प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
जाड़े का दिन। अमावस्या की रात—ठंडी और काली। मलेरिया और हैज़े से पीड़ित गाँव भयार्त्त शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था। पुरानी और उजड़ी बाँस-फूस की झोपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य! अँधेरा और निस्तब्धता!
अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी। निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे।
सियारों का क्रंदन और पेचक की डरावनी आवाज़ कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी। गाँव की झोंपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज़, 'हरे राम! हे भगवान!' की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी। बच्चे भी कभी-कभी निर्बल कंठों से ‘माँ-माँ' पुकारकर रो पड़ते थे। पर इससे रात्रि की निस्तब्धता में विशेष बाधा नहीं पड़ती थी।
कुत्तों में परिस्थिति को ताड़ने की एक विशेष बुद्धि होती है। वे दिन-भर राख के घूरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या या गंभीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे।
रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को, ताल ठोककर, ललकारती रहती थी—सिर्फ़ पहलवान की ढोलक! संध्या से लेकर प्रातःकाल तक एक ही गति से बजती रहती—'चट्-धा, गिड़-धा,...चट्-धा, गिड़ धा!' यानी 'आ जा भिड़ जा, आ जा भिड़ जा!'...बीच-बीच में—'चटाक्-चट्-धा, चटाक्-चट्-धा!' यानी 'उठाकर पटक दे! उठाकर पटक दे!'
यही आवाज़ मृत-गाँव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी।
लुट्टन सिंह पहलवान!
यों तो वह कहा करता था—'लुट्टन सिंह पहलवान को होल इंडिया भर के लोग जानते हैं', किंतु उसके 'होल-इंडिया' की सीमा शायद एक जिले की सीमा के बराबर ही हो। जिले भर के लोग उसके नाम से अवश्य परिचित थे।
लुट्टन के माता-पिता उसे नौ वर्ष की उम्र में ही अनाथ बनाकर चल बसे थे। सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी माँ-बाप का अनुसरण करता। विधवा सास ने पाल-पोस कर बड़ा किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूध पीता और कसरत किया करता था। गाँव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ़ दिया करते थे; लुट्टन के सिर पर कसरत की धुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुई थी। नियमित कसरत ने किशोरावस्था में ही उसके सीने और बाँहों को सुडौल तथा मांसल बना दिया था। जवानी में क़दम रखते ही वह गाँव में सबसे अच्छा पहलवान समझा जाने लगा। लोग उससे डरने लगे और वह दोनों हाथों को दोनों ओर 45 डिग्री की दूरी पर फैलाकर, पहलवानों की भाँति चलने लगा। वह कुश्ती भी लड़ता था।
एक बार वह 'दंगल' देखने श्यामनगर मेला गया। पहलवानों की कुश्ती और दाँव-पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया। जवानी की मस्ती और ढोल की ललकारती हुई आवाज़ ने उसकी नसों में बिजली उत्पन्न कर दी। उसने बिना कुछ सोचे-समझे दंगल में 'शेर के बच्चे' को चुनौती दे दी।
'शेर के बच्चे' का असल नाम था चाँद सिंह। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ, पंजाब से पहले-पहल श्यामनगर मेले में आया था। सुंदर जवान, अंग-प्रत्यंग से सुंदरता टपक पड़ती थी। तीन दिनों में ही पंजाबी और पठान पहलवानों के गिरोह के अपनी जोड़ी और उम्र के सभी पट्ठों को पछाड़कर उसने 'शेर के बच्चे' की टायटिल प्राप्त कर ली थी। इसलिए वह दंगल के मैदान में लँगोट लगाकर एक अजीब किलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता था। देशी नौजवान पहलवान, उससे लड़ने की कल्पना से भी घबराते थे। अपनी टायटिल को सत्य प्रमाणित करने के लिए ही चाँद सिंह बीच-बीच में दहाड़ता फिरता था।
श्यामनगर के दंगल और शिकार-प्रिय वृद्ध राजा साहब उसे दरबार में रखने की बातें कर ही रहे थे कि लुट्टन ने शेर के बच्चे को चुनौती दे दी। सम्मान-प्राप्त चाँद सिंह पहले तो किंचित, उसकी स्पर्धा पर मुसकुराया फिर बाज़ की तरह उस पर टूट पड़ा।
शांत दर्शकों की भीड़ में खलबली मच गई—'पागल है पागल, मरा—ऐं! मरा-मरा!...पर वाह रे बहादुर! लुट्टन बड़ी सफ़ाई से आक्रमण को सँभालकर निकलकर उठ खड़ा हुआ और पैंतरा दिखाने लगा। राजा साहब ने कुश्ती बंद करवाकर लुट्टन को अपने पास बुलवाया और समझाया। अंत में, उसकी हिम्मत की प्रशंसा करते हुए, दस रुपए का नोट देकर कहने लगे—
जाओ मेला देखकर घर जाओ!...
