यशोधरा! “मैंने रात में एक स्वप्न देखा है। बड़ा अजीब लग रहा है। सोचते-बोलते रतन घबराने लगा।
'दिन में कुछ देखे होंगे, वही याद आ गया होगा। मैं भी तो बहुत कुछ स्वप्न में देखती रहती हूँ, लेकिन नींद खुलते ही भूल जाती हूँ। कभी कुछ सच होता नहीं।'
यशोधरा रतन के बेचैन मन को विचलित करने की कोशिश करने लगी।
'नहीं यशोधरा! मैंने तो बचपन से ही देखा है- सारे स्वप्न सच्चे निकलते हैं। यह बात जरूर है कि थोड़ी दूर से गुज़रती है। क्या बताऊँ! कहूँगा तो विश्वास नहीं करोगी। बचपन में एक स्वप्न देखा भगवान शंकर अपना त्रिशूल लेकर मुझे खदेड़ रहे हैं और मैं भागता जा रहा हूँ। रास्ते में ब्रह्मा जी मिले। उन्होंने मदद की। तुरत कहा-
'बेटे! बैठ जाओ, पैखाना करने के लिए। शंकर जी कुछ नहीं करेंगे।' मैं बैठ गया। भगवान शंकर त्रिशूल लेकर खड़े रहे, लेकिन मुझपर हाथ नहीं उठाया।'
'क्या भगवान शंकर से आपकी भेंट बाद में हुई? ब्रह्मा जी मिले?' यशोधरा ने पूछा।
'ओफ्फोह! स्वप्न का परिणाम सीधा नहीं होता। जानती हो, क्या हुआ? जीवन में मुझे कई ब्रह्मा और कई शंकर मिले, लेकिन सभी ने एक ही रास्ता बताया। मैं हमेशा आगे बढ़ता गया। क्यों? क्योंकि कभी मैंने मन में मैल इकट्ठा किया ही नहीं।'
बात मेरी समझ में नहीं आयी 'यशोधरा ने कहा।'
'देखो! हर इन्सान के रास्ते में बाधाएँ आती हैं। अपने आप नहीं आती, किसी के द्वारा डाली जाती हैं। लेकिन, इस प्रकृति में, यानि कहो कि इस दुनिया में हर चीज का काट उपलब्ध है। बस, यही समझ लो कि उन बाधाओं का काट भी मनुष्य ही बनता है। भगवान शंकर और ब्रह्मा तो प्रतीक थे। खैर छोड़ो! देखो, क्या होता है!'
रतन ऑफिस गया। आवास से एक सौ फीट की दूरी पर ऑफिस थी। प्राकृतिक आपदाएँ सालो भर परेशान करती रहती हैं। कभी बाढ़, कभी सुखाड़, कभी लू, कभी शीतलहरी। अखबार के पन्नों पर प्रतिदिन ठंड से मृत्यु के समाचारों ने रतन को जनवरी-फरवरी के महीनों में भी परेशान कर रखा है।
आखिर कम्बल किसे दिया जाए? जरूरतमन्द लोगों से अधिक दबाव बेजरूरतमन्द लोगों का है। मुँह भी तो वही लोग खोलते हैं। लोगों का मुँह बन्द कर रखना ही नौकरी की सफलता है। दरख्वास्त नहीं पड़े, जाँच कमिटी नहीं बैठ जाए- इसकी चिन्ता एक ओर और राहत सही-सही बँट जाए-यह चिन्ता दूसरी ओर। इन दो धाराओं के बीच रतन उपलाने लगा। मिलनेवालों के बीच रतन आज मूक बना हुआ था। यशोधरा की बुलाहट आयी- गरम- गरम मछली-भात खाने के लिए। स्वप्न की बातें मन में पुनः हलचल पैदा करने लगीं।
रतन का दाहिना हाथ मछली-भात पर, लेकिन दिल-दिमाग उस खपड़ैल मकान की ड्योढ़ी में था, जहाँ माँ रतन को स्कूल से आने के बाद खिलाया करती थी। घर में चावल न रहने पर कर्ज-महाजन, अइँचा-पइँचा करके पाव भर भी जरूर गदका देती। पंखा झलते-झलते थाली को भी निहारती। ममता की इस मूर्ति के मुँह से एक ही आवाज निकलती- 'किसी तरह पढ़-लिखकर आदमी बन जाओ!'
खाने के बाद जो कुछ बचता, शिवानी चाट-पोंछकर कुछ ही कौर में साफ कर देती।रतन खाते-खाते चौंक गया। यशोधरा घबरा गयी। बोली-'क्या सोच रहे थे आप? क्यों घबरा गये? आपने तो स्वप्न पर पहले कभी इतना विश्वास नहीं किया?'
पता नहीं यशोधरा! पहले के स्वप्न और आज के स्वप्न में काफी अन्तर दिखाई पड़ रहा है। मैंने कहा है न कि स्वप्न का परिणाम देर से गुज़रता है। ऐसा लग रहा है कि यह स्वप्न नजदीक से गुज़रेगा। बरबस माँ बाद आ रही है। लगता है, मुझे खोज रही है, बुला रही है। खाना हटा लो
रतन खाना छोड़कर आँगन में हाथ धोने गया। डाकिये की आवाज़ आयी 'सर! टेलीग्राम।'
लिफाफा खुला। लगा, पूरा वाक्य एक ही शब्द था। आँखें बरसने लगीं। यशोधरा-बच्चे पलंग पर लोंघड़ गये। चीत्कार शुरू हो गयी। परिजन दौड़ पड़े। रामायण और महाभारत के कई प्रसंग पेश किये जाने लगे, लेकिन आँखों की बरसात थम नहीं रही थी। हर जीवन की यही कहानी है जो आया है, सो जायेगा।
मंगली ने अपनी बाँहों में यशोधरा को कस लिया। ढाढ़स देने लगी। रतन को भी समझाने लगी, तसल्ली देने लगी- माँ जी ने तो अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया। अब आपलोगों को बेटा-बहू का फर्ज निभाना है। बेचारी सब कुछ पूरा कर गयीं। हिम्मत कीजिए! आँसुओं को रोकिए!
आँखों की गहराई समुद्र से ज्यादा है। जितना भी बहायेंगे, सूखेंगी नहीं।
मंगली काम करते-करते यशोधरा को बेटी समझने लगी थी। हर काम में हाथ बंटाकर यशोधरा पर काबू पा चुकी थी। ढाढ़स बंधाने वालों का तांता लगा था। छठ्ठू सिंह उम्र में रतन के पिता समान थे। उन्होंने समझाने की कोशिश की- 'यह सब किसे नहीं देखना है? आप तो दूसरों को ढाढ़स बँधाते हैं। यदि आप ही ऐसा करेंगे तो और लोगों का क्या होगा, लोग किसे देखकर हिम्मत करेंगे?'
'छठ्ठू जी! क्या मैं इन ज़हरीले आँसुओं को बाहर भी नहीं करूँ? निकालने दीजिए इन्हें! यदि ऐसा नहीं करूँगा तो शायद पागल हो जाऊँगा।'
बोलते-बोलते रतन की आँखों से पुनः धारा फूट गयी। लोगों की कतार इतनी लम्बी हो गयी थी कि आसुओं की बरसात कुछ थम गयी। कई घरों से रात का भोजन आया। बच्चों ने थोड़ा-बहुत खाया! यशोधरा और रतन की भूख स्मृतियों में विलीन हो चुकी थी। रात कटी। सुबह बच्चे समेत दोनों
उस घाट पर पहुँचे, जहाँ से लंच खुलती है और गंगा पार करती है। घटवार को पता चला। तुरंत प्रथम श्रेणी का सबसे ऊपरी कमरा सुरक्षित कर दिया। दूसरों के लिए उस दिन प्रथम श्रेणी की बुकिंग बन्द रही। धारा पश्चिम से पूरब बह रही थी और लंच उत्तर से दक्षिण। मोटर लंच ज्योंही धारे की ओर बढ़ी, धाराओं से खेलने लगी। रतन की निगाहें उछलती तरंगों पर टिकी थीं। यशोधरा घबरा रही थी।
'ओफ्फोह यशोधरा! तुम घबरायी क्यों हो? माँ अपनी बाँहों में खेला रही है। दो दिन बीत गये। पाँचों तत्वों के अणु धाराओं के साथ वहाँ पहुँच चुके हैं। पूरी माँ इसी में है। हमलोगों के बेचैन मन को शान्त कर रही है।'
यशोधरा चुप थी। बात समझ से बाहर थी।
'चलो चलो, नीचे चलो! माँ इन्हीं धाराओं से गुजर रही है। चलकर स्पर्श करो!'
