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बाज़ार में रामधन

bazar mein ramdhan

कैलाश बनवासी

कैलाश बनवासी

बाज़ार में रामधन

कैलाश बनवासी

और अधिककैलाश बनवासी

    यह बालोद का बुधवारी बाज़ार है।

    बालोद इस ज़िले की एक तहसील है। कुछ साल पहले तक यह सिर्फ़ एक छोटा-सा गाँव हुआ करता था। जहाँ किसान थे, उनके खेत थे, हल-बक्खर थे, उनके बरगद, नीम और पीपल थे। पर अब यह एक छोटा शहर की सारी ख़ूबियाँ लिए हुए। आसपास के गाँव-देहातों को शहर का सुख और स्वाद देने वाला। इसी बालोद के हफ़्तावार भरने वाले बुधवारी बाज़ार की बात है। रामधन अपने एक जोड़ी बैल लेकर यहाँ बेचने पहुँचा था।

    बाज़ार अभी भरना बस शुरू ही हुआ था, वैसे भी ढाई-तीन बजे धूप में ख़रीदारी करने कौन निकलता है? इसके बावजूद यहाँ चारों तरफ़ रंगीनी और रौनक़ है। पता नहीं क्या बात है, रामधन जब भी यहाँ आता है, बाज़ार और शहर की रौनक़ को बढ़ा हुआ ही पाया है।

    अपने बैलों को लेकर वह उधर बढ़ गया जहाँ गाय-बैलों का बाज़ार भरता है। बैलों का यह कोई कम बड़ा बाज़ार नहीं है। बैलों का पूरा हुजूम मौजूद है। दो-ढाई सौ से भला क्या कम होंगे।

    रामधन के चेहरे-मोहरे, उसकी चीकट बंडी और मटमैली धोती—जिसका मटमैला रंग किसी साबुन पानी से नहीं घुलता—देखकर कोई भी सहज जान सकता है कि वह किस स्तर का आदमी है। रामधन के बारे में कुछ मोटी-मोटी जानकारी दे देना मैं उचित समझता हूँ। उम्र होगी उसकी लगभग बत्तीस साल की। संपत्ति के नाम पर दो एकड़ खेत हैं, दो बैल और एक टूटता-फूटता पुरखौती कच्चा मकान। परिवार में बुढ़िया माँ है, पत्नी, दो बच्चे और एक छोटा भाई है—मुन्ना। रामधन चौथी कक्षा तक ही पढ़ा हुआ है लेकिन मुन्ना को बारहवीं पास किए हुए दो साल गुज़र चुके हैं। रामधन ने अपने छोटे भाई को कॉलेज नहीं पढ़ाया। कुछ तो इसलिए कि उनके सरीखे लोगों के पढ़ने-लिखने से कुछ होता-हवाता नहीं। दूसरी बात और असल बात—वही घर की आर्थिक तंगी। वैसे यह शब्द मैं जान-बूझकर प्रयोग नहीं करना चाहता था, लेकिन मुझे लगता है, यह एक बेहद गंभीर और संवेदनशील शब्द है। मुझे यह भी लगता है कि दुनिया भर के वक्ताओं ने घसीट-घसीटकर दूसरे तमाम बड़े और महान शब्दों की तरह इसे भी ठस्स और निर्जीव बना डाला है। इसे लिखते हुए मुझे इस बात का डर है कि समाचारों में रोज़ जाने वाले शब्दों की तरह सस्ता और अर्थहीन रह जाए।

    ख़ैर! तो रामधन और उसकी पत्नी मेहनत-मजूरी करके ही अपना पेट पाल सकते हैं। और पाल रहे हैं। लेकिन मुन्ना क्या करें? वह तो यहाँ गाँव का पढ़ा-लिखा नौजवान है, जिसे स्कूली भाषा में कहें तो देश को आगे बढ़ाने वालों में से एक है। वह पिछले दो सालों से नौकरी करने के या खोजने के नाम पर इधर-उधर घूम रहा हैं परंतु अब वह इनसे भी ऊब चुका है और कोई छोटा-मोटा धंधा करने का इच्छुक है। लेकिन धंधा करने के लिए पैसा चाहिए। और पैसा?

    “भइया, बैलों को बेच दो!”

