प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा छठी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
(एक)
जब रियासत देवगढ़ के दीवान सरदार सुजानसिंह बूढ़े हुए तो परमात्मा की याद आई। जाकर महाराज से विनय की कि दीनबंधु! दास ने श्रीमान की सेवा चालीस साल तक की, अब मेरी अवस्था भी ढल गई, राज-काज सँभालने की शक्ति नहीं रही। कहीं भूल-चूक हो जाए तो बुढ़ापे में दाग़ लगे। सारी ज़िंदगी की नेकनामी मिट्टी में मिल जाए।
राजा साहब अपने अनुभवशील नीतिकुशल दीवान का बड़ा आदर करते थे। बहुत समझाया, लेकिन जब दीवान साहब ने न माना, तो हारकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली; पर शर्त यह लगा दी कि रियासत के लिए खोजना पड़ेगा। नया दीवान आप ही को दूसरे दिन देश के प्रसिद्ध पत्रों में यह विज्ञापन निकला कि देवगढ़ के लिए एक सुयोग्य दीवान की ज़रूरत है। जो सज्जन अपने को इस पद के योग्य समझें, वे वर्तमान सरकार सुजानसिंह की सेवा में उपस्थित हों। यह ज़रूरी नहीं है कि वे ग्रेजुएट हों, मगर हृष्ट-पुष्ट होना आवश्यक है, मंदाग्नि के मरीज़ को यहाँ तक कष्ट उठाने की कोई ज़रूरत नहीं। एक महीने तक उम्मीदवारों के रहन-सहन, आचार-विचार की देखभाल की जाएगी। विद्या का कम, परंतु कर्तव्य का अधिक विचार किया जाएगा। जो महाशय इस परीक्षा में पूरे उतरेंगे, वे इस उच्च पद पर सुशोभित होंगे।
(दो)
इस विज्ञापन ने सारे मुल्क में तहलका मचा दिया। ऐसा ऊँचा पद और किसी प्रकार की क़ैद नहीं? केवल नसीब का खेल है। सैकड़ों आदमी अपना-अपना भाग्य परखने के लिए चल खड़े हुए। देवगढ़ में नए-नए और रंग-बिरंगे मनुष्य दिखाई देने लगे। प्रत्येक रेलगाड़ी से उम्मीदवारों का एक मैला-सा उतरता। कोई पंजाब से चला आता था, कोई मद्रास से, कोई नए फ़ैशन का प्रेमी, कोई पुरानी सादगी पर मिटा हुआ। रंगीन एमामे, चोगे और नाना प्रकार के अंगरखे और कंटोप देवगढ़ में अपनी सज-धज दिखाने लगे। लेकिन सबसे विशेष संख्या ग्रेजुएटों की थी, क्योंकि सनद की क़ैद न होने पर भी सनद से पर्दा तो ढका रहता है।
सरदार सुजानसिंह ने इन महानुभावों के आदर-सत्कार का बड़ा अच्छा प्रबंध कर दिया था। हर एक मनुष्य अपने जीवन को अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर ‘अ’ नौ बजे दिन तक सोया करते थे, आजकल वे बग़ीचे में टहलते हुए ऊषा का दर्शन करते थे। मिस्टर ‘द’, ‘स’ और ‘ज’ से उनके घरों पर नौकरों की नाक में दम था, लेकिन ये सज्जन आजकल ‘आप’ और ‘जनाब’ के बग़ैर नौकरों से बातचीत नहीं करते थे। मिस्टर ‘ल’ को किताब से घृणा थी, परंतु आजकल वे बड़े-बड़े ग्रंथ देखने-पढ़ने में डूबे रहते थे। जिससे बात कीजिए, वह नम्रता और सदाचार का देवता बना मालूम देता था। लोग समझते थे कि एक महीने का झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं कार्य सिद्ध हो गया तो कौन पूछता है?