दोनों उतर गये। बच्चे ऊपर ही रह गये। दोनों ने धाराओं से चुल्लू में पानी लेकर अपने शरीर पर छिड़का। उसी धारा के पानी से मुँह धोया और प्रणाम किया।
लंच गंगा पार कर गयी। रेल में सवार होकर सभी पटना आये।
'सुनिए! ज़रा मन्दिर हो लीजिए! हनुमान जी ज़िन्दा देवता हैं। सबके दुख हरते हैं।'
समय और परिस्थितियाँ मनुष्य से सब कुछ मनवा लेती हैं। दोनों मन्दिर गये और उदास लौटे। हनुमान जी ने न तो कुछ बताया और न ही कुछ हरा। बोले तक नहीं।
'यशोधरा! तुम कहती हो कि ज़िन्दा देवता हैं, तो बोलते क्यों नहीं?'
यशोधरा चुप हो जाती है। बच्चे समेत गोलम्बर के पास पहुँचती है। जीवन की घटनाएँ क्रमवार आने लगीं। रतन सोचने लगा-
कितना बौना हो गया है यह गोलम्बर! कभी खुला था। आज लोहे की ज़ंजीर पहना दी गयी है इसे। जिस किसी की इसने मदद की, उसकी परिधि बढ़ती गयी, लेकिन इसकी परिधि को लोगों ने संकुचित कर दिया।
मैं कह रही हूँ न कि आप सोचना बन्द कर दीजिए!
'कुछ तो नहीं सोच रहा हूँ।'
यशोधरा रतन की आँखें निहारने लगी। डबडबाती आँखें देखकर बोली-
'सोच कैसे नहीं रहे हैं?”
“नहीं यशोधरा। ऐसी कोई बात नहीं। यह गोलम्बर एक कहानी है। कोई दस वर्ष पहले में पहली बार पटना आया था- नयी तमन्नाओं के साथ पढ़ने के लिए नाम लिखवाने। शाम हो गयी थी। अचानक हल्ला हुआ था कि एक नेताजी दुनिया छोड़ चुके। ट्रेन, बस- जो जहाँ थी, वहीं रुक गयी। सड़कों पर लीचियों से भरी टोकरियों को छीन छीन कर लुटा दिया गया। भूखा इन्साफ नहीं देखता। होश नहीं था। पेट की ज्वाला आदमी को स्वार्थी बना देती है। खाया और खाकर इसी अहाते में गमछी बिछाकर लेट गया। माँ भी साथ थी। बकरी पालती थी। जोड़ा पाठी बेचकर मेरे साथ आयी थी। गोलम्बर के इस अहाते में नींद नहीं आ रही थी। माँ बैठी रही, मैं लेटा रहा। देखता रहा- कई झुण्ड लोग ट्रेन से उतरे और कई रास्ते पकड़े। पता तब चला, जब उनमें से कुछ मायूस होकर तौटे और इसी गोलम्बर में अपनी- अपनी चादरें बिछाकर लेट गये। एक ने दूसरे से कहा- 'दुनिया में कहीं कुछ नहीं है। अरे देखो, में मन्दिर गया। कहाँ कुछ मिला? उदास ही तो लौट आया।”
दूसरे ने कहा- 'भाई। लोग कहते है कि मस्जिद में खुदा मिलते ही हैं। मैंने जिसे देखा, वह कुछ बोला तक नहीं।'
तीसरे ने कहा- 'भाई। तुमलोग तो बेकार चादर चढ़ाते हो, लड्डू चढ़ाते हो। मैंने प्रार्थना और इसने भजन से काम लिया। तुमतोग भी सिर्फ ठेहुनियाँ मारो और पद्मासन लगाओ। नही मिलेगा तो नहीं मिलेगा, खर्च तो नहीं होगा।'
में लेटा-लेटा सारा कुछ सुन रहा था। माँ से बातें कर रहा था। माँ ने समझाया- 'बेटा। हर घर मंदिर है। कोई कहीं का देवता है और कहीं का पुजारी।
यशोधरा! आज तक मैं माँ की उस बात को भूल नहीं सका
यशोधरा की भी आँखें डबडबा गयीं। वह मूक हो गयी। अब समझाने की बारी रतन की आ गयी।
'यशोधरा! मेरी माँ के हृदय की परिधि असीम थी। आज लगता है, उस परिधि के चारों ओर मैं अणु की तरह चक्कर काट रहा हूँ और माँ मुझे उस परिधि से भागने नहीं दे रही है। जानती हो! वह निरक्षर थी, लेकिन कभी ऐसा लगता नहीं था कि वह अक्षरों को नहीं पहचानती थी। जो भी बोलती, शाश्वत सत्य बोलती। मैं तो उस निरक्षर माँ का आभारी हूँ, जो मेरी पढ़ाई को अपनी पढ़ाई समझती रही। मुझे तो ऐसा लगता है कि यदि मेरी माँ जागी नहीं होती तो मैं सोया रह जाता। माँ ने मुझे वह औजार दिया है, जो न कभी घिसेगा, न कभी टूटेगा और न जिसमें जंग ही पकड़ेगा। समय के साथ उसकी धार और तेज बनती जायेगी।'
बच्चे समेत दोनों बस पर बैठ गये और गाँव के निकट पहुँच गये। बहुत सारे टमटम खड़े थे। कुछ गोला के भी थे। दो-चार परिचितों पर नज़रें पड़ीं। प्रणाम-पाति भी हुई, लेकिन सिर हिलाने के अलावे किसी ने कुछ नहीं बताया। टमटम पर सवार होने की इच्छा नहीं हुई, लेकिन गोपाल ने बरबस बैठा लिया।
'कहो गोपाल भैया! तुम भी कुछ बता नहीं रहे हो?'
'जानते ही हो, क्या बताऊँ? बेचारी चाची के चले जाने से गोला का आकार छोटा हो गया। सारे लोग दुखी हैं।'
गोपाल के ये शब्द पुनः आँसू बरसाने के लिए काफी थे। रतन की आँखें झरझराने लगीं। टमटम गोला पहुँच गया। सारे लोग रतन की इंतजारी में थे। नजर पड़ते ही पिताजी फफक पड़े।
रतन ड्योढ़ी में पहुँचा। अन्दर गया। संयोग से पीढ़ा वहीं बिछा था,
जहाँ माँ रतन को पंखे झलकर खिलाया करती थी। जाने-अनजाने रतन उसी पीढ़े पर बैठ गया। बहन पानी लेकर आयी। रतन की आँख और नाक दोनों से पानी बहने लगा।
रतन कभी चूल्हा निहारता, कभी मटकी, कभी टेहरी, कभी सिकहर। कमरे में घुसकर उस खाट को देखता, जिसपर माँ के साथ सोया करता। जहाँ भी नजर जाती, वहाँ उसे माँ का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता। गाँव के
काफी लोग इकट्ठे हुए बच्चे बच्च्यिाँ, बूढ़े जवान। सब की नजरें रतन पर टिकी थीं। जितने लोग आते, कहकर चले जाते माँ हो तो ऐसी, बेटा हो तो ऐसा। हर की दुआ साथ लगने लगी। रतन को इन दुआओं से ताकत मिली। मन को वश में किया और भूत को छोड़कर वर्तमान पर जम गया। सोचने लगा-
“अब माँ जहाँ रहेगी, खुश रखूँगा।”
पुरोहित जी आये। शांति की तैयारी हुई।
'गाँव के सारे गरीब-अमीर तुम्हारी माँ को अपनी माँ के समान समझते थे। पूरे गाँव की माँ थी वह। उसके भोज में सारे गरीब-अमीर शर्गिंद होंगे'- पुरोहित जी ने कहा।
माँ से बड़ी कोई देवी नहीं, पिता से बड़ा कोई देवता नहीं और पत्नी से बड़ा कोई मित्र नहीं होता रतन मन ही मन सोच रहा था। महापात्र जी पधारे। विचित्र लीला है। आम दिनों में आदमी जिसे देखना नहीं चाहता, आज के दिन उसे ही पूजता है। महापात्र बोलते गये और रतन पूरा करता गया। सोचा 'माँ के मरने के बाद मों को लेकर कोई विवाद न हो, कोई असंतुष्ट न हो।' तिल-दूध पीकर महापात्र विदा हुए। अब ब्रह्म-भोज की तैयारी शुरू हुई। लोग पंक्तिबद्ध बैठ गये। जलेबियाँ चलने लगीं। एक ब्राह्मण ने आहिस्ते जलेबी माँगी। परोसनेवाले बढ़ गये। ब्राह्मण क्रोध में उठकर खड़े हो गये। रतन घबरा गया। हाथ जोड़कर उसने प्रार्थना की। रतन की आवाज़ ने उस ब्राह्मण के क्रोध को घोल लिया। भोज चल ही रहा था कि जागा पहुँचा। आवाज से ही उसकी पहचान हो गयी। रतन ने दौड़कर उसे बैठाया। उसके भोजन के लिए दही-चूड़ा मँगवाया। जागा ने दही-चूड़ा मिलाकर पूरे लप में उठाया और माँ के नाम की जयकार करते हुए लप को कंठ तक ले जाकर अचानक रोक दिया। बोला- 'माँ तो कंठ पकड़ रही है।'
