उन्होंने हमें एक बड़े सफ़ेद कमरे में धकेल दिया था। मेरी आँखें चौंधियाने लगी थीं, क्योंकि वहाँ का प्रकाश आँखों को चुभ रहा था। तभी मेरी नज़र एक मेज़ पर पड़ी। उसके पीछे चार आदमी बैठे काग़ज़ों को देख रहे थे, वे सैनिक नहीं दिख रहे थे। क़ैदियों का एक जत्था पीछे की तरफ़ खड़ा था और हमें उनमें शामिल होने के लिए पूरे कमरे को पार करना था। उनमें से कइयों को मैं जानता था और कुछ अजनबी विदेशी थे। जो मेरे सामने थे, उनके बाल भूरे थे और सिर गोल। वे एक जैसे लगते थे। उनमें से छोटे क़द वाला बार-बार अपनी पैंट को ऊपर खींचता। वह काफ़ी नर्वस लग रहा था।
तीन घंटे बीत गए। मुझे चक्कर आ रहे थे और सिर बिलकुल ख़ाली-सा हो गया था। कमरा ख़ूब गर्म था और सुखद लग रहा था, क्योंकि पिछले चौबीस घंटों से हम लोग ठंड से काँप रहे थे। गार्ड एक-एक करके क़ैदियों को मेज़ तक लाए, चारों आदमियों ने सबसे उनके नाम और व्यवसाय पूछे। अधिकतर समय उन्होंने ख़ास कुछ नहीं किया, बस एक-आध सवाल इधर-उधर पूछते रहे, “बारूदख़ाने पर हुए हमले से तुम्हारा क्या संबंध है? या नौ तारीख़ की सुबह को तुम कहाँ थे और क्या कर रहे थे? वे जवाब बिलकुल नहीं सुन रहे थे, कम से कम लग तो यही रहा था। वे एक क्षण के लिए चुपचाप सीधे देखते और फिर कुछ लिखने लगते। उन्होंने टॉम से पूछा कि क्या वह इंटरनेशनल ब्रिगेड में था। टॉम कुछ छिपा नहीं सका, क्योंकि उसके कोट की ज़ेब में से काग़ज़ बरामद हो गए थे। उन्होंने जुआन से कुछ नहीं पूछा, पर उसके नाम बताने के बाद काफ़ी देर तक वे लिखते रहे थे।
मेरा भाई जोसे अराजकतावादी था। जुआन कह रहा था, आप जानते हैं कि अब वह जीवित नहीं है। आप जानते हैं कि मेरा संबंध किसी दल से नहीं है, राजनीति से तो मुझे कभी मतलब ही नहीं रहा।
उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। जुआन कहता रहा, मैंने कुछ नहीं किया, मैं किसी दूसरे के किए की सज़ा नहीं भुगतना चाहता।
उसके होंठ काँप रहे थे। एक गार्ड ने उसे चुप कराया और वहाँ से हटा दिया। अब मेरी बारी थी।
“तुम्हारा नाम पाब्लो इब्बीता है?
हाँ
उस आदमी ने काग़ज़ों पर एक नज़र डाली और फिर पूछा, एमों ग्रिस कहाँ है?
मैं नहीं जानता।
तुमने छह से उन्नीस तारीख़ तक उसे अपने घर में छिपाए रखा था?
नहीं!
वे एक मिनट तक कुछ लिखते रहे, फिर गार्ड मुझे बाहर ले आया। गलियारे में टॉम और जुआन दो गार्डों के बीच में खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे थे। हम साथ-साथ चलने लगे। टॉम ने एक गार्ड से पूछा, अब?
'अब क्या? गार्ड ने गुर्राकर पूछा।
यह गवाही थी या फ़ैसला?
“फ़ैसला। गार्ड ने कहा।
“अब वे हमारा क्या करेंगे?
रूखे स्वर में गार्ड ने जवाब दिया, “तुम्हारी कोठरियों में शांति छा जाएगी।
दरअसल हमारी कोठरी अस्पताल के तहख़ाने में थी। लगातार हवा के झोंके आने के कारण यह भयानक रूप से ठंडी थी। हम रात-भर काँपते रहे थे और दिन में भी हालत कुछ अच्छी नहीं थी। पिछले पाँच दिन मैंने एक प्राचीन चर्च की एक कोठरी में बिताए थे। चूँकि क़ैदी बहुत अधिक थे और जगह कम, इसलिए जहाँ भी जगह मिली, हमे बंद कर दिया। उस कोठरी को छोड़ने पर मैं ख़ुश इसलिए नहीं था कि वहाँ ठंड बहुत थी, बल्कि इसलिए कि वहाँ मैं अकेला था। इस तहख़ाने में मैं अकेला नहीं था। जुआन बिलकुल चुप था। एक तो वह डरा हुआ था और दूसरे अभी उसकी बोलने की उम्र भी नहीं थी। पर टॉम अच्छी बात करने वाला था और अच्छी स्पेनी जानता था।
इस तहख़ाने में एक बेंच और चार चटाइयाँ पड़ी थीं। हमें यहाँ छोड़ने के बाद जब वे लौट गए तो हम बैठ गए और उनके जाने की आहट लेने लगे। एक लंबे क्षण के बाद टॉम ने कहा, उन्होंने हमें अपने शिकंजे में कस लिया है।
मेरा भी यही ख़्याल है,” मैंने कहा, पर मैं नहीं समझता कि इस लड़के के साथ वे कुछ करेंगे।
इसके ख़िलाफ़ उनके पास कुछ है भी नहीं, टॉम ने कहा, सिवाय इसके कि वह एक नागरिक सेना के व्यक्ति का भाई है।
मैंने जुआन की तरफ़ देखा, लगा, जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं था। टॉम कह रहा था, तुम्हें पता है, वे सरगोसा में क्या करते हैं? वे लोगों को सड़क पर लिटा देते हैं और उनके ऊपर ट्रक चलवा देते हैं। एक मोस्कोवासी ने हमें यह बताया था। ऐसा वे बारूद बचाने के लिए करते हैं।
लेकिन इसमें पेट्रोल तो ख़र्च होता है। मैंने कहा।
मुझे टॉम पर ग़ुस्सा आ रहा था, उसे यह सब नहीं कहना चाहिए था!
“इसके बाद कुछ अफ़सर उस सड़क पर आते हैं, वह कह रहा था, “और इस सबका मुआयना करते हैं। उनके हाथ अपनी ज़ेबों में ठूँसे होते हैं और मुँह में सिगरेट दबी होती है। क्या तुम समझते हो कि वे तड़पते लोगों को मार देते होंगे? नहीं, वे उन्हें चीख़ने-चिल्लाने देते हैं। घंटों-घंटों। वह मोस्कोवासी तो बता रहा था कि इस सबसे तो उसे उबकाई आने लगी थी।
लेकिन मैं नहीं समझता कि वे यहाँ भी वही सब करेंगे, मैंने कहा, जब तक कि उनके पास कारतूसों की सचमुच ही कमी न हो जाए।
इस कोठरी में प्रकाश चार रोशनदानों तथा छत पर बाईं ओर से एक वृत्ताकार छेद से आता था। इस छेद में से ऊपर आकाश भी देखा जा सकता था। इस छेद के जरिए तहख़ाने में कोयला उतारा जाता है, यों अब इस पर ऊपर से दरवाज़ा लगा दिया गया तथा कोयला वहीं पड़ा रहा। कई बार जब ऊपर का दरवाज़ा बंद करना भूल जाते तो यह कोयला हवा-पानी से ख़राब हो जाता।
टॉम काँपने लगा था, ‘‘हे भगवान्, मैं ठंडा हो रहा हूँ, वह बड़बड़ाया, मैं मरा जा रहा हूँ।
वह उठकर व्यायाम करने लगा। उसके शरीर की मरोड़ के साथ ही उसके गोरे बालों से भरे सीने पर से क़मीज़ खुल जाती। वह पीठ के बल ज़मीन पर लेट गया था तथा टाँगें उठाकर साइकिल-सी चलाने लगा था। उसके विशालकाय पुट्ठे थरथरा रहे थे। टॉम काफ़ी भारी और थुलथुला था। मैंने सोचा कि रायफ़ल की गोली उसके मांस में इतनी आसानी से घुस जाएगी, जैसे मक्खन के लौंदे में संगीन! अगर वह दुबला होता तो यह बात मेरे दिमाग़ में ही न आती।
मुझे बहुत ज़्यादा ठंड तो नहीं लग रही थी, हाँ, इतना ज़रूर था कि मेरे हाथ और कंधे सुन्न हो गए थे। कई बार अचानक किसी चीज़ की कमी खटकती और मैं कोट के लिए नज़रें इधर-उधर घुमाता, पर तभी याद आता कि कोट तो उन्होंने मुझे दिया ही नहीं था। मुझे काफ़ी परेशानी हो रही थी। उन्होंने हमारे कपड़े उतरवाकर अपने सैनिकों को दे दिए थे और हमारे पास सिर्फ़ क़मीज़ें तथा किरमिच की वे पैंटें छोड़ दी थीं, जिन्हें अस्पताल के मरीज़ गर्मियों में पहना करते थे। कुछ देर बाद भारी-भारी साँसें लेता हुआ टॉम मेरे बग़ल में आ बैठा।
“गर्मी आई?
नहीं, पर सर्दी कुछ कम हुई है।”
शाम के क़रीब आठ बजे एक मेजर दो फालेंगिस्तसों के साथ आया। उसके हाथ में एक काग़ज़ था। उसने गार्ड से पूछा, “इन तीनों के नाम क्या हैं?
स्टेनबोक, इब्बीता और पिखल। गार्ड ने बताया।
मेजर ने चश्मा आँखों पर चढ़ाया और सूची पर नज़र दौड़ाई, स्टेनबोक...स्टेनबोक...हाँ तुम्हें मौत की सज़ा दी गई है। कल सुबह तुम्हें गोली से उड़ा दिया जाएगा, उसकी नज़र काग़ज़ पर थी, और बाक़ी दोनों को भी।
यह नहीं हो सकता, जुआन चीख़ा, मुझे नहीं!
मेजर ने चकित होकर उसकी ओर देखा, तुम्हारा नाम क्या है?
जुआन मिखल। उसने बताया।
ठीक है, तुम्हारा नाम इसमें है, मेजर ने कहा, “तुम्हें यही सज़ा दी गई है।
मैंने तो कुछ नहीं किया। जुआन के स्वर में हताशा थी।
मेजर ने कंधे झटके और फिर टॉम और मेरी तरफ़ घूम गया।
तुम बास्क हो?
हममें से कोई भी बास्क नहीं है।
वह चिढ़-सा गया था, वे तो बता रहे थे कि तीनों बास्क हैं। ख़ैर, मैं इसके पीछे अपना समय ख़राब नहीं करूँगा। तो तुम लोगों को किसी पंडित की ज़रूरत नहीं है?
हमने जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी।
वही बोला, कुछ ही देर बाद एक बेल्जियम डॉक्टर आ रहा है। वह पूरी रात तुम्हारे साथ रहेगा। उसने एक सैनिक सलाम किया और वापस मुड़ गया।”
“मैंने क्या कहा था? टॉम बोला, वही बात हुई।
हाँ, मैंने कहा, लेकिन इस बच्चे के साथ यह बहुत बुरा हुआ।“
यह बात मैंने शालीनतावश कही थी, पर मुझे वह लड़का बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा था। उसका चेहरा बहुत पतला तथा आतंकित था, कष्टों ने उसकी शक्ल बिगाड़ दी थी। तीन दिन पहले वह एक स्मार्ट क़िस्म का लड़का था, पर अब एक बूढ़े भूत की तरह दिख रहा था और लगता था कि अगर उन्होंने उसे छोड़ दिया, तब भी उसकी जवानी लौटेगी नहीं। उसके प्रति दया उपजना सहज ही था, पर दया से मुझे घृणा थी। उसने कुछ कहा नहीं, पर वह पीला पड़ गया था। उसका चेहरा और उसके हाथ सभी पीले पड़ गए थे। वह फिर नीचे बैठ गया और अपनी गोल-गोल आँखों से ज़मीन को देखने लगा। टॉम सहृदय था, उसने उसके हाथ पकड़ने चाहे, पर उस लड़के ने उसे बड़ी बेदर्दी से झटक दिया और चेहरा लटका दिया।
उसे कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दो, मैंने धीमी आवाज़ में कहा, तुम देखना, वह रोने लगेगा।
टॉम ने मेरी बात मान ली, पर वह इससे ख़ुश नहीं था। वह उस लड़के को सांत्वना देना चाहता था। इससे यह भी था कि उसका अपना समय भी ठीक से कट जाता और उसे अपने बारे में सोचने की सुध ही न रहती। मैं कुछ खिन्न हो गया था। मैंने मौत के बारे में कभी नहीं सोचा, क्योंकि इसका कोई कारण ही नहीं था, पर चूँकि अब कारण था और मौत के अलावा सोचने के लिए कुछ और था भी नहीं।
टॉम फिर बात करने लगा था। “अच्छा, क्या तुम किसी को श्मशान पहुँचाने गए हो? उसने मुझसे पूछा। मैंने कोई जवाब नहीं दिया। फिर वह मुझे बताने लगा कि अगस्त के शुरू से अब तक वह छह लोगों को श्मशान पहुँचा चुका है। उसे अभी तक हालात का अहसास नहीं हुआ था। बल्कि मैं तो कहूँगा कि वह अहसास करना ही नहीं चाहता था। मुझे भी अभी इसका ठीक तरह से अहसास नहीं हुआ था। जब मैं गोलियों की बात सोचने लगा, उनकी बौछार को अपने शरीर के अंदर धँसने की बात सोचने लगा तो मुझे काफ़ी कष्ट हुआ। ये सब असली सवाल से बाहर की बातें हैं, पर मैं शांत था, ठीक तरह से समझने के लिए हमारे पास पूरी रात थी। कुछ ही देर बाद टॉम चुप हो गया था। मैंने कनखियों से उसकी ओर देखा, उसका चेहरा पीला पड़ गया था। मैंने ख़ुद से कहा, अब शुरू हुआ है।
लगभग अँघेरा हो गया था। रोशनदानों से कोयले के ढेर पर उजास झर रहा था। छत पर बने छेद में से मैं एक तारे को देख रहा था। रात ज़रूर निर्मल और बर्फ़ीली होगी।
दरवाज़ा खुला, दो गार्ड और उनके पीछे भूरी वर्दी पहने एक सुनहरे बालों वाला व्यक्ति भीतर आया। उसने हमें सलाम किया और बताया, “मैं डॉक्टर हूँ, इन दुखद घड़ियों में आपकी सहायता करने का अधिकार मुझे दिया गया है।
उसकी आवाज़ रुचिकर और शालीन थी। मैंने उससे पूछा, तुम यहाँ क्या चाहते हो?
यह तुम्हारी इच्छा पर है। तुम्हारे अंतिम क्षणों को कम कष्टकारी बनाने के लिए मैं जो कुछ कर सकूँगा, करूँगा।
“लेकिन यहाँ तुम किसलिए आए हो? तुम्हारी ज़रूरत कुछ और लोगों को है, जिनसे अस्पताल भरे पड़े हैं।
मुझे यहाँ भेजा गया है, बिना किसी एक की ओर देखे उसने जवाब दिया, “क्या आप लोग सिगरेट पीना पसंद करेंगे? मेरे पास सिगरेट है और सिगार भी।
उसने अंग्रेज़ी सिगरेट हमारी ओर बढ़ाई, पर हमने लेने से इनकार कर दिया। मैंने उसकी आँखों में झाँका, वह झल्लाया हुआ-सा लग रहा था। मैंने उससे कहा, तुम यहाँ आकर हम पर कोई कृपा नहीं कर रहे हो। और फिर मैं तुम्हें जानता हूँ। बैरेकों के अहाते में मैंने तुम्हें फासिस्टों के साथ देखा था, उसी दिन जिस दिन मुझे क़ैद किया गया था।
मैं अभी और भी कुछ कहना चाहता था पर अचानक मुझे कुछ हो गया। उस डॉक्टर के वहाँ होने में ही मेरी दिलचस्पी ख़त्म हो गई। आम तौर पर मैं जिसकी खिंचाई करने पर उतर आता हूँ, उसे बख़्शता नहीं। पर उस समय मेरी बात करने की इच्छा ही मर गई थी। मैंने कंधे उचकाए और अपनी आँखें दूसरी ओर घुमा लीं। कुछ ही देर बाद मैंने अपनी गर्दन उठाई, वह उत्सुकता से मेरी ओर देख रहा था। गार्ड चटाई पर बैठे थे। दोनों गार्डों में से एक लंबा-पतला पैड्रो मक्खियाँ मार रहा था और दूसरा ऊँघ रहा था। उसका सिर कभी एक ओर झुकता तो कभी दूसरी ओर।
“अँधेरा हो गया है, क्या लैंप ला दूँ? अचानक पैड्रो ने डॉक्टर से पूछ लिया।
दूसरे ने गर्दन हिलाई, हाँ। पहले तो मैं उसे भोंदू समझ रहा था, पर वह था नहीं। उसकी नीली आँखों के भीतर झाँकने पर मुझे लगा कि अगर उसका कोई कसूर है, तो वह है उसके भीतर कल्पनाशीलता का अभाव। पैड्रो बाहर गया और फिर एक तेल का लैंप उठा लाया, जिसे उसने बेंच के कोने पर रख दिया। इससे उजाला तो नहीं हुआ, पर अँधेरे से तो अच्छा ही था। पिछली रात तो उन्होंने हमें अँधेरे में ही रखा था। कुछ देर तक तो मैं लैंप से छत पर बने हुए प्रकाश के घेरे को ही देखता रहा। मैं मंत्रमुग्ध था। अचानक मैं जागा, प्रकाश का घेरा ख़त्म हो गया था और मुझे लग रहा था, जैसे मैं किसी भारी बोझ के नीचे दब गया हूँ।
यह मृत्यु का विचार या भय नहीं था, इसका कोई नाम नहीं था। मेरे जबड़े जल रहे थे और सिर दर्द कर रहा था।
मैंने अपने आपको झकझोरा और अपने दोनों साथियों की ओर देखा। टॉम ने अपना चेहरा अपने हाथों में छिपा रखा था। मुझे तो उसकी गर्दन पर गोरी, भारी गुद्दी-भर दिखाई दे रही थी। जुआन की हालात तो बहुत ख़राब थी। उसका मुँह खुला था और नथुने काँप रहे थे। डॉक्टर उसके पास गया और उनके कंधों पर हाथ रखा, जैसे उसे दिलासा दे रहा हो। पर उसकी आँखें ठंडी थीं। फिर मैंने देखा कि डॉक्टर का हाथ चुपचाप उसकी बाँह पर से सरकता हुआ उसकी कलाई तक आ गया। जुआन ने उसकी ओर ज़रा भी ध्यान न दिया। फिर उसने उसकी कलाइयों को अपनी तीन उँगलियों में पकड़ा और थोड़ा अपनी ओर खींच लिया, साथ ही ख़ुद भी थोड़ा घूमकर मेरी ओर पीठ कर ली। मैंने थोड़ा पीछे झुककर देख लिया था कि उसने उसकी कलाई को पकड़े-पकड़े दूसरे हाथ से अपनी ज़ेब से घड़ी निकाली और कुछ देर के लिए उसे देखता रहा। एक मिनट बाद उसने उसका हाथ छोड़ दिया और ख़ुद पीठ दीवार पर टिका दी। और फिर अचानक जैसे उसे कुछ याद आया हो, उसने झटके से अपनी ज़ेब से एक नोट बुक निकाली और उस पर कुछ लाइनें लिखी। “हरामी, ग़ुस्से में यही शब्द मेरे दिमाग़ में आया, ज़रा आकर वह मेरी नब्ज़ तो देखे, उसके सड़े थोबड़े को ठीक करने के लिए मेरा एक घूँसा ही काफ़ी होगा।
वह मेरे पास आया तो नहीं, पर मुझे लगा, वह मेरी ओर देख रहा था। मैंने अपनी गर्दन उठाई और उसकी ओर जवाबी दृष्टि डाली। फिर यूँ ही दिखावे के तौर पर उसने मुझसे पूछा, तुम्हें यहाँ ठंड तो नहीं लग रही है? वह ठंडा और विवर्ण दिख रहा था।
नहीं। मैंने जवाब दिया।
उसकी कठोर नज़रें मुझ पर जमी रहीं। अचानक मेरा हाथ अपने चेहरे की ओर गया, वह पसीने में भीगा हुआ था। इस तहख़ाने में इन सर्दियों के बीच में हवा के झोंकों के बावजूद मुझे पसीना आ रहा था। मैंने अपने बालों पर हाथ फेरा, जो पसीने से चिपचिपे हो गए थे। मैंने देखा, मेरी क़मीज़ भीग गई थी और मेरी त्वचा से चिपक गई थी। मुझे एक घंटे से पसीना आ रहा था, पर महसूस नहीं हो रहा था। वह सूअर भी मौक़ा नहीं चूका, उसने मेरे गालों पर फिसलती हुई पसीने की बूँदें देख ली होंगी और सोचा होगा कि यह भय के शरीर में पूरी तरह समा जाने का लक्षण है। इससे उसने गर्व का अनुभव किया होगा। मेरी इच्छा हुई कि खड़ा हो जाऊँ और उसके थोबड़े को रौंद डालूँ, पर इससे पहले कि मैं उठने की कोशिश करता, मेरा ग़ुस्सा और शर्म जाते रहे थे और मैं फिर बेंच पर गिर गया था, उदासीन!