    मुन्ना ने यह बात किसी खलनायक वाले अंदाज़ में नहीं कही थी। उसने जैसे बहुत सोच-समझकर कहा था। इसके बावजूद रामधन को ग़ुस्सा गया, “ये क्या कह रहा है तू?

    “ठीक ही तो कह रहा हूँ मैं! बेच दो इनको। मैं धंधा करूँगा!

    रामधन को एक गहरा धक्का लगा था, अब यह भी मुँह उठाकर बोलना सीख गया है मुझसे लेकिन इससे भी ज़्यादा दुःख इस बात का हुआ कि मुन्ना उसे बेचने को कह रहा है जो उनकी खेती का आधार है। रामधन ने बात ग़ुस्से में टाल दी, “अगर कुछ बनना है, कुछ करना है तो पहले उतना कमाओ! इसके लिए घर की चीज़ क्यों ख़राब करता है? पहले कमा, इसके बाद बात करना! हम तेरे लिए घर की चीज़ नहीं बेचेंगे। समझे?

    लेकिन बात वहीं ख़त्म नहीं हुई। झंझट था कि दिन-पर-दिन बढ़ता जा रहा था।

    आख़िर ये दिन भर यहाँ बेकार में बंधे ही तो रहते हैं। खेती-किसानी के दिन छोड़कर कब काम आते हैं? यहाँ खा-खाकर मुटा रहे हैं ये!” मुन्ना अपने तर्क रखता।

    “अच्छा, तो हमारा काम कैसे चलेगा?

    “अरे, यहाँ तो कितने ही ट्रैक्टर वाले हैं, उसे किराए से ले आएँगे। खेत जुतवाओ, भिजवाओ और किराया देकर छुट्टी पाओ!

    “वाह! इसके लिए तो जैसे पइसा-कौड़ी नहीं देगा? दाऊ क्या हमारा ससुर है तो फ़ोकट में ट्रैक्टर की कर रहा है तू, मालूम भी है उसका किराया?

    “लगेगा क्यों नहीं? क्या इनकी देखभाल में ख़र्चा नहीं लगता?

    “लगता है, मगर तेरे ट्रैक्टर से कम! समझे? बात तो ट्रैक्टर की कर रहा है तू, मालूम भी है उसका किराया?

    “मालूम है इसलिए तो कह रहा हूँ। यहाँ जब बैल बीमार पड़ते हैं तो कितना ही रुपया उनके इलाज-पानी में चला जाता है, तुम इसका हिसाब किए हो? साला पैसा अलग और झंझट अलग!

    “मगर किसी की बीमारी को कौन मानता है?

    “तभी तो मैं कहता हूँ, बेचो और सुभीता पाओ!

    बातचीत हर बार अपनी पिछली सीमा लाँघ रही थी। कहने को तो मुन्ना यहाँ तक कह गया था कि इन बैलों पर सिर्फ़ तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी हक़ है।

    इस बात ने लाजवाब कर दिया था रामधन को। और अवाक्! कभी नहीं सोचा था उसने कि मुन्ना उसके जैसे सीधे-सादे आदमी से हक़ की बात करेगा। मुन्ना को क्या लगता है, मैं उसका हिस्सा हड़पने के लिए तैयार बैठा हूँ? रामधन ख़ूब रोया था इस बात पर... अकेले में।

    बैल उसके पिता के ख़रीदे हुए हैं, यह बात सच है। जाने किस गाँव से भागकर इस गाँव में गए थे बैल, तब ये बछड़े ही थे और साथ में बंधे हुए थे। किसी ने पकड़कर कांजी हाउस के हवाले कर दिया था उन्हें। नियम के मुताबिक़ कुछ दिनों तक उनके मालिक का रास्ता देखा गया ताकि जुर्माना लेकर छोड़ सके। लेकिन जब इंतज़ार करते-करते ऊब गए और कोई उन्हें छुड़ाने नहीं पहुँचा तो सरपंच ने इनकी नीलामी करने का फ़ैसला किया था। यह संयोग ही था कि रामधन के गंजेड़ी बाप के हाथ में कुछ रुपए थे। और सनकी तो वह था ही। जाने क्या जी में आया जो दोनों बछड़े वहाँ से ख़रीद लाया। तब से ये घर में बंध गए और रामधन की निगरानी में पलने लगे। खेत जोतना, बैलगाड़ी में फाँदना, उनसे काम लेना और उनके दाना-भूसा का ख़याल रखना, उनको नहलाना-धुलाना और उनके बीमार पड़ने पर इलाज के लिए दौड़-भाग करना—सब रामधन का काम था। तब से ये बैल रामधन से जुड़े हुए हैं। इनके जुड़ने के बाद रामधन इतना ज़रूर जान गया कि भले ही बेचारों के पास बोलने के लिए मुँह और भाषा नहीं है, लेकिन अपने मालिक के लिए भरपूर दया-माया रखते हैं। इनकी गहरी काली तरल आँखों को देखकर रामधन को यह भी लगता है, ये हमारे सुख-दुःख को ख़ूब अच्छी तरह समझते हैं—बिलकुल अपने किसी सगे की तरह। तभी तो वह उन्हें इतना चाहता है। इतना लगाव रखता है।