लेकिन मनुष्यों का वह बूढ़ा जौहरी आड़ में बैठा हुआ देख रहा था कि इन बगुलों में हंस कहाँ छिपा हुआ है।
(तीन)
एक दिन नए फ़ैशनवालों को सूझी कि आपस में हॉकी का खेल हो जाए। यह प्रस्ताव हॉकी के मँजे हुए खिलाड़ियों ने पेश किया। यह भी तो आख़िर एक विद्या है। इसे क्यों छिपा रखें। संभव है, कुछ हाथों की सफ़ाई ही काम कर जाए। चलिए तय हो गया, फ़ील्ड बन गई, खेल शुरू हो गया और गेंद किसी दफ़्तर के अप्रेंटिस की तरह ठोकरें खाने लगी।
रियासत देवगढ़ में यह खेल बिल्कुल निराली बात थी। पढ़े-लिखे भलेमानुस लोग शतरंज और ताश जैसे गंभीर खेल खेलते थे। दौड़-कूद के खेल बच्चों के खेल समझे जाते थे।
खेल बड़े उत्साह से जारी था। धावे के लोग जब गेंद को लेकर तेज़ी से उड़ते तो ऐसा जान पड़ता था कि कोई लहर बढ़ती चली आती है। लेकिन दूसरी ओर के खिलाड़ी इस बढ़ती हुई लहर को इस तरह रोक लेते थे कि मानो लोहे की दीवार है। संध्या तक यही धूमधाम रही। लोग पसीने से तर हो गए। ख़ून की गर्मी आँख और चेहरे से झलक रही थी। हाँफते-हाँफते बेदम हो गए, लेकिन हार-जीत का निर्णय न हो सका।
अँधेरा हो गया था। इस मैदान से ज़रा दूर हटकर एक नाला था। उस पर कोई पुल न था। पथिकों को नाले में से चलकर आना पड़ता था। खेल अभी बंद ही हुआ था और खिलाड़ी लोग बैठे दम ले रहे थे कि एक किसान अनाज से भरी हुई गाड़ी लिए हुए उस नाले में आया। लेकिन कुछ तो नाले में कीचड़ था और कुछ उसकी चढ़ाई इतनी ऊँची थी कि गाड़ी ऊपर न चढ़ सकती थी। वह कभी बैलों को ललकारता, कभी पहियों को हाथ से ढकेलता, लेकिन बोझ अधिक था और बैल कमज़ोर। गाड़ी ऊपर को न चढ़ती और चढ़ती भी तो कुछ दूर चढ़कर फिर खिसककर नीचे पहुँच जाती। किसान बार-बार ज़ोर लगाता और बार-बार झुँझलाकर बैलों को मारता, लेकिन गाड़ी उभरने का नाम न लेती। बेचारा इधर-उधर निराश होकर ताकता मगर वहाँ कोई सहायक नज़र न आता। गाड़ी को अकेले छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकता। बड़ी आपत्ति में फँसा हुआ था। इसी बीच में खिलाड़ी हाथों में डंडे लिए घूमते-घामते उधर से निकले।
किसान ने उनकी तरफ़ सहमी हुई आँखों से देखा; परंतु किसी से मदद माँगने का साहस न हुआ। खिलाड़ियों ने भी उसको देखा मगर बंद आँखों से, जिनमें सहानुभूति न थी। उनमें स्वार्थ था, मद था, मगर उदारता और वात्सल्य का नाम भी न था।
(चार)
लेकिन उसी समूह में एक ऐसा मनुष्य था जिसके हृदय में दया थी और साहस था। आज हॉकी खेलते हुए उसके पैरों में चोट लग गई थी। लंगड़ाता हुआ धीरे-धीरे चला आता था। अकस्मात उसकी निगाह गाड़ी पर पड़ी। ठिठक गया। उसे किसान की सूरत देखते ही सब बातें ज्ञात हो गई। डंडा एक किनारे रख दिया। कोट उतार डाला और किसान के पास जाकर बोला, “मैं तुम्हारी गाड़ी निकाल दूँ?”
