दो कमरों का घर गोल लट्ठों, तख़्तों और पेड़ की छाल से गूँथी गई रस्सियों से बना है। फ़र्श की जगह अंदर चिरे हुए तख़्ते बिछे हैं। घर के एक सिरे पर बना रसोईघर और उसके सामने बना बरामदा आकार में उस घर से भी कहीं बड़े हैं।
चारों तरफ़, जहाँ तक नज़र जाती है, एकसार झाड़ियाँ फैली हैं। ज़मीन बिल्कुल सपाट है, उसमें कहीं कोई उतार-चढ़ाव नहीं। कहीं क्षितिज के पार दिखती पहाड़ियों की झलक तक नहीं। दूर तक फैली वे एक-सी बौनी झाड़ियाँ सड़े हुए जंगली बेरनुमा सेबों की हैं। नीचे न घास, न किसी और पौधे का नामोनिशान। संकरे, लगभग सूखे घाटीनुमा मोड़ पर आहें भरते इक्का-दुक्का शीओक के अपेक्षाकृत हरे पेड़ों को छोड़कर ओने-कोने तक यहाँ कोई चीज़ नहीं जिस पर नज़र ठहर सके। सभ्यता के आख़िरी अवशेष से भी उन्नीस मील आगे मुख्य सड़क के किनारे खड़ा है यह झुग्गीनुमा घर।
इस ज़मीन के प्रारम्भिक बाशिंदों में से एक, वह चरवाहा अपनी भेड़ों के साथ कहीं दूर भटक रहा है। उसकी औरत और बच्चे यहाँ घर में अकेले हैं।
चार मैले चीकट, कुम्हलाए हुए बच्चे घर के नज़दीक खेल रहे हैं। अचानक उनमें से एक चिल्लाता है, “साँप, साँप! वहाँ साँप है माँ...”
एक मरियल, धूप में झुलसी औरत रसोईघर से दौड़कर बाहर निकलती है, एक झटके के साथ छोटे बच्चे को ज़मीन से दबोचकर अपने बाएँ कूल्हे पर टिकाती है और फिर हाथ में छड़ी पकड़ लेती है।
“कहाँ है?”
“वहाँ, लकड़ियों के ढेर में!” सबसे बड़ा, जो ग्यारह के आसपास का एक होशियार लड़का है, चीखकर बताता है। “तुम वहीं रहना माँ, मैं अभी इस कमीने की चटनी बनाता हूँ!”
“टॉमी, तू फ़ौरन इधर आ, वर्ना यह तुझे काट लेगा। तूने सुना कि नहीं, फ़ौरन इधर आ, नासपीटे!”
बच्चा बहुत अनिच्छा से आता है। उसने हाथ में अपने आकार से कहीं बड़ा एक लट्ठ पकड़ रक्खा है। फिर अचानक वह विजयभाव से चिल्लाता है, “वह देखो, वह रहा! वहाँ घर के नीचे गया।” वह लट्ठ हवा में उठाकर दौड़ता है। इस सारी कार्रवाई के दौरान सबसे अधिक उत्तेजित होने वालों में है एक बड़ा-सा, पीली आँखों वाला काला कुत्ता, जो आख़िरकार अपनी ज़ंजीर तोड़कर खोलने में सफल हो जाता है और बदहवासी में साँप की ओर लपकता है। लेकिन उसे ज़रा सी देर हो गई है। तख़्तों के बीच की दरार पर उसकी थूथनी के टिकने से एक क्षण पहले ही साँप की पूँछ तख़्तों के नीचे ग़ायब हो चुकी होती है। लगभग उसी समय लड़के के लट्ठ का वार उस तख़्ते पर पड़ता है, जिससे कुत्ते की नाक बेतरह रगड़ खा जाती है। लेकिन इसकी तनिक भी परवाह किए बग़ैर वह कुत्ता, जिसका नाम ऐलिगेटर है, घर की पूरी नींव को उलट-पुलट डालने पर आमादा हो जाता है। बड़ी मुश्किल के साथ उसे शांत कर फिर से बाँध दिया जाता है। कुत्ते का वहाँ होना जरूरी है, वे किसी भी हालत में उसे खोना नहीं चाहते।
सभी बच्चों को एक झुंड में कुत्ते के पास खड़ाकर चरवाहे की बीवी साँप की टोह लेना शुरू करती है। साँप को लुभाने के लिए वह दो छोटी तश्तरियों में दूध डालकर घर की दीवार के पास रखती है, लेकिन एक घंटा गुज़र जाने के बाद भी साँप बाहर नहीं निकलता।
बाहर शाम ढलने वाली है और आसमान में तूफ़ान के आसार दिखाई दे रहे हैं। बच्चों को छत के नीचे ले जाना ज़रूरी है। वह उन्हें घर के भीतर नहीं ले जा सकती, क्योंकि वहाँ साँप है, जो किसी भी वक़्त ज़मीन पर बिछे तख़्तों के बीच से बाहर आ सकता है। जलाने वाली लकड़ियों को दोनों हाथों से उठाकर रसोईघर में रखने के बाद वह बच्चों को वहाँ ले जाती है। रसोईघर में कच्चा फ़र्श है। बीच में एक तख़्तनुमा टेबल है। वह चारों बच्चों को तख़्त पर चढ़ा देती है। दो बड़े लड़के और दो लड़कियाँ, जो अभी बहुत छोटी हैं। वह उन सब को खाना देती है और फिर अंधेरा होने से पहले घर में जाकर जल्दी से दो-तीन तकिए और कुछ कपड़े खींच निकालती है। ऐसा करते हुए उसे लगता है कि अभी वह साँप उसके सामने आ जाएगा। रसोईघर में जाकर वह तख़्त पर बच्चों का बिस्तर लगाती है और ख़ुद रात भर पहरा देने के लिए नज़दीक ही बैठ जाती है।
उसकी आँखें तख़्तों से बनी रसोईघर और कमरों के बीच की दीवार पर टिकी हुई हैं। साँप से जूझने की तैयारी में उसने नज़दीक ही तिपाई पर कच्चे बेंत से बना डंडा रख लिया है। साथ ही उसकी बुनाई की टोकरी और किसी पुरानी पत्रिका का अंक है। कुत्ते को वह अपने साथ भीतर ले आई है।
काफ़ी प्रतिवाद के बाद टॉमी आख़िरकार लेटता है, लेकिन उसकी ज़िद है कि वह सारी रात जागता रहेगा और साँप के दिखाई देते ही उस साले को कुचल डालेगा।
उसकी माँ उसे डाँटती है कि ऐसे मवालियों की तरह गाली नहीं दिया करते! टॉमी ने अपना डंडा चादर के नीचे अपने साथ रक्खा हुआ है। उसका छोटा भाई जैकी प्रतिवाद करता है।
“माँ, जैकी का यह डंडा मुझे चुभ रहा है। इससे कहो, इसे यहाँ से हटाए।”
“चुपचाप सो जा छुटके! तुझे साँप से कटवाना है?”
टॉमी की डाँट सुनकर जैकी चुप हो जाता है।
“साँप ने काट लिया न,” कुछ देर बाद टॉमी कहता है, “तो तू फूलकर लाल-नीला हो जाएगा और तेरे अंदर से बदबू आने लगेगी। है न माँ?”
“चलो अब उसे डराना बंद करो और चुपचाप सो जाओ!” वह कहती है।
दोनों छोटी लड़कियाँ पहले ही सो चुकी हैं। जैकी रह-रहकर शिकायत करता है कि वह बीच में दब रहा है। उसके लिए कुछ और जगह बनाई जाती है। फिर कुछ देर बाद टॉमी कहता है, “माँ, देखो, बाहर पॉज़म (छोटे आस्ट्रेलियाई जानवर) बोल रहे हैं। मेरा मन करता है इन सालों की गर्दन मरोड़ डालूँ!”
जैकी उनींदे स्वर में प्रतिवाद करता है, “क्यों, इन सालों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?”
“देखा!” माँ कहती है, “तुमने अपनी गाली-गलौज की ज़ुबान जैकी को भी सिखा दी है!” लेकिन जैकी के निरीह प्रतिवाद पर वह मुस्कुरा उठती है। इस बीच जैकी नींद में डूब चुका है।
कुछ देर की ख़ामोशी के बाद टॉमी सवाल करता है, “माँ, तुम्हें क्या लगता है, वे इन साले कंगारुओं को भगा पाएँगे?”
“हे भगवान! यह अब मुझे क्या मालूम, बच्चे! अच्छा, चल बहुत हुआ, अब सो जा!”
“साँप निकला तो तुम मुझे जगा दोगी?”
“हाँ, जगा दूँगी। अब सो जा चुपचाप!”