    इन्हें बेचने की बात उठी, तबसे ही उसे लग रहा है, जैसे उसकी सारी ताक़त जाने लगी है।

    रामधन मुन्ना को समझा नहीं पा रहा था। वह समझा भी नहीं सकता था। अब कैसे समझाता इस बात को कि बैल हमारे घर की इज़्ज़त है... घर की शोभा है। और इससे बढ़कर हमारे पिता की धरोहर है। उस किसान का भी कोई मान है समाज में, जिसके घर एक जोड़ी बैल नहीं हैं! कैसे समझाता कि हमारे साथ रहते-रहते ये भी घर के सदस्य हो गए हैं। जो भी रुखा-सूखा, पेज-पसिया मिलता है, उसी में ख़ुश रहते हैं। वह मुन्ना से कहना चाहता था, तुमको इनका बेकार बंधा रहना दिखता है मगर इनकी सेवा नहीं दिखती? इनकी दया-मया नहीं दिखती?

    और सचमुच मुन्ना को कुछ दिखाई नहीं देता। उसके सिर पर तो जैसे भूत सवार है धंधा करने का। रोज़-रोज़ की झिक-झिक से उसकी पत्नी भी तंग चुकी है—रोज़ के झंझट से तो अच्छा है कि चुपचाप बेच दो। रहेगा बाँस बजेगी बाँसुरी!

    मुन्ना कहने लगा है—अगर तुम नहीं बेच सकते तो मुझसे कहो। मैं बेच दूँगा उन्हें बढ़िया दाम में!

    ...बाज़ार की भीड़ अब बढ़ रही है। चारों तरफ़ शोरगुल और भीड़भाड़ा यहाँ की रौनक़ देखकर रामधन को महादेव घाट के मेले की याद आई। हर साल माघी पुन्नी के दिन भरने वाला मेला। वहाँ भी ऐसी ही भीड़ और रौनक़ होती है पिछले साल ही तो गया था उसका परिवार। और पास-पड़ोस के लोग भी गए थे—जितने उसकी बैलगाड़ी में समा जाएँ। सब चलो! पूरी रात भर का सफ़र था। और जाड़े की रात। फिर भी मेले के नाम पर इतना उत्साह कि सब अपना कथरी-कंबल संभाले गए थे। रामधन को आज भी वह रात याद है—अँजोरी रात का उजाला इतना था कि हर चीज़ चाँदनी में नहा-नहा गई थी, खेत, मेंड, पेड़, तालाब... जैसे दिन की ही बात हो।

    उनके हँसने-खिलखिलाने से जैसे बैलों को भी इसका पता चल गया था, रात भर पूरे उत्साह और आनंद से दौड़ते रहे... खन्-खन् खन्-खन्...!

    ...गाय-बैलों का एक मेला-सा लग गया है यहाँ। हर क़िस्म के बैल। काले, सफ़ेद, लाल, भूरे और चितकबरे और अलग-अलग काठी के बैल नाटे, दुबले, मोटे...ग्राहकों की आवाजाही और पूछताछ शुरू हो चुकी है। बैलों के बाज़ार में धोती-पटका वाले किसान हैं। सौदेबाज़ी चल रही है।

    रामधन के बैलों को भुलऊ महाराज परख रहे हैं। आस-पास के गाँवों में उनकी पंडिताई ख़ूब जमी है। चाहे ब्याह करना हो, सत्यनारायण की कथा करानी हो, मरनी-हरनी पर गरुड़-पुराण बाँचना हो—सब भुलऊ महाराज ही करते हैं। कुछ साल पहले तक तो कुछ नहीं था इनके पास। अब पुरोहिती जम गई तो सब कुछ हो गया। खेती-बाड़ी भी जमा चुके हैं अच्छी-ख़ासी।

