सेल्मा कोल्जास को उसके साथी अच्छी तरह से समझते नहीं थे। विशेष रूप से वे लोग, जो युवा थे और रोमांच पसंद करते थे। उसने कुछ ऐसा प्रभाव बना लिया था, जैसे वह दुनिया की सबसे निपुण लड़की है। अपनी सम्मोहक आँखों से वह ऐसा जादू फेंकती कि कोई कवि भी सॉनेट लिखने लगता।
लोगों को आश्चर्य था कि उसने विवाह क्यों नहीं किया। उसके बारे में गाँव में किसी तरह के क़िस्से नहीं फैले। हर दृष्टि से वह बहुत आकर्षित थी। वह बड़ी सादगी से नृत्य करती और सुरुचिपूर्ण वस्त्र पहनती। इन सारे गुणों के अतिरिक्त उसकी निश्चल आँखें कुछ ऐसी मोहक थीं कि किसी का भी दिल जीत सकती थीं।
एक शाम, एक नृत्य में एक बड़ी आश्चर्यजनक घटना घटी। सेल्मा भी वहाँ उपस्थित थी। ऐसे कार्यक्रमों में युवतियाँ अपनी माओं या पारिवारिक मित्रों के संरक्षण में आती थीं। ऐसी ही एक संरक्षिका मादाम लितुका, जो एक अमीर व्यापारी की पत्नी थी, अपनी बेटी एल्मा और संभावित दामाद के साथ वहाँ आती थी। वह लड़का एक निर्धन छात्र था, जो समय-समय पर उस व्यापारी की मदद से गुज़ारा करता था, समाज उसे नीची नज़रों से देखता था।
जब एल्मा अपने भावी पति के साथ नाचती तो कई परिचित निगाहें और फुसफुसाहटें उसकी माँ से टकरातीं। पर आज लग रहा था कि एल्मा की वह पूरी शाम अकेले में ही कटेगी, क्योंकि उसके भावी पति का कहीं नामोनिशान नहीं था। व्याकुलता-भरे अंतराल के बाद अचानक वह प्रकट हुआ। सेल्मा उसके साथ थी और वह उसी के साथ नाचने लगा।
ग़ुस्से से लाल-पीली हुई व्यापारी की पत्नी झटके से उठी और सारे शिष्टाचार भूलकर दरवाज़े के बाहर निकल गई। उसकी बेटी एल्मा, जो प्यार के बारे में सिर्फ़ उतना ही जानती थी, जितना उसकी माँ ने उसे बताया था, अपनी माँ को उठते देख उठी और हिचकती हुई-सी पीछे-पीछे चल पड़ी। उस अपमानजनक स्थिति को लेकर अपनी माँ के तीखे शब्द उसके कानों में पड़ रहे थे।
इसी बीच एक दयालु मित्र ने छात्र के कानों में फुसफुसाकर मादाम लितुका की नाराज़गी के बारे में बताया।
उस अभागे युवक ने कई तरह से अपनी सफ़ाई देने की कोशिश की, पर उसकी क्षमायाचना पर मादाम लितुका ने कोई ध्यान न दिया।
दूसरी ओर सेल्मा ने इल्मारी सेलोने के साथ नाचना शुरू करने के बाद से अपने इस नए संबंध को लेकर पुनर्विचार नहीं किया। इस तरह के संबंधों को लेकर वह ज़्यादा सोच-विचार नहीं करती थी। वह सुबह होने तक नाचती रही और उसके बाद अपने भाई और छोटी बहन के साथ, उस शाम के आनंद से संतुष्ट हो घर चली गई।
कोल्जास परिवार का घर बहुत ही रमणीक जगह पर बना हुआ था। पास से गुज़रते लोग कई दृष्टियों से उसकी प्रशंसा करते थे। अपने उपभवनों के साथ यह एक बड़ा ही मोहक आकार बनाता था। बारिश के बाद तो यह और भी मोहक लगता था। सफ़ेद दीवारों के ऊपर लाल रंग की ढलवाँ छत, आस-पास सब जगह हरियाली और ऊपर नीला आसमान, इस पर आते-जाते काले बादल उसकी रूप छटा को द्विगुणित कर देते थे।
