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लाल पान की बेगम

lal pan ki begam

फणीश्वरनाथ रेणु

फणीश्वरनाथ रेणु

लाल पान की बेगम

फणीश्वरनाथ रेणु

और अधिकफणीश्वरनाथ रेणु

    ‘क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?’

    बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आँगन में लोट-पोट कर सारी देह में मिट्टी मल रहा था। चंपिया के सिर भी चुड़ैल मँडरा रही है... आधे-आँगन धूप रहते जो गई है सहुआइन की दुकान छोवा-गुड़ लाने, सो अभी तक नहीं लौटी, दीया-बाती की बेला हो गई। आए आज लौटके ज़रा! बागड़ बकरे की देह में कुकुरमाछी लगी थी, इसलिए बेचारा बागड़ रह-रह कर कूद-फाँद कर रहा था। बिरजू की माँ बागड़ पर मन का ग़ुस्सा उतारने का बहाना ढूँढ़ कर निकाल चुकी थी...पिछवाड़े की मिर्च की फूली गाछ! बागड़ के सिवा और किसने कलेवा किया होगा! बागड़ को मारने के लिए वह मिट्टी का छोटा ढेला उठा चुकी थी, कि पड़ोसिन मखनी फुआ की पुकार सुनाई पड़ी—‘क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?’

    ‘बिरजू की माँ के आगे नाथ और पीछे पगहिया हो तब न, फुआ!’

    गर्म ग़ुस्से में बुझी नुकीली बात फुआ की देह में धँस गई और बिरजू की माँ ने हाथ के ढेले को पास ही फेंक दिया—‘बेचारे बागड़ को कुकुरमाछी परेशान कर रही है। आ-हा, आय... आय! हर्र-र-र! आय-आय!’

    बिरजू ने लेटे-ही-लेटे बागड़ को एक डंडा लगा दिया। बिरजू की माँ की इच्छा हुई कि जा कर उसी डंडे से बिरजू का भूत भगा दे, किंतु नीम के पास खड़ी पनभरनियों की खिलखिलाहट सुन कर रुक गई। बोली, ‘ठहर, तेरे बप्पा ने बड़ा हथछुट्टा बना दिया है तुझे! बड़ा हाथ चलता है लोगों पर। ठहर!’

    मखनी फुआ नीम के पास झुकी कमर से घड़ा उतार कर पानी भर कर लौटती पनभरनियों में बिरजू की माँ की बहकी हुई बात का इंसाफ़ करा रही थी—‘ज़रा देखो तो इस बिरजू की माँ को! चार मन पाट (जूट) का पैसा क्या हुआ है, धरती पर पाँव ही नहीं पड़ते! निसाफ़ करो! ख़ुद अपने मुँह से आठ दिन पहले से ही गाँव की गली-गली में बोलती फिरी है, ‘हाँ, इस बार बिरजू के बप्पा ने कहा है, बैलगाड़ी पर बिठा कर बलरामपुर का नाच दिखा लाऊँगा। बैल अब अपने घर है, तो हज़ार गाड़ी मँगनी मिल जाएँगी।’ सो मैंने अभी टोक दिया, नाच देखने वाली सब तो औन-पौन कर तैयार हो रही हैं, रसोई-पानी कर रहे हैं। मेरे मुँह में आग लगे, क्यों मैं टोकने गई! सुनती हो, क्या जवाब दिया बिरजू की माँ ने?’

    मखनी फुआ ने अपने पोपले मुँह के होंठों को एक ओर मोड़ कर ऐठती हुई बोली निकाली—‘अर्-र्रे-हाँ-हाँ! बि-र-र-ज्जू की मै...या के आगे नाथ औ-र्र पीछे पगहिया ना हो, तब ना-आ-आ!’

    जंगी की पुतोहू बिरजू की माँ से नहीं डरती। वह ज़रा गला खोल कर ही कहती है, ‘फुआ-आ! सरबे सित्तलर्मिटी (सर्वे सेटलमेंट) के हाकिम के बासा पर फूलछाप किनारी वाली साड़ी पहन के तू भी भंटा की भेंटी चढ़ाती तो तुम्हारे नाम से भी दु-तीन बीघा धनहर ज़मीन का पर्चा कट जाता! फिर तुम्हारे घर भी आज दस मन सोनाबंग पाट होता, जोड़ा बैल ख़रीदता! फिर आगे नाथ और पीछे सैकड़ो पगहिया झूलती!’

    जंगी की पुतोहू मुँहज़ोर है। रेलवे स्टेशन के पास की लड़की है। तीन ही महीने हुए, गौने की नई बहू हो कर आई है और सारे कुर्मा टोली की सभी झगड़ालू सासों से एकाध मोर्चा ले चुकी है। उसका ससुर जंगी दाग़ी चोर है, सीड़किलासी है। उसका ख़सम रंगी कुर्मा टोली का नामी लठैत। इसीलिए हमेशा सींग घुमाती फिरती है जंगी की पुतोहू!