गर्दन को रुमाल से पोंछते हुए मैंने राहत महसूस की, क्योंकि मैं सिर से बहते हुए पसीने को अपनी गर्दन पर फिसलते हुए महसूस कर रहा था, जो मुझे काफ़ी बुरा लग रहा था, पर रुमाल भी मैं कब तक फेरता रहता। थोड़ी ही देर में वह बिलकुल भीग गया, जबकि पसीना अपनी रफ़्तार से आ ही रहा था। मेरे चूतड़ों पर भी पसीना आ रहा था और उसकी नमी से मेरी पैंट बेंच से चिपक गई थी।
अचानक जुआन ने कहा, तो तुम डॉक्टर हो?
हाँ! बेल्जियन ने जवाब दिया।
क्या चोट लगती है देर...तक कष्ट होता है?
हुँह! कब...ओह नहीं, बेल्जियन ने पितृवत् कहा, बिलकुल नहीं, जल्दी ही ख़त्म हो जाता है। उसने इस तरह कहा, जैसे किसी ग्राहक को संतुष्ट कर रहा हो।
पर मैं...लोग कहते थे कि...कई बार दो बार गोली चलानी पड़ जाती है।
कभी-कभी, बेल्जियन ने गर्दन हिलाते हुए कहा, लेकिन ऐसा तभी करना पड़ता है, जब पहली गोली किसी घातक जगह पर नहीं लगती।
फिर तो उन्हें राइफ़ल दुबारा भरकर फिर से निशाना साधना पड़ता होगा... वह कुछ देर कुछ सोचता हुआ रुका, फिर बड़े निरीह स्वर में बोला, “इसमें तो काफ़ी देर लग जाती होगी?
उसके चेहरे पर आने वाले कष्ट का भयानक डर छा गया था, वह सिर्फ़ मौत के बारे में सोच रहा था। यह उसकी उम्र का कसूर था। मैंने कभी इस बारे में नहीं सोचा, पसीना आने का कारण इस कष्ट का डर बिलकुल नहीं था।
मैं खड़ा हुआ और धीरे-धीरे चलता हुआ कोयले के चूरे के ढेर तक गया। टॉम उछलकर खड़ा हो गया और मेरी ओर घृणा से देखने लगा। मेरे जूतों की चरमराहट के कारण वह खीज उठा था। कहीं मेरा चेहरा भी तो उसके चेहरे की तरह जड़ नहीं हो गया था! वह भी तो पसीने-पसीने हो रहा था। आकाश निर्मल था, पर इस अँधेरे कोने में ज़रा भी प्रकाश नहीं आ पा रहा था। ऊपर के उजले कमरे को देखने के लिए गर्दन उचकाना ही एकमात्र तरीक़ा था। पर इस समय वह वैसा नहीं था, जैसे रातों में दिखता था। अपने आश्रम के कमरे में से तो आकाश का एक बड़ा-सा टुकड़ा दिखता था और दिन के हर घंटे यह अलग-अलग दिखता था। सुबह जब आकाश सख़्त होता, हल्के नीले रंग का, तब मुझे अटलांटिक के सागर तटों की याद आती थी। दुपहर में मुझे सेविले के मदिरालय की याद आने लगती थी, जहाँ मैंने मंजानिका पी थी और साथ में गोमांस के धीमी आँच में पके कतले और भुनी हुई एंकोबी मछली खाई थी। दुपहर बाद मेरे बैठने की जगह पर छाया आ जाती थी तो मुझे बैलों की लड़ाई का अखाड़ा याद आ जाता, जिसमें आधे में धूप और आधे में छाया आ गई हो। आकाश में इस तरह से पूरी दुनिया को प्रतिबिंबित देखना वाक़ई बहुत कष्टकर है। पर अब मैं आकाश को उतना ही देखता हूँ, जितना मैं चाहता हूँ, और यह मेरे भीतर किसी भी प्रकार की उत्तेजना पैदा नहीं करता। यह मुझे ज़्यादा अच्छा लगता है। मैं वापस आकर टॉम के पास बैठ गया। इस प्रकार एक लंबा समय बीत गया।
टॉम हलकी आवाज़ में कहने लगा। उसे सिर्फ़ कहना था, बिना इस ख़्याल के कि वह ख़ुद अपने को भी नहीं पहचान पा रहा था। मैं समझा कि वह मुझसे बात कर रहा था, पर वह मेरी ओर ज़रा भी नहीं देख रहा था। बेशक वह मुझे इस रूप में देखने से डर रहा था। पीला पड़ा हुआ पसीने-पसीने। हम दोनों की हालत एक-सी थी, हम जैसे दर्पण में एक-दूसरे के प्रतिबिंब से भी बदतर हो गए थे।
उसने उस बेल्जियन की ओर देखा, जो जीवित था।
“तुम क्या समझ रहे हो? उसने कहा, “मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा है।
मैं भी धीमी आवाज़ में कहने लगा था। मैंने बेल्जियन की ओर देखा, क्यों? क्या बात है?
“मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि हमें क्या होता जा रहा है?
टॉम में से एक विचित्र-सी गंध आने लगी थी। मुझे लगा कि मैं गंध के प्रति पहले से अधिक संवेदनशील होता जा रहा हूँ। मैं मुस्कराया, थोड़ी देर में सब कुछ समझ जाओगे।
“कुछ भी स्पष्ट नहीं है, उसने ढिठाई से कहा, मैं हिम्मत नहीं हारना चाहता, पर कम से कम मुझे यह तो बता दो...सुनो, वे हमें बरामदे में ले जाएँगे। ठीक है। वह हमारे सामने खड़े हो जाएँगे। कितने?
“मुझे नहीं मालूम। पाँच या आठ। ज़्यादा तो नहीं होंगे।
ठीक है। आठ लोग होंगे। एक आदमी चीख़ेगा, निशाना लगाओ और मैं देखूँगा कि आठ राइफ़लें मुझे ताक रही हैं। मैं सोचने लगूँगा कि मैं इस दीवार के भीतर कैसे घुस जाऊँ। मैं पीठ से दीवार पर ज़ोर लगाऊँगा...अपनी पूरी ताक़त के साथ, पर दीवार एक दुःस्वप्न की तरह अचल रहेगी। मैं इन सबकी कल्पना कर सकता हूँ। क्या तुम समझ सकते हो कि कितनी अच्छी तरह से मैं इन सबकी कल्पना कर पा रहा हूँ!
ठीक है, ठीक है! मैंने कहा, मैं भी इन सबकी कल्पना कर सकता हूँ।
चोट तो बहुत लगेगी। जानते हो, वे आँखों और मुँह पर निशाना साधेंगे, जिससे तुम्हारा चेहरा बिगड़ जाए अपनी आवाज़ में हिक़ारत भरते हुए वह कह रहा था, मैं उन घावों को अभी से महसूस कर सकता हूँ। मेरे सिर और गर्दन पर पिछले एक घंटे से दर्द हो रहा है। बहुत तेज़। कल सुबह भी मुझे ऐसा ही महसूस होगा। और फिर?
मैं अच्छी तरह समझ रहा था कि उसका मतलब क्या है, पर मैं ऐसी कोई हरकत नहीं करना चाहता था, जिससे लगे कि मैं समझ रहा हूँ। दर्द मुझे भी महसूस हो रहा था। पूरा शरीर दर्द कर रहा था, जैसे पूरे शरीर पर छोटी-छोटी अनगिन खरोंचें लगी हों। मुझे यह असामान्य लग रहा था, पर उसकी तरह मैं भी इसे कोई महत्त्व नहीं दे रहा था।
वह ख़ुद से ही बातें करने लगा था। वह लगातार बेल्जियन की ओर देखे जा रहा था, बेल्जियन उसकी बात को सुनता लग नहीं रहा था। मुझे पता था कि वह क्या करने के लिए आया था। उसकी रुचि इस बात में बिलकुल नहीं थी कि हम सोच क्या रहे हैं। वह हमारे शरीरों को देखने के लिए आया था, वे शरीर जो जीवित होते हुए भी त्रास से मरे जा रहे हैं।
बिलकुल ख़्वाब जैसा, टॉम कह रहा था, तुम जो भी सोचना चाहते हो, उसका प्रभाव हमेशा ही ऐसा होता है कि जो भी तुम सोच रहे हो, सब ठीक होगा, पर फिर तुम्हारी पकड़ से छूट जाता है और धीरे-धीरे लुप्त हो जाता है। मैं ख़ुद से कहता हूँ कि बाद में कुछ नहीं होगा। पर मैं ख़ुद ही नहीं समझ पाता कि इसका मतलब क्या है? कभी तो लगभग...और फिर यह धुँधला जाता है और मैं दर्द, गोलियों और विस्फोटों के बारे में सोचने लगता हूँ। क़सम से, मैं भौतिकवादी हूँ, मैं परवाना नहीं हूँ, कोई बात है ज़रूर। मैं अपनी लाश को देखता हूँ, यह कष्टकर तो नहीं है, पर मैं वह व्यक्ति हूँ जो ख़ुद अपनी आँखों से यह देखता है। मुझे सोचना है...सोचना है कि इसके बाद मैं कुछ भी नहीं देख पाऊँगा, जबकि बाक़ी दुनिया सब कुछ देखती रहेगी। हम यह सोचने के लिए तो नहीं हैं पाब्लो। यक़ीन करो, मैं पूरी रात किसी के इंतज़ार में रुका रहा हूँ, पर यहाँ वह बात नहीं हैं, यह हमारे पीछे भी फैलती रहेगी पाब्लो और हम इसके लिए तैयार नहीं रह पाएँगे।
“चुप हो जाओ, मैंने कहा, क्या तुम चाहते हो कि मैं किसी पादरी को बुलाऊँ?
उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैं जान गया था कि वह किसी पैग़ंबर की तरह लगना चाहता था। मुझे पाब्लो कहकर पुकारते समय उसका स्वर उतार-चढ़ाव से रहित होता था। मुझे यह पसंद नहीं था। पर लगता है, सभी पुरुष इसी तरह के होते हैं। मुझे हल्का-सा आभास हुआ, जैसे उस पर से पेशाब की गंध आ रही थी। शुरू से ही मुझे टॉम के प्रति कोई विशेष सहानुभूति नहीं रही और यह एक साथ मरने की वजह से ही हो, इसका भी कोई कारण मेरी समझ में नहीं आ रहा था। दूसरों के साथ और बात हो सकती है, मसलन रेमों ग्रिस के साथ। पर टॉम और जुआन के बीच मैं ख़ुद को अकेला महसूस कर रहा था, फिर भी मुझे ज़्यादा बुरा नहीं लग रहा था। रेमों साथ होता तो ज़्यादा बुरा लगता। पर उस समय मेरी स्थिति कम कष्टकर नहीं थी, पर मैं ख़ुद भी तो सुख की स्थिति नहीं चाहता था।
वह अपने शब्दों को अन्यमनस्कता से चबाता रहा। निश्चित रूप से वह इसीलिए बोल रहा था, ताकि हम सोच न सकें। उसमें से प्रॉस्टेट ग्रंथि के किसी पुराने मरीज़ की तरह पेशाब की गंध आ रही थी। मैं उसकी बात से सहमत हूँ, मैं भी वही सब कह सकता था जो वह कह रहा था। मरना कोई स्वाभाविक क्रिया नहीं है। और चूँकि मैं भी मरने जा रहा था, इसलिए मुझे कुछ भी स्वाभाविक नहीं लग रहा था। न यह कोयले के चूरे का ढेर, न बेंच, न पेड़ों का घिनौना चेहरा। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि टॉम की तरह यह सब सोचना मुझे पसंद नहीं था और मैं जानता था कि पूरी रात के हर क्षण इस तरह की चीज़ें सोचते रहेंगे। मैंने कनखियों से उसकी ओर देखा और पहली बार वह मुझे एक अजनबी-सा लगा। उसने अपने चेहरे पर मौत ओढ़ रखी थी। पिछले चौबीस घंटों से मैं टॉम के साथ ही रहा था। मैंने उसे सुना था, उससे बात की थी, उसे जाना था और मैंने जाना कि हमारे बीच कुछ भी सामान्य नहीं था। और अब हम बिलकुल एक जैसे लग रहे थे, जैसे वे हों, सिर्फ़ इसलिए कि हम साथ-साथ मरने जा रहे थे। टॉम ने बिना मेरी ओर देखे मेरा हाथ थाम लिया।
पाब्लो, कितने आश्चर्य की..कितने आश्चर्य की बात है कि सब कुछ सचमुच ख़त्म होने जा रहा है।
मैंने उससे अपना हाथ छुड़ा लिया, सूअर कहीं के, अपने पैरों के बीच में देखो।
उसके पाँवों के बीच में कीचड़-सा हो गया था और उसकी पैंट के पायँचों में से बूँदें रिस रही थीं।
यह क्या है? उसने घबराते हुए पूछा।
तुम अपनी पैंट के अंदर पेशाब कर रहे हो। मैंने उसे बताया।
“यह ग़लत है, वह भिन्नाया था, मैं पेशाब कर रहा हूँ? मुझे ऐसा कुछ भी महसूस नहीं हो रहा है।
बेल्जियन हमारे पास चला आया। कृत्रिम चिंता जताते हुए उसने पूछा, “तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?
टॉम ने कोई जवाब नहीं दिया। बेल्जियन ने उस कीचड़नुमा चीज़ को देखा और कुछ बोला नहीं।
'मुझे नहीं मालूम यह क्या है, टॉम ने करुण स्वर में कहा, मैं डर नहीं रहा हूँ। क़सम से, मैं डर नहीं रहा हूँ।
बेल्जियन फिर चुप रहा। टॉम उठा और पेशाब करने के लिए कोने में चला गया। आगे के बटन बंद करता हुआ वह वापस आया और बिना कुछ कहे बैठ गया। बेल्जियन कुछ नोट कर रहा था।
हम तीनों ने उसकी तरफ़ देखा, क्योंकि वह जीवित था, वह जीवित आदमी की तरह हरकतें कर रहा था, वह जीवित लोगों की तरह ज़िम्मेदारी महसूस कर रहा था। वह इस तहख़ाने की सर्दी में उसी तरह काँप रहा था, जैसे कोई भी जीवित आदमी काँप सकता है। उसके पास एक फ़रमाँ-बरदार, खाया-पिया शरीर था। शेष हम तीनों लोग उस जैसा ज़रा भी महसूस नहीं कर रहे थे। मैंने पाँवों के बीच में अपनी पैंट को महसूस करना चाहा, पर हिम्मत न पड़ी। मैंने बेल्जियन की ओर देखा, वह अपनी दोनों टाँगों पर वज़न रखे खड़ा था, अपनी मांसपेशियों को मनचाहा हुक्म दे सकता था, कल के बारे में सोच सकता था। एक ओर हम थे—तीन रक्तहीन छायाएँ। हम उसकी ओर देखते और प्रेत की तरह प्राण सोख लेते।
अंत में वह नन्हें जुआन की तरफ़ गया। वह उसकी गर्दन को छू रहा था। उसके पीछे उसका कोई व्यावसायिक उद्देश्य था या वह दयावश कर रहा था, पता नहीं। अगर वह दयावश कर रहा था तो यही उपयुक्त समय था।
उसने जुआन के सिर और गर्दन पर हाथ फेरा, लड़का चुपचाप उसे देखता रहा, फिर अचानक उसने उसका हाथ पकड़ लिया और आश्चर्य से देखने लगा। उसने अपने दोनों हाथों से बेल्जियन के हाथ को पकड़ा था और यह कोई अच्छा दृश्य नहीं था कि दो पतली भूरी चिमटियों ने उस मोटे लाल हाथ को थामा हुआ था। मैंने अनुमान लगा लिया था कि क्या होने जा रहा था। टॉम ने भी ज़रूर अनुमान लगा लिया होगा, पर बेल्जियन ने इस ओर ज़रा भी ध्यान न दिया। वह पितृवत् मुस्कराया। एक क्षण बाद वह लड़का उस मोटे लाल हाथ को अपने मुँह तक लाया और उसे काटने की कोशिश की। बेल्जियन ने झटके से अपना हाथ खींचा और लड़खड़ाता हुआ दीवार से जा टकराया। एक क्षण के लिए वह घबरा गया, पर अचानक वह समझ गया कि हम उसकी तरह के आदमी नहीं हैं। वह ठहाके लगाने लगा। इस पर एक गार्ड उछल गया। दूसरा सो रहा था, उसकी खुली हुई आँखें सपाट थीं।
मैं आराम और उत्तेजना, दोनों एक साथ महसूस कर रहा था। जो कुछ सुबह होगा, या मौत के बारे में मैं अब कुछ नहीं सोचना चाहता था। इसका कोई अर्थ नहीं था। इसमें शब्द थे और था ख़ालीपन। पर जैसे ही मैं कुछ और सोचने की कोशिश करता, मुझे अपने सामने निशाना साधे राइफ़ल की नालें दिखाई देने लगतीं। अपने इस मृत्युदंड को मैंने बीस बार भोगा। एक बार तो मुझे लगा, यह ठीक ही है। मुझे कुछ देर के लिए नींद भी आ गई। वे मुझे दीवार की ओर घसीटते हुए ले जा रहे थे और मैं भरसक विरोध कर रहा था। मैं दया की भीख माँग रहा था। मैं झटके के साथ जाग गया और मैंने बेल्जियन की ओर देखा। मैं बहुत डरा हुआ था। मैं नींद में ज़रूर चीख़ा होऊँगा। पर वह अपनी मूँछें उमेठ रहा था। उसने इस ओर ध्यान नहीं दिया। मैं समझता हूँ कि अगर मैं चाहता तो कुछ देर सो सकता था। मैं पिछले 48 घंटों से जाग रहा हूँ। यह मेरा अंतिम समय था।
पर मैं अपने जीवन के अंतिम दो घंटे खोना नहीं चाहता था। वे सुबह को आकर मुझे जगाएँगे और मैं उनके पीछे चल पड़ूँगा, उनींदा-सा। और फिर ओफ्... करता हुआ टर्राकर ख़त्म हो जाऊँगा। मैं ऐसा नहीं चाहता। मैं किसी जानवर की तरह नहीं मरना चाहता। मैं समझना चाहता हूँ। फिर मुझे ख़्वाब देखने से भी डर लगने लगा। मैं उठ खड़ा हुआ और इधर-उधर टहलने लगा। अपने विचारों को बदलने के लिए मैं अपने पिछले जीवन के बारे में सोचने लगा। यादों का एक झुंड गड्डमड्ड-सा मेरे ऊपर आ झपटा। अच्छी यादें भी थीं और बुरी भी। कम से कम अब तक तो मैं उन्हें उसी रूप में समझता था। कुछ चेहरे थे, कुछ घटनाएँ थीं। अपने चाचा का चेहरा, रेमों ग्रिस का चेहरा, मुझे अपना पूरा जीवन याद आया—किस तरह 1926 में तीन महीने मैं बिलकुल बेकार रहा। कैसी भुखमरी मैंने झेली है! मुझे याद आया कि एक रात मैंने ग्रेनेडा के एक बेंच पर बिताई थी। तीन दिन से मैंने कुछ नहीं खाया था। मुझे ग़ुस्सा आ रहा था, मैं मरना नहीं चाहता था। मुझे हँसी आ गई। किस तरह पागल होकर मैं ख़ुशियों के पीछे, औरतों के पीछे, आज़ादी के पीछे दौड़ रहा था। क्यों? मैं स्पेन को स्वतंत्र देखना चाहता था। मैं अराजकतावादी आंदोलन में शामिल हो गया। मैंने जनसभाओं में भाषण दिए। मैं हर चीज़ को ऐसे गंभीरता से लेता रहा, जैसे मैं अमर हूँ।
उस क्षण मुझे लगा, जैसे पूरा जीवन मेरे सामने है और मैंने सोचा, यह अब सब एक घृणित झूठ है।'' इसका कुछ भी मूल्य नहीं है, क्योंकि यह ख़त्म हो गया। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि किस तरह मैं चल सकता था, लड़कियों के साथ हँस सकता था। अगर मैं सोचता कि मैं इस तरह मर जाऊँगा तो मैं अपनी छोटी उँगली को ज़रा भी न हिला पाता। मेरा जीवन मेरे सामने एक थैले की तरह बंद हो गया था, जिसके भीतर की हर चीज़ असमाप्त थी। मैं ख़ुद से कहना चाहता था कि यह एक ख़ूबसूरत जीवन है, पर अपना यह निर्णय मैं ख़ुद तक नहीं पहुँचा पाया। यह तो मात्र एक ख़ाका था, मेरा पूरा जीवन तो नकली अमरता को गढ़ने में ही बीता। मैं कुछ भी तो समझ नहीं पाया था। मैंने कुछ सोचा नहीं, बहुत कुछ था, जो मैं खो सकता था। मांजालिन का स्वाद, कादिन के निकट छोटी-सी खाड़ी में गर्मियों का स्नान, पर मृत्यु सारे मायाजाल से उबार लाई थी।
बेल्जियन को अचानक एक अच्छा विचार सूझ आया। हमसे कहने लगा, दोस्तो, अगर सैनिक प्रशासन ने अनुमति दी तो मैं तुम्हारे लिए एक काम कर सकता हूँ। मैं तुम्हारा अंतिम संदेश, स्मारिका के रूप में तुम्हारे प्रिय व्यक्तियों तक पहुँचा दूँगा।
टॉम बड़बड़ाया, मेरा कोई नहीं है।
मैंने कुछ नहीं कहा। टॉम एक क्षण चुप रहा, फिर उत्सुकता से मेरी ओर देखने लगा। ‘‘कोंका तक पहुँचाने के लिए भी तुम्हारे पास कोई बात नहीं है?
