...।” त्रिलोकी सुबकने लगा। वह सिर झुकाए सुबक रहा था।
जैसे काठ मार गया हो, हम सब स्तब्ध हो गए। इस बात को कृष्णमणि ने सबसे पहले भाँपा। वह आहिस्ते से त्रिलोकी के पास गया और उसके लटके हुए मुँह से एक सिगरेट लटका दी, “नेताजी, ईश्वर एक दिन तुम्हारी सुनेगा ज़रूर। तुम इसी तरह भाषण करो, लेकिन भाषण के बाद असल में सुबकना छोड़ दो तो एक दिन सच्ची-मुच्ची में नेता हो जाओगे और मौज करोगे।”
“हम एक दिन मर जाएँगे। ओर कोई जानेगा भी नहीं।”
विनोद मेज़बानी भूला नहीं, “आप लोगों में जिसके गिलास ख़ाली न हों, कृपया उन्हें जल्द ख़ाली कर लें। यह साक़ी जाम का दूसरा पैग ढालने के लिए उतावला है।”
“काश, आज हम किसी रूपसी के हाथ पीते तो रात कितनी हसीन होती।” रघुराज था।
“मार साले को।” हमने चौंककर देखा, प्रदीप था। उसे भी चढ़ गई थी। उसने फिर कहा, ‘मार साले को’ और चुप हो गया।
मैंने पूछा, “किसे मार रहे हो?”
“अपने दोस्तों के लिए नहीं कह रहा हूँ। बस। मार साले को।”
हम दूसरा पैग पीने लगे। रात और ठंड दोनों बढ़ गई थी। दीनानाथ ने उठकर खिड़कियाँ बंद कर दीं। हमने सिगरेट सुलगा ली। उनका धुआँ कमरे में घुमड़ने लगा। मदन ने घूँट लेकर सिगरेट पी और कहा, “रोज़ मेरी मृत्यु होती है। रोज़ कई-कई बार मेरी मृत्यु होती है। कोई मुझसे पूछता है, ‘तुम क्या करते हो? और मैं मर जाता हूँ।”
“मार साले को।” प्रदीप धुत्त होने के क़रीब पहुँच गया था। वह किसे मारना चाहता था?
“तुम लोग समझते होगे, मैं नशे में हूँ, लेकिन मैं होश-ओ-हवास में कह रहा हूँ। बेरोज़गारी के कारण मैं कई-कई बार रोया हूँ। पिछली बार का रक्षा बंधन था। बहन को देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था। बहन ने मेरे सिरहाने की किताब में चुपके से सौ का नोट रख दिया। उसे पाकेट में रख ख़ूब रोया। मैंने उसे कुछ नहीं दिया। वह नोट अब भी मेरी डायरी में रखा है। मैं उसे देखता हूँ और उदास हो जाता हूँ। कृष्णमणि अपने चेहरे पर हाथ फेरने लगा।
“माँ-बाप दो आँखें नहीं करते—यह झूठ है।” विनोद ने एक साँस में कह डाला, “मेरे माँ-बाप मेरे कमासुत भाई की चापलूसी तक करते हैं पर मुझे देखकर जल-भुन जाते हैं।”
“और मैं। मेरा पिता से कोई संवाद नहीं।” एक दिन उन्होंने ग़ुस्से में चीख़कर कहा “लोग पूछते हैं कि तुम्हारा बेटा क्या करता है? मैं क्या बताऊँ उन्हें? बोल जवाब दे। बोल।” उसी दिन से हम एक-दूसरे से नहीं बोले।”
दीनानाथ आँखें स्थिर कर कुछ सोचने लगा। कहीं खो गया था वह।
“लो मैं भी बता देता हूँ।” रघुराज ने अपना सिर उठाया, उसकी आँखें सुर्ख़ लाल थीं “मैं अपना रहस्य खोलता हूँ। अब हम जा रहे हैं, तो क्या छिपाना। मैं लड़कियों के पीछे कभी नहीं भागा। मैं एक कपड़े की और एक दवा की दुकान पर पार्ट टाइम काम करता रहा। मालिक मुझे ढाई सौ रुपए का चाकर समझते रहे। मैं...मैं...।” वह चुप हो गया, उसकी आवाज़ फँसने लगी थी।
मंडली अवाक थी रघुराज की बात से। रघुराज ने अपना चेहरा फिर घुटनों में छिपा लिया।
हम सभी ने अपनी राम-कहानी कही। हमने तीसरा पैग लिया। हमने चौथा पैग पिया। पाँचवाँ पिया...। हम लुढ़कने लगे।
विनोद ने कहा, “हम खाना कैसे खाएँगे?”
“भविष्य में हमें भूखे रहना है, हम आज भी भूखें रहेंगे।” मदन डंवाडोल होते हुए कह खड़ा हुआ। हम सभी खड़े हो गए।
हम कुटिया के बाहर खड़े थे, अलग-अलग दिशाओं की तरफ़ जाने के लिए। रात गाढ़ी थी और हवा सरसरा रही थी। हमारे मुँह बंद और चेहरे भिंचे हुए थे।
“अच्छा दोस्तो!” रघुराज ने गला साफ़ करते हुए दुबारा कहा, “अच्छा दोस्तो! अब विदा होते हैं...!”
एक क्षण सन्नाटा रहा फिर अचानक हम सब लोग ज़ोर से रो पड़े। हम सारे दोस्त फूट-फूटकर रो रहे थे...
उस दिन अलग होने से पहले हमने तय किया “हममें से यदि कोई कभी सुखी हुआ तो सारे दोस्तों को ख़त लिखेगा।”
लंबा समय बीत गया इंतिज़ार करते, किसी दोस्त की चिट्ठी नहीं आई। मैंने भी दोस्तों को कोई चिट्ठी नहीं लिखी है।
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sabse pahle raghuraj ne ghoshana ki, “main ghar chala jaunga allahabad mein mera pet bhi nahin bhar pata hai ”
krishnamani tripathi ne gambhirta ka natk karte hue kaha, “sabr karo aur ishwar par bharosa rakho uparwala jiska munh chirta hai, use roti bhi deta hai ”
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maya maha thagini hum jani
tirgun phans liye kar Dolen
bole madhuri bani
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“kaisa mudda?” ganeshji hanf rahe the
“bhakti andolan ke samajik karan kya the?”
“us din bataya tha suna nahin kya?” unhonne kisi bachche ki tarah chiDhkar kaha
“us din bhakti andolan ke samajik karan batlane ke nam par aap samprdayikta phailane ki koshish karte rahe ”
“main tumhein kyon bataun samajik adhar?” tum to hindi ke chhatr ho nahin autsaiDar hokar mere wibhag mein kaise ghuse?
triloki kursi khiskakar khaDa ho gaya hath ke panjon ko mez par rakhkar thoDa sa jhuk gaya, “bhakti andolan par hindi walon ka bainama hai kya? rahi baat autsaiDar ki, to jo sale luchche badmash aapke wibhag mein ankh senkne aate hain, unko kabhi aapne mana kiya? mana kiya? anya? unko mana karne mein apaki dup dup hoti hai mina bazar bana rakha hai hindi Dipartment ko mahanagron ki city basen bana rakha hai ”
“main kahta hoon, nikal jao yahan se ”
“to aap mujhe bahar nikal rahe hain main hindi ka widyarthi na hote hue bhi aapko chailenj karta hoon ki hindi sahity hi nahin, sansar ke sahity ke kisi masle par bahs kar len bahs mein agar jeet jayen to main peshab se apni munchhen muDa dunga ”
“mujhse nikalne ko kah rahe hain duradura rahe hain jabki main sahity ka yogya adhyeta hoon aur ghunDon ko aap sheltar dete hain main ja raha hoon lekin jate jate ek baat kah dena chahta hoon ki kya karan hai, jabse aap head hue, yahan kewal laDakiyon ne tap kiya?”