    बिरजू की माँ के आँगन में जंगी की पुतोहू की गला-खोल बोली ग़ुलेल की गोलियों की तरह दनदनाती हुई आई थी। बिरजू की माँ ने एक तीख़ा जवाब खोज कर निकाला, लेकिन मन मसोस कर रह गई।...गोबर की ढेरी में कौन ढेला फेंके!

    जीभ के झाल को गले में उतार कर बिरजू की माँ ने अपनी बेटी चंपिया को आवाज़ दी—‘अरी चंपिया-या-या, आज लौटे तो तेरी मूड़ी मरोड़ कर चूल्हे में झोंकती हूँ! दिन-दिन बेचाल होती जाती है!...गाँव में तो अब ठेठर-बैसकोप का गीत गाने वाली पतुरिया-पुतोहू सब आने लगी हैं। कहीं बैठके ‘बाजे मुरलिया’ सीख रही होगी ह-र-जा-ई-ई! अरी चंपिया-या-या!’

    जंगी की पुतोहू ने बिरजू की माँ की बोली का स्वाद ले कर कमर पर घड़े को सँभाला और मटक कर बोली, ‘चल दिदिया, चल! इस मुहल्ले में लाल पान की बेगम बसती है! नहीं जानती, दोपहर-दिन और चौपहर-रात बिजली की बत्ती भक्-भक् कर जलती है!’

    भक्-भक् बिजली-बत्ती की बात सुन कर जाने क्यों सभी खिलखिला कर हँस पड़ीं। फुआ की टूटी हुई दंत-पंक्तियों के बीच से एक मीठी गाली निकली—‘शैतान की नानी!’

    बिरजू की माँ की आँखों पर मानो किसी ने तेज़ टार्च की रौशनी डाल कर चौंधिया दिया।...भक्-भक् बिजली-बत्ती! तीन साल पहले सर्वे कैंप के बाद गाँव की जलन-ढाही औरतों ने एक कहानी गढ़ के फैलाई थी, चंपिया की माँ के आँगन में रात-भर बिजली-बत्ती भुकभुकाती थी! चंपिया की माँ के आँगन में नाकवाले जूते की छाप घोड़े की टाप की तरह।...जलो, जलो! और जलो! चंपिया की माँ के आँगन में चाँदी-जैसे पाट सूखते देख कर जलने वाली सब औरतें खलिहान पर सोनोली धान के बोझों को देख कर बैंगन का भुर्ता हो जाएँगी।

    मिट्टी के बरतन से टपकते हुए छोवा-गुड़ को उँगलियों से चाटती हुई चंपिया आई और माँ के तमाचे खा कर चीख़ पड़ी—‘मुझे क्यों मारती है-ए-ए-ए! सहुआइन जल्दी से सौदा नहीं देती है-एँ-एँ-एँ-एँ!’

    ‘सहुआइन जल्दी सौदा नहीं देती की नानी! एक सहुआइन की दुकान पर मोती झरते हैं, जो जड़ गाड़ कर बैठी हुई थी! बोल, गले पर लात दे कर कल्ला तोड़ दूँगी हरजाई, जो फिर कभी ‘बाजे मुरलिया’ गाते सुना! चाल सीखने जाती है टीशन की छोकरियों से!’

    बिरजू के माँ ने चुप हो कर अपनी आवाज़ अंदाज़ी कि उसकी बात जंगी के झोंपड़े तक साफ़-साफ़ पहुँच गई होगी।

    बिरजू बीती हुई बातों को भूल कर उठ खड़ा हुआ था और धूल झाड़ते हुए बरतन से टपकते गुड़ को ललचाई निगाह से देखने लगा था।...दीदी के साथ वह भी दुकान जाता तो दीदी उसे भी गुड़ चटाती, ज़रुर! वह शकरकंद के लोभ में रहा और माँगने पर माँ ने शकरकंद के बदले... ‘ए मैया, एक अँगुली गुड़ दे दे बिरजू ने तलहथी फैलाई—दे ना मैया, एक रत्ती-भर!’

    ‘एक रत्ती क्यों, उठाके बरतन को फेंक आती हूँ पिछवाड़े में, जाके चाटना! नहीं बनेगी मीठी रोटी! ...मीठी रोटी खाने का मुँह होता है बिरजू की माँ ने उबले शकरकंद का सूप रोती हुई चंपिया के सामने रखते हुए कहा, ‘बैठके छिलके उतार, नहीं तो अभी...!’