'नहीं बाबा! मेरी माँ ने आज तक किसी का कंठ नहीं पकड़ा। आप ऐसा नहीं बोलें। जो आपकी इच्छा हो, माँग लीजिए, लेकिन माँ को शब्दों से बदनाम मत कीजिए!' जागा खुश हो गया और प्रभावित भी। उसने वही रेट माँगा, जो अन्य जगहों पर मोल-मोलई के बाद मिलता है।
सारे विधि-विधान पूरे हुए। बारी-बारी से मेहमानों की विदाई हुई। अतिथियों के जाने के बाद घर सूना हो गया।
रतन रुक भी तो नहीं सकता। रोजी-रोटी का प्रश्न था। चलने लगा। पिताजी सामने खड़े थे। ज्योंही रतन का पहला कदम बढ़ा, पिता की आँखों से आँसुओं के फब्बारे फूट पड़े। बिना कुछ बोले रतन कुछ नये-नये नोटों से पिता को शांत करने की निरर्थक कोशिश करने लगा। धातु और कागज के टुकड़ों से मन का दर्द सोखा नहीं जा सकता। विह्वल पिता को देखकर रतन के चलने की योजना उस दिन स्थगित हो गयी। रात में बातें होने लगीं। दूसरों को तो बहुत कुछ बताते हैं, लेकिन अपने को मुक्त नहीं कर पाते। पुराने ख्यालों के आते ही डूब जाते हैं। रतन ही समझाने की कोशिश करता है।
सवेरा होते ही रतन ने पिताजी को मना लिया।
'मन नहीं लगे, तो बेधड़क चले आइए' रतन ने कहा। ऐसे ही वादों और आश्वासनों के साथ रतन गोला छोड़ चला। पड़ोस की महिलाएँ ओझल होने तक निहारती रहीं। रतन खामोश आगे बढ़ता जा रहा था। सोच रहा था- 'माँ छूट गयी, गाँव छूट रहा है, बहनें छूट रही हैं और छूट रहे हैं सारे प्रियजन। क्या गोपाल भैया! कुछ देर बाद तुम भी छूट जाओगे न?'
'रतन! छूट तो जाओगे तुम। मुझे तो बस इसी गाँव में रहना है, इन्हीं लोगों के बीच रहना है। याद है तुम्हें? तुमने मैट्रिक पास किया था। जब गाँव छोड़े थे, गोबर्द्धन कितना परेशान था! मैं खेत में हल जोत रहा था और तुम पगडंडियों से विदा हो रहे थे। याद है मेरा गीत-
'दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे…?'
'पूरा का पूरा याद है गोपाल भैया! वह तो स्मृति बनकर रह गया है। कहाँ गया वह बचपन और कहाँ गये वे आम के वृक्ष! जब सोचता हूँ तो पढ़ना-लिखना बेकार सा लगता है। जीवन में गहरी खाई पैदा हो गयी है, जिसे भरकर सड़क नहीं बना सकता। पुल बनाता हूँ, मगर वह पुल भी हर समय साथ नहीं देता, मौके मौके पर टूट जाता है।'
घोड़ा आगे बढ़ने से इन्कार करने लगा। गोपाल ने हल्की चाबुक लगायी।
'आहाहा! गोपाल भैया! क्यों मारते हो इसे?'
देख रहे हो न! कितनी शैतानी कर रहा है? अकड़ जाता है।''
'नहीं तो। बेचारा आने वक्त तो कभी नहीं अकड़ा। दौड़ता हुआ आया था। आज इसने अपनी गति धीमी क्यों कर दी? घोड़े के मन को पढ़ो गोपाल भैया! इसकी भावनाओं की कद्र करो! यह अकड़ता नहीं, कुछ कहता है।'
'मैं भी तो चाबुक मार नहीं रहा हूँ, कुछ कह रहा हूँ।'
साथ रहते-रहते यशोधरा रतन के मन को पढ़ना जान गयी थी।
बोली-
'दोनों मजबूर हैं। अपनी-अपनी जगह पर सही है'
गोपाल समझ गया कि यशोधरा क्या कहना चाहती है। खामोश हो गया। घोड़े ने भी चाल पकड़ ली।
सड़क किनारे बरगद का वह पेड़ मिला, जहाँ स्कूल से लौटते वक्त रतन रुककर आराम कर लिया करता था। यादें आने लगीं। गम्भीर बन गया।
'क्यों रतन! इतने गम्भीर क्यों हो गये?
'भइया! इस बरगद की ठंडी छाँव भी छूट रही है। याद है मुझे। गुरू जी के साथ करीव नौ बजे रात में लौट रहा था कुछ प्रश्न पत्रों को लेकर। जब भी प्रश्न-पत्र लाना होता था, गुरूजी मुझे ही साथ रखते थे। कारण था- मैं प्रश्नपत्रों को खोलकर पढ़ता नहीं था। जब हमलोग इस बरगद के समीप पहुँचे, तब मुझे खाँसी आयी। गुरूजी ने कहा- खाँसो मत! इस बरगद की डालियों पर चोर बैठे रहते हैं। गुरूजी ने एक नया बाइपास बनाया और आधा किलोमीटर का चक्कर कटवा दिया।
'मैंने तो कभी सुना था कि बरगद के पेड़ पर देवता रहते हैं। चोर-डाकू, भूत-प्रेत कहाँ से आये?'
टमटम बढ़ता जा रहा था। ज्यों-ज्यों बस स्टैंड नजदीक आ रहा था. गोपाल के हाथ की लगाम ढीली पड़ती जा रही थी। बस स्टैंड पहुँचा। रतन पचास रुपये का एक करेंसी नोट गोपाल को थमाने लगा। गोपाल इन्कार करने लगा।
'नहीं भैया! यदि आप नहीं लीजियेगा तो इस पैसे से घोड़े को चना खिला दीजियेगा! बड़ी मेहनत की है इसने।'फिर भी गोपाल ने पैसे नहीं लिये।
रतन यशोधरा और बच्च्चों के साथ बस पर बैठ गया और पटना आ गया। बस छोड़कर जंक्शन की ओर बढ़ा। पुनः वही गोलम्बर सामने आ गया। रतन की आँखों में फिर वही सारे दृश्य एक के बाद एक उभरने लगे। आँसुओं को तो रतन ने थाम लिया था, लेकिन दिल का दर्द बढ़ता जा रहा था। आँखों के सामने वे पत्नी-बच्चे अदृश्य जैसे लग रहे थे। निगाहें गोलम्बर के केन्द्रबिन्दु पर टिकी थीं। बरबस गणितीय माप के अन्दाज पर गोलम्बर के अन्दर वहीं जाकर बैठ गया, जहाँ पहली बार आकर सोया था। बच्चों के साथ यशोधरा भी बैठ गयी।
'देखती हो न यशोधरा! यह जो गोलम्बर है न, इसमें पूरी दुनिया सिमट जाती है।'
'यह कैसे पापा? - बड़े लड़के ने पूछा।'
'देखो बेटे! पढ़े हो न कि पृथ्वी अंडे की तरह गोल है? इस गोलम्बर को देखो इसकी शक्ल भी वैसी ही है। दुनिया के हर कोने से लोग आते हैं, जिन्हें ज़रूरत पड़ती है, वे यहाँ ठहरते हैं और चले जाते हैं। धरती को देखो! इस धरती पर लोग अनजान बनकर आते हैं, पड़ाव डालते हैं, पहचान बनाते हैं और चले जाते हैं। यह धरती बड़े धैर्य से सबका बोझ उठाती है, माँ की तरह। यह गोलम्बर ऐसी माँ है जो आने वाले हर अनजान को आँचल का सुख देती है। जब इस गोलम्बर को देखता हूँ तो इसके केन्द्र में माँ की तस्वीर दिखाई देती है, चेहरा साफ-साफ नजर आता है- बिना किसी माध्यम के। मुझे विश्वास है कि मेरी माँ हमेशा इसी गोलम्बर में रहेगी और मैं जब चाहूँगा, आकर देख लिया करूँगा।'
yashodhra! “mainne raat mein ek svapn dekha hai. baDa ajib lag raha hai. sochte bolte ratan ghabrane laga.