किसान ने देखा एक गठे हुए बदन का लंबा आदमी सामने खड़ा है। झुककर बोला, “हुज़ूर, मैं आपसे कैसे कहूँ?” युवक ने कहा, “मालूम होता है, तुम यहाँ बड़ी देर से फँसे हो। अच्छा, तुम गाड़ी पर जाकर बैलों को साधो, मैं पहियों को ढकेलता हूँ, अभी गाड़ी ऊपर चढ़ जाती है।”
किसान गाड़ी पर जा बैठा। युवक ने पहिए को ज़ोर लगाकर उकसाया। कीचड़ बहुत ज़्यादा था। वह घुटने तक ज़मीन में गड़ गया, लेकिन हिम्मत न हारी। उसने फिर ज़ोर किया, उधर किसान ने बैलों को ललकारा। बैलों को सहारा मिला, हिम्मत बंध गई, उन्होंने कंधे झुकाकर एक बार ज़ोर किया तो गाड़ी नाले के ऊपर थी।
किसान युवक के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला, “महाराज, आपने आज मुझे उबार लिया, नहीं तो सारी रात मुझे यहाँ बैठना पड़ता।”
युवक ने हँसकर कहा, “अब मुझे कुछ इनाम देते हो?” किसान ने गंभीर भाव से कहा, “नारायण चाहेंगे तो दीवानी आपको ही मिलेगी।”
युवक ने किसान की तरफ़ ग़ौर से देखा। उसके मन में एक संदेह हुआ, क्या यह सुजानसिंह तो नहीं हैं? आवाज़ मिलती है, चेहरा-मोहरा भी वही। किसान ने भी उसकी ओर तीव्र दृष्टि से देखा। शायद उसके दिल के संदेह को भाँप गया। मुस्कुराकर बोला, “गहरे पानी में पैठने से ही मोती मिलता है।”
(पाँच)
निदान महीना पूरा हुआ। चुनाव का दिन आ पहुँचा। उम्मीदवार लोग प्रातःकाल ही से अपनी क़िस्मतों का फ़ैसला सुनने के लिए उत्सुक थे। दिन काटना पहाड़ हो गया। प्रत्येक के चेहरे पर आशा और निराशा के रंग आते थे। नहीं मालूम, आज किसके नसीब जागेंगे! न जाने किस पर लक्ष्मी की कृपादृष्टि होगी।
संध्या समय राजा साहब का दरबार सजाया गया। शहर के रईस और धनाढ्य लोग, राज्य के कर्मचारी और दरबारी तथा दीवानी के उम्मीदवारों का समूह, सब रंग-बिरंगी सज-धज बनाए दरबार में आ विराजे! उम्मीदवारों के कलेजे धड़क रहे थे।
जब सरदार सुजानसिंह ने खड़े होकर कहा, “मेरे दीवानी के उम्मीदवार महाशयो! मैंने आप लोगों को जो कष्ट दिया है, उसके लिए मुझे क्षमा कीजिए। इस पद के लिए ऐसे पुरुष की आवश्यकता थी, जिसके हृदय में दया हो और साथ-साथ आत्मबल। हृदय वह जो उदार हो, आत्मबल वह जो आपत्ति का वीरता के साथ सामना करे और इस रियासत के सौभाग्य से हमें ऐसा पुरुष मिल गया। ऐसे गुणवाले संसार में कम हैं और जो हैं, वे कीर्ति और मान के शिखर पर बैठे हुए हैं, उन तक हमारी पहुँच नहीं। मैं रियासत के पंडित जानकीनाथ-सा को दीवानी पाने पर बधाई देता हूँ।”
रियासत के कर्मचारियों और रईसों ने जानकीनाथ की तरफ़ देखा। उम्मीदवार दल की आँखें उधर उठीं, मगर उन आँखों में सत्कार था, इन आँखों में ईर्ष्या। सरदार साहब ने फिर फ़रमाया, “आप लोगों को यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति न होगी कि जो पुरुष स्वयं ज़ख़्मी होकर भी एक ग़रीब किसान की भरी हुई गाड़ी को दलदल से निकालकर नाले के ऊपर चढ़ा दे उसके हृदय में साहस, आत्मबल और उदारता का वास है। ऐसा आदमी ग़रीबों को कभी न सतावेगा। उसका संकल्प दृढ़ है, जो उसके चित्त को स्थिर रखेगा। वह चाहे धोखा खा जाए, परंतु दया और धर्म से कभी न हटेगा।”
(ek)
jab riyasat devgaDh ke divan sardar sujansinh buDhe hue to parmatma ki yaad aai. jakar maharaj se vinay ki ki dinbandhu! daas ne shriman ki seva chalis saal tak ki, ab meri avastha bhi Dhal gai, raaj kaaj sanbhalane ki shakti nahin rahi. kahin bhool chook ho jaye to buDhape mein daagh lage. sari zindagi ki nekanami mitti mein mil jaye.