    दस साल की चंपिया जानती है, शकरकंद छीलते समय कम-से-कम बारह बार माँ उसे बाल पकड़ कर झकझोरेगी, छोटी-छोटी खोट निकाल कर गालियाँ देगी—‘पाँव फैलाके क्यों बैठी है उस तरह, बेलज्जी!’ चंपिया माँ के ग़ुस्से को जानती है।

    बिरजू ने इस मौक़े पर थोड़ी-सी ख़ुशामद करके देखा—’मैया, मैं भी बैठ कर शकरकंद छीलूँ?’

    ‘नहीं?’ माँ ने झिड़की दी, ‘एक शकरकंद छीलेगा और तीन पेट में! जाके सिद्धू की बहू से कहो, एक घंटे के लिए कड़ाही माँग कर ले गई तो फिर लौटाने का नाम नहीं। जा जल्दी!’

    मुँह लटका कर आँगन से निकलते-निकलते बिरजू ने शकरकंद और गुड़ पर निगाहें दौड़ाई। चंपिया ने अपने झबरे केश की ओट से माँ की ओर देखा और नज़र बचा कर चुपके से बिरजू की ओर एक शकरकंद फेंक दिया।...बिरजू भागा।

    ‘सूरज भगवान डूब गए। दीया-बत्ती की बेला हो गई। अभी तक गाड़ी...

    ‘चंपिया बीच में ही बोल उठी—‘कोयरी टोले में किसी ने गाड़ी नहीं दी मैया! बप्पा बोले, माँ से कहना सब ठीक-ठाक करके तैयार रहें। मलदहिया टोली के मियाँजान की गाड़ी लाने जा रहा हूँ।’

    सुनते ही बिरजू की माँ का चेहरा उतर गया। लगा, छाते की कमानी उतर गई घोड़े से अचानक। कोयरी टोले में किसी ने गाड़ी मँगनी नहीं दी! तब मिल चुकी गाड़ी! जब अपने गाँव के लोगों की आँख में पानी नहीं तो मलदहिया टोली के मियाँजान की गाड़ी का क्या भरोसा! तीन में तेरह में! क्या होगा शकरकंद छील कर! रख दे उठा के!...यह मर्द नाच दिखाएगा। बैलगाड़ी पर चढ़ कर नाच दिखाने ले जाएगा! चढ़ चुकी बैलगाड़ी पर, देख चुकी जी-भर नाच... पैदल जाने वाली सब पहुँच कर पुरानी हो चुकी होंगी।

    बिरजू छोटी कड़ाही सिर पर औंधा कर वापस आया—‘देख दिदिया, मलेटरी टोपी! इस पर दस लाठी मारने पर भी कुछ नहीं होता।’

    चंपिया चुपचाप बैठी रही, कुछ बोली नहीं, ज़रा-सी मुस्कराई भी नहीं। बिरजू ने समझ लिया, मैया का ग़ुस्सा अभी उतरा नहीं है पूरे तौर से।

    मढ़ैया के अंदर से बागड़ को बाहर भगाती हुई बिरजू की माँ बड़बड़ाई—‘कल ही पँचकौड़ी क़साई के हवाले करती हूँ राकस तुझे! हर चीज़ में मुँह लगाएगा। चंपिया, बाँध दे बागड़ को। खोल दे गले की घंटी! हमेशा टुनुर-टुनुर! मुझे ज़रा नहीं सुहाता है!’

    ‘टुनुर-टुनुर’ सुनते ही बिरजू को सड़क से जाती हुई बैलगाड़ियों की याद हो आई—‘अभी बबुआन टोले की गाड़ियाँ नाच देखने जा रही थीं... झुनुर-झुनुर बैलों की झुमकी, तुमने सु...’

    ‘बेसी बक-बक मत करो!’ बागड़ के गले से झुमकी खोलती बोली चंपिया।

    ‘चंपिया, डाल दे चूल्हे में पानी! बप्पा आवे तो कहना कि अपने उड़नजहाज़ पर चढ़ कर नाच देख आएँ! मुझे नाच देखने का सौख नहीं!...मुझे जगाइयो मत कोई! मेरा माथा दुख रहा है।’

    मढ़ैया के ओसारे पर बिरजू ने फिसफिसा के पूछा, ‘क्यों दिदिया, नाच में उड़नजहाज़ भी उड़ेगा?’

    चटाई पर कथरी ओढ़ कर बैठती हुई चंपिया ने बिरजू को चुपचाप अपने पास बैठने का इशारा किया, मुफ़्त में मार खाएगा बेचारा!