din mein kuch dekhe honge, vahi yaad aa gaya hoga. main bhi to bahut kuch svapn mein dekhti rahti hoon, lekin neend khulte hi bhool jati hoon. kabhi kuch sach hota nahin.
yashodhra ratan ke bechain man ko vichlit karne ki koshish karne lagi.
nahin yashodhra! mainne to bachpan se hi dekha hai sare svapn sachche nikalte hain. ye baat jarur hai ki thoDi door se guzarti hai. kya bataun! kahunga to vishvas nahin karogi. bachpan mein ek svapn dekha bhagvan shankar apna trishul lekar mujhe khadeD rahe hain aur main bhagta ja raha hoon. raste mein brahma ji mile. unhonne madad ki. turat kaha
bete! baith jao, paikhana karne ke liye. shankar ji kuch nahin karenge. main baith gaya. bhagvan shankar trishul lekar khaDe rahe, lekin mujhpar haath nahin uthaya.
kya bhagvan shankar se apaki bhent baad mein hui? brahma ji mile? yashodhra ne puchha.
ophphoh! svapn ka parinam sidha nahin hota. janti ho, kya hua? jivan mein mujhe kai brahma aur kai shankar mile, lekin sabhi ne ek hi rasta bataya. main hamesha aage baDhta gaya. kyon? kyonki kabhi mainne man mein mail ikattha kiya hi nahin.
baat meri samajh mein nahin aayi yashodhra ne kaha.
dekho! har insaan ke raste mein badhayen aati hain. apne aap nahin aati, kisi ke dvara Dali jati hain. lekin, is prkriti mein, yani kaho ki is duniya mein har cheej ka kaat uplabdh hai. bas, yahi samajh lo ki un badhaon ka kaat bhi manushya hi banta hai. bhagvan shankar aur brahma to pratik the. khair chhoDo! dekho, kya hota hai!
ratan auphis gaya. avas se ek sau pheet ki duri par auphis thi. prakritik apdayen salo bhar pareshan karti rahti hain. kabhi baaDh, kabhi sukhaD, kabhi lu, kabhi shitalahri. akhbar ke pannon par pratidin thanD se mrityu ke samacharon ne ratan ko janavri pharavri ke mahinon mein bhi pareshan kar rakha hai.
akhir kambal kise diya jaye? jaruratmand logon se adhik dabav bejruratmand logon ka hai. munh bhi to vahi log kholte hain. logon ka munh band kar rakhna hi naukari ki saphalta hai. darakhvast nahin paDe, jaanch kamiti nahin baith jaye iski chinta ek or aur rahat sahi sahi bant jaye ye chinta dusri or. in do dharaon ke beech ratan uplane laga. milnevalon ke beech ratan aaj mook bana hua tha. yashodhra ki bulahat aayi garam garam machhli bhaat khane ke liye. svapn ki baten man mein punः halchal paida karne lagin.
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khane ke baad jo kuch bachta, shivani chaat ponchhkar kuch hi kaur mein saaph kar deti. ratan khate khate chaunk gaya. yashodhra ghabra gayi. boli kya soch rahe the aap? kyon ghabra gaye? aapne to svapn par pahle kabhi itna vishvas nahin kiya?
pata nahin yashodhra! pahle ke svapn aur aaj ke svapn mein kaphi antar dikhai paD raha hai. mainne kaha hai na ki svapn ka parinam der se guzarta hai. aisa lag raha hai ki ye svapn najdik se guzrega. barbas maan baad aa rahi hai. lagta hai, mujhe khoj rahi hai, bula rahi hai. khana hata lo
liphapha khula. laga, pura vakya ek hi shabd tha. ankhen barasne lagin. yashodhra bachche palang par longhaD gaye. chitkar shuru ho gayi. parijan dauD paDe. ramayan aur mahabharat ke kai prsang pesh kiye jane lage, lekin ankhon ki barsat tham nahin rahi thi. har jivan ki yahi kahani hai jo aaya hai, so jayega.
mangli ne apni banhon mein yashodhra ko kas liya. DhaDhas dene lagi. ratan ko bhi samjhane lagi, tasalli dene lagi maan ji ne to apna farz pura kar diya. ab aplogon ko beta bahu ka pharj nibhana hai. bechari sab kuch pura kar gayin. himmat kijiye! ansuon ko rokiye!
ankhon ki gahrai samudr se jyada hai. jitna bhi bahayenge, sukhengi nahin.
mangli kaam karte karte yashodhra ko beti samajhne lagi thi. har kaam mein haath bantakar yashodhra par kabu pa chuki thi. DhaDhas bandhane valon ka tanta laga tha. chhaththu sinh umr mein ratan ke pita saman the. unhonne samjhane ki koshish ki ye sab kise nahin dekhana hai? aap to dusron ko DhaDhas bandhate hain. yadi aap hi aisa karenge to aur logon ka kya hoga, log kise dekhkar himmat karenge?
chhaththu jee! kya main in zahrile ansuon ko bahar bhi nahin karun? nikalne dijiye inhen! yadi aisa nahin karunga to shayad pagal ho jaunga.
bolte bolte ratan ki ankhon se punः dhara phoot gayi. logon ki katar itni lambi ho gayi thi ki asuon ki barsat kuch tham gayi. kai gharon se raat ka bhojan aaya. bachchon ne thoDa bahut khaya! yashodhra aur ratan ki bhookh smritiyon mein vilin ho chuki thi. raat kati. subah bachche samet donon
us ghaat par pahunche, jahan se lanch khulti hai aur ganga paar karti hai. ghatvar ko pata chala. turant pratham shreni ka sabse uupri kamra surakshit kar diya. dusron ke liye us din pratham shreni ki buking band rahi. dhara pashchim se purab bah rahi thi aur lanch uttar se dakshin. motar lanch jyonhi dhare ki or baDhi, dharaon se khelne lagi. ratan ki nigahen uchhalti tarangon par tiki theen. yashodhra ghabra rahi thi.
ophphoh yashodhra! tum ghabrayi kyon ho? maan apni banhon mein khela rahi hai. do din beet gaye. panchon tatvon ke anu dharaon ke saath vahan pahunch chuke hain. puri maan isi mein hai. hamlogon ke bechain man ko shaant kar rahi hai.
yashodhra chup thi. baat samajh se bahar thi.
chalo chalo, niche chalo! maan inhin dharaon se gujar rahi hai. chalkar sparsh karo!
donon utar gaye. bachche uupar hi rah gaye. donon ne dharaon se chullu mein pani lekar apne sharir par chhiDka. usi dhara ke pani se munh dhoya aur prnaam kiya.
lanch ganga paar kar gayi. rel mein savar hokar sabhi patna aaye.
suniye! zara mandir ho lijiye! hanuman ji zinda devta hain. sabke dukh harte hain.
samay aur paristhitiyan manushya se sab kuch manva leti hain. donon mandir gaye aur udaas laute. hanuman ji ne na to kuch bataya aur na hi kuch hara. bole tak nahin.
yashodhra! tum kahti ho ki zinda devta hain, to bolte kyon nahin?
yashodhra chup ho jati hai. bachche samet golambar ke paas pahunchti hai. jivan ki ghatnayen kramvar aane lagin. ratan sochne laga
kitna bauna ho gaya hai ye golambar! kabhi khula tha. aaj lohe ki zanjir pahna di gayi hai ise. jis kisi ki isne madad ki, uski paridhi baDhti gayi, lekin iski paridhi ko logon ne sankuchit kar diya.
main kah rahi hoon na ki aap sochna band kar dijiye!
kuch to nahin soch raha hoon.
yashodhra ratan ki ankhen niharne lagi. DabDabati ankhen dekhkar boli
soch kaise nahin rahe hain?”
