बालोद इस ज़िले की एक तहसील है। कुछ साल पहले तक यह सिर्फ़ एक छोटा-सा गाँव हुआ करता था। जहाँ किसान थे, उनके खेत थे, हल-बक्खर थे, उनके बरगद, नीम और पीपल थे। पर अब यह एक छोटा शहर की सारी ख़ूबियाँ लिए हुए। आसपास के गाँव-देहातों को शहर का सुख और स्वाद देने वाला। इसी बालोद के हफ़्तावार भरने वाले बुधवारी बाज़ार की बात है। रामधन अपने एक जोड़ी बैल लेकर यहाँ बेचने पहुँचा था।
बाज़ार अभी भरना बस शुरू ही हुआ था, वैसे भी ढाई-तीन बजे धूप में ख़रीदारी करने कौन निकलता है? इसके बावजूद यहाँ चारों तरफ़ रंगीनी और रौनक़ है। पता नहीं क्या बात है, रामधन जब भी यहाँ आता है, बाज़ार और शहर की रौनक़ को बढ़ा हुआ ही पाया है।
अपने बैलों को लेकर वह उधर बढ़ गया जहाँ गाय-बैलों का बाज़ार भरता है। बैलों का यह कोई कम बड़ा बाज़ार नहीं है। बैलों का पूरा हुजूम मौजूद है। दो-ढाई सौ से भला क्या कम होंगे।
रामधन के चेहरे-मोहरे, उसकी चीकट बंडी और मटमैली धोती—जिसका मटमैला रंग किसी साबुन पानी से नहीं घुलता—देखकर कोई भी सहज जान सकता है कि वह किस स्तर का आदमी है। रामधन के बारे में कुछ मोटी-मोटी जानकारी दे देना मैं उचित समझता हूँ। उम्र होगी उसकी लगभग बत्तीस साल की। संपत्ति के नाम पर दो एकड़ खेत हैं, दो बैल और एक टूटता-फूटता पुरखौती कच्चा मकान। परिवार में बुढ़िया माँ है, पत्नी, दो बच्चे और एक छोटा भाई है—मुन्ना। रामधन चौथी कक्षा तक ही पढ़ा हुआ है लेकिन मुन्ना को बारहवीं पास किए हुए दो साल गुज़र चुके हैं। रामधन ने अपने छोटे भाई को कॉलेज नहीं पढ़ाया। कुछ तो इसलिए कि उनके सरीखे लोगों के पढ़ने-लिखने से कुछ होता-हवाता नहीं। दूसरी बात और असल बात—वही घर की आर्थिक तंगी। वैसे यह शब्द मैं जान-बूझकर प्रयोग नहीं करना चाहता था, लेकिन मुझे लगता है, यह एक बेहद गंभीर और संवेदनशील शब्द है। मुझे यह भी लगता है कि दुनिया भर के वक्ताओं ने घसीट-घसीटकर दूसरे तमाम बड़े और महान शब्दों की तरह इसे भी ठस्स और निर्जीव बना डाला है। इसे लिखते हुए मुझे इस बात का डर है कि समाचारों में रोज़ जाने वाले शब्दों की तरह सस्ता और अर्थहीन न रह जाए।
ख़ैर! तो रामधन और उसकी पत्नी मेहनत-मजूरी करके ही अपना पेट पाल सकते हैं। और पाल रहे हैं। लेकिन मुन्ना क्या करें? वह तो यहाँ गाँव का पढ़ा-लिखा नौजवान है, जिसे स्कूली भाषा में कहें तो देश को आगे बढ़ाने वालों में से एक है। वह पिछले दो सालों से नौकरी करने के या खोजने के नाम पर इधर-उधर घूम रहा हैं परंतु अब वह इनसे भी ऊब चुका है और कोई छोटा-मोटा धंधा करने का इच्छुक है। लेकिन धंधा करने के लिए पैसा चाहिए। और पैसा?
“भइया, बैलों को बेच दो!”
मुन्ना ने यह बात किसी खलनायक वाले अंदाज़ में नहीं कही थी। उसने जैसे बहुत सोच-समझकर कहा था। इसके बावजूद रामधन को ग़ुस्सा आ गया, “ये क्या कह रहा है तू?
“ठीक ही तो कह रहा हूँ मैं! बेच दो इनको। मैं धंधा करूँगा!
रामधन को एक गहरा धक्का लगा था, अब यह भी मुँह उठाकर बोलना सीख गया है मुझसे लेकिन इससे भी ज़्यादा दुःख इस बात का हुआ कि मुन्ना उसे बेचने को कह रहा है जो उनकी खेती का आधार है। रामधन ने बात ग़ुस्से में टाल दी, “अगर कुछ बनना है, कुछ करना है तो पहले उतना कमाओ! इसके लिए घर की चीज़ क्यों ख़राब करता है? पहले कमा, इसके बाद बात करना! हम तेरे लिए घर की चीज़ नहीं बेचेंगे। समझे?
लेकिन बात वहीं ख़त्म नहीं हुई। झंझट था कि दिन-पर-दिन बढ़ता जा रहा था।
आख़िर ये दिन भर यहाँ बेकार में बंधे ही तो रहते हैं। खेती-किसानी के दिन छोड़कर कब काम आते हैं? यहाँ खा-खाकर मुटा रहे हैं ये!” मुन्ना अपने तर्क रखता।
“अच्छा, तो हमारा काम कैसे चलेगा?
“अरे, यहाँ तो कितने ही ट्रैक्टर वाले हैं, उसे किराए से ले आएँगे। खेत जुतवाओ, भिजवाओ और किराया देकर छुट्टी पाओ!
“वाह! इसके लिए तो जैसे पइसा-कौड़ी नहीं देगा? दाऊ क्या हमारा ससुर है तो फ़ोकट में ट्रैक्टर की कर रहा है तू, मालूम भी है उसका किराया?
“लगेगा क्यों नहीं? क्या इनकी देखभाल में ख़र्चा नहीं लगता?
“लगता है, मगर तेरे ट्रैक्टर से कम! समझे? बात तो ट्रैक्टर की कर रहा है तू, मालूम भी है उसका किराया?
“मालूम है इसलिए तो कह रहा हूँ। यहाँ जब बैल बीमार पड़ते हैं तो कितना ही रुपया उनके इलाज-पानी में चला जाता है, तुम इसका हिसाब किए हो? साला पैसा अलग और झंझट अलग!
“मगर किसी की बीमारी को कौन मानता है?
“तभी तो मैं कहता हूँ, बेचो और सुभीता पाओ!
बातचीत हर बार अपनी पिछली सीमा लाँघ रही थी। कहने को तो मुन्ना यहाँ तक कह गया था कि इन बैलों पर सिर्फ़ तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी हक़ है।
इस बात ने लाजवाब कर दिया था रामधन को। और अवाक्! कभी नहीं सोचा था उसने कि मुन्ना उसके जैसे सीधे-सादे आदमी से हक़ की बात करेगा। मुन्ना को क्या लगता है, मैं उसका हिस्सा हड़पने के लिए तैयार बैठा हूँ? रामधन ख़ूब रोया था इस बात पर... अकेले में।
बैल उसके पिता के ख़रीदे हुए हैं, यह बात सच है। जाने किस गाँव से भागकर इस गाँव में आ गए थे बैल, तब ये बछड़े ही थे और साथ में बंधे हुए थे। किसी ने पकड़कर कांजी हाउस के हवाले कर दिया था उन्हें। नियम के मुताबिक़ कुछ दिनों तक उनके मालिक का रास्ता देखा गया ताकि जुर्माना लेकर छोड़ सके। लेकिन जब इंतज़ार करते-करते ऊब गए और कोई उन्हें छुड़ाने नहीं पहुँचा तो सरपंच ने इनकी नीलामी करने का फ़ैसला किया था। यह संयोग ही था कि रामधन के गंजेड़ी बाप के हाथ में कुछ रुपए थे। और सनकी तो वह था ही। जाने क्या जी में आया जो दोनों बछड़े वहाँ से ख़रीद लाया। तब से ये घर में बंध गए और रामधन की निगरानी में पलने लगे। खेत जोतना, बैलगाड़ी में फाँदना, उनसे काम लेना और उनके दाना-भूसा का ख़याल रखना, उनको नहलाना-धुलाना और उनके बीमार पड़ने पर इलाज के लिए दौड़-भाग करना—सब रामधन का काम था। तब से ये बैल रामधन से जुड़े हुए हैं। इनके जुड़ने के बाद रामधन इतना ज़रूर जान गया कि भले ही बेचारों के पास बोलने के लिए मुँह और भाषा नहीं है, लेकिन अपने मालिक के लिए भरपूर दया-माया रखते हैं। इनकी गहरी काली तरल आँखों को देखकर रामधन को यह भी लगता है, ये हमारे सुख-दुःख को ख़ूब अच्छी तरह समझते हैं—बिलकुल अपने किसी सगे की तरह। तभी तो वह उन्हें इतना चाहता है। इतना लगाव रखता है।
इन्हें बेचने की बात उठी, तबसे ही उसे लग रहा है, जैसे उसकी सारी ताक़त जाने लगी है।
रामधन मुन्ना को समझा नहीं पा रहा था। वह समझा भी नहीं सकता था। अब कैसे समझाता इस बात को कि बैल हमारे घर की इज़्ज़त है... घर की शोभा है। और इससे बढ़कर हमारे पिता की धरोहर है। उस किसान का भी कोई मान है समाज में, जिसके घर एक जोड़ी बैल नहीं हैं! कैसे समझाता कि हमारे साथ रहते-रहते ये भी घर के सदस्य हो गए हैं। जो भी रुखा-सूखा, पेज-पसिया मिलता है, उसी में ख़ुश रहते हैं। वह मुन्ना से कहना चाहता था, तुमको इनका बेकार बंधा रहना दिखता है मगर इनकी सेवा नहीं दिखती? इनकी दया-मया नहीं दिखती?
और सचमुच मुन्ना को कुछ दिखाई नहीं देता। उसके सिर पर तो जैसे भूत सवार है धंधा करने का। रोज़-रोज़ की झिक-झिक से उसकी पत्नी भी तंग आ चुकी है—रोज़ के झंझट से तो अच्छा है कि चुपचाप बेच दो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी!
मुन्ना कहने लगा है—अगर तुम नहीं बेच सकते तो मुझसे कहो। मैं बेच दूँगा उन्हें बढ़िया दाम में!
...बाज़ार की भीड़ अब बढ़ रही है। चारों तरफ़ शोरगुल और भीड़भाड़ा यहाँ की रौनक़ देखकर रामधन को महादेव घाट के मेले की याद आई। हर साल माघी पुन्नी के दिन भरने वाला मेला। वहाँ भी ऐसी ही भीड़ और रौनक़ होती है पिछले साल ही तो गया था उसका परिवार। और पास-पड़ोस के लोग भी गए थे—जितने उसकी बैलगाड़ी में समा जाएँ। सब चलो! पूरी रात भर का सफ़र था। और जाड़े की रात। फिर भी मेले के नाम पर इतना उत्साह कि सब अपना कथरी-कंबल संभाले आ गए थे। रामधन को आज भी वह रात याद है—अँजोरी रात का उजाला इतना था कि हर चीज़ चाँदनी में नहा-नहा गई थी, खेत, मेंड, पेड़, तालाब... जैसे दिन की ही बात हो।
उनके हँसने-खिलखिलाने से जैसे बैलों को भी इसका पता चल गया था, रात भर पूरे उत्साह और आनंद से दौड़ते रहे... खन्-खन् खन्-खन्...!