wo tamtamaya hua bahar aa gaya mainne khush hokar uski peeth par hath rakha, “wah guru! maza aa gaya chalo, lalla ki dukan par tumhein chay pilata hoon ”
“abe pahle ek tho cigarette to pila ”
“han han guru lo ”
hum donon sigerat pi rahe the paDhne mein ruchi rakhne wale laDke laDkiyan hamein mugdh bhaw se dekh rahe the lekin pas nahin aa sakte the kyonki un nanhen munne pyare bachchon ko achchhe nambar lane the
upma shriwastaw bhi ek kone mein khaDi hokar hamein dekh rahi thi triloki muskuraya, “kaho kab tak bhabhiji ko dewar dikhlate rahoge waise unke baghalwali meri shirimati ho sakti hai ”
“shri shadishuda! sapne dekhana chhoD do ” mainne kaha
“lenin ke anusar sapne har insan ko dekhne chahiye ”
“wah to din wala sapna hai, tum to ratwale sapne dekh rahe ho ”
“tum kunware sale swapn dosh se aage ja hi nahin pate ”
“ha ha ha ” mainne thahaka lagaya aur kaha, “is baat ka faisla lalla ki dukan par hoga ”
lalla ki dukan par laDkon ka khoob jamawDa hota tha jiski khas wajhen theen dukan yuniwarsiti aur kai haustlon ke nikat thi phir samne wimens hostel tha iske alawa lalla ne ek hisse mein general stors ki dukan khol li thi wimens hostel ke aas pas ye iklauti achchhi dukan thi, so hamesha do chaar laDkiyan kharid o farokht karti miltin
main aur triloki dukan par pahunche, wahan election ki charcha thi hamne charcha mein sharik hone ke pahle general stors ki taraf dekha, kuch laDkiyan aur kuch samany jan saman kharid rahe the triloki ne mujhe koncha, “wo pili saDiwali ko dekho ” mainne dekha, gora rang aur baDi baDi ankhon wali thi wo pili saDi ne uske gorepan ko chandan ka rang bana diya tha shempu kiye chamakte hue baal ghunghrale aur kate hue the
mainne use pahle bhi kai bar dekha tha wo bhesh badla karti thi kabhi shalwar kurte mein hoti to kabhi paint shirt mein to kabhi skirt mein uske kapDe kabhi Dhile hote to kabhi chust aaj pili saDi pahne thi aur alaukik bala lag rahi thi
“dekh liya ” mainne bataya
“kya pratikriya hai?”
“bharat mein monalisa ”
“si i i ” ye pankaj saksena ki hai pankaj ki yojna hai, naukari lagte hi shadi kar lega ”
“ishwar ise akhanD saubhagyawti banaye ” mainne kaha hum donon aakar dukan ke stool par baith gaye chhatr sangh ke chunaw parinam par charcha chal rahi thi is bar hamari manDli jis sangthan se juDi thi, usne bhi adhyaksh pad ke liye pratyashi khaDa kiya tha jisne achchhi tarah shikast khai thi darasal azadi ke baad is wishwawidyalay ke chhatrsangh ka itihas raha hai ki adhyaksh ki kursi par kisi thakur ya brahman ne hi pada hai aur prakashan mantri ki kursi koi hijDa bhaDwa type ka hi adami gandhwata raha hai adhyaksh wigat anek warshon se bharatiy rajaniti ke ek dhur kutanitik bahukhanDiji ki ungliyon aur ankhon ki sangit, chitrakla aur bhasha ko tatkshan samajh lenewala hota raha hai iske mool mein chhipa rahasy ye hai ki bahukhanDiji pahle is baat ka jayza lete hain ki kaun do sabse warishth prtidwandwi hain phir unka kuber donon ko samrddh karta hai iske bawjud is bar hamara sangthan bahukhanDiji ki mansha ka khanD khanD karta bahukhanDiji hi kyon, sharab ke baDe thekedar sitaram baranwal, udyogapti hafiz, sabhi ke fan ko kuchalta hamara sangthan sabhi ki laplapati jeebh ko siddhanton ke dhage se napta hamara sangthan lekin chunaw ki pichhli raat janeu ghoom gaya bahukhanDiji ka pratyashi is bar brahman tha mashal julus nikalne ke baad wo sabhi chhatrawason mein gaya aur apni jati ke logon ki miting kar pani bharne ki rassi jitni moti janeu nikalkar giDgiDaya, “janeu ki laj rakho ” aur hum haar gaye
hum chhatr sangh ke chunaw ki charcha mein Doob utra hi rahe the ki raghuraj hanfata hua aaya aur mujhse tatha triloki se ek sath bola, “chhe samose khilao ”
hum samajh gaye, aaj khana nahin khaya hai usne is samay wo thoDa bujha hua bhi tha ki triloki ne usse puchha, “kahan se aa rahe ho maharaj?”
“yar, do laDakiyon se aruDh rikshe ke pichhe cycle lagai rickshaw cinema haal ke pas ruka main bhi dekhne laga film ”
hum samajh gaye, ab raghuraj shuru ho gaya hai mainne puchha, “kaisi thi film?”
“theek hi thi, bus ashlilata ka abhaw tha ” raghuraj ki wisheshata thi ki mood ki sthiti mein sansar ke sabhi kriya wyapar ke mulyankan ke liye uske pas iklauta bantakhra sex tha
“aur laDkiyan kaisi thee?” triloki ka parashn tha
“kshama karna yar, main batana bhool gaya usmen ek laDki thi, dusri naw wiwahita thi, bhabhiji!”
“par tum kiske liye prayasarat the?”
“donon ke liye beshak donon ke liye, lekin ziyada bhabhiji ke liye ”
“lekin raghuraj, mainne prayः dekha hai ki tumhein shadi shuda aurten ziyada achchhi lagti hain iski wajah kya hai?”
“iski wajah we ziyada chi chi nahin kartin ”
“wah raghuraj, tumhari pakaD bahut achchhi hai tumko lekhak hona chahiye upanyas par kaam karo raghuraj ”
“kar raha hoon ek upanyas par kaam kar raha hun—atrpt kaam wasana ka zinda dastawez aur ek kahani puri ki hai—allahabad ke teen laDkon ko dekhkar dilli ki laDkiyan widroh kar ghar se bahar ” usne zor ka thahaka lagaya, “sale lekhkon ki dum aaj tak mainne kuch likha hai? jo ab likhunga phir aaj tak banjh aurat ke kabhi santan hui hai? ha ha ha ”
raghuraj ab apni rau mein tha hamne wahan se uth lena hi behtar samjha, kyonki wahan manDli se bahar ke kai laDke the jinki nigah mein hum brahamchari qim ke saral sidhe mane jate the
hum uthne lage to dusre logon ne hamein roka lekin hum ruke nahin thoDi hi door baDhe honge ki raghuraj ne apna kaam shuru kar diya aane janewali pratyek laDki ko wo takatki bandhakar dekhta hamne toka to kahne laga, “kahan qayde se dekh pata hoon ishwar ne ek ankh pichhe bhi di hoti, to kitna anand hota ”
mainne salah di, “tum iske liye tapasya shuru kar do ”
“theek hai ” wo thithak gaya, “main yahin dhuni ramaunga ” theek samne wimens hostel tha mujhe iski ye aadat bilkul achchhi nahin lagi, dekho tum wimens hostel ke bare mein kuch mat kahna ”
“kyon?”
“kyonki jab suraj Doob jata hai to andhere mein laDakiyon ka ye hostel mujhe ek adbhut rahasy lok sa lagta hai mere bhitar iske liye ek pawitra bhaw hai ”
“dekho balak! waise main tumhare tathakathit pawitra bodh ko apawitr nahin karna chahta ” raghuraj gambhir ho gaya, lekin agyan ki wajah se janmi pawitarta koi wazan nahin rakhti isliye tum chaho, to main tumhari jigyasa ko shant kar sakta hoon chahte ho?”
triloki bol paDa, “han han maharaj batao ”
“to suno ” wo ruk gaya hum logon ko pal bhar dekha phir dhire dhire chalte hue kahne laga, main kuch batane se pahle ek sawal karna chahta hoon batao, is hostel mein pi s eph se juDi laDkiyan adhik kyon hain? hamare sangthan ki taraf we ziyada akarshait kyon nahin hoti?”