नहीं सरकार, लड़ेंगे...हुकुम हो सरकार...!
तुम पागल हो,...जाओ!...
मैनेजर साहब से लेकर सिपाहियों तक ने धमकाया—देह में गोश्त नहीं, लड़ने चला है शेर के बच्चे से! सरकार इतना समझा रहे हैं...!
दुहाई सरकार, पत्थर पर माथा पटककर मर जाऊँगा...मिले हुकुम! वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता रहा था।
भीड़ अधीर हो रही थी। बाजे बंद हो गए थे। पंजाबी पहलवानों की जमायत क्रोध से पागल होकर लुट्टन पर गालियों की बौछार कर रही थी। दर्शकों की मंडली उत्तेजित हो रही थी। कोई-कोई लुट्टन के पक्ष से चिल्ला उठता था—उसे लड़ने दिया जाए।
अकेला चाँद सिंह मैदान में खड़ा व्यर्थ मुसकुराने की चेष्टा कर रहा था। पहली पकड़ में ही अपने प्रतिद्वंद्वी की शक्ति का अंदाज़ा उसे मिल गया था।
विवश होकर राजा साहब ने आज्ञा दे दी—“लड़ने दो!
बाजे बजने लगे। दर्शकों में फिर उत्तेजना फैली। कोलाहल बढ़ गया। मेले के दुकानदार दुकान बंद करके दौड़े—चाँद सिंह की जोड़ी-चाँद को कुश्ती हो रही है!
'चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा, गिड़-धा...'
भरी आवाज़ में एक ढोल-जो अब तक चुप था—बोलने लगा—
'ढाक्-ढिना, ढाक्-ढिना, ढाक्-ढिना...'
(अर्थात्-वाह पट्ठे! वाह पट्ठे!)
लुट्टन को चाँद ने कसकर दबा लिया था।
—अरे गया-गया! दर्शकों ने तालियाँ बजाई—हलुआ हो जाएगा, हलुआ! हँसी-खेल “नहीं-शेर का बच्चा है...बच्चू!
'चट्-गिड़-धा, चट्-गिड़-धा, चट्-गिड़-धा...'
(मत डरना, मत डरना, मत डरना...)
लुट्टन की गर्दन पर केहुनी डालकर चाँद 'चित्त' करने की कोशिश कर रहा था।
वहीं दफ़ना दे, बहादुर! बादल सिंह अपने शिष्य को उत्साहित कर रहा था।
लुट्टन की आँखें बाहर निकल रही थीं। उसकी छाती फटने-फटने को हो रही थी। राजमत, बहुमत चाँद के पक्ष में था। सभी चाँद को शाबाशी दे रहे थे। लुटुन के पक्ष में सिर्फ़ ढोल की आवाज़ थी, जिसकी ताल पर वह अपनी शक्ति और दाँव-पेंच की परीक्षा ले रहा था—अपनी हिम्मत को बढ़ा रहा था। अचानक ढोल की एक पतली आवाज़ सुनाई पड़ी—
'धाक-धिना, तिरकट-तिना, धाक-धिना, तिरकट-तिना...!'
लुट्टन को स्पष्ट सुनाई पड़ा, ढोल कह रहा था—दाँव काटो, बाहर हो जा दाँव काटो, बाहर हो जा!
लोगों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही, लुट्टन दाँव काटकर बाहर निकला और तुरंत लपककर उसने चाँद की गर्दन पकड़ ली।
वाह रे मिट्टी के शेर!