आधी रात होने वाली है। बच्चे सब सो चुके हैं और बारी-बारी से कभी सिलाई का काम करती है, कभी पत्रिका के पन्ने उलटने लगती है। बीच-बीच में वह अपनी निगाहें फ़र्श और दीवारों पर भी दौड़ा लेती है। ज़रा-सी आवाज़ सुनाई देते ही उसका हाथ अपने डंडे की ओर चला जाता है। बाहर अंधड़ और तूफ़ान गरजना शुरू कर देता है तो दीवार के तख़्तों के बीच से भीतर घुसती हुई हवा के ज़ोर से मोमबत्ती बुझने-बुझने को होती है। वह उसे तिपाई के पीछे ताक पर रखकर हवा से बचाने के लिए उसके चारों ओर अख़बार का काग़ज़ बाँध देती है। बिजली की हर कड़कड़ाहट के साथ तख़्तों के बीच की दरारें चाँदी की तरह चमकती हैं। फिर उसके बाद अंधड़ के साथ मूसलाधार बारिश गिरने लगती है।
ऐलिगेटर अपनी निगाहें रसोईघर और कमरों के बीच की दीवार पर टिकाए फ़र्श पर लंबा लेटा हुआ है। इससे औरत को यक़ीन हो जाता है कि साँप वहीं कहीं है। तख़्तों की दीवार के निचले हिस्से में कई बड़ी-बड़ी फाँकें हैं।
ऐसा नहीं कि वह डरपोक है, लेकिन पिछले कुछ समय की घटनाओं ने उसके आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। एक तो अभी हाल ही में उसके देवर के छोटे बेटे को साँप ने काटा और वह मर गया। और फिर पिछले छः महीनों से उसके पति की कोई ख़बर नहीं है, जिससे अब उसे ख़ासी चिंता होने लगी है।
उसका पति पहले चरवाहा था। फिर उसके बाद अपने मवेशियों के साथ वह इसी इलाक़े में बस गया था। लेकिन पाँच बरस पहले के सूखे ने उसे बरबाद कर डाला। बचे-खुचे मवेशियों को बेचकर उसे फिर से दर-दर भटकने वाले चरवाहे का जामा पहनना पड़ा। अब लौटकर आने के बाद उसका इरादा अपने परिवार के साथ नज़दीक के किसी शहर में बस जाने का है। इस बीच उसका देवर, जिसका घर मुख्य सड़क पर कुछ आगे है, महीने में एक बार उनके लिए रसद-पानी लेकर आता है। औरत के पास अब भी दो गायें, एक घोड़ा और कुछ भेड़ें बची हुई हैं। उसका देवर बीच-बीच में एकाध भेड़ को मारकर उन्हें अपनी ज़रूरत के मुताबिक माँस देता है, और बाक़ी का माँस अपने लाए गए रसद-पानी के मुआवज़े के रूप में वसूलकर ले जाता है।
उसे इस तरह अकेले छूटने की आदत है। एक बार तो वह अट्ठारह महीनों तक यहाँ अकेली थी। लड़कपन में वह तरह-तरह के हवाई क़िले बनाया करती थी, लेकिन उसके सारे लड़कियाना मंसूबे और ख़्वाब बहुत पहले ही टूटकर बिखर चुके हैं। अब सारा मनोरंजन और उत्साह उसे पत्रिकाओं में छपने वाली रंगीन तस्वीरों में ढूँढना होता है।
वह और उसका पति, दोनों ऑस्ट्रेलियाई हैं। थोड़ा लापरवाह होने के बावजूद उसका पति बहुत अच्छा है। अगर उसके पास हैसियत होती तो वह उसे शहर ले जाकर किसी राजकुमारी की तरह रखता। उन्हें, या कहना चाहिए कम से कम उसे, अब अकेलापन ज़्यादा परेशान नहीं करता। अपने लंबे प्रवास के बीच पति को चाहे यह याद न रहता हो कि पीछे उसके बीवी बच्चे हैं, लेकिन लौटने पर अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा बीवी के हाथ में देना वह कभी नहीं भूलता। पैसे होने पर एक बार वह रेलवे में डिब्बा लेकर उसे शहर की सैर भी करवा चुका है। एक वक़्त उसके लिए उसने एक बग्घी भी ख़रीदी थी, लेकिन तंगी के दिनों में बाक़ी चीज़ों के साथ उन्हें उसे भी बेच देना पड़ा।
उसकी दोनों छोटी लड़कियाँ इस उजाड़ में ही पैदा हुई हैं। एक वक़्त तो उसका पति इलाक़े के शराबी डॉक्टर को ज़बर्दस्ती पकड़कर लाने के लिए गया हुआ था और वह अकेली थी। ऊपर से बुखार के कारण उसे कमज़ोरी भी बहुत थी। वह मना रही थी कि ईश्वर उसकी मदद के लिए किसी को वहाँ भेज दे। और सचमुच वहाँ एक काला आदमी आया था, जिसने उसे देखने के बाद फ़ौरन घाटी के उस पार से अपनी बूढ़ी माँ को बुला लाने का निर्णय ले लिया था।
यहाँ अकेले रहते हुए ही उसका एक बच्चा चल बसा था। मरे हुए बच्चे को साथ लिए, मदद की तलाश में तब उसने उन्नीस मील का सफ़र घोड़े की पीठ पर तय किया था।
अब रात का एक बज चुका होगा। आग धीमी पड़ने लगी है। अपना सिर अपने दोनों अगले पंजों पर टिकाए ऐलिगेटर दीवार की ओर घूरता जा रहा है। देखने में वह बहुत सुंदर कुत्ता नहीं है और उसके पूरे शरीर पर जगह-जगह ज़ख्मों के निशान हैं। लेकिन दुनिया में कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जिससे उसे डर लगता हो। मच्छर से लेकर साँड तक का मुक़ाबला वह उतनी ही बहादुरी के साथ कर सकता है। दुनिया के सारे दूसरे कुत्तों से उसे नफ़रत है और उस घर में दोस्तों या रिश्तेदारों का आना भी उसे सख़्त नापसंद है। ग़नीमत है कि भूले-भटके ही यहाँ कोई आता है। कभी-कभी अजनबियों से भी उसकी दोस्ती हो जाती है। और हाँ, साँपों से उसकी ज़ाती दुश्मनी है और वह न जाने कितने साँपों को मौत के घाट उतार चुका है। लेकिन दूसरे लड़ाकू कुत्तों की तरह किसी दिन साँप के काटने से मर जाना ही शायद उसकी नियति है।
बीच-बीच में औरत अपने हाथ का काम छोड़कर देखती है, सुनती है और सोचती है। उसकी सोच अपनी ख़ुद की ज़िंदगी के बारे में होती है। इसके अलावा उसके पास सोचने के लिए और है भी क्या!
बारिश के बाद घास फिर से उग आएगी। उसे याद है कि कैसे एक बार पति की अनुपस्थिति में उसने झाड़ियों में लगी आग का मुक़ाबला किया था। जलती हुई लंबी, सूखी घास उनके पूरे वजूद को जला डालने पर आमादा थी। उसने अपने पति की पुरानी पतलून पहनकर एक हरी डाल से आग का मुक़ाबला किया था। तब उसका सारा चेहरा आग की कालिख से पुत गया था। फिर एक बार पति की अनुपस्थिति में ही पूरे इलाक़े में निरंतर बरसात से बाढ़ का ख़तरा पैदा हो गया था। मूसलाधार बारिश में घंटों खड़े रहकर उसने घाटी पर बने बाँध को बचाने के लिए फावड़े से पानी के निकलने के लिए रास्ता बनाया था। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद अगली सुबह बाँध टूट गया था और उनकी बरसों की मेहनत पानी में बह गई थी। तब वह अपनी रुलाई रोक नहीं पाई थी। फिर एक बार जानवरों में प्लूरो-निमोनिया की बीमारी फैली थी तो वह अपने हाथों से उनकी ख़ून भरी बलगम साफ़ करती रही थी। लेकिन फिर भी उसकी दो सबसे प्यारी गायें इस बीमारी की भेंट चढ़ गई थीं। और उसे वह दिन भी याद है जब एक पगलाए हुए साँड ने घर पर हमला बोल दिया था। उसने अपने हाथों से बारूद के कारतूस बनाकर उन्हें एक पुरानी बंदूक़ में भरा था और फिर दीवार के तख़्तों के बीच बनी दरारों के भीतर से वह उन्हें साँड पर दागती रही थी। सुबह होने तक साँड मरा हुआ पाया गया था और उसकी चमड़ी की बिक्री से उसने साढ़े सत्रह डॉलरों को कमाई की थी।
वह उन कौऔं और चीलों का भी मुक़ाबला करती है, जिनकी नज़र उसकी मुर्ग़ियों पर होती है। उन्हें भगाने का उसका तरीक़ा भी अनूठा है। बच्चों के “माँ, कौए!” चिल्लाते ही वह बाहर दौड़कर आती है और झाड़ को बंदूक़ की तरह हाथ में लेकर कौओं पर निशाना साधती है। उसके मुँह से ‘बूम!’ की आवाज़ निकलते ही कौए घबराकर उड़ जाते हैं। कौए शातिर हैं, लेकिन औरत की चतुराई के आगे उनकी एक नहीं चलती।