“tum hi batao maharaj! sab tum hi batao!” triloki ne wyagr hokar kaha
“theek hai, main hi batata hoon isliye ki pi s eph bhadr logon ki warchaswwali sanstha hai usmen laDkiyan isliye jati hain ki usse juDkar unmen apne ko wishisht samajhne ka ehsas hota hai dekho, ajkal sampann gharon ke sadasyon mein samajik kary karne ka chaska jo pakaDta ja raha hai lekin unke ye kary mulatः janta ke sangharsh ki dhaar ko kund karne ke liye hote hain, yahi bindu pi s eph aur in suwidhabhogi laDakiyon ke beech setu ka kaam karta hai ”
“raghuraj, hamne pi s eph aur laDakiyon ke sambandh par parkash Dalne ke liye pararthna ki nahin thi ” mainne adhir hokar kaha triloki ne bhi meri baat par hami bhari raghuraj bhaDak gaya, “tum log tabhi to achchhe lekhak nahin ban sake ” wo zor zor se bolne laga, “kendriy tattw ko samjhe bina yatharth ko phailane ki koshish karte ho yahi haDabDiwali aadat rahi, to shighraptan ke rogi kahlaoge ”
“chalo kshama kar deta hoon han to meri uprokt baat se tattw nikla ki wimens hostel ki adhisankhya laDkiyan arthik drishti se durust pariwaron se juDi hain lekin isse kya hota hai yahan bhi kai tarah ki bhinnatayen kai tarah ki kahlon ko janm deti hain ab bahut sambhaw hai, thanedar ki bitiya ka maniarDar aur juniyar injiniyar ki bitiya ka maniarDar kramshah deputy, s pi aur assistant injiniyar ki bitiya ke maniarDron se ziyada rupyon ka hota ho aisi sthiti mein pahli donon ka ghamanD apne bap ke paison ka hoga, dusri donon ko apne apne bap ke pad ka dusri taraf hinta bhi apne bap ke pad ka dusri taraf hinta bhi apne bap ke karan hogi ki ek ka bap paisa rakhte hue bhi matahat hai, dusre ka bap afsar hote hue bhi matahat se kam samrddh laDakiyon ke beech kalah ka ek pramukh karan ye hai tum log jante hi ho, in laDakiyon mein hoD ki bhawna baDi prabal hoti hai we painti se lekar prem tak mein apni cheez ko shreshth dekhana chahti hain kam se kam dusron se unnis to nahin hi dikhna chahti hain ab jiski mali haisiyat apekshakrit pichhDi hoti hai, we gaDbaD saDbaD ho jati hain aise mein pahla kaam kisi maldar premi ko pata lene ka hota hai iske bawjud kami paDi to patan shuru ho jata hai ” itna kahkar raghuraj chup ho gaya hum bhi chup ho gaye kuch der baad mainne kaha, “aur kuch gyan doge?”
“samay kya hai?”
“teen chalis ”
“to triloki tum bhi suno, hamein chalna bhi hai chaar tees par jakar sanskritik prpanch ki wirodh karna hai ”
“par tumne ye nam kyon diya?”
“kyonki kisi bhi swasth kala ke nirman ke liye iski samaj se pratikriya aniwary hoti hai par jinko tum logon aaj DanDa karoge, we swayan rachte, swayan anandit hote hain ” hum alphreD park yahan se aadha ghanta mein asani se pahunch sakte the yani ki hamare pas bees minat ka waqt tha par hamne tay kiya ki wahin chalte hain wahan hum dhoop ka ek tukDa khojenge aur bees minat lete rahenge
shahid park se ikattha hokar hamein kala bhawan ke liye kooch karna tha baqi log wahin milne wale the
manDli ke netritw mein tamam yuwa kalakar chhatr bhawan mein ho rahe naty samaroh ka wirodh karnewale the kyonki kala bhawan ek sarkari sanstha thi aur iske karyakram janta aur uske apne kalakaron se munh moDe rakhte the ismen darshak shrota afsar waghaira hote aur kalakar wideshi mekap mein ainthe rahnewale yahan sharab ki jhamajham barish aur raslila ke prayatn ki sursuri samay asamay har samay dekhi ja sakti thi
winod ne kahin se karyakram ka pas uplabdh kar liya tha yojna ye thi ki wo hamare wirodh ke parchon ka banDal jhole mein chhupakar bhitar ho jayega aur bhitar jitna bant sakega, bantega, baqi log bahar narebazi karenge kalabhwan ki kamar toDne ki ab hum than chuke the
to manDli ke logon ka ek roop tha bauddhik mast aur nirbhay
zindadili ki roshanai mein Dubi qalmen the hum
par hum aur bhi kuch the kahin kuch bura dekhen, bura sunen—ham krodh se kanpne lagte itne ajib the hum ki yadi khu hi ghalat kah ya kar jate to khu par hi khafa hone lagte
hum poster chipkate nare lagate hum juluson mein hote, sabhaon mein hote, haDtalon mein hote hum police aur guptachri ke register mein darj the sachmuch hum paDhaku aur laDaku the
hum garm tandur par pak rahi rotiyan the
lekin hum upar uDte gas bhare rang birang ghubbaron ki tarah the hum uD rahe the hum uD rahe the uDte uDte hum aise wayumanDal mein pahunche jahan hum phoot gaye ab hum niche ki or gir rahe the apna santulan khoe hum niche ki or gir rahe the hamara kya hoga, hamein pata nahin tha
hamein naukari mil nahin rahi thi jabki wo hamare liye sans thi is waqt
upma mujhse ukhDi ukhDi rahne lagi jab bhi milti mashawira deti ki mujhe kamptishan ki paDhai aur mehnat se karni chahiye is par main kruddh ho jata dhire dhire hamare sambandhon ke panw ukhaDne lage
sadanandji bhi manDli se dostana andaz mein nahin milte wo manDli par daya karne lage the
ab hum bhojan ke liye lal tikDam nahin karte the na hone par bhukhe rah jate udhaar lene ka manobal bhi kho chuke the hum
koi hamse puchhta, kya kar rahe ho? to pratyuttar mein hum kanpne lagte kisi se milne ke pahle hi hamare dil ki dhaDkan tez ho jati kahin poochh na liya jaye, kya kar raha hoon main?
apas mein bhi milna kam hone laga hum paraspar katrane lage hamare beech mohabbat badastur thi par batachit mein hum thoDa katakhne ho gaye the ekbar hum log chhuttiyon mein apne apne ghar gaye lautne par hum sabhi thake aur hare hue lag rahe the hamne apne mata pita parichiton ko nirash kiya tha jisse we chiDh gaye the unhonne hamein hikarat se dekha tha aur hum haar gaye the thak gaye the
phir bhi hamne tay kiya tha ki hum ghar chale jayenge hum kutiya par ikattha hone wale the—apne apne gharon ko prasthan karne ke liye
hum khushi ya fayde ke liye nahin wapas ho rahe the hum majbur the kyonki yahan to jina muhal ho gaya tha guzara mushkil tha
baad ki kahani ye ki hum kutiya par ikattha ho gaye the winod ka ye kamra adhunik shaili ka tha par uski jiwan paddhati ne is adhunikta ka kabaDa kar diya tha kitaben aur kapDe har jagah phaile hue the usne har jagah rangin taswiren chipka rakhi theen chegwara ki baghal mein ek sundri kulhe matka rahi thi
sabse pahle triloki bahka wo hathon mein sharab ka gilas lekar khaDa ho gaya aur bola, “bhaiyo aur bahno!”
“netaji, yahan koi launDiya nahin hai ” pradip chillaya wo bhi halke, bahut halke surur mein aa gaya tha
“baDe afsos ki baat hai ” triloki dukhi hokar bola, “yah bharatwarsh ke liye bahut baDa durbhagy hai ki hum jaise mahan yuwkon ke pas na premikayen hai aur na naukariyan hum kiske sahare jiyen?”
“main janta hoon janta hoon lo main baith jata hoon public sali ab samajhdar ho gai hai sawal jawab karne lagi hai ”
“sawal jawab hi to nahin kar rahi hai janta, warna hamari ye dasha nahin hoti nahin hoti ” dinanath ne dhime se kaha
triloki ko chhoDkar baqi manDli abhi nashe mein nahin theen nashe ki purwawastha surur mein thi
“akhir hum yahan kyon ikattha hue hain?” madan mishr darshanik andaz se bola mainne “yahan hum widai samaroh ke uplakshy mein ekatr hue hain ”
“nahin ” pradip ne bataya, “yah baithak hamare sukh ki shokasbha hai hamare pas jo bhi sukh tha, is baithak ke pahle khatm ho gaya kal se hum dukhi duniya ke dukhi nagarik honge ”
“ham nagarik nahin hain dukhi duniya ke nagarik mazdur aur kisan hote hain, jinke shram ka shoshan hota hai hamare pas to samajik shram karne ka bhi adhikar nahin hai ” triloki taish mein aa gaya tha, jiske pas koi kaam nahin hota, wo adami nahin hota hum adami nahin hain is wyawastha ne hamein adami nahin rahne diya hamse hamara hona chheen liya gaya ” triloki subakne laga wo sir jhukaye subak raha tha
jaise kath mar gaya ho, hum sab stabdh ho gaye is baat ko krishnamani ne sabse pahle bhanpa wo ahiste se triloki ke pas gaya aur uske latke hue munh se ek cigarette latka di, “netaji, ishwar ek din tumhari sunega zarur tum isi tarah bhashan karo, lekin bhashan ke baad asal mein subakna chhoD do to ek din sachchi muchchi mein neta ho jaoge aur mauj karoge ”
“ham ek din mar jayenge or koi janega bhi nahin ”
winod mezbani bhula nahin, “ap logon mein jiske gilas khali na hon, kripaya unhen jald khali kar len ye saqi jam ka dusra paig Dhalne ke liye utawla hai ”
“kash, aaj hum kisi rupasi ke hath pite to raat kitni hasin hoti ” raghuraj tha
“mar sale ko ” hamne chaunkkar dekha, pradip tha use bhi chaDh gai thi usne phir kaha, “mar sale ko” aur chup ho gaya
mainne puchha, “kise mar rahe ho?”