“nahin yashodhra. aisi koi baat nahin. ye golambar ek kahani hai. koi das varsh pahle mein pahli baar patna aaya tha nayi tamannaon ke saath paDhne ke liye naam likhvane. shaam ho gayi thi. achanak halla hua tha ki ek netaji duniya chhoD chuke. tren, bas jo jahan thi, vahin ruk gayi. saDkon par lichiyon se bhari tokariyon ko chheen chheen kar luta diya gaya. bhukha insaaph nahin dekhta. hosh nahin tha. pet ki jvala adami ko svarthi bana deti hai. khaya aur khakar isi ahate mein gamchhi bichhakar let gaya. maan bhi saath thi. bakri palti thi. joDa pathi bechkar mere saath aayi thi. golambar ke is ahate mein neend nahin aa rahi thi. maan baithi rahi, main leta raha. dekhta raha kai jhunD log tren se utre aur kai raste pakDe. pata tab chala, jab unmen se kuch mayus hokar taute aur isi golambar mein apni apni chadren bichhakar let gaye. ek ne dusre se kaha duniya mein kahin kuch nahin hai. are dekho, mein mandir gaya. kahan kuch mila? udaas hi to laut aaya. ”
dusre ne kaha bhai. log kahte hai ki masjid mein khuda milte hi hain. mainne jise dekha, wo kuch bola tak nahin.
tisre ne kaha bhai. tumlog to bekar chadar chaDhate ho, laDDu chaDhate ho. mainne pararthna aur isne bhajan se kaam liya. tumtog bhi sirph thehuniyan maro aur padmasan lagao. nahi milega to nahin milega, kharch to nahin hoga.
mein leta leta sara kuch sun raha tha. maan se baten kar raha tha. maan ne samjhaya beta. har ghar mandir hai. koi kahin ka devta hai aur kahin ka pujari.
yashodhra! aaj tak main maan ki us baat ko bhool nahin saka
yashodhra ki bhi ankhen DabDaba gayin. wo mook ho gayi. ab samjhane ki bari ratan ki aa gayi.
yashodhra! meri maan ke hriday ki paridhi asim thi. aaj lagta hai, us paridhi ke charon or main anu ki tarah chakkar kaat raha hoon aur maan mujhe us paridhi se bhagne nahin de rahi hai. janti ho! wo nirakshar thi, lekin kabhi aisa lagta nahin tha ki wo akshron ko nahin pahchanti thi. jo bhi bolti, shashvat satya bolti. main to us nirakshar maan ka abhari hoon, jo meri paDhai ko apni paDhai samajhti rahi. mujhe to aisa lagta hai ki yadi meri maan jagi nahin hoti to main soya rah jata. maan ne mujhe wo aujar diya hai, jo na kabhi ghisega, na kabhi tutega aur na jismen jang hi pakDega. samay ke saath uski dhaar aur tej banti jayegi.
bachche samet donon bas par baith gaye aur gaanv ke nikat pahunch gaye. bahut sare tamtam khaDe the. kuch gola ke bhi the. do chaar parichiton par nazren paDin. prnaam pati bhi hui, lekin sir hilane ke alave kisi ne kuch nahin bataya. tamtam par savar hone ki ichchha nahin hui, lekin gopal ne barbas baitha liya.
kaho gopal bhaiya! tum bhi kuch bata nahin rahe ho?
jante hi ho, kya bataun? bechari chachi ke chale jane se gola ka akar chhota ho gaya. sare log dukhi hain.
gopal ke ye shabd punः ansu barsane ke liye kaphi the. ratan ki ankhen jharajhrane lagin. tamtam gola pahunch gaya. sare log ratan ki intjari mein the. najar paDte hi pitaji phaphak paDe.
jahan maan ratan ko pankhe jhalkar khilaya karti thi. jane anjane ratan usi piDhe par baith gaya. bahan pani lekar aayi. ratan ki ankh aur naak donon se pani bahne laga.
ratan kabhi chulha niharta, kabhi matki, kabhi tehri, kabhi sikhar. kamre mein ghuskar us khaat ko dekhta, jispar maan ke saath soya karta. jahan bhi najar jati, vahan use maan ka pratibimb dikhai paDta. gaanv ke
kaphi log ikatthe hue bachche bachchyian, buDhe javan. sab ki najren ratan par tiki theen. jitne log aate, kahkar chale jate maan ho to aisi, beta ho to aisa. har ki dua saath lagne lagi. ratan ko in duaon se takat mili. man ko vash mein kiya aur bhoot ko chhoDkar vartaman par jam gaya. sochne laga
“ab maan jahan rahegi, khush rakhunga. ”
purohit ji aaye. shanti ki taiyari hui.
gaanv ke sare garib amir tumhari maan ko apni maan ke saman samajhte the. pure gaanv ki maan thi wo. uske bhoj mein sare garib amir shargind honge purohit ji ne kaha.
maan se baDi koi devi nahin, pita se baDa koi devta nahin aur patni se baDa koi mitr nahin hota ratan man hi man soch raha tha. mahapatr ji padhare. vichitr lila hai. aam dinon mein adami jise dekhana nahin chahta, aaj ke din use hi pujta hai. mahapatr bolte gaye aur ratan pura karta gaya. socha maan ke marne ke baad mon ko lekar koi vivad na ho, koi asantusht na ho. til doodh pikar mahapatr vida hue. ab brahm bhoj ki taiyari shuru hui. log panktibaddh baith gaye. jalebiyan chalne lagin. ek brahman ne ahiste jalebi mangi. parosnevale baDh gaye. brahman krodh mein uthkar khaDe ho gaye. ratan ghabra gaya. haath joDkar usne pararthna ki. ratan ki avaz ne us brahman ke krodh ko ghol liya. bhoj chal hi raha tha ki jaga pahuncha. avaj se hi uski pahchan ho gayi. ratan ne dauDkar use baithaya. uske bhojan ke liye dahi chuDa mangvaya. jaga ne dahi chuDa milakar pure lap mein uthaya aur maan ke naam ki jaykar karte hue lap ko kanth tak le jakar achanak rok diya. bola maan to kanth pakaD rahi hai.
nahin baba! meri maan ne aaj tak kisi ka kanth nahin pakDa. aap aisa nahin bolen. jo apaki ichchha ho, maang lijiye, lekin maan ko shabdon se badnam mat kijiye! jaga khush ho gaya aur prabhavit bhi. usne vahi ret manga, jo anya jaghon par mol molii ke baad milta hai.
sare vidhi vidhan pure hue. bari bari se mehmanon ki vidai hui. atithiyon ke jane ke baad ghar suna ho gaya.
ratan ruk bhi to nahin sakta. roji roti ka parashn tha. chalne laga. pitaji samne khaDe the. jyonhi ratan ka pahla kadam baDha, pita ki ankhon se ansuon ke phabbare phoot paDe. bina kuch bole ratan kuch naye naye noton se pita ko shaant karne ki nirarthak koshish karne laga. dhatu aur kagaj ke tukDon se man ka dard sokha nahin ja sakta. vihval pita ko dekhkar ratan ke chalne ki yojna us din sthagit ho gayi. raat mein baten hone lagin. dusron ko to bahut kuch batate hain, lekin apne ko mukt nahin kar pate. purane khyalon ke aate hi Doob jate hain. ratan hi samjhane ki koshish karta hai.
savera hote hi ratan ne pitaji ko mana liya.
man nahin lage, to bedhaDak chale aie ratan ne kaha. aise hi vadon aur ashvasnon ke saath ratan gola chhoD chala. paDos ki mahilayen ojhal hone tak niharti rahin. ratan khamosh aage baDhta ja raha tha. soch raha tha maan chhoot gayi, gaanv chhoot raha hai, bahnen chhoot rahi hain aur chhoot rahe hain sare priyjan. kya gopal bhaiya! kuch der baad tum bhi chhoot jaoge na?
ratan! chhoot to jaoge tum. mujhe to bas isi gaanv mein rahna hai, inhin logon ke beech rahna hai. yaad hai tumhen? tumne maitrik paas kiya tha. jab gaanv chhoDe the, gobarddhan kitna pareshan tha! main khet mein hal jot raha tha aur tum pagDanDiyon se vida ho rahe the. yaad hai mera geet
do hanson ka joDa bichhaD gayo re…?
pura ka pura yaad hai gopal bhaiya! wo to smriti bankar rah gaya hai. kahan gaya wo bachpan aur kahan gaye ve aam ke vriksh! jab sochta hoon to paDhna likhna bekar sa lagta hai. jivan mein gahri khai paida ho gayi hai, jise bharkar saDak nahin bana sakta. pul banata hoon, magar wo pul bhi har samay saath nahin deta, mauke mauke par toot jata hai.