“अच्छा! बाहर निकल आया? इसीलिए तो...। जनमत बदल रहा था।
मोटी और भौंड़ी आवाज़वाला ढोल बज उठा—'चटाक् चट्-धा, चटाक्-चट्-धा...' (उठा पटक दे! उठा पटक दे!)
लुट्टन ने चालाकी से दाँव और ज़ोर लगाकर चाँद को ज़मीन पर दे मारा।
धिना-धिना, धिक-धिना!' (अर्थात् चित करो, चित करो!)
लुट्टन ने अंतिम ज़ोर लगाया—चाँद सिंह चारों खाने चित हो रहा।
जनता यह स्थिर नहीं कर सकी कि किसकी जय-ध्वनि की जाए। फलतः अपनी-अपनी इच्छानुसार किसी ने 'माँ दुर्गा की', 'महावीर जी की', कुछ ने राजा श्यामानंद की जय-ध्वनि की। अंत में सम्मिलित 'जय!' से आकाश गूँज उठा।
विजयी लुट्टन कूदता-फाँदता, ताल-ठोंकता सबसे पहले बाजेवालों की ओर दौड़ा और ढोलों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया। फिर दौड़कर उसने राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब के क़ीमती कपड़े मिट्टी में सन गए। मैनेजर साहब ने आपत्ति की हें-हें...अरे-रे!” किंतु राजा साहब ने स्वयं उसे छाती से लगाकर गद्गद होकर कहा—जीते रहो, बहादुर! तुमने मिट्टी की लाज रख ली!
पंजाबी पहलवानों की जमायत चाँद सिंह की आँखें पोंछ रही थी। लुट्टन को राजा साहब ने पुरस्कृत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लुटून राज-पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे। राज-पंडितों ने मुँह बिचकाया—हुज़ूर! जाति का...सिंह...!
मैनेजर साहब क्षत्रिय थे। 'क्लीन-शेव्ड' चेहरे को संकुचित करते हुए, अपनी शक्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे। चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते हुए बोले—“हाँ सरकार, यह अन्याय है!
राजा साहब ने मुसकुराते हुए सिर्फ़ इतना ही कहा—उसने क्षत्रिय का काम किया है।
उसी दिन से लुट्टन सिंह पहलवान की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। पौष्टिक भोजन और व्यायाम तथा राजा साहब की स्नेह-दृष्टि ने उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए। कुछ वर्षों में ही उसने एक-एक कर सभी नामी पहलवानों को मिट्टी सुँघाकर आसमान दिखा दिया।
काला ख़ाँ के संबंध में यह बात मशहूर थी कि वह ज्यों ही लँगोट लगाकर 'आ-ली' कहकर अपने प्रतिद्वंद्वी पर टूटता है, प्रतिद्वंदी पहलवान को लकवा मार जाता है। लुट्टन उसको भी पटककर लोगों का भ्रम दूर कर दिया।
उसके बाद से यह राज-दरबार का दर्शनीय 'जीव' ही रहा। चिड़ियाख़ाने में, पिंजड़े और ज़ंजीरों को झकझोर कर बाघ दहाड़ता—‘हाँ-ऊँ, हाँ-ऊँ!’ सुनने वाले कहते—‘राजा का बाघ बोला’
ठाकुरबाड़े के सामने पहलवान गरजता—'महा-वीर!’ लोग समझ-लेते पहलवान बोला।