...गाय-बैलों का एक मेला-सा लग गया है यहाँ। हर क़िस्म के बैल। काले, सफ़ेद, लाल, भूरे और चितकबरे और अलग-अलग काठी के बैल नाटे, दुबले, मोटे...ग्राहकों की आवाजाही और पूछताछ शुरू हो चुकी है। बैलों के बाज़ार में धोती-पटका वाले किसान हैं। सौदेबाज़ी चल रही है।
रामधन के बैलों को भुलऊ महाराज परख रहे हैं। आस-पास के गाँवों में उनकी पंडिताई ख़ूब जमी है। चाहे ब्याह करना हो, सत्यनारायण की कथा करानी हो, मरनी-हरनी पर गरुड़-पुराण बाँचना हो—सब भुलऊ महाराज ही करते हैं। कुछ साल पहले तक तो कुछ नहीं था इनके पास। अब पुरोहिती जम गई तो सब कुछ हो गया। खेती-बाड़ी भी जमा चुके हैं अच्छी-ख़ासी।
महाराज बैलों के पुट्ठों को ठीक तरह से ठोंक-बजाकर देखने के बाद बोले, “अच्छा रामधन, ज़रा इनको रेंगाकर दिखाओ। चाल देख लूँ।
रामधन ने बीड़ी का धुआँ उगलकर कहा, “अरे, देख लो महाराज... तुमको जैसे देखना है, देख लो! हम कोई परदेसी हैं जो तुम्हारे संग धोखाधड़ी करेंगे।”
रामधन ने बैलों को कोंचकर हकाला, “हो... रे...रे...च्चल!” दोनों बैल आठ-दस डग चले फिर वापस अपनी जगह पर।
भुलऊ महाराज बगुला भगत बने बड़े मनोयोग से बैलों का चलना देख रहे थे—कहीं कोई खोट तो नहीं है! कहने लगे, “देखों भइया, मैं तो कुछ भी चीज़ लेता हूँ तो जाँच-परखकर लेता हूँ।
देखो न महाराज, रोकता कौन है? न मैं कहीं भाग रहा हूँ न मेरे बैल। अच्छे-से देख लो। धोखाधड़ी की कोई बात नहीं है। फिर बाम्हन को दगा देकर हमको नरक में जाना है क्या?
भुलऊ महाराज, के चहरे से लगा, रामधन के उत्तर से संतुष्ट हुए। बोले “अच्छा, अब ज़रा इनका मुँह खोलकर दिखाओ। मैं इनके दाँत गिनूँगा।
अभी लो। ये कौन बड़ी बात है।” रामधन ने बीड़ी फेंककर अपने बैलों के मुँह खोल दिए। भुलऊ महाराज अपनी धोती-कुरता संभालते हुए नज़दीक आए और बैलों के दाँत गिनने लगे।
दाँत गिनते हुए महाराज ने पूछा, “तुम्हारे बैल कोढ़िया तो नहीं हैं?”
ठीक है भई, ठीक है। मान लिया। अब तुम कहते हो तो मान लेते हैं।” महाराज व्यर्थ ही हँसे, फिर अपने बंद छाते की नोक को कसकर ज़मीन में धाँसा—मानो अब सौदे की बात हो जाए। महाराज ने अपने को थोड़ा खास-खँखारकर व्यस्थित किया, फिर पूछा, “तो बताना भाई, कितने में दोगे?
रामधन विनम्र हो गया, “मैं तो पहले ही बता चुका हूँ मालिक...
नाराज़गी से भुलऊ महाराज का चंदन और रोली का तिलक लगा माथा सिकुड़ गया, “फिर वही बात! वाजिब दाम लगाओ, रामधन।
“बिलकुल वाजिब लगा रहा हूँ महाराजा भला आपसे क्या फ़ायदा लेना। रामधन ने उसी नम्रता से कहा।
ज़ाफ़रानी ज़र्दा वाले पान का स्वाद महाराज के मुँह में बिगड़ गया। पीक थूककर खीजकर बोल, “क्या यार रामधन! जान-पहचान के आदमी से तो कुछ कम करो। आख़िर एक गाँव-घर होने का कोई मतलब है कि नहीं? आंय!
रामधन का जी हुआ कह दे, 'तुम तो लगन पढ़ने के बाद एक पाई कम नहीं करते। आधा-अधूरा बिहाव छोड़कर जाने की धमकी देते हो अगर दक्षिणा तनिक भी कम हो जाए। गाँव-घर जब तुम नहीं देखते तो भला मैं क्यों देखूँ?' लेकिन लगा इससे बात बिगड़ जाएगी। उसने सिर्फ़ इतना ही कहा, “नहीं पड़ेगा महाराज, मेरी बात मानो। अगर पड़ता तो मैं दे नहीं देता।
भुलऊ महाराज अब बुरी तरह बमक गए और ग़ुस्से से उनके पतले लंबूतरे चेहरे की नर्म झुर्रियाँ लहरा उठीं, “तो साले, एक तुम्ही हो जैसे दुनिया में बैल बेचने वाले? बाक़ी ये सब तो मुँह देखने वाले हैं! इतना गुमान ठीक नहीं है, रामधन!”
महाराज की तेज़ आवाज़ से आसपास के लोगों का ध्यान इधर ही खिंच गया। रामधन ने इस समय ग़ज़ब की शांति से काम लिया, “मैं कब कह रहा हूँ महाराजा तुमको नहीं पोसाता तो न ख़रीदो, दूसरा देख लो। यहाँ तो कमी नहीं है जानवरों की।” इतना तो रामधन भी जानता था कि ग्राहक भले ही ग़ुस्सा हो जाए, बेचने वाले को शांत रहना चाहिए।
महाराज ग़ुस्से से थरथराते खड़े रहे। कुछ लोग आसपास घेरा बनाकर जमा हो गए, गोया कोई तमाशा हो रहा हो।
इधर-उधर घूमकर सहदेव फिर वापस आकर खड़ा हो गया था और सारा माजरा देखता रहा था चुपचाप। बोला, “देखो रामधन, तुमको पोसा रहा है तो बोलो, मैं अभी खड़े-खड़े ख़रीद लेता हूँ।
रामधन जानता है सहदेव को। यह गाँव-गाँव के बाज़ार-बाज़ार घूमकर गाय-बैलों की ख़रीदारी में दलाली करता है। ख़रीदार के लिए विक्रेता को पटाता है और विक्रेता के लिए ग्राहक। ये बैल के पारखी होते हैं। सहदेव कुथरेल गाँव के भुनेश्वर दाऊ के लिए दलाली कर रहा है।
रामधन अपने बैलों की तरफ़ पुआल बढ़ाता हुआ बोला, “नहीं भाई, इतने कम में नहीं पोसाता सहदेव।
रामधन का वही सधा हुआ और ठहरा हुआ टका-सा जवाब सुनकर जैसे महाराज की देह में आग लग गई, “देख...देख... इसको! कैसा जवाब देता है? मैं कहता हूँ, अरे, कैसे नहीं पोसाएगा यार? सब पोसाएगा! देख सब जगे सौदा पट रहा है...” झल्लाहट में महाराज के कत्था से बुरी तरह रचे काले-भूरे दाँत झलक गए।
“मैं तो कह रहा हूँ महाराज। हाथ जोड़कर कह रहा हूँ।” रामधन ने सचमुच हाथ जोड़ लिए। “आप वहीं ख़रीद लो!
अब सहदेव भी बिदक गया, हालाँकि वह शांत स्वभाव का आदमी है। बोला, ले रे स्साले! ज़्यादा नख़रा झन मार! तेरे बैल बढ़िया दाम में बिक जाएँगे। देख, तेरे बैल ख़रीदने भुनेसर दाऊ ख़ुद आए हैं।
रामधन ने कुथरेल के भुनेश्वर दाऊ को देखा, जो सामने खड़े थे, सौदेबाज़ी देखते। अधेड़ दाऊ की आँखों में धूप का रंगीन चश्मा है, सुनहरी फ़्रेम का। वे बड़े इत्मीनान और बेहद सलीक़े से पान चबाते खड़े हैं। भुलऊ महाराज की तरह गँवारूपन के साथ नहीं, जिनके होंटों से पान की पीक लगातार लार की तरह चू रही है।
रामधन को बहुत असहज लग रहा था... इस भीड़ के केंद्र में वही है। और ऐसा बहुत कम हुआ है। सब पीछे पड़े हैं। एक क्षण को गर्व भी हुआ उसे अपने बैलों पर। उसने बैलों को पुचकार दिया और बैलों की गले की घंटियाँ टुनटुना उठी।
अब दाऊ ने अपना मुँह खोला, “देखो भाई, मुझको तो हल-बैल का कुछ नहीं मालूम। मैं तो नौकरों के भरोसे खेती करने वाला आदमी हूँ। बस, हमको बैल बढ़िया चाहिए—ख़ूब कमाने वाला। कोढ़िया नहीं होना चाहिए बैल...”
रामधन ने अपने बैलों को दुलारा, “शक-सुबो की कोई बात नही है दाऊ। मैं अपने मुँह से इनके बारे में क्या कहूँ, गाँव के किसी भी आदमी से पूछ लो, वह बता देगा आपको। आप चाहो तो इनको दिन भर दौड़ा लो, पानी छोड़कर कुछ और नहीं चाहिए इनको।”
वहाँ खड़े-खड़े भुलऊ महाराज का धैर्य और संयम अब चुकने लगा था। बोले, “तीन हज़ार दो सौ दे रहा हूँ! नगद! और कितना दूँगा? ...साले दो-टके के बैल!... आदमी और कितना देगा?
रामधन अटल है, “नहीं पड़ेगा महाराज! चार हज़ार माने चार हज़ार!
अब महाराज के चेहरे पर ग़ुस्सा, क्षोभ, तिलमिलाहट और पराजय का भाव देखने लायक़ था। लगता था भीतर ही भीतर क्रोध से दहक रहे हों और उनका बस चले तो रामधन को भस्म करके रख दें।
अब सहदेव ने कहा, “देखो भाई, तुमको तुम्हारी आमदनी मिल जाए, तुमको और क्या चाहिए फिर?”
“अरे आमदनी की ऐसी की तैसी! मेरा तो मुद्दस नहीं निकलता मेरे बाप। रामधन भी चिल्ला उठा।
भुलऊ महाराज को इस बीच जैसे फिर मौक़ा मिल गया। अपना क्रोध निगलकर बोले, “ले यार, मैं नगद दे रहा हूँ तीन हज़ार तीन सौ! एक सौ और ले लो। ले चल। तुम्हीं ख़ुश रहो। चल अब क़िस्सा ख़त्म कर...। भुलऊ महाराज अपनी रो में रस्सी पकड़कर बैलों को खींचने लगे, ज़बरदस्ती...