ghoDa aage baDhne se inkaar karne laga. gopal ne halki chabuk lagayi.
ahaha! gopal bhaiya! kyon marte ho ise?
dekh rahe ho na! kitni shaitani kar raha hai? akaD jata hai.
nahin to. bechara aane vakt to kabhi nahin akDa. dauDta hua aaya tha. aaj isne apni gati dhimi kyon kar dee? ghoDe ke man ko paDho gopal bhaiya! iski bhavnaon ki kadr karo! ye akaDta nahin, kuch kahta hai.
main bhi to chabuk maar nahin raha hoon, kuch kah raha hoon.
saath rahte rahte yashodhra ratan ke man ko paDhna jaan gayi thi.
boli
donon majbur hain. apni apni jagah par sahi hai
gopal samajh gaya ki yashodhra kya kahna chahti hai. khamosh ho gaya. ghoDe ne bhi chaal pakaD li.
saDak kinare bargad ka wo peD mila, jahan skool se lautte vakt ratan rukkar aram kar liya karta tha. yaden aane lagin. gambhir ban gaya.
kyon ratan! itne gambhir kyon ho gaye?
bhaiya! is bargad ki thanDi chhaanv bhi chhoot rahi hai. yaad hai mujhe. guru ji ke saath kariv nau baje raat mein laut raha tha kuch parashn patron ko lekar. jab bhi parashn patr lana hota tha, guruji mujhe hi saath rakhte the. karan tha main prashnpatron ko kholkar paDhta nahin tha. jab hamlog is bargad ke samip pahunche, tab mujhe khansi aayi. guruji ne kaha khanso mat! is bargad ki Daliyon par chor baithe rahte hain. guruji ne ek naya baipas banaya aur aadha kilomitar ka chakkar katva diya.
mainne to kabhi suna tha ki bargad ke peD par devta rahte hain. chor Daku, bhoot pret kahan se aye?
tamtam baDhta ja raha tha. jyon jyon bas stainD najdik aa raha tha. gopal ke haath ki lagam Dhili paDti ja rahi thi. bas stainD pahuncha. ratan pachas rupye ka ek karensi not gopal ko thamane laga. gopal inkaar karne laga.
nahin bhaiya! yadi aap nahin lijiyega to is paise se ghoDe ko chana khila dijiyega! baDi mehnat ki hai isne. phir bhi gopal ne paise nahin liye.
ratan yashodhra aur bachchchon ke saath bas par baith gaya aur patna aa gaya. bas chhoDkar jankshan ki or baDha. punः vahi golambar samne aa gaya. ratan ki ankhon mein phir vahi sare drishya ek ke baad ek ubharne lage. ansuon ko to ratan ne thaam liya tha, lekin dil ka dard baDhta ja raha tha. ankhon ke samne ve patni bachche adrishya jaise lag rahe the. nigahen golambar ke kendrbindu par tiki theen. barbas ganitiy maap ke andaj par golambar ke andar vahin jakar baith gaya, jahan pahli baar aakar soya tha. bachchon ke saath yashodhra bhi baith gayi.
dekhti ho na yashodhra! ye jo golambar hai na, ismen puri duniya simat jati hai.
ye kaise papa? baDe laDke ne puchha.
dekho bete! paDhe ho na ki prithvi anDe ki tarah gol hai? is golambar ko dekho iski shakl bhi vaisi hi hai. duniya ke har kone se log aate hain, jinhen zarurat paDti hai, ve yahan thahrte hain aur chale jate hain. dharti ko dekho! is dharti par log anjan bankar aate hain, paDav Dalte hain, pahchan banate hain aur chale jate hain. ye dharti baDe dhairya se sabka bojh uthati hai, maan ki tarah. ye golambar aisi maan hai jo aane vale har anjan ko anchal ka sukh deti hai. jab is golambar ko dekhta hoon to iske kendr mein maan ki tasvir dikhai deti hai, chehra saaph saaph najar aata hai bina kisi madhyam ke. mujhe vishvas hai ki meri maan hamesha isi golambar mein rahegi aur main jab chahunga, aakar dekh liya karunga.
yashodhra! “mainne raat mein ek svapn dekha hai. baDa ajib lag raha hai. sochte bolte ratan ghabrane laga.
din mein kuch dekhe honge, vahi yaad aa gaya hoga. main bhi to bahut kuch svapn mein dekhti rahti hoon, lekin neend khulte hi bhool jati hoon. kabhi kuch sach hota nahin.
yashodhra ratan ke bechain man ko vichlit karne ki koshish karne lagi.
nahin yashodhra! mainne to bachpan se hi dekha hai sare svapn sachche nikalte hain. ye baat jarur hai ki thoDi door se guzarti hai. kya bataun! kahunga to vishvas nahin karogi. bachpan mein ek svapn dekha bhagvan shankar apna trishul lekar mujhe khadeD rahe hain aur main bhagta ja raha hoon. raste mein brahma ji mile. unhonne madad ki. turat kaha
bete! baith jao, paikhana karne ke liye. shankar ji kuch nahin karenge. main baith gaya. bhagvan shankar trishul lekar khaDe rahe, lekin mujhpar haath nahin uthaya.
kya bhagvan shankar se apaki bhent baad mein hui? brahma ji mile? yashodhra ne puchha.
ophphoh! svapn ka parinam sidha nahin hota. janti ho, kya hua? jivan mein mujhe kai brahma aur kai shankar mile, lekin sabhi ne ek hi rasta bataya. main hamesha aage baDhta gaya. kyon? kyonki kabhi mainne man mein mail ikattha kiya hi nahin.
baat meri samajh mein nahin aayi yashodhra ne kaha.
dekho! har insaan ke raste mein badhayen aati hain. apne aap nahin aati, kisi ke dvara Dali jati hain. lekin, is prkriti mein, yani kaho ki is duniya mein har cheej ka kaat uplabdh hai. bas, yahi samajh lo ki un badhaon ka kaat bhi manushya hi banta hai. bhagvan shankar aur brahma to pratik the. khair chhoDo! dekho, kya hota hai!
ratan auphis gaya. avas se ek sau pheet ki duri par auphis thi. prakritik apdayen salo bhar pareshan karti rahti hain. kabhi baaDh, kabhi sukhaD, kabhi lu, kabhi shitalahri. akhbar ke pannon par pratidin thanD se mrityu ke samacharon ne ratan ko janavri pharavri ke mahinon mein bhi pareshan kar rakha hai.
akhir kambal kise diya jaye? jaruratmand logon se adhik dabav bejruratmand logon ka hai. munh bhi to vahi log kholte hain. logon ka munh band kar rakhna hi naukari ki saphalta hai. darakhvast nahin paDe, jaanch kamiti nahin baith jaye iski chinta ek or aur rahat sahi sahi bant jaye ye chinta dusri or. in do dharaon ke beech ratan uplane laga. milnevalon ke beech ratan aaj mook bana hua tha. yashodhra ki bulahat aayi garam garam machhli bhaat khane ke liye. svapn ki baten man mein punः halchal paida karne lagin.
ratan ka dahina haath machhli bhaat par, lekin dil dimag us khapDail makan ki DyoDhi mein tha, jahan maan ratan ko skool se aane ke baad khilaya karti thi. ghar mein chaval na rahne par karj mahajan, aincha paincha karke paav bhar bhi jarur gadka deti. pankha jhalte jhalte thali ko bhi niharti. mamta ki is murti ke munh se ek hi avaj nikalti kisi tarah paDh likhkar adami ban jao!
khane ke baad jo kuch bachta, shivani chaat ponchhkar kuch hi kaur mein saaph kar deti. ratan khate khate chaunk gaya. yashodhra ghabra gayi. boli kya soch rahe the aap? kyon ghabra gaye? aapne to svapn par pahle kabhi itna vishvas nahin kiya?
pata nahin yashodhra! pahle ke svapn aur aaj ke svapn mein kaphi antar dikhai paD raha hai. mainne kaha hai na ki svapn ka parinam der se guzarta hai. aisa lag raha hai ki ye svapn najdik se guzrega. barbas maan baad aa rahi hai. lagta hai, mujhe khoj rahi hai, bula rahi hai. khana hata lo
liphapha khula. laga, pura vakya ek hi shabd tha. ankhen barasne lagin. yashodhra bachche palang par longhaD gaye. chitkar shuru ho gayi. parijan dauD paDe. ramayan aur mahabharat ke kai prsang pesh kiye jane lage, lekin ankhon ki barsat tham nahin rahi thi. har jivan ki yahi kahani hai jo aaya hai, so jayega.