    बिरजू ने बहन की कथरी में हिस्सा बाँटते हुए चुक्की-मुक्की लगाई। जाड़े के समय इस तरह घुटने पर ठुड्डी रख कर चुक्की-मिक्की लगाना सीख चुका है वह। उसने चंपिया के कान के पास मुँह ले जा कर कहा, ‘हम लोग नाच देखने नहीं जाएँगे?...गाँव में एक पंछी भी नहीं है। सब चले गए।’

    चंपिया को तिल-भर भी भरोसा नहीं। संझा तारा डूब रहा है। बप्पा अभी तक गाड़ी ले कर नहीं लौटे। एक महीना पहले से ही मैया कहती थी, बलरामपुर के नाच के दिन मीठी रोटी बनेगी, चंपिया छींट की साड़ी पहनेगी, बिरजू पैंट पहनेगा, बैलगाड़ी पर चढ़ कर...

    चंपिया की भीगी पलकों पर एक बूँद आँसू गया।

    बिरजू का भी दिल भर आया। उसने मन-ही-मन में इमली पर रहने वाले जिनबाबा को एक बैंगन कबूला, गाछ का सबसे पहला बैंगन, उसने ख़ुद जिस पौधे को रोपा है!...जल्दी से गाड़ी ले कर बप्पा को भेज दो, जिनबाबा!

    मढ़ैया के अंदर बिरजू की माँ चटाई पर पड़ी करवटें ले रही थी। उँह, पहले से किसी बात का मनसूबा नहीं बाँधना चाहिए किसी को! भगवान ने मनसूबा तोड़ दिया। उसको सबसे पहले भगवान से पूछना है, यह किस चूक का फल दे रहे हो भोला बाबा! अपने जानते उसने किसी देवता-पित्तर की मान-मनौती बाक़ी नहीं रखी। सर्वे के समय ज़मीन के लिए जितनी मनौतियाँ की थीं... ठीक ही तो! महाबीर जी का रोट तो बाक़ी ही है। हाय रे दैव!... भूल-चूक माफ़ करो महाबीर बाबा! मनौती दूनी करके चढ़ाएगी बिरजू की माँ!...

    बिरजू की माँ के मन में रह-रह कर जंगी की पुतोहू की बातें चुभती हैं, भक्-भक् बिजली-बत्ती!... चोरी-चमारी करने वाली की बेटी-पुतोहू जलेगी नहीं! पाँच बीघा ज़मीन क्या हासिल की है बिरजू के बप्पा ने, गाँव की भाईखौकियों की आँखों में किरकिरी पड़ गई है। खेत में पाट लगा देख कर गाँव के लोगों की छाती फटने लगी, धरती फोड़ कर पाट लगा है, बैसाखी बादलों की तरह उमड़ते रहे हैं पाट के पौधे! तो अलान, तो फलान! इतनी आँखों की धार भला फ़सल सहे! जहाँ पंद्रह मन पाट होना चाहिए, सिर्फ़ दस मन पाट काँटा पर तौल के ओजन हुआ भगत के यहाँ।...

    ‘इसमें जलने की क्या बात है भला!...बिरजू के बप्पा ने तो पहले ही कुर्मा टोली के एक-एक आदमी को समझा के कहा, ज़िंदगी-भर मज़दूरी करते रह जाओगे। सर्वे का समय रहा है, लाठी कड़ी करो तो दो-चार बीघे ज़मीन हासिल कर सकते हो। सो गाँव की किसी पुतखौकी का भतार सर्वे के समय बाबूसाहेब के ख़िलाफ़ खाँसा भी नहीं।...बिरजू के बप्पा को कम सहना पड़ा है! बाबूसाहेब ग़ुस्से से सरकस नाच के बाघ की तरह हुमड़ते रह गए। उनका बड़ा बेटा घर में आग लगाने की धमकी देकर गया।...आख़िर बाबूसाहेब ने अपने सबसे छोटे लड़के को भेजा। बिरजू की माँ को ‘मौसी’ कहके पुकारा—यह ज़मीन बाबू जी ने मेरे नाम से ख़रीदी थी। मेरी पढ़ाई-लिखाई इसी ज़मीन की उपज से चलती है।...और भी कितनी बातें। ख़ूब मोहना जानता है उत्ता ज़रा-सा लड़का। ज़मींदार का बेटा है कि...’

    ‘चंपिया, बिरजू सो गया क्या? यहाँ जा बिरजू, अंदर। तू भी जा, चंपिया!... भला आदमी आए तो एक बार आज!’

    बिरजू के साथ चंपिया अंदर चली गई।

    ‘ढिबरी बुझा दे।... बप्पा बुलाएँ तो जवाब मत देना। खपच्ची गिरा दे।’

    ‘भला आदमी रे, भला आदमी! मुँह देखो ज़रा इस मर्द का!...बिरजू की माँ दिन-रात मंझा देती रहती तो ले चुके थे ज़मीन! रोज़ कर माथा पकड़ के बैठ जाएँ, मुझे ज़मीन नहीं लेनी है बिरजू की माँ, मजूरी ही अच्छी।...जवाब देती थी बिरजू की माँ ख़ूब सोच-समझके, छोड़ दो, जब तुम्हारा कलेजा ही स्थिर नहीं होता है तो क्या होगा? जोरु-ज़मीन ज़ोर के, नहीं तो किसी और के!...’