महाराज की इस हरकत पर जमा लोग हँस पड़े। सहदेव तो ठठाकर हँस पड़ा, “महाराज, ये दान-पुन्न का काम नहीं। मैं इनके भाव जानता हूँ। जितना तुम कह रहे हो उतने में तो कभी नहीं देगा! अरे घंटा तक इसके कुला में लेवना (मक्खन) लगाया। मुझको नहीं दिया तो तुमको कैसे दे देगा हज़ार तीन सौ में?
जमा लोग फिर हँस पड़े। भुलऊ महाराज अपमानित महसूस करके क्षण भर घूरते रहे। फिर ग़ुस्से से अपना गड़ा हुआ छाता उठाया और चलते बने।
महाराज के खिसकते ही भीड़ के कुछ लोगों को लगा, अब मज़ा नहीं आएगा। सो कुछ सरकने को हुए। लेकिन अधिकांश अभी डटे हुए थे, किसी एक ग्राहक और तमाशे की उम्मीद में, उन तगड़े सफ़ेद और भूरे बैलों को मुग्ध होकर निहारते हुए।
तभी भीड़ तो चीरता हुआ चइता प्रकट हो गया। चइता इधर का जाना-माना दलाल है। विकट ज़िद्दी और सनकहा। अपने इस ज़िद्दी स्वभाव के भरोसे ही वह जीतता आया है। ऐसे सौदे कराने की कला में वह माहिर माना जाता है। सौदेबाज़ी में सफलता के लिए वह साम-दाम-दंड-भेद, हर विधि अपना सकता है। पैर पड़ने से लेकर गाली बकने तक की क्रिया वह उसी सहज भाव से निपटाता है।
उसके आते ही ठर्रे का तीखा भभका आसपास भर गया। वह सिर में लाल गमछा बाँधे हुए था। अधेड़, काला किंतु गठीले शरीर का मालिक चइता।
आते ही दाऊ को देखकर कहेगा, “राम-राम दाऊ, का बात है? वह अपनी आदत के मुताबिक़ जल्दी-जल्दी बात कहता है।
दाऊ ने अपनी शिकायत चइता के सामने रखी, “अरे देख ना चइता, साढ़े तीन हज़ार दे रहा हूँ, तब भी नहीं मान रहा है।
तुम हटो तो सहदेव, मैं देखता हूँ।” सहदेव एक किनारे करता हुआ चइता आगे बढ़ गया। उसने बैलों को देखा और उनके माथे को छूकर प्रणाम किया। और बोल, “ठीक है दाऊ। मैं पटा देता हूँ सौदा। अब चिंता की कोई बात नहीं है, मैं आ गया हूँ।”
रामधन ने कहना चाहा कि इतने में नहीं पोसाएगा। लेकिन चइता इससे बेख़बर था। उसे जैसे रामधन के हाँ अथवा ना की कोई परवाह ही नहीं थी। वह अपनी रौ में इस समय सिर्फ़ दाऊ से मुख़ातिब था, “दाऊ... तुम दस रुपया दो... बयाना... मैं सब बना लूँगा, तुम देखते भर रहो।
दाऊ ने दूसरे ही पल अपने पर्स से सौ का एक नोट निकाल लिया, “अरे दस क्या लेते हो, सौ रखो।”
रुपए लेकर चइता अब रामधन की तरफ़ बढ़ा। उसे ज़बरदस्ती रुपया पकड़ाने लगा, “अच्छा भाई, चल जा। बैलों के पैर छू ले। ये बयाना रख और सौदा मंज़ूर कर...
कितने में? रामधन ने गहरे संशय से पूछा।
“साढ़े तीन हज़ार में”
“ऊँ हूँ... नहीं जमेगा।” रामधन ने स्पष्ट कहा।
अब चइता अपने वास्तविक फ़ार्म में उतर आया, ज़िद करने लगा, “अरे, रख मेरे भाई और मान जा।
रामधन ने विनम्र होने की कोशिश की, “नहीं भाई, नहीं पोसाता। देख, मेरी बात मान और ज़िद छोड़... मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूँ।
लेकिन चइता भभक गया, “अरे ले ले साले! कितने ही देखे हैं तेरे जैसे! चल रख और बात ख़त्म कर!
नहीं नहीं। चार हज़ार से एक पाई कम नहीं।” रामधन अपनी बात पर अटल था।
रामधन को परेशानी में फँसा देखकर सहदेव बचाव के लिए आया और चइता को समझाने लगा, “चइता, जब उसको नहीं पोसाता तो कैसे दे देगा, कुछ समझाकर!”
“देगा! ये देगा और तेरे सामने देगा! तुम देखते तो रहो।” चइता ने जमी हुई नज़रों से सहदेव को देखा। वह फिर अपनी ज़िद पर उतर आया, “ले रख यार और मान जा! जा बैलों के पैर छू ले।” कोई प्रतिक्रिया रामधन के चेहरे पर नहीं देखकर वह फिर शुरू हो गया, “अच्छा, चल ठीक है! तुम मुझको एक पैसा भी दलाली मत देना। ये लो! तेरे बैलों की क़सम! बस्स! एक पैसा मत देना मेरे को! और कोई तेरे से पैसा माँगेगा उसकी महतारी के संग सोना! मंज़ूर? चल...
अब रामधन को भी ग़ुस्सा आ गया, “मैं तुम्हारे को कितने बार समझाऊँगा, स्साले! तुमको समझ नहीं आता क्या? नहीं माने नहीं। तू जा यार यहाँ से... जा...!
लेकिन चइता भी पूरा बेशरम आदमी ठहरा। वह इतनी जल्दी हार मानने वाला नहीं था, “अच्छा, आख़िर मुझको सौ-दो सौ रुपया देगा कि नहीं? ऑय? मत देना मेरे को! मैं समझूगा जुए में हार गया या दारू में फूँक दिया। अरे, मैं पिया हुआ हूँ इसका ये मतलब थोड़ी है कि ग़लत-सलत भाव करने लगूँगा। मेरी बात मान, इससे बढ़िया रेट तेरे को और कोई नहीं देगा, माँ क़सम!” उसने ज़मीन की मुट्ठी भर धूल उठाकर माथे पर लगा ली।
लेकिन चइता के इतने हथियार आज़माने के बावजूद वह बेअसर रहा। अपनी ज़िद पर क़ायम रहा, चार हज़ार बस्स...
अब चइता ने हार मान ली। वह ग़ुस्से में फुफकारता और रामधन को अंड-बंड बकता हुआ चला गया। और भीड़ में खो गया।
चइता के जाते ही भीड़ छँटने लगी। अब वहाँ किसी दूसरे तमाशे की उम्मीद नहीं रही, क्योंकि शाम धीरे-धीरे उतर रही थी। इस समय पश्चिम का सारा आकाश लालिमा से भर उठा था और सूरज दूर पेड़ों के झुरमुट के पीछे छुपने की तैयारी में था।
बाज़ार की चहल-पहल धीरे-धीरे कम हो रही थी।
रामधन ने अपनी बंडी की जेब से बीड़ी निकालकर सुलगा ली। वह आराम से गहरे-गहरे कश लेने लगा। तभी सहदेव उसके पास आ गया। उसकी बीड़ी से अपनी बीड़ी सुलगाई। फिर धीरे-धीरे कहने लगा, “ठीक किए रामधन। बिलकुल ठीक किए। इन साले दाऊ लोगों को गाय-बैल की क्या क़दर? साला दाऊ रहे चाहे कुछु रहे—अपने घर में होगा। हम आख़िर बैल बेचने आए हैं, किसी बाम्हन को बछिया दान करने नहीं आए हैं। ठीक किया तुमने।”
सुनकर अच्छा लगा रामधन को। उसने सहदेव से विदा माँगी, “अब जाता हूँ भइया, दूर का सफ़र है। गाँव पहुँचते तक रात-साँझ हो जाएगी। चलता हूँ। और अपने बैलों को लेकर चल पड़ा।
यह लगातार तीसरा मौक़ा है जब रामधन हाट से अपने बैलों के साथ वापस लौट रहा है—उन्हें बिना बेचे। रामधन जानता है, गाँव वाले उसके इस उजबकपने पर फिर हँसेंगे। घर में पत्नी अलग चिड़चिड़ाएगी और मुन्ना फिर ग़ुस्साएगा।
गाँव के लोगों को अब इसका पता चला है, वे अक्सर उससे पूछ लेते हैं, “कैसे जी रामधन, तुम तो कल बैल लेकर हाट गए थे, क्या हुआ? बैल बिके के नहीं?
वे रामधन पर हँसते हैं, “अच्छा आदमी हो भाई तुम भी। इतने बड़े बाज़ार में तुमको एक भी मन का ग्राहक नहीं मिला!” कुछेक अनुमान लगाते हैं, शायद रामधन को बाज़ार की चाल-ढाल नहीं मालूम। उसे मोल-भाव करना नहीं आता। उसे अपना माल बेचना नहीं आता। या फिर साफ़ बात है रामधन को अपने बैल बेचने नहीं हैं।
प्रिय पाठकों, अब आप यह दृश्य देखिए और सुनिए भी!
रामधन अपने बैलों की रस्सी थामे, बीड़ी पीते हुए चुपचाप लौट रहा है। पैदल, साँझ ख़ूब गहरा चुकी है और अँधेरा चारों और घिर आया है। वह किसी गाँव के धूल अटे कच्चे रास्ते से गुज़र रहा है। अब आप ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे, वे दो बैल और रामधन नहीं, बल्कि आपस के तीन गहरे साथी आ रहे हैं। हाँ, तीन गहरे साथी। बैलों के गले की घंटियाँ आस-पास की ख़ामोशी को तोड़ती हुई, उनके चलने की लय में आराम से बज रही हैं टुन-टुन-टुन-टुन... क्या आप सिर्फ़ यही सुन रहे हैं? तो फिर ग़लत सुन रहे हैं। आप ध्यान से सुनिए, वे आपस में बातें कर रहे हैं... जी नहीं, मैं कोई कविता या क़िस्सा नहीं गढ़ रहा हूँ। आपको विश्वास नहीं हो रहा होगा। लेकिन आप मानिए, इस समय सचमुच यही हो रहा है। यह तो समय-समय की बात है कि आपको यह कोई चमत्कार मालूम हो रहा है।
उसके बैल पूछ रहे हैं, “मान लो अगर दाऊ या महाराज तुम्हें चार हज़ार दे देते होते तो तुम क्या हमें बेच दिए होते?
रामधन ने जवाब दिया, “शायद नहीं। फिर भी नहीं बेचता उनके हाथ तुमको।”
“बेचना तो पड़ेगा एक दिन!” बैल कह रहे हैं, “आख़िर तुम हमें कब तक बचाओगे, रामधन? कब तक?