    महाराज बैलों के पुट्ठों को ठीक तरह से ठोंक-बजाकर देखने के बाद बोले, “अच्छा रामधन, ज़रा इनको रेंगाकर दिखाओ। चाल देख लूँ।

    रामधन ने बीड़ी का धुआँ उगलकर कहा, “अरे, देख लो महाराज... तुमको जैसे देखना है, देख लो! हम कोई परदेसी हैं जो तुम्हारे संग धोखाधड़ी करेंगे।”

    रामधन ने बैलों को कोंचकर हकाला, “हो... रे...रे...च्चल!” दोनों बैल आठ-दस डग चले फिर वापस अपनी जगह पर।

    भुलऊ महाराज बगुला भगत बने बड़े मनोयोग से बैलों का चलना देख रहे थे—कहीं कोई खोट तो नहीं है! कहने लगे, “देखों भइया, मैं तो कुछ भी चीज़ लेता हूँ तो जाँच-परखकर लेता हूँ।

    देखो महाराज, रोकता कौन है? मैं कहीं भाग रहा हूँ मेरे बैल। अच्छे-से देख लो। धोखाधड़ी की कोई बात नहीं है। फिर बाम्हन को दगा देकर हमको नरक में जाना है क्या?

    भुलऊ महाराज, के चहरे से लगा, रामधन के उत्तर से संतुष्ट हुए। बोले “अच्छा, अब ज़रा इनका मुँह खोलकर दिखाओ। मैं इनके दाँत गिनूँगा।

    अभी लो। ये कौन बड़ी बात है।” रामधन ने बीड़ी फेंककर अपने बैलों के मुँह खोल दिए। भुलऊ महाराज अपनी धोती-कुरता संभालते हुए नज़दीक आए और बैलों के दाँत गिनने लगे।

    दाँत गिनते हुए महाराज ने पूछा, “तुम्हारे बैल कोढ़िया तो नहीं हैं?”

    ठीक है भई, ठीक है। मान लिया। अब तुम कहते हो तो मान लेते हैं।” महाराज व्यर्थ ही हँसे, फिर अपने बंद छाते की नोक को कसकर ज़मीन में धाँसा—मानो अब सौदे की बात हो जाए। महाराज ने अपने को थोड़ा खास-खँखारकर व्यस्थित किया, फिर पूछा, “तो बताना भाई, कितने में दोगे?

    रामधन विनम्र हो गया, “मैं तो पहले ही बता चुका हूँ मालिक...

    नाराज़गी से भुलऊ महाराज का चंदन और रोली का तिलक लगा माथा सिकुड़ गया, “फिर वही बात! वाजिब दाम लगाओ, रामधन।

    “बिलकुल वाजिब लगा रहा हूँ महाराजा भला आपसे क्या फ़ायदा लेना। रामधन ने उसी नम्रता से कहा।

    ज़ाफ़रानी ज़र्दा वाले पान का स्वाद महाराज के मुँह में बिगड़ गया। पीक थूककर खीजकर बोल, “क्या यार रामधन! जान-पहचान के आदमी से तो कुछ कम करो। आख़िर एक गाँव-घर होने का कोई मतलब है कि नहीं? आंय!

    रामधन का जी हुआ कह दे, 'तुम तो लगन पढ़ने के बाद एक पाई कम नहीं करते। आधा-अधूरा बिहाव छोड़कर जाने की धमकी देते हो अगर दक्षिणा तनिक भी कम हो जाए। गाँव-घर जब तुम नहीं देखते तो भला मैं क्यों देखूँ?' लेकिन लगा इससे बात बिगड़ जाएगी। उसने सिर्फ़ इतना ही कहा, “नहीं पड़ेगा महाराज, मेरी बात मानो। अगर पड़ता तो मैं दे नहीं देता।

    भुलऊ महाराज अब बुरी तरह बमक गए और ग़ुस्से से उनके पतले लंबूतरे चेहरे की नर्म झुर्रियाँ लहरा उठीं, “तो साले, एक तुम्ही हो जैसे दुनिया में बैल बेचने वाले? बाक़ी ये सब तो मुँह देखने वाले हैं! इतना गुमान ठीक नहीं है, रामधन!”

    महाराज की तेज़ आवाज़ से आसपास के लोगों का ध्यान इधर ही खिंच गया। रामधन ने इस समय ग़ज़ब की शांति से काम लिया, “मैं कब कह रहा हूँ महाराजा तुमको नहीं पोसाता तो ख़रीदो, दूसरा देख लो। यहाँ तो कमी नहीं है जानवरों की।” इतना तो रामधन भी जानता था कि ग्राहक भले ही ग़ुस्सा हो जाए, बेचने वाले को शांत रहना चाहिए।

    महाराज ग़ुस्से से थरथराते खड़े रहे। कुछ लोग आसपास घेरा बनाकर जमा हो गए, गोया कोई तमाशा हो रहा हो।

    इधर-उधर घूमकर सहदेव फिर वापस आकर खड़ा हो गया था और सारा माजरा देखता रहा था चुपचाप। बोला, “देखो रामधन, तुमको पोसा रहा है तो बोलो, मैं अभी खड़े-खड़े ख़रीद लेता हूँ।

    रामधन जानता है सहदेव को। यह गाँव-गाँव के बाज़ार-बाज़ार घूमकर गाय-बैलों की ख़रीदारी में दलाली करता है। ख़रीदार के लिए विक्रेता को पटाता है और विक्रेता के लिए ग्राहक। ये बैल के पारखी होते हैं। सहदेव कुथरेल गाँव के भुनेश्वर दाऊ के लिए दलाली कर रहा है।

    रामधन अपने बैलों की तरफ़ पुआल बढ़ाता हुआ बोला, “नहीं भाई, इतने कम में नहीं पोसाता सहदेव।

    रामधन का वही सधा हुआ और ठहरा हुआ टका-सा जवाब सुनकर जैसे महाराज की देह में आग लग गई, “देख...देख... इसको! कैसा जवाब देता है? मैं कहता हूँ, अरे, कैसे नहीं पोसाएगा यार? सब पोसाएगा! देख सब जगे सौदा पट रहा है...” झल्लाहट में महाराज के कत्था से बुरी तरह रचे काले-भूरे दाँत झलक गए।

    “मैं तो कह रहा हूँ महाराज। हाथ जोड़कर कह रहा हूँ।” रामधन ने सचमुच हाथ जोड़ लिए। “आप वहीं ख़रीद लो!

    अब सहदेव भी बिदक गया, हालाँकि वह शांत स्वभाव का आदमी है। बोला, ले रे स्साले! ज़्यादा नख़रा झन मार! तेरे बैल बढ़िया दाम में बिक जाएँगे। देख, तेरे बैल ख़रीदने भुनेसर दाऊ ख़ुद आए हैं।

    रामधन ने कुथरेल के भुनेश्वर दाऊ को देखा, जो सामने खड़े थे, सौदेबाज़ी देखते। अधेड़ दाऊ की आँखों में धूप का रंगीन चश्मा है, सुनहरी फ़्रेम का। वे बड़े इत्मीनान और बेहद सलीक़े से पान चबाते खड़े हैं। भुलऊ महाराज की तरह गँवारूपन के साथ नहीं, जिनके होंटों से पान की पीक लगातार लार की तरह चू रही है।

    रामधन को बहुत असहज लग रहा था... इस भीड़ के केंद्र में वही है। और ऐसा बहुत कम हुआ है। सब पीछे पड़े हैं। एक क्षण को गर्व भी हुआ उसे अपने बैलों पर। उसने बैलों को पुचकार दिया और बैलों की गले की घंटियाँ टुनटुना उठी।

    अब दाऊ ने अपना मुँह खोला, “देखो भाई, मुझको तो हल-बैल का कुछ नहीं मालूम। मैं तो नौकरों के भरोसे खेती करने वाला आदमी हूँ। बस, हमको बैल बढ़िया चाहिए—ख़ूब कमाने वाला। कोढ़िया नहीं होना चाहिए बैल...”

    रामधन ने अपने बैलों को दुलारा, “शक-सुबो की कोई बात नही है दाऊ। मैं अपने मुँह से इनके बारे में क्या कहूँ, गाँव के किसी भी आदमी से पूछ लो, वह बता देगा आपको। आप चाहो तो इनको दिन भर दौड़ा लो, पानी छोड़कर कुछ और नहीं चाहिए इनको।”

    वहाँ खड़े-खड़े भुलऊ महाराज का धैर्य और संयम अब चुकने लगा था। बोले, “तीन हज़ार दो सौ दे रहा हूँ! नगद! और कितना दूँगा? ...साले दो-टके के बैल!... आदमी और कितना देगा?

    रामधन अटल है, “नहीं पड़ेगा महाराज! चार हज़ार माने चार हज़ार!

    अब महाराज के चेहरे पर ग़ुस्सा, क्षोभ, तिलमिलाहट और पराजय का भाव देखने लायक़ था। लगता था भीतर ही भीतर क्रोध से दहक रहे हों और उनका बस चले तो रामधन को भस्म करके रख दें।

    अब सहदेव ने कहा, “देखो भाई, तुमको तुम्हारी आमदनी मिल जाए, तुमको और क्या चाहिए फिर?”

    “अरे आमदनी की ऐसी की तैसी! मेरा तो मुद्दस नहीं निकलता मेरे बाप। रामधन भी चिल्ला उठा।

    भुलऊ महाराज को इस बीच जैसे फिर मौक़ा मिल गया। अपना क्रोध निगलकर बोले, “ले यार, मैं नगद दे रहा हूँ तीन हज़ार तीन सौ! एक सौ और ले लो। ले चल। तुम्हीं ख़ुश रहो। चल अब क़िस्सा ख़त्म कर...। भुलऊ महाराज अपनी रो में रस्सी पकड़कर बैलों को खींचने लगे, ज़बरदस्ती...

    महाराज की इस हरकत पर जमा लोग हँस पड़े। सहदेव तो ठठाकर हँस पड़ा, “महाराज, ये दान-पुन्न का काम नहीं। मैं इनके भाव जानता हूँ। जितना तुम कह रहे हो उतने में तो कभी नहीं देगा! अरे घंटा तक इसके कुला में लेवना (मक्खन) लगाया। मुझको नहीं दिया तो तुमको कैसे दे देगा हज़ार तीन सौ में?

    जमा लोग फिर हँस पड़े। भुलऊ महाराज अपमानित महसूस करके क्षण भर घूरते रहे। फिर ग़ुस्से से अपना गड़ा हुआ छाता उठाया और चलते बने।

    महाराज के खिसकते ही भीड़ के कुछ लोगों को लगा, अब मज़ा नहीं आएगा। सो कुछ सरकने को हुए। लेकिन अधिकांश अभी डटे हुए थे, किसी एक ग्राहक और तमाशे की उम्मीद में, उन तगड़े सफ़ेद और भूरे बैलों को मुग्ध होकर निहारते हुए।

    तभी भीड़ तो चीरता हुआ चइता प्रकट हो गया। चइता इधर का जाना-माना दलाल है। विकट ज़िद्दी और सनकहा। अपने इस ज़िद्दी स्वभाव के भरोसे ही वह जीतता आया है। ऐसे सौदे कराने की कला में वह माहिर माना जाता है। सौदेबाज़ी में सफलता के लिए वह साम-दाम-दंड-भेद, हर विधि अपना सकता है। पैर पड़ने से लेकर गाली बकने तक की क्रिया वह उसी सहज भाव से निपटाता है।

    उसके आते ही ठर्रे का तीखा भभका आसपास भर गया। वह सिर में लाल गमछा बाँधे हुए था। अधेड़, काला किंतु गठीले शरीर का मालिक चइता।

    आते ही दाऊ को देखकर कहेगा, “राम-राम दाऊ, का बात है? वह अपनी आदत के मुताबिक़ जल्दी-जल्दी बात कहता है।

    दाऊ ने अपनी शिकायत चइता के सामने रखी, “अरे देख ना चइता, साढ़े तीन हज़ार दे रहा हूँ, तब भी नहीं मान रहा है।

    तुम हटो तो सहदेव, मैं देखता हूँ।” सहदेव एक किनारे करता हुआ चइता आगे बढ़ गया। उसने बैलों को देखा और उनके माथे को छूकर प्रणाम किया। और बोल, “ठीक है दाऊ। मैं पटा देता हूँ सौदा। अब चिंता की कोई बात नहीं है, मैं गया हूँ।”

    रामधन ने कहना चाहा कि इतने में नहीं पोसाएगा। लेकिन चइता इससे बेख़बर था। उसे जैसे रामधन के हाँ अथवा ना की कोई परवाह ही नहीं थी। वह अपनी रौ में इस समय सिर्फ़ दाऊ से मुख़ातिब था, “दाऊ... तुम दस रुपया दो... बयाना... मैं सब बना लूँगा, तुम देखते भर रहो।

    दाऊ ने दूसरे ही पल अपने पर्स से सौ का एक नोट निकाल लिया, “अरे दस क्या लेते हो, सौ रखो।”

    रुपए लेकर चइता अब रामधन की तरफ़ बढ़ा। उसे ज़बरदस्ती रुपया पकड़ाने लगा, “अच्छा भाई, चल जा। बैलों के पैर छू ले। ये बयाना रख और सौदा मंज़ूर कर...

    कितने में? रामधन ने गहरे संशय से पूछा।

    “साढ़े तीन हज़ार में”

    “ऊँ हूँ... नहीं जमेगा।” रामधन ने स्पष्ट कहा।

    अब चइता अपने वास्तविक फ़ार्म में उतर आया, ज़िद करने लगा, “अरे, रख मेरे भाई और मान जा।

    रामधन ने विनम्र होने की कोशिश की, “नहीं भाई, नहीं पोसाता। देख, मेरी बात मान और ज़िद छोड़... मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूँ।

    लेकिन चइता भभक गया, “अरे ले ले साले! कितने ही देखे हैं तेरे जैसे! चल रख और बात ख़त्म कर!

    नहीं नहीं। चार हज़ार से एक पाई कम नहीं।” रामधन अपनी बात पर अटल था।

    रामधन को परेशानी में फँसा देखकर सहदेव बचाव के लिए आया और चइता को समझाने लगा, “चइता, जब उसको नहीं पोसाता तो कैसे दे देगा, कुछ समझाकर!”

    “देगा! ये देगा और तेरे सामने देगा! तुम देखते तो रहो।” चइता ने जमी हुई नज़रों से सहदेव को देखा। वह फिर अपनी ज़िद पर उतर आया, “ले रख यार और मान जा! जा बैलों के पैर छू ले।” कोई प्रतिक्रिया रामधन के चेहरे पर नहीं देखकर वह फिर शुरू हो गया, “अच्छा, चल ठीक है! तुम मुझको एक पैसा भी दलाली मत देना। ये लो! तेरे बैलों की क़सम! बस्स! एक पैसा मत देना मेरे को! और कोई तेरे से पैसा माँगेगा उसकी महतारी के संग सोना! मंज़ूर? चल...

    अब रामधन को भी ग़ुस्सा गया, “मैं तुम्हारे को कितने बार समझाऊँगा, स्साले! तुमको समझ नहीं आता क्या? नहीं माने नहीं। तू जा यार यहाँ से... जा...!

    लेकिन चइता भी पूरा बेशरम आदमी ठहरा। वह इतनी जल्दी हार मानने वाला नहीं था, “अच्छा, आख़िर मुझको सौ-दो सौ रुपया देगा कि नहीं? ऑय? मत देना मेरे को! मैं समझूगा जुए में हार गया या दारू में फूँक दिया। अरे, मैं पिया हुआ हूँ इसका ये मतलब थोड़ी है कि ग़लत-सलत भाव करने लगूँगा। मेरी बात मान, इससे बढ़िया रेट तेरे को और कोई नहीं देगा, माँ क़सम!” उसने ज़मीन की मुट्ठी भर धूल उठाकर माथे पर लगा ली।

    लेकिन चइता के इतने हथियार आज़माने के बावजूद वह बेअसर रहा। अपनी ज़िद पर क़ायम रहा, चार हज़ार बस्स...

    अब चइता ने हार मान ली। वह ग़ुस्से में फुफकारता और रामधन को अंड-बंड बकता हुआ चला गया। और भीड़ में खो गया।

    चइता के जाते ही भीड़ छँटने लगी। अब वहाँ किसी दूसरे तमाशे की उम्मीद नहीं रही, क्योंकि शाम धीरे-धीरे उतर रही थी। इस समय पश्चिम का सारा आकाश लालिमा से भर उठा था और सूरज दूर पेड़ों के झुरमुट के पीछे छुपने की तैयारी में था।