mangli ne apni banhon mein yashodhra ko kas liya. DhaDhas dene lagi. ratan ko bhi samjhane lagi, tasalli dene lagi maan ji ne to apna farz pura kar diya. ab aplogon ko beta bahu ka pharj nibhana hai. bechari sab kuch pura kar gayin. himmat kijiye! ansuon ko rokiye!
ankhon ki gahrai samudr se jyada hai. jitna bhi bahayenge, sukhengi nahin.
mangli kaam karte karte yashodhra ko beti samajhne lagi thi. har kaam mein haath bantakar yashodhra par kabu pa chuki thi. DhaDhas bandhane valon ka tanta laga tha. chhaththu sinh umr mein ratan ke pita saman the. unhonne samjhane ki koshish ki ye sab kise nahin dekhana hai? aap to dusron ko DhaDhas bandhate hain. yadi aap hi aisa karenge to aur logon ka kya hoga, log kise dekhkar himmat karenge?
chhaththu jee! kya main in zahrile ansuon ko bahar bhi nahin karun? nikalne dijiye inhen! yadi aisa nahin karunga to shayad pagal ho jaunga.
bolte bolte ratan ki ankhon se punः dhara phoot gayi. logon ki katar itni lambi ho gayi thi ki asuon ki barsat kuch tham gayi. kai gharon se raat ka bhojan aaya. bachchon ne thoDa bahut khaya! yashodhra aur ratan ki bhookh smritiyon mein vilin ho chuki thi. raat kati. subah bachche samet donon
us ghaat par pahunche, jahan se lanch khulti hai aur ganga paar karti hai. ghatvar ko pata chala. turant pratham shreni ka sabse uupri kamra surakshit kar diya. dusron ke liye us din pratham shreni ki buking band rahi. dhara pashchim se purab bah rahi thi aur lanch uttar se dakshin. motar lanch jyonhi dhare ki or baDhi, dharaon se khelne lagi. ratan ki nigahen uchhalti tarangon par tiki theen. yashodhra ghabra rahi thi.
ophphoh yashodhra! tum ghabrayi kyon ho? maan apni banhon mein khela rahi hai. do din beet gaye. panchon tatvon ke anu dharaon ke saath vahan pahunch chuke hain. puri maan isi mein hai. hamlogon ke bechain man ko shaant kar rahi hai.
yashodhra chup thi. baat samajh se bahar thi.
chalo chalo, niche chalo! maan inhin dharaon se gujar rahi hai. chalkar sparsh karo!
donon utar gaye. bachche uupar hi rah gaye. donon ne dharaon se chullu mein pani lekar apne sharir par chhiDka. usi dhara ke pani se munh dhoya aur prnaam kiya.
lanch ganga paar kar gayi. rel mein savar hokar sabhi patna aaye.
suniye! zara mandir ho lijiye! hanuman ji zinda devta hain. sabke dukh harte hain.
samay aur paristhitiyan manushya se sab kuch manva leti hain. donon mandir gaye aur udaas laute. hanuman ji ne na to kuch bataya aur na hi kuch hara. bole tak nahin.
yashodhra! tum kahti ho ki zinda devta hain, to bolte kyon nahin?
yashodhra chup ho jati hai. bachche samet golambar ke paas pahunchti hai. jivan ki ghatnayen kramvar aane lagin. ratan sochne laga
kitna bauna ho gaya hai ye golambar! kabhi khula tha. aaj lohe ki zanjir pahna di gayi hai ise. jis kisi ki isne madad ki, uski paridhi baDhti gayi, lekin iski paridhi ko logon ne sankuchit kar diya.
main kah rahi hoon na ki aap sochna band kar dijiye!
kuch to nahin soch raha hoon.
yashodhra ratan ki ankhen niharne lagi. DabDabati ankhen dekhkar boli
soch kaise nahin rahe hain?”
“nahin yashodhra. aisi koi baat nahin. ye golambar ek kahani hai. koi das varsh pahle mein pahli baar patna aaya tha nayi tamannaon ke saath paDhne ke liye naam likhvane. shaam ho gayi thi. achanak halla hua tha ki ek netaji duniya chhoD chuke. tren, bas jo jahan thi, vahin ruk gayi. saDkon par lichiyon se bhari tokariyon ko chheen chheen kar luta diya gaya. bhukha insaaph nahin dekhta. hosh nahin tha. pet ki jvala adami ko svarthi bana deti hai. khaya aur khakar isi ahate mein gamchhi bichhakar let gaya. maan bhi saath thi. bakri palti thi. joDa pathi bechkar mere saath aayi thi. golambar ke is ahate mein neend nahin aa rahi thi. maan baithi rahi, main leta raha. dekhta raha kai jhunD log tren se utre aur kai raste pakDe. pata tab chala, jab unmen se kuch mayus hokar taute aur isi golambar mein apni apni chadren bichhakar let gaye. ek ne dusre se kaha duniya mein kahin kuch nahin hai. are dekho, mein mandir gaya. kahan kuch mila? udaas hi to laut aaya. ”
dusre ne kaha bhai. log kahte hai ki masjid mein khuda milte hi hain. mainne jise dekha, wo kuch bola tak nahin.
tisre ne kaha bhai. tumlog to bekar chadar chaDhate ho, laDDu chaDhate ho. mainne pararthna aur isne bhajan se kaam liya. tumtog bhi sirph thehuniyan maro aur padmasan lagao. nahi milega to nahin milega, kharch to nahin hoga.
mein leta leta sara kuch sun raha tha. maan se baten kar raha tha. maan ne samjhaya beta. har ghar mandir hai. koi kahin ka devta hai aur kahin ka pujari.
yashodhra! aaj tak main maan ki us baat ko bhool nahin saka
yashodhra ki bhi ankhen DabDaba gayin. wo mook ho gayi. ab samjhane ki bari ratan ki aa gayi.
yashodhra! meri maan ke hriday ki paridhi asim thi. aaj lagta hai, us paridhi ke charon or main anu ki tarah chakkar kaat raha hoon aur maan mujhe us paridhi se bhagne nahin de rahi hai. janti ho! wo nirakshar thi, lekin kabhi aisa lagta nahin tha ki wo akshron ko nahin pahchanti thi. jo bhi bolti, shashvat satya bolti. main to us nirakshar maan ka abhari hoon, jo meri paDhai ko apni paDhai samajhti rahi. mujhe to aisa lagta hai ki yadi meri maan jagi nahin hoti to main soya rah jata. maan ne mujhe wo aujar diya hai, jo na kabhi ghisega, na kabhi tutega aur na jismen jang hi pakDega. samay ke saath uski dhaar aur tej banti jayegi.
bachche samet donon bas par baith gaye aur gaanv ke nikat pahunch gaye. bahut sare tamtam khaDe the. kuch gola ke bhi the. do chaar parichiton par nazren paDin. prnaam pati bhi hui, lekin sir hilane ke alave kisi ne kuch nahin bataya. tamtam par savar hone ki ichchha nahin hui, lekin gopal ne barbas baitha liya.
kaho gopal bhaiya! tum bhi kuch bata nahin rahe ho?
jante hi ho, kya bataun? bechari chachi ke chale jane se gola ka akar chhota ho gaya. sare log dukhi hain.
gopal ke ye shabd punः ansu barsane ke liye kaphi the. ratan ki ankhen jharajhrane lagin. tamtam gola pahunch gaya. sare log ratan ki intjari mein the. najar paDte hi pitaji phaphak paDe.
jahan maan ratan ko pankhe jhalkar khilaya karti thi. jane anjane ratan usi piDhe par baith gaya. bahan pani lekar aayi. ratan ki ankh aur naak donon se pani bahne laga.
ratan kabhi chulha niharta, kabhi matki, kabhi tehri, kabhi sikhar. kamre mein ghuskar us khaat ko dekhta, jispar maan ke saath soya karta. jahan bhi najar jati, vahan use maan ka pratibimb dikhai paDta. gaanv ke
kaphi log ikatthe hue bachche bachchyian, buDhe javan. sab ki najren ratan par tiki theen. jitne log aate, kahkar chale jate maan ho to aisi, beta ho to aisa. har ki dua saath lagne lagi. ratan ko in duaon se takat mili. man ko vash mein kiya aur bhoot ko chhoDkar vartaman par jam gaya. sochne laga
“ab maan jahan rahegi, khush rakhunga. ”
purohit ji aaye. shanti ki taiyari hui.