जवाब में रामधन मुस्कुरा दिया—एक बहुत फीकी और उदास मुस्कान... अनिश्चितता से भरी हुई। रामधन अपने बैलों से कह रहा है, “देखो... हो सकता है अगली हाट में मुन्ना तुम्हें लेकर आए।
बीड़ी का यह आख़िरी कश था और वह बुझने लगी।
ye balod ka budhvari bazar hai.
balod is zile ki ek tahsil hai. kuch saal pahle tak ye sirf ek chhota sa gaanv hua karta tha. jahan kisan the, unke khet the, hal bakkhar the, unke bargad, neem aur pipal the. par ab ye ek chhota shahr ki sari khubiyan liye hue. asapas ke gaanv dehaton ko shahr ka sukh aur svaad dene vala. isi balod ke haftavar bharne vale budhvari bazar ki baat hai. ramdhan apne ek joDi bail lekar yahan bechne pahuncha tha.
bazar abhi bharna bus shuru hi hua tha, vaise bhi Dhai teen baje dhoop mein kharidari karne kaun nikalta hai? iske bavjud yahan charon taraf rangini aur raunaq hai. pata nahin kya baat hai, ramdhan jab bhi yahan aata hai, bazar aur shahr ki raunaq ko baDha hua hi paya hai.
apne bailon ko lekar wo udhar baDh gaya jahan gaay bailon ka bazar bharta hai. bailon ka ye koi kam baDa bazar nahin hai. bailon ka pura hujum maujud hai. do Dhai sau se bhala kya kam honge.
ramdhan ke chehre mohre, uski chikat banDi aur matmaili dhoti—jiska matmaila rang kisi sabun pani se nahin ghulta—dekhkar koi bhi sahj jaan sakta hai ki wo kis star ka adami hai. ramdhan ke bare mein kuch moti moti jankari de dena main uchit samajhta hoon. umr hogi uski lagbhag battis saal ki. sampatti ke naam par do acre khet hain, do bail aur ek tutta phutta purkhauti kachcha makan. parivar mein buDhiya maan hai, patni, do bachche aur ek chhota bhai hai—munna. ramdhan chauthi kaksha tak hi paDha hua hai lekin munna ko barahvin paas kiye hue do saal guzar chuke hain. ramdhan ne apne chhote bhai ko college nahin paDhaya. kuch to isliye ki unke sarikhe logon ke paDhne likhne se kuch hota havata nahin. dusri baat aur asal bat—vahi ghar ki arthik tangi. vaise ye shabd main jaan bujhkar prayog nahin karna chahta tha, lekin mujhe lagta hai, ye ek behad gambhir aur sanvedanshil shabd hai. mujhe ye bhi lagta hai ki duniya bhar ke vaktaon ne ghasit ghasitkar dusre tamam baDe aur mahan shabdon ki tarah ise bhi thass aur nirjiv bana Dala hai. ise likhte hue mujhe is baat ka Dar hai ki samacharon mein roz jane vale shabdon ki tarah sasta aur arthahin na rah jaye.
khair! to ramdhan aur uski patni mehnat majuri karke hi apna pet paal sakte hain. aur paal rahe hain. lekin munna kya karen? wo to yahan gaanv ka paDha likha naujavan hai, jise skuli bhasha mein kahen to desh ko aage baDhane valon mein se ek hai. wo pichhle do salon se naukari karne ke ya khojne ke naam par idhar udhar ghoom raha hain parantu ab wo inse bhi ub chuka hai aur koi chhota mota dhandha karne ka ichchhuk hai. lekin dhandha karne ke liye paisa chahiye. aur paisa?
“bhaiya, bailon ko bech do!”
munna ne ye baat kisi khalnayak vale andaz mein nahin kahi thi. usne jaise bahut soch samajhkar kaha tha. iske bavjud ramdhan ko ghussa aa gaya, “ye kya kah raha hai too?
“theek hi to kah raha hoon main! bech do inko. main dhandha karunga!
ramdhan ko ek gahra dhakka laga tha, ab ye bhi munh uthakar bolna seekh gaya hai mujhse lekin isse bhi zyada duःkh is baat ka hua ki munna use bechne ko kah raha hai jo unki kheti ka adhar hai. ramdhan ne baat ghusse mein taal di, “agar kuch banna hai, kuch karna hai to pahle utna kamao! iske liye ghar ki cheez kyon kharab karta hai? pahle kama, iske baad baat karna! hum tere liye ghar ki cheez nahin bechenge. samjhe?
lekin baat vahin khatm nahin hui. jhanjhat tha ki din par din baDhta ja raha tha.
akhir ye din bhar yahan bekar mein bandhe hi to rahte hain. kheti kisani ke din chhoDkar kab kaam aate hain? yahan kha khakar muta rahe hain ye!” munna apne tark rakhta.
“achchha, to hamara kaam kaise chalega?
“are, yahan to kitne hi tracktor vale hain, use kiraye se le ayenge. khet jutvao, bhijvao aur kiraya dekar chhutti pao!
“vaah! iske liye to jaise paisa kauDi nahin dega? dau kya hamara sasur hai to fokat mein tracktor ki kar raha hai tu, malum bhi hai uska kiraya?
“lagta hai, magar tere tracktor se kam! samjhe? baat to tracktor ki kar raha hai tu, malum bhi hai uska kiraya?
“malum hai isliye to kah raha hoon. yahan jab bail bimar paDte hain to kitna hi rupaya unke ilaaj pani mein chala jata hai, tum iska hisab kiye ho? sala paisa alag aur jhanjhat alag!
“magar kisi ki bimari ko kaun manata hai?
“tabhi to main kahta hoon, becho aur subhita pao!
batachit har baar apni pichhli sima laangh rahi thi. kahne ko to munna yahan tak kah gaya tha ki in bailon par sirf tumhara hi nahin, mera bhi haq hai.
is baat ne lajavab kar diya tha ramdhan ko. aur avak! kabhi nahin socha tha usne ki munna uske jaise sidhe sade adami se haq ki baat karega. munna ko kya lagta hai, main uska hissa haDapne ke liye taiyar baitha hoon? ramdhan khoob roya tha is baat par. . . akele mein.
bail uske pita ke kharide hue hain, ye baat sach hai. jane kis gaanv se bhagkar is gaanv mein aa gaye the bail, tab ye bachhDe hi the aur saath mein bandhe hue the. kisi ne pakaDkar kanji house ke havale kar diya tha unhen. niyam ke mutabiq kuch dinon tak unke malik ka rasta dekha gaya taki jurmana lekar chhoD sake. lekin jab intज़aar karte karte ub gaye aur koi unhen chhuDane nahin pahuncha to sarpanch ne inki nilami karne ka faisla kiya tha. ye sanyog hi tha ki ramdhan ke ganjeDi baap ke haath mein kuch rupae the. aur sanki to wo tha hi. jane kya ji mein aaya jo donon bachhDe vahan se kharid laya. tab se ye ghar mein bandh gaye aur ramdhan ki nigrani mein palne lage. khet jotna, bailagaड़i mein phandna, unse kaam lena aur unke dana bhusa ka khayal rakhna, unko nahlana dhulana aur unke bimar paDne par ilaaj ke liye dauD bhaag karna—sab ramdhan ka kaam tha. tab se ye bail ramdhan se juDe hue hain. inke juDne ke baad ramdhan itna zarur jaan gaya ki bhale hi becharon ke paas bolne ke liye munh aur bhasha nahin hai, lekin apne malik ke liye bharpur daya maya rakhte hain. inki gahri kali taral ankhon ko dekhkar ramdhan ko ye bhi lagta hai, ye hamare sukh duःkh ko khoob achchhi tarah samajhte hain—bilkul apne kisi sage ki tarah. tabhi to wo unhen itna chahta hai. itna lagav rakhta hai.
inhen bechne ki baat uthi, tabse hi use lag raha hai, jaise uski sari taqat jane lagi hai.
ramdhan munna ko samjha nahin pa raha tha. wo samjha bhi nahin sakta tha. ab kaise samjhata is baat ko ki bail hamare ghar ki izzat hai. . . ghar ki shobha hai. aur isse baDhkar hamare pita ki dharohar hai. us kisan ka bhi koi maan hai samaj mein, jiske ghar ek joDi bail nahin hain! kaise samjhata ki hamare saath rahte rahte ye bhi ghar ke sadasy ho gaye hain. jo bhi rukha sukha, pej pasiya milta hai, usi mein khush rahte hain. wo munna se kahna chahta tha, tumko inka bekar bandha rahna dikhta hai magar inki seva nahin dikhti? inki daya maya nahin dikhti?
aur sachmuch munna ko kuch dikhai nahin deta. uske sir par to jaise bhoot savar hai dhandha karne ka. roz roz ki jhik jhik se uski patni bhi tang aa chuki hai—roz ke jhanjhat se to achchha hai ki chupchap bech do. na rahega baans na bajegi bansuri!
munna kahne laga hai—agar tum nahin bech sakte to mujhse kaho. main bech dunga unhen baDhiya daam men!
. . . bazar ki bheeD ab baDh rahi hai. charon taraf shorgul aur bhiDbhaDa yahan ki raunaq dekhkar ramdhan ko mahadev ghaat ke mele ki yaad i. har saal maghi punni ke din bharne vala mela. vahan bhi aisi hi bheeD aur raunaq hoti hai pichhle saal hi to gaya tha uska parivar. aur paas paDos ke log bhi gaye the—jitne uski bailagaड़i mein sama jayen. sab chalo! puri raat bhar ka safar tha. aur jaDe ki raat. phir bhi mele ke naam par itna utsaah ki sab apna kathri kambal sambhale aa gaye the. ramdhan ko aaj bhi wo raat yaad hai—anjori raat ka ujala itna tha ki har cheez chandni mein nha nha gai thi, khet, menD, peD, talab. . . jaise din ki hi baat ho.
unke hansne khilkhilane se jaise bailon ko bhi iska pata chal gaya tha, raat bhar pure utsaah aur anand se dauDte rahe. . . khan khan khan khan. . . !