नहीं।
ऐसी कोमल सहानुभूति से मुझे नफ़रत थी। ग़लती मेरी ही थी, मैंने ही पिछली रात कोंका के बारे में बताया। मुझे अपने पर नियंत्रण रखना चाहिए था। क़रीब एक साल मैं उसके साथ रहा था। कल रात मैंने अपनी कुहनी मोड़कर उसमें अपना चेहरा छिपा लिया था, ताकि उसे कम से कम पाँच मिनट तो देख सकूँ। इसीलिए मैंने उसके बारे में बात भी की थी। पर अब मेरे मन में उससे मिलने की कोई इच्छा शेष नहीं रह गई थी। मेरे पास उससे कहने के लिए भी कुछ नहीं रह गया था। अब तो उसे बाँहों में लेने की भी इच्छा मुझमें शेष न रह गई थी। मेरे शरीर ने मुझमें आतंक भर दिया था, क्योंकि यह पीला पड़ गया था और पसीने-पसीने हो गया था और मैं यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता था कि उसके शरीर ने मुझमें यह आतंक नहीं भरा था। कोंका को जैसे ही पता चलेगा कि मैं मर गया हूँ, वह बिलख उठेगी। उसके बाद के महीनों में जीवन उसके लिए बेस्वाद हो जाएगा। पर मैं तो मरने ही जा रहा हूँ। मैंने उसकी नर्म, सुंदर आँखों को याद किया। जब वह मेरी ओर देखती तो उसकी आँखों में से निकलकर कुछ मेरी आँखों में आ समाता, पर मैं जानता था कि अब यह कुछ नहीं है। अगर अब वह मेरी ओर देखे तो वह नज़र उसी की आँखों में ठहरी रहेगी, मुझ तक नहीं पहुँचेगी। मैं अकेला था।
टॉम भी अकेला था, पर इस तरह नहीं। टाँगों को एक-दूसरे में फँसाए वह हल्की मुस्कान लिए बेंच की ओर टकटकी लगाए था। वह मुग्ध-सा नज़र आ रहा था। उसने हाथ बढ़ाकर सावधानी से लकड़ी को छू लिया, जैसे उसे डर हो कि कोई चीज़ टूट जाएगी, फिर झटके से अपना हाथ वापस खींच लिया और थरथरा उठा। अगर मैं टॉम की जगह होता तो ऐसे मुग्ध होकर बेंच को कभी न छूता, यह अतिशय मूर्खता थी। मैंने देखा कि चीज़ें बड़ी मजाहिया होने लगी थीं। मेरे लिए बेंच, लैंप, कोयले के चूरे के ढेर को देखना ही काफ़ी था। यह अनुभव करने के लिए कि मैं मरने जा रहा हूँ। स्वाभाविक है कि मैं मौत के बारे में स्पष्टत: नहीं सोच पा रहा था, पर सर्वत्र यह ज़रूर दीख रहा था कि चीज़ें पीछे हटकर मुझसे एक दूरी बना रही हैं। उन्हीं लोगों की तरह, जो मरते हुए आदमी के बिस्तर के पास बैठे चुपचाप बात करते हैं। टॉम ने उस बेंच पर अपनी मौत को ही तो छुआ था।
मेरी हालत यह थी कि अगर कोई मेरे पास आकर कहता कि मैं घर जा सकता हूँ, उन्होंने पूरा जीवन जीने के लिए मुझे दे दिया है, तब भी मैं भावशून्य ही रहता। अपने अमर होने का भ्रम जब एक बार टूट जाता है तो फिर कुछ घंटों के या कुछ सालों के इंतज़ार में फ़र्क़ ही क्या रह जाता है! मेरी सारी निष्ठाएँ ख़त्म हो गई थीं और मैं शांत था, पर यह एक भयानक शांति थी—जिसका कारण था मेरा शरीर; मेरा शरीर क्योंकि इसी की आँखों से तो मैंने देखा था, इसी के कानों से सुना था। पर अब यह मैं नहीं था। यह ख़ुद ही पसीने-पसीने हो रहा था। काँप रहा था और मेरी इसके साथ कोई पहचान शेष नहीं रह गई थी। यह जानने के लिए कि क्या हो रहा है, मुझे इसे छूना, इसकी ओर देखना पड़ता था, जैसे यह किसी और का शरीर हो। कई बार अब भी मुझे ऐसा लगता, जैसे मैं डूबा जा रहा हूँ, गिर रहा हूँ। ठीक वैसे ही जैसे आप सतह पर खड़े होकर सिर के बल डुबकी मार रहे हों। मैं अपने दिल की धड़कनों को साफ़ महसूस कर रहा था, पर ये बातें मुझे आश्वस्त नहीं कर पा रही थीं। मेरे शरीर से जो कुछ आ रहा था, वह विरूप था। अधिकतर समय मैं चुप रहा और अपने वज़न का कम होना, अपने साथ एक घिनौनी उपस्थिति को ही महसूस करता रहा। मुझे लग रहा था, जैसे किसी विशाल कीड़े के साथ मुझे बाँध दिया गया है। एक बार मैंने अपनी पैंट को महसूस किया और फिर लगा कि वह भीगी हुई है। मालूम नहीं, यह पसीना था या पेशाब, पर एहतियातन मैं कोयले के ढेर के पास पेशाब करने के लिए चला गया।
बेल्जियन ने ज़ेब से घड़ी निकालकर देखी, फिर कहा, साढ़े तीन बज गए हैं।
हरामी! इसके पीछे ज़रूर उसकी कोई मंशा थी। टॉम उछल पड़ा। यह तो हमने ध्यान ही नहीं दिया था समय तेज़ी से भागा जा रहा है। रात ने हमको एक आकारहीन, धुँधले शिकार की तरह घेर लिया था, मुझे पता भी नहीं चल पाया कि यह प्रक्रिया शुरू कब हुई।
नन्हा जुआन रोने लगा था। वह अपने हाथों को फैलाते हुए दया की भीख माँग रहा था, मैं मरना नहीं चाहता, मैं मरना नहीं चाहता!
हवा में अपने हाथों को फैलाता हुआ वह तहख़ाने के एक कोने से दूसरे कोने तक गया और फिर चटाई पर गिरकर सिसकने लगा। टॉम शोकाकुल नज़रों से उसे देखता रहा। उसे सांत्वना देने का कोई उपक्रम वह नहीं कर रहा था। वह इस लायक़ था भी नहीं, पर लड़का कुछ ज़्यादा ही शोर कर रहा था जबकि उस पर इसका इतना गहरा प्रभाव नहीं पड़ा था। वह उस बीमार आदमी की तरह था, जो बुख़ार की पीड़ा में अपने को बचाने की कोशिश कर रहा हो। यह बात तब और गंभीर हो जाती है जब बुख़ार हो ही नहीं।
वह रोने लगा था। मैं साफ़ देख रहा था कि वह अपने प्रति कारुणिक हो रहा था, मौत के बारे में वह ज़रा भी नहीं सोच रहा था। एक क्षण के लिए मुझे ख़ुद पर रोने की इच्छा हुई। अपने पर दया आने लगी। लेकिन हुआ उसका उलटा। मैंने उस लड़के की ओर देखा, उसके सिसकते चेहरे ने मुझे और भी अमानवीय बना दिया था। अब मुझे न तो किसी और पर दया आ रही थी, न ख़ुद पर। मैंने ख़ुद से ही कहा, “मैं सफ़ाई से मरना चाहता हूँ।
टॉम उठकर खड़ा हो गया था और चलता हुआ ऊपर रोशनदान के ठीक नीचे खड़ा होकर ऊपर की रोशनी को देखने लगा था। मैं सफ़ाई से मरने का दृढ़ निश्चय कर चुका था और उसी के बारे में सोच रहा था। पर जब से डॉक्टर ने समय बताया था, तभी से मुझे लग रहा था कि जैसे समय उड़ता जा रहा है, एक-एक बूँद निचुड़ता हुआ।
अभी अँधेरा ही था कि मुझे टॉम की आवाज़ सुनाई दी, क्या तुम्हें उनकी आवाज़ सुनाई दे रही है?
हाँ।
बरामदे में वे लोग मार्च कर रहे थे।
“वे कर क्या रहे हैं? वे हमें अँधेरे में तो नहीं मार सकते?
कुछ देर के लिए चुप्पी छा गई। मैंने टॉम से कहा, अब तो दिन है।
पैड्रो जंभाई लेता हुआ उठ खड़ा हुआ था और लैंप जलाने लगा था। उसने अपने साथी से कहा, कितनी भयंकर सर्दी है!
भूरा उजाला तहख़ाने में फैल गया था। काफ़ी दूर से हमें गोलियाँ चलने की आवाज़ें सुनाई दीं।
यह शुरुआत है, टॉम ने कहा, यह काम वे पीछे के आँगन में कर रहे होंगे।
टॉम ने डॉक्टर से एक सिगरेट माँगी। मुझे उसकी ज़रूरत नहीं थी। मुझे शराब या सिगरेट की ज़रा भी ज़रूरत नहीं थी। उस क्षण के बाद से गोलियाँ चलने की आवाज़ लगातार सुनाई देती रही थी।
“जानते हो, क्या हो रहा है? टॉम ने पूछा।
वह कुछ और कहना चाहता था, पर दरवाज़े की ओर देखता हुआ चुप ही रहा। दरवाज़ा खुला और एक लैफ्टीनेंट चार सिपाहियों को लेकर अंदर आ गया। टॉम के हाथ से सिगरेट छूट गई।
स्टीनबोक?
टॉम चुप रहा, पैड्रो ने उसकी ओर संकेत किया।
जुआन मिखल!
चटाई पर है।
खड़े हो जाओ। लैफ्टीनेंट ने कहा।
जुआन ज़रा भी न हिला। दो सिपाहियों ने बग़ल में हाथ देकर उसे खड़ा कर दिया। पर जैसे ही उन्होंने छोड़ा, वह फिर गिर गया।
यह कोई पहला आदमी तो है नहीं, जो घबरा गया हो, लैफ्टीनेंट ने कहा, “तुम दो लोग उसे उठाकर ले चलो। वहाँ सब ठीक हो जाएगा।
वह टॉम की ओर मुड़ा, “आओ चलें।
टॉम दो सिपाहियों के बीच में चलने लगा। उनके पीछे दो लोग लड़के को उठाए चल रहे थे। एक ने बग़ल से पकड़कर उठा रखा था और दूसरे ने टाँगें, वह बेहोश नहीं था। उसकी आँखें खुली थीं और आँसू गालों पर से होते बह रहे थे। जब मैं भी बाहर निकलने लगा तो लैफ्टीनेंट ने मुझे रोक दिया।
तुम इब्बीता हो?”
हाँ
तुम यहीं रुको, तुम्हें लेने के लिए हम बाद में आएँगे।
वे चले गए। बेल्जियन और दोनों गार्ड भी चले गए। मैं अकेला रह गया। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि मेरा वे क्या करेंगे! अगर वे मुझे भी अभी ले जाते तो अच्छा होता। बराबर अंतराल के साथ गोलियाँ चलने की आवाज़ मुझे सुनाई दे रही थी और हर आवाज़ से मुझे धक्का लग रहा था। मैं चीख़ना चाहता था। अपने बालों को नोच लेना चाहता था। पर मैंने सिर्फ़ अपने दाँत किचकिचाए और ज़ेबों में हाथ डाल दिए।
एक घंटे बाद वे लोग आए और मुझे पहली मंजिल पर एक छोटे-से कमरे में ले गए। वहाँ सिगार की गंध फैली हुई थी और दमघोंटू गर्मी थी। आरामकुर्सियों पर बैठे दो ऑफ़िसर धुआँ छोड़ रहे थे। काग़ज़ उनके घुटनों पर रखे थे।
तुम इब्बीता हो?”
हाँ
रामों ग्रिस कहाँ है?
मुझे नहीं मालूम।
मुझसे सवाल पूछने वाला व्यक्ति नाटा और मोटा था। चश्मे के पीछे उसकी आँखें काफ़ी कठोर लग रही थीं। उसने मुझसे कहा, इधर आओ।
मैं उसके पास चला गया। वह उठ खड़ा हुआ। मेरा हाथ पकड़ लिया और मुझे ऐसी नज़र से घूरने लगा, जैसे मुझे ज़मीन में गाड़ देगा। उसी क्षण उसने अपनी पूरी ताक़त से मेरे पेट पर एक घूँसा जड़ दिया। यह मुझे चोट पहुँचाने के लिए नहीं था, यह तो एक खेल था। वह मुझ पर क़ाबू पा लेना चाहता था। फिर वह खड़ा-खड़ा अपनी दुर्गंधयुक्त साँस मेरे चेहरे पर छोड़ता रहा। एक क्षण तक हम उसी तरह खड़े रहे, मेरी इच्छा हँसने की होने लगी थी। जो आदमी मरने वाला है, उसे डराना काफ़ी मुश्किल काम है। ये लटके वहाँ काम नहीं देते। उसने मुझे एक ज़ोर का धक्का दिया और फिर बैठ गया, कहने लगा, “उसके बदले तुम्हारी जान दाँव पर है। अगर तुम बता दो कि वह कहाँ है तो तुम्हारी जान बच सकती है।
घुड़सवार तो अपने चाबुक फटकारते घूम रहे थे और जूते साफ़ करने वाले मरे जा रहे थे। वे अपने मुचड़े हुए काग़ज़ों में नाम ढूँढ़ रहे थे, वे या तो उन्हें जेल में डाल रहे थे या उनका दमन कर रहे थे। वे स्पेन के भविष्य तथा अन्य विषयों पर बात कर रहे थे। उनकी गतिविधियाँ मुझे उलझी हुई और विद्रूप लग रही थीं। मैं अपने को उनकी जगह रख ही नहीं पा रहा था। मेरे विचार से वे विक्षिप्त थे।
वह नाटा अभी तक अपने जूतों को रगड़ता और चाबुक फटकारता मुझे ही घूर रहा था। उसकी सारी मुद्राएँ उसे एक क्रूर जानवर का रूप दे रही थीं।
तो? कुछ आया समझ में?
“मुझे नहीं मालूम कि ग्रिस कहाँ है, मैंने जवाब दिया, मैं तो समझता था कि वह मेड्रिड में ही होगा।
दूसरे ऑफ़िसर ने अपना पीला हाथ अलसाए ढंग से ऊपर उठाया। यह अलसायापन भी सुविचारित था। मुझे उनकी सारी संकीर्ण योजनाओं का पता चल गया था और यह देखकर मैं हक्का-बक्का रह गया था कि ये लोग इस तरह से मज़ा लेते हैं।
हम तुम्हें सोचने के लिए पंद्रह मिनट देते हैं, उसने धीरे से कहा, इसे धोबीघर ले जाओ और पंद्रह मिनट बाद वापस ले आना। अगर यह फिर भी मना करेगा तो तत्क्षण गोली मार दी जाएगी।
उन्हें पता था कि वे क्या कर रहे हैं। मैं रात-भर इंतज़ार ही तो कर रहा था। फिर उन्होंने एक घंटा और मुझे तहख़ाने में इंतज़ार करवाया, जबकि टॉम और जुआन को गोली मारी जा चुकी थी। और अब ये मुझे धोबीख़ाने में बंद कर रहे हैं। ज़रूर उन्होंने अपना यह खेल रात से पहले ही तैयार कर लिया होगा। वे जानते थे कि ऐसे में स्नायु जवाब दे देते हैं और उन्हें उम्मीद थी कि वे मुझे धर लेंगे।
पर वे बिलकुल ग़लत सोच रहे थे। धोबीघर में मैं स्टूल पर बैठ गया, क्योंकि मैं बहुत कमज़ोरी महसूस कर रहा था। अब मैं सोचने लगा था। अपनी हालत के बारे में नहीं। मुझे पता था कि ग्रिस कहाँ है। वह शहर से चार किलोमीटर दूर अपने चचेरे भाई के घर पर छिपा हुआ था। मैं यह भी जानता था कि अब वे मुझे टॉर्चर नहीं करेंगे (पर मुझे याद नहीं आ रहा था, वे ऐसा करेंगे)। सब कुछ सुव्यवस्थित था, सुनिश्चित था पर मैंने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली। मैं सिर्फ़ अपने व्यवहार के कारणों को समझना चाहता था। मैं ग्रिस का पता देने के बजाय मरना अधिक पसंद कर रहा हूँ। क्यों? रामों ग्रिस के प्रति अब मुझमें ज़रा भी लगाव नहीं था। उससे मेरी दोस्ती भोर से पहले उसी समय मर गई थी, जैसे कोंका के प्रति प्यार और मेरी ख़ुद जीने की इच्छा! बेशक मैं उसका आदर करता था। वह बहुत सख़्त आदमी था। पर उसके बदले मेरे मरने का यह कारण नहीं था। उसका जीवन मेरे जीवन से अधिक मूल्यवान नहीं था। जीवन अमूल्य होता है। उन्हें तो एक आदमी को दीवार के सहारे खड़ा करना है और गोली मारकर उसकी हत्या करनी है। वह आदमी मैं हूँ, ग्रिस है या कोई और, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
मैं जानता था कि स्पेन और अराजकता, कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं है। जब तक मैं हूँ, मुझे अपनी चमड़ी बचानी चाहिए और ग्रिस का पता दे देना चाहिए और मैं इस सबसे इनकार कर रहा हूँ।
मुझे लगा, यह बहुत हास्यास्पद है, दुराग्रह है। मैंने सोचा, 'मैं ज़िद्दी हो गया हूँ!' और एक बड़ी विचित्र-सी प्रसन्नता मेरे शरीर में भर गई।
वे आए और मुझे उन दो ऑफ़िसरों के पास ले गए। एक चूहा मेरे पाँवों के बीच में से दौड़ता हुआ निकल गया। इस पर मुझे हँसी आ गई। मैंने उनमें से एक रखवाले से पूछा, क्या तुमने चूहे को देखा?
उसने कोई जवाब नहीं दिया, वह काफ़ी सौम्य था और गंभीर बना रहा। मैं हँसना चाहता था, पर मैंने अपने को रोके रखा, क्योंकि अगर मैं हँसने लगा तो फिर रुक नहीं पाऊँगा। उस रखवाले की मूँछें थीं। मैंने उससे फिर पूछा, तुम्हें अपनी मूँछें तराश डालनी चाहिए, बेवक़ूफ़! मुझे यह कल्पना बड़ी हास्यास्पद लगी। उसने बिना कुछ बोले एक ठोकर मुझे जमा दी और मैं चुप हो गया।
“ठीक है, उस मोटे ऑफ़िसर ने कहा, “क्या तुमने इस बारे में सोच लिया है?
मैंने बड़ी उत्सुकता से उनकी ओर देखा, जैसे वे किसी दुर्बल जाति के जीव थे। मैंने उनसे कहा, “मैं जानता हूँ, वह कहाँ है। वह क़ब्रिस्तान में छिपा हुआ है। वह या तो किसी क़ब्र में छिपा बैठा होगा या क़ब्र खोदने वाले की कोठरी में।
फिर तो एक तमाशा खड़ा हो गया। मैं चाहता था कि वे उठ खड़े हों, अपनी पेटियाँ कसें और व्यस्तता से ऑर्डर देने लगें।
वे एकदम उछलकर खड़े हो गए, “चलो भोले, तुम लेफ्टीनेंट लोले से पंद्रह आदमी अपने साथ ले लो। छोटा मोटा आदमी कह रहा था, “तुम अगर सही कह रहे हो तो मैं तुम्हें छोड़ दूँगा। पर तुम अगर हमें बेवक़ूफ़ बनाने की सोच रहे हो तो उसका ख़ामियाज़ा भी तुम्हें भुगतना पड़ेगा।
खटखटाहट के साथ वे वहाँ से चले गए और मुझे उन रखवालों की चौकसी में छोड़ गए। वहाँ जो तमाशा होगा, उसे सोच-सोचकर मुझे हँसी आ रही थी। मैं कल्पना करने लगा कि कैसे वे क़ब्र के पत्थरों को उखाड़ेंगे, एक-एक कोठरियों के दरवाज़ों को खोलेंगे। मैं पूरी स्थिति को ऐसे देखने लगा, जैसे मैं कोई और हूँ और यह क़ैदी एक हठी नायक की भूमिका में है। और ये मूँछोंवाले घृणित रखवाले तथा उनके वर्दीधारी लोग क़ब्रों के ऊपर से भाग रहे हैं। कितना मज़ेदार है!
आधे घंटे बाद वह मोटा-नाटा अकेला वापस लौट आया। मेरा ख़्याल था कि वह मुझे गोली मार देने का हुक्म देने के लिए आया था। और लोग अभी क़ब्रिस्तान में ही होंगे।
ऑफ़िसर ने मेरी ओर देखा। वह ज़रा भी स्पेनी नहीं लग रहा था। इस बड़े आँगन में दूसरे लोगों के साथ रहो, उसने कहा, सैनिक अभियानों के बाद नागरिक अदालत ही इसका फ़ैसला करेगी।
जो बात मैं समझा, उसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैंने पूछा, तो क्या...मुझे गोली नहीं मारी जाएगी?
“अभी तो नहीं। बाद में क्या होता है, इससे मुझे कोई मतलब नहीं है।
मेरी समझ में अब भी कुछ नहीं आया था। मैंने पूछा, पर क्यों...?