कोई भी छात्र (ऊपर वर्णित छात्र नहीं) जब पास से गुज़रता तो वह दरवाज़े के बिलकुल पास से गुज़रने के मोह से थोड़ा लंबा रास्ता लेने में संकोच न करता। वह स्कूल जाने वाली सेल्मा कोल्जास और उसकी छोटी बहन को शक्ल से पहचानता था और गेट से भीतर झाँकते हुए वह यह अनुमान लगा लेता कि वे इस पुरानी हवेली के भीतर किसी न किसी कमरे में चहलक़दमी कर रही होंगी। वह उनके भाई उर्तो कोल्जास को थोड़ा-सा जानता था। वह डॉक्टरी पढ़ रहा था।
उस विशेष दिन वहाँ कोई नहीं दिखाई दिया। यहाँ तक कि गुलाब तथा अँगूर की बेलें, जो बालकनी तक चली गई थीं, भी बड़ी बेरुख़ी रही थीं।
दूर घर के पिछवाड़े से चिराबेल के विशाल झुरमुट झील तक चले गए थे। एक छोटी-सी घटना ने घटनाओं की एक कड़ी को जन्म दे दिया था। जैसे एक कली खिलकर फूल बनती है तो पूरी फ़िज़ा में ही अपनी सुगंध बिखेर देती है।
ऊपर की एक खिड़की पर सेल्मा एक क्षण के लिए दिखाई दी। पर वह एक क्षण ही खिड़की पर पड़ी उसकी लंबे बालों वाली छायाकृति को पहचानने के लिए काफ़ी था। हवा से उड़ रहे नीले और सफ़ेद पर्दे को उसने ठीक किया और एक क्षण के लिए विचारपूर्ण दृष्टि से बाहर बिखरी शांति और सौंदर्य को देखा।
इसी एक घटना की उम्मीद से ही तो छात्र कोल्जास निवास के बाहर आकर ठहरता था। वायनो कोल्जास के सोलहवें जन्मदिन के बाद दो दिन और बीत गए हैं, पर इस अवसर पर दी गई पार्टी के निशान अभी तक दिख रहे थे।
हालाँकि घर में फिर से रोज़ वाले काम शुरू हो गए थे, फिर भी सेल्मा पर वे प्रभाव अभी
बाक़ी थे, जो उत्सव ने उस पर छोड़े थे।
उसके भाई समेत सारे मेहमान जा चुके थे। बाहर से बुलाया गया हलवाई अपने सारे कारीगरों के साथ लौट गया था। रसोई में चिरपरिचित गंध उठने लगी थी और रसोइए ने अपना काम सँभाल लिया था।
वायनो पहले की तरह दूर पार्क में बने गुड़ियाघर में घंटों बैठे रहने की अपनी आदत पर चलने लगी थी।
जुलाई की उस गर्म दुपहर को उस पुरानी हवेली में हर चीज़ सो रही प्रतीत हो रही थी।
समय एक भार-सा लटका हुआ था और बेआवाज़ आगे खिसक रहा था। सेल्मा कुर्सी के हत्थे पर बैठ गई और सोचने लगी, ‘वायनो सोलह साल की हो गई है—काफ़ी बड़ी हो गई है वह और मैं अट्ठाईस की हूँ इसका क्या मतलब? यानी इतने वसंत मैंने देख लिए हैं और दो साल बाद मैं तीस की हो जाऊँगी। मैं कितनी ख़ुश हूँ। क्या यहीं पर बूढ़ा हो जाना संभव है? नहीं, मैं नहीं समझती कि ऐसा होगा।’ उसने ख़ुद से कहा।
जब भी वह अपने बारे में सोचने बैठती, ऐसे विचार उसके दिमाग़ में भी आते। उसके विचार अधिकाधिक अस्पष्ट हो जाते, जैसे उसका दिमाग़ ची चीज़ों को अपने कोटरों में छिपाता जा रहा हो। वह अपने जीवन की ख़ुशियों का महत्त्व समझती थी। वह जो कुछ चाहती, उसे मिल जाता। वह सुंदर थी, लोकप्रिय थी, पर एक छोटी-सी चीज़ कहीं ऐसी थी, जो नहीं थी वह क्या है, वह नहीं जानती थी।
वायनो का जन्मदिन बीत गया था, पर बड़ी बहन अभी भी कुछ आस लगाए बैठी थी। किसी असामान्य-सी घटना की एक अस्पष्ट-सी प्रतीक्षा उसे थी।
घर की मालकिन होने के नाते उसे पार्टी की सफलता से ख़ुश होना चाहिए था। पर इसके विपरीत वह निरुद्देश्य घर के एक कमरे से दूसरे कमरे में भटक रही थी और घर के रोज़ाना के काम को वह जैसे टाल रही थी। वह पार्टी में बाधा पड़ने और किसी चीज़ के अभाव से रोमांचित थी।
वहाँ बैठी-बैठी सेल्मा एक पुरानी वाल्ज धुन गुनगुनाने लगी। हालाँकि पार्टी में वह धुन नहीं बजी थी।