. . . gaay bailon ka ek mela sa lag gaya hai yahan. har qim ke bail. kale, safed, laal, bhure aur chitkabre aur alag alag kathi ke bail nate, duble, mote. . . grahkon ki avajahi aur puchhatachh shuru ho chuki hai. bailon ke bazar mein dhoti patka vale kisan hain. saudebazi chal rahi hai.
ramdhan ke bailon ko bhuluu maharaj parakh rahe hain. aas paas ke ganvon mein unki panDitai khoob jami hai. chahe byaah karna ho, satyanarayan ki katha karani ho, marni harni par garuD puran banchna ho—sab bhuluu maharaj hi karte hain. kuch saal pahle tak to kuch nahin tha inke paas. ab purohiti jam gai to sab kuch ho gaya. kheti baDi bhi jama chuke hain achchhi khasi.
maharaj bailon ke putthon ko theek tarah se thonk bajakar dekhne ke baad bole, “achchha ramdhan, zara inko rengakar dikhao. chaal dekh loon.
ramdhan ne biDi ka dhuan ugalkar kaha, “are, dekh lo maharaj. . . tumko jaise dekhana hai, dekh lo! hum koi pardesi hain jo tumhare sang dhokhadhDi karenge. ”
ramdhan ne bailon ko konchkar hakala, “ho. . . re. . . re. . . chchal!” donon bail aath das Dag chale phir vapas apni jagah par.
bhuluu maharaj bagula bhagat bane baDe manoyog se bailon ka chalna dekh rahe the—kahin koi khot to nahin hai! kahne lage, “dekhon bhaiya, main to kuch bhi cheez leta hoon to jaanch parakhkar leta hoon.
dekho na maharaj, rokta kaun hai? na main kahin bhaag raha hoon na mere bail. achchhe se dekh lo. dhokhadhDi ki koi baat nahin hai. phir bamhan ko daga dekar hamko narak mein jana hai kyaa?
bhuluu maharaj, ke chahre se laga, ramdhan ke uttar se santusht hue. bole “achchha, ab zara inka munh kholkar dikhao. main inke daant ginunga.
abhi lo. ye kaun baDi baat hai. ” ramdhan ne biDi phenkkar apne bailon ke munh khol diye. bhuluu maharaj apni dhoti kurta sambhalte hue nazdik aaye aur bailon ke daant ginne lage.
daant ginte hue maharaj ne puchha, “tumhare bail koDhiya to nahin hain?”
theek hai bhai, theek hai. maan liya. ab tum kahte ho to maan lete hain. ” maharaj byarth hi hanse, phir apne band chhate ki nok ko kaskar zamin mein dhansa—mano ab saude ki baat ho jaye. maharaj ne apne ko thoDa khaas khankharakar vyasthit kiya, phir puchha, “to batana bhai, kitne mein doge?
ramdhan vinamr ho gaya, “main to pahle hi bata chuka hoon malik. . .
narazgi se bhuluu maharaj ka chandan aur roli ka tilak laga matha sikuD gaya, “phir vahi baat! vajib daam lagao, ramdhan.
“bilkul vajib laga raha hoon maharaja bhala aapse kya fayda lena. ramdhan ne usi namrata se kaha.
zafrani zarda vale paan ka svaad maharaj ke munh mein bigaD gaya. peek thukkar khijkar bol, “kya yaar ramdhan! jaan pahchan ke adami se to kuch kam karo. akhir ek gaanv ghar hone ka koi matlab hai ki nahin? anya!
ramdhan ka ji hua kah de, tum to lagan paDhne ke baad ek pai kam nahin karte. aadha adhura bihav chhoDkar jane ki dhamki dete ho agar dachchhina tanik bhi kam ho jaye. gaanv ghar jab tum nahin dekhte to bhala main kyon dekhun? lekin laga isse baat bigaD jayegi. usne sirf itna hi kaha, “nahin paDega maharaj, meri baat mano. agar paDta to main de nahin deta.
bhuluu maharaj ab buri tarah bamak gaye aur ghusse se unke patle lambutre chehre ki narm jhurriyan lahra uthin, “to sale, ek tumhi ho jaise duniya mein bail bechne vale? baqi ye sab to munh dekhne vale hain! itna guman theek nahin hai, ramdhan!”
maharaj ki tez avaz se asapas ke logon ka dhyaan idhar hi khinch gaya. ramdhan ne is samay ghazab ki shanti se kaam liya, “main kab kah raha hoon maharaja tumko nahin posata to na kharido, dusra dekh lo. yahan to kami nahin hai janvaron ki. ” itna to ramdhan bhi janta tha ki gerahak bhale hi ghussa ho jaye, bechne vale ko shaant rahna chahiye.
maharaj ghusse se thartharate khaDe rahe. kuch log asapas ghera banakar jama ho gaye, goya koi tamasha ho raha ho.
idhar udhar ghumkar sahdev phir vapas aakar khaDa ho gaya tha aur sara majara dekhta raha tha chupchap. bola, “dekho ramdhan, tumko posa raha hai to bolo, main abhi khaDe khaDe kharid leta hoon.
ramdhan janta hai sahdev ko. ye gaanv gaanv ke bazar bazar ghumkar gaay bailon ki kharidari mein dalali karta hai. kharidar ke liye vikreta ko patata hai aur vikreta ke liye gerahak. ye bail ke parkhi hote hain. sahdev kuthrel gaanv ke bhuneshvar dau ke liye dalali kar raha hai.
ramdhan apne bailon ki taraf pual baDhata hua bola, “nahin bhai, itne kam mein nahin posata sahdev.
ramdhan ka vahi sadha hua aur thahra hua taka sa javab sunkar jaise maharaj ki deh mein aag lag gai, “dekh. . . dekh. . . isko! kaisa javab deta hai? main kahta hoon, are, kaise nahin posayega yaar? sab posayega! dekh sab jage sauda pat raha hai. . . ” jhallahat mein maharaj ke kattha se buri tarah rache kale bhure daant jhalak gaye.
“main to kah raha hoon maharaj. haath joDkar kah raha hoon. ” ramdhan ne sachmuch haath joD liye. “aap vahin kharid lo!
ab sahdev bhi bidak gaya, halanki wo shaant svbhaav ka adami hai. bola, le re ssale! zyada nakhra jhan maar! tere bail baDhiya daam mein bik jayenge. dekh, tere bail kharidne bhunesar dau khu aaye hain.
ramdhan ne kuthrel ke bhuneshvar dau ko dekha, jo samne khaDe the, saudebazi dekhte. adheD dau ki ankhon mein dhoop ka rangin chashma hai, sunahri frame ka. ve baDe itminan aur behad saliqe se paan chabate khaDe hain. bhuluu maharaj ki tarah ganvarupan ke saath nahin, jinke honton se paan ki peek lagatar laar ki tarah chu rahi hai.
ramdhan ko bahut ashaj lag raha tha. . . is bheeD ke kendr mein vahi hai. aur aisa bahut kam hua hai. sab pichhe paDe hain. ek kshan ko garv bhi hua use apne bailon par. usne bailon ko puchkar diya aur bailon ki gale ki ghantiyan tunatuna uthi.
ab dau ne apna munh khola, “dekho bhai, mujhko to hal bail ka kuch nahin malum. main to naukaron ke bharose kheti karne vala adami hoon. bus, hamko bail baDhiya chahiye—khub kamane vala. koDhiya nahin hona chahiye bail. . . ”
ramdhan ne apne bailon ko dulara, “shak subo ki koi baat nahi hai dau. main apne munh se inke bare mein kya kahun, gaanv ke kisi bhi adami se poochh lo, wo bata dega aapko. aap chaho to inko din bhar dauDa lo, pani chhoDkar kuch aur nahin chahiye inko. ”
vahan khaDe khaDe bhuluu maharaj ka dhairya aur sanyam ab chukne laga tha. bole, “teen hazar do sau de raha hoon! nagad! aur kitna dunga?. . . sale do take ke bail!. . . adami aur kitna dega?
ramdhan atal hai, “nahin paDega maharaj! chaar hazar mane chaar hazar!
ab maharaj ke chehre par ghussa, kshaobh, tilmilahat aur parajay ka bhaav dekhne layaq tha. lagta tha bhitar hi bhitar krodh se dahak rahe hon aur unka bus chale to ramdhan ko bhasm karke rakh den.
ab sahdev ne kaha, “dekho bhai, tumko tumhari amdani mil jaye, tumko aur kya chahiye phir?”
“are amdani ki aisi ki taisi! mera to muddas nahin nikalta mere baap. ramdhan bhi chilla utha.
bhuluu maharaj ko is beech jaise phir mauqa mil gaya. apna krodh nigalkar bole, “le yaar, main nagad de raha hoon teen hazar teen sau! ek sau aur le lo. le chal. tumhin khush raho. chal ab qissa khatm kar. . . . bhuluu maharaj apni ro mein rassi pakaDkar bailon ko khinchne lage, zabardasti. . .
maharaj ki is harkat par jama log hans paDe. sahdev to thathakar hans paDa, “maharaj, ye daan punn ka kaam nahin. main inke bhaav janta hoon. jitna tum kah rahe ho utne mein to kabhi nahin dega! are ghanta tak iske kula mein levna (makkhan) lagaya. mujhko nahin diya to tumko kaise de dega hazar teen sau men?
jama log phir hans paDe. bhuluu maharaj apmanit mahsus karke kshan bhar ghurte rahe. phir ghusse se apna gaDa hua chhata uthaya aur chalte bane.
maharaj ke khisakte hi bheeD ke kuch logon ko laga, ab maza nahin ayega. so kuch sarakne ko hue. lekin adhikansh abhi Date hue the, kisi ek gerahak aur tamashe ki ummid mein, un tagDe safed aur bhure bailon ko mugdh hokar niharte hue.
tabhi bheeD to chirta hua chaita prakat ho gaya. chaita idhar ka jana mana dalal hai. wicket ziddi aur sanakha. apne is ziddi svbhaav ke bharose hi wo jitta aaya hai. aise saude karane ki kala mein wo mahir mana jata hai. saudebazi mein saphalta ke liye wo saam daam danD bhed, har vidhi apna sakta hai. pair paDne se lekar gali bakne tak ki kriya wo usi sahj bhaav se niptata hai.
uske aate hi tharre ka tikha bhabhka asapas bhar gaya. wo sir mein laal gamchha bandhe hue tha. adheD, kala kintu gathile sharir ka malik chaita.
aate hi dau ko dekhkar kahega, “raam raam dau, ka baat hai? wo apni aadat ke mutabiq jaldi jaldi baat kahta hai.
dau ne apni shikayat chaita ke samne rakhi, “are dekh na chaita, saDhe teen hazar de raha hoon, tab bhi nahin maan raha hai.
tum hato to sahdev, main dekhta hoon. ” sahdev ek kinare karta hua chaita aage baDh gaya. usne bailon ko dekha aur unke mathe ko chhukar parnam kiya. aur bol, “theek hai dau. main pata deta hoon sauda. ab chinta ki koi baat nahin hai, main aa gaya hoon. ”
ramdhan ne kahna chaha ki itne mein nahin posayega. lekin chaita isse beख़bar tha. use jaise ramdhan ke haan athva na ki koi parvah hi nahin thi. wo apni rau mein is samay sirf dau se mukhatib tha, “dau. . . tum das rupaya do. . . bayana. . . main sab bana lunga, tum dekhte bhar raho.
dau ne dusre hi pal apne purse se sau ka ek not nikal liya, “are das kya lete ho, sau rakho. ”
rupae lekar chaita ab ramdhan ki taraf baDha. use zabardasti rupaya pakDane laga, “achchha bhai, chal ja. bailon ke pair chhu le. ye bayana rakh aur sauda manzur kar. . .
ab chaita apne vastavik faarm mein utar aaya, zid karne laga, “are, rakh mere bhai aur maan ja.
ramdhan ne vinamr hone ki koshish ki, “nahin bhai, nahin posata. dekh, meri baat maan aur zid chhoD. . . main tumhare pair paDta hoon.
lekin chaita bhabhak gaya, “are le le sale! kitne hi dekhe hain tere jaise! chal rakh aur baat khatm kar!
nahin nahin. chaar hazar se ek pai kam nahin. ” ramdhan apni baat par atal tha.
ramdhan ko pareshani mein phansa dekhkar sahdev bachav ke liye aaya aur chaita ko samjhane laga, “chaita, jab usko nahin posata to kaise de dega, kuch samjhakar!”