उसने बिना कुछ बोले अपने कंधे झटके और सिपाही मुझे अपने साथ ले गए।
शाम को उन्होंने क़रीब दस नए क़ैदियों को आँगन में ठूँस दिया। मैंने गार्सिया नानवार्ड को पहचान लिया। उसने कहा, तुम्हारा भी दुर्भाग्य है! मैं तो सोच रहा था कि तुम अब तक ख़त्म कर दिए गए होगे।
उन्होंने तो मुझे मौत की सज़ा दे दी थी, पर फिर पता नहीं क्यों विचार बदल दिया। मैंने कहा।
उन्होंने मुझे ठीक दो बजे गिरफ़्तार किया। गर्सिया ने बताया।
पता नहीं क्यों, वे उन सभी लोगों को गिरफ़्तार कर रहे हैं जिन्हें अपनी गिरफ़्तारी का कारण भी पता नहीं होता, उसने कहा और फिर आवाज़ हल्की करके कहा, उन्होंने ग्रिस को भी गिरफ़्तार कर लिया है।
मैं काँप गया था, कब?
आज सुबह। इसके लिए वह ख़ुद ही ज़िम्मेदार है। मंगलवार को अपने चचेरे भाई से उसकी कहा-सुनी हो गई तो वह उनके घर से चला आया। कई लोग उसे छिपाने के लिए तैयार थे, पर पता नहीं क्यों, वह किसी का अहसान नहीं लेना चाहता था। उसने कहा, मैं जाकर इब्बीता के घर में छिपूँगा। पर इब्बीता को भी तो उन्होंने गिरफ़्तार कर लिया है, इसलिए मैं क़ब्रिस्तान में जाकर छिपूँगा।
क़ब्रिस्तान में?
हाँ, क्या बेवक़ूफ़ी है! आज सुबह वे वहाँ पहुँच गए, यह तो होना ही था। उन्होंने उसे क़ब्र खोदने वाले की कोठरी में धर लिया। उसने उन पर गोली चलाई और उन्हें उसका पता चल गया।
'क़ब्रिस्तान में!
सब कुछ घूमने लगा था। मैं सीधा ज़मीन पर आ गिरा। मैं ज़ोर से हँसा, पर मेरे मुँह से चीख़ निकली थी।
unhonne hamein ek baDe safed kamre mein dhakel diya tha. meri ankhen chaundhiyane lagi theen, kyonki vahan ka parkash ankhon ko chubh raha tha. tabhi meri nazar ek mez par paDi. uske pichhe chaar adami baithe kaghzon ko dekh rahe the, ve sainik nahin dikh rahe the. qaidiyon ka ek jattha pichhe ki taraf khaDa tha aur hamein unmen shamil hone ke liye pure kamre ko paar karna tha. unmen se kaiyon ko main janta tha aur kuch ajnabi videshi the. jo mere samne the, unke baal bhure the aur sir gol. ve ek jaise lagte the. unmen se chhote qad vala baar baar apni pant ko upar khinchta. wo kafi nervous lag raha tha.
teen ghante beet gaye. mujhe chakkar aa rahe the aur sir bilkul khali sa ho gaya tha. kamra khoob garm tha aur sukhad lag raha tha, kyonki pichhle chaubis ghanton se hum log thanD se kaanp rahe the. guard ek ek karke qaidiyon ko mez tak laye, charon adamiyon ne sabse unke naam aur vyavsay puchhe. adhiktar samay unhonne khaas kuch nahin kiya, bus ek aadh saval idhar udhar puchhte rahe, “barudkhane par hue hamle se tumhara kya sambandh hai? ya nau tarikh ki subah ko tum kahan the aur kya kar rahe the? ve javab bilkul nahin sun rahe the, kam se kam lag to yahi raha tha. ve ek kshan ke liye chupchap sidhe dekhte aur phir kuch likhne lagte. unhonne tom se puchha ki kya wo international brigade mein tha. tom kuch chhipa nahin saka, kyonki uske coat ki zeb mein se kaghaz baramad ho gaye the. unhonne juan se kuch nahin puchha, par uske naam batane ke baad kafi der tak ve likhte rahe the.
mera bhai jose arajaktavadi tha. juan kah raha tha, aap jante hain ki ab wo jivit nahin hai. aap jante hain ki mera sambandh kisi dal se nahin hai, rajaniti se to mujhe kabhi matlab hi nahin raha.
unhonne koi javab nahin diya. juan kahta raha, mainne kuch nahin kiya, main kisi dusre ke kiye ki saza nahin bhugatna chahta.
uske honth kaanp rahe the. ek guard ne use chup karaya aur vahan se hata diya. ab meri bari thi.
“tumhara naam pablo ibbita hai?
haan
us adami ne kaghzon par ek nazar Dali aur phir puchha, emon gris kahan hai?
main nahin janta.
tumne chhah se unnis tarikh tak use apne ghar mein chhipaye rakha tha?
nahin!
ve ek minat tak kuch likhte rahe, phir guard mujhe bahar le aaya. galiyare mein tom aur juan do garDon ke beech mein khaDe mera intzaar kar rahe the. hum saath saath chalne lage. tom ne ek guard se puchha, ab?
darasal hamari kothari aspatal ke tahkhane mein thi. lagatar hava ke jhonke aane ke karan ye bhayanak roop se thanDi thi. hum raat bhar kanpte rahe the aur din mein bhi haalat kuch achchhi nahin thi. pichhle paanch din mainne ek prachin church ki ek kothari mein bitaye the. chunki qaidi bahut adhik the aur jagah kam, isliye jahan bhi jagah mili, hame band kar diya. us kothari ko chhoDne par main khush isliye nahin tha ki vahan thanD bahut thi, balki isliye ki vahan main akela tha. is tahkhane mein main akela nahin tha. juan bilkul chup tha. ek to wo Dara hua tha aur dusre abhi uski bolne ki umr bhi nahin thi. par tom achchhi baat karne vala tha aur achchhi speni janta tha.
is tahkhane mein ek bench aur chaar chataiyan paDi theen. hamein yahan chhoDne ke baad jab ve laut gaye to hum baith gaye aur unke jane ki aahat lene lage. ek lambe kshan ke baad tom ne kaha, unhonne hamein apne shikanje mein kas liya hai.
mera bhi yahi khyaal hai,” mainne kaha, par main nahin samajhta ki is laDke ke saath ve kuch karenge.
iske khilaf unke paas kuch hai bhi nahin, tom ne kaha, sivay iske ki wo ek nagarik sena ke vekti ka bhai hai.
mainne juan ki taraf dekha, laga, jaise usne kuch suna hi nahin tha. tom kah raha tha, tumhen pata hai, ve sargosa mein kya karte hain? ve logon ko saDak par lita dete hain aur unke upar truck chalva dete hain. ek moskovasi ne hamein ye bataya tha. aisa ve barud bachane ke liye karte hain.
lekin ismen petrol to kharch hota hai. mainne kaha.
mujhe tom par ghussa aa raha tha, use ye sab nahin kahna chahiye tha!
“iske baad kuch afsar us saDak par aate hain, wo kah raha tha, “aur is sabka muayna karte hain. unke haath apni zebon mein thunse hote hain aur munh mein cigarette dabi hoti hai. kya tum samajhte ho ki ve taDapte logon ko maar dete honge? nahin, ve unhen chikhne chillane dete hain. ghanton ghanton. wo moskovasi to bata raha tha ki is sabse to use ubkai aane lagi thi.
lekin main nahin samajhta ki ve yahan bhi vahi sab karenge, mainne kaha, jab tak ki unke paas kartuson ki sachmuch hi kami na ho jaye.
is kothari mein parkash chaar roshandanon tatha chhat par bain or se ek vrittakar chhed se aata tha. is chhed mein se upar akash bhi dekha ja sakta tha. is chhed ke jariye tahkhane mein koyala utara jata hai, yon ab is par upar se darvaza laga diya gaya tatha koyala vahin paDa raha. kai baar jab upar ka darvaza band karna bhool jate to ye koyala hava pani se kharab ho jata.
tom kanpne laga tha, ‘‘he bhagvan, main thanDa ho raha hoon, wo baDabDaya, main mara ja raha hoon.
wo uthkar vyayam karne laga. uske sharir ki maroD ke saath hi uske gore balon se bhare sine par se qamiz khul jati. wo peeth ke bal zamin par let gaya tha tatha tangen uthakar cycle si chalane laga tha. uske vishalakay puththe tharthara rahe the. tom kafi bhari aur thulathula tha. mainne socha ki rayfal ki goli uske maans mein itni asani se ghus jayegi, jaise makkhan ke launde mein sangin! agar wo dubla hota to ye baat mere dimagh mein hi na aati.
mujhe bahut zyada thanD to nahin lag rahi thi, haan, itna zarur tha ki mere haath aur kandhe sunn ho gaye the. kai baar achanak kisi cheez ki kami khatakti aur main coat ke liye nazren idhar udhar ghumata, par tabhi yaad aata ki coat to unhonne mujhe diya hi nahin tha. mujhe kafi pareshani ho rahi thi. unhonne hamare kapDe utarvakar apne sainikon ko de diye the aur hamare paas sirf qamizen tatha kirmich ki ve painten chhoD di theen, jinhen aspatal ke mariz garmiyon mein pahna karte the. kuch der baad bhari bhari sansen leta hua tom mere baghal mein aa baitha.
“garmi i?
nahin, par sardi kuch kam hui hai. ”
shaam ke qarib aath baje ek major do phalengistson ke saath aaya. uske haath mein ek kaghaz tha. usne guard se puchha, “in tinon ke naam kya hain?
stenbok, ibbita aur pikhal. guard ne bataya.
major ne chashma ankhon par chaDhaya aur suchi par nazar dauDai, stenbok. . . stenbok. . . haan tumhein maut ki saza di gai hai. kal subah tumhein goli se uDa diya jayega, uski nazar kaghaz par thi, aur baqi donon ko bhi.
yah nahin ho sakta, juan chikha, mujhe nahin!
major ne chakit hokar uski or dekha, tumhara naam kya hai?
juan mikhal. usne bataya.
theek hai, tumhara naam ismen hai, major ne kaha, “tumhen yahi saza di gai hai.
mainne to kuch nahin kiya. juan ke svar mein hatasha thi.
major ne kandhe jhatke aur phir tom aur meri taraf ghoom gaya.
tum baask ho?
hammen se koi bhi baask nahin hai.
wo chiDh sa gaya tha, ve to bata rahe the ki tinon baask hain. khair, main iske pichhe apna samay kharab nahin karunga. to tum logon ko kisi panDit ki zarurat nahin hai?
hamne javab dene ki zarurat nahin samjhi.
vahi bola, kuchh hi der baad ek belgium doctor aa raha hai. wo puri raat tumhare saath rahega. usne ek sainik salam kiya aur vapas muD gaya. ”
“mainne kya kaha tha? tom bola, vahi baat hui.
haan, mainne kaha, lekin is bachche ke saath ye bahut bura hua. “
ye baat mainne shalintavash kahi thi, par mujhe wo laDka bilkul bhi achchha nahin laga tha. uska chehra bahut patla tatha atankit tha, kashton ne uski shakl bigaD di thi. teen din pahle wo ek smart qim ka laDka tha, par ab ek buDhe bhoot ki tarah dikh raha tha aur lagta tha ki agar unhonne use chhoD diya, tab bhi uski javani lautegi nahin. uske prati daya upajna sahj hi tha, par daya se mujhe ghrinaa thi. usne kuch kaha nahin, par wo pila paD gaya tha. uska chehra aur uske haath sabhi pile paD gaye the. wo phir niche baith gaya aur apni gol gol ankhon se zamin ko dekhne laga. tom sahrday tha, usne uske haath pakaDne chahe, par us laDke ne use baDi bedardi se jhatak diya aur chehra latka diya.
use kuch der ke liye akela chhoD do, mainne dhimi avaz mein kaha, tum dekhana, wo rone lagega.
tom ne meri baat maan li, par wo isse khush nahin tha. wo us laDke ko santvana dena chahta tha. isse ye bhi tha ki uska apna samay bhi theek se kat jata aur use apne bare mein sochne ki sudh hi na rahti. main kuch khinn ho gaya tha. mainne maut ke bare mein kabhi nahin socha, kyonki iska koi karan hi nahin tha, par chunki ab karan tha aur maut ke alava sochne ke liye kuch aur tha bhi nahin.
tom phir baat karne laga tha. “achchha, kya tum kisi ko shmshaan pahunchane gaye ho? usne mujhse puchha. mainne koi javab nahin diya. phir wo mujhe batane laga ki august ke shuru se ab tak wo chhah logon ko shmshaan pahuncha chuka hai. use abhi tak halat ka ahsas nahin hua tha. balki main to kahunga ki wo ahsas karna hi nahin chahta tha. mujhe bhi abhi iska theek tarah se ahsas nahin hua tha. jab main goliyon ki baat sochne laga, unki bauchhar ko apne sharir ke andar dhansane ki baat sochne laga to mujhe kafi kasht hua. ye sab asli saval se bahar ki baten hain, par main shaant tha, theek tarah se samajhne ke liye hamare paas puri raat thi. kuch hi der baad tom chup ho gaya tha. mainne kanakhiyon se uski or dekha, uska chehra pila paD gaya tha. mainne khu se kaha, ab shuru hua hai.
lagbhag anghera ho gaya tha. roshandanon se koyle ke Dher par ujaas jhar raha tha. chhat par bane chhed mein se main ek tare ko dekh raha tha. raat zarur nirmal aur barfili hogi.
darvaza khula, do guard aur unke pichhe bhuri vardi pahne ek sunahre balon vala vekti bhitar aaya. usne hamein salam kiya aur bataya, “main doctor hoon, in dukhad ghaDiyon mein apaki sahayata karne ka adhikar mujhe diya gaya hai.
yah tumhari ichha par hai. tumhare antim kshnon ko kam kashtkari banane ke liye main jo kuch kar sakunga, karunga.
“lekin yahan tum kisaliye aaye ho? tumhari zarurat kuch aur logon ko hai, jinse aspatal bhare paDe hain.
mujhe yahan bheja gaya hai, bina kisi ek ki or dekhe usne javab diya, “kya aap log cigarette pina pasand karenge? mere paas cigarette hai aur cigar bhi.
usne angrezi cigarette hamari or baDhai, par hamne lene se inkaar kar diya. mainne uski ankhon mein jhanka, wo jhallaya hua sa lag raha tha. mainne usse kaha, tum yahan aakar hum par koi kripa nahin kar rahe ho. aur phir main tumhein janta hoon. bairekon ke ahate mein mainne tumhein phasiston ke saath dekha tha, usi din jis din mujhe qaid kiya gaya tha.
main abhi aur bhi kuch kahna chahta tha par achanak mujhe kuch ho gaya. us doctor ke vahan hone mein hi meri dilchaspi khatm ho gai. aam taur par main jiski khinchai karne par utar aata hoon, use bakhshta nahin. par us samay meri baat karne ki ichha hi mar gai thi. mainne kandhe uchkaye aur apni ankhen dusri or ghuma leen. kuch hi der baad mainne apni gardan uthai, wo utsukta se meri or dekh raha tha. guard chatai par baithe the. donon garDon mein se ek lamba patla paiDro makkhiyan maar raha tha aur dusra ungh raha tha. uska sir kabhi ek or jhukta to kabhi dusri or.
“andhera ho gaya hai, kya lainp la doon? achanak paiDro ne doctor se poochh liya.
dusre ne gardan hilai, haan. pahle to main use bhondu samajh raha tha, par wo tha nahin. uski nili ankhon ke bhitar jhankne par mujhe laga ki agar uska koi kasur hai, to wo hai uske bhitar kalpnashilta ka abhav. paiDro bahar gaya aur phir ek tel ka lainp utha laya, jise usne bench ke kone par rakh diya. isse ujala to nahin hua, par andhere se to achchha hi tha. pichhli raat to unhonne hamein andhere mein hi rakha tha. kuch der tak to main lainp se chhat par bane hue parkash ke ghere ko hi dekhta raha. main mantramugdh tha. achanak main jaga, parkash ka ghera khatm ho gaya tha aur mujhe lag raha tha, jaise main kisi bhari bojh ke niche dab gaya hoon.
ye mirtyu ka vichar ya bhay nahin tha, iska koi naam nahin tha. mere jabDe jal rahe the aur sir dard kar raha tha.
mainne apne aapko jhakjhora aur apne donon sathiyon ki or dekha. tom ne apna chehra apne hathon mein chhipa rakha tha. mujhe to uski gardan par gori, bhari guddi bhar dikhai de rahi thi. juan ki halat to bahut kharab thi. uska munh khula tha aur nathune kaanp rahe the. doctor uske paas gaya aur unke kandhon par haath rakha, jaise use dilasa de raha ho. par uski ankhen thanDi theen. phir mainne dekha ki doctor ka haath chupchap uski baanh par se sarakta hua uski kalai tak aa gaya. juan ne uski or zara bhi dhyaan na diya. phir usne uski kalaiyon ko apni teen ungliyon mein pakDa aur thoDa apni or kheench liya, saath hi khu bhi thoDa ghumkar meri or peeth kar li. mainne thoDa pichhe jhukkar dekh liya tha ki usne uski kalai ko pakDe pakDe dusre haath se apni zeb se ghaDi nikali aur kuch der ke liye use dekhta raha. ek minat baad usne uska haath chhoD diya aur khu peeth divar par tika di. aur phir achanak jaise use kuch yaad aaya ho, usne jhatke se apni zeb se ek not buk nikali aur us par kuch lainen likhi. “harami, ghusse mein yahi shabd mere dimagh mein aaya, zara aakar wo meri nabz to dekhe, uske saDe thobDe ko theek karne ke liye mera ek ghunsa hi kafi hoga.
wo mere paas aaya to nahin, par mujhe laga, wo meri or dekh raha tha. mainne apni gardan uthai aur uski or javabi drishti Dali. phir yoon hi dikhave ke taur par usne mujhse puchha, tumhen yahan thanD to nahin lag rahi hai? wo thanDa aur vivarn dikh raha tha.
nahin. mainne javab diya.
uski kathor nazren mujh par jami rahin. achanak mera haath apne chehre ki or gaya, wo pasine mein bhiga hua tha. is tahkhane mein in sardiyon ke beech mein hava ke jhonkon ke bavjud mujhe pasina aa raha tha. mainne apne balon par haath phera, jo pasine se chipachipe ho gaye the. mainne dekha, meri qamiz bheeg gai thi aur meri tvacha se chipak gai thi. mujhe ek ghante se pasina aa raha tha, par mahsus nahin ho raha tha. wo suar bhi mauqa nahin chuka, usne mere galon par phisalti hui pasine ki bunden dekh li hongi aur socha hoga ki ye bhay ke sharir mein puri tarah sama jane ka lachchhan hai. isse usne garv ka anubhav kiya hoga. meri ichha hui ki khaDa ho jaun aur uske thobDe ko raund Dalun, par isse pahle ki main uthne ki koshish karta, mera ghussa aur sharm jate rahe the aur main phir bench par gir gaya tha, udasin!
gardan ko rumal se ponchhte hue mainne rahat mahsus ki, kyonki main sir se bahte hue pasine ko apni gardan par phisalte hue mahsus kar raha tha, jo mujhe kafi bura lag raha tha, par rumal bhi main kab tak pherta rahta. thoDi hi der mein wo bilkul bheeg gaya, jabki pasina apni raftar se aa hi raha tha. mere chutDon par bhi pasina aa raha tha aur uski nami se meri pant bench se chipak gai thi.
achanak juan ne kaha, to tum doctor ho?
haan! beljiyan ne javab diya.
kya chot lagti hai der. . . tak kasht hota hai?
hunh! kab. . . oh nahin, beljiyan ne pitrivat kaha, bilkul nahin, jaldi hi khatm ho jata hai. usne is tarah kaha, jaise kisi gerahak ko santusht kar raha ho.
par main. . . log kahte the ki. . . kai baar do baar goli chalani paD jati hai.
kabhi kabhi, beljiyan ne gardan hilate hue kaha, lekin aisa tabhi karna paDta hai, jab pahli goli kisi ghatak jagah par nahin lagti.
phir to unhen rifle dubara bharkar phir se nishana sadhana paDta hoga. . . wo kuch der kuch sochta hua ruka, phir baDe nirih svar mein bola, “ismen to kafi der lag jati hogi?
uske chehre par aane vale kasht ka bhayanak Dar chha gaya tha, wo sirf maut ke bare mein soch raha tha. ye uski umr ka kasur tha. mainne kabhi is bare mein nahin socha, pasina aane ka karan is kasht ka Dar bilkul nahin tha.
main khaDa hua aur dhire dhire chalta hua koyle ke chure ke Dher tak gaya. tom uchhalkar khaDa ho gaya aur meri or ghrinaa se dekhne laga. mere juton ki charamrahat ke karan wo kheej utha tha. kahin mera chehra bhi to uske chehre ki tarah jaD nahin ho gaya tha! wo bhi to pasine pasine ho raha tha. akash nirmal tha, par is andhere kone mein zara bhi parkash nahin aa pa raha tha. upar ke ujle kamre ko dekhne ke liye gardan uchkana hi ekmaatr tariqa tha. par is samay wo vaisa nahin tha, jaise raton mein dikhta tha. apne ashram ke kamre mein se to akash ka ek baDa sa tukDa dikhta tha aur din ke har ghante ye alag alag dikhta tha. subah jab akash sakht hota, halke nile rang ka, tab mujhe atlantic ke sagar taton ki yaad aati thi. duphar mein mujhe sevile ke madiralay ki yaad aane lagti thi, jahan mainne manjanika pi thi aur saath mein gomans ke dhimi anch mein pake katle aur bhuni hui enkobi machhli khai thi. duphar baad mere baithne ki jagah par chhaya aa jati thi to mujhe bailon ki laDai ka akhaDa yaad aa jata, jismen aadhe mein dhoop aur aadhe mein chhaya aa gai ho. akash mein is tarah se puri duniya ko pratibimbit dekhana vaqii bahut kashtakar hai. par ab main akash ko utna hi dekhta hoon, jitna main chahta hoon, aur ye mere bhitar kisi bhi prakar ki uttejna paida nahin karta. ye mujhe zyada achchha lagta hai. main vapas aakar tom ke paas baith gaya. is prakar ek lamba samay beet gaya.
tom halki avaz mein kahne laga. use sirf kahna tha, bina is khyaal ke ki wo khu apne ko bhi nahin pahchan pa raha tha. main samjha ki wo mujhse baat kar raha tha, par wo meri or zara bhi nahin dekh raha tha. beshak wo mujhe is roop mein dekhne se Dar raha tha. pila paDa hua pasine pasine. hum donon ki haalat ek si thi, hum jaise darpan mein ek dusre ke pratibimb se bhi badtar ho gaye the.
usne us beljiyan ki or dekha, jo jivit tha.