फिर उसे एक सपने ने आ घेरा, जो इतना सजीव था कि वास्तविकता जैसा ही लग रहा था। उसे लगा, जैसे वह जुलाई के आख़िरी दिनों में दुपहर को एक पार्क में है।
हर चीज़ उसे वास्तविक लग रही थी। संगीत की तरह की सनसनी उस पर ऊपर से नीचे तक छा रही थी। उसका मस्तिष्क उससे सराबोर था और लगता था कि प्रकृति की हर चीज़ इसे प्रतिध्वनित कर रही हो।
अपने सारे प्राकृतिक उपहारों के साथ जुलाई का महीना बहुत ख़ूबसूरत होता है। मध्य ग्रीष्म का यह समय वर्ष का सबसे अधिक समृद्ध महीना होता है। फूलों, फलों और फ़सलों की बहार छाई रहती है। सूरज अपनी पूरी गर्मी से तपता है और दिन सबसे लंबा होता है (सूरज का तपना भारत जैसे गर्म देश में कष्टकर होता है, पर फ़िनलैंड जैसे ठंडे देश में यह वरदान है)। फिर भी दिन ऐसे बीत जाता है, जैसे हमारा जीवन बीत जाता है और साल खिसकते चले जाते हैं।
जुलाई के उस दिन एक अजनबी कोल्जास निवास पर आया। आस-पास कोई नहीं था। विशालकाय प्रवेशकक्ष ख़ाली था और उसके स्वागत के लिए वहाँ कोई नहीं था। फिर भी उस बूढ़ी हवेली की स्वागत की भावना ही उसके लिए पर्याप्त थी। वह हवेली को अच्छी तरह से पहचानता था और इसके भीतर की ख़ुशनुमा यादें उसके दिमाग़ में घूम रही थीं।
वह एक कमरे से दूसरे कमरे में भटकता हुआ बैठक के कमरे में आ गया। वह खड़ा होकर अपने सामने के दृश्य को प्रशंसा-भरी नज़रों से देखने लगा। घड़ी की टिक-टिक के साथ बहुत पुराने दिनों की यादें ताज़ा हो आईं। उसने मेज़ पर बिछे कढ़े हुए मेज़पोश और पियानो के संगीत को छुआ। हर चीज़ शांत थी। आगंतुक को लगा, जैसे उसके हृदय की धड़कन इस शांत जीवन के साथ एकस्वर हो गई है। हर चीज़ वैसी ही है, जिसकी उसने कल्पना की थी।
अचानक दरवाज़ा खुला और वह युवक तथा उसकी चाहत में बसी युवती आमने-सामने थे।
एक छोटे-से क्षण के लिए प्यार बीच में लटका रह गया। वे अकेले साथ-साथ थे। इस युवती के अलावा सभी लोग खेतों पर गए हुए थे।
अधखुले दरवाज़े की देहरी पर खड़ी सेल्मा इल्मारी सेलोने का हाथ थामे अवचेतन में उसके चुंबन की प्रतीक्षा करने लगी। धीरे से उसने उसे अपनी बाँहों में लिया और पुरानी हवेली के इस शांत कोने में उसे चूम लिया। उस क्षण से वे एक-दूसरे के हो गए। सेल्मा के जीवन की ख़ुशियाँ गर्मियों के किसी फूल या फ़सल की तरह सचमुच खिलने लगी थीं।
यह क्षण उसके सपने का वास्तवीकृत रूप था।
प्यार ने सेल्मा के दिल पर क़ाबू कर लिया था, वह इसके पूरे अस्तित्व पर छा गया था। उसके जीवन की सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो गई थी।
यह सेल्मा के जीवन का सबसे महान् क्षण था। जब वह रोज़ाना के काम करने लगी, तब भी उसे लगा, जैसे वह सपने में चल रही हो।
देहरी पर इल्मारी से मुलाक़ात होने से पहले उसे लग रहा था, जैसे वह घर में अकेली है और पिता की बनाई हुई इस छत के नीचे वह पूरी तरह से सुरक्षित है। पर अब वह अकेली नहीं थी और उसे किसी भी तरह की असुविधा नहीं हो रही थी।
जब वह मेज़ पर चाय रख रही थी तो उसे एक नई तरह की सनसनी महसूस हुई। यह क्या भावना थी—क्या नवागंतुक उसके लिए स्वीकृति योग्य नहीं रह गया था?