“apne doston ke liye nahin kah raha hoon bus mar sale ko ”
hum dusra paig pine lage raat aur thanD donon baDh gai thi dinanath ne uthkar khiDkiyan band kar deen hamne cigarette sulga li unka dhuan kamre mein ghumaDne laga madan ne ghoont lekar cigarette pi aur kaha, roz meri mirtyu hoti hai roz kai kai bar meri mirtyu hoti hai koi mujhse puchhta hai, “tum kya karte ho? aur main mar jata hoon ”
“mar sale ko ” pradip dhutt hone ke qarib pahunch gaya tha wo kise marana chahta tha?
“tum log samajhte hoge, main nashe mein hoon, lekin main hosh o hawas mein kah raha hoon berozagar ke karan main kai kai bar roya hoon pichhli bar ka rakhsha bandhan tha bahan ko dene ke liye mere pas kuch nahin tha bahan ne mere sirhane ki kitab mein chupke se sau ka not rakh diya use paket mein rakh khoob roya mainne use kuch nahin diya wo not ab bhi meri Diary mein rakha hai main use dekhta hoon aur udas ho jata hoon krishnamani apne chehre par hath pherne laga
“man bap do ankhen nahin karte—yah jhooth hai ” winod ne ek sans mein kah Dala, “mere man bap mere kamasut bhai ki chaplusi tak karte hain par mujhe dekhkar jal bhun jate hain ”
“aur main mera pita se koi sanwad nahin ” ek din unhonne ghusse mein chikhkar kaha “log puchhte hain ki tumhara beta kya karta hai? main kya bataun unhen? bol jawab de bol ” usi din se hum ek dusre se nahin bole ”
dinanath ankhen sthir kar kuch sochne laga kahin kho gaya tha wo
“lo main bhi bata deta hoon ” raghuraj ne apna sir uthaya, uski ankhen surkh lal theen “main apna rahasy kholta hoon ab hum ja rahe hain, to kya chhipana main laDakiyon ke pichhe kabhi nahin bhaga main ek kapDe ki aur ek dawa ki dukan par part time kaam karta raha malik mujhe Dhai sau rupae ka chakar samajhte rahe main main ” wo chup ho gaya, uski awaz phansne lagi thi
manDli awak thi raghuraj ki baat se raghuraj ne apna chehra phir ghutnon mein chhipa liya
hum sabhi ne apni ramakhani kahi hamne tisra paig liya hamne chautha paig piya panchwan piya hum luDhakne lage
hum kutiya ke bahar khaDe the, alag alag dishaon ki taraf jane ke liye raat gaDhi thi aur hawa sarsara rahi thi hamare munh band aur chehre bhinche hue the
“achchha dosto!” raghuraj ne gala saf karte hue dubara kaha, “achchha dosto! ab wida hote hain !”
ek kshan sannata raha phir achanak hum sab log zor se ro paDe hum sare dost phoot phutkar ro rahe the
us din alag hone se pahle hamne tay kiya “hammen se yadi koi kabhi sukhi hua to sare doston ko khat likhega ”
lamba samay beet gaya intizar karte, kisi dost ki chitthi nahin i mainne bhi doston ko koi chitthi nahin likhi hai
kutiya par mujhe saDhe sat baje tak pahunch jana tha aur sat baj gaye the ek to meri jeb mein rikshe bhar ke liye mudra nahin thi, dusre aaj is jaDe ki pahli barish hui thi aur is samay raat ke sat baje tez hawa thi jaDe mein thanDi ke anupat se hamara sharir sikuD jata hai aur chaal dhimi ho jati hai to dhimi gati se kutiya par saDhe sat baje kaise pahuncha ja sakta tha
mainne muflar se kanon ke sath sath samuche sir ko Dhak liya gardan par lakar donon kinaron ko ganth lagai ab main apni samajh se sardi se mahphuz kutiya tak pahunch sakta tha muflar ke bhitar se meri ankhen aur nak jhalak rahi hongi
kutiya mein aaj hum doston ka samuhik widai samaroh tha kahne ko to, hum baDe din ki chhuttiyon mein ghar ja rahe the par is bar ka jana sadharan prasthan nahin tha is bar hamare gaman mein utsah nahin majburi thi gharon se maniarDar aane ki awadhi baDhti ja rahi thi aur hum kisi bhi kamptishan mein uttirn nahin ho rahe the hamne kuch akhbaron mein daftron aur radio station mein chakkar mare pahli baat to wahan kaam ka tota tha gar kaam tha, to kshanajiwi qim ka usmen bhi shram ziyada aur dhan kam ka siddhant sarwamany tha
sabse pahle raghuraj ne ghoshana ki, “main ghar chala jaunga allahabad mein mera pet bhi nahin bhar pata hai ”
krishnamani tripathi ne gambhirta ka natk karte hue kaha, “sabr karo aur ishwar par bharosa rakho uparwala jiska munh chirta hai, use roti bhi deta hai ”
hum hans paDe krishnamani ki ye purani aadat thi wo nastik tha aur ishwar ki baat karke wo ishwar ka mazaq uData tha uska chehra mulayam tha aur hathon par baDe baDe ghane baal the
ye prarambh tha baad mein ek din hua ye ki faisla ho gaya, hum apne apne gharon ko chale jayenge
winod ne kaha tha, hum is tarah nahin jayenge hum ek din jayenge aur jane ke ek din pahle mere kamre par baithak hogi aur usmen main sharab sarw karunga
winod ne apne kamre ka nam kutiya rakha tha main winod ke kamre par ja raha tha kutiya ja raha tha jahan par mere baqi dost milenge we bhi kal meri tarah is shahr ko chhoD denge
age ki kahani sankshipt, sukhhin aur manthar hai, isliye main thoDa pahle ki kahani batana chahunga usmen unmukt wistar, prasannata aur gati hai to akhir chizen itni ulat pulat kyon ho gai, ye rahasy main is unmukt, prasannata aur gati se bhare hisse ke baad, yani abhi abhi jahan par kahani thahri thi, uske baad ke ansh mein kholunga
winod se meri pahli mulaqat ek goshthi mein hui thi usmen usne kawitayen paDhin, jinki mainne jamkar dhunai ki sachmuch us goshthi mein uski kawitayen rui theen aur main dhuniya bus us goshthi ke baad winod mera dost ban gaya hamari gaDhi chhanne lagi hamari jo kuch logon ki manDli thi, usmen sifarish karke mainne uska dakhila kara diya udhar uska dakhila hua tha aur idhar mera makan malik sat mahinon ka baqaya kiraya mangne mein haramipan ki had tak utar aaya ek bar mainne mazaq mein mamla rafa dafa karne ki gharz se kaha, “nau mahine ho jane dijiye sat mahine mein jachcha bachcha donon ko khatra rahta hai ” sunkar makan malik ne pichch se thook diya pan ki peek ne meri wakpatuta ki red mar di thi
akhiraka mainne paya ki is mamle mein sat mahine ka mukt niwas bhi uplabdhi hai, manDli mein kamra talash karne ki baat chalai agle din sabhi kamre ki khoj mein sakriy ho gaye nawagantuk winod bhi is kaam mein jot diya gaya tha
kamre ke mamle mein makan malik siddhantwadi hote hain unhonne kuch siddhant bana rakhe the, jaise shadishuda logon ko hi kirayedar banayenge naukriwalon ko wariyata denge naukari sthanantaranwali ho kuch log gosht machhli khane par pabandi lagate, to kuch raat mein der se aane par waghaira waghaira !