    बिरजू के बाप पर बहुत तेज़ी से ग़ुस्सा चढ़ता है। चढ़ता ही जाता है।...बिरजू की माँ का भाग ही ख़राब है, जो ऐसा गोबरगणेश घरवाला उसे मिला। कौन-सा सौख-मौज दिया है उसके मर्द ने? कोल्हू के बैल की तरह खट कर सारी उम्र काट दी इसके यहाँ, कभी एक पैसे की जलेबी भी ला कर दी है उसके खसम ने!...पाट का दाम भगत के यहाँ से ले कर बाहर-ही-बाहर बैल-हट्टा चले गए। बिरजू की माँ को एक बार नमरी लोट देखने भी नहीं दिया आँख से।...बैल ख़रीद लाए। उसी दिन से गाँव में ढिंढोरा पीटने लगे, बिरजू की माँ इस बार बैलगाड़ी पर चढ़ कर जाएगी नाच देखने!...दूसरे की गाड़ी के भरोसे नाच दिखाएगा!...

    अंत में उसे अपने-आप पर क्रोध हो आया। वह ख़ुद भी कुछ कम नहीं! उसकी जीभ में आग लगे! बैलगाड़ी पर चढ़ कर नाच देखने की लालसा किस कुसमय में उसके मुँह से निकली थी, भगवान जाने! फिर आज सुबह से दोपहर तक, किसी-न-किसी बहाने उसने अठारह बार बैलगाड़ी पर नाच देखने की चर्चा छेड़ी है।...लो, ख़ूब देखो नाच! कथरी के नीचे दुशाले का सपना!...कल भोरे पानी भरने के लिए जब जाएगी, पतली जीभवाली पतुरिया सब हँसती आएँगी, हँसती जाएँगी।...सभी जलते है उससे, हाँ भगवान, दाढ़ी-जार भी! दो बच्चों की माँ हो कर भी वह जस-की-तस है। उसका घरवाला उसकी बात में रहता है। वह बालों में गरी का तेल डालती है। उसकी अपनी ज़मीन है। है किसी के पास एक घूर ज़मीन भी अपने इस गाँव में! जलेंगे नहीं, तीन बीघे में धान लगा हुआ है, अगहनी। लोगों की बिखदीठ से बचे, तब तो!

    बाहर बैलों की घंटियाँ सुनाई पड़ीं। तीनों सतर्क हो गए। उत्कर्ण होकर सुनते रहे।

    ‘अपने ही बैलों की घंटी है, क्यों री चंपिया?’

    चंपिया और बिरजू ने प्राय: एक ही साथ कहा, ‘हूँ-ऊँ-ऊँ!’

    ‘चुप बिरजू की माँ ने फिसफिसा कर कहा, शायद गाड़ी भी है, घड़घड़ाती है न?’

    ‘हूँ-ऊँ-ऊँ!’ दोनों ने फिर हुँकारी भरी।

    ‘चुप! गाड़ी नहीं है। तू चुपके से टट्टी में छेद करके देख तो चंपी! भागके आ, चुपके-चुपके।’

    चंपिया बिल्ली की तरह हौले-हौले पाँव से टट्टी के छेद से झाँक आई—‘हाँ मैया, गाड़ी भी है!’

    बिरजू हड़बड़ा कर उठ बैठा। उसकी माँ ने उसका हाथ पकड़ कर सुला दिया—‘बोले मत!’

    चंपिया भी गुदड़ी के नीचे घुस गई।

    बाहर बैलगाड़ी खोलने की आवाज़ हुई। बिरजू के बाप ने बैलों को ज़ोर से डाँटा—‘हाँ-हाँ! गए घर! घर आने के लिए छाती फटी जाती थी!’

    बिरजू की माँ ताड़ गई, ज़रुर मलदहिया टोली में गाँजे की चिलम चढ़ रही थी, आवाज़ तो बड़ी खनखनाती हुई निकल रही है।

    ‘चंपिया-ह!’ बाहर से पुकार कर कहा उसके बाप ने, ‘बैलों को घास दे दे, चंपिया-ह!’

    अंदर से कोई जवाब नहीं आया। चंपिया के बाप ने आँगन में कर देखा तो रोशनी, चराग़, चूल्हे में आग।...बात क्या है! नाच देखने, उतावली हो कर, पैदल ही चली गई क्या...!