raja sahab apne anubhavshil nitikushal divan ka baDa aadar karte the. bahut samjhaya, lekin jab divan sahab ne na mana, to harkar unki pararthna svikar kar lee; par shart ye laga di ki riyasat ke liye khojna paDega. naya divan aap hi ko dusre din desh ke prasiddh patron mein ye vigyapan nikla ki devgaDh ke liye ek suyogya divan ki zarurat hai. jo sajjan apne ko is pad ke yogya samjhen, ve vartaman sarkar sujansinh ki seva mein upasthit hon. ye zaruri nahin hai ki ve grejuet hon, magar hrisht pusht hona avashyak hai, mandagni ke mariz ko yahan tak kasht uthane ki koi zarurat nahin. ek mahine tak ummidvaron ke rahan sahn, achar vichar ki dekhbhal ki jayegi. vidya ka kam, parantu kartavya ka adhik vichar kiya jayega. jo mahashay is pariksha mein pure utrenge, ve is uchch pad par sushobhit honge.
(do)
is vigyapan ne sare mulk mein tahalka macha diya. aisa uncha pad aur kisi prakar ki qaid nahin? keval nasib ka khel hai. saikDon adami apna apna bhagya parakhne ke liye chal khaDe hue. devgaDh mein ne ne aur rang birange manushya dikhai dene lage. pratyek relgaDi se ummidvaron ka ek maila sa utarta. koi panjab se chala aata tha, koi madras se, koi ne faishan ka premi, koi purani sadgi par mita hua. rangin emame, choge aur nana prakar ke angarkhe aur kantop devgaDh mein apni saj dhaj dikhane lage. lekin sabse vishesh sankhya grejueton ki thi, kyonki sanad ki kaid na hone par bhi sanad se parda to Dhaka rahta hai.
sardar sujansinh ne in mahanubhavon ke aadar satkar ka baDa achchha prbandh kar diya tha. har ek manushya apne jivan ko apni buddhi ke anusar achchhe roop mein dikhane ki koshish karta tha. mistar ‘a’ nau baje din tak soya karte the, ajkal ve bagiche mein tahalte hue uusha ka darshan karte the. mistar ‘da’, ‘sa’ aur ‘ja’ se unke gharon par naukron ki naak mein dam tha, lekin ye sajjan ajkal ‘aap’ aur ‘janab’ ke bagair naukron se batachit nahin karte the. mistar ‘la’ ko kitab se ghrina thi, parantu ajkal ve baDe baDe granth dekhne paDhne mein Dube rahte the. jisse baat kijiye, wo namrata aur sadachar ka devta bana malum deta tha. log samajhte the ki ek mahine ka jhanjhat hai, kisi tarah kaat len, kahin karya siddh ho gaya to kaun puchhta hai?
lekin manushyon ka wo buDha jauhari aaD mein baitha hua dekh raha tha ki in bagulon mein hans kahan chhipa hua hai.
(teen)
ek din ne faishanvalon ko sujhi ki aapas mein hauki ka khel ho jaye. ye prastav hauki ke maije hue khilaDiyon ne pesh kiya. ye bhi to akhir ek vidya hai. ise kyon chhipa rakhen. sambhav hai, kuch hathon ki safai hi kaam kar jaye. chaliye tay ho gaya, feelD ban gai, khel shuru ho gaya aur gend kisi daftar ke aprentis ki tarah thokren khane lagi.
riyasat devgaDh mein ye khel bilkul nirali baat thi. paDhe likhe bhalemanus log shatranj aur taash jaise gambhir khel khelte the. dauD kood ke khel bachchon ke khel samjhe jate the.
khel baDe utsaah se jari tha. ghave ke log jab gend ko lekar tezi se uDte to aisa jaan paDta tha ki koi lahr baDhti chali aati hai. lekin dusri or ke khilaDi is baDhti hui lahr ko is tarah rok lete the ki mano lohe ki divar hai. sandhya tak yahi dhumdham rahi. log pasine se tar ho ge. khoon ki garmi ankh aur chehre se jhalak rahi thi. hanphate hanphate bedam ho ge, lekin haar jeet ka nirnay na ho saka.