“dega! ye dega aur tere samne dega! tum dekhte to raho. ” chaita ne jami hui nazron se sahdev ko dekha. wo phir apni zid par utar aaya, “le rakh yaar aur maan ja! ja bailon ke pair chhu le. ” koi pratikriya ramdhan ke chehre par nahin dekhkar wo phir shuru ho gaya, “achchha, chal theek hai! tum mujhko ek paisa bhi dalali mat dena. ye lo! tere bailon ki qas! bass! ek paisa mat dena mere ko! aur koi tere se paisa mangega uski mahtari ke sang sona! manzur? chal. . .
ab ramdhan ko bhi ghussa aa gaya, “main tumhare ko kitne baar samjhaunga, ssale! tumko samajh nahin aata kyaa? nahin mane nahin. tu ja yaar yahan se. . . ja. . . !
lekin chaita bhi pura beshram adami thahra. wo itni jaldi haar manne vala nahin tha, “achchha, akhir mujhko sau do sau rupaya dega ki nahin? auy? mat dena mere ko! main samjhuga jue mein haar gaya ya daru mein phoonk diya. are, main piya hua hoon iska ye matlab thoDi hai ki ghalat salat bhaav karne lagunga. meri baat maan, isse baDhiya ret tere ko aur koi nahin dega, maan qas!” usne zamin ki mutthi bhar dhool uthakar mathe par laga li.
lekin chaita ke itne hathiyar azmane ke bavjud wo beasar raha. apni zid par qayam raha, chaar hazar bass. . .
ab chaita ne haar maan li. wo ghusse mein phuphkarta aur ramdhan ko anD banD bakta hua chala gaya. aur bheeD mein kho gaya.
chaita ke jate hi bheeD chhantne lagi. ab vahan kisi dusre tamashe ki ummid nahin rahi, kyonki shaam dhire dhire utar rahi thi. is samay pashchim ka sara akash lalima se bhar utha tha aur suraj door peDon ke jhurmut ke pichhe chhupne ki taiyari mein tha.
bazar ki chahl pahal dhire dhire kam ho rahi thi.
ramdhan ne apni banDi ki jeb se biDi nikalkar sulga li. wo aram se gahre gahre kash lene laga. tabhi sahdev uske paas aa gaya. uski biDi se apni biDi sulgai. phir dhire dhire kahne laga, “theek kiye ramdhan. bilkul theek kiye. in sale dau logon ko gaay bail ki kya qadar? sala dau rahe chahe kuchhu rahe—apne ghar mein hoga. hum akhir bail bechne aaye hain, kisi bamhan ko bachhiya daan karne nahin aaye hain. theek kiya tumne. ”
sunkar achchha laga ramdhan ko. usne sahdev se vida mangi, “ab jata hoon bhaiya, door ka safar hai. gaanv pahunchte tak raat saanjh ho jayegi. chalta hoon. aur apne bailon ko lekar chal paDa.
ye lagatar tisra mauqa hai jab ramdhan haat se apne bailon ke saath vapas laut raha hai—unhen bina beche. ramdhan janta hai, gaanv vale uske is ujabakapne par phir hansenge. ghar mein patni alag chiDachiDayegi aur munna phir ghussayega.
gaanv ke logon ko ab iska pata chala hai, ve aksar usse poochh lete hain, “kaise ji ramdhan, tum to kal bail lekar haat gaye the, kya hua? bail bike ke nahin?
ve ramdhan par hanste hain, “achchha adami ho bhai tum bhi. itne baDe bazar mein tumko ek bhi man ka gerahak nahin mila!” kuchhek anuman lagate hain, shayad ramdhan ko bazar ki chaal Dhaal nahin malum. use mol bhaav karna nahin aata. use apna maal bechna nahin aata. ya phir saaf baat hai ramdhan ko apne bail bechne nahin hain.
priy pathkon, ab aap ye drishya dekhiye aur suniye bhee!
ramdhan apne bailon ki rassi thame, biDi pite hue chupchap laut raha hai. paidal, saanjh khoob gahra chuki hai aur andhera charon aur ghir aaya hai. wo kisi gaanv ke dhool ate kachche raste se guzar raha hai. ab aap dhyaan se dekhenge to payenge, ve do bail aur ramdhan nahin, balki aapas ke teen gahre sathi aa rahe hain. haan, teen gahre sathi. bailon ke gale ki ghantiyan aas paas ki khamoshi ko toDti hui, unke chalne ki lai mein aram se baj rahi hain tun tun tun tun. . . kya aap sirf yahi sun rahe hain? to phir ghalat sun rahe hain. aap dhyaan se suniye, ve aapas mein baten kar rahe hain. . . ji nahin, main koi kavita ya qissa nahin gaDh raha hoon. aapko vishvas nahin ho raha hoga. lekin aap maniye, is samay sachmuch yahi ho raha hai. ye to samay samay ki baat hai ki aapko ye koi chamatkar malum ho raha hai.
uske bail poochh rahe hain, “maan lo agar dau ya maharaj tumhein chaar hazar de dete hote to tum kya hamein bech diye hote?
“bechna to paDega ek din!” bail kah rahe hain, “akhir tum hamein kab tak bachaoge, ramdhan? kab tak?
javab mein ramdhan muskura diya—ek bahut phiki aur udaas muskan. . . anishchitta se bhari hui. ramdhan apne bailon se kah raha hai, “dekho. . . ho sakta hai agli haat mein munna tumhein lekar aaye.
biDi ka ye akhiri kash tha aur wo bujhne lagi.
ye balod ka budhvari bazar hai.
balod is zile ki ek tahsil hai. kuch saal pahle tak ye sirf ek chhota sa gaanv hua karta tha. jahan kisan the, unke khet the, hal bakkhar the, unke bargad, neem aur pipal the. par ab ye ek chhota shahr ki sari khubiyan liye hue. asapas ke gaanv dehaton ko shahr ka sukh aur svaad dene vala. isi balod ke haftavar bharne vale budhvari bazar ki baat hai. ramdhan apne ek joDi bail lekar yahan bechne pahuncha tha.
bazar abhi bharna bus shuru hi hua tha, vaise bhi Dhai teen baje dhoop mein kharidari karne kaun nikalta hai? iske bavjud yahan charon taraf rangini aur raunaq hai. pata nahin kya baat hai, ramdhan jab bhi yahan aata hai, bazar aur shahr ki raunaq ko baDha hua hi paya hai.
apne bailon ko lekar wo udhar baDh gaya jahan gaay bailon ka bazar bharta hai. bailon ka ye koi kam baDa bazar nahin hai. bailon ka pura hujum maujud hai. do Dhai sau se bhala kya kam honge.
ramdhan ke chehre mohre, uski chikat banDi aur matmaili dhoti—jiska matmaila rang kisi sabun pani se nahin ghulta—dekhkar koi bhi sahj jaan sakta hai ki wo kis star ka adami hai. ramdhan ke bare mein kuch moti moti jankari de dena main uchit samajhta hoon. umr hogi uski lagbhag battis saal ki. sampatti ke naam par do acre khet hain, do bail aur ek tutta phutta purkhauti kachcha makan. parivar mein buDhiya maan hai, patni, do bachche aur ek chhota bhai hai—munna. ramdhan chauthi kaksha tak hi paDha hua hai lekin munna ko barahvin paas kiye hue do saal guzar chuke hain. ramdhan ne apne chhote bhai ko college nahin paDhaya. kuch to isliye ki unke sarikhe logon ke paDhne likhne se kuch hota havata nahin. dusri baat aur asal bat—vahi ghar ki arthik tangi. vaise ye shabd main jaan bujhkar prayog nahin karna chahta tha, lekin mujhe lagta hai, ye ek behad gambhir aur sanvedanshil shabd hai. mujhe ye bhi lagta hai ki duniya bhar ke vaktaon ne ghasit ghasitkar dusre tamam baDe aur mahan shabdon ki tarah ise bhi thass aur nirjiv bana Dala hai. ise likhte hue mujhe is baat ka Dar hai ki samacharon mein roz jane vale shabdon ki tarah sasta aur arthahin na rah jaye.
khair! to ramdhan aur uski patni mehnat majuri karke hi apna pet paal sakte hain. aur paal rahe hain. lekin munna kya karen? wo to yahan gaanv ka paDha likha naujavan hai, jise skuli bhasha mein kahen to desh ko aage baDhane valon mein se ek hai. wo pichhle do salon se naukari karne ke ya khojne ke naam par idhar udhar ghoom raha hain parantu ab wo inse bhi ub chuka hai aur koi chhota mota dhandha karne ka ichchhuk hai. lekin dhandha karne ke liye paisa chahiye. aur paisa?
“bhaiya, bailon ko bech do!”
munna ne ye baat kisi khalnayak vale andaz mein nahin kahi thi. usne jaise bahut soch samajhkar kaha tha. iske bavjud ramdhan ko ghussa aa gaya, “ye kya kah raha hai too?
“theek hi to kah raha hoon main! bech do inko. main dhandha karunga!
ramdhan ko ek gahra dhakka laga tha, ab ye bhi munh uthakar bolna seekh gaya hai mujhse lekin isse bhi zyada duःkh is baat ka hua ki munna use bechne ko kah raha hai jo unki kheti ka adhar hai. ramdhan ne baat ghusse mein taal di, “agar kuch banna hai, kuch karna hai to pahle utna kamao! iske liye ghar ki cheez kyon kharab karta hai? pahle kama, iske baad baat karna! hum tere liye ghar ki cheez nahin bechenge. samjhe?
lekin baat vahin khatm nahin hui. jhanjhat tha ki din par din baDhta ja raha tha.
akhir ye din bhar yahan bekar mein bandhe hi to rahte hain. kheti kisani ke din chhoDkar kab kaam aate hain? yahan kha khakar muta rahe hain ye!” munna apne tark rakhta.
“achchha, to hamara kaam kaise chalega?
“are, yahan to kitne hi tracktor vale hain, use kiraye se le ayenge. khet jutvao, bhijvao aur kiraya dekar chhutti pao!
“vaah! iske liye to jaise paisa kauDi nahin dega? dau kya hamara sasur hai to fokat mein tracktor ki kar raha hai tu, malum bhi hai uska kiraya?
“lagta hai, magar tere tracktor se kam! samjhe? baat to tracktor ki kar raha hai tu, malum bhi hai uska kiraya?
“malum hai isliye to kah raha hoon. yahan jab bail bimar paDte hain to kitna hi rupaya unke ilaaj pani mein chala jata hai, tum iska hisab kiye ho? sala paisa alag aur jhanjhat alag!