    बिरजू के गले में खसखसाहट हुई और उसने रोकने की पूरी कोशिश भी की, लेकिन खाँसी जब शुरु हुई तो पूरे पाँच मिनट तक वह खाँसता रहा।

    ‘बिरजू! बेटा बिरजमोहन!’ बिरजू के बाप ने पुचकार कर बुलाया, मैया ग़ुस्से के मारे सो गई क्या?...अरे अभी तो लोग जा ही रहे हैं।’

    बिरजू की माँ के मन में आया कि कस कर जवाब दे, नहीं देखना है नाच! लौटा दो गाड़ी!

    ‘चंपिया-ह! उठती क्यों नहीं? ले, धान की पँचसीस रख दे। धान की बालियों का छोटा झब्बा झोंपड़े के ओसरे पर रख कर उसने कहा, ‘दीया बालो!’

    बिरजू की माँ उठ कर ओसारे पर आई—‘डेढ़ पहर रात को गाड़ी लाने की क्या ज़रुरत थी? नाच तो अब ख़त्म हो रहा होगा।’

    ढिबरी की रौशनी में धान की बालियों का रंग देखते ही बिरजू की माँ के मन का सब मैल दूर हो गया।...धानी रंग उसकी आँखों से उतर कर रोम-रोम में घुल गया।

    ‘नाच अभी शुरु भी नहीं हुआ होगा। अभी-अभी बलमपुर के बाबू की संपनी गाड़ी मोहनपुर होटिल-बँगला से हाकिम साहब को लाने गई है। इस साल आख़िरी नाच है।...पँचसीस टट्टी में खोंस दे, अपने खेत का है।’

    ‘अपने खेत का? हुलसती हुई बिरजू की माँ ने पूछा, पक गए धान?’

    ‘नहीं, दस दिन में अगहन चढ़ते-चढ़ते लाल हो कर झुक जाएँगी सारे खेत की बालियाँ!...मलदहिया टोली पर जा रहा था, अपने खेत में धान देख कर आँखें जुड़ा गईं। सच कहता हूँ, पँचसीस तोड़ते समय उँगलियाँ काँप रही थीं मेरी!’

    बिरजू ने धान की एक बाली से एक धान ले कर मुँह में डाल लिया और उसकी माँ ने एक हल्की डाँट दी—‘कैसा लुक्क्ड़ है तू रे!...इन दुश्मनों के मारे कोई नेम-धरम बचे!’

    ‘क्या हुआ, डाँटती क्यों है?’

    ‘नवान्न के पहले ही नया धान जुठा दिया, देखते नहीं?’

    ‘अरे, इन लोगों का सब कुछ माफ़ है। चिरई-चुरमुन हैं यह लोग! दोनों के मुँह में नवान्न के पहले नया अन्न पड़े?’

    इसके बाद चंपिया ने भी धान की बाली से दो धान लेकर दाँतों-तले दबाए—‘ओ मैया! इतना मीठा चावल!’

    ‘और गमकता भी है दिदिया?’ बिरजू ने फिर मुँह में धान लिया।

    ‘रोटी-पोटी तैयार कर चुकी क्या?’ बिरजू के बाप ने मुस्कुराकर पूछा।

    ‘नहीं!’ मान-भरे सुर में बोली बिरजू की माँ, ‘जाने का ठीक-ठिकाना नहीं... और रोटी बनाती!’

    ‘वाह! ख़ूब हो तुम लोग!...जिसके पास बैल है, उसे गाड़ी मँगनी नहीं मिलेगी भला? गाड़ीवालों को भी कभी बैल की ज़रुरत होगी।...पूछूँगा तब कोयरी-टोला वालों से!...ले, जल्दी से रोटी बना ले।’

    ‘देर नहीं होगी!’

    ‘अरे, टोकरी भर रोटी तो तू पलक मारते बना देती है, पाँच रोटियाँ बनाने में कितनी देर लगेगी!’

    अब बिरजू की माँ के होंठों पर मुस्कुराहट खुल कर खिलने लगी। उसने नज़र बचा कर देखा, बिरजू का बप्पा उसकी ओर एकटक निहार रहा है।...चंपिया और बिरजू होते तो मन की बात हँस कर खोलने में देर लगती। चंपिया और बिरजू ने एक-दूसरे को देखा और ख़ुशी से उनके चेहरे जगमगा उठे—‘मैया बेकार ग़ुस्सा हो रही थी न!’

    ‘चंपी! ज़रा घैलसार में खड़ी हो कर मखनी फुआ को आवाज़ दे तो!’

    ‘ऐ फू-आ-आ! सुनती हो फूआ-आ! मैया बुला रही है!’