andhera ho gaya tha. is maidan se jara door hatkar ek nala tha. us par koi pul na tha. pathikon ko nale mein se chalkar aana paDta tha. khel abhi band hi hua tha aur khilaDi log baithe dam le rahe the ki ek kisan anaj se bhari hui gaDi liye hue us nale mein aaya. lekin kuch to nale mein kichaD tha aur kuch uski chaDhai itni uunchi thi ki gaDi uupar na chaDh sakti thi. wo kabhi bailon ko lalkarta, kabhi pahiyon ko haath se Dhakelta, lekin bojh adhik tha aur bail kamzor. gaDi uupar ko na chaDhti aur chaDhti bhi to kuch door chaDhkar phir khisakkar niche pahunch jati. kisan baar baar jor lagata aur baar baar jhunjhlakar bailon ko marta, lekin gaDi ubharne ka naam na leti. bechara idhar udhar nirash hokar takta magar vahan koi sahayak nazar na aata. gaDi ko akele chhoDkar kahin ja bhi nahin sakta. baDi apatti mein phaisa hua tha. isi beech mein khilaDi hathon mein DanDe liye ghumte ghamte udhar se nikle.
kisan ne unki taraf sahmi hui ankhon se dekha; parantu kisi se madad mangne ka sahas na hua. khilaDiyon ne bhi usko dekha magar band ankhon se, jinmen sahanubhuti na thi. unmen svaarth tha, mad tha, magar udarta aur vatsalya ka naam bhi na tha.
(chaar)
lekin usi samuh mein ek aisa manushya tha jiske hriday mein daya thi aur sahas tha. aaj hauki khelte hue uske pairon mein chot lag gai thi. langData hua dhire dhire chala aata tha. akasmat uski nigah gaDi par paDi. thithak gaya. use kisan ki surat dekhte hi sab baten gyaat ho gai. DanDa ek kinare rakh diya. kot utaar Dala aur kisan ke paas jakar bola, “main tumhari gaDi nikal doon?”
kisan ne dekha ek gathe hue badan ka lamba adami samne khaDa hai. jhukkar bola, “huzur, main aapse kaise kahun?” yuvak ne kaha, “malum hota hai, tum yahan baDi der se phaise ho. achchha, tum gaDi par jakar bailon ko sadho, main pahiyon ko Dhakelta hoon, abhi gaDi uupar chaDh jati hai. ”
kisan gaDi par ja baitha. yuvak ne pahiye ko zor lagakar uksaya. kichaD bahut zyada tha. wo ghutne tak zamin mein gaD gaya, lekin himmat na hari. usne phir zor kiya, udhar kisan ne bailon ko lalkara. bailon ko sahara mila, himmat bandh gai, unhonne kandhe jhukakar ek baar zor kiya to gaDi nale ke uupar thi.
kisan yuvak ke samne haath joDkar khaDa ho gaya. bola, “maharaj, aapne aaj mujhe ubaar liya, nahin to sari raat mujhe yahan baithna paDta. ”
yuvak ne hansakar kaha, “ab mujhe kuch inaam dete ho?” kisan ne gambhir bhaav se kaha, “narayan chahenge to divani aapko hi milegi. ”
yuvak ne kisan ki taraf ghaur se dekha. uske man mein ek sandeh hua, kya ye sujansinh to nahin hain? avaz milti hai, chehra mohra bhi vahi. kisan ne bhi uski or teevr drishti se dekha. shayad uske dil ke sandeh ko bhaanp gaya. muskurakar bola, “gahre pani mein paithne se hi moti milta hai. ”
(paanch)
nidan mahina pura hua. chunav ka din aa pahuncha. ummidvar log pratःkal hi se apni qismton ka phaisla sunne ke liye utsuk the. din katna pahaD ho gaya. pratyek ke chehre par aasha aur nirasha ke rang aate the. nahin malum, aaj kiske nasib jagenge! na jane kis par lakshmi ki kripadrishti hogi.