“magar kisi ki bimari ko kaun manata hai?
“tabhi to main kahta hoon, becho aur subhita pao!
batachit har baar apni pichhli sima laangh rahi thi. kahne ko to munna yahan tak kah gaya tha ki in bailon par sirf tumhara hi nahin, mera bhi haq hai.
is baat ne lajavab kar diya tha ramdhan ko. aur avak! kabhi nahin socha tha usne ki munna uske jaise sidhe sade adami se haq ki baat karega. munna ko kya lagta hai, main uska hissa haDapne ke liye taiyar baitha hoon? ramdhan khoob roya tha is baat par. . . akele mein.
bail uske pita ke kharide hue hain, ye baat sach hai. jane kis gaanv se bhagkar is gaanv mein aa gaye the bail, tab ye bachhDe hi the aur saath mein bandhe hue the. kisi ne pakaDkar kanji house ke havale kar diya tha unhen. niyam ke mutabiq kuch dinon tak unke malik ka rasta dekha gaya taki jurmana lekar chhoD sake. lekin jab intज़aar karte karte ub gaye aur koi unhen chhuDane nahin pahuncha to sarpanch ne inki nilami karne ka faisla kiya tha. ye sanyog hi tha ki ramdhan ke ganjeDi baap ke haath mein kuch rupae the. aur sanki to wo tha hi. jane kya ji mein aaya jo donon bachhDe vahan se kharid laya. tab se ye ghar mein bandh gaye aur ramdhan ki nigrani mein palne lage. khet jotna, bailagaड़i mein phandna, unse kaam lena aur unke dana bhusa ka khayal rakhna, unko nahlana dhulana aur unke bimar paDne par ilaaj ke liye dauD bhaag karna—sab ramdhan ka kaam tha. tab se ye bail ramdhan se juDe hue hain. inke juDne ke baad ramdhan itna zarur jaan gaya ki bhale hi becharon ke paas bolne ke liye munh aur bhasha nahin hai, lekin apne malik ke liye bharpur daya maya rakhte hain. inki gahri kali taral ankhon ko dekhkar ramdhan ko ye bhi lagta hai, ye hamare sukh duःkh ko khoob achchhi tarah samajhte hain—bilkul apne kisi sage ki tarah. tabhi to wo unhen itna chahta hai. itna lagav rakhta hai.
inhen bechne ki baat uthi, tabse hi use lag raha hai, jaise uski sari taqat jane lagi hai.
ramdhan munna ko samjha nahin pa raha tha. wo samjha bhi nahin sakta tha. ab kaise samjhata is baat ko ki bail hamare ghar ki izzat hai. . . ghar ki shobha hai. aur isse baDhkar hamare pita ki dharohar hai. us kisan ka bhi koi maan hai samaj mein, jiske ghar ek joDi bail nahin hain! kaise samjhata ki hamare saath rahte rahte ye bhi ghar ke sadasy ho gaye hain. jo bhi rukha sukha, pej pasiya milta hai, usi mein khush rahte hain. wo munna se kahna chahta tha, tumko inka bekar bandha rahna dikhta hai magar inki seva nahin dikhti? inki daya maya nahin dikhti?
aur sachmuch munna ko kuch dikhai nahin deta. uske sir par to jaise bhoot savar hai dhandha karne ka. roz roz ki jhik jhik se uski patni bhi tang aa chuki hai—roz ke jhanjhat se to achchha hai ki chupchap bech do. na rahega baans na bajegi bansuri!
munna kahne laga hai—agar tum nahin bech sakte to mujhse kaho. main bech dunga unhen baDhiya daam men!
. . . bazar ki bheeD ab baDh rahi hai. charon taraf shorgul aur bhiDbhaDa yahan ki raunaq dekhkar ramdhan ko mahadev ghaat ke mele ki yaad i. har saal maghi punni ke din bharne vala mela. vahan bhi aisi hi bheeD aur raunaq hoti hai pichhle saal hi to gaya tha uska parivar. aur paas paDos ke log bhi gaye the—jitne uski bailagaड़i mein sama jayen. sab chalo! puri raat bhar ka safar tha. aur jaDe ki raat. phir bhi mele ke naam par itna utsaah ki sab apna kathri kambal sambhale aa gaye the. ramdhan ko aaj bhi wo raat yaad hai—anjori raat ka ujala itna tha ki har cheez chandni mein nha nha gai thi, khet, menD, peD, talab. . . jaise din ki hi baat ho.
unke hansne khilkhilane se jaise bailon ko bhi iska pata chal gaya tha, raat bhar pure utsaah aur anand se dauDte rahe. . . khan khan khan khan. . . !
. . . gaay bailon ka ek mela sa lag gaya hai yahan. har qim ke bail. kale, safed, laal, bhure aur chitkabre aur alag alag kathi ke bail nate, duble, mote. . . grahkon ki avajahi aur puchhatachh shuru ho chuki hai. bailon ke bazar mein dhoti patka vale kisan hain. saudebazi chal rahi hai.
ramdhan ke bailon ko bhuluu maharaj parakh rahe hain. aas paas ke ganvon mein unki panDitai khoob jami hai. chahe byaah karna ho, satyanarayan ki katha karani ho, marni harni par garuD puran banchna ho—sab bhuluu maharaj hi karte hain. kuch saal pahle tak to kuch nahin tha inke paas. ab purohiti jam gai to sab kuch ho gaya. kheti baDi bhi jama chuke hain achchhi khasi.
maharaj bailon ke putthon ko theek tarah se thonk bajakar dekhne ke baad bole, “achchha ramdhan, zara inko rengakar dikhao. chaal dekh loon.
ramdhan ne biDi ka dhuan ugalkar kaha, “are, dekh lo maharaj. . . tumko jaise dekhana hai, dekh lo! hum koi pardesi hain jo tumhare sang dhokhadhDi karenge. ”
ramdhan ne bailon ko konchkar hakala, “ho. . . re. . . re. . . chchal!” donon bail aath das Dag chale phir vapas apni jagah par.
bhuluu maharaj bagula bhagat bane baDe manoyog se bailon ka chalna dekh rahe the—kahin koi khot to nahin hai! kahne lage, “dekhon bhaiya, main to kuch bhi cheez leta hoon to jaanch parakhkar leta hoon.
dekho na maharaj, rokta kaun hai? na main kahin bhaag raha hoon na mere bail. achchhe se dekh lo. dhokhadhDi ki koi baat nahin hai. phir bamhan ko daga dekar hamko narak mein jana hai kyaa?
bhuluu maharaj, ke chahre se laga, ramdhan ke uttar se santusht hue. bole “achchha, ab zara inka munh kholkar dikhao. main inke daant ginunga.
abhi lo. ye kaun baDi baat hai. ” ramdhan ne biDi phenkkar apne bailon ke munh khol diye. bhuluu maharaj apni dhoti kurta sambhalte hue nazdik aaye aur bailon ke daant ginne lage.
daant ginte hue maharaj ne puchha, “tumhare bail koDhiya to nahin hain?”
theek hai bhai, theek hai. maan liya. ab tum kahte ho to maan lete hain. ” maharaj byarth hi hanse, phir apne band chhate ki nok ko kaskar zamin mein dhansa—mano ab saude ki baat ho jaye. maharaj ne apne ko thoDa khaas khankharakar vyasthit kiya, phir puchha, “to batana bhai, kitne mein doge?
ramdhan vinamr ho gaya, “main to pahle hi bata chuka hoon malik. . .
narazgi se bhuluu maharaj ka chandan aur roli ka tilak laga matha sikuD gaya, “phir vahi baat! vajib daam lagao, ramdhan.
“bilkul vajib laga raha hoon maharaja bhala aapse kya fayda lena. ramdhan ne usi namrata se kaha.
zafrani zarda vale paan ka svaad maharaj ke munh mein bigaD gaya. peek thukkar khijkar bol, “kya yaar ramdhan! jaan pahchan ke adami se to kuch kam karo. akhir ek gaanv ghar hone ka koi matlab hai ki nahin? anya!
ramdhan ka ji hua kah de, tum to lagan paDhne ke baad ek pai kam nahin karte. aadha adhura bihav chhoDkar jane ki dhamki dete ho agar dachchhina tanik bhi kam ho jaye. gaanv ghar jab tum nahin dekhte to bhala main kyon dekhun? lekin laga isse baat bigaD jayegi. usne sirf itna hi kaha, “nahin paDega maharaj, meri baat mano. agar paDta to main de nahin deta.
bhuluu maharaj ab buri tarah bamak gaye aur ghusse se unke patle lambutre chehre ki narm jhurriyan lahra uthin, “to sale, ek tumhi ho jaise duniya mein bail bechne vale? baqi ye sab to munh dekhne vale hain! itna guman theek nahin hai, ramdhan!”
maharaj ki tez avaz se asapas ke logon ka dhyaan idhar hi khinch gaya. ramdhan ne is samay ghazab ki shanti se kaam liya, “main kab kah raha hoon maharaja tumko nahin posata to na kharido, dusra dekh lo. yahan to kami nahin hai janvaron ki. ” itna to ramdhan bhi janta tha ki gerahak bhale hi ghussa ho jaye, bechne vale ko shaant rahna chahiye.
maharaj ghusse se thartharate khaDe rahe. kuch log asapas ghera banakar jama ho gaye, goya koi tamasha ho raha ho.
idhar udhar ghumkar sahdev phir vapas aakar khaDa ho gaya tha aur sara majara dekhta raha tha chupchap. bola, “dekho ramdhan, tumko posa raha hai to bolo, main abhi khaDe khaDe kharid leta hoon.
ramdhan janta hai sahdev ko. ye gaanv gaanv ke bazar bazar ghumkar gaay bailon ki kharidari mein dalali karta hai. kharidar ke liye vikreta ko patata hai aur vikreta ke liye gerahak. ye bail ke parkhi hote hain. sahdev kuthrel gaanv ke bhuneshvar dau ke liye dalali kar raha hai.
ramdhan apne bailon ki taraf pual baDhata hua bola, “nahin bhai, itne kam mein nahin posata sahdev.
ramdhan ka vahi sadha hua aur thahra hua taka sa javab sunkar jaise maharaj ki deh mein aag lag gai, “dekh. . . dekh. . . isko! kaisa javab deta hai? main kahta hoon, are, kaise nahin posayega yaar? sab posayega! dekh sab jage sauda pat raha hai. . . ” jhallahat mein maharaj ke kattha se buri tarah rache kale bhure daant jhalak gaye.