main in sabhi mandanDon par ayogya tha phir bhi chhal prpanch kar kamra prapt hi kar leta darasal hum bhi koi aire ghaire nahin the mera aur meri manDli ka bhi ek siddhant tha kamre ko lekar kamra usi makan mein liya jayega jismen aur jiske asapas naisargik saundarya ho, yani sundariyan hon is baat ki jankari hetu hamare pas upay tha hum pan aur chay ki dukanon par ghaur karte, jahan mustanDon ka jamawDa hota, uske asapas kamra pane ke liye jadd o jahad karte kamra na mile ye digar baat hai kintu hamare prayog ki pramanaikta kabhi bhi sandehawti nahin ho pai thi waqi wahan sundariyan hotin chay pan ki dukanon ke alawa ek aur dishasuchak tha hamare pas paDtal ka hum makan ke chhajjon aur chhaton par drishtipat karte yadi shalwar, kurte, dupatte ya antrang wastra latakte hote, to hum wahan batachit karna munasib samajhte
winod is prsang mein kuch ziyada hi muddhar nikala naisargik saundarya ya naisargik saundarya ke wastra dekhta to pahunch jata aur puchhta, “makan khali hai kya?” “nahin” sunne ke baad wo parashn karne lagta ki bataya jaye asapas mein koi makan khali hai? khair, kafi chhanabin ke baad ek kamra mila batachit ke pahle hamne chhajje par kunware kapDe dekhe aur chhat par teen naisargik saundarya
makan malik ko turant eDwans diya aur pahli tarikh se rahne ki baat pakki kar li jab hum kamre mein aaye to ye zindagi ka bahut baDa ghotala sabit hua tha manDli ke pratyek sadasy ka chehra ghamgin ho gaya tha we tinon saundarya wibhutiyan rishtedar theen jo manDli se bewafai karke chali gai theen raghuraj ne kaha, “saliyon ke shalwar, kurte aur dupatte ab kahin aur tangate honge aur yuwa piDhi ko dishabhrmit karte honge ” pradip ne daDhi par hath pherte hue kaha, “sab maya hai ” aur kamre mein koras shuru ho gayah—
maya maha thagini hum jani
tirgun phans liye kar Dolen
bole madhuri bani
keshaw ke kamla hai baithi shiw ke bhawan bhawani
panDa ke murati hoi baithi tirath mein bhai pani
yogi ke yogin hai baithi raja ke ghar rani
kahu ke hira hai baithi kahu ke kauDi kani
bhakt ke bhaktin hai baithi brahma ke brahmani
kahai kabir suno ho santo wo ab akath kahani
maya maha thagini hum jani
manDli mein kai log the, pradip, raghuraj, krishnamani tripathi, winod, dinanath, triloki, madan mishra aadi hum wishwawidyalay ke behad paDh likhe laDkon mein the hamari paDhai likhai wo nahin thi, jo guruon ke pajame ka naDa kholne se aati hai hum us tarah ke paDhnewale bhi nahin the, jo prakat ho janewale grast rogi ki tarah apne baDe mein hi dubke rahte hain rajnitik rujhan bhi thi hamari
hum log laDakiyon ke diwane the koi hamari antrik baten sunta to hamein lampat aur luchcha man leta magar hum aise gire hue nahin the laDakiyon ke prati ye asakti wastaw mein jigyasa aur khel thi sima ka atikramn haram tha hamare liye sach kahun, hum itne naitik the ki awsar ko thukra dete the waise to hum logon ki taraf anek laDkiyan lapakti theen hum apne apne wibhag ke hero the ye bhi bata doon ki chikne chupDe galon, saphachat munchhon aur daulat ki wajah se hero nahin the balki hum mein se adhisankhya to daDhi bhi rakhte the jahan tak daulat ka parashn hai, to hum laDakiyon se prayah chanda mangte the is rah par triloki do Dag aage tha wo wyaktigat kamon ke liye bhi laDakiyon se chanda wasulta lekin wo un netaon ki tarah nahin tha jo samuhik kalyan ke liye chanda lekar apne tel phulel par kharch karte hain triloki ko jab niji kaam ke liye zarurat hoti, to zarurat batlakar paisa leta wo kahta, “wibha, bhojan ke liye paisa nahin hai, lao nikalo ”
ek bar ek laDki ne triloki se puchha, “tum hum laDakiyon se hi kyon hamesha chanda mangte ho?”
“kyonki we dayalu hoti hain laDke ghagh aur kroor hote hain ”
triloki ki is sthiti ki wajah uski ek kharab aadat thi ghar se jab uska maniarDar aata to wo sanak jata rickshaw ke niche uske panw nahin utarte the doston ke sath naunwej khata aur cinema dekhta ek do bar jan kalyan bhi karata jal kalyan manDli mein sharab ka code tha aur deshabhakti pyar mohabbat ka han to hafte bhar mein triloki ke paise chuk jate aur wo saDak par aa jata
kamobesh manDli ke har sadasy ki sthiti yahi thi hamari trasadi thi ki hum sukhmay jiwan jine ki kamna rakhte the kintu hamare maniarDar wanaprasth pahunchane wale the ye digar baat hai ki sab log triloki ki tarah mahine ke pahle hafte mein hi kangal nahin hote the lekin mahine ke ant mein bhojan ko lekar teen tikDam karna sabhi ki badhyata thi krishnamani hotel mein register dekhta jitne miting wo apne ek rishtedar ke yahan khakar santulan sthapit karta madan mishr prayः kamre mein khichDi pakakar mes mein ebsent lagwata raghuraj bhukha rahkar bhi hanste rahne ki kshamata arjit kar chuka tha pradip jismen aisi koi yogyata nahin thi, logon ke yahan ghoom ghumkar khata pankaj saksena sharmila tha, so manDli ne winod ko samjha diya tha, wo uska satkar karta winod phale phule parichiton se sammanajnak raqam qarz leta tha, jise kabhi nahin chukata tha
chhuttiyon ke baad yuniwarsiti khuli thi, isliye logon ke chehron par ek khas tarah ka nayapan aur ullas tha par ye chizen utni nahin theen, jitni is mauqe par honi chahiye theen kyonki kal is jaDe ki pahli barish hui aur aaj hawa tez chal rahi thi, isliye log thanD se sikuDe hue the
main kuch ziyada hi pahle apne hindi wibhag aa gaya tha, isliye samne ke lawn mein khaDa dhoop kha raha tha mujhe tripathi ka intizar tha ki wo aaye to chalkar chay pi jay mohan agarwal sale ka period kaun atenD kare
main sadanandji ke alawa aur kisi ka period atainD nahin karta tha kyonki baqi adhyapak paDhai ke nam par kathawachan karte the ya khu sahi kitab se naqal karke imla likhwate the em e mein naqal ka imla mainne inki kakshaon ka bayakat kar diya par mere is kukarm par we bhannane ki jagah param prasann ho gaye kyonki ab class mein nirbhik bhaw se laghushanka dirghshanka samadhan kar sakte the
mujhe tripathi par jhunjhlahat hui, aa kyon nahin raha hai kahin Doob gaya hoga batras mein triloki ko bolne ka bhayanak chaska tha uske bare mein prasiddh tha ki triloki jab bolna shuru karta hai to samnewala kewal kan hota hai aur wo kewal munh
“main kahta hoon, nikal jao nikal jao ”
mere wibhag mein uske aane ka ek uddeshy sundariyon ko dekhana bhi hota tha yahan em e ke donon bhagon mein laDakiyon ki tadad laDkon se ziyada hoti thi, isliye ye wibhag any chhatron ka teerth hota tha yahan log wiprit sex ke chakkar mein is tarah manDrate, jaise aspatal aur mandiron ke asapas manDrate hain waise ye wishwawidyalay ka mirganj bola jata tha mirganj allahabad ka wo sthal hai, jo naitiktawadi log bahut satark hokar ghuste aur tikte hain aur bahar nikalte hain
tabhi sadanandji ka skutar ruka aur wo apna hailmet hath mein jhulate hue aane lage hamari manDli unka behad samman karti thi lekin unse hamare sambandh betakalluf the ek bar hamne unse sharab ke liye rupae bhi liye the wo apni medha aur wampanthi rujhan ke atirikt ek any prakarn ki wajah se bhi charchit the, unhonne prem wiwah kiya tha kintu wibhag ki adhyapika sunita nigam se prem karte the donon dussahasi the aur bhare wibhag mein ek dusre ka hath pakaD lete the kai logon ne unhen siwil lains ke ek achchhe restaran mein dekha suna tha guru ke bare mein ziyada kya kaha jaye, samajhdar ke liye ishara kafi hai matlab ye, ki wiwah na karne ke bawjud donon dampti the
sadanandji mujhe dekhkar muskuraye aur pas aakar meri abhi haal mein chhapi ek kawita ki tarif karne lage mainne socha is tarif ko koi sundri sunti to anand tha tabhi em e priwiyas ki nai kintu sundar laDki upma shriwastaw dikhi hum donon ka halka halka chakkar bhi chal raha tha main use bulakar sadanandji se parichai karane laga parichai ke baad mainne kaha, “han to sar, meri us kawita mein koi kami ho to wo bhi kahen, tarif to aapne bahut kar di ”
wo muskurakar bole, “nahin bhai, ye tumhari bahut achchhi kawita hai ”
“sar parnam!” triloki aa gaya tha aaj hum chaar log dhoop ke ek writt mein khaDe the tabhi wibhagadhyaksh mahesh parsad jinhen manDli gobar ganesh kahti thi, lapaD jhapaD aate dikhai paDe unhen dekhkar upma thoDi door khisakkar khaDi ho gai kai dusre logon ne bhi apni pojishan badal li kyonki sadanandji aur gobar ganeshji mein dantakati dushmani thi gobar ganeshji hindi wibhag ka adhyaksh hone ke nate apne ko sahityakar lagate the par sahity mein manyata sadanandji ki thi iske atirikt ganeshji pro wi si laॉbi mein the jabki sadanandji enti wi si laॉbi mein the
aur sabse khas baat, is wishwawidyalay ke adhyapkon mein brahman aur kayasth jati ke log shaktishali the jabki sadanandji sinh the is mamle mein bhi ganeshji ka kahna tha ki asal mein wo sinh nahin yadaw the sadanandji mathura ke nand kulwanshi the
ganeshji nikat aaye, to sadanandji ne nahin lekin mainne aur triloki ne parnam kiya jawab mein unka sir kanpa tak nahin aur aage baDh gaye triloki unke pichhe ho liya, “sar, hamara aur aapka mudda aaj har haalat mein saf ho jana chahiye ”
main bhi sadanandji ko chhoDkar lapka triloki ganeshji ke sang unke kamre mein ghus gaya, to main chik se satkar khaDa ho gaya
“kaisa mudda?” ganeshji hanf rahe the
“bhakti andolan ke samajik karan kya the?”