sandhya samay raja sahab ka darbar sajaya gaya. shahr ke rais aur dhanaDhya log, rajya ke karmachari aur darbari tatha divani ke ummidvaron ka samuh, sab rang birangi saj dhaj banaye darbar mein aa viraje! ummidvaron ke kaleje dhaDak rahe the.
jab sardar sujansinh ne khaDe hokar kaha, “mere divani ke ummidvar mahashyo! mainne aap logon ko jo kasht diya hai, uske liye mujhe kshama kijiye. is pad ke liye aise purush ki avashyakta thi, jiske hriday mein daya ho aur saath saath atmabla hriday wo jo udaar ho, atmabal wo jo apatti ka virata ke saath samna kare aur is riyasat ke saubhagya se hamein aisa purush mil gaya. aise gunvale sansar mein kam hain aur jo hain, ve kirti aur maan ke shikhar par baithe hue hain, un tak hamari pahunch nahin. main riyasat ke panDit jankinath sa ko divani pane par badhai deta hoon. ”
riyasat ke karmchariyon aur raison ne jankinath ki taraf dekha. ummidvar dal ki ankhen udhar uthin, magar un ankhon mein satkar tha, in ankhon mein iirshya. sardar sahab ne phir farmaya, “aap logon ko ye svikar karne mein koi apatti na hogi ki jo purush svayan zakhmi hokar bhi ek gharib kisan ki bhari hui gaDi ko daldal se nikalkar nale ke uupar chaDha de uske hriday mein sahas, atmabal aur udarta ka vaas hai. aisa adami gharibon ko kabhi na satavega. uska sankalp driDh hai, jo uske chitt ko sthir rakhega. wo chahe dhokha kha jaye, parantu daya aur dharm se kabhi na hatega. ”
(ek)
jab riyasat devgaDh ke divan sardar sujansinh buDhe hue to parmatma ki yaad aai. jakar maharaj se vinay ki ki dinbandhu! daas ne shriman ki seva chalis saal tak ki, ab meri avastha bhi Dhal gai, raaj kaaj sanbhalane ki shakti nahin rahi. kahin bhool chook ho jaye to buDhape mein daagh lage. sari zindagi ki nekanami mitti mein mil jaye.
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sardar sujansinh ne in mahanubhavon ke aadar satkar ka baDa achchha prbandh kar diya tha. har ek manushya apne jivan ko apni buddhi ke anusar achchhe roop mein dikhane ki koshish karta tha. mistar ‘a’ nau baje din tak soya karte the, ajkal ve bagiche mein tahalte hue uusha ka darshan karte the. mistar ‘da’, ‘sa’ aur ‘ja’ se unke gharon par naukron ki naak mein dam tha, lekin ye sajjan ajkal ‘aap’ aur ‘janab’ ke bagair naukron se batachit nahin karte the. mistar ‘la’ ko kitab se ghrina thi, parantu ajkal ve baDe baDe granth dekhne paDhne mein Dube rahte the. jisse baat kijiye, wo namrata aur sadachar ka devta bana malum deta tha. log samajhte the ki ek mahine ka jhanjhat hai, kisi tarah kaat len, kahin karya siddh ho gaya to kaun puchhta hai?
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(teen)
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riyasat devgaDh mein ye khel bilkul nirali baat thi. paDhe likhe bhalemanus log shatranj aur taash jaise gambhir khel khelte the. dauD kood ke khel bachchon ke khel samjhe jate the.
khel baDe utsaah se jari tha. ghave ke log jab gend ko lekar tezi se uDte to aisa jaan paDta tha ki koi lahr baDhti chali aati hai. lekin dusri or ke khilaDi is baDhti hui lahr ko is tarah rok lete the ki mano lohe ki divar hai. sandhya tak yahi dhumdham rahi. log pasine se tar ho ge. khoon ki garmi ankh aur chehre se jhalak rahi thi. hanphate hanphate bedam ho ge, lekin haar jeet ka nirnay na ho saka.
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kisan ne unki taraf sahmi hui ankhon se dekha; parantu kisi se madad mangne ka sahas na hua. khilaDiyon ne bhi usko dekha magar band ankhon se, jinmen sahanubhuti na thi. unmen svaarth tha, mad tha, magar udarta aur vatsalya ka naam bhi na tha.
(chaar)
lekin usi samuh mein ek aisa manushya tha jiske hriday mein daya thi aur sahas tha. aaj hauki khelte hue uske pairon mein chot lag gai thi. langData hua dhire dhire chala aata tha. akasmat uski nigah gaDi par paDi. thithak gaya. use kisan ki surat dekhte hi sab baten gyaat ho gai. DanDa ek kinare rakh diya. kot utaar Dala aur kisan ke paas jakar bola, “main tumhari gaDi nikal doon?”
kisan ne dekha ek gathe hue badan ka lamba adami samne khaDa hai. jhukkar bola, “huzur, main aapse kaise kahun?” yuvak ne kaha, “malum hota hai, tum yahan baDi der se phaise ho. achchha, tum gaDi par jakar bailon ko sadho, main pahiyon ko Dhakelta hoon, abhi gaDi uupar chaDh jati hai. ”
kisan gaDi par ja baitha. yuvak ne pahiye ko zor lagakar uksaya. kichaD bahut zyada tha. wo ghutne tak zamin mein gaD gaya, lekin himmat na hari. usne phir zor kiya, udhar kisan ne bailon ko lalkara. bailon ko sahara mila, himmat bandh gai, unhonne kandhe jhukakar ek baar zor kiya to gaDi nale ke uupar thi.
kisan yuvak ke samne haath joDkar khaDa ho gaya. bola, “maharaj, aapne aaj mujhe ubaar liya, nahin to sari raat mujhe yahan baithna paDta. ”
yuvak ne hansakar kaha, “ab mujhe kuch inaam dete ho?” kisan ne gambhir bhaav se kaha, “narayan chahenge to divani aapko hi milegi. ”
yuvak ne kisan ki taraf ghaur se dekha. uske man mein ek sandeh hua, kya ye sujansinh to nahin hain? avaz milti hai, chehra mohra bhi vahi. kisan ne bhi uski or teevr drishti se dekha. shayad uske dil ke sandeh ko bhaanp gaya. muskurakar bola, “gahre pani mein paithne se hi moti milta hai. ”
(paanch)
nidan mahina pura hua. chunav ka din aa pahuncha. ummidvar log pratःkal hi se apni qismton ka phaisla sunne ke liye utsuk the. din katna pahaD ho gaya. pratyek ke chehre par aasha aur nirasha ke rang aate the. nahin malum, aaj kiske nasib jagenge! na jane kis par lakshmi ki kripadrishti hogi.
sandhya samay raja sahab ka darbar sajaya gaya. shahr ke rais aur dhanaDhya log, rajya ke karmachari aur darbari tatha divani ke ummidvaron ka samuh, sab rang birangi saj dhaj banaye darbar mein aa viraje! ummidvaron ke kaleje dhaDak rahe the.
jab sardar sujansinh ne khaDe hokar kaha, “mere divani ke ummidvar mahashyo! mainne aap logon ko jo kasht diya hai, uske liye mujhe kshama kijiye. is pad ke liye aise purush ki avashyakta thi, jiske hriday mein daya ho aur saath saath atmabla hriday wo jo udaar ho, atmabal wo jo apatti ka virata ke saath samna kare aur is riyasat ke saubhagya se hamein aisa purush mil gaya. aise gunvale sansar mein kam hain aur jo hain, ve kirti aur maan ke shikhar par baithe hue hain, un tak hamari pahunch nahin. main riyasat ke panDit jankinath sa ko divani pane par badhai deta hoon. ”
riyasat ke karmchariyon aur raison ne jankinath ki taraf dekha. ummidvar dal ki ankhen udhar uthin, magar un ankhon mein satkar tha, in ankhon mein iirshya. sardar sahab ne phir farmaya, “aap logon ko ye svikar karne mein koi apatti na hogi ki jo purush svayan zakhmi hokar bhi ek gharib kisan ki bhari hui gaDi ko daldal se nikalkar nale ke uupar chaDha de uske hriday mein sahas, atmabal aur udarta ka vaas hai. aisa adami gharibon ko kabhi na satavega. uska sankalp driDh hai, jo uske chitt ko sthir rakhega. wo chahe dhokha kha jaye, parantu daya aur dharm se kabhi na hatega. ”
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।