मेलों में वह घुटने तक लंबा चोगा होगा पहने, अस्त-व्यस्त पगड़ी बाँधकर मतवाले हाथी की तरह झूमता चलता। दुकानदारों को चुहल करने की सूझती। हलवाई अपनी दुकान पर बुलाता—पहलवान काका! ताज़ा रसगुल्ला बना है, ज़रा नाश्ता कर लो।
पहलवान बच्चों की-सी स्वाभाविक हँसी हँसकर कहता—अरे तनी-मनी काहे! ले आव डेढ़ सेर! और बैठ जाता।
दो सेर रसगुल्ला को उदरस्थ करके, मुँह में आठ-दस पान की गिलोरियाँ ठूँस, ठुड्डी को पान के रस से लाल करते हुए अपनी चाल से मेले में घूमता। मेले से दरबार लौटने के समय उसकी अजीब हुलिया रहती—आँखों पर रंगीन अबरख का चश्मा, हाथ में खिलौने को नचाता और मुँह से पीतल की सीटी बजाता, हँसता हुआ वह वापस जाता। बल और शरीर की वृद्धि के साथ बुद्धि का परिणाम घटकर बच्चों की बुद्धि के बराबर ही रह गया था उसमें।
दंगल में ढोल की आवाज़ सुनते ही वह अपने भारी-भरकम शरीर का प्रदर्शन करना शुरू कर देता था। उसकी जोड़ी तो मिलती ही नहीं थी, यदि कोई उससे लड़ना भी चाहता तो राजा साहब लुट्टन को आज्ञा ही नहीं देते। इसलिए वह निराश होकर, लँगोट लगाकर देह में मिट्टी मल और उछालकर अपने को साँड़ या भैंसा साबित करता रहता था। बूढ़े राजा साहब देख-देखकर मुसकुराते रहते।
यों ही पंद्रह वर्ष बीत गए। पहलवान अजेय रहा। वह दंगल में अपने दोनों पुत्रों को लेकर उतरता था। पहलवान की सास पहले ही मर चुकी थी, पहलवान की स्त्री भी दो पहलवानों को पैदा करके स्वर्ग सिधार गई थी। दोनों लड़के पिता की तरह ही गठीले और तगड़े थे। दंगल में दोनों को देखकर लोगों के मुँह से अनायास ही निकल पड़ता—“वाह! बाप से भी बढ़कर निकलेंगे ऐ दोनों बेटे!
दोनों ही लड़के राज-दरबार के भावी पहलवान घोषित हो चुके थे। अतः दोनों का भरण-पोषण दरबार से ही हो रहा था। प्रतिदिन प्रातःकाल पहलवान स्वयं ढोलक बजा-बजाकर दोनों से कसरत करवाता। दुपहर में लेटे-लेटे दोनों को सांसारिक ज्ञान की भी शिक्षा देता—समझे!” ढोलक की आवाज़ पर पूरा ध्यान देना। हाँ, मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यहीं ढोल है, समझे! ढोल की आवाज़ के प्रताप से ही मैं पहलवान हुआ। दंगल में उतरकर सबसे पहले ढोलों को प्रणाम करना, समझे!...ऐसी ही बहुत-सी बातें वह कहा करता। फिर मालिक को कैसे ख़ुश रखा जाता है, कब कैसा व्यवहार करना चाहिए, आदि की शिक्षा वह नित्य दिया करता था।
किंतु उसकी शिक्षा-दीक्षा, सब किए-कराए पर एक दिन पानी फिर गया। वृद्ध राजा स्वर्ग सिधार गए। नए राजकुमार ने विलायत से आते ही राज्य को अपने हाथ में ले लिया। राजा साहब के समय शिथिलता आ गई थी, राजकुमार के आते ही दूर हो गई। बहुत से परिवर्तन हुए। उन्हीं परिवर्तनों की चपेटाघात में पड़ा पहलवान भी। दंगल का स्थान घोड़े की रेस ने लिया।
पहलवान तथा दोनों भावी पहलवानों का दैनिक भोजन-व्यय सुनते ही राजकुमार ने कहा—टैरिबुल!