सेल्मा उस परिवर्तन का अनुभव न कर सकी, जो उसके भीतर आ गया था। उसका यह सपना दूसरे सपनों में विलीन होता जा रहा था। बिना अपने संबंधों की पूर्णता पाए, वे अतीत में विचरण करने लगे थे। वह इल्मारी सेलोने को पसंद करती थी, पर वह अभी उसे अजनबी लग रहा था। जल्दी ही वह कमरे में वापस आ गया। बैठक के कमरे में बैठकर दोनों कॉफ़ी पीते हुए तब तक प्यार-भरी बातें करते रहे, जब तक सेल्मा के पिता खेतों से लौट नहीं आए। शाम तक उनकी बातचीत ने मोस्यों कोल्जास और इल्मारी के बीच संवाद का रूप ले लिया था। इल्मारी अपने मेज़बान को अपने भविष्य की योजनाओं और सफलताओं के बारे में बताता रहा। उसका ख़याल था कि सभी लोग उसकी बात को सहानुभूतिपूर्वक सुन रहे हैं और उसके उत्साह के भागीदार हैं।
जो कुछ वह कह रहा था, उसे सबसे ज़्यादा सेल्मा ही सुन रही थी। हालाँकि साथ ही साथ वह घर का कामकाज भी कर रही थी। वह महसूस कर रही थी कि यह व्यक्ति, जो कुछ ही घंटों पहले उसे इतना प्रिय हो गया था, कितने काम का आदमी था और कितना प्रेमी था...
दिन गुज़रने के साथ ही साथ उस पुराने भोजनकक्ष में भी शाम का झुटपुटा सीधे-सादे ढंग से प्रवेश कर गया था। खाना ख़त्म होने के बाद नौकरानियों को छुट्टी दे दी गई और थोड़ी देर बाद ही मेहमान ने भी अपने मेज़बान से शुभरात्रि कहकर विदा ली।
उस शाम सेल्मा अपना दरवाज़ा अधखुला छोड़कर बाहर ढल रही शाम का आनंद ले रही थी। इल्मारी पास से गुज़र रहा था। दरवाज़े को खुला देख वह भीतर आ गया।
‘वह आ रहा है,’ वह अपने से फुसफुसाई, ‘अब वह मुझे अपनी बाँहों में ले लेगा। तब मैं क्या करूँगी?’ जवाब वह जानती थी और वह उसे ऐसा करने देगी। वह जानती थी कि वह उसी के लिए है। उसे लगा कि कुछ नया और सुकुमार उसके दिल के भीतर जन्म ले रहा है और जब तक वह पूरी तरह से आकार नहीं ले लेता, उसे दबाया नहीं जाना चाहिए।
इल्मारी सेलोने सोचता था कि वह औरतों को समझता है, पर उस शाम उसने महसूस किया कि इस मामले में उसे बहुत कुछ सीखना है। काफ़ी समय से वह सेल्मा की कल्पना भावी साथी के रूप में करता आ रहा था। आज शाम जब वह सीढ़ियाँ चढ़ रहा था तो वह जानता था कि उसके जीवन का वह उदात्त क्षण आ गया है। जिस हवा में वह साँस ले रहा था, लगता था, वह भावना उसमें व्याप्त है। उसे लगा, जैसे वह हवा में उड़ रहा हो।
इसी मनःस्थिति में उसने अपनी प्रियतमा को बाँहों में भरकर चूम लिया। वह उसके ऊपर झुकी मुस्करा रही थी। फिर उसने भी इल्मारी को आलिंगन में लिया, इल्मारी ने मुस्कराते हुए कहा, उस दोस्ती और जादू के नाम, जो इस शानदार शाम ने हम पर कर दिया है।
अपने प्रेमी की बाँहों में झूलते हुए सेल्मा अस्फुट स्वरों में कुछ बुदबुदाई, पर उन वाक्यों का अर्थ कुछ न था। बस, जैसे भीतर के आवेग को बाहर निकाल रही हो, जैसे बहुत देर के इंतज़ार के बाद मिलने वाली दावत का मज़ा ले रही हो।
जब इल्मारी वहाँ से चला गया तो सेल्मा पिछले घंटों की घटनाओं के सपने लेती, उन पर पुनर्विचार करती, बैठी रही। वह समय उसके लिए कितना प्रबल था। उसे लगा कि उस थोड़े से अंतराल में वह बहुत बड़ी हो गई है। पर जैसे ही उसे नींद आई तो वह उनींदे में भी आश्चर्य कर रही थी कि वह इन सबसे ख़ुद को कितना उदासीन पा रही है!