“main to kah raha hoon maharaj. haath joDkar kah raha hoon. ” ramdhan ne sachmuch haath joD liye. “aap vahin kharid lo!
ab sahdev bhi bidak gaya, halanki wo shaant svbhaav ka adami hai. bola, le re ssale! zyada nakhra jhan maar! tere bail baDhiya daam mein bik jayenge. dekh, tere bail kharidne bhunesar dau khu aaye hain.
ramdhan ne kuthrel ke bhuneshvar dau ko dekha, jo samne khaDe the, saudebazi dekhte. adheD dau ki ankhon mein dhoop ka rangin chashma hai, sunahri frame ka. ve baDe itminan aur behad saliqe se paan chabate khaDe hain. bhuluu maharaj ki tarah ganvarupan ke saath nahin, jinke honton se paan ki peek lagatar laar ki tarah chu rahi hai.
ramdhan ko bahut ashaj lag raha tha. . . is bheeD ke kendr mein vahi hai. aur aisa bahut kam hua hai. sab pichhe paDe hain. ek kshan ko garv bhi hua use apne bailon par. usne bailon ko puchkar diya aur bailon ki gale ki ghantiyan tunatuna uthi.
ab dau ne apna munh khola, “dekho bhai, mujhko to hal bail ka kuch nahin malum. main to naukaron ke bharose kheti karne vala adami hoon. bus, hamko bail baDhiya chahiye—khub kamane vala. koDhiya nahin hona chahiye bail. . . ”
ramdhan ne apne bailon ko dulara, “shak subo ki koi baat nahi hai dau. main apne munh se inke bare mein kya kahun, gaanv ke kisi bhi adami se poochh lo, wo bata dega aapko. aap chaho to inko din bhar dauDa lo, pani chhoDkar kuch aur nahin chahiye inko. ”
vahan khaDe khaDe bhuluu maharaj ka dhairya aur sanyam ab chukne laga tha. bole, “teen hazar do sau de raha hoon! nagad! aur kitna dunga?. . . sale do take ke bail!. . . adami aur kitna dega?
ramdhan atal hai, “nahin paDega maharaj! chaar hazar mane chaar hazar!
ab maharaj ke chehre par ghussa, kshaobh, tilmilahat aur parajay ka bhaav dekhne layaq tha. lagta tha bhitar hi bhitar krodh se dahak rahe hon aur unka bus chale to ramdhan ko bhasm karke rakh den.
ab sahdev ne kaha, “dekho bhai, tumko tumhari amdani mil jaye, tumko aur kya chahiye phir?”
“are amdani ki aisi ki taisi! mera to muddas nahin nikalta mere baap. ramdhan bhi chilla utha.
bhuluu maharaj ko is beech jaise phir mauqa mil gaya. apna krodh nigalkar bole, “le yaar, main nagad de raha hoon teen hazar teen sau! ek sau aur le lo. le chal. tumhin khush raho. chal ab qissa khatm kar. . . . bhuluu maharaj apni ro mein rassi pakaDkar bailon ko khinchne lage, zabardasti. . .
maharaj ki is harkat par jama log hans paDe. sahdev to thathakar hans paDa, “maharaj, ye daan punn ka kaam nahin. main inke bhaav janta hoon. jitna tum kah rahe ho utne mein to kabhi nahin dega! are ghanta tak iske kula mein levna (makkhan) lagaya. mujhko nahin diya to tumko kaise de dega hazar teen sau men?
jama log phir hans paDe. bhuluu maharaj apmanit mahsus karke kshan bhar ghurte rahe. phir ghusse se apna gaDa hua chhata uthaya aur chalte bane.
maharaj ke khisakte hi bheeD ke kuch logon ko laga, ab maza nahin ayega. so kuch sarakne ko hue. lekin adhikansh abhi Date hue the, kisi ek gerahak aur tamashe ki ummid mein, un tagDe safed aur bhure bailon ko mugdh hokar niharte hue.
tabhi bheeD to chirta hua chaita prakat ho gaya. chaita idhar ka jana mana dalal hai. wicket ziddi aur sanakha. apne is ziddi svbhaav ke bharose hi wo jitta aaya hai. aise saude karane ki kala mein wo mahir mana jata hai. saudebazi mein saphalta ke liye wo saam daam danD bhed, har vidhi apna sakta hai. pair paDne se lekar gali bakne tak ki kriya wo usi sahj bhaav se niptata hai.
uske aate hi tharre ka tikha bhabhka asapas bhar gaya. wo sir mein laal gamchha bandhe hue tha. adheD, kala kintu gathile sharir ka malik chaita.
aate hi dau ko dekhkar kahega, “raam raam dau, ka baat hai? wo apni aadat ke mutabiq jaldi jaldi baat kahta hai.
dau ne apni shikayat chaita ke samne rakhi, “are dekh na chaita, saDhe teen hazar de raha hoon, tab bhi nahin maan raha hai.
tum hato to sahdev, main dekhta hoon. ” sahdev ek kinare karta hua chaita aage baDh gaya. usne bailon ko dekha aur unke mathe ko chhukar parnam kiya. aur bol, “theek hai dau. main pata deta hoon sauda. ab chinta ki koi baat nahin hai, main aa gaya hoon. ”
ramdhan ne kahna chaha ki itne mein nahin posayega. lekin chaita isse beख़bar tha. use jaise ramdhan ke haan athva na ki koi parvah hi nahin thi. wo apni rau mein is samay sirf dau se mukhatib tha, “dau. . . tum das rupaya do. . . bayana. . . main sab bana lunga, tum dekhte bhar raho.
dau ne dusre hi pal apne purse se sau ka ek not nikal liya, “are das kya lete ho, sau rakho. ”
rupae lekar chaita ab ramdhan ki taraf baDha. use zabardasti rupaya pakDane laga, “achchha bhai, chal ja. bailon ke pair chhu le. ye bayana rakh aur sauda manzur kar. . .
ab chaita apne vastavik faarm mein utar aaya, zid karne laga, “are, rakh mere bhai aur maan ja.
ramdhan ne vinamr hone ki koshish ki, “nahin bhai, nahin posata. dekh, meri baat maan aur zid chhoD. . . main tumhare pair paDta hoon.
lekin chaita bhabhak gaya, “are le le sale! kitne hi dekhe hain tere jaise! chal rakh aur baat khatm kar!
nahin nahin. chaar hazar se ek pai kam nahin. ” ramdhan apni baat par atal tha.
ramdhan ko pareshani mein phansa dekhkar sahdev bachav ke liye aaya aur chaita ko samjhane laga, “chaita, jab usko nahin posata to kaise de dega, kuch samjhakar!”
“dega! ye dega aur tere samne dega! tum dekhte to raho. ” chaita ne jami hui nazron se sahdev ko dekha. wo phir apni zid par utar aaya, “le rakh yaar aur maan ja! ja bailon ke pair chhu le. ” koi pratikriya ramdhan ke chehre par nahin dekhkar wo phir shuru ho gaya, “achchha, chal theek hai! tum mujhko ek paisa bhi dalali mat dena. ye lo! tere bailon ki qas! bass! ek paisa mat dena mere ko! aur koi tere se paisa mangega uski mahtari ke sang sona! manzur? chal. . .
ab ramdhan ko bhi ghussa aa gaya, “main tumhare ko kitne baar samjhaunga, ssale! tumko samajh nahin aata kyaa? nahin mane nahin. tu ja yaar yahan se. . . ja. . . !
lekin chaita bhi pura beshram adami thahra. wo itni jaldi haar manne vala nahin tha, “achchha, akhir mujhko sau do sau rupaya dega ki nahin? auy? mat dena mere ko! main samjhuga jue mein haar gaya ya daru mein phoonk diya. are, main piya hua hoon iska ye matlab thoDi hai ki ghalat salat bhaav karne lagunga. meri baat maan, isse baDhiya ret tere ko aur koi nahin dega, maan qas!” usne zamin ki mutthi bhar dhool uthakar mathe par laga li.
lekin chaita ke itne hathiyar azmane ke bavjud wo beasar raha. apni zid par qayam raha, chaar hazar bass. . .
ab chaita ne haar maan li. wo ghusse mein phuphkarta aur ramdhan ko anD banD bakta hua chala gaya. aur bheeD mein kho gaya.
chaita ke jate hi bheeD chhantne lagi. ab vahan kisi dusre tamashe ki ummid nahin rahi, kyonki shaam dhire dhire utar rahi thi. is samay pashchim ka sara akash lalima se bhar utha tha aur suraj door peDon ke jhurmut ke pichhe chhupne ki taiyari mein tha.
bazar ki chahl pahal dhire dhire kam ho rahi thi.
ramdhan ne apni banDi ki jeb se biDi nikalkar sulga li. wo aram se gahre gahre kash lene laga. tabhi sahdev uske paas aa gaya. uski biDi se apni biDi sulgai. phir dhire dhire kahne laga, “theek kiye ramdhan. bilkul theek kiye. in sale dau logon ko gaay bail ki kya qadar? sala dau rahe chahe kuchhu rahe—apne ghar mein hoga. hum akhir bail bechne aaye hain, kisi bamhan ko bachhiya daan karne nahin aaye hain. theek kiya tumne. ”
sunkar achchha laga ramdhan ko. usne sahdev se vida mangi, “ab jata hoon bhaiya, door ka safar hai. gaanv pahunchte tak raat saanjh ho jayegi. chalta hoon. aur apne bailon ko lekar chal paDa.
ye lagatar tisra mauqa hai jab ramdhan haat se apne bailon ke saath vapas laut raha hai—unhen bina beche. ramdhan janta hai, gaanv vale uske is ujabakapne par phir hansenge. ghar mein patni alag chiDachiDayegi aur munna phir ghussayega.
gaanv ke logon ko ab iska pata chala hai, ve aksar usse poochh lete hain, “kaise ji ramdhan, tum to kal bail lekar haat gaye the, kya hua? bail bike ke nahin?
ve ramdhan par hanste hain, “achchha adami ho bhai tum bhi. itne baDe bazar mein tumko ek bhi man ka gerahak nahin mila!” kuchhek anuman lagate hain, shayad ramdhan ko bazar ki chaal Dhaal nahin malum. use mol bhaav karna nahin aata. use apna maal bechna nahin aata. ya phir saaf baat hai ramdhan ko apne bail bechne nahin hain.
priy pathkon, ab aap ye drishya dekhiye aur suniye bhee!
ramdhan apne bailon ki rassi thame, biDi pite hue chupchap laut raha hai. paidal, saanjh khoob gahra chuki hai aur andhera charon aur ghir aaya hai. wo kisi gaanv ke dhool ate kachche raste se guzar raha hai. ab aap dhyaan se dekhenge to payenge, ve do bail aur ramdhan nahin, balki aapas ke teen gahre sathi aa rahe hain. haan, teen gahre sathi. bailon ke gale ki ghantiyan aas paas ki khamoshi ko toDti hui, unke chalne ki lai mein aram se baj rahi hain tun tun tun tun. . . kya aap sirf yahi sun rahe hain? to phir ghalat sun rahe hain. aap dhyaan se suniye, ve aapas mein baten kar rahe hain. . . ji nahin, main koi kavita ya qissa nahin gaDh raha hoon. aapko vishvas nahin ho raha hoga. lekin aap maniye, is samay sachmuch yahi ho raha hai. ye to samay samay ki baat hai ki aapko ye koi chamatkar malum ho raha hai.
uske bail poochh rahe hain, “maan lo agar dau ya maharaj tumhein chaar hazar de dete hote to tum kya hamein bech diye hote?
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।