    फुआ ने कोई जवाब नहीं दिया, किंतु उसकी बड़बड़ाहट स्पष्ट सुनाई पड़ी—‘हाँ! अब फुआ को क्यों गुहारती है? सारे टोले में बस एक फुआ ही तो बिना नाथ-पगहियावाली है।’

    ‘अरी फुआ!’ बिरजू की माँ ने हँस कर जवाब दिया, ‘उस समय बुरा मान गई थी क्या? नाथ-पगहियावाले को कर देखो, दोपहर रात में गाड़ी लेकर आया है! जाओ फुआ, मैं मीठी रोटी पकाना नहीं जानती।’

    फुआ काँखती-खाँसती आई—‘इसी के घड़ी-पहर दिन रहते ही पूछ रही थी कि नाच देखने जाएगी क्या? कहती, तो मैं पहले से ही अपनी अँगीठी यहाँ सुलगा जाती।’

    बिरजू की माँ ने फुआ को अँगीठी दिखला दी और कहा, ‘घर में अनाज-दाना वग़ैरह तो कुछ है नहीं। एक बागड़ है और कुछ बरतन-बासन, सो रात-भर के लिए यहाँ तंबाकू रख जाती हूँ। अपना हुक्का ले आई हो फुआ?’

    फुआ को तंबाकू मिल जाए, तो रात-भर क्या, पाँच रात बैठ कर जाग सकती है। फुआ ने अँधेरे में टटोल कर तंबाकू का अंदाज़ किया...ओ-हो! हाथ खोल कर तंबाकू रखा है बिरजू की माँ ने! और एक वह है सहुआइन! राम कहो! उस रात को अफ़ीम की गोली की तरह एक मटर-भर तंबाकू रख कर चली गई ग़ुलाब-बाग़ मेले और कह गई कि डिब्बी-भर तंबाकू है।

    बिरजू की माँ चूल्हा सुलगाने लगी। चंपिया ने शकरकंद को मसल कर गोले बनाए और बिरजू सिर पर कड़ाही औंधा कर अपने बाप को दिखलाने लगा—‘मलेटरी टोपी! इस पर दस लाठी मारने पर भी कुछ नहीं होगा!’

    सभी ठठा कर हँस पड़े। बिरजू की माँ हँस कर बोली, ‘ताखे पर तीन-चार मोटे शकरकंद हैं, दे दे बिरजू को चंपिया, बेचारा शाम से ही...’

    ‘बेचारा मत कहो मैया, ख़ूब सचारा है’ अब चंपिया चहकने लगी, ‘तुम क्या जानो, कथरी के नीचे मुँह क्यों चल रहा था बाबू साहब का!’

    ‘ही-ही-ही!’

    बिरजू के टूटे दूध के दाँतो की फाँक से बोली निकली, ‘बिलैक-मारटिन में पाँच शकरकंद खा लिया! हा-हा-हा!’

    सभी फिर ठठाकर हँस पड़े। बिरजू की माँ ने फुआ का मन रखने के लिए पूछा, ‘एक कनवाँ गुड़ है। आधा दूँ फुआ?’

    फुआ ने गदगद हो कर कहा, ‘अरी शकरकंद तो ख़ुद मीठा होता है, उतना क्यों डालेगी?’

    जब तक दोनों बैल दाना-घास खा कर एक-दूसरे की देह को जीभ से चाटें, बिरजू की माँ तैयार हो गई। चंपिया ने छींट की साड़ी पहनी और बिरजू बटन के अभाव में पैंट पर पटसन की डोरी बँधवाने लगा।

    बिरजू के माँ ने आँगन से निकल गाँव की ओर कान लगा कर सुनने की चेष्टा की—‘उँहुँ, इतनी देर तक भला पैदल जाने वाले रुके रहेंगे?’

    पूर्णिमा का चाँद सिर पर गया है।...बिरजू की माँ ने असली रुपा का मँगटिक्का पहना है आज, पहली बार। बिरजू के बप्पा को हो क्या गया है, गाड़ी जोतता क्यों नहीं, मुँह की ओर एकटक देख रहा है, मानो नाच की लालपान की...

    गाड़ी पर बैठते ही बिरजू की माँ की देह में एक अजीब गुदगुदी लगने लगी। उसने बाँस की बल्ली को पकड़ कर कहा, ‘गाड़ी पर अभी बहुत जगह है।...ज़रा दाहिनी सड़क से गाड़ी हाँकना।’

    बैल जब दौड़ने लगे और पहिया जब चूँ-चूँ करके घरघराने लगा तो बिरजू से नहीं रहा गया—‘उड़नजहाज़ की तरह उड़ाओ बप्पा!’

    गाड़ी जंगी के पिछवाड़े पहुँची। बिरजू की माँ ने कहा, ‘ज़रा जंगी से पूछो न, उसकी पुतोहू नाच देखने चली गई क्या?’

    गाड़ी के रुकते ही जंगी के झोंपड़े से आती हुई रोने की आवाज़ स्पष्ट हो गई। बिरजू के बप्पा ने पूछा, ‘अरे जंगी भाई, काहे कन्न-रोहट हो रहा है आँगन में?’