कभी-कभार जब उसका साबका किसी मवाली या इस ओर रास्ता भूल गए किसी गुंडे-बदमाश से पड़ता है तो उसकी जैसे जान ही निकल जाती है। संदेहास्पद दिखने वाला कोई भी अजनबी जब घर के मालिक के बारे में पूछता तो वह उसे बताना नहीं भूलती कि उसका पति और दो बड़े लड़के नीचे बाँध पर काम कर रहे हैं। पिछले हफ़्ते सामान का गट्ठर पीठ पर लादे डरावने चेहरे वाले एक मुसाफ़िर ने, यह तय कर चुकने के बाद कि वहाँ आसपास कोई मर्द नहीं है, उसकी चौखट पर आकर कहा था कि वह बहुत भूखा है। जब उसने उसे खाना दिया था तो खा चुकने के बाद अपना बिस्तर पीठ से उतारकर उसने रात वहीं गुज़ारने का फ़रमान सुनाया था। तब उसने भीतर से एक छड़ी निकाली थी और कुत्ते की ज़ंजीर खोलकर वह सीधे उससे मुख़ातिब हुई थी। “अब तुम यहाँ से जाओ!” उसने सख़्त स्वर में आदेश दिया था। उसकी मुखमुद्रा और कुत्ते के तेवर देखकर वह मुसाफ़िर तुरंत वहाँ से चलता बना था।
रात के सन्नाटे में अकेले साँप की पहरेदारी पर बैठे हुए वह किसी भी ऐसे विशेष सुख को याद नहीं कर पाती जो उसे अपनी ज़िंदगी में नसीब हुआ हो। उसके लिए सभी दिन लगभग एक जैसे हैं। सिर्फ़ रविवार की दोपहर को वह कपड़े बदलती है, बच्चों को नहला-धुलाकर सँवारती है और फिर झाड़ियों के बीच बनी पगडंडियों पर अकेली सैर के लिए निकल जाती है। उसके आगे ‘प्रैम’ में उसकी छोटी बच्ची होती है। हर रविवार वह अपने-आपको और बच्चों को यूँ तैयार करती है, जैसे वे शहर में घूमने के लिए जाने वाले हों। लेकिन झाड़ियों की उस एकाकी सैर के दौरान न तो कुछ देखने को होता है, न किसी से मिलना होता है। अगर इस एकसार इलाक़े की जानकारी न हो तो बीसियों मील तक लगातार चलने के बाद भी किसी ख़ास जगह या मोड़ की शिनाख़्त करना मुश्किल होगा।
हर जगह एक जैसी बौनी झाड़ियों का अंतहीन नज़ारा किसी को भी पागल बना देने के लिए काफ़ी होगा, लेकिन उसे इस अकेलेपन की आदत पड़ चुकी है। नई नवेली दुल्हन के रूप में उसने इस ज़िंदगी से बेइंतहा नफ़रत की थी, लेकिन अब वह इसकी इस कदर अभ्यस्त हो चुकी है कि किसी और तरह की ज़िंदगी से शायद उसे उलझन होने लगे।
जब उसका पति लौटता है तो उसे ख़ुशी महसूस होती है। लेकिन वह न इसका इज़हार करती है, न भावातिरेक में डूबती है। सिर्फ़ खाने में वह कोई अच्छी चीज़ बनाती है और बच्चों को सजा-सँवारकर नए कपड़े पहनाती है।
शायद वह अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट है। अपने बच्चों को वह बेहद प्यार करती है, लेकिन उसे कभी अपने इस प्यार को व्यक्त करने का मौक़ा नहीं मिला। अकसर वह उनके साथ बहुत सख़्ती से पेश आती है। शायद यह माहौल ही ऐसा है कि इसमें स्त्रियोचित कोमलता के इज़हार की कोई गुंजाइश नहीं है।
***
अब रात का तीसरा पहर बीतने को होगा, लेकिन उसकी घड़ी कमरे में छूट गई है। मोमबत्ती भी तकरीबन बुझने वाली है। उसे याद ही नहीं रहा कि उनकी मोमबत्तियाँ ख़त्म हो गई हैं। आग के जलते रहने के लिए कुछ और लकड़ियों की ज़रूरत होगी। कुत्ते को अंदर बंद कर वह बाहर लकड़ियाँ लेने के लिए आती है। बरसात अब थम चुकी है। लेकिन एक लकड़ी लेने के लिए जब वह उसे ढेर से खींचती है तो सारा ढेर भरभराकर ढह जाता है।
कल उसने एक राह चलते छुट्टे मज़दूर से लकड़ियाँ लाकर इकट्ठी करने के लिए कहा था। वह जब काम कर रहा था तो वह अपनी गाय को ढूँढने निकल गई थी। कोई एक घंटे बाद जब वह लौटी थी तो मज़दूर ने चिमनी के पास लकड़ियों का एक ख़ूब बड़ा-सा ढेर सजा दिया था। इतने कम समय में इतनी लकड़ियाँ, उसने ताज्जुब किया था। मज़दूर की ईमानदार मेहनत से ख़ुश होकर उसने उसे तंबाकू की एक अतिरिक्त पुड़िया इनाम में दी थी। साथ ही उसकी तारीफ़ भी की थी कि वह दूसरे मज़दूरों की तरह आलसी नहीं है। मज़दूर ने उसे धन्यवाद दिया था और छाती फुलाए वहाँ से चला गया था। बेशक वह मज़दूरों के बीच एक शहंशाह रहा होगा, लेकिन सावधानी से सजाया गया उसका लकड़ियों का ढेर अंदर से बिल्कुल खोखला था।
ठगे जाने के अहसास से उसकी आँखों में आँसू उमड़ आते हैं और वह कमरे में लौटकर फिर से टेबल के पास बैठ जाती है। रूमाल से वह अपनी आँखें पोंछने की कोशिश करती है तो उसकी उँगलियाँ उसकी आँखों में गड़ जाती हैं। वह देखती है कि उसके रूमाल में कई छेद हैं और उसकी उँगलियाँ उन छेदों के भीतर से निकलकर उसकी आँखों को छू रही हैं।
वह हँसने लगती है और उसकी इस अचानक हँसी से कुत्ता चौंक जाता है। छोटी-छोटी मूर्खताएँ कभी-कभी उसे बेतरह हँसा जाती हैं। एक बार उदासी के मारे जब उसका मन फूट-फूटकर रोने को हुआ था तो अचानक उसकी बिल्ली उसके नज़दीक आकर अपना शरीर उसके गालों पर रगड़ने लगी थी गोया कि उसे भी रोना आ रहा हो। तब उसके सामने हँसने के सिवा कोई चारा नहीं रह गया था।
***
अब सुबह होने में बहुत देर नहीं। जलती हुई आग की वजह से कमरे में बेतरह घुटन और गर्मी है। ऐलिगेटर अब भी रह-रहकर दीवार की ओर देखने लगता है। अचानक वह काफ़ी उत्तेजित होकर दीवार के बिल्कुल क़रीब सरक आता है। उसकी पीठ के बाल खड़े होने लगते हैं और उसकी चमकती हुई आँखें कुछ अतिरिक्त चौकन्नी हो जाती हैं। वह जान जाती है कि इसका क्या मतलब है और उसका हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद नज़दीक ही रक्खी छड़ी की ओर चला जाता है। बीच की दीवार के एक तख़्ते में नीचे की ओर दोनों तरफ़ एक बड़ी-सी फाँक है। उसके भीतर अचानक दो मनकों जैसी चमकदार छोटी-छोटी आँखों का जोड़ा दिखाई देता है। बिल्कुल काले रंग का साँप धीरे-धीरे लगभग एक फुट बाहर निकलकर आता है और अपना सिर ऊपर-नीचे हिलाता है। कुत्ता चुपचाप बिना हिले-डुले लेटा है और वह भी मंत्रविद्ध-सी बैठी देखती चली जाती है। फिर वह धीरे-धीरे अपनी छड़ी हवा में उठाती है, जिससे साँप शायद ख़तरे की टोह पाकर तख़्ते के दूसरे छेद में अपना सिर घुसाकर जल्दी से वापस लौट जाना चाहता है। इसी क्षण ऐलिगेटर झपटता है, लेकिन साँप का सिर तख़्ते की फाँक के भीतर जा चुका है। उसके पीछे-पीछे उसकी पूँछ बाहर निकलती है तो ऐलिगेटर फिर से झपटता है और इस बार पूँछ का एक हिस्सा उसकी पकड़ में आ जाता है। वह उसे कोई डेढ़ फुट बाहर खींच निकालता है। धम्-धम्! औरत का डंडा बरसता है। ऐलिगेटर कुछ और खींचता है तो पूरा साँप बाहर आ जाता है, वह पूरे पाँच फुट लंबा काला धामन है। वह इधर-उधर भागने की कोशिश करता है, लेकिन कुत्ते ने उसे गर्दन के क़रीब ही जकड़ लिया है। भारी-भरकम होते ऐलिगेटर बेहद फुर्तीला है। मुँह में दबोचे साँप को वह इस वहशत के साथ झिंझोड़ता है, जैसे उस नस्ल से उसका कोई पुश्तैनी बैर हो। इस शोर के बीच बड़ा बेटा जाग जाता है और अपना डंडा हाथ में लेकर बिस्तर से उतरने की कोशिश करता है, लेकिन उसकी माँ उसे झिड़ककर वहीं रोक देती है। धम्, धम्! साँप की कमर कई जगह से चकनाचूर हो चुकी है। धम्, धम्! उसका सिर कुचल दिया जाता है और इसके साथ ही कुत्ते की थूथनी फिर से खरोंची जाती है।
क्षत-विक्षत साँप के शरीर को वह अपनी छड़ी से उठाती है, फिर उसे आग के पास ले जाकर एक झटके के साथ भीतर झोंक देती है। कुछ और लकड़ियाँ डालकर वह चुपचाप साँप का जलना देखती जाती है। लड़का और वह कुत्ता भी उसी की तरह एकटक आग को देख रहे हैं। वह अपना एक हाथ कुत्ते के सिर पर रखती है तो उसकी पीली आँखों की सारी वहशत भरी चिंगारियाँ जैसे बुझकर शांत हो जाती हैं। तख़्त पर छोटे बच्चे कुनमुनाते हैं और ज़रा-सा थपकाए जाने पर फिर से नींद में डूब जाते हैं। मैली टाँगों वाला बड़ा लड़का कुछ क्षणों के लिए आग की ओर देखना जारी रखता है, फिर माँ की ओर पलटता है। माँ की आँखों में आँसू भर आए हैं। लड़का आवेग में अपनी दोनों बाँहें माँ की गर्दन के गिर्द डालकर गाली देते हुए कहता है, “तुम्हारी क़सम माँ, मैं कभी, कभी भी भेड़ें चराने के लिए जाऊँ तो कहना...”