selma koljas ko uske sathi achchhi tarah se samajhte nahin the. vishesh roop se ve log, jo yuva the aur romanch pasand karte the. usne kuch aisa prabhav bana liya tha, jaise wo duniya ki sabse nipun laDki hai. apni sammohak ankhon se wo aisa jadu phenkti ki koi kavi bhi saunet likhne lagta.
logon ko ashchary tha ki usne vivah kyon nahin kiya. uske bare mein gaanv mein kisi tarah ke qisse nahin phaile. har drishti se wo bahut akarshait thi. wo baDi sadgi se nrity karti aur suruchipurn vastra pahanti. in sare gunon ke atirikt uski nishchal ankhen kuch aisi mohak theen ki kisi ka bhi dil jeet sakti theen.
ek shaam, ek nrity mein ek baDi ashcharyajnak ghatna ghati. selma bhi vahan upasthit thi. aise karyakrmon mein yuvatiyan apni maon ya parivarik mitron ke sanrakshan mein aati theen. aisi hi ek sanrakshika madam lituka, jo ek amir vyapari ki patni thi, apni beti elma aur sambhavit damad ke saath vahan aati thi. wo laDka ek nirdhan chhaatr tha, jo samay samay par us vyapari ki madad se guzara karta tha, samaj use nichi nazron se dekhta tha.
jab elma apne bhavi pati ke saath nachti to kai parichit nigahen aur phusaphusahten uski maan se takratin. par aaj lag raha tha ki elma ki wo puri shaam akele mein hi kategi, kyonki uske bhavi pati ka kahin namonishan nahin tha. vyakulta bhare antral ke baad achanak wo prakat hua. selma uske saath thi aur wo usi ke saath nachne laga.
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us vishesh din vahan koi nahin dikhai diya. yahan tak ki gulab tatha angur ki belen, jo balakni tak chali gai theen, bhi baDi berukhi rahi theen.
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vayno pahle ki tarah door park mein bane guDiyaghar mein ghanton baithe rahne ki apni aadat par chalne lagi thi.
julai ki us garm duphar ko us purani haveli mein har cheez so rahi pratit ho rahi thi.
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ilmari selone sochta tha ki wo aurton ko samajhta hai, par us shaam usne mahsus kiya ki is mamle mein use bahut kuch sikhna hai. kafi samay se wo selma ki kalpana bhavi sathi ke roop mein karta aa raha tha. aaj shaam jab wo siDhiyan chaDh raha tha to wo janta tha ki uske jivan ka wo udaatt kshan aa gaya hai. jis hava mein wo saans le raha tha, lagta tha, wo bhavna usmen vyaapt hai. use laga, jaise wo hava mein uD raha ho.
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jab ilmari vahan se chala gaya to selma pichhle ghanton ki ghatnaon ke sapne leti, un par punarvichar karti, baithi rahi. wo samay uske liye kitna prabal tha. use laga ki us thoDe se antral mein wo bahut baDi ho gai hai. par jaise hi use neend i to wo uninde mein bhi ashchary kar rahi thi ki wo in sabse khu ko kitna udasin pa rahi hai!
selma koljas ko uske sathi achchhi tarah se samajhte nahin the. vishesh roop se ve log, jo yuva the aur romanch pasand karte the. usne kuch aisa prabhav bana liya tha, jaise wo duniya ki sabse nipun laDki hai. apni sammohak ankhon se wo aisa jadu phenkti ki koi kavi bhi saunet likhne lagta.
logon ko ashchary tha ki usne vivah kyon nahin kiya. uske bare mein gaanv mein kisi tarah ke qisse nahin phaile. har drishti se wo bahut akarshait thi. wo baDi sadgi se nrity karti aur suruchipurn vastra pahanti. in sare gunon ke atirikt uski nishchal ankhen kuch aisi mohak theen ki kisi ka bhi dil jeet sakti theen.
ek shaam, ek nrity mein ek baDi ashcharyajnak ghatna ghati. selma bhi vahan upasthit thi. aise karyakrmon mein yuvatiyan apni maon ya parivarik mitron ke sanrakshan mein aati theen. aisi hi ek sanrakshika madam lituka, jo ek amir vyapari ki patni thi, apni beti elma aur sambhavit damad ke saath vahan aati thi. wo laDka ek nirdhan chhaatr tha, jo samay samay par us vyapari ki madad se guzara karta tha, samaj use nichi nazron se dekhta tha.