gaanv ke sare garib amir tumhari maan ko apni maan ke saman samajhte the. pure gaanv ki maan thi wo. uske bhoj mein sare garib amir shargind honge purohit ji ne kaha.
maan se baDi koi devi nahin, pita se baDa koi devta nahin aur patni se baDa koi mitr nahin hota ratan man hi man soch raha tha. mahapatr ji padhare. vichitr lila hai. aam dinon mein adami jise dekhana nahin chahta, aaj ke din use hi pujta hai. mahapatr bolte gaye aur ratan pura karta gaya. socha maan ke marne ke baad mon ko lekar koi vivad na ho, koi asantusht na ho. til doodh pikar mahapatr vida hue. ab brahm bhoj ki taiyari shuru hui. log panktibaddh baith gaye. jalebiyan chalne lagin. ek brahman ne ahiste jalebi mangi. parosnevale baDh gaye. brahman krodh mein uthkar khaDe ho gaye. ratan ghabra gaya. haath joDkar usne pararthna ki. ratan ki avaz ne us brahman ke krodh ko ghol liya. bhoj chal hi raha tha ki jaga pahuncha. avaj se hi uski pahchan ho gayi. ratan ne dauDkar use baithaya. uske bhojan ke liye dahi chuDa mangvaya. jaga ne dahi chuDa milakar pure lap mein uthaya aur maan ke naam ki jaykar karte hue lap ko kanth tak le jakar achanak rok diya. bola maan to kanth pakaD rahi hai.
nahin baba! meri maan ne aaj tak kisi ka kanth nahin pakDa. aap aisa nahin bolen. jo apaki ichchha ho, maang lijiye, lekin maan ko shabdon se badnam mat kijiye! jaga khush ho gaya aur prabhavit bhi. usne vahi ret manga, jo anya jaghon par mol molii ke baad milta hai.
sare vidhi vidhan pure hue. bari bari se mehmanon ki vidai hui. atithiyon ke jane ke baad ghar suna ho gaya.
ratan ruk bhi to nahin sakta. roji roti ka parashn tha. chalne laga. pitaji samne khaDe the. jyonhi ratan ka pahla kadam baDha, pita ki ankhon se ansuon ke phabbare phoot paDe. bina kuch bole ratan kuch naye naye noton se pita ko shaant karne ki nirarthak koshish karne laga. dhatu aur kagaj ke tukDon se man ka dard sokha nahin ja sakta. vihval pita ko dekhkar ratan ke chalne ki yojna us din sthagit ho gayi. raat mein baten hone lagin. dusron ko to bahut kuch batate hain, lekin apne ko mukt nahin kar pate. purane khyalon ke aate hi Doob jate hain. ratan hi samjhane ki koshish karta hai.
savera hote hi ratan ne pitaji ko mana liya.
man nahin lage, to bedhaDak chale aie ratan ne kaha. aise hi vadon aur ashvasnon ke saath ratan gola chhoD chala. paDos ki mahilayen ojhal hone tak niharti rahin. ratan khamosh aage baDhta ja raha tha. soch raha tha maan chhoot gayi, gaanv chhoot raha hai, bahnen chhoot rahi hain aur chhoot rahe hain sare priyjan. kya gopal bhaiya! kuch der baad tum bhi chhoot jaoge na?
ratan! chhoot to jaoge tum. mujhe to bas isi gaanv mein rahna hai, inhin logon ke beech rahna hai. yaad hai tumhen? tumne maitrik paas kiya tha. jab gaanv chhoDe the, gobarddhan kitna pareshan tha! main khet mein hal jot raha tha aur tum pagDanDiyon se vida ho rahe the. yaad hai mera geet
do hanson ka joDa bichhaD gayo re…?
pura ka pura yaad hai gopal bhaiya! wo to smriti bankar rah gaya hai. kahan gaya wo bachpan aur kahan gaye ve aam ke vriksh! jab sochta hoon to paDhna likhna bekar sa lagta hai. jivan mein gahri khai paida ho gayi hai, jise bharkar saDak nahin bana sakta. pul banata hoon, magar wo pul bhi har samay saath nahin deta, mauke mauke par toot jata hai.
ghoDa aage baDhne se inkaar karne laga. gopal ne halki chabuk lagayi.
ahaha! gopal bhaiya! kyon marte ho ise?
dekh rahe ho na! kitni shaitani kar raha hai? akaD jata hai.
nahin to. bechara aane vakt to kabhi nahin akDa. dauDta hua aaya tha. aaj isne apni gati dhimi kyon kar dee? ghoDe ke man ko paDho gopal bhaiya! iski bhavnaon ki kadr karo! ye akaDta nahin, kuch kahta hai.
main bhi to chabuk maar nahin raha hoon, kuch kah raha hoon.
saath rahte rahte yashodhra ratan ke man ko paDhna jaan gayi thi.
boli
donon majbur hain. apni apni jagah par sahi hai
gopal samajh gaya ki yashodhra kya kahna chahti hai. khamosh ho gaya. ghoDe ne bhi chaal pakaD li.
saDak kinare bargad ka wo peD mila, jahan skool se lautte vakt ratan rukkar aram kar liya karta tha. yaden aane lagin. gambhir ban gaya.
kyon ratan! itne gambhir kyon ho gaye?
bhaiya! is bargad ki thanDi chhaanv bhi chhoot rahi hai. yaad hai mujhe. guru ji ke saath kariv nau baje raat mein laut raha tha kuch parashn patron ko lekar. jab bhi parashn patr lana hota tha, guruji mujhe hi saath rakhte the. karan tha main prashnpatron ko kholkar paDhta nahin tha. jab hamlog is bargad ke samip pahunche, tab mujhe khansi aayi. guruji ne kaha khanso mat! is bargad ki Daliyon par chor baithe rahte hain. guruji ne ek naya baipas banaya aur aadha kilomitar ka chakkar katva diya.
mainne to kabhi suna tha ki bargad ke peD par devta rahte hain. chor Daku, bhoot pret kahan se aye?
tamtam baDhta ja raha tha. jyon jyon bas stainD najdik aa raha tha. gopal ke haath ki lagam Dhili paDti ja rahi thi. bas stainD pahuncha. ratan pachas rupye ka ek karensi not gopal ko thamane laga. gopal inkaar karne laga.
nahin bhaiya! yadi aap nahin lijiyega to is paise se ghoDe ko chana khila dijiyega! baDi mehnat ki hai isne. phir bhi gopal ne paise nahin liye.
ratan yashodhra aur bachchchon ke saath bas par baith gaya aur patna aa gaya. bas chhoDkar jankshan ki or baDha. punः vahi golambar samne aa gaya. ratan ki ankhon mein phir vahi sare drishya ek ke baad ek ubharne lage. ansuon ko to ratan ne thaam liya tha, lekin dil ka dard baDhta ja raha tha. ankhon ke samne ve patni bachche adrishya jaise lag rahe the. nigahen golambar ke kendrbindu par tiki theen. barbas ganitiy maap ke andaj par golambar ke andar vahin jakar baith gaya, jahan pahli baar aakar soya tha. bachchon ke saath yashodhra bhi baith gayi.
dekhti ho na yashodhra! ye jo golambar hai na, ismen puri duniya simat jati hai.
ye kaise papa? baDe laDke ne puchha.
dekho bete! paDhe ho na ki prithvi anDe ki tarah gol hai? is golambar ko dekho iski shakl bhi vaisi hi hai. duniya ke har kone se log aate hain, jinhen zarurat paDti hai, ve yahan thahrte hain aur chale jate hain. dharti ko dekho! is dharti par log anjan bankar aate hain, paDav Dalte hain, pahchan banate hain aur chale jate hain. ye dharti baDe dhairya se sabka bojh uthati hai, maan ki tarah. ye golambar aisi maan hai jo aane vale har anjan ko anchal ka sukh deti hai. jab is golambar ko dekhta hoon to iske kendr mein maan ki tasvir dikhai deti hai, chehra saaph saaph najar aata hai bina kisi madhyam ke. mujhe vishvas hai ki meri maan hamesha isi golambar mein rahegi aur main jab chahunga, aakar dekh liya karunga.
स्रोत :
रचनाकार : हरिवंश नारायण
प्रकाशन : हिन्दवी के लिए सुशांत कुमार शर्मा के सौजन्य से
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।