    जंगी घूर ताप रहा था, बोला, ‘क्या पूछते हो, रंगी बलरामपुर से लौटा नहीं, पुतोहिया नाच देखने कैसे जाए! आसरा देखते-देखते उधर गाँव की सभी औरतें चली गई।’

    ‘अरी टीशनवाली, तो रोती है काहे!’ बिरजू की माँ ने पुकार कर कहा, ‘आ जा झट से कपड़ा पहन कर। सारी गाड़ी पड़ी हुई है! बेचारी!...आ जा जल्दी!’

    बग़ल के झोंपड़े से राधे की बेटी सुनरी ने कहा, ‘काकी, गाड़ी में जगह है? मैं भी जाऊँगी।’

    बाँस की झाड़ी के उस पार लरेना खवास का घर है। उसकी बहू भी नहीं गई है। गिलट का झुमकी-कड़ा पहन कर झमकती रही है।

    ‘आ जा! जो बाक़ी रह गई हैं, सब जाएँ जल्दी!’

    जंगी की पुतोहू, लरेना की बीवी और राधे की बेटी सुनरी, तीनों गाड़ी के पास आई। बैल ने पिछला पैर फेंका। बिरजू के बाप ने एक भद्दी गाली दी—‘साला! लताड़ मार कर लँगड़ी बनाएगा पुतोहू को!’

    सभी ठठाकर हँस पड़े। बिरजू के बाप ने घूँघट में झुकी दोनों पुतोहूओं को देखा। उसे अपने खेत की झुकी हुई बालियों की याद गई।

    जंगी की पुतोहू का गौना तीन ही मास पहले हुआ है। गौने की रंगीन साड़ी से कड़वे तेल और लठवा-सिंदूर की गंध रही है। बिरजू की माँ को अपने गौने की याद आई। उसने कपड़े की गठरी से तीन मीठी रोटियाँ निकाल कर कहा, ‘खा ले एक-एक करके। सिमराहा के सरकारी कूप में पानी पी लेना।’

    गाड़ी गाँव से बाहर हो कर धान के खेतों के बग़ल से जाने लगी। चाँदनी, कातिक की!...खेतों से धान के झरते फूलों की गंध आती है। बाँस की झाड़ी में कहीं दुद्धी की लता फूली है। जंगी की पुतोहू ने एक बीड़ी सुलगा कर बिरजू की माँ की ओर बढ़ाई। बिरजू की माँ को अचानक याद आई चंपिया, सुनरी, लरेना की बीवी और जंगी की पुतोहू, ये चारों ही गाँव में बैसकोप का गीत गाना जानती हैं।...ख़ूब!

    गाड़ी की लीक धन-खेतों के बीच हो कर गई। चारों ओर गौने की साड़ी की खसखसाहट-जैसी आवाज़ होती है।...बिरजू की माँ के माथे के मँगटिक्के पर चाँदनी छिटकती है।

    ‘अच्छा, अब एक बैसकोप का गीत गा तो चंपिया!...डरती है काहे? जहाँ भूल जाओगी, बग़ल में मासटरनी बैठी ही है!’

    दोनों पुतोहुओं ने तो नहीं, किंतु चंपिया और सुनरी ने खखासकर कर गला साफ़ किया।

    बिरजू के बाप ने बैलों को ललकारा—‘चल भैया! और ज़रा ज़ोर से!...गा रे चंपिया, नहीं तो मैं बैलों को धीरे-धीरे चलने को कहूँगा।’

    जंगी की पुतोहू ने चंपिया के कान के पास घूँघट ले जा कर कुछ कहा और चंपिया ने धीमे से शुरु किया—‘चंदा की चाँदनी...’

    बिरजू को गोद में ले कर बैठी उसकी माँ की इच्छा हुई कि वह भी साथ-साथ गीत गाए। बिरजू की माँ ने जंगी की पुतोहू को देखा, धीरे-धीरे गुनगुना रही है वह भी। कितनी प्यारी पुतोहू है! गौने की साड़ी से एक ख़ास क़िस्म की गंध निकलती है। ठीक ही तो कहा है उसने! बिरजू की माँ बेगम है, लालपान की बेगम! यह तो कोई बुरी बात नहीं। हाँ, वह सचमुच लाल पान की बेगम है!

    बिरजू की माँ ने अपनी नाक पर दोनों आँखों को केंद्रित करने की चेष्टा करके अपने रुप की झाँकी ली, लाल साड़ी की झिलमिल किनारी, मँगटिक्का पर चाँद।...बिरजू की माँ के मन में अब और कोई लालसा नहीं। उसे नींद रही है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिन्दी कहानी संग्रह (पृष्ठ 23)
    • संपादक : भीष्म साहनी
    • रचनाकार : फणीश्वरनाथ रेणु
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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