jab elma apne bhavi pati ke saath nachti to kai parichit nigahen aur phusaphusahten uski maan se takratin. par aaj lag raha tha ki elma ki wo puri shaam akele mein hi kategi, kyonki uske bhavi pati ka kahin namonishan nahin tha. vyakulta bhare antral ke baad achanak wo prakat hua. selma uske saath thi aur wo usi ke saath nachne laga.
ghusse se laal pili hui vyapari ki patni jhatke se uthi aur sare shishtachar bhulkar darvaze ke bahar nikal gai. uski beti elma, jo pyaar ke bare mein sirf utna hi janti thi, jitna uski maan ne use bataya tha, apni maan ko uthte dekh uthi aur hichakti hui si pichhe pichhe chal paDi. us apmanajnak sthiti ko lekar apni maan ke tikhe shabd uske kanon mein paD rahe the.
isi beech ek dayalu mitr ne chhaatr ke kanon mein phusaphusakar madam lituka ki narazgi ke bare mein bataya.
us abhage yuvak ne kai tarah se apni safai dene ki koshish ki, par uski kshmayachna par madam lituka ne koi dhyaan na diya.
dusri or selma ne ilmari selone ke saath nachna shuru karne ke baad se apne is nae sambandh ko lekar punarvichar nahin kiya. is tarah ke sambandhon ko lekar wo zyada soch vichar nahin karti thi. wo subah hone tak nachti rahi aur uske baad apne bhai aur chhoti bahan ke saath, us shaam ke anand se santusht ho ghar chali gai.
koljas parivar ka ghar bahut hi ramnik jagah par bana hua tha. paas se guzarte log kai drishtiyon se uski prashansa karte the. apne upabhavnon ke saath ye ek baDa hi mohak akar banata tha. barish ke baad to ye aur bhi mohak lagta tha. safed divaron ke upar laal rang ki Dhalvan chhat, aas paas sab jagah hariyali aur upar nila asman, is par aate jate kale badal uski roop chhata ko dvigunait kar dete the.
koi bhi chhaatr (upar varnait chhaatr nahin) jab paas se guzarta to wo darvaze ke bilkul paas se guzarne ke moh se thoDa lamba rasta lene mein sankoch na karta. wo school jane vali selma koljas aur uski chhoti bahan ko shakl se pahchanta tha aur gate se bhitar jhankte hue wo ye anuman laga leta ki ve is purani haveli ke bhitar kisi na kisi kamre mein chahalaqadmi kar rahi hongi. wo unke bhai urto koljas ko thoDa sa janta tha. wo Dauktri paDh raha tha.
us vishesh din vahan koi nahin dikhai diya. yahan tak ki gulab tatha angur ki belen, jo balakni tak chali gai theen, bhi baDi berukhi rahi theen.
door ghar ke pichhvaDe se chirabel ke vishal jhurmut jheel tak chale gaye the. ek chhoti si ghatna ne ghatnaon ki ek kaDi ko janm de diya tha. jaise ek kali khilkar phool banti hai to puri fi mein hi apni sugandh bikher deti hai.
upar ki ek khiDki par selma ek kshan ke liye dikhai di. par wo ek kshan hi khiDki par paDi uski lambe balon vali chhayakriti ko pahchanne ke liye kafi tha. hava se uD rahe nile aur safed parde ko usne theek kiya aur ek kshan ke liye vicharpurn drishti se bahar bikhri shanti aur saundarya ko dekha.
isi ek ghatna ki ummid se hi to chhaatr koljas nivas ke bahar aakar thaharta tha. vayno koljas ke solahven janmdin ke baad do din aur beet gaye hain, par is avsar par di gai party ke nishan abhi tak dikh rahe the.
halanki ghar mein phir se roz vale kaam shuru ho gaye the, phir bhi selma par ve prabhav abhi
baqi the, jo utsav ne us par chhoDe the.
uske bhai samet sare mehman ja chuke the. bahar se bulaya gaya halvai apne sare karigron ke saath laut gaya tha. rasoi mein chiraprichit gandh uthne lagi thi aur rasoie ne apna kaam sanbhal liya tha.
vayno pahle ki tarah door park mein bane guDiyaghar mein ghanton baithe rahne ki apni aadat par chalne lagi thi.
julai ki us garm duphar ko us purani haveli mein har cheez so rahi pratit ho rahi thi.