“us din bataya tha suna nahin kya?” unhonne kisi bachche ki tarah chiDhkar kaha
“us din bhakti andolan ke samajik karan batlane ke nam par aap samprdayikta phailane ki koshish karte rahe ”
“main tumhein kyon bataun samajik adhar?” tum to hindi ke chhatr ho nahin autsaiDar hokar mere wibhag mein kaise ghuse?
triloki kursi khiskakar khaDa ho gaya hath ke panjon ko mez par rakhkar thoDa sa jhuk gaya, “bhakti andolan par hindi walon ka bainama hai kya? rahi baat autsaiDar ki, to jo sale luchche badmash aapke wibhag mein ankh senkne aate hain, unko kabhi aapne mana kiya? mana kiya? anya? unko mana karne mein apaki dup dup hoti hai mina bazar bana rakha hai hindi Dipartment ko mahanagron ki city basen bana rakha hai ”
“main kahta hoon, nikal jao yahan se ”
“to aap mujhe bahar nikal rahe hain main hindi ka widyarthi na hote hue bhi aapko chailenj karta hoon ki hindi sahity hi nahin, sansar ke sahity ke kisi masle par bahs kar len bahs mein agar jeet jayen to main peshab se apni munchhen muDa dunga ”
“mujhse nikalne ko kah rahe hain duradura rahe hain jabki main sahity ka yogya adhyeta hoon aur ghunDon ko aap sheltar dete hain main ja raha hoon lekin jate jate ek baat kah dena chahta hoon ki kya karan hai, jabse aap head hue, yahan kewal laDakiyon ne tap kiya?”
wo tamtamaya hua bahar aa gaya mainne khush hokar uski peeth par hath rakha, “wah guru! maza aa gaya chalo, lalla ki dukan par tumhein chay pilata hoon ”
“abe pahle ek tho cigarette to pila ”
“han han guru lo ”
hum donon sigerat pi rahe the paDhne mein ruchi rakhne wale laDke laDkiyan hamein mugdh bhaw se dekh rahe the lekin pas nahin aa sakte the kyonki un nanhen munne pyare bachchon ko achchhe nambar lane the
upma shriwastaw bhi ek kone mein khaDi hokar hamein dekh rahi thi triloki muskuraya, “kaho kab tak bhabhiji ko dewar dikhlate rahoge waise unke baghalwali meri shirimati ho sakti hai ”
“shri shadishuda! sapne dekhana chhoD do ” mainne kaha
“lenin ke anusar sapne har insan ko dekhne chahiye ”
“wah to din wala sapna hai, tum to ratwale sapne dekh rahe ho ”
“tum kunware sale swapn dosh se aage ja hi nahin pate ”
“ha ha ha ” mainne thahaka lagaya aur kaha, “is baat ka faisla lalla ki dukan par hoga ”
lalla ki dukan par laDkon ka khoob jamawDa hota tha jiski khas wajhen theen dukan yuniwarsiti aur kai haustlon ke nikat thi phir samne wimens hostel tha iske alawa lalla ne ek hisse mein general stors ki dukan khol li thi wimens hostel ke aas pas ye iklauti achchhi dukan thi, so hamesha do chaar laDkiyan kharid o farokht karti miltin
main aur triloki dukan par pahunche, wahan election ki charcha thi hamne charcha mein sharik hone ke pahle general stors ki taraf dekha, kuch laDkiyan aur kuch samany jan saman kharid rahe the triloki ne mujhe koncha, “wo pili saDiwali ko dekho ” mainne dekha, gora rang aur baDi baDi ankhon wali thi wo pili saDi ne uske gorepan ko chandan ka rang bana diya tha shempu kiye chamakte hue baal ghunghrale aur kate hue the
mainne use pahle bhi kai bar dekha tha wo bhesh badla karti thi kabhi shalwar kurte mein hoti to kabhi paint shirt mein to kabhi skirt mein uske kapDe kabhi Dhile hote to kabhi chust aaj pili saDi pahne thi aur alaukik bala lag rahi thi
“dekh liya ” mainne bataya
“kya pratikriya hai?”
“bharat mein monalisa ”
“si i i ” ye pankaj saksena ki hai pankaj ki yojna hai, naukari lagte hi shadi kar lega ”
“ishwar ise akhanD saubhagyawti banaye ” mainne kaha hum donon aakar dukan ke stool par baith gaye chhatr sangh ke chunaw parinam par charcha chal rahi thi is bar hamari manDli jis sangthan se juDi thi, usne bhi adhyaksh pad ke liye pratyashi khaDa kiya tha jisne achchhi tarah shikast khai thi darasal azadi ke baad is wishwawidyalay ke chhatrsangh ka itihas raha hai ki adhyaksh ki kursi par kisi thakur ya brahman ne hi pada hai aur prakashan mantri ki kursi koi hijDa bhaDwa type ka hi adami gandhwata raha hai adhyaksh wigat anek warshon se bharatiy rajaniti ke ek dhur kutanitik bahukhanDiji ki ungliyon aur ankhon ki sangit, chitrakla aur bhasha ko tatkshan samajh lenewala hota raha hai iske mool mein chhipa rahasy ye hai ki bahukhanDiji pahle is baat ka jayza lete hain ki kaun do sabse warishth prtidwandwi hain phir unka kuber donon ko samrddh karta hai iske bawjud is bar hamara sangthan bahukhanDiji ki mansha ka khanD khanD karta bahukhanDiji hi kyon, sharab ke baDe thekedar sitaram baranwal, udyogapti hafiz, sabhi ke fan ko kuchalta hamara sangthan sabhi ki laplapati jeebh ko siddhanton ke dhage se napta hamara sangthan lekin chunaw ki pichhli raat janeu ghoom gaya bahukhanDiji ka pratyashi is bar brahman tha mashal julus nikalne ke baad wo sabhi chhatrawason mein gaya aur apni jati ke logon ki miting kar pani bharne ki rassi jitni moti janeu nikalkar giDgiDaya, “janeu ki laj rakho ” aur hum haar gaye
hum chhatr sangh ke chunaw ki charcha mein Doob utra hi rahe the ki raghuraj hanfata hua aaya aur mujhse tatha triloki se ek sath bola, “chhe samose khilao ”
hum samajh gaye, aaj khana nahin khaya hai usne is samay wo thoDa bujha hua bhi tha ki triloki ne usse puchha, “kahan se aa rahe ho maharaj?”