वह अपने बेटे को सीने से लगाकर उसका मुँह चूम लेती है। फिर कुछ देर तक वे उसी तरह एक-दूसरे में गुंथे बैठे रहते हैं। बाहर झाड़ियों पर अब सुबह की पहली रोशनी फूटने को है।
do kamron ka ghar gol latthon, ‘takhton aur peD ki chhaal se gunthi gai rassiyon se bana hai. farsh ki jagah andar chire hue takhte bichhe hain. ghar ke ek sire par bana rasoighar aur uske samne bana baramada akar mein us ghar se bhi kahin baDe hain.
charon taraf, jahan tak nazar jati hai, eksaar jhaDiyan phaili hain. zamin bilkul sapat hai, usmen kahin koi utaar chaDhav nahin. kahin kshitij ke paar dikhti pahaDiyon ki jhalak tak nahin. door tak phaili ve ek si bauni jhaDiyan saDe hue jangli beranuma sebon ki hain. niche na ghaas, na kisi aur paudhe ka namonishan. sankre, lagbhag sukhe ghatinuma moD par ahen bharte ikka dukka shiok ke apekshakrit hare peDon ko chhoDkar one kone tak yahan koi cheez nahin jis par nazar thahar sake. sabhyata ke akhiri avshesh se bhi unnis meel aage mukhya saDak ke kinare khaDa hai ye jhugginuma ghar.
is zamin ke prarambhik bashindon mein se ek, wo charvaha apni bheDon ke saath kahin door bhatak raha hai. uski aurat aur bachche yahan ghar mein akele hain.
chaar maile chikat, kumhlaye hue bachche ghar ke nazdik khel rahe hain. achanak unmen se ek chillata hai, “saanp, saanp! vahan saanp hai maan. . . ”
ek mariyal, dhoop mein jhulsi aurat rasoighar se dauDkar bahar nikalti hai, ek jhatke ke saath chhote bachche ko zamin se dabochkar apne bayen kulhe par tikati hai aur phir haath mein chhaDi pakaD leti hai.
“kahan hai?”
“vahan, lakaDiyon ke Dher men!” sabse baDa, jo gyarah ke asapas ka ek hoshiyar laDka hai, chikhkar batata hai. “tum vahin rahna maan, main abhi is kamine ki chatni banata hoon!”
“taumi, tu fauran idhar aa, varna ye tujhe kaat lega. tune suna ki nahin, fauran idhar aa, naspite!”
bachcha bahut anichchha se aata hai. usne haath mein apne akar se kahin baDa ek latth pakaD rakkha hai. phir achanak wo vijaybhav se chillata hai, “vah dekho, wo raha! vahan ghar ke niche gaya. ” wo latth hava mein uthakar dauDta hai. is sari karrvai ke dauran sabse adhik uttejit hone valon mein hai ek baDa sa, pili ankhon vala kala kutta, jo akhirkar apni zanjir toDkar kholne mein saphal ho jata hai aur badahvasi mein saanp ki or lapakta hai. lekin use zara si der ho gai hai. takhton ke beech ki darar par uski thuthni ke tikne se ek kshan pahle hi saanp ki poonchh takhton ke niche ghayab ho chuki hoti hai. lagbhag usi samay laDke ke latth ka vaar us takhte par paDta hai, jisse kutte ki naak betarah ragaD kha jati hai. lekin iski tanik bhi parvah kiye baghair wo kutta, jiska naam ailigetar hai, ghar ki puri neenv ko ulat pulat Dalne par amada ho jata hai. baDi mushkil ke saath use shaant kar phir se baandh diya jata hai. kutte ka vahan hona jaruri hai, ve kisi bhi haalat mein use khona nahin chahte.
sabhi bachchon ko ek jhunD mein kutte ke paas khaDakar charvahe ki bivi saanp ki toh lena shuru karti hai. saanp ko lubhane ke liye wo do chhoti tashtariyon mein doodh Dalkar ghar ki divar ke paas rakhti hai, lekin ek ghanta guzar jane ke baad bhi saanp bahar nahin nikalta.
bahar shaam Dhalne vali hai aur asman mein tuphan ke asar dikhai de rahe hain. bachchon ko chhat ke niche le jana zaruri hai. wo unhen ghar ke bhitar nahin le ja sakti, kyonki vahan saanp hai, jo kisi bhi vaqt zamin par bichhe takhton ke beech se bahar aa sakta hai. jalane vali lakaDiyon ko donon hathon se uthakar rasoighar mein rakhne ke baad wo bachchon ko vahan le jati hai. rasoighar mein kachcha farsh hai. beech mein ek takhtanuma tebal hai. wo charon bachchon ko takht par chaDha deti hai. do baDe laDke aur do laDkiyan, jo abhi bahut chhoti hain. wo un sab ko khana
deti hai aur phir andhera hone se pahle ghar mein jakar jaldi se do teen takiye aur kuch kapDe kheench nikalti hai. aisa karte hue use lagta hai ki abhi wo saanp uske samne aa jayega. rasoighar mein jakar wo takht par bachchon ka bistar lagati hai aur khud raat bhar pahra dene ke liye nazdik hi baith jati hai.
uski ankhen takhton se bani rasoighar aur kamron ke beech ki divar par tiki hui hain. saanp se jujhne ki taiyari mein usne najdik hi tipai par kachche bent se bana DanDa rakh liya hai. saath hi uski bunai ki tokari aur kisi purani patrika ka ank hai. kutte ko wo apne saath bhitar le aai hai.
kafi prativad ke baad taumi akhirkar letta hai, lekin uski zid hai ki wo sari raat jagata rahega aur saanp ke dikhai dete hi us sale ko kuchal Dalega.
uski maan use Dantti hai ki aise mavaliyon ki tarah gali nahin diya karte! taumi ne apna DanDa chadar ke niche apne saath rakkha hua hai. uska chhota bhai jaiki prativad karta hai.
“maan, jaiki ka ye DanDa mujhe chubh raha hai. isse kaho, ise yahan se hataye. ”
“chupchap so ja chhutke! tujhe saanp se katvana hai?”
taumi ki Daant sunkar jaiki chup ho jata hai.
‘saanp ne kaat liya na,” kuch der baad taumi kahta hai, “to tu phulkar laal nila ho jayega aur tere andar se badbu aane lagegi. hai na maan?”
“chalo ab use Darana band karo aur chupchap so jao!” wo kahti hai.
donon chhoti laDkiyan pahle hi so chuki hain. jaiki rah rahkar shikayat karta hai ki wo beech mein dab raha hai. uske liye kuch aur jagah banai jati hai. phir kuch der baad taumi kahta hai, “maan, dekho, bahar pauzam (chhote astreliyai janvar) bol rahe hain. mera man karta hai in salon ki gardan maroD Dalun!”
jaiki uninde svar mein prativad karta hai, “kyon, in salon ne tumhara kya bigaDa hai?”
“dekha!” maan kahti hai, “tumne apni gali galauj ki zuban jaiki ko bhi sikha di hai!” lekin jaiki ke nirih prativad par wo muskura uthti hai. is beech jaiki neend mein Doob chuka hai.
kuch der ki khamoshi ke baad taumi saval karta hai, “maan, tumhein kya lagta hai, ve in sale kangaruon ko bhaga payenge?”
“he bhagvan! ye ab mujhe kya malum, bachche! achchha, chal bahut hua, ab so ja!”
“saanp nikla to tum mujhe jaga dogi?”
“haan, jaga dungi. ab so ja chupchap!”
aadhi raat hone vali hai. bachche sab so chuke hain aur bari bari se kabhi silai ka kaam karti hai, kabhi patrika ke panne ulatne lagti hai. beech beech mein wo apni nigahen farsh aur divaron par bhi dauDa leti hai. zara si avaz sunai dete hi uska haath apne DanDe ki or chala jata hai. bahar andhaD aur tufan garajna shuru kar deta hai to divar ke takhton ke beech se bhitar ghusti hui hava ke zor se mombatti bujhne bujhne ko hoti hai. wo use tipai ke pichhe taak par rakhkar hava se bachane ke liye uske charon or akhbar ka kaghaz baandh deti hai. bijli ki har kaDkaDahat ke saath takhton ke beech ki dararen chandi ki tarah chamakti hain. phir uske baad andhaD ke saath musladhar barish girne lagti hai.
ailigetar apni nigahen rasoighar aur kamron ke beech ki divar par tikaye farsh par lamba leta hua hai. isse aurat ko yaqin ho jata hai ki saanp vahin kahin hai. takhton ki divar ke nichle hisse mein kai baDi baDi phanken hain. aisa nahin ki wo Darpok hai, lekin pichhle kuch samay ki ghatnaon ne uske atmavishvas ko hilakar rakh diya hai. ek to abhi haal hi mein uske devar ke chhote bete ko saanp ne kata aur wo mar gaya. aur phir pichhle chhः mahinon se uske pati ki koi khabar nahin hai, jisse ab use khasi chinta hone lagi hai.
uska pati pahle charvaha tha. phir uske baad apne maveshiyon ke saath wo isi ilaqe mein bas gaya tha. lekin paanch baras pahle ke sukhe ne use barbad kar Dala. bache khuche maveshiyon ko bechkar use phir se dar dar bhatakne vale charvahe ka jama pahanna paDa. ab lautkar aane ke baad uska irada apne parivar ke saath nazdik ke kisi shahr mein bas jane ka hai. is beech uska devar, jiska ghar mukhya saDak par kuch aage hai, mahine mein ek baar unke liye rasad pani lekar aata hai. aurat ke paas ab bhi do gayen, ek ghoDa aur bachi hui hain. uska devar beech beech mein ekaadh bheD ko markar unhen apni kuch bheDen zarurat ke mutabik maans deta hai, aur baqi ka maans apne laye ge rasad pani ke muavze ke roop mein vasulkar le jata hai.
use is tarah akele chhutne ki aadat hai. ek baar to wo attharah mahinon tak yahan akeli thi. laDakpan mein wo tarah tarah ke havai qile banaya karti thi, lekin uske sare laDakiyana mansube aur khvaab bahut pahle hi tutkar bikhar chuke hain. ab sara manoranjan aur utsaah use patrikaon mein chhapne vali rangin tasviron mein DhunDhna hota hai.
wo aur uska pati, donon austreliyai hain. thoDa laparvah hone ke bavjud uska pati bahut achchha hai. agar uske paas haisiyat hoti to wo shahr le jakar kisi rajakumari ki tarah rakhta. unhen, se kam use, ab akelapan zyada pareshan nahin karta. apne lambe pravas ke beech pati ko chahe ye yaad na rahta ho ki pichhe uske bivi bachche hain, lekin lautne par apni kamai ka adhikansh hissa bivi ke haath mein dena wo kabhi nahin bhulta. paise hone par ek baar wo relve mein Dibba lekar use shahr ki sair bhi karva chuka hai. ek vaqt uske liye usne ek bagghi bhi kharidi thi, lekin tangi ke dinon mein baqi chizon ke saath unhen use bhi bech dena paDa.
uski donon chhoti laDkiyan is ujaaD mein hi paida hui hain. ek vaqt to uska pati ilake ke sharabi Dauktar ko zabardasti pakaDkar lane ke liye gaya hua tha aur wo akeli thi. uupar se bukhar ke karan use kamzori bhi bahut thi. wo mana rahi thi ki iishvar uski madad ke liye kisi ko vahan bhej de. aur sachmuch vahan ek kala adami aaya tha, jisne use dekhne ke baad fauran ghati ke us paar se apni buDhi maan ko bula lane ka nirnay le liya tha.
yahan akele rahte hue hi uska ek bachcha chal basa tha. mare hue bachche ko saath liye, madad ki talash mein tab usne unnis meel ka safar ghoDe ki peeth par tay kiya tha.
ab raat ka ek baj chuka hoga. aag dhimi paDne lagi hai. apna sir apne donon agle panjon par tikaye ailigetar divar ki or ghurta ja raha hai. dekhne mein wo bahut sundar kutta nahin hai aur uske pure sharir par jagah jagah zakhmon ke nishan hain. lekin duniya mein koi aisi cheez nahin hai, jisse use Dar lagta ho. machchhar se lekar saanD tak ka mukabla wo utni hi bahaduri ke saath kar sakta hai. duniya ke sare dusre kutton se use nafrat hai aur us ghar mein doston ya rishtedaron ka aana bhi use sakht napsand hai. ganimat hai ki bhule bhatke hi yahan koi aata hai. kabhi kabhi ajanabiyon se bhi uski dosti ho jati hai. aur haan, sanpon se uski jati dushmani hai aur wo na jane kitne sanpon ko ghaat utaar chuka hai. lekin dusre laDaku kutton ki tarah kisi din saanp ke katne se mar jana hi shayad uski niyti hai.
beech beech mein aurat apne haath ka kaam chhoDkar dekhti hai, sunti hai aur sochti hai. uski soch apni khud ki zindagi ke bare mein hoti hai. iske alava uske paas sochne ke liye aur hai bhi kyaa!
barish ke baad ghaas phir se ug ayegi. use yaad hai ki kaise ek baar pati ki anupasthiti mein usne jhaDiyon mein lagi aag ka muqabala kiya tha. jalti hui lambi, sukhi ghaas unke pure vajud ko jala Dalne par amada thi. usne apne pati ki purani patlun pahankar ek hari Daal se aag ka muqabala kiya tha. tab uska sara chehra aag ki kalikh se put gaya tha. phir ek baar pati ki anupasthiti mein hi pure ilaqe mein nirantar barsat se baaDh ka khatra paida ho gaya tha. musladhar barish mein ghanton khaDe rahkar usne ghati par bane baandh ko bachane ke liye phavDe se pani ke nikalne ke liye rasta banaya tha. lekin tamam koshishon ke bavjud agli subah baandh toot gaya tha aur unki barson ki mehnat pani mein bah gai thi. tab wo apni rulai rok nahin pai thi. phir ek baar janavron mein pluro nimoniya ki bimari phaili thi to wo apne hathon se unki khoon bhari balgam saaf karti rahi thi. lekin phir bhi uski do sabse pyari gayen is bimari ki bhent chaDh gai theen. aur use wo din bhi yaad hai jab ek paglaye hue saanD ne ghar par hamla bol diya tha. usne apne hathon se barud ke kartus banakar unhen ek purani banduq mein bhara tha aur phir divar ke takhton ke beech bani dararon ke bhitar se wo unhen saanD par dagti rahi thi. subah hone tak saanD mara hua paya gaya tha aur uski chamDi ki bikri se usne saDhe satrah Daulron ko kamai ki thi.
wo un kauaun aur chilon ka bhi muqabala karti hai, jinki nazar uski murghiyon par hoti hai. unhen bhagane ka uska tariqa bhi anutha hai. bachchon ke “maan, kaue!” chillate hi wo bahar dauDkar aati hai aur jhaaD ko banduq ki tarah haath mein lekar kauon par nishana sadhti hai. uske munh se ‘boom!’ ki avaz nikalte hi kaue ghabrakar uD jate hain. kaue shatir hain, lekin aurat ki chaturai ke aage unki ek nahin chalti.
kabhi kabhar jab uska sabka kisi mavali ya is or rasta bhool ge kisi gunDe badmash se paDta hai to uski jaise jaan hi nikal jati hai. sandehaspad dikhne vala koi bhi ajnabi jab ghar ke malik ke bare mein puchhta to wo use batana nahin bhulti ki uska pati aur do baDe laDke niche baandh par kaam kar rahe hain. pichhle hafte saman ka gatthar peeth par lade Daravne chehre vale ek musafir ne, ye tay kar chukne ke baad ki vahan asapas koi mard nahin hai, uski chaukhat par aakar kaha tha ki wo bahut bhukha hai. jab usne use khana diya tha to kha chukne ke baad apna bistar peeth se utarkar usne raat vahin guzarne ka pharman sunaya tha. tab usne bhitar se ek chhaDi nikali thi aur kutte ki zanjir kholkar wo sidhe usse mukhatib hui thi. “ab tum yahan sa jao!” usne sakht svar mein adesh diya tha. uski mukhmudra aur kutte ke tevar dekhkar wo musafir turant vahan se chalta bana tha.
raat ke sannate mein akele saanp ki pahredari par baithe hue wo kisi bhi aise vishesh sukh ko yaad nahin kar pati jo use apni zindagi mein nasib hua ho. uske liye sabhi din lagbhag ek jaise hain. sirf ravivar ki dopahar ko wo kapDe badalti hai, bachchon ko nahla dhulakar sanvarti hai aur phir jhaDiyon ke beech bani pagDanDiyon par akeli sair ke liye nikal jati hai. uske aage ‘prem’ mein uski chhoti bachchi hoti hai. har ravivar wo apne aapko aur bachchon ko yoon taiyar karti hai, jaise ve shahr mein ghumne ke liye jane vale hon. lekin jhaDiyon ki us ekaki sair ke dauran na to kuch dekhne ko hota hai, na kisi se milna hota hai. agar is eksaar ilake ki jankari na ho to bisiyon meel tak lagatar chalne ke baad bhi kisi khaas jagah ya moD ki shinakht karna mushkil hoga.
har jagah ek jaisi bauni jhaDiyon ka anthin nazara kisi ko bhi pagal bana dene ke liye kafi hoga, lekin use is akelepan ki aadat paD chuki hai. nai naveli dulhan ke roop mein usne is zindagi se beintha nafrat ki thi, lekin ab wo iski is kadar abhyast ho chuki hai ki kisi aur tarah ki zindagi se shayad use uljhan hone lage.
jab uska pati lautta hai to use khushi mahsus hoti hai. lekin wo na iska izhaar karti hai, na bhavatirek mein Dubti hai. sirf khane mein wo koi achchhi cheez banati hai aur bachchon ko saja sanvarakar ne kapDe pahnati hai.
shayad wo apni zindagi se santusht hai. apne bachchon ko wo behad pyaar karti hai, lekin use kabhi apne is pyaar ko vyakt karne ka mauqa nahin mila. aksar wo unke saath bahut sakhti se pesh aati hai. shayad ye mahaul hi aisa hai ki ismen striyochit komalta ke ijhaar ki koi gunjaish nahin hai.
***
ab raat ka tisra pahar bitne ko hoga, lekin uski ghaDi kamre mein chhoot gai hai. mombatti bhi taqriban bujhne vali hai. use yaad hi nahin raha ki unki mombattiyan khatm ho gai hain. aag ke jalte rahne ke liye kuch aur lakaDiyon ki zarurat hogi. kutte ko andar band kar wo bahar lakDiyan lene ke liye aati hai. barsat ab tham chuki hai. lekin ek lakDi lene ke liye jab wo use Dher se khinchti hai to sara Dher bharabhrakar Dhah jata hai. kal usne ek raah chalte chhutte majdur se lakDiyan lakar ikatthi karne ke liye kaha tha. wo jab kaam kar raha tha to wo apni gaay ko DhunDhne nikal gai thi. koi ek ghante baad jab wo lauti thi to majdur ne chimani ke paas lakaDiyon ka ek khoob baDa sa Dher saja diya tha. itne kam samay mein itni lakDiyan, usne tajjub kiya tha. mazdur ki iimandar mehnat se khush hokar usne use tambaku ki ek atirikt puDiya inaam mein di thi. saath hi uski tarif bhi ki thi ki wo dusre mazduron ki tarah aalsi nahin hai. mazdur ne use dhanyavad diya tha aur chhati phulaye vahan se chala gaya tha. beshak wo mazduron ke beech ek shahanshah raha hoga, lekin savadhani se sajaya gaya uska lakaDiyon ka Dher andar se bilkul khokhla tha.
thage jane ke ahsas se uski ankhon mein ansu umaD aate hain aur wo kamre mein lautkar phir se tebal ke paas baith jati hai. rumal se wo apni ankhen ponchhne ki koshish karti hai to uski ungliyan uski ankhon mein gaD jati hain. wo dekhti hai ki uske rumal mein kai chhed hain aur uski ungliyan un chhedon ke bhitar se nikalkar uski ankhon ko chhu rahi hain.
wo hansne lagti hai aur uski is achanak hansi se kutta chaunk jata hai. chhoti chhoti murkhtayen kabhi kabhi use betarah hansa jati hain. ek baar udasi ke mare jab uska man phoot phutkar rone ko hua tha to achanak uski billi uske nazdik aakar apna sharir uske galon par ragaDne lagi thi goya ki use bhi rona aa raha ho. tab uske samne hansne ke siva koi chara nahin rah gaya tha.
***
ab subah hone mein bahut der nahin. jalti hui aag ki vajah se kamre mein betarah ghutan aur garmi hai. ailigetar ab bhi rah rahkar divar ki or dekhne lagta hai. achanak wo kafi uttejit hokar divar ke bilkul qarib sarak aata hai. uski peeth ke baal khaDe hone lagte hain aur uski chamakti hui ankhen kuch atirikt chaukanni ho jati hain. wo jaan jati hai ki iska kya matlab hai aur uska haath khud ba khud nazdik hi rakkhi chhaDi ki or chala jata hai. beech ki divar ke ek takhte mein niche ki or donon taraf ek baDi si phaank hai. uske bhitar achanak do mankon jaisi chamakdar chhoti chhoti ankhon ka joDa dikhai deta hai. bilkul kale rang ka saanp dhire dhire lagbhag ek phut bahar nikalkar aata hai aur apna sir uupar niche hilata hai. kutta chupchap bina hile Dule leta hai aur wo bhi mantrviddh si baithi dekhti chali jati hai. phir wo dhire dhire apni chhaDi hava mein uthati hai, jisse saanp shayad khatre ki toh pakar takhte ke dusre chhed mein apna sir ghusakar jaldi se vapas laut jana chahta hai. isi kshan ailigetar jhapatta hai, lekin saanp ka sir takhte ki phaank ke bhitar ja chuka hai. uske pichhe pichhe uski poonchh bahar nikalti hai to ailigetar phir se jhapatta hai aur is baar poonchh ka ek hissa uski pakaD mein aa jata hai. wo use koi DeDh phut bahar kheench nikalta hai. dham dham! aurat ka DanDa barasta hai. ailigetar kuch aur khinchta hai to pura saanp bahar aa jata hai, wo pure paanch phut lamba kala dhaman hai. wo idhar udhar bhagne ki koshish karta hai, lekin kutte ne use gardan ke qarib hi jakaD liya hai. bhari bharkam hote ailigetar behad phurtila hai. munh mein daboche saanp ko wo is vahshat ke saath jhinjhoDta hai, jaise us nasl se uska koi pushtaini bair ho. is shor ke beech baDa beta jaag jata hai aur apna DanDa haath mein lekar bistar se utarne ki koshish karta hai, lekin uski maan use jhiDakkar vahin rok deti hai. dham, dham! saanp ki kamar kai jagah se chaknachur ho chuki hai. dham, dham! uska sir kuchal diya jata hai aur iske saath hi kutte ki thuthni phir se kharonchi jati hai.
kshat vikshat saanp ke sharir ko wo apni chhaDi se uthati hai, phir use aagu ke paas le jakar ek jhatke ke saath bhitar jhonk deti hai. kuch aur lakDiyan Dalkar wo chupchap saanp ka jalna dekhti jati hai. laDka aur wo kutta bhi usi ki tarah ektak aag ko dekh rahe hain. wo apna ek haath kutte ke sir par rakhti hai to uski pili ankhon ki sari vahshat bhari chingariyan jaise bujhkar shaant ho jati hain. takht par chhote bachche kunmunate hain aur zara sa thapkaye jane par phir se neend mein Doob jate hain. maili tangon vala baDa laDka kuch kshnon ke liye aag ki or dekhana jari rakhta hai, phir maan ki or palatta hai. maan ki ankhon mein ansu bhar aaye hain. laDka aaveg mein apni donon banhen maan ki gardan ke gird Dalkar gali dete hue kahta hai, “tumhari qasam maan, main kabbhi, kabbhi bhi bheDen chasne ke liye jaun to kahna. . . ”
wo apne bete ko sine se lagakar uska munh choom leti hai. phir kuch der tak ve usi tarah ek dusre mein gunthe baithe rahte hain. bahar jhaDiyon par ab subah ki pahli roshni phutne ko hai.
do kamron ka ghar gol latthon, ‘takhton aur peD ki chhaal se gunthi gai rassiyon se bana hai. farsh ki jagah andar chire hue takhte bichhe hain. ghar ke ek sire par bana rasoighar aur uske samne bana baramada akar mein us ghar se bhi kahin baDe hain.
charon taraf, jahan tak nazar jati hai, eksaar jhaDiyan phaili hain. zamin bilkul sapat hai, usmen kahin koi utaar chaDhav nahin. kahin kshitij ke paar dikhti pahaDiyon ki jhalak tak nahin. door tak phaili ve ek si bauni jhaDiyan saDe hue jangli beranuma sebon ki hain. niche na ghaas, na kisi aur paudhe ka namonishan. sankre, lagbhag sukhe ghatinuma moD par ahen bharte ikka dukka shiok ke apekshakrit hare peDon ko chhoDkar one kone tak yahan koi cheez nahin jis par nazar thahar sake. sabhyata ke akhiri avshesh se bhi unnis meel aage mukhya saDak ke kinare khaDa hai ye jhugginuma ghar.
is zamin ke prarambhik bashindon mein se ek, wo charvaha apni bheDon ke saath kahin door bhatak raha hai. uski aurat aur bachche yahan ghar mein akele hain.
chaar maile chikat, kumhlaye hue bachche ghar ke nazdik khel rahe hain. achanak unmen se ek chillata hai, “saanp, saanp! vahan saanp hai maan. . . ”
ek mariyal, dhoop mein jhulsi aurat rasoighar se dauDkar bahar nikalti hai, ek jhatke ke saath chhote bachche ko zamin se dabochkar apne bayen kulhe par tikati hai aur phir haath mein chhaDi pakaD leti hai.
“kahan hai?”
“vahan, lakaDiyon ke Dher men!” sabse baDa, jo gyarah ke asapas ka ek hoshiyar laDka hai, chikhkar batata hai. “tum vahin rahna maan, main abhi is kamine ki chatni banata hoon!”
“taumi, tu fauran idhar aa, varna ye tujhe kaat lega. tune suna ki nahin, fauran idhar aa, naspite!”
bachcha bahut anichchha se aata hai. usne haath mein apne akar se kahin baDa ek latth pakaD rakkha hai. phir achanak wo vijaybhav se chillata hai, “vah dekho, wo raha! vahan ghar ke niche gaya. ” wo latth hava mein uthakar dauDta hai. is sari karrvai ke dauran sabse adhik uttejit hone valon mein hai ek baDa sa, pili ankhon vala kala kutta, jo akhirkar apni zanjir toDkar kholne mein saphal ho jata hai aur badahvasi mein saanp ki or lapakta hai. lekin use zara si der ho gai hai. takhton ke beech ki darar par uski thuthni ke tikne se ek kshan pahle hi saanp ki poonchh takhton ke niche ghayab ho chuki hoti hai. lagbhag usi samay laDke ke latth ka vaar us takhte par paDta hai, jisse kutte ki naak betarah ragaD kha jati hai. lekin iski tanik bhi parvah kiye baghair wo kutta, jiska naam ailigetar hai, ghar ki puri neenv ko ulat pulat Dalne par amada ho jata hai. baDi mushkil ke saath use shaant kar phir se baandh diya jata hai. kutte ka vahan hona jaruri hai, ve kisi bhi haalat mein use khona nahin chahte.
sabhi bachchon ko ek jhunD mein kutte ke paas khaDakar charvahe ki bivi saanp ki toh lena shuru karti hai. saanp ko lubhane ke liye wo do chhoti tashtariyon mein doodh Dalkar ghar ki divar ke paas rakhti hai, lekin ek ghanta guzar jane ke baad bhi saanp bahar nahin nikalta.
bahar shaam Dhalne vali hai aur asman mein tuphan ke asar dikhai de rahe hain. bachchon ko chhat ke niche le jana zaruri hai. wo unhen ghar ke bhitar nahin le ja sakti, kyonki vahan saanp hai, jo kisi bhi vaqt zamin par bichhe takhton ke beech se bahar aa sakta hai. jalane vali lakaDiyon ko donon hathon se uthakar rasoighar mein rakhne ke baad wo bachchon ko vahan le jati hai. rasoighar mein kachcha farsh hai. beech mein ek takhtanuma tebal hai. wo charon bachchon ko takht par chaDha deti hai. do baDe laDke aur do laDkiyan, jo abhi bahut chhoti hain. wo un sab ko khana
deti hai aur phir andhera hone se pahle ghar mein jakar jaldi se do teen takiye aur kuch kapDe kheench nikalti hai. aisa karte hue use lagta hai ki abhi wo saanp uske samne aa jayega. rasoighar mein jakar wo takht par bachchon ka bistar lagati hai aur khud raat bhar pahra dene ke liye nazdik hi baith jati hai.
uski ankhen takhton se bani rasoighar aur kamron ke beech ki divar par tiki hui hain. saanp se jujhne ki taiyari mein usne najdik hi tipai par kachche bent se bana DanDa rakh liya hai. saath hi uski bunai ki tokari aur kisi purani patrika ka ank hai. kutte ko wo apne saath bhitar le aai hai.
kafi prativad ke baad taumi akhirkar letta hai, lekin uski zid hai ki wo sari raat jagata rahega aur saanp ke dikhai dete hi us sale ko kuchal Dalega.
uski maan use Dantti hai ki aise mavaliyon ki tarah gali nahin diya karte! taumi ne apna DanDa chadar ke niche apne saath rakkha hua hai. uska chhota bhai jaiki prativad karta hai.
“maan, jaiki ka ye DanDa mujhe chubh raha hai. isse kaho, ise yahan se hataye. ”
“chupchap so ja chhutke! tujhe saanp se katvana hai?”
taumi ki Daant sunkar jaiki chup ho jata hai.
‘saanp ne kaat liya na,” kuch der baad taumi kahta hai, “to tu phulkar laal nila ho jayega aur tere andar se badbu aane lagegi. hai na maan?”
“chalo ab use Darana band karo aur chupchap so jao!” wo kahti hai.
donon chhoti laDkiyan pahle hi so chuki hain. jaiki rah rahkar shikayat karta hai ki wo beech mein dab raha hai. uske liye kuch aur jagah banai jati hai. phir kuch der baad taumi kahta hai, “maan, dekho, bahar pauzam (chhote astreliyai janvar) bol rahe hain. mera man karta hai in salon ki gardan maroD Dalun!”
jaiki uninde svar mein prativad karta hai, “kyon, in salon ne tumhara kya bigaDa hai?”
“dekha!” maan kahti hai, “tumne apni gali galauj ki zuban jaiki ko bhi sikha di hai!” lekin jaiki ke nirih prativad par wo muskura uthti hai. is beech jaiki neend mein Doob chuka hai.
kuch der ki khamoshi ke baad taumi saval karta hai, “maan, tumhein kya lagta hai, ve in sale kangaruon ko bhaga payenge?”
“he bhagvan! ye ab mujhe kya malum, bachche! achchha, chal bahut hua, ab so ja!”
“saanp nikla to tum mujhe jaga dogi?”
“haan, jaga dungi. ab so ja chupchap!”
aadhi raat hone vali hai. bachche sab so chuke hain aur bari bari se kabhi silai ka kaam karti hai, kabhi patrika ke panne ulatne lagti hai. beech beech mein wo apni nigahen farsh aur divaron par bhi dauDa leti hai. zara si avaz sunai dete hi uska haath apne DanDe ki or chala jata hai. bahar andhaD aur tufan garajna shuru kar deta hai to divar ke takhton ke beech se bhitar ghusti hui hava ke zor se mombatti bujhne bujhne ko hoti hai. wo use tipai ke pichhe taak par rakhkar hava se bachane ke liye uske charon or akhbar ka kaghaz baandh deti hai. bijli ki har kaDkaDahat ke saath takhton ke beech ki dararen chandi ki tarah chamakti hain. phir uske baad andhaD ke saath musladhar barish girne lagti hai.
ailigetar apni nigahen rasoighar aur kamron ke beech ki divar par tikaye farsh par lamba leta hua hai. isse aurat ko yaqin ho jata hai ki saanp vahin kahin hai. takhton ki divar ke nichle hisse mein kai baDi baDi phanken hain. aisa nahin ki wo Darpok hai, lekin pichhle kuch samay ki ghatnaon ne uske atmavishvas ko hilakar rakh diya hai. ek to abhi haal hi mein uske devar ke chhote bete ko saanp ne kata aur wo mar gaya. aur phir pichhle chhः mahinon se uske pati ki koi khabar nahin hai, jisse ab use khasi chinta hone lagi hai.
uska pati pahle charvaha tha. phir uske baad apne maveshiyon ke saath wo isi ilaqe mein bas gaya tha. lekin paanch baras pahle ke sukhe ne use barbad kar Dala. bache khuche maveshiyon ko bechkar use phir se dar dar bhatakne vale charvahe ka jama pahanna paDa. ab lautkar aane ke baad uska irada apne parivar ke saath nazdik ke kisi shahr mein bas jane ka hai. is beech uska devar, jiska ghar mukhya saDak par kuch aage hai, mahine mein ek baar unke liye rasad pani lekar aata hai. aurat ke paas ab bhi do gayen, ek ghoDa aur bachi hui hain. uska devar beech beech mein ekaadh bheD ko markar unhen apni kuch bheDen zarurat ke mutabik maans deta hai, aur baqi ka maans apne laye ge rasad pani ke muavze ke roop mein vasulkar le jata hai.
use is tarah akele chhutne ki aadat hai. ek baar to wo attharah mahinon tak yahan akeli thi. laDakpan mein wo tarah tarah ke havai qile banaya karti thi, lekin uske sare laDakiyana mansube aur khvaab bahut pahle hi tutkar bikhar chuke hain. ab sara manoranjan aur utsaah use patrikaon mein chhapne vali rangin tasviron mein DhunDhna hota hai.
wo aur uska pati, donon austreliyai hain. thoDa laparvah hone ke bavjud uska pati bahut achchha hai. agar uske paas haisiyat hoti to wo shahr le jakar kisi rajakumari ki tarah rakhta. unhen, se kam use, ab akelapan zyada pareshan nahin karta. apne lambe pravas ke beech pati ko chahe ye yaad na rahta ho ki pichhe uske bivi bachche hain, lekin lautne par apni kamai ka adhikansh hissa bivi ke haath mein dena wo kabhi nahin bhulta. paise hone par ek baar wo relve mein Dibba lekar use shahr ki sair bhi karva chuka hai. ek vaqt uske liye usne ek bagghi bhi kharidi thi, lekin tangi ke dinon mein baqi chizon ke saath unhen use bhi bech dena paDa.
uski donon chhoti laDkiyan is ujaaD mein hi paida hui hain. ek vaqt to uska pati ilake ke sharabi Dauktar ko zabardasti pakaDkar lane ke liye gaya hua tha aur wo akeli thi. uupar se bukhar ke karan use kamzori bhi bahut thi. wo mana rahi thi ki iishvar uski madad ke liye kisi ko vahan bhej de. aur sachmuch vahan ek kala adami aaya tha, jisne use dekhne ke baad fauran ghati ke us paar se apni buDhi maan ko bula lane ka nirnay le liya tha.
yahan akele rahte hue hi uska ek bachcha chal basa tha. mare hue bachche ko saath liye, madad ki talash mein tab usne unnis meel ka safar ghoDe ki peeth par tay kiya tha.
ab raat ka ek baj chuka hoga. aag dhimi paDne lagi hai. apna sir apne donon agle panjon par tikaye ailigetar divar ki or ghurta ja raha hai. dekhne mein wo bahut sundar kutta nahin hai aur uske pure sharir par jagah jagah zakhmon ke nishan hain. lekin duniya mein koi aisi cheez nahin hai, jisse use Dar lagta ho. machchhar se lekar saanD tak ka mukabla wo utni hi bahaduri ke saath kar sakta hai. duniya ke sare dusre kutton se use nafrat hai aur us ghar mein doston ya rishtedaron ka aana bhi use sakht napsand hai. ganimat hai ki bhule bhatke hi yahan koi aata hai. kabhi kabhi ajanabiyon se bhi uski dosti ho jati hai. aur haan, sanpon se uski jati dushmani hai aur wo na jane kitne sanpon ko ghaat utaar chuka hai. lekin dusre laDaku kutton ki tarah kisi din saanp ke katne se mar jana hi shayad uski niyti hai.
beech beech mein aurat apne haath ka kaam chhoDkar dekhti hai, sunti hai aur sochti hai. uski soch apni khud ki zindagi ke bare mein hoti hai. iske alava uske paas sochne ke liye aur hai bhi kyaa!
barish ke baad ghaas phir se ug ayegi. use yaad hai ki kaise ek baar pati ki anupasthiti mein usne jhaDiyon mein lagi aag ka muqabala kiya tha. jalti hui lambi, sukhi ghaas unke pure vajud ko jala Dalne par amada thi. usne apne pati ki purani patlun pahankar ek hari Daal se aag ka muqabala kiya tha. tab uska sara chehra aag ki kalikh se put gaya tha. phir ek baar pati ki anupasthiti mein hi pure ilaqe mein nirantar barsat se baaDh ka khatra paida ho gaya tha. musladhar barish mein ghanton khaDe rahkar usne ghati par bane baandh ko bachane ke liye phavDe se pani ke nikalne ke liye rasta banaya tha. lekin tamam koshishon ke bavjud agli subah baandh toot gaya tha aur unki barson ki mehnat pani mein bah gai thi. tab wo apni rulai rok nahin pai thi. phir ek baar janavron mein pluro nimoniya ki bimari phaili thi to wo apne hathon se unki khoon bhari balgam saaf karti rahi thi. lekin phir bhi uski do sabse pyari gayen is bimari ki bhent chaDh gai theen. aur use wo din bhi yaad hai jab ek paglaye hue saanD ne ghar par hamla bol diya tha. usne apne hathon se barud ke kartus banakar unhen ek purani banduq mein bhara tha aur phir divar ke takhton ke beech bani dararon ke bhitar se wo unhen saanD par dagti rahi thi. subah hone tak saanD mara hua paya gaya tha aur uski chamDi ki bikri se usne saDhe satrah Daulron ko kamai ki thi.
wo un kauaun aur chilon ka bhi muqabala karti hai, jinki nazar uski murghiyon par hoti hai. unhen bhagane ka uska tariqa bhi anutha hai. bachchon ke “maan, kaue!” chillate hi wo bahar dauDkar aati hai aur jhaaD ko banduq ki tarah haath mein lekar kauon par nishana sadhti hai. uske munh se ‘boom!’ ki avaz nikalte hi kaue ghabrakar uD jate hain. kaue shatir hain, lekin aurat ki chaturai ke aage unki ek nahin chalti.
kabhi kabhar jab uska sabka kisi mavali ya is or rasta bhool ge kisi gunDe badmash se paDta hai to uski jaise jaan hi nikal jati hai. sandehaspad dikhne vala koi bhi ajnabi jab ghar ke malik ke bare mein puchhta to wo use batana nahin bhulti ki uska pati aur do baDe laDke niche baandh par kaam kar rahe hain. pichhle hafte saman ka gatthar peeth par lade Daravne chehre vale ek musafir ne, ye tay kar chukne ke baad ki vahan asapas koi mard nahin hai, uski chaukhat par aakar kaha tha ki wo bahut bhukha hai. jab usne use khana diya tha to kha chukne ke baad apna bistar peeth se utarkar usne raat vahin guzarne ka pharman sunaya tha. tab usne bhitar se ek chhaDi nikali thi aur kutte ki zanjir kholkar wo sidhe usse mukhatib hui thi. “ab tum yahan sa jao!” usne sakht svar mein adesh diya tha. uski mukhmudra aur kutte ke tevar dekhkar wo musafir turant vahan se chalta bana tha.
raat ke sannate mein akele saanp ki pahredari par baithe hue wo kisi bhi aise vishesh sukh ko yaad nahin kar pati jo use apni zindagi mein nasib hua ho. uske liye sabhi din lagbhag ek jaise hain. sirf ravivar ki dopahar ko wo kapDe badalti hai, bachchon ko nahla dhulakar sanvarti hai aur phir jhaDiyon ke beech bani pagDanDiyon par akeli sair ke liye nikal jati hai. uske aage ‘prem’ mein uski chhoti bachchi hoti hai. har ravivar wo apne aapko aur bachchon ko yoon taiyar karti hai, jaise ve shahr mein ghumne ke liye jane vale hon. lekin jhaDiyon ki us ekaki sair ke dauran na to kuch dekhne ko hota hai, na kisi se milna hota hai. agar is eksaar ilake ki jankari na ho to bisiyon meel tak lagatar chalne ke baad bhi kisi khaas jagah ya moD ki shinakht karna mushkil hoga.
har jagah ek jaisi bauni jhaDiyon ka anthin nazara kisi ko bhi pagal bana dene ke liye kafi hoga, lekin use is akelepan ki aadat paD chuki hai. nai naveli dulhan ke roop mein usne is zindagi se beintha nafrat ki thi, lekin ab wo iski is kadar abhyast ho chuki hai ki kisi aur tarah ki zindagi se shayad use uljhan hone lage.
jab uska pati lautta hai to use khushi mahsus hoti hai. lekin wo na iska izhaar karti hai, na bhavatirek mein Dubti hai. sirf khane mein wo koi achchhi cheez banati hai aur bachchon ko saja sanvarakar ne kapDe pahnati hai.
shayad wo apni zindagi se santusht hai. apne bachchon ko wo behad pyaar karti hai, lekin use kabhi apne is pyaar ko vyakt karne ka mauqa nahin mila. aksar wo unke saath bahut sakhti se pesh aati hai. shayad ye mahaul hi aisa hai ki ismen striyochit komalta ke ijhaar ki koi gunjaish nahin hai.
***
ab raat ka tisra pahar bitne ko hoga, lekin uski ghaDi kamre mein chhoot gai hai. mombatti bhi taqriban bujhne vali hai. use yaad hi nahin raha ki unki mombattiyan khatm ho gai hain. aag ke jalte rahne ke liye kuch aur lakaDiyon ki zarurat hogi. kutte ko andar band kar wo bahar lakDiyan lene ke liye aati hai. barsat ab tham chuki hai. lekin ek lakDi lene ke liye jab wo use Dher se khinchti hai to sara Dher bharabhrakar Dhah jata hai. kal usne ek raah chalte chhutte majdur se lakDiyan lakar ikatthi karne ke liye kaha tha. wo jab kaam kar raha tha to wo apni gaay ko DhunDhne nikal gai thi. koi ek ghante baad jab wo lauti thi to majdur ne chimani ke paas lakaDiyon ka ek khoob baDa sa Dher saja diya tha. itne kam samay mein itni lakDiyan, usne tajjub kiya tha. mazdur ki iimandar mehnat se khush hokar usne use tambaku ki ek atirikt puDiya inaam mein di thi. saath hi uski tarif bhi ki thi ki wo dusre mazduron ki tarah aalsi nahin hai. mazdur ne use dhanyavad diya tha aur chhati phulaye vahan se chala gaya tha. beshak wo mazduron ke beech ek shahanshah raha hoga, lekin savadhani se sajaya gaya uska lakaDiyon ka Dher andar se bilkul khokhla tha.
thage jane ke ahsas se uski ankhon mein ansu umaD aate hain aur wo kamre mein lautkar phir se tebal ke paas baith jati hai. rumal se wo apni ankhen ponchhne ki koshish karti hai to uski ungliyan uski ankhon mein gaD jati hain. wo dekhti hai ki uske rumal mein kai chhed hain aur uski ungliyan un chhedon ke bhitar se nikalkar uski ankhon ko chhu rahi hain.
wo hansne lagti hai aur uski is achanak hansi se kutta chaunk jata hai. chhoti chhoti murkhtayen kabhi kabhi use betarah hansa jati hain. ek baar udasi ke mare jab uska man phoot phutkar rone ko hua tha to achanak uski billi uske nazdik aakar apna sharir uske galon par ragaDne lagi thi goya ki use bhi rona aa raha ho. tab uske samne hansne ke siva koi chara nahin rah gaya tha.
***
ab subah hone mein bahut der nahin. jalti hui aag ki vajah se kamre mein betarah ghutan aur garmi hai. ailigetar ab bhi rah rahkar divar ki or dekhne lagta hai. achanak wo kafi uttejit hokar divar ke bilkul qarib sarak aata hai. uski peeth ke baal khaDe hone lagte hain aur uski chamakti hui ankhen kuch atirikt chaukanni ho jati hain. wo jaan jati hai ki iska kya matlab hai aur uska haath khud ba khud nazdik hi rakkhi chhaDi ki or chala jata hai. beech ki divar ke ek takhte mein niche ki or donon taraf ek baDi si phaank hai. uske bhitar achanak do mankon jaisi chamakdar chhoti chhoti ankhon ka joDa dikhai deta hai. bilkul kale rang ka saanp dhire dhire lagbhag ek phut bahar nikalkar aata hai aur apna sir uupar niche hilata hai. kutta chupchap bina hile Dule leta hai aur wo bhi mantrviddh si baithi dekhti chali jati hai. phir wo dhire dhire apni chhaDi hava mein uthati hai, jisse saanp shayad khatre ki toh pakar takhte ke dusre chhed mein apna sir ghusakar jaldi se vapas laut jana chahta hai. isi kshan ailigetar jhapatta hai, lekin saanp ka sir takhte ki phaank ke bhitar ja chuka hai. uske pichhe pichhe uski poonchh bahar nikalti hai to ailigetar phir se jhapatta hai aur is baar poonchh ka ek hissa uski pakaD mein aa jata hai. wo use koi DeDh phut bahar kheench nikalta hai. dham dham! aurat ka DanDa barasta hai. ailigetar kuch aur khinchta hai to pura saanp bahar aa jata hai, wo pure paanch phut lamba kala dhaman hai. wo idhar udhar bhagne ki koshish karta hai, lekin kutte ne use gardan ke qarib hi jakaD liya hai. bhari bharkam hote ailigetar behad phurtila hai. munh mein daboche saanp ko wo is vahshat ke saath jhinjhoDta hai, jaise us nasl se uska koi pushtaini bair ho. is shor ke beech baDa beta jaag jata hai aur apna DanDa haath mein lekar bistar se utarne ki koshish karta hai, lekin uski maan use jhiDakkar vahin rok deti hai. dham, dham! saanp ki kamar kai jagah se chaknachur ho chuki hai. dham, dham! uska sir kuchal diya jata hai aur iske saath hi kutte ki thuthni phir se kharonchi jati hai.
kshat vikshat saanp ke sharir ko wo apni chhaDi se uthati hai, phir use aagu ke paas le jakar ek jhatke ke saath bhitar jhonk deti hai. kuch aur lakDiyan Dalkar wo chupchap saanp ka jalna dekhti jati hai. laDka aur wo kutta bhi usi ki tarah ektak aag ko dekh rahe hain. wo apna ek haath kutte ke sir par rakhti hai to uski pili ankhon ki sari vahshat bhari chingariyan jaise bujhkar shaant ho jati hain. takht par chhote bachche kunmunate hain aur zara sa thapkaye jane par phir se neend mein Doob jate hain. maili tangon vala baDa laDka kuch kshnon ke liye aag ki or dekhana jari rakhta hai, phir maan ki or palatta hai. maan ki ankhon mein ansu bhar aaye hain. laDka aaveg mein apni donon banhen maan ki gardan ke gird Dalkar gali dete hue kahta hai, “tumhari qasam maan, main kabbhi, kabbhi bhi bheDen chasne ke liye jaun to kahna. . . ”
wo apne bete ko sine se lagakar uska munh choom leti hai. phir kuch der tak ve usi tarah ek dusre mein gunthe baithe rahte hain. bahar jhaDiyon par ab subah ki pahli roshni phutne ko hai.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 277)
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