    बाज़ार की चहल-पहल धीरे-धीरे कम हो रही थी।

    रामधन ने अपनी बंडी की जेब से बीड़ी निकालकर सुलगा ली। वह आराम से गहरे-गहरे कश लेने लगा। तभी सहदेव उसके पास गया। उसकी बीड़ी से अपनी बीड़ी सुलगाई। फिर धीरे-धीरे कहने लगा, “ठीक किए रामधन। बिलकुल ठीक किए। इन साले दाऊ लोगों को गाय-बैल की क्या क़दर? साला दाऊ रहे चाहे कुछु रहे—अपने घर में होगा। हम आख़िर बैल बेचने आए हैं, किसी बाम्हन को बछिया दान करने नहीं आए हैं। ठीक किया तुमने।”

    सुनकर अच्छा लगा रामधन को। उसने सहदेव से विदा माँगी, “अब जाता हूँ भइया, दूर का सफ़र है। गाँव पहुँचते तक रात-साँझ हो जाएगी। चलता हूँ। और अपने बैलों को लेकर चल पड़ा।

    यह लगातार तीसरा मौक़ा है जब रामधन हाट से अपने बैलों के साथ वापस लौट रहा है—उन्हें बिना बेचे। रामधन जानता है, गाँव वाले उसके इस उजबकपने पर फिर हँसेंगे। घर में पत्नी अलग चिड़चिड़ाएगी और मुन्ना फिर ग़ुस्साएगा।

    गाँव के लोगों को अब इसका पता चला है, वे अक्सर उससे पूछ लेते हैं, “कैसे जी रामधन, तुम तो कल बैल लेकर हाट गए थे, क्या हुआ? बैल बिके के नहीं?

    वे रामधन पर हँसते हैं, “अच्छा आदमी हो भाई तुम भी। इतने बड़े बाज़ार में तुमको एक भी मन का ग्राहक नहीं मिला!” कुछेक अनुमान लगाते हैं, शायद रामधन को बाज़ार की चाल-ढाल नहीं मालूम। उसे मोल-भाव करना नहीं आता। उसे अपना माल बेचना नहीं आता। या फिर साफ़ बात है रामधन को अपने बैल बेचने नहीं हैं।

    प्रिय पाठकों, अब आप यह दृश्य देखिए और सुनिए भी!

    रामधन अपने बैलों की रस्सी थामे, बीड़ी पीते हुए चुपचाप लौट रहा है। पैदल, साँझ ख़ूब गहरा चुकी है और अँधेरा चारों और घिर आया है। वह किसी गाँव के धूल अटे कच्चे रास्ते से गुज़र रहा है। अब आप ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे, वे दो बैल और रामधन नहीं, बल्कि आपस के तीन गहरे साथी रहे हैं। हाँ, तीन गहरे साथी। बैलों के गले की घंटियाँ आस-पास की ख़ामोशी को तोड़ती हुई, उनके चलने की लय में आराम से बज रही हैं टुन-टुन-टुन-टुन... क्या आप सिर्फ़ यही सुन रहे हैं? तो फिर ग़लत सुन रहे हैं। आप ध्यान से सुनिए, वे आपस में बातें कर रहे हैं... जी नहीं, मैं कोई कविता या क़िस्सा नहीं गढ़ रहा हूँ। आपको विश्वास नहीं हो रहा होगा। लेकिन आप मानिए, इस समय सचमुच यही हो रहा है। यह तो समय-समय की बात है कि आपको यह कोई चमत्कार मालूम हो रहा है।

    उसके बैल पूछ रहे हैं, “मान लो अगर दाऊ या महाराज तुम्हें चार हज़ार दे देते होते तो तुम क्या हमें बेच दिए होते?

    रामधन ने जवाब दिया, “शायद नहीं। फिर भी नहीं बेचता उनके हाथ तुमको।”

    “बेचना तो पड़ेगा एक दिन!” बैल कह रहे हैं, “आख़िर तुम हमें कब तक बचाओगे, रामधन? कब तक?

    जवाब में रामधन मुस्कुरा दिया—एक बहुत फीकी और उदास मुस्कान... अनिश्चितता से भरी हुई। रामधन अपने बैलों से कह रहा है, “देखो... हो सकता है अगली हाट में मुन्ना तुम्हें लेकर आए।

    बीड़ी का यह आख़िरी कश था और वह बुझने लगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1990-2000) (पृष्ठ 78)
    • संपादक : उमाशंकर चौधरी-ज्योति चावला
    • रचनाकार : कैलाश बनवासी
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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