नए मैनेजर साहब ने कहा—हौरिबुल
पहलवान को साफ़ जवाब मिल गया, राज-दरबार में उसकी आवश्यकता नहीं। उसको गिड़गिड़ाने का भी मौक़ा नहीं दिया गया।
उसी दिन वह ढोलक कंधे से लटकाकर, अपने दोनों पुत्रों के साथ अपने गाँव में लौट आया और वहीं रहने लगा। गाँव के एक छोर पर, गाँव वालों ने एक झोपड़ी बाँध दी। वहीं रहकर वह गाँव के नौजवानों और चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा। खाने-पीने का ख़र्च गाँववालों की ओर से बँधा हुआ था। सुबह-शाम वह स्वयं ढोलक बजाकर अपने शिष्यों और पुत्रों को दाँव-पेंच वग़ैरा सिखाया करता था।
गाँव के किसान और खेतिहर-मज़दूर के बच्चे भला क्या खाकर कुश्ती सीखते! धीरे-धीरे पहलवान का स्कूल ख़ाली पड़ने लगा। अंत में अपने दोनों पुत्रों को ही वह ढोलक बजा-बजाकर लड़ाता रहा—सिखाता रहा। दोनों लड़के दिन भर मज़दूरी करके जो कुछ भी लाते, उसी में गुज़र होती रही।
अकस्मात गाँव पर यह वज्रपात हुआ। पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैज़े ने मिलकर गाँव को भूनना शुरू कर दिया।
गाँव प्रायः सूना हो चला था। घर के घर ख़ाली पड़ गए थे। रोज़ दो-तीन लाशें उठने लगीं। लोगों में खलबली मची हुई थी। दिन में तो-कलरव, हाहाकार तथा हृदय-विदारक रुदन के बावजूद भी लोगों के चेहरे पर कुछ प्रभा दृष्टिगोचर होती थी, शायद सूर्य के प्रकाश में सूर्योदय होते ही लोग काँखते-कुँखते-कराहते अपने-अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसियों और आत्मीयों को ढाढ़स देते थे—
अरे क्या करोगी रोकर, दुलहिन! जो गया सो तो चला गया। वह तुम्हारा नहीं था; वह जो है उसको तो देखो।
“भैया! घर में मुर्दा रखके कब तक रोओगे? कफ़न? कफ़न की क्या ज़रूरत है, दे आओ नदी में। इत्यादि।
किंतु, सूर्यास्त होते ही जब लोग अपनी-अपनी झोपड़ियों में घुस जाते तो चूँ भी नहीं करते। उनकी बोलने की शक्ति भी जाती रहती थी। पास में दम तोड़ते हुए पुत्र को अंतिम बार 'बेटा!' कहकर पुकारने की भी हिम्मत माताओं की नहीं होती थी।
रात्रि की विभीषिका को सिर्फ़ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी। पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस ख़याल से ढोलक बजाता हो, किंतु गाँव के अर्द्धमृत, औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन-शक्ति-शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। अवश्य ही ढोलक की आवाज़ में न तो बुख़ार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश शक्ति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आँख मूँदते समय कोई तकलीफ़ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे।
जिस दिन पहलवान के दोनों बेटे क्रूर काल की चपेटाघात में पड़े, असह्य वेदना से छटपटाते हुए दोनों ने कहा था—बाबा! उठा पटक दो वाला ताल बजाओ!
'चटाक्-चट-धा, चटाक्-चट-धा...' सारी रात ढोलक पीटता रहा पहलवान। बीच-बीच में पहलवानों की भाषा में उत्साहित भी करता था।—मारो बहादुर!
प्रातः काल उसने देखा—उसके दोनों बच्चे ज़मीन पर निस्पंद पड़े हैं। दोनों पेट के बल पड़े हुए थे। एक ने दाँत से थोड़ी मिट्टी खोद ली थी। एक लंबी साँस लेकर पहलवान ने मुसकुराने की चेष्टा की थी—दोनों बहादुर गिर पड़े!
उस दिन पहलवान ने राजा श्यामानंद की दी हुई रेशमी जाँघिया पहन ली। सारे शरीर में मिट्टी मलकर थोड़ी कसरत की, फिर दोनों पुत्रों को कंधों पर लादकर नदी में बहा आया। लोगों ने सुना तो दंग रह गए। कितनों की हिम्मत टूट गई।
किंतु, रात में फिर पहलवान की ढोलक की आवाज़, प्रतिदिन की भाँति सुनाई पड़ी। लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गई। संतप्त पिता-माताओं ने कहा—दोनों पहलवान बेटे मर गए, पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेजा है!