samay ek bhaar sa latka hua tha aur beavaz aage khisak raha tha. selma kursi ke hatthe par baith gai aur sochne lagi, ‘vayno solah saal ki ho gai hai—kafi baDi ho gai hai wo aur main atthais ki hoon iska kya matlab? yani itne vasant mainne dekh liye hain aur do saal baad main tees ki ho jaungi. main kitni khush hoon. kya yahin par buDha ho jana sambhav hai? nahin, main nahin samajhti ki aisa hoga. ’ usne khu se kaha.
jab bhi wo apne bare mein sochne baithti, aise vichar uske dimagh mein bhi aate. uske vichar adhikadhik aspasht ho jate, jaise uska dimagh chi chizon ko apne kotron mein chhipata ja raha ho. wo apne jivan ki khushiyon ka mahattv samajhti thi. wo jo kuch chahti, use mil jata. wo sundar thi, lokapriy thi, par ek chhoti si cheez kahin aisi thi, jo nahin thi wo kya hai, wo nahin janti thi.
vayno ka janmdin beet gaya tha, par baDi bahan abhi bhi kuch aas lagaye baithi thi. kisi asamany si ghatna ki ek aspasht si pratiksha use thi.
ghar ki malkin hone ke nate use party ki saphalta se khush hona chahiye tha. par iske viprit wo niruddeshy ghar ke ek kamre se dusre kamre mein bhatak rahi thi aur ghar ke rozana ke kaam ko wo jaise taal rahi thi. wo party mein badha paDne aur kisi cheez ke abhav se romanchit thi.
vahan baithi baithi selma ek purani vaalj dhun gungunane lagi. halanki party mein wo dhun nahin baji thi.
phir use ek sapne ne aa ghera, jo itna sajiv tha ki vastavikta jaisa hi lag raha tha. use laga, jaise wo julai ke akhiri dinon mein duphar ko ek park mein hai.
har cheez use vastavik lag rahi thi. sangit ki tarah ki sansani us par upar se niche tak chha rahi thi. uska mastishk usse sarabor tha aur lagta tha ki prakrti ki har cheez ise prtidhvnit kar rahi ho.
apne sare prakritik upharon ke saath julai ka mahina bahut khubsurat hota hai. madhya greeshm ka ye samay varsh ka sabse adhik samrddh mahina hota hai. phulon, phalon aur faslon ki bahar chhai rahti hai. suraj apni puri garmi se tapta hai aur din sabse lamba hota hai (suraj ka tapna bharat jaise garm desh mein kashtakar hota hai, par finlainD jaise thanDe desh mein ye vardan hai). phir bhi din aise beet jata hai, jaise hamara jivan beet jata hai aur saal khisakte chale jate hain.
julai ke us din ek ajnabi koljas nivas par aaya. aas paas koi nahin tha. vishalakay prveshkaksh khali tha aur uske svagat ke liye vahan koi nahin tha. phir bhi us buDhi haveli ki svagat ki bhavna hi uske liye paryapt thi. wo haveli ko achchhi tarah se pahchanta tha aur iske bhitar ki khushnuma yaden uske dimagh mein ghoom rahi theen.
wo ek kamre se dusre kamre mein bhatakta hua baithak ke kamre mein aa gaya. wo khaDa hokar apne samne ke drishya ko prshansa bhari nazron se dekhne laga. ghaDi ki tik tik ke saath bahut purane dinon ki yaden taza ho ain. usne mez par bichhe kaDhe hue mezposh aur piano ke sangit ko chhua. har cheez shaant thi. agantuk ko laga, jaise uske hirdai ki dhaDkan is shaant jivan ke saath ekasvar ho gai hai. har cheez vaisi hi hai, jiski usne kalpana ki thi.
achanak darvaza khula aur wo yuvak tatha uski chahat mein basi yuvati aamne samne the.
ek chhote se kshan ke liye pyaar beech mein latka rah gaya. ve akele saath saath the. is yuvati ke alava sabhi log kheton par gaye hue the.
adhakhule darvaze ki dehri par khaDi selma ilmari selone ka haath thame avchetan mein uske chumban ki pratiksha karne lagi. dhire se usne use apni banhon mein liya aur purani haveli ke is shaant kone mein use choom liya. us kshan se ve ek dusre ke ho gaye. selma ke jivan ki khushiyan garmiyon ke kisi phool ya fasal ki tarah sachmuch khilne lagi theen.
ye kshan uske sapne ka vastvikrit roop tha.
pyaar ne selma ke dil par qabu kar liya tha, wo iske pure astitv par chha gaya tha. uske jivan ki sabse baDi ichha puri ho gai thi.
ye selma ke jivan ka sabse mahan kshan tha. jab wo rozana ke kaam karne lagi, tab bhi use laga, jaise wo sapne mein chal rahi ho.
dehri par ilmari se mulaqat hone se pahle use lag raha tha, jaise wo ghar mein akeli hai aur pita ki banai hui is chhat ke niche wo puri tarah se surakshait hai. par ab wo akeli nahin thi aur use kisi bhi tarah ki asuvidha nahin ho rahi thi.
jab wo mez par chaay rakh rahi thi to use ek nai tarah ki sansani mahsus hui. ye kya bhavna thi—kya navagantuk uske liye svikriti yogya nahin rah gaya tha?
selma us parivartan ka anubhav na kar saki, jo uske bhitar aa gaya tha. uska ye sapna dusre sapnon mein vilin hota ja raha tha. bina apne sambandhon ki purnata pae, ve atit mein vicharn karne lage the. wo ilmari selone ko pasand karti thi, par wo abhi use ajnabi lag raha tha. jaldi hi wo kamre mein vapas aa gaya. baithak ke kamre mein baithkar donon coffe pite hue tab tak pyaar bhari baten karte rahe, jab tak selma ke pita kheton se laut nahin aaye. shaam tak unki batachit ne mosyon koljas aur ilmari ke beech sanvad ka roop le liya tha. ilmari apne mezban ko apne bhavishya ki yojnaon aur saphaltaon ke bare mein batata raha. uska khayal tha ki sabhi log uski baat ko sahanubhutipurvak sun rahe hain aur uske utsaah ke bhagidar hain.
jo kuch wo kah raha tha, use sabse zyada selma hi sun rahi thi. halanki saath hi saath wo ghar ka kamakaj bhi kar rahi thi. wo mahsus kar rahi thi ki ye vekti, jo kuch hi ghanton pahle use itna priy ho gaya tha, kitne kaam ka adami tha aur kitna premi tha. . .
din guzarne ke saath hi saath us purane bhojankaksh mein bhi shaam ka jhutputa sidhe sade Dhang se pravesh kar gaya tha. khana khatm hone ke baad naukraniyon ko chhutti de di gai aur thoDi der baad hi mehman ne bhi apne mezban se shubhratri kahkar vida li.
us shaam selma apna darvaza adhakhula chhoDkar bahar Dhal rahi shaam ka anand le rahi thi. ilmari paas se guज़r raha tha. darvaze ko khula dekh wo bhitar aa gaya.
‘vah aa raha hai,’ wo apne se phusaphusai, ‘ab wo mujhe apni banhon mein le lega. tab main kya karungi?’ javab wo janti thi aur wo use aisa karne degi. wo janti thi ki wo usi ke liye hai. use laga ki kuch naya aur sukumar uske dil ke bhitar janm le raha hai aur jab tak wo puri tarah se akar nahin le leta, use dabaya nahin jana chahiye.
ilmari selone sochta tha ki wo aurton ko samajhta hai, par us shaam usne mahsus kiya ki is mamle mein use bahut kuch sikhna hai. kafi samay se wo selma ki kalpana bhavi sathi ke roop mein karta aa raha tha. aaj shaam jab wo siDhiyan chaDh raha tha to wo janta tha ki uske jivan ka wo udaatt kshan aa gaya hai. jis hava mein wo saans le raha tha, lagta tha, wo bhavna usmen vyaapt hai. use laga, jaise wo hava mein uD raha ho.
isi manasthiti mein usne apni priyatma ko banhon mein bharkar choom liya. wo uske upar jhuki muskra rahi thi. phir usne bhi ilmari ko alingan mein liya, ilmari ne muskrate hue kaha, us dosti aur jadu ke naam, jo is shanadar shaam ne hum par kar diya hai.
apne premi ki banhon mein jhulte hue selma asphut svron mein kuch budabudai, par un vakyon ka arth kuch na tha. bus, jaise bhitar ke aaveg ko bahar nikal rahi ho, jaise bahut der ke intzaar ke baad milne vali davat ka maza le rahi ho.
jab ilmari vahan se chala gaya to selma pichhle ghanton ki ghatnaon ke sapne leti, un par punarvichar karti, baithi rahi. wo samay uske liye kitna prabal tha. use laga ki us thoDe se antral mein wo bahut baDi ho gai hai. par jaise hi use neend i to wo uninde mein bhi ashchary kar rahi thi ki wo in sabse khu ko kitna udasin pa rahi hai!
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 141-147)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : फ़्रांस एमिल सिलांपा
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
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