“yar, do laDakiyon se aruDh rikshe ke pichhe cycle lagai rickshaw cinema haal ke pas ruka main bhi dekhne laga film ”
hum samajh gaye, ab raghuraj shuru ho gaya hai mainne puchha, “kaisi thi film?”
“theek hi thi, bus ashlilata ka abhaw tha ” raghuraj ki wisheshata thi ki mood ki sthiti mein sansar ke sabhi kriya wyapar ke mulyankan ke liye uske pas iklauta bantakhra sex tha
“aur laDkiyan kaisi thee?” triloki ka parashn tha
“kshama karna yar, main batana bhool gaya usmen ek laDki thi, dusri naw wiwahita thi, bhabhiji!”
“par tum kiske liye prayasarat the?”
“donon ke liye beshak donon ke liye, lekin ziyada bhabhiji ke liye ”
“lekin raghuraj, mainne prayः dekha hai ki tumhein shadi shuda aurten ziyada achchhi lagti hain iski wajah kya hai?”
“iski wajah we ziyada chi chi nahin kartin ”
“wah raghuraj, tumhari pakaD bahut achchhi hai tumko lekhak hona chahiye upanyas par kaam karo raghuraj ”
“kar raha hoon ek upanyas par kaam kar raha hun—atrpt kaam wasana ka zinda dastawez aur ek kahani puri ki hai—allahabad ke teen laDkon ko dekhkar dilli ki laDkiyan widroh kar ghar se bahar ” usne zor ka thahaka lagaya, “sale lekhkon ki dum aaj tak mainne kuch likha hai? jo ab likhunga phir aaj tak banjh aurat ke kabhi santan hui hai? ha ha ha ”
raghuraj ab apni rau mein tha hamne wahan se uth lena hi behtar samjha, kyonki wahan manDli se bahar ke kai laDke the jinki nigah mein hum brahamchari qim ke saral sidhe mane jate the
hum uthne lage to dusre logon ne hamein roka lekin hum ruke nahin thoDi hi door baDhe honge ki raghuraj ne apna kaam shuru kar diya aane janewali pratyek laDki ko wo takatki bandhakar dekhta hamne toka to kahne laga, “kahan qayde se dekh pata hoon ishwar ne ek ankh pichhe bhi di hoti, to kitna anand hota ”
mainne salah di, “tum iske liye tapasya shuru kar do ”
“theek hai ” wo thithak gaya, “main yahin dhuni ramaunga ” theek samne wimens hostel tha mujhe iski ye aadat bilkul achchhi nahin lagi, dekho tum wimens hostel ke bare mein kuch mat kahna ”
“kyon?”
“kyonki jab suraj Doob jata hai to andhere mein laDakiyon ka ye hostel mujhe ek adbhut rahasy lok sa lagta hai mere bhitar iske liye ek pawitra bhaw hai ”
“dekho balak! waise main tumhare tathakathit pawitra bodh ko apawitr nahin karna chahta ” raghuraj gambhir ho gaya, lekin agyan ki wajah se janmi pawitarta koi wazan nahin rakhti isliye tum chaho, to main tumhari jigyasa ko shant kar sakta hoon chahte ho?”
triloki bol paDa, “han han maharaj batao ”
“to suno ” wo ruk gaya hum logon ko pal bhar dekha phir dhire dhire chalte hue kahne laga, main kuch batane se pahle ek sawal karna chahta hoon batao, is hostel mein pi s eph se juDi laDkiyan adhik kyon hain? hamare sangthan ki taraf we ziyada akarshait kyon nahin hoti?”
“tum hi batao maharaj! sab tum hi batao!” triloki ne wyagr hokar kaha
“theek hai, main hi batata hoon isliye ki pi s eph bhadr logon ki warchaswwali sanstha hai usmen laDkiyan isliye jati hain ki usse juDkar unmen apne ko wishisht samajhne ka ehsas hota hai dekho, ajkal sampann gharon ke sadasyon mein samajik kary karne ka chaska jo pakaDta ja raha hai lekin unke ye kary mulatः janta ke sangharsh ki dhaar ko kund karne ke liye hote hain, yahi bindu pi s eph aur in suwidhabhogi laDakiyon ke beech setu ka kaam karta hai ”
“raghuraj, hamne pi s eph aur laDakiyon ke sambandh par parkash Dalne ke liye pararthna ki nahin thi ” mainne adhir hokar kaha triloki ne bhi meri baat par hami bhari raghuraj bhaDak gaya, “tum log tabhi to achchhe lekhak nahin ban sake ” wo zor zor se bolne laga, “kendriy tattw ko samjhe bina yatharth ko phailane ki koshish karte ho yahi haDabDiwali aadat rahi, to shighraptan ke rogi kahlaoge ”
“chalo kshama kar deta hoon han to meri uprokt baat se tattw nikla ki wimens hostel ki adhisankhya laDkiyan arthik drishti se durust pariwaron se juDi hain lekin isse kya hota hai yahan bhi kai tarah ki bhinnatayen kai tarah ki kahlon ko janm deti hain ab bahut sambhaw hai, thanedar ki bitiya ka maniarDar aur juniyar injiniyar ki bitiya ka maniarDar kramshah deputy, s pi aur assistant injiniyar ki bitiya ke maniarDron se ziyada rupyon ka hota ho aisi sthiti mein pahli donon ka ghamanD apne bap ke paison ka hoga, dusri donon ko apne apne bap ke pad ka dusri taraf hinta bhi apne bap ke pad ka dusri taraf hinta bhi apne bap ke karan hogi ki ek ka bap paisa rakhte hue bhi matahat hai, dusre ka bap afsar hote hue bhi matahat se kam samrddh laDakiyon ke beech kalah ka ek pramukh karan ye hai tum log jante hi ho, in laDakiyon mein hoD ki bhawna baDi prabal hoti hai we painti se lekar prem tak mein apni cheez ko shreshth dekhana chahti hain kam se kam dusron se unnis to nahin hi dikhna chahti hain ab jiski mali haisiyat apekshakrit pichhDi hoti hai, we gaDbaD saDbaD ho jati hain aise mein pahla kaam kisi maldar premi ko pata lene ka hota hai iske bawjud kami paDi to patan shuru ho jata hai ” itna kahkar raghuraj chup ho gaya hum bhi chup ho gaye kuch der baad mainne kaha, “aur kuch gyan doge?”
“samay kya hai?”
“teen chalis ”
“to triloki tum bhi suno, hamein chalna bhi hai chaar tees par jakar sanskritik prpanch ki wirodh karna hai ”
“par tumne ye nam kyon diya?”
“kyonki kisi bhi swasth kala ke nirman ke liye iski samaj se pratikriya aniwary hoti hai par jinko tum logon aaj DanDa karoge, we swayan rachte, swayan anandit hote hain ” hum alphreD park yahan se aadha ghanta mein asani se pahunch sakte the yani ki hamare pas bees minat ka waqt tha par hamne tay kiya ki wahin chalte hain wahan hum dhoop ka ek tukDa khojenge aur bees minat lete rahenge
shahid park se ikattha hokar hamein kala bhawan ke liye kooch karna tha baqi log wahin milne wale the
manDli ke netritw mein tamam yuwa kalakar chhatr bhawan mein ho rahe naty samaroh ka wirodh karnewale the kyonki kala bhawan ek sarkari sanstha thi aur iske karyakram janta aur uske apne kalakaron se munh moDe rakhte the ismen darshak shrota afsar waghaira hote aur kalakar wideshi mekap mein ainthe rahnewale yahan sharab ki jhamajham barish aur raslila ke prayatn ki sursuri samay asamay har samay dekhi ja sakti thi
winod ne kahin se karyakram ka pas uplabdh kar liya tha yojna ye thi ki wo hamare wirodh ke parchon ka banDal jhole mein chhupakar bhitar ho jayega aur bhitar jitna bant sakega, bantega, baqi log bahar narebazi karenge kalabhwan ki kamar toDne ki ab hum than chuke the
to manDli ke logon ka ek roop tha bauddhik mast aur nirbhay
zindadili ki roshanai mein Dubi qalmen the hum
par hum aur bhi kuch the kahin kuch bura dekhen, bura sunen—ham krodh se kanpne lagte itne ajib the hum ki yadi khu hi ghalat kah ya kar jate to khu par hi khafa hone lagte
hum poster chipkate nare lagate hum juluson mein hote, sabhaon mein hote, haDtalon mein hote hum police aur guptachri ke register mein darj the sachmuch hum paDhaku aur laDaku the
hum garm tandur par pak rahi rotiyan the
lekin hum upar uDte gas bhare rang birang ghubbaron ki tarah the hum uD rahe the hum uD rahe the uDte uDte hum aise wayumanDal mein pahunche jahan hum phoot gaye ab hum niche ki or gir rahe the apna santulan khoe hum niche ki or gir rahe the hamara kya hoga, hamein pata nahin tha
hamein naukari mil nahin rahi thi jabki wo hamare liye sans thi is waqt
upma mujhse ukhDi ukhDi rahne lagi jab bhi milti mashawira deti ki mujhe kamptishan ki paDhai aur mehnat se karni chahiye is par main kruddh ho jata dhire dhire hamare sambandhon ke panw ukhaDne lage
sadanandji bhi manDli se dostana andaz mein nahin milte wo manDli par daya karne lage the
ab hum bhojan ke liye lal tikDam nahin karte the na hone par bhukhe rah jate udhaar lene ka manobal bhi kho chuke the hum
koi hamse puchhta, kya kar rahe ho? to pratyuttar mein hum kanpne lagte kisi se milne ke pahle hi hamare dil ki dhaDkan tez ho jati kahin poochh na liya jaye, kya kar raha hoon main?
apas mein bhi milna kam hone laga hum paraspar katrane lage hamare beech mohabbat badastur thi par batachit mein hum thoDa katakhne ho gaye the ekbar hum log chhuttiyon mein apne apne ghar gaye lautne par hum sabhi thake aur hare hue lag rahe the hamne apne mata pita parichiton ko nirash kiya tha jisse we chiDh gaye the unhonne hamein hikarat se dekha tha aur hum haar gaye the thak gaye the
phir bhi hamne tay kiya tha ki hum ghar chale jayenge hum kutiya par ikattha hone wale the—apne apne gharon ko prasthan karne ke liye
hum khushi ya fayde ke liye nahin wapas ho rahe the hum majbur the kyonki yahan to jina muhal ho gaya tha guzara mushkil tha
baad ki kahani ye ki hum kutiya par ikattha ho gaye the winod ka ye kamra adhunik shaili ka tha par uski jiwan paddhati ne is adhunikta ka kabaDa kar diya tha kitaben aur kapDe har jagah phaile hue the usne har jagah rangin taswiren chipka rakhi theen chegwara ki baghal mein ek sundri kulhe matka rahi thi
sabse pahle triloki bahka wo hathon mein sharab ka gilas lekar khaDa ho gaya aur bola, “bhaiyo aur bahno!”
“netaji, yahan koi launDiya nahin hai ” pradip chillaya wo bhi halke, bahut halke surur mein aa gaya tha
“baDe afsos ki baat hai ” triloki dukhi hokar bola, “yah bharatwarsh ke liye bahut baDa durbhagy hai ki hum jaise mahan yuwkon ke pas na premikayen hai aur na naukariyan hum kiske sahare jiyen?”
“main janta hoon janta hoon lo main baith jata hoon public sali ab samajhdar ho gai hai sawal jawab karne lagi hai ”
“sawal jawab hi to nahin kar rahi hai janta, warna hamari ye dasha nahin hoti nahin hoti ” dinanath ne dhime se kaha
triloki ko chhoDkar baqi manDli abhi nashe mein nahin theen nashe ki purwawastha surur mein thi
“akhir hum yahan kyon ikattha hue hain?” madan mishr darshanik andaz se bola mainne “yahan hum widai samaroh ke uplakshy mein ekatr hue hain ”
“nahin ” pradip ne bataya, “yah baithak hamare sukh ki shokasbha hai hamare pas jo bhi sukh tha, is baithak ke pahle khatm ho gaya kal se hum dukhi duniya ke dukhi nagarik honge ”
“ham nagarik nahin hain dukhi duniya ke nagarik mazdur aur kisan hote hain, jinke shram ka shoshan hota hai hamare pas to samajik shram karne ka bhi adhikar nahin hai ” triloki taish mein aa gaya tha, jiske pas koi kaam nahin hota, wo adami nahin hota hum adami nahin hain is wyawastha ne hamein adami nahin rahne diya hamse hamara hona chheen liya gaya ” triloki subakne laga wo sir jhukaye subak raha tha
jaise kath mar gaya ho, hum sab stabdh ho gaye is baat ko krishnamani ne sabse pahle bhanpa wo ahiste se triloki ke pas gaya aur uske latke hue munh se ek cigarette latka di, “netaji, ishwar ek din tumhari sunega zarur tum isi tarah bhashan karo, lekin bhashan ke baad asal mein subakna chhoD do to ek din sachchi muchchi mein neta ho jaoge aur mauj karoge ”
“ham ek din mar jayenge or koi janega bhi nahin ”
winod mezbani bhula nahin, “ap logon mein jiske gilas khali na hon, kripaya unhen jald khali kar len ye saqi jam ka dusra paig Dhalne ke liye utawla hai ”
“kash, aaj hum kisi rupasi ke hath pite to raat kitni hasin hoti ” raghuraj tha
“mar sale ko ” hamne chaunkkar dekha, pradip tha use bhi chaDh gai thi usne phir kaha, “mar sale ko” aur chup ho gaya
mainne puchha, “kise mar rahe ho?”
“apne doston ke liye nahin kah raha hoon bus mar sale ko ”
hum dusra paig pine lage raat aur thanD donon baDh gai thi dinanath ne uthkar khiDkiyan band kar deen hamne cigarette sulga li unka dhuan kamre mein ghumaDne laga madan ne ghoont lekar cigarette pi aur kaha, roz meri mirtyu hoti hai roz kai kai bar meri mirtyu hoti hai koi mujhse puchhta hai, “tum kya karte ho? aur main mar jata hoon ”
“mar sale ko ” pradip dhutt hone ke qarib pahunch gaya tha wo kise marana chahta tha?
“tum log samajhte hoge, main nashe mein hoon, lekin main hosh o hawas mein kah raha hoon berozagar ke karan main kai kai bar roya hoon pichhli bar ka rakhsha bandhan tha bahan ko dene ke liye mere pas kuch nahin tha bahan ne mere sirhane ki kitab mein chupke se sau ka not rakh diya use paket mein rakh khoob roya mainne use kuch nahin diya wo not ab bhi meri Diary mein rakha hai main use dekhta hoon aur udas ho jata hoon krishnamani apne chehre par hath pherne laga
“man bap do ankhen nahin karte—yah jhooth hai ” winod ne ek sans mein kah Dala, “mere man bap mere kamasut bhai ki chaplusi tak karte hain par mujhe dekhkar jal bhun jate hain ”
“aur main mera pita se koi sanwad nahin ” ek din unhonne ghusse mein chikhkar kaha “log puchhte hain ki tumhara beta kya karta hai? main kya bataun unhen? bol jawab de bol ” usi din se hum ek dusre se nahin bole ”
dinanath ankhen sthir kar kuch sochne laga kahin kho gaya tha wo
“lo main bhi bata deta hoon ” raghuraj ne apna sir uthaya, uski ankhen surkh lal theen “main apna rahasy kholta hoon ab hum ja rahe hain, to kya chhipana main laDakiyon ke pichhe kabhi nahin bhaga main ek kapDe ki aur ek dawa ki dukan par part time kaam karta raha malik mujhe Dhai sau rupae ka chakar samajhte rahe main main ” wo chup ho gaya, uski awaz phansne lagi thi
manDli awak thi raghuraj ki baat se raghuraj ne apna chehra phir ghutnon mein chhipa liya
hum sabhi ne apni ramakhani kahi hamne tisra paig liya hamne chautha paig piya panchwan piya hum luDhakne lage
hum kutiya ke bahar khaDe the, alag alag dishaon ki taraf jane ke liye raat gaDhi thi aur hawa sarsara rahi thi hamare munh band aur chehre bhinche hue the
“achchha dosto!” raghuraj ne gala saf karte hue dubara kaha, “achchha dosto! ab wida hote hain !”
ek kshan sannata raha phir achanak hum sab log zor se ro paDe hum sare dost phoot phutkar ro rahe the
us din alag hone se pahle hamne tay kiya “hammen se yadi koi kabhi sukhi hua to sare doston ko khat likhega ”
lamba samay beet gaya intizar karte, kisi dost ki chitthi nahin i mainne bhi doston ko koi chitthi nahin likhi hai
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1980-1990) (पृष्ठ 107)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।