“tum kya samajh rahe ho? usne kaha, “meri samajh mein to kuch bhi nahin aa raha hai.
main bhi dhimi avaz mein kahne laga tha. mainne beljiyan ki or dekha, kyon? kya baat hai?
“main samajh nahin pa raha hoon ki hamein kya hota ja raha hai?
tom mein se ek vichitr si gandh aane lagi thi. mujhe laga ki main gandh ke prati pahle se adhik sanvedanshil hota ja raha hoon. main muskraya, thoDi der mein sab kuch samajh jaoge.
“kuchh bhi aspasht nahin hai, usne Dhithai se kaha, main himmat nahin harna chahta, par kam se kam mujhe ye to bata do. . . suno, ve hamein baramde mein le jayenge. theek hai. wo hamare samne khaDe ho jayenge. kitne?
“mujhe nahin malum. paanch ya aath. zyada to nahin honge.
theek hai. aath log honge. ek adami chikhega, nishana lagao aur main dekhunga ki aath raiflen mujhe taak rahi hain. main sochne lagunga ki main is divar ke bhitar kaise ghus jaun. main peeth se divar par zor lagaunga. . . apni puri taqat ke saath, par divar ek duasvapn ki tarah achal rahegi. main in sabki kalpana kar sakta hoon. kya tum samajh sakte ho ki kitni achchhi tarah se main in sabki kalpana kar pa raha hoon!
theek hai, theek hai! mainne kaha, main bhi in sabki kalpana kar sakta hoon.
chot to bahut lagegi. jante ho, ve ankhon aur munh par nishana sadhenge, jisse tumhara chehra bigaD jaye apni avaz mein hiqarat bharte hue wo kah raha tha, main un ghavon ko abhi se mahsus kar sakta hoon. mere sir aur gardan par pichhle ek ghante se dard ho raha hai. bahut tez. kal subah bhi mujhe aisa hi mahsus hoga. aur phir?
main achchhi tarah samajh raha tha ki uska matlab kya hai, par main aisi koi harkat nahin karna chahta tha, jisse lage ki main samajh raha hoon. dard mujhe bhi mahsus ho raha tha. pura sharir dard kar raha tha, jaise pure sharir par chhoti chhoti angin kharonchen lagi hon. mujhe ye asamany lag raha tha, par uski tarah main bhi ise koi mahattv nahin de raha tha.
wo khu se hi baten karne laga tha. wo lagatar beljiyan ki or dekhe ja raha tha, beljiyan uski baat ko sunta lag nahin raha tha. mujhe pata tha ki wo kya karne ke liye aaya tha. uski ruchi is baat mein bilkul nahin thi ki hum soch kya rahe hain. wo hamare shariron ko dekhne ke liye aaya tha, ve sharir jo jivit hote hue bhi traas se mare ja rahe hain.
bilkul khvab jaisa, tom kah raha tha, tum jo bhi sochna chahte ho, uska prabhav hamesha hi aisa hota hai ki jo bhi tum soch rahe ho, sab theek hoga, par phir tumhari pakaD se chhoot jata hai aur dhire dhire lupt ho jata hai. main khu se kahta hoon ki baad mein kuch nahin hoga. par main khu hi nahin samajh pata ki iska matlab kya hai? kabhi to lagbhag. . . aur phir ye dhundhla jata hai aur main dard, goliyon aur visphoton ke bare mein sochne lagta hoon. qas se, main bhautikvadi hoon, main parvana nahin hoon, koi baat hai zarur. main apni laash ko dekhta hoon, ye kashtakar to nahin hai, par main wo vekti hoon jo khu apni ankhon se ye dekhta hai. mujhe sochna hai. . . sochna hai ki iske baad main kuch bhi nahin dekh paunga, jabki baqi duniya sab kuch dekhti rahegi. hum ye sochne ke liye to nahin hain pablo. yaqin karo, main puri raat kisi ke intzaar mein ruka raha hoon, par yahan wo baat nahin hain, ye hamare pichhe bhi phailti rahegi pablo aur hum iske liye taiyar nahin rah payenge.
“chup ho jao, mainne kaha, kya tum chahte ho ki main kisi padari ko bulaun?
usne koi javab nahin diya. main jaan gaya tha ki wo kisi paighambar ki tarah lagna chahta tha. mujhe pablo kahkar pukarte samay uska svar utaar chaDhav se rahit hota tha. mujhe ye pasand nahin tha. par lagta hai, sabhi purush isi tarah ke hote hain. mujhe halka sa abhas hua, jaise us par se peshab ki gandh aa rahi thi. shuru se hi mujhe tom ke prati koi vishesh sahanubhuti nahin rahi aur ye ek saath marne ki vajah se hi ho, iska bhi koi karan meri samajh mein nahin aa raha tha. dusron ke saath aur baat ho sakti hai, masalan remon gris ke saath. par tom aur juan ke beech main khu ko akela mahsus kar raha tha, phir bhi mujhe zyada bura nahin lag raha tha. remon saath hota to zyada bura lagta. par us samay meri sthiti kam kashtakar nahin thi, par main khu bhi to sukh ki sthiti nahin chahta tha.
wo apne shabdon ko anyamnaskta se chabata raha. nishchit roop se wo isiliye bol raha tha, taki hum soch na saken. usmen se praustet granthi ke kisi purane mariz ki tarah peshab ki gandh aa rahi thi. main uski baat se sahmat hoon, main bhi vahi sab kah sakta tha jo wo kah raha tha. marna koi svabhavik kriya nahin hai. aur chunki main bhi marne ja raha tha, isliye mujhe kuch bhi svabhavik nahin lag raha tha. na ye koyle ke chure ka Dher, na bench, na peDon ka ghinauna chehra. farq sirf itna tha ki tom ki tarah ye sab sochna mujhe pasand nahin tha aur main janta tha ki puri raat ke har kshan is tarah ki chizen sochte rahenge. mainne kanakhiyon se uski or dekha aur pahli baar wo mujhe ek ajnabi sa laga. usne apne chehre par maut oDh rakhi thi. pichhle chaubis ghanton se main tom ke saath hi raha tha. mainne use suna tha, usse baat ki thi, use jana tha aur mainne jana ki hamare beech kuch bhi samany nahin tha. aur ab hum bilkul ek jaise lag rahe the, jaise ve hon, sirf isliye ki hum saath saath marne ja rahe the. tom ne bina meri or dekhe mera haath thaam liya.
pablo, kitne ashchary ki. . kitne ashchary ki baat hai ki sab kuch sachmuch khatm hone ja raha hai.
uske panvon ke beech mein kichaD sa ho gaya tha aur uski pant ke paynchon mein se bunden ris rahi theen.
yah kya hai? usne ghabrate hue puchha.
tum apni pant ke andar peshab kar rahe ho. mainne use bataya.
“yah ghalat hai, wo bhinnaya tha, main peshab kar raha hoon? mujhe aisa kuch bhi mahsus nahin ho raha hai.
beljiyan hamare paas chala aaya. kritrim chinta jatate hue usne puchha, “tumhari tabiyat to theek hai n?
tom ne koi javab nahin diya. beljiyan ne us kichaDanuma cheez ko dekha aur kuch bola nahin.
mujhe nahin malum ye kya hai, tom ne karun svar mein kaha, main Dar nahin raha hoon. qas se, main Dar nahin raha hoon.
beljiyan phir chup raha. tom utha aur peshab karne ke liye kone mein chala gaya. aage ke button band karta hua wo vapas aaya aur bina kuch kahe baith gaya. beljiyan kuch not kar raha tha.
hum tinon ne uski taraf dekha, kyonki wo jivit tha, wo jivit adami ki tarah harkaten kar raha tha, wo jivit logon ki tarah zimmedari mahsus kar raha tha. wo is tahkhane ki sardi mein usi tarah kaanp raha tha, jaise koi bhi jivit adami kaanp sakta hai. uske paas ek farman bardar, khaya piya sharir tha. shesh hum tinon log us jaisa zara bhi mahsus nahin kar rahe the. mainne panvon ke beech mein apni pant ko mahsus karna chaha, par himmat na paDi. mainne beljiyan ki or dekha, wo apni donon tangon par vazan rakhe khaDa tha, apni manspeshiyon ko manchaha hukm de sakta tha, kal ke bare mein soch sakta tha. ek or hum the—tin raktahin chhayayen. hum uski or dekhte aur pret ki tarah paran sokh lete.
ant mein wo nanhen juan ki taraf gaya. wo uski gardan ko chhu raha tha. uske pichhe uska koi vyavasayik uddeshy tha ya wo dayavash kar raha tha, pata nahin. agar wo dayavash kar raha tha to yahi upyukt samay tha.
usne juan ke sir aur gardan par haath phera, laDka chupchap use dekhta raha, phir achanak usne uska haath pakaD liya aur ashchary se dekhne laga. usne apne donon hathon se beljiyan ke haath ko pakDa tha aur ye koi achchha drishya nahin tha ki do patli bhuri chimatiyon ne us mote laal haath ko thama hua tha. mainne anuman laga liya tha ki kya hone ja raha tha. tom ne bhi zarur anuman laga liya hoga, par beljiyan ne is or zara bhi dhyaan na diya. wo pitrivat muskraya. ek kshan baad wo laDka us mote laal haath ko apne munh tak laya aur use katne ki koshish ki. beljiyan ne jhatke se apna haath khincha aur laDkhaData hua divar se ja takraya. ek kshan ke liye wo ghabra gaya, par achanak wo samajh gaya ki hum uski tarah ke adami nahin hain. wo thahake lagane laga. is par ek guard uchhal gaya. dusra so raha tha, uski khuli hui ankhen sapat theen.
main aram aur uttejna, donon ek saath mahsus kar raha tha. jo kuch subah hoga, ya maut ke bare mein main ab kuch nahin sochna chahta tha. iska koi arth nahin tha. ismen shabd the aur tha khalipan. par jaise hi main kuch aur sochne ki koshish karta, mujhe apne samne nishana sadhe rifle ki nalen dikhai dene lagtin. apne is mrityudanD ko mainne bees baar bhoga. ek baar to mujhe laga, ye theek hi hai. mujhe kuch der ke liye neend bhi aa gai. ve mujhe divar ki or ghasitte hue le ja rahe the aur main bharsak virodh kar raha tha. main daya ki bheekh maang raha tha. main jhatke ke saath jaag gaya aur mainne beljiyan ki or dekha. main bahut Dara hua tha. main neend mein zarur chikha hounga. par wo apni munchhen umeth raha tha. usne is or dhyaan nahin diya. main samajhta hoon ki agar main chahta to kuch der so sakta tha. main pichhle 48 ghanton se jaag raha hoon. ye mera antim samay tha.
par main apne jivan ke antim do ghante khona nahin chahta tha. ve subah ko aakar mujhe jagayenge aur main unke pichhe chal paDunga, uninda sa. aur phir oph. . . karta hua tarrakar khatm ho jaunga. main aisa nahin chahta. main kisi janvar ki tarah nahin marna chahta. main samajhna chahta hoon. phir mujhe khvab dekhne se bhi Dar lagne laga. main uth khaDa hua aur idhar udhar tahalne laga. apne vicharon ko badalne ke liye main apne pichhle jivan ke bare mein sochne laga. yadon ka ek jhunD gaDDmaDD sa mere upar aa jhapta. achchhi yaden bhi theen aur buri bhi. kam se kam ab tak to main unhen usi roop mein samajhta tha. kuch chehre the, kuch ghatnayen theen. apne chacha ka chehra, remon gris ka chehra, mujhe apna pura jivan yaad aya—kis tarah 1926 mein teen mahine main bilkul bekar raha. kaisi bhukhamri mainne jheli hai! mujhe yaad aaya ki ek raat mainne greneDa ke ek bench par bitai thi. teen din se mainne kuch nahin khaya tha. mujhe ghussa aa raha tha, main marna nahin chahta tha. mujhe hansi aa gai. kis tarah pagal hokar main khushiyon ke pichhe, aurton ke pichhe, azadi ke pichhe dauD raha tha. kyon? main spen ko svatantr dekhana chahta tha. main arajaktavadi andolan mein shamil ho gaya. mainne janasbhaon mein bhashan diye. main har cheez ko aise gambhirta se leta raha, jaise main amar hoon.
us kshan mujhe laga, jaise pura jivan mere samne hai aur mainne socha, yah ab sab ek ghrinait jhooth hai. iska kuch bhi mooly nahin hai, kyonki ye khatm ho gaya. mujhe ashchary ho raha tha ki kis tarah main chal sakta tha, laDkiyon ke saath hans sakta tha. agar main sochta ki main is tarah mar jaunga to main apni chhoti ungli ko zara bhi na hila pata. mera jivan mere samne ek thaile ki tarah band ho gaya tha, jiske bhitar ki har cheez asmapt thi. main khu se kahna chahta tha ki ye ek khubsurat jivan hai, par apna ye nirnay main khu tak nahin pahuncha paya. ye to maatr ek khaka tha, mera pura jivan to nakli amarta ko gaDhne mein hi bita. main kuch bhi to samajh nahin paya tha. mainne kuch socha nahin, bahut kuch tha, jo main kho sakta tha. manjalin ka svaad, kadin ke nikat chhoti si khaDi mein garmiyon ka snaan, par mirtyu sare mayajal se ubaar lai thi.
beljiyan ko achanak ek achchha vichar soojh aaya. hamse kahne laga, dosto, agar sainik prashasan ne anumti di to main tumhare liye ek kaam kar sakta hoon. main tumhara antim sandesh, smarika ke roop mein tumhare priy vyaktiyon tak pahuncha dunga.
tom baDabDaya, mera koi nahin hai.
mainne kuch nahin kaha. tom ek kshan chup raha, phir utsukta se meri or dekhne laga. ‘‘konka tak pahunchane ke liye bhi tumhare paas koi baat nahin hai?
nahin.
aisi komal sahanubhuti se mujhe nafar thi. ghalati meri hi thi, mainne hi pichhli raat konka ke bare mein bataya. mujhe apne par niyantran rakhna chahiye tha. qarib ek saal main uske saath raha tha. kal raat mainne apni kuhni moDkar usmen apna chehra chhipa liya tha, taki use kam se kam paanch minat to dekh sakun. isiliye mainne uske bare mein baat bhi ki thi. par ab mere man mein usse milne ki koi ichha shesh nahin rah gai thi. mere paas usse kahne ke liye bhi kuch nahin rah gaya tha. ab to use banhon mein lene ki bhi ichha mujhmen shesh na rah gai thi. mere sharir ne mujhmen atank bhar diya tha, kyonki ye pila paD gaya tha aur pasine pasine ho gaya tha aur main ye bhi nishchaypurvak nahin kah sakta tha ki uske sharir ne mujhmen ye atank nahin bhara tha. konka ko jaise hi pata chalega ki main mar gaya hoon, wo bilakh uthegi. uske baad ke mahinon mein jivan uske liye besvad ho jayega. par main to marne hi ja raha hoon. mainne uski narm, sundar ankhon ko yaad kiya. jab wo meri or dekhti to uski ankhon mein se nikalkar kuch meri ankhon mein aa samata, par main janta tha ki ab ye kuch nahin hai. agar ab wo meri or dekhe to wo nazar usi ki ankhon mein thahri rahegi, mujh tak nahin pahunchegi. main akela tha.
tom bhi akela tha, par is tarah nahin. tangon ko ek dusre mein phansaye wo halki muskan liye bench ki or takatki lagaye tha. wo mugdh sa nazar aa raha tha. usne haath baDhakar savadhani se lakDi ko chhu liya, jaise use Dar ho ki koi cheez toot jayegi, phir jhatke se apna haath vapas kheench liya aur tharthara utha. agar main tom ki jagah hota to aise mugdh hokar bench ko kabhi na chhuta, ye atishay murkhata thi. mainne dekha ki chizen baDi majahiya hone lagi theen. mere liye bench, lainp, koyle ke chure ke Dher ko dekhana hi kafi tha. ye anubhav karne ke liye ki main marne ja raha hoon. svabhavik hai ki main maut ke bare mein spashttah nahin soch pa raha tha, par sarvatr ye zarur deekh raha tha ki chizen pichhe hatkar mujhse ek duri bana rahi hain. unhin logon ki tarah, jo marte hue adami ke bistar ke paas baithe chupchap baat karte hain. tom ne us bench par apni maut ko hi to chhua tha.
meri haalat ye thi ki agar koi mere paas aakar kahta ki main ghar ja sakta hoon, unhonne pura jivan jine ke liye mujhe de diya hai, tab bhi main bhavashuny hi rahta. apne amar hone ka bhram jab ek baar toot jata hai to phir kuch ghanton ke ya kuch salon ke intzaar mein farq hi kya rah jata hai! meri sari nishthayen khatm ho gai theen aur main shaant tha, par ye ek bhayanak shanti thi—jiska karan tha mera sharir; mera sharir kyonki isi ki ankhon se to mainne dekha tha, isi ke kanon se suna tha. par ab ye main nahin tha. ye khu hi pasine pasine ho raha tha. kaanp raha tha aur meri iske saath koi pahchan shesh nahin rah gai thi. ye janne ke liye ki kya ho raha hai, mujhe ise chhuna, iski or dekhana paDta tha, jaise ye kisi aur ka sharir ho. kai baar ab bhi mujhe aisa lagta, jaise main Duba ja raha hoon, gir raha hoon. theek vaise hi jaise aap satah par khaDe hokar sir ke bal Dupki maar rahe hon. main apne dil ki dhaDkanon ko saaf mahsus kar raha tha, par ye baten mujhe ashvast nahin kar pa rahi theen. mere sharir se jo kuch aa raha tha, wo virup tha. adhiktar samay main chup raha aur apne vazan ka kam hona, apne saath ek ghinauni upasthiti ko hi mahsus karta raha. mujhe lag raha tha, jaise kisi vishal kiDe ke saath mujhe baandh diya gaya hai. ek baar mainne apni pant ko mahsus kiya aur phir laga ki wo bhigi hui hai. malum nahin, ye pasina tha ya peshab, par ehtiyatan main koyle ke Dher ke paas peshab karne ke liye chala gaya.
beljiyan ne zeb se ghaDi nikalkar dekhi, phir kaha, saDhe teen baj gaye hain.
harami! iske pichhe zarur uski koi mansha thi. tom uchhal paDa. ye to hamne dhyaan hi nahin diya tha samay tezi se bhaga ja raha hai. raat ne hamko ek akarhin, dhundhale shikar ki tarah gher liya tha, mujhe pata bhi nahin chal paya ki ye prakriya shuru kab hui.
nanha juan rone laga tha. wo apne hathon ko phailate hue daya ki bheekh maang raha tha, main marna nahin chahta, main marna nahin chahta!
hava mein apne hathon ko phailata hua wo tahkhane ke ek kone se dusre kone tak gaya aur phir chatai par girkar sisakne laga. tom shokakul nazron se use dekhta raha. use santvana dene ka koi upakram wo nahin kar raha tha. wo is layaq tha bhi nahin, par laDka kuch zyada hi shor kar raha tha jabki us par iska itna gahra prabhav nahin paDa tha. wo us bimar adami ki tarah tha, jo bukhar ki piDa mein apne ko bachane ki koshish kar raha ho. ye baat tab aur gambhir ho jati hai jab bukhar ho hi nahin.
wo rone laga tha. main saaf dekh raha tha ki wo apne prati karunaik ho raha tha, maut ke bare mein wo zara bhi nahin soch raha tha. ek kshan ke liye mujhe khu par rone ki ichha hui. apne par daya aane lagi. lekin hua uska ulta. mainne us laDke ki or dekha, uske sisakte chehre ne mujhe aur bhi amanaviy bana diya tha. ab mujhe na to kisi aur par daya aa rahi thi, na khu par. mainne khu se hi kaha, “main safai se marna chahta hoon.
tom uthkar khaDa ho gaya tha aur chalta hua upar roshandan ke theek niche khaDa hokar upar ki roshni ko dekhne laga tha. main safai se marne ka driDh nishchay kar chuka tha aur usi ke bare mein soch raha tha. par jab se doctor ne samay bataya tha, tabhi se mujhe lag raha tha ki jaise samay uDta ja raha hai, ek ek boond nichuDta hua.
abhi andhera hi tha ki mujhe tom ki avaz sunai di, kya tumhein unki avaz sunai de rahi hai?
haan.
baramde mein ve log march kar rahe the.
“ve kar kya rahe hain? ve hamein andhere mein to nahin maar sakte?
kuch der ke liye chuppi chha gai. mainne tom se kaha, ab to din hai.
paiDro jambhai leta hua uth khaDa hua tha aur lainp jalane laga tha. usne apne sathi se kaha, kitni bhayankar sardi hai!
bhura ujala tahkhane mein phail gaya tha. kafi door se hamein goliyan chalne ki avazen sunai deen.
yah shuruat hai, tom ne kaha, yah kaam ve pichhe ke angan mein kar rahe honge.
tom ne doctor se ek cigarette mangi. mujhe uski zarurat nahin thi. mujhe sharab ya cigarette ki zara bhi zarurat nahin thi. us kshan ke baad se goliyan chalne ki avaz lagatar sunai deti rahi thi.
“jante ho, kya ho raha hai? tom ne puchha.
wo kuch aur kahna chahta tha, par darvaze ki or dekhta hua chup hi raha. darvaza khula aur ek laiphtinent chaar sipahiyon ko lekar andar aa gaya. tom ke haath se cigarette chhoot gai.
stinbok?
tom chup raha, paiDro ne uski or sanket kiya.
juan mikhal!
chatai par hai.
khaDe ho jao. laiphtinent ne kaha.
juan zara bhi na hila. do sipahiyon ne baghal mein haath dekar use khaDa kar diya. par jaise hi unhonne chhoDa, wo phir gir gaya.
yah koi pahla adami to hai nahin, jo ghabra gaya ho, laiphtinent ne kaha, “tum do log use uthakar le chalo. vahan sab theek ho jayega.
wo tom ki or muDa, “ao chalen.
tom do sipahiyon ke beech mein chalne laga. unke pichhe do log laDke ko uthaye chal rahe the. ek ne baghal se pakaDkar utha rakha tha aur dusre ne tangen, wo behosh nahin tha. uski ankhen khuli theen aur ansu galon par se hote bah rahe the. jab main bhi bahar nikalne laga to laiphtinent ne mujhe rok diya.
tum ibbita ho?”
haan
tum yahin ruko, tumhein lene ke liye hum baad mein ayenge.
ve chale gaye. beljiyan aur donon guard bhi chale gaye. main akela rah gaya. main samajh hi nahin pa raha tha ki mera ve kya karenge! agar ve mujhe bhi abhi le jate to achchha hota. barabar antral ke saath goliyan chalne ki avaz mujhe sunai de rahi thi aur har avaz se mujhe dhakka lag raha tha. main chikhna chahta tha. apne balon ko noch lena chahta tha. par mainne sirf apne daant kichakichaye aur zebon mein haath Daal diye.
ek ghante baad ve log aaye aur mujhe pahli manjil par ek chhote se kamre mein le gaye. vahan cigar ki gandh phaili hui thi aur damghontu garmi thi. aramkursiyon par baithe do ऑफ़isar dhuan chhoD rahe the. kaghaz unke ghutnon par rakhe the.
tum ibbita ho?”
haan
ramon gris kahan hai?
mujhe nahin malum.
mujhse saval puchhne vala vekti nata aur mota tha. chashme ke pichhe uski ankhen kafi kathor lag rahi theen. usne mujhse kaha, idhar aao.
main uske paas chala gaya. wo uth khaDa hua. mera haath pakaD liya aur mujhe aisi nazar se ghurne laga, jaise mujhe zamin mein gaaD dega. usi kshan usne apni puri taqat se mere pet par ek ghunsa jaD diya. ye mujhe chot pahunchane ke liye nahin tha, ye to ek khel tha. wo mujh par qabu pa lena chahta tha. phir wo khaDa khaDa apni durgandhyukt saans mere chehre par chhoDta raha. ek kshan tak hum usi tarah khaDe rahe, meri ichha hansne ki hone lagi thi. jo adami marne vala hai, use Darana kafi mushkil kaam hai. ye latke vahan kaam nahin dete. usne mujhe ek zor ka dhakka diya aur phir baith gaya, kahne laga, “uske badle tumhari jaan daanv par hai. agar tum bata do ki wo kahan hai to tumhari jaan bach sakti hai.
ghuDasvar to apne chabuk phatkarte ghoom rahe the aur jute saaf karne vale mare ja rahe the. ve apne muchDe hue kaghzon mein naam DhoonDh rahe the, ve ya to unhen jel mein Daal rahe the ya unka daman kar rahe the. ve spen ke bhavishya tatha any vishyon par baat kar rahe the. unki gatividhiyan mujhe uljhi hui aur vidrup lag rahi theen. main apne ko unki jagah rakh hi nahin pa raha tha. mere vichar se ve vikshaipt the.
wo nata abhi tak apne juton ko ragaDta aur chabuk phatkarta mujhe hi ghoor raha tha. uski sari mudrayen use ek kroor janvar ka roop de rahi theen.
to? kuch aaya samajh men?
“mujhe nahin malum ki gris kahan hai, mainne javab diya, main to samajhta tha ki wo meDriD mein hi hoga.
dusre ऑफ़isar ne apna pila haath alsaye Dhang se upar uthaya. ye alsayapan bhi suvicharit tha. mujhe unki sari sankirn yojnaon ka pata chal gaya tha aur ye dekhkar main hakka bakka rah gaya tha ki ye log is tarah se maza lete hain.
ham tumhein sochne ke liye pandrah minat dete hain, usne dhire se kaha, ise dhobighar le jao aur pandrah minat baad vapas le aana. agar ye phir bhi mana karega to tatkshan goli maar di jayegi.
unhen pata tha ki ve kya kar rahe hain. main raat bhar intzaar hi to kar raha tha. phir unhonne ek ghanta aur mujhe tahkhane mein intzaar karvaya, jabki tom aur juan ko goli mari ja chuki thi. aur ab ye mujhe dhobikhane mein band kar rahe hain. zarur unhonne apna ye khel raat se pahle hi taiyar kar liya hoga. ve jante the ki aise mein snayu javab de dete hain aur unhen ummid thi ki ve mujhe dhar lenge.
par ve bilkul ghalat soch rahe the. dhobighar mein main stool par baith gaya, kyonki main bahut kamzori mahsus kar raha tha. ab main sochne laga tha. apni haalat ke bare mein nahin. mujhe pata tha ki gris kahan hai. wo shahr se chaar kilomitar door apne chachere bhai ke ghar par chhipa hua tha. main ye bhi janta tha ki ab ve mujhe taurchar nahin karenge (par mujhe yaad nahin aa raha tha, ve aisa karenge). sab kuch suvyavasthit tha, sunishchit tha par mainne ismen koi dilchaspi nahin li. main sirf apne vyvahar ke karnon ko samajhna chahta tha. main gris ka pata dene ke bajay marna adhik pasand kar raha hoon. kyon? ramon gris ke prati ab mujhmen zara bhi lagav nahin tha. usse meri dosti bhor se pahle usi samay mar gai thi, jaise konka ke prati pyaar aur meri khu jine ki ichhaa! beshak main uska aadar karta tha. wo bahut sakht adami tha. par uske badle mere marne ka ye karan nahin tha. uska jivan mere jivan se adhik mulyavan nahin tha. jivan amuly hota hai. unhen to ek adami ko divar ke sahare khaDa karna hai aur goli markar uski hattya karni hai. wo adami main hoon, gris hai ya koi aur, isse koi farq nahin paDta.
main janta tha ki spen aur arajakta, kuch bhi mahattvapurn nahin hai. jab tak main hoon, mujhe apni chamDi bachani chahiye aur gris ka pata de dena chahiye aur main is sabse inkaar kar raha hoon.
mujhe laga, ye bahut hasyaspad hai, duragrah hai. mainne socha, main ziddi ho gaya hoon! aur ek baDi vichitr si prasannata mere sharir mein bhar gai.
ve aaye aur mujhe un do aufisron ke paas le gaye. ek chuha mere panvon ke beech mein se dauDta hua nikal gaya. is par mujhe hansi aa gai. mainne unmen se ek rakhvale se puchha, kya tumne chuhe ko dekha?
usne koi javab nahin diya, wo kafi saumy tha aur gambhir bana raha. main hansna chahta tha, par mainne apne ko roke rakha, kyonki agar main hansne laga to phir ruk nahin paunga. us rakhvale ki munchhen theen. mainne usse phir puchha, tumhen apni munchhen tarash Dalni chahiye, bevaquf! mujhe ye kalpana baDi hasyaspad lagi. usne bina kuch bole ek thokar mujhe jama di aur main chup ho gaya.
“theek hai, us mote ऑफ़isar ne kaha, “kya tumne is bare mein soch liya hai?
mainne baDi utsukta se unki or dekha, jaise ve kisi durbal jati ke jeev the. mainne unse kaha, “main janta hoon, wo kahan hai. wo qabristan mein chhipa hua hai. wo ya to kisi क़br mein chhipa baitha hoga ya क़br khodne vale ki kothari mein.
phir to ek tamasha khaDa ho gaya. main chahta tha ki ve uth khaDe hon, apni petiyan kasen aur vyastata se order dene lagen.
ve ekdam uchhalkar khaDe ho gaye, “chalo bhole, tum lephtinent lole se pandrah adami apne saath le lo. chhota mota adami kah raha tha, “tum agar sahi kah rahe ho to main tumhein chhoD dunga. par tum agar hamein bevaquf banane ki soch rahe ho to uska khamiyaza bhi tumhein bhugatna paDega.
khatkhatahat ke saath ve vahan se chale gaye aur mujhe un rakhvalon ki chaukasi mein chhoD gaye. vahan jo tamasha hoga, use soch sochkar mujhe hansi aa rahi thi. main kalpana karne laga ki kaise ve क़br ke pattharon ko ukhaDenge, ek ek kothariyon ke darvazon ko kholenge. main puri sthiti ko aise dekhne laga, jaise main koi aur hoon aur ye qaidi ek hathi nayak ki bhumika mein hai. aur ye munchhonvale ghrinait rakhvale tatha unke vardidhari log qabron ke upar se bhaag rahe hain. kitna mazedar hai!
aadhe ghante baad wo mota nata akela vapas laut aaya. mera khyaal tha ki wo mujhe goli maar dene ka hukm dene ke liye aaya tha. aur log abhi qabristan mein hi honge.
ऑफ़isar ne meri or dekha. wo zara bhi speni nahin lag raha tha. is baDe angan mein dusre logon ke saath raho, usne kaha, sainik abhiyanon ke baad nagarik adalat hi iska faisla karegi.
jo baat main samjha, uski to mainne kalpana bhi nahin ki thi. mainne puchha, to kya. . . mujhe goli nahin mari jayegi?
meri samajh mein ab bhi kuch nahin aaya tha. mainne puchha, par kyon. . . ?
usne bina kuch bole apne kandhe jhatke aur sipahi mujhe apne saath le gaye.
shaam ko unhonne qarib das nae qaidiyon ko angan mein thoons diya. mainne garsiya nanvarD ko pahchan liya. usne kaha, tumhara bhi durbhagy hai! main to soch raha tha ki tum ab tak khatm kar diye gaye hoge.
unhonne to mujhe maut ki saza de di thi, par phir pata nahin kyon vichar badal diya. mainne kaha.
unhonne mujhe theek do baje giraftar kiya. garsiya ne bataya.
pata nahin kyon, ve un sabhi logon ko giraftar kar rahe hain jinhen apni giraftari ka karan bhi pata nahin hota, usne kaha aur phir avaz halki karke kaha, unhonne gris ko bhi giraftar kar liya hai.
main kaanp gaya tha, kab?
aaj subah. iske liye wo khu hi zimmedar hai. mangalvar ko apne chachere bhai se uski kaha suni ho gai to wo unke ghar se chala aaya. kai log use chhipane ke liye taiyar the, par pata nahin kyon, wo kisi ka ahsan nahin lena chahta tha. usne kaha, main jakar ibbita ke ghar mein chhipunga. par ibbita ko bhi to unhonne giraftar kar liya hai, isliye main qabristan mein jakar chhipunga.
qabristan men?
haan, kya bevaqufi hai! aaj subah ve vahan pahunch gaye, ye to hona hi tha. unhonne use क़br khodne vale ki kothari mein dhar liya. usne un par goli chalai aur unhen uska pata chal gaya.
qabristan men!
sab kuch ghumne laga tha. main sidha zamin par aa gira. main zor se hansa, par mere munh se cheekh nikli thi.
unhonne hamein ek baDe safed kamre mein dhakel diya tha. meri ankhen chaundhiyane lagi theen, kyonki vahan ka parkash ankhon ko chubh raha tha. tabhi meri nazar ek mez par paDi. uske pichhe chaar adami baithe kaghzon ko dekh rahe the, ve sainik nahin dikh rahe the. qaidiyon ka ek jattha pichhe ki taraf khaDa tha aur hamein unmen shamil hone ke liye pure kamre ko paar karna tha. unmen se kaiyon ko main janta tha aur kuch ajnabi videshi the. jo mere samne the, unke baal bhure the aur sir gol. ve ek jaise lagte the. unmen se chhote qad vala baar baar apni pant ko upar khinchta. wo kafi nervous lag raha tha.
teen ghante beet gaye. mujhe chakkar aa rahe the aur sir bilkul khali sa ho gaya tha. kamra khoob garm tha aur sukhad lag raha tha, kyonki pichhle chaubis ghanton se hum log thanD se kaanp rahe the. guard ek ek karke qaidiyon ko mez tak laye, charon adamiyon ne sabse unke naam aur vyavsay puchhe. adhiktar samay unhonne khaas kuch nahin kiya, bus ek aadh saval idhar udhar puchhte rahe, “barudkhane par hue hamle se tumhara kya sambandh hai? ya nau tarikh ki subah ko tum kahan the aur kya kar rahe the? ve javab bilkul nahin sun rahe the, kam se kam lag to yahi raha tha. ve ek kshan ke liye chupchap sidhe dekhte aur phir kuch likhne lagte. unhonne tom se puchha ki kya wo international brigade mein tha. tom kuch chhipa nahin saka, kyonki uske coat ki zeb mein se kaghaz baramad ho gaye the. unhonne juan se kuch nahin puchha, par uske naam batane ke baad kafi der tak ve likhte rahe the.
mera bhai jose arajaktavadi tha. juan kah raha tha, aap jante hain ki ab wo jivit nahin hai. aap jante hain ki mera sambandh kisi dal se nahin hai, rajaniti se to mujhe kabhi matlab hi nahin raha.
unhonne koi javab nahin diya. juan kahta raha, mainne kuch nahin kiya, main kisi dusre ke kiye ki saza nahin bhugatna chahta.
uske honth kaanp rahe the. ek guard ne use chup karaya aur vahan se hata diya. ab meri bari thi.
“tumhara naam pablo ibbita hai?
haan
us adami ne kaghzon par ek nazar Dali aur phir puchha, emon gris kahan hai?
main nahin janta.
tumne chhah se unnis tarikh tak use apne ghar mein chhipaye rakha tha?
nahin!
ve ek minat tak kuch likhte rahe, phir guard mujhe bahar le aaya. galiyare mein tom aur juan do garDon ke beech mein khaDe mera intzaar kar rahe the. hum saath saath chalne lage. tom ne ek guard se puchha, ab?
darasal hamari kothari aspatal ke tahkhane mein thi. lagatar hava ke jhonke aane ke karan ye bhayanak roop se thanDi thi. hum raat bhar kanpte rahe the aur din mein bhi haalat kuch achchhi nahin thi. pichhle paanch din mainne ek prachin church ki ek kothari mein bitaye the. chunki qaidi bahut adhik the aur jagah kam, isliye jahan bhi jagah mili, hame band kar diya. us kothari ko chhoDne par main khush isliye nahin tha ki vahan thanD bahut thi, balki isliye ki vahan main akela tha. is tahkhane mein main akela nahin tha. juan bilkul chup tha. ek to wo Dara hua tha aur dusre abhi uski bolne ki umr bhi nahin thi. par tom achchhi baat karne vala tha aur achchhi speni janta tha.
is tahkhane mein ek bench aur chaar chataiyan paDi theen. hamein yahan chhoDne ke baad jab ve laut gaye to hum baith gaye aur unke jane ki aahat lene lage. ek lambe kshan ke baad tom ne kaha, unhonne hamein apne shikanje mein kas liya hai.
mera bhi yahi khyaal hai,” mainne kaha, par main nahin samajhta ki is laDke ke saath ve kuch karenge.
iske khilaf unke paas kuch hai bhi nahin, tom ne kaha, sivay iske ki wo ek nagarik sena ke vekti ka bhai hai.
mainne juan ki taraf dekha, laga, jaise usne kuch suna hi nahin tha. tom kah raha tha, tumhen pata hai, ve sargosa mein kya karte hain? ve logon ko saDak par lita dete hain aur unke upar truck chalva dete hain. ek moskovasi ne hamein ye bataya tha. aisa ve barud bachane ke liye karte hain.
lekin ismen petrol to kharch hota hai. mainne kaha.
mujhe tom par ghussa aa raha tha, use ye sab nahin kahna chahiye tha!
“iske baad kuch afsar us saDak par aate hain, wo kah raha tha, “aur is sabka muayna karte hain. unke haath apni zebon mein thunse hote hain aur munh mein cigarette dabi hoti hai. kya tum samajhte ho ki ve taDapte logon ko maar dete honge? nahin, ve unhen chikhne chillane dete hain. ghanton ghanton. wo moskovasi to bata raha tha ki is sabse to use ubkai aane lagi thi.
lekin main nahin samajhta ki ve yahan bhi vahi sab karenge, mainne kaha, jab tak ki unke paas kartuson ki sachmuch hi kami na ho jaye.
is kothari mein parkash chaar roshandanon tatha chhat par bain or se ek vrittakar chhed se aata tha. is chhed mein se upar akash bhi dekha ja sakta tha. is chhed ke jariye tahkhane mein koyala utara jata hai, yon ab is par upar se darvaza laga diya gaya tatha koyala vahin paDa raha. kai baar jab upar ka darvaza band karna bhool jate to ye koyala hava pani se kharab ho jata.
tom kanpne laga tha, ‘‘he bhagvan, main thanDa ho raha hoon, wo baDabDaya, main mara ja raha hoon.
wo uthkar vyayam karne laga. uske sharir ki maroD ke saath hi uske gore balon se bhare sine par se qamiz khul jati. wo peeth ke bal zamin par let gaya tha tatha tangen uthakar cycle si chalane laga tha. uske vishalakay puththe tharthara rahe the. tom kafi bhari aur thulathula tha. mainne socha ki rayfal ki goli uske maans mein itni asani se ghus jayegi, jaise makkhan ke launde mein sangin! agar wo dubla hota to ye baat mere dimagh mein hi na aati.
mujhe bahut zyada thanD to nahin lag rahi thi, haan, itna zarur tha ki mere haath aur kandhe sunn ho gaye the. kai baar achanak kisi cheez ki kami khatakti aur main coat ke liye nazren idhar udhar ghumata, par tabhi yaad aata ki coat to unhonne mujhe diya hi nahin tha. mujhe kafi pareshani ho rahi thi. unhonne hamare kapDe utarvakar apne sainikon ko de diye the aur hamare paas sirf qamizen tatha kirmich ki ve painten chhoD di theen, jinhen aspatal ke mariz garmiyon mein pahna karte the. kuch der baad bhari bhari sansen leta hua tom mere baghal mein aa baitha.
“garmi i?
nahin, par sardi kuch kam hui hai. ”
shaam ke qarib aath baje ek major do phalengistson ke saath aaya. uske haath mein ek kaghaz tha. usne guard se puchha, “in tinon ke naam kya hain?
stenbok, ibbita aur pikhal. guard ne bataya.
major ne chashma ankhon par chaDhaya aur suchi par nazar dauDai, stenbok. . . stenbok. . . haan tumhein maut ki saza di gai hai. kal subah tumhein goli se uDa diya jayega, uski nazar kaghaz par thi, aur baqi donon ko bhi.
yah nahin ho sakta, juan chikha, mujhe nahin!
major ne chakit hokar uski or dekha, tumhara naam kya hai?
juan mikhal. usne bataya.
theek hai, tumhara naam ismen hai, major ne kaha, “tumhen yahi saza di gai hai.
mainne to kuch nahin kiya. juan ke svar mein hatasha thi.
major ne kandhe jhatke aur phir tom aur meri taraf ghoom gaya.
tum baask ho?
hammen se koi bhi baask nahin hai.
wo chiDh sa gaya tha, ve to bata rahe the ki tinon baask hain. khair, main iske pichhe apna samay kharab nahin karunga. to tum logon ko kisi panDit ki zarurat nahin hai?
hamne javab dene ki zarurat nahin samjhi.
vahi bola, kuchh hi der baad ek belgium doctor aa raha hai. wo puri raat tumhare saath rahega. usne ek sainik salam kiya aur vapas muD gaya. ”
“mainne kya kaha tha? tom bola, vahi baat hui.
haan, mainne kaha, lekin is bachche ke saath ye bahut bura hua. “
ye baat mainne shalintavash kahi thi, par mujhe wo laDka bilkul bhi achchha nahin laga tha. uska chehra bahut patla tatha atankit tha, kashton ne uski shakl bigaD di thi. teen din pahle wo ek smart qim ka laDka tha, par ab ek buDhe bhoot ki tarah dikh raha tha aur lagta tha ki agar unhonne use chhoD diya, tab bhi uski javani lautegi nahin. uske prati daya upajna sahj hi tha, par daya se mujhe ghrinaa thi. usne kuch kaha nahin, par wo pila paD gaya tha. uska chehra aur uske haath sabhi pile paD gaye the. wo phir niche baith gaya aur apni gol gol ankhon se zamin ko dekhne laga. tom sahrday tha, usne uske haath pakaDne chahe, par us laDke ne use baDi bedardi se jhatak diya aur chehra latka diya.
use kuch der ke liye akela chhoD do, mainne dhimi avaz mein kaha, tum dekhana, wo rone lagega.
tom ne meri baat maan li, par wo isse khush nahin tha. wo us laDke ko santvana dena chahta tha. isse ye bhi tha ki uska apna samay bhi theek se kat jata aur use apne bare mein sochne ki sudh hi na rahti. main kuch khinn ho gaya tha. mainne maut ke bare mein kabhi nahin socha, kyonki iska koi karan hi nahin tha, par chunki ab karan tha aur maut ke alava sochne ke liye kuch aur tha bhi nahin.
tom phir baat karne laga tha. “achchha, kya tum kisi ko shmshaan pahunchane gaye ho? usne mujhse puchha. mainne koi javab nahin diya. phir wo mujhe batane laga ki august ke shuru se ab tak wo chhah logon ko shmshaan pahuncha chuka hai. use abhi tak halat ka ahsas nahin hua tha. balki main to kahunga ki wo ahsas karna hi nahin chahta tha. mujhe bhi abhi iska theek tarah se ahsas nahin hua tha. jab main goliyon ki baat sochne laga, unki bauchhar ko apne sharir ke andar dhansane ki baat sochne laga to mujhe kafi kasht hua. ye sab asli saval se bahar ki baten hain, par main shaant tha, theek tarah se samajhne ke liye hamare paas puri raat thi. kuch hi der baad tom chup ho gaya tha. mainne kanakhiyon se uski or dekha, uska chehra pila paD gaya tha. mainne khu se kaha, ab shuru hua hai.
lagbhag anghera ho gaya tha. roshandanon se koyle ke Dher par ujaas jhar raha tha. chhat par bane chhed mein se main ek tare ko dekh raha tha. raat zarur nirmal aur barfili hogi.
darvaza khula, do guard aur unke pichhe bhuri vardi pahne ek sunahre balon vala vekti bhitar aaya. usne hamein salam kiya aur bataya, “main doctor hoon, in dukhad ghaDiyon mein apaki sahayata karne ka adhikar mujhe diya gaya hai.
yah tumhari ichha par hai. tumhare antim kshnon ko kam kashtkari banane ke liye main jo kuch kar sakunga, karunga.
“lekin yahan tum kisaliye aaye ho? tumhari zarurat kuch aur logon ko hai, jinse aspatal bhare paDe hain.
mujhe yahan bheja gaya hai, bina kisi ek ki or dekhe usne javab diya, “kya aap log cigarette pina pasand karenge? mere paas cigarette hai aur cigar bhi.
usne angrezi cigarette hamari or baDhai, par hamne lene se inkaar kar diya. mainne uski ankhon mein jhanka, wo jhallaya hua sa lag raha tha. mainne usse kaha, tum yahan aakar hum par koi kripa nahin kar rahe ho. aur phir main tumhein janta hoon. bairekon ke ahate mein mainne tumhein phasiston ke saath dekha tha, usi din jis din mujhe qaid kiya gaya tha.
main abhi aur bhi kuch kahna chahta tha par achanak mujhe kuch ho gaya. us doctor ke vahan hone mein hi meri dilchaspi khatm ho gai. aam taur par main jiski khinchai karne par utar aata hoon, use bakhshta nahin. par us samay meri baat karne ki ichha hi mar gai thi. mainne kandhe uchkaye aur apni ankhen dusri or ghuma leen. kuch hi der baad mainne apni gardan uthai, wo utsukta se meri or dekh raha tha. guard chatai par baithe the. donon garDon mein se ek lamba patla paiDro makkhiyan maar raha tha aur dusra ungh raha tha. uska sir kabhi ek or jhukta to kabhi dusri or.
“andhera ho gaya hai, kya lainp la doon? achanak paiDro ne doctor se poochh liya.
dusre ne gardan hilai, haan. pahle to main use bhondu samajh raha tha, par wo tha nahin. uski nili ankhon ke bhitar jhankne par mujhe laga ki agar uska koi kasur hai, to wo hai uske bhitar kalpnashilta ka abhav. paiDro bahar gaya aur phir ek tel ka lainp utha laya, jise usne bench ke kone par rakh diya. isse ujala to nahin hua, par andhere se to achchha hi tha. pichhli raat to unhonne hamein andhere mein hi rakha tha. kuch der tak to main lainp se chhat par bane hue parkash ke ghere ko hi dekhta raha. main mantramugdh tha. achanak main jaga, parkash ka ghera khatm ho gaya tha aur mujhe lag raha tha, jaise main kisi bhari bojh ke niche dab gaya hoon.
ye mirtyu ka vichar ya bhay nahin tha, iska koi naam nahin tha. mere jabDe jal rahe the aur sir dard kar raha tha.
mainne apne aapko jhakjhora aur apne donon sathiyon ki or dekha. tom ne apna chehra apne hathon mein chhipa rakha tha. mujhe to uski gardan par gori, bhari guddi bhar dikhai de rahi thi. juan ki halat to bahut kharab thi. uska munh khula tha aur nathune kaanp rahe the. doctor uske paas gaya aur unke kandhon par haath rakha, jaise use dilasa de raha ho. par uski ankhen thanDi theen. phir mainne dekha ki doctor ka haath chupchap uski baanh par se sarakta hua uski kalai tak aa gaya. juan ne uski or zara bhi dhyaan na diya. phir usne uski kalaiyon ko apni teen ungliyon mein pakDa aur thoDa apni or kheench liya, saath hi khu bhi thoDa ghumkar meri or peeth kar li. mainne thoDa pichhe jhukkar dekh liya tha ki usne uski kalai ko pakDe pakDe dusre haath se apni zeb se ghaDi nikali aur kuch der ke liye use dekhta raha. ek minat baad usne uska haath chhoD diya aur khu peeth divar par tika di. aur phir achanak jaise use kuch yaad aaya ho, usne jhatke se apni zeb se ek not buk nikali aur us par kuch lainen likhi. “harami, ghusse mein yahi shabd mere dimagh mein aaya, zara aakar wo meri nabz to dekhe, uske saDe thobDe ko theek karne ke liye mera ek ghunsa hi kafi hoga.
wo mere paas aaya to nahin, par mujhe laga, wo meri or dekh raha tha. mainne apni gardan uthai aur uski or javabi drishti Dali. phir yoon hi dikhave ke taur par usne mujhse puchha, tumhen yahan thanD to nahin lag rahi hai? wo thanDa aur vivarn dikh raha tha.
nahin. mainne javab diya.
uski kathor nazren mujh par jami rahin. achanak mera haath apne chehre ki or gaya, wo pasine mein bhiga hua tha. is tahkhane mein in sardiyon ke beech mein hava ke jhonkon ke bavjud mujhe pasina aa raha tha. mainne apne balon par haath phera, jo pasine se chipachipe ho gaye the. mainne dekha, meri qamiz bheeg gai thi aur meri tvacha se chipak gai thi. mujhe ek ghante se pasina aa raha tha, par mahsus nahin ho raha tha. wo suar bhi mauqa nahin chuka, usne mere galon par phisalti hui pasine ki bunden dekh li hongi aur socha hoga ki ye bhay ke sharir mein puri tarah sama jane ka lachchhan hai. isse usne garv ka anubhav kiya hoga. meri ichha hui ki khaDa ho jaun aur uske thobDe ko raund Dalun, par isse pahle ki main uthne ki koshish karta, mera ghussa aur sharm jate rahe the aur main phir bench par gir gaya tha, udasin!
gardan ko rumal se ponchhte hue mainne rahat mahsus ki, kyonki main sir se bahte hue pasine ko apni gardan par phisalte hue mahsus kar raha tha, jo mujhe kafi bura lag raha tha, par rumal bhi main kab tak pherta rahta. thoDi hi der mein wo bilkul bheeg gaya, jabki pasina apni raftar se aa hi raha tha. mere chutDon par bhi pasina aa raha tha aur uski nami se meri pant bench se chipak gai thi.
achanak juan ne kaha, to tum doctor ho?
haan! beljiyan ne javab diya.
kya chot lagti hai der. . . tak kasht hota hai?
hunh! kab. . . oh nahin, beljiyan ne pitrivat kaha, bilkul nahin, jaldi hi khatm ho jata hai. usne is tarah kaha, jaise kisi gerahak ko santusht kar raha ho.
par main. . . log kahte the ki. . . kai baar do baar goli chalani paD jati hai.
kabhi kabhi, beljiyan ne gardan hilate hue kaha, lekin aisa tabhi karna paDta hai, jab pahli goli kisi ghatak jagah par nahin lagti.
phir to unhen rifle dubara bharkar phir se nishana sadhana paDta hoga. . . wo kuch der kuch sochta hua ruka, phir baDe nirih svar mein bola, “ismen to kafi der lag jati hogi?
uske chehre par aane vale kasht ka bhayanak Dar chha gaya tha, wo sirf maut ke bare mein soch raha tha. ye uski umr ka kasur tha. mainne kabhi is bare mein nahin socha, pasina aane ka karan is kasht ka Dar bilkul nahin tha.
main khaDa hua aur dhire dhire chalta hua koyle ke chure ke Dher tak gaya. tom uchhalkar khaDa ho gaya aur meri or ghrinaa se dekhne laga. mere juton ki charamrahat ke karan wo kheej utha tha. kahin mera chehra bhi to uske chehre ki tarah jaD nahin ho gaya tha! wo bhi to pasine pasine ho raha tha. akash nirmal tha, par is andhere kone mein zara bhi parkash nahin aa pa raha tha. upar ke ujle kamre ko dekhne ke liye gardan uchkana hi ekmaatr tariqa tha. par is samay wo vaisa nahin tha, jaise raton mein dikhta tha. apne ashram ke kamre mein se to akash ka ek baDa sa tukDa dikhta tha aur din ke har ghante ye alag alag dikhta tha. subah jab akash sakht hota, halke nile rang ka, tab mujhe atlantic ke sagar taton ki yaad aati thi. duphar mein mujhe sevile ke madiralay ki yaad aane lagti thi, jahan mainne manjanika pi thi aur saath mein gomans ke dhimi anch mein pake katle aur bhuni hui enkobi machhli khai thi. duphar baad mere baithne ki jagah par chhaya aa jati thi to mujhe bailon ki laDai ka akhaDa yaad aa jata, jismen aadhe mein dhoop aur aadhe mein chhaya aa gai ho. akash mein is tarah se puri duniya ko pratibimbit dekhana vaqii bahut kashtakar hai. par ab main akash ko utna hi dekhta hoon, jitna main chahta hoon, aur ye mere bhitar kisi bhi prakar ki uttejna paida nahin karta. ye mujhe zyada achchha lagta hai. main vapas aakar tom ke paas baith gaya. is prakar ek lamba samay beet gaya.
tom halki avaz mein kahne laga. use sirf kahna tha, bina is khyaal ke ki wo khu apne ko bhi nahin pahchan pa raha tha. main samjha ki wo mujhse baat kar raha tha, par wo meri or zara bhi nahin dekh raha tha. beshak wo mujhe is roop mein dekhne se Dar raha tha. pila paDa hua pasine pasine. hum donon ki haalat ek si thi, hum jaise darpan mein ek dusre ke pratibimb se bhi badtar ho gaye the.
usne us beljiyan ki or dekha, jo jivit tha.
“tum kya samajh rahe ho? usne kaha, “meri samajh mein to kuch bhi nahin aa raha hai.
main bhi dhimi avaz mein kahne laga tha. mainne beljiyan ki or dekha, kyon? kya baat hai?
“main samajh nahin pa raha hoon ki hamein kya hota ja raha hai?
tom mein se ek vichitr si gandh aane lagi thi. mujhe laga ki main gandh ke prati pahle se adhik sanvedanshil hota ja raha hoon. main muskraya, thoDi der mein sab kuch samajh jaoge.
“kuchh bhi aspasht nahin hai, usne Dhithai se kaha, main himmat nahin harna chahta, par kam se kam mujhe ye to bata do. . . suno, ve hamein baramde mein le jayenge. theek hai. wo hamare samne khaDe ho jayenge. kitne?
“mujhe nahin malum. paanch ya aath. zyada to nahin honge.
theek hai. aath log honge. ek adami chikhega, nishana lagao aur main dekhunga ki aath raiflen mujhe taak rahi hain. main sochne lagunga ki main is divar ke bhitar kaise ghus jaun. main peeth se divar par zor lagaunga. . . apni puri taqat ke saath, par divar ek duasvapn ki tarah achal rahegi. main in sabki kalpana kar sakta hoon. kya tum samajh sakte ho ki kitni achchhi tarah se main in sabki kalpana kar pa raha hoon!
theek hai, theek hai! mainne kaha, main bhi in sabki kalpana kar sakta hoon.
chot to bahut lagegi. jante ho, ve ankhon aur munh par nishana sadhenge, jisse tumhara chehra bigaD jaye apni avaz mein hiqarat bharte hue wo kah raha tha, main un ghavon ko abhi se mahsus kar sakta hoon. mere sir aur gardan par pichhle ek ghante se dard ho raha hai. bahut tez. kal subah bhi mujhe aisa hi mahsus hoga. aur phir?
main achchhi tarah samajh raha tha ki uska matlab kya hai, par main aisi koi harkat nahin karna chahta tha, jisse lage ki main samajh raha hoon. dard mujhe bhi mahsus ho raha tha. pura sharir dard kar raha tha, jaise pure sharir par chhoti chhoti angin kharonchen lagi hon. mujhe ye asamany lag raha tha, par uski tarah main bhi ise koi mahattv nahin de raha tha.
wo khu se hi baten karne laga tha. wo lagatar beljiyan ki or dekhe ja raha tha, beljiyan uski baat ko sunta lag nahin raha tha. mujhe pata tha ki wo kya karne ke liye aaya tha. uski ruchi is baat mein bilkul nahin thi ki hum soch kya rahe hain. wo hamare shariron ko dekhne ke liye aaya tha, ve sharir jo jivit hote hue bhi traas se mare ja rahe hain.
bilkul khvab jaisa, tom kah raha tha, tum jo bhi sochna chahte ho, uska prabhav hamesha hi aisa hota hai ki jo bhi tum soch rahe ho, sab theek hoga, par phir tumhari pakaD se chhoot jata hai aur dhire dhire lupt ho jata hai. main khu se kahta hoon ki baad mein kuch nahin hoga. par main khu hi nahin samajh pata ki iska matlab kya hai? kabhi to lagbhag. . . aur phir ye dhundhla jata hai aur main dard, goliyon aur visphoton ke bare mein sochne lagta hoon. qas se, main bhautikvadi hoon, main parvana nahin hoon, koi baat hai zarur. main apni laash ko dekhta hoon, ye kashtakar to nahin hai, par main wo vekti hoon jo khu apni ankhon se ye dekhta hai. mujhe sochna hai. . . sochna hai ki iske baad main kuch bhi nahin dekh paunga, jabki baqi duniya sab kuch dekhti rahegi. hum ye sochne ke liye to nahin hain pablo. yaqin karo, main puri raat kisi ke intzaar mein ruka raha hoon, par yahan wo baat nahin hain, ye hamare pichhe bhi phailti rahegi pablo aur hum iske liye taiyar nahin rah payenge.
“chup ho jao, mainne kaha, kya tum chahte ho ki main kisi padari ko bulaun?
usne koi javab nahin diya. main jaan gaya tha ki wo kisi paighambar ki tarah lagna chahta tha. mujhe pablo kahkar pukarte samay uska svar utaar chaDhav se rahit hota tha. mujhe ye pasand nahin tha. par lagta hai, sabhi purush isi tarah ke hote hain. mujhe halka sa abhas hua, jaise us par se peshab ki gandh aa rahi thi. shuru se hi mujhe tom ke prati koi vishesh sahanubhuti nahin rahi aur ye ek saath marne ki vajah se hi ho, iska bhi koi karan meri samajh mein nahin aa raha tha. dusron ke saath aur baat ho sakti hai, masalan remon gris ke saath. par tom aur juan ke beech main khu ko akela mahsus kar raha tha, phir bhi mujhe zyada bura nahin lag raha tha. remon saath hota to zyada bura lagta. par us samay meri sthiti kam kashtakar nahin thi, par main khu bhi to sukh ki sthiti nahin chahta tha.
wo apne shabdon ko anyamnaskta se chabata raha. nishchit roop se wo isiliye bol raha tha, taki hum soch na saken. usmen se praustet granthi ke kisi purane mariz ki tarah peshab ki gandh aa rahi thi. main uski baat se sahmat hoon, main bhi vahi sab kah sakta tha jo wo kah raha tha. marna koi svabhavik kriya nahin hai. aur chunki main bhi marne ja raha tha, isliye mujhe kuch bhi svabhavik nahin lag raha tha. na ye koyle ke chure ka Dher, na bench, na peDon ka ghinauna chehra. farq sirf itna tha ki tom ki tarah ye sab sochna mujhe pasand nahin tha aur main janta tha ki puri raat ke har kshan is tarah ki chizen sochte rahenge. mainne kanakhiyon se uski or dekha aur pahli baar wo mujhe ek ajnabi sa laga. usne apne chehre par maut oDh rakhi thi. pichhle chaubis ghanton se main tom ke saath hi raha tha. mainne use suna tha, usse baat ki thi, use jana tha aur mainne jana ki hamare beech kuch bhi samany nahin tha. aur ab hum bilkul ek jaise lag rahe the, jaise ve hon, sirf isliye ki hum saath saath marne ja rahe the. tom ne bina meri or dekhe mera haath thaam liya.
pablo, kitne ashchary ki. . kitne ashchary ki baat hai ki sab kuch sachmuch khatm hone ja raha hai.
uske panvon ke beech mein kichaD sa ho gaya tha aur uski pant ke paynchon mein se bunden ris rahi theen.
yah kya hai? usne ghabrate hue puchha.
tum apni pant ke andar peshab kar rahe ho. mainne use bataya.
“yah ghalat hai, wo bhinnaya tha, main peshab kar raha hoon? mujhe aisa kuch bhi mahsus nahin ho raha hai.
beljiyan hamare paas chala aaya. kritrim chinta jatate hue usne puchha, “tumhari tabiyat to theek hai n?
tom ne koi javab nahin diya. beljiyan ne us kichaDanuma cheez ko dekha aur kuch bola nahin.
mujhe nahin malum ye kya hai, tom ne karun svar mein kaha, main Dar nahin raha hoon. qas se, main Dar nahin raha hoon.
beljiyan phir chup raha. tom utha aur peshab karne ke liye kone mein chala gaya. aage ke button band karta hua wo vapas aaya aur bina kuch kahe baith gaya. beljiyan kuch not kar raha tha.
hum tinon ne uski taraf dekha, kyonki wo jivit tha, wo jivit adami ki tarah harkaten kar raha tha, wo jivit logon ki tarah zimmedari mahsus kar raha tha. wo is tahkhane ki sardi mein usi tarah kaanp raha tha, jaise koi bhi jivit adami kaanp sakta hai. uske paas ek farman bardar, khaya piya sharir tha. shesh hum tinon log us jaisa zara bhi mahsus nahin kar rahe the. mainne panvon ke beech mein apni pant ko mahsus karna chaha, par himmat na paDi. mainne beljiyan ki or dekha, wo apni donon tangon par vazan rakhe khaDa tha, apni manspeshiyon ko manchaha hukm de sakta tha, kal ke bare mein soch sakta tha. ek or hum the—tin raktahin chhayayen. hum uski or dekhte aur pret ki tarah paran sokh lete.
ant mein wo nanhen juan ki taraf gaya. wo uski gardan ko chhu raha tha. uske pichhe uska koi vyavasayik uddeshy tha ya wo dayavash kar raha tha, pata nahin. agar wo dayavash kar raha tha to yahi upyukt samay tha.
usne juan ke sir aur gardan par haath phera, laDka chupchap use dekhta raha, phir achanak usne uska haath pakaD liya aur ashchary se dekhne laga. usne apne donon hathon se beljiyan ke haath ko pakDa tha aur ye koi achchha drishya nahin tha ki do patli bhuri chimatiyon ne us mote laal haath ko thama hua tha. mainne anuman laga liya tha ki kya hone ja raha tha. tom ne bhi zarur anuman laga liya hoga, par beljiyan ne is or zara bhi dhyaan na diya. wo pitrivat muskraya. ek kshan baad wo laDka us mote laal haath ko apne munh tak laya aur use katne ki koshish ki. beljiyan ne jhatke se apna haath khincha aur laDkhaData hua divar se ja takraya. ek kshan ke liye wo ghabra gaya, par achanak wo samajh gaya ki hum uski tarah ke adami nahin hain. wo thahake lagane laga. is par ek guard uchhal gaya. dusra so raha tha, uski khuli hui ankhen sapat theen.
main aram aur uttejna, donon ek saath mahsus kar raha tha. jo kuch subah hoga, ya maut ke bare mein main ab kuch nahin sochna chahta tha. iska koi arth nahin tha. ismen shabd the aur tha khalipan. par jaise hi main kuch aur sochne ki koshish karta, mujhe apne samne nishana sadhe rifle ki nalen dikhai dene lagtin. apne is mrityudanD ko mainne bees baar bhoga. ek baar to mujhe laga, ye theek hi hai. mujhe kuch der ke liye neend bhi aa gai. ve mujhe divar ki or ghasitte hue le ja rahe the aur main bharsak virodh kar raha tha. main daya ki bheekh maang raha tha. main jhatke ke saath jaag gaya aur mainne beljiyan ki or dekha. main bahut Dara hua tha. main neend mein zarur chikha hounga. par wo apni munchhen umeth raha tha. usne is or dhyaan nahin diya. main samajhta hoon ki agar main chahta to kuch der so sakta tha. main pichhle 48 ghanton se jaag raha hoon. ye mera antim samay tha.