चार-पाँच दिनों के बाद। एक रात को ढोलक की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी। ढोलक नहीं बोली। पहलवान के कुछ दिलेर, किंतु रुग्ण शिष्यों ने प्रातःकाल जाकर देखा—पहलवान की लाश 'चित' पड़ी है।
आँसू पोंछते हुए एक ने कहा—गुरु जी कहा करते थे कि जब मैं मर जाऊँ तो चिता पर मुझे चित नहीं, पेट के बल सुलाना। मैं ज़िंदगी में कभी 'चित' नहीं हुआ। और चिता सुलगाने के समय ढोलक बजा देना। वह आगे बोल नहीं सका।
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jao mela dekhkar ghar jao!. . .
nahin sarkar, laDenge. . . hukum ho sarkar. . . !
tum pagal ho,. . . jao!. . .
mainejar sahab se lekar sipahiyon tak ne dhamkaya—deh mein gosht nahin, laDne chala hai sher ke bachche se! sarkar itna samjha rahe hain. . . !
duhai sarkar, patthar par matha patakkar mar jaunga. . . mile hukum! wo haath joDkar giDgiData raha tha.
bheeD adhir ho rahi thi. baje band ho ge the. panjabi pahalvanon ki jamayat krodh se pagal hokar luttan par galiyon ki bauchhar kar rahi thi. darshkon ki manDli uttejit ho rahi thi. koi koi luttan ke paksh se chilla uthta tha—use laDne diya jaye.
akela chaand sinh maidan mein khaDa vyarth musakurane ki cheshta kar raha tha. pahli pakaD mein hi apne prtidvandvi ki shakti ka andaza use mil gaya tha.
vivash hokar raja sahab ne aagya de di—“laDne do!
baje bajne lage. darshkon mein phir uttejna phaili. kolahal baDh gaya. mele ke dukandar dukan band karke dauDe—chand sinh ki joDi chaand ko kushti ho rahi hai!
chat dha, giD dha, chat dha, giD dha. . .
bhari avaz mein ek Dhol jo ab tak chup tha—bolne laga—
Dhaak Dhina, Dhaak Dhina, Dhaak Dhina. . .
(arthat vaah patthe! vaah patthe!)
luttan ko chaand ne kaskar daba liya tha.
—are gaya gaya! darshkon ne taliyan bajai—halua ho jayega, halua! hansi khel “nahin sher ka bachcha hai. . . bachchu!
chat giD dha, chat giD dha, chat giD gha. . .
(mat Darna, mat Darna, mat Darna. . . )
luttan ki gardan par kehuni Dalkar chaand chitt karne ki koshish kar raha tha.
vahin dafna de, bahadur! badal sinh apne shishya ko utsahit kar raha tha.
luttan ki ankhen bahar nikal rahi theen. uski chhati phatne phatne ko ho rahi thi. rajmat, bahumat chaand ke paksh mein tha. sabhi chaand ko shabashi de rahe the. lutun ke paksh mein sirf Dhol ki avaz thi, jiski taal par wo apni shakti aur daanv pench ki pariksha le raha tha—apni himmat ko baDha raha tha. achanak Dhol ki ek patli avaz sunai paDi—
luttan ko aspasht sunai paDa, Dhol kah raha tha—danv kato, bahar ho ja daanv kato, bahar ho ja!
logon ke ashcharya ki sima nahin rahi, luttan daanv katkar bahar nikla aur turant lapakkar usne chaand ki gardan pakaD li.
vaah re mitti ke sher!
“achchha! bahar nikal aaya? isiliye to. . . . janmat badal raha tha.
moti aur bhaunDi avazvala Dhol baj utha—chatak chat dha, chatak chat dha. . . (utha patak de! utha patak de!)
luttan ne chalaki se daanv aur zor lagakar chaand ko zamin par de mara.
dhina dhina, dhik dhina! (arthat chit karo, chit karo!)
luttan ne antim zor lagaya—chand sinh charon khane chit ho raha.
‘dha giD giD, dha giD giD, dha giD giD,’. . . (vaah bahadur! vaah bahadura! vaah bahadurra!)
janta ye sthir nahin kar saki ki kiski jay dhvani ki jaye. phalatः apni apni ichchhanusar kisi ne maan durga ki, mahavir ji ki, kuch ne raja shyamanand ki jay dhvani ki. ant mein sammilit jay! se akash goonj utha.
vijyi luttan kudta phandata, taal thonkta sabse pahle bajevalon ki or dauDa aur Dholon ko shraddhapurvak prnaam kiya. phir dauDkar usne raja sahab ko god mein utha liya. raja sahab ke qimti kapDe mitti mein san ge. mainejar sahab ne apatti ki hen hen. . . are re!” kintu raja sahab ne svayan use chhati se lagakar gadgad hokar kaha—jite raho, bahadur! tