एक दिन की बादशाहत
ek din ki badshahat
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा पाँचवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
“आरिफ़...सलीम...चलो, फ़ौरन सो जाओ,” अम्मी की आवाज़ ऐन उस वक़्त आती थी, जब वे दोस्तों के साथ बैठे कव्वाली गा रहे होते थे। या फिर सुबह बड़े मज़े में आइसक्रीम खाने के सपने देख रहे होते कि आपा झिंझोड़कर जगा देतीं “जल्दी उठो, स्कूल का वक़्त हो गया,”
दोनों की मुसीबत में जान थी। हर वक़्त पाबंदी, हर वक़्त तकरार। अपनी मर्ज़ी से चूँ भी न कर सकते थे। कभी आरिफ़ को गाने का मूड आता, तो भाई-जान डाँटते “चुप होता है या नहीं? हर वक़्त मेंढक की तरह टर्राए जाता है!”
बाहर जाओ, तो अम्मी पूछती “बाहर क्यों गए?” अंदर रहते, तो दादी चिल्लाती “हाय, मेरा दिमाग़ फटा जा रहा है शोर के मारे! अरी रज़िया, ज़रा इन बच्चों को बाहर हाँक दे!” जैसे बच्चे न हुए मुर्गी के चूज़े हो गए!
दोनों घंटों बैठकर इन पाबंदियों से बच निकलने को तरक़ीबें सोचा करते। उन दोनों से तो सारे घर को दुश्मनी हो गई थी। लिहाज़ा दोनों ने मिलकर एक योजना बनाई और अब्बा की खिदमत में एक दरख़ास्त पेश की कि एक दिन उन्हें बड़ों के सारे अधिकार दे दिए जाएँ और सब बड़े छोटे बन जाएँ!
“कोई ज़रूरत नहीं है ऊधम मचाने की!” अम्मी ने अपनी आदत के अनुसार डॉट पिलाई। लेकिन अब्बा जाने किस मूड में थे कि न सिर्फ़ मान गए बल्कि यह इक़रार भी कर बैठे कि कल दोनों को हर क़िस्म के अधिकार मिल जाएँगे।
अभी सुबह होने में कई घंटे थे कि आरिफ़ ने अम्मी को झिंझोड़ डाला “अम्मी, जल्दी उठिए नाश्ता तैयार कीजिए!”
अम्मी ने चाहा एक झापड़ रसीद करके सो रहें, मगर याद आया कि आज तो उनके सारे अधिकार छीने जा चुके हैं।
फिर दादी ने सुबह की नमाज़ पढ़ने के बाद दवाएँ खाना और बादाम का हरीरा पीना शुरू किया, तो आरिफ़ ने उन्हें रोका “तौबा है, दादी! कितना हरीरा पिएँगी आप...पेट फट जाएगा!” और दादी ने हाथ उठाया मारने के लिए।
नाश्ता मेज़ पर आया तो आरिफ़ ने ख़ानसामा से कहा “अंडे और मक्खन वग़ैरह हमारे सामने रखो, दलिया और दूध-बिस्कुट इन सबको दे दो!”
आपा ने कहर-भरी नज़रों से उन्हें घूरा, मगर बेबस थी क्योंकि रोज़ की तरह आज वह तर माल अपने लिए नहीं रख सकती थीं।
सब खाने बैठे, तो सलीम ने अम्मी को टोका “अम्मी, ज़रा अपने दाँत देखिए, पान खाने से कितने गंदे हो रहे हैं!”
“मैं तो दाँत माँज चुकी हूँ,” अम्मी ने टालना चाहा!
“नहीं, चलिए, उठिए।” अम्मी निवाला तोड़ चुकी थी, मगर सलीम ने ज़बरदस्ती कंधा पकड़कर उन्हें उठा दिया।
अम्मी को ग़ुसलख़ाने में जाते देखकर सब हँस पड़े, जैसे रोज़ सलीम को ज़बरदस्ती भगा के हँसते थे।
फिर वह अब्बा की तरफ़ मुड़ा “ज़रा अब्बा की गत देखिए! बाल बढ़े हुए, शेव नहीं की, कल कपड़े पहने थे और आज इतने मैले कर डाले! आख़िर अब्बा के लिए कितने कपड़े बनाए जाएँगे!”
यह सुनकर अब्बा का हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया। आज ये दोनों कैसी सही नक़्ल उतार रहे थे सबकी! मगर फिर अपने कपड़े देखकर वह सचमुच शर्मिंदा हो गए।
थोड़ी देर बाद जब अब्बा अपने दोस्तों के बीच बैठे अपनी नई ग़ज़ल लहक-लहक कर सुना रहे थे, तो आरिफ़ फिर चिल्लाने लगा “बस कीजिए, अब्बा! फ़ौरन ऑफ़िस जाइए, दस बज गए!”
“चु...चु...चोप...” अब्बा डाँटते-डाँटते रुक गए। बेबसी से ग़ज़ल की अधूरी पंक्ति दाँतों में दबाए पाँव पटकते आरिफ़ के साथ हो लिए।
रज़िया, ज़रा मुझे पाँच रुपए तो देना,” अब्बा दफ़्तर जाने को तैयार होकर बोले।
“पाँच रुपए का क्या होगा? कार में पैट्रोल तो है।” आरिफ़ ने तुनककर अब्बा जान की नक़ल उतारी, जैसे अब्बा कहते हैं कि इकन्नी का क्या करोगे, जेब-ख़र्च तो ले चुके!
थोड़ी देर बाद ख़ानसामा आया “बेगम साहब, आज क्या पकेगा?”
“आलू, गोश्त, कबाब, मिचों का सालन...” अम्मी ने अपनी आदत के अनुसार कहना शुरू किया।
“नहीं, आज ये चीज़ें नहीं पकेंगी!” सलीम ने किताब रखकर अम्मी की नक़ल उतारी, “आज गुलाब-जामुन, गाजर का हलवा और मीठे चावल पकाओ!”
“लेकिन मिठाइयों से रोटी कैसे खाई जाएगी?” अम्मी किसी तरह सब्र न कर सकीं।”
“जैसे हम रोज़ सिर्फ़ मिचों के सालन से खाते हैं!” दोनों ने एक साथ कहा।
दूसरी तरफ़ दादी किसी से तू-त-मैं-मैं किए जा रही थीं।
“ओफ़्फ़ो! दादी तो शोर के मारे दिमाग़ पिघलाए दे रही हैं!” आरिफ़ ने दादी की तरह दोनों हाथों में सिर थामकर कहा।
इतना सुनते ही दादी ने चीख़ना-चिल्लाना शुरू कर दिया कि आज ये लड़के मेरे पीछे पंजे झाड़ के पड़ गए हैं। मगर अब्बा के समझाने पर ख़ून का घूँट पीकर रह गई।
कॉलेज का वक़्त हो गया, तो भाई जान अपनी सफ़ेद क़मीज़ को आरिफ़-सलीम से बचाते दालान में आए “अम्मी, शाम को मैं देर से आऊँगा, दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने जाना है।”
“ख़बरदार!” आरिफ़ ने आँखें निकालकर उन्हें धमकाया। “कोई ज़रूरत नहीं फ़िल्म देखने की इम्तिहान क़रीब हैं और हर वक़्त सैर-सपाटों में गुम रहते हैं आप!”
पहले तो भाई जान एक करारा हाथ मारने लपके, फिर कुछ सोचकर मुस्कुरा पड़े। “लेकिन, हुज़ूरे-आली, दोस्तों के साथ खाकसार फ़िल्म देखने की बात पक्की कर चुके हैं इसलिए इज़ाज़त देने की मेहरबानी की जाए।” उन्होंने हाथ जोड़ के कहा।
“बना करे...बस, मैंने एक बार कह दिया!” उसने लापरवाही से कहा और सोफ़े पर दराज़ होकर अख़बार देखने लगा।
उसी वक़्त आपा भी अपने कमरे से निकली। एक निहायत भारी साड़ी में लचकती-लटकती बड़े ठाठ से कॉलेज जा रही थीं।
“आप...!” सलीम ने बड़े ग़ौर से आपा का मुआयना किया। “इतनी भारी साड़ी क्यों पहनी? शाम तक गारत हो आएगी। इस साड़ी को बदलकर जाइए। आज वह सफ़ेद वॅयल की साड़ी पहनना!”
“अच्छा अच्छा...बहुत दे चुके हुक्म...” आपा चिढ़ गई। “हमारे कॉलेज में आज फ़ंक्शन है,” उन्होंने साड़ी की शिकनें दुरस्त कीं।
“हुआ करे...मैं क्या कह रहा हूँ...सुना नहीं...?” अपनी इतनी अच्छी नक़्ल देखकर आपा शर्मिंदा हो गईं-बिल्कुल इसी तरह तो वह आरिफ़ और सलीम से उनकी मनपसंद क़मीज़ उतरवाकर निहायत बेकार कपड़े पहनने का हुक्म लगाया करती हैं।
दूसरी सुबह हुई।
सलीम की आँख खुली, तो आपा नाश्ते की मेज़ सजाए उन दोनों के उठने का इंतज़ार कर रही थीं। अम्मी ख़ानसामा को हुक्म दे रहीं थीं कि हर खाने के साथ एक मीठी चीज़ ज़रूर पकाया करो। अंदर आरिफ़ के गाने के साथ भाई जान मेज़ का तबला बजा रहे थे और अब्बा सलीम से कह रहे थे “स्कूल जाते वक़्त एक चवन्नी जेब में डाल लिया करो...क्या हर्ज़ है...!”
- पुस्तक : रिमझिम (पृष्ठ 77)
- रचनाकार : जीलानी बानो
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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