par main apne jivan ke antim do ghante khona nahin chahta tha. ve subah ko aakar mujhe jagayenge aur main unke pichhe chal paDunga, uninda sa. aur phir oph. . . karta hua tarrakar khatm ho jaunga. main aisa nahin chahta. main kisi janvar ki tarah nahin marna chahta. main samajhna chahta hoon. phir mujhe khvab dekhne se bhi Dar lagne laga. main uth khaDa hua aur idhar udhar tahalne laga. apne vicharon ko badalne ke liye main apne pichhle jivan ke bare mein sochne laga. yadon ka ek jhunD gaDDmaDD sa mere upar aa jhapta. achchhi yaden bhi theen aur buri bhi. kam se kam ab tak to main unhen usi roop mein samajhta tha. kuch chehre the, kuch ghatnayen theen. apne chacha ka chehra, remon gris ka chehra, mujhe apna pura jivan yaad aya—kis tarah 1926 mein teen mahine main bilkul bekar raha. kaisi bhukhamri mainne jheli hai! mujhe yaad aaya ki ek raat mainne greneDa ke ek bench par bitai thi. teen din se mainne kuch nahin khaya tha. mujhe ghussa aa raha tha, main marna nahin chahta tha. mujhe hansi aa gai. kis tarah pagal hokar main khushiyon ke pichhe, aurton ke pichhe, azadi ke pichhe dauD raha tha. kyon? main spen ko svatantr dekhana chahta tha. main arajaktavadi andolan mein shamil ho gaya. mainne janasbhaon mein bhashan diye. main har cheez ko aise gambhirta se leta raha, jaise main amar hoon.
us kshan mujhe laga, jaise pura jivan mere samne hai aur mainne socha, yah ab sab ek ghrinait jhooth hai. iska kuch bhi mooly nahin hai, kyonki ye khatm ho gaya. mujhe ashchary ho raha tha ki kis tarah main chal sakta tha, laDkiyon ke saath hans sakta tha. agar main sochta ki main is tarah mar jaunga to main apni chhoti ungli ko zara bhi na hila pata. mera jivan mere samne ek thaile ki tarah band ho gaya tha, jiske bhitar ki har cheez asmapt thi. main khu se kahna chahta tha ki ye ek khubsurat jivan hai, par apna ye nirnay main khu tak nahin pahuncha paya. ye to maatr ek khaka tha, mera pura jivan to nakli amarta ko gaDhne mein hi bita. main kuch bhi to samajh nahin paya tha. mainne kuch socha nahin, bahut kuch tha, jo main kho sakta tha. manjalin ka svaad, kadin ke nikat chhoti si khaDi mein garmiyon ka snaan, par mirtyu sare mayajal se ubaar lai thi.
beljiyan ko achanak ek achchha vichar soojh aaya. hamse kahne laga, dosto, agar sainik prashasan ne anumti di to main tumhare liye ek kaam kar sakta hoon. main tumhara antim sandesh, smarika ke roop mein tumhare priy vyaktiyon tak pahuncha dunga.
tom baDabDaya, mera koi nahin hai.
mainne kuch nahin kaha. tom ek kshan chup raha, phir utsukta se meri or dekhne laga. ‘‘konka tak pahunchane ke liye bhi tumhare paas koi baat nahin hai?
nahin.
aisi komal sahanubhuti se mujhe nafar thi. ghalati meri hi thi, mainne hi pichhli raat konka ke bare mein bataya. mujhe apne par niyantran rakhna chahiye tha. qarib ek saal main uske saath raha tha. kal raat mainne apni kuhni moDkar usmen apna chehra chhipa liya tha, taki use kam se kam paanch minat to dekh sakun. isiliye mainne uske bare mein baat bhi ki thi. par ab mere man mein usse milne ki koi ichha shesh nahin rah gai thi. mere paas usse kahne ke liye bhi kuch nahin rah gaya tha. ab to use banhon mein lene ki bhi ichha mujhmen shesh na rah gai thi. mere sharir ne mujhmen atank bhar diya tha, kyonki ye pila paD gaya tha aur pasine pasine ho gaya tha aur main ye bhi nishchaypurvak nahin kah sakta tha ki uske sharir ne mujhmen ye atank nahin bhara tha. konka ko jaise hi pata chalega ki main mar gaya hoon, wo bilakh uthegi. uske baad ke mahinon mein jivan uske liye besvad ho jayega. par main to marne hi ja raha hoon. mainne uski narm, sundar ankhon ko yaad kiya. jab wo meri or dekhti to uski ankhon mein se nikalkar kuch meri ankhon mein aa samata, par main janta tha ki ab ye kuch nahin hai. agar ab wo meri or dekhe to wo nazar usi ki ankhon mein thahri rahegi, mujh tak nahin pahunchegi. main akela tha.
tom bhi akela tha, par is tarah nahin. tangon ko ek dusre mein phansaye wo halki muskan liye bench ki or takatki lagaye tha. wo mugdh sa nazar aa raha tha. usne haath baDhakar savadhani se lakDi ko chhu liya, jaise use Dar ho ki koi cheez toot jayegi, phir jhatke se apna haath vapas kheench liya aur tharthara utha. agar main tom ki jagah hota to aise mugdh hokar bench ko kabhi na chhuta, ye atishay murkhata thi. mainne dekha ki chizen baDi majahiya hone lagi theen. mere liye bench, lainp, koyle ke chure ke Dher ko dekhana hi kafi tha. ye anubhav karne ke liye ki main marne ja raha hoon. svabhavik hai ki main maut ke bare mein spashttah nahin soch pa raha tha, par sarvatr ye zarur deekh raha tha ki chizen pichhe hatkar mujhse ek duri bana rahi hain. unhin logon ki tarah, jo marte hue adami ke bistar ke paas baithe chupchap baat karte hain. tom ne us bench par apni maut ko hi to chhua tha.
meri haalat ye thi ki agar koi mere paas aakar kahta ki main ghar ja sakta hoon, unhonne pura jivan jine ke liye mujhe de diya hai, tab bhi main bhavashuny hi rahta. apne amar hone ka bhram jab ek baar toot jata hai to phir kuch ghanton ke ya kuch salon ke intzaar mein farq hi kya rah jata hai! meri sari nishthayen khatm ho gai theen aur main shaant tha, par ye ek bhayanak shanti thi—jiska karan tha mera sharir; mera sharir kyonki isi ki ankhon se to mainne dekha tha, isi ke kanon se suna tha. par ab ye main nahin tha. ye khu hi pasine pasine ho raha tha. kaanp raha tha aur meri iske saath koi pahchan shesh nahin rah gai thi. ye janne ke liye ki kya ho raha hai, mujhe ise chhuna, iski or dekhana paDta tha, jaise ye kisi aur ka sharir ho. kai baar ab bhi mujhe aisa lagta, jaise main Duba ja raha hoon, gir raha hoon. theek vaise hi jaise aap satah par khaDe hokar sir ke bal Dupki maar rahe hon. main apne dil ki dhaDkanon ko saaf mahsus kar raha tha, par ye baten mujhe ashvast nahin kar pa rahi theen. mere sharir se jo kuch aa raha tha, wo virup tha. adhiktar samay main chup raha aur apne vazan ka kam hona, apne saath ek ghinauni upasthiti ko hi mahsus karta raha. mujhe lag raha tha, jaise kisi vishal kiDe ke saath mujhe baandh diya gaya hai. ek baar mainne apni pant ko mahsus kiya aur phir laga ki wo bhigi hui hai. malum nahin, ye pasina tha ya peshab, par ehtiyatan main koyle ke Dher ke paas peshab karne ke liye chala gaya.
beljiyan ne zeb se ghaDi nikalkar dekhi, phir kaha, saDhe teen baj gaye hain.
harami! iske pichhe zarur uski koi mansha thi. tom uchhal paDa. ye to hamne dhyaan hi nahin diya tha samay tezi se bhaga ja raha hai. raat ne hamko ek akarhin, dhundhale shikar ki tarah gher liya tha, mujhe pata bhi nahin chal paya ki ye prakriya shuru kab hui.
nanha juan rone laga tha. wo apne hathon ko phailate hue daya ki bheekh maang raha tha, main marna nahin chahta, main marna nahin chahta!
hava mein apne hathon ko phailata hua wo tahkhane ke ek kone se dusre kone tak gaya aur phir chatai par girkar sisakne laga. tom shokakul nazron se use dekhta raha. use santvana dene ka koi upakram wo nahin kar raha tha. wo is layaq tha bhi nahin, par laDka kuch zyada hi shor kar raha tha jabki us par iska itna gahra prabhav nahin paDa tha. wo us bimar adami ki tarah tha, jo bukhar ki piDa mein apne ko bachane ki koshish kar raha ho. ye baat tab aur gambhir ho jati hai jab bukhar ho hi nahin.
wo rone laga tha. main saaf dekh raha tha ki wo apne prati karunaik ho raha tha, maut ke bare mein wo zara bhi nahin soch raha tha. ek kshan ke liye mujhe khu par rone ki ichha hui. apne par daya aane lagi. lekin hua uska ulta. mainne us laDke ki or dekha, uske sisakte chehre ne mujhe aur bhi amanaviy bana diya tha. ab mujhe na to kisi aur par daya aa rahi thi, na khu par. mainne khu se hi kaha, “main safai se marna chahta hoon.
tom uthkar khaDa ho gaya tha aur chalta hua upar roshandan ke theek niche khaDa hokar upar ki roshni ko dekhne laga tha. main safai se marne ka driDh nishchay kar chuka tha aur usi ke bare mein soch raha tha. par jab se doctor ne samay bataya tha, tabhi se mujhe lag raha tha ki jaise samay uDta ja raha hai, ek ek boond nichuDta hua.
abhi andhera hi tha ki mujhe tom ki avaz sunai di, kya tumhein unki avaz sunai de rahi hai?
haan.
baramde mein ve log march kar rahe the.
“ve kar kya rahe hain? ve hamein andhere mein to nahin maar sakte?
kuch der ke liye chuppi chha gai. mainne tom se kaha, ab to din hai.
paiDro jambhai leta hua uth khaDa hua tha aur lainp jalane laga tha. usne apne sathi se kaha, kitni bhayankar sardi hai!
bhura ujala tahkhane mein phail gaya tha. kafi door se hamein goliyan chalne ki avazen sunai deen.
yah shuruat hai, tom ne kaha, yah kaam ve pichhe ke angan mein kar rahe honge.
tom ne doctor se ek cigarette mangi. mujhe uski zarurat nahin thi. mujhe sharab ya cigarette ki zara bhi zarurat nahin thi. us kshan ke baad se goliyan chalne ki avaz lagatar sunai deti rahi thi.
“jante ho, kya ho raha hai? tom ne puchha.
wo kuch aur kahna chahta tha, par darvaze ki or dekhta hua chup hi raha. darvaza khula aur ek laiphtinent chaar sipahiyon ko lekar andar aa gaya. tom ke haath se cigarette chhoot gai.
stinbok?
tom chup raha, paiDro ne uski or sanket kiya.
juan mikhal!
chatai par hai.
khaDe ho jao. laiphtinent ne kaha.
juan zara bhi na hila. do sipahiyon ne baghal mein haath dekar use khaDa kar diya. par jaise hi unhonne chhoDa, wo phir gir gaya.
yah koi pahla adami to hai nahin, jo ghabra gaya ho, laiphtinent ne kaha, “tum do log use uthakar le chalo. vahan sab theek ho jayega.
wo tom ki or muDa, “ao chalen.
tom do sipahiyon ke beech mein chalne laga. unke pichhe do log laDke ko uthaye chal rahe the. ek ne baghal se pakaDkar utha rakha tha aur dusre ne tangen, wo behosh nahin tha. uski ankhen khuli theen aur ansu galon par se hote bah rahe the. jab main bhi bahar nikalne laga to laiphtinent ne mujhe rok diya.
tum ibbita ho?”
haan
tum yahin ruko, tumhein lene ke liye hum baad mein ayenge.
ve chale gaye. beljiyan aur donon guard bhi chale gaye. main akela rah gaya. main samajh hi nahin pa raha tha ki mera ve kya karenge! agar ve mujhe bhi abhi le jate to achchha hota. barabar antral ke saath goliyan chalne ki avaz mujhe sunai de rahi thi aur har avaz se mujhe dhakka lag raha tha. main chikhna chahta tha. apne balon ko noch lena chahta tha. par mainne sirf apne daant kichakichaye aur zebon mein haath Daal diye.
ek ghante baad ve log aaye aur mujhe pahli manjil par ek chhote se kamre mein le gaye. vahan cigar ki gandh phaili hui thi aur damghontu garmi thi. aramkursiyon par baithe do ऑफ़isar dhuan chhoD rahe the. kaghaz unke ghutnon par rakhe the.
tum ibbita ho?”
haan
ramon gris kahan hai?
mujhe nahin malum.
mujhse saval puchhne vala vekti nata aur mota tha. chashme ke pichhe uski ankhen kafi kathor lag rahi theen. usne mujhse kaha, idhar aao.
main uske paas chala gaya. wo uth khaDa hua. mera haath pakaD liya aur mujhe aisi nazar se ghurne laga, jaise mujhe zamin mein gaaD dega. usi kshan usne apni puri taqat se mere pet par ek ghunsa jaD diya. ye mujhe chot pahunchane ke liye nahin tha, ye to ek khel tha. wo mujh par qabu pa lena chahta tha. phir wo khaDa khaDa apni durgandhyukt saans mere chehre par chhoDta raha. ek kshan tak hum usi tarah khaDe rahe, meri ichha hansne ki hone lagi thi. jo adami marne vala hai, use Darana kafi mushkil kaam hai. ye latke vahan kaam nahin dete. usne mujhe ek zor ka dhakka diya aur phir baith gaya, kahne laga, “uske badle tumhari jaan daanv par hai. agar tum bata do ki wo kahan hai to tumhari jaan bach sakti hai.
ghuDasvar to apne chabuk phatkarte ghoom rahe the aur jute saaf karne vale mare ja rahe the. ve apne muchDe hue kaghzon mein naam DhoonDh rahe the, ve ya to unhen jel mein Daal rahe the ya unka daman kar rahe the. ve spen ke bhavishya tatha any vishyon par baat kar rahe the. unki gatividhiyan mujhe uljhi hui aur vidrup lag rahi theen. main apne ko unki jagah rakh hi nahin pa raha tha. mere vichar se ve vikshaipt the.
wo nata abhi tak apne juton ko ragaDta aur chabuk phatkarta mujhe hi ghoor raha tha. uski sari mudrayen use ek kroor janvar ka roop de rahi theen.
to? kuch aaya samajh men?
“mujhe nahin malum ki gris kahan hai, mainne javab diya, main to samajhta tha ki wo meDriD mein hi hoga.
dusre ऑफ़isar ne apna pila haath alsaye Dhang se upar uthaya. ye alsayapan bhi suvicharit tha. mujhe unki sari sankirn yojnaon ka pata chal gaya tha aur ye dekhkar main hakka bakka rah gaya tha ki ye log is tarah se maza lete hain.
ham tumhein sochne ke liye pandrah minat dete hain, usne dhire se kaha, ise dhobighar le jao aur pandrah minat baad vapas le aana. agar ye phir bhi mana karega to tatkshan goli maar di jayegi.
unhen pata tha ki ve kya kar rahe hain. main raat bhar intzaar hi to kar raha tha. phir unhonne ek ghanta aur mujhe tahkhane mein intzaar karvaya, jabki tom aur juan ko goli mari ja chuki thi. aur ab ye mujhe dhobikhane mein band kar rahe hain. zarur unhonne apna ye khel raat se pahle hi taiyar kar liya hoga. ve jante the ki aise mein snayu javab de dete hain aur unhen ummid thi ki ve mujhe dhar lenge.
par ve bilkul ghalat soch rahe the. dhobighar mein main stool par baith gaya, kyonki main bahut kamzori mahsus kar raha tha. ab main sochne laga tha. apni haalat ke bare mein nahin. mujhe pata tha ki gris kahan hai. wo shahr se chaar kilomitar door apne chachere bhai ke ghar par chhipa hua tha. main ye bhi janta tha ki ab ve mujhe taurchar nahin karenge (par mujhe yaad nahin aa raha tha, ve aisa karenge). sab kuch suvyavasthit tha, sunishchit tha par mainne ismen koi dilchaspi nahin li. main sirf apne vyvahar ke karnon ko samajhna chahta tha. main gris ka pata dene ke bajay marna adhik pasand kar raha hoon. kyon? ramon gris ke prati ab mujhmen zara bhi lagav nahin tha. usse meri dosti bhor se pahle usi samay mar gai thi, jaise konka ke prati pyaar aur meri khu jine ki ichhaa! beshak main uska aadar karta tha. wo bahut sakht adami tha. par uske badle mere marne ka ye karan nahin tha. uska jivan mere jivan se adhik mulyavan nahin tha. jivan amuly hota hai. unhen to ek adami ko divar ke sahare khaDa karna hai aur goli markar uski hattya karni hai. wo adami main hoon, gris hai ya koi aur, isse koi farq nahin paDta.
main janta tha ki spen aur arajakta, kuch bhi mahattvapurn nahin hai. jab tak main hoon, mujhe apni chamDi bachani chahiye aur gris ka pata de dena chahiye aur main is sabse inkaar kar raha hoon.
mujhe laga, ye bahut hasyaspad hai, duragrah hai. mainne socha, main ziddi ho gaya hoon! aur ek baDi vichitr si prasannata mere sharir mein bhar gai.
ve aaye aur mujhe un do aufisron ke paas le gaye. ek chuha mere panvon ke beech mein se dauDta hua nikal gaya. is par mujhe hansi aa gai. mainne unmen se ek rakhvale se puchha, kya tumne chuhe ko dekha?
usne koi javab nahin diya, wo kafi saumy tha aur gambhir bana raha. main hansna chahta tha, par mainne apne ko roke rakha, kyonki agar main hansne laga to phir ruk nahin paunga. us rakhvale ki munchhen theen. mainne usse phir puchha, tumhen apni munchhen tarash Dalni chahiye, bevaquf! mujhe ye kalpana baDi hasyaspad lagi. usne bina kuch bole ek thokar mujhe jama di aur main chup ho gaya.
“theek hai, us mote ऑफ़isar ne kaha, “kya tumne is bare mein soch liya hai?
mainne baDi utsukta se unki or dekha, jaise ve kisi durbal jati ke jeev the. mainne unse kaha, “main janta hoon, wo kahan hai. wo qabristan mein chhipa hua hai. wo ya to kisi क़br mein chhipa baitha hoga ya क़br khodne vale ki kothari mein.
phir to ek tamasha khaDa ho gaya. main chahta tha ki ve uth khaDe hon, apni petiyan kasen aur vyastata se order dene lagen.
ve ekdam uchhalkar khaDe ho gaye, “chalo bhole, tum lephtinent lole se pandrah adami apne saath le lo. chhota mota adami kah raha tha, “tum agar sahi kah rahe ho to main tumhein chhoD dunga. par tum agar hamein bevaquf banane ki soch rahe ho to uska khamiyaza bhi tumhein bhugatna paDega.
khatkhatahat ke saath ve vahan se chale gaye aur mujhe un rakhvalon ki chaukasi mein chhoD gaye. vahan jo tamasha hoga, use soch sochkar mujhe hansi aa rahi thi. main kalpana karne laga ki kaise ve क़br ke pattharon ko ukhaDenge, ek ek kothariyon ke darvazon ko kholenge. main puri sthiti ko aise dekhne laga, jaise main koi aur hoon aur ye qaidi ek hathi nayak ki bhumika mein hai. aur ye munchhonvale ghrinait rakhvale tatha unke vardidhari log qabron ke upar se bhaag rahe hain. kitna mazedar hai!
aadhe ghante baad wo mota nata akela vapas laut aaya. mera khyaal tha ki wo mujhe goli maar dene ka hukm dene ke liye aaya tha. aur log abhi qabristan mein hi honge.
ऑफ़isar ne meri or dekha. wo zara bhi speni nahin lag raha tha. is baDe angan mein dusre logon ke saath raho, usne kaha, sainik abhiyanon ke baad nagarik adalat hi iska faisla karegi.
jo baat main samjha, uski to mainne kalpana bhi nahin ki thi. mainne puchha, to kya. . . mujhe goli nahin mari jayegi?
meri samajh mein ab bhi kuch nahin aaya tha. mainne puchha, par kyon. . . ?
usne bina kuch bole apne kandhe jhatke aur sipahi mujhe apne saath le gaye.
shaam ko unhonne qarib das nae qaidiyon ko angan mein thoons diya. mainne garsiya nanvarD ko pahchan liya. usne kaha, tumhara bhi durbhagy hai! main to soch raha tha ki tum ab tak khatm kar diye gaye hoge.
unhonne to mujhe maut ki saza de di thi, par phir pata nahin kyon vichar badal diya. mainne kaha.
unhonne mujhe theek do baje giraftar kiya. garsiya ne bataya.
pata nahin kyon, ve un sabhi logon ko giraftar kar rahe hain jinhen apni giraftari ka karan bhi pata nahin hota, usne kaha aur phir avaz halki karke kaha, unhonne gris ko bhi giraftar kar liya hai.
main kaanp gaya tha, kab?
aaj subah. iske liye wo khu hi zimmedar hai. mangalvar ko apne chachere bhai se uski kaha suni ho gai to wo unke ghar se chala aaya. kai log use chhipane ke liye taiyar the, par pata nahin kyon, wo kisi ka ahsan nahin lena chahta tha. usne kaha, main jakar ibbita ke ghar mein chhipunga. par ibbita ko bhi to unhonne giraftar kar liya hai, isliye main qabristan mein jakar chhipunga.
qabristan men?
haan, kya bevaqufi hai! aaj subah ve vahan pahunch gaye, ye to hona hi tha. unhonne use क़br khodne vale ki kothari mein dhar liya. usne un par goli chalai aur unhen uska pata chal gaya.
qabristan men!
sab kuch ghumne laga tha. main sidha zamin par aa gira. main zor se hansa, par mere munh se cheekh nikli thi.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 233-253)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : ज्यां-पाॅल चार्ल्स एमार्ड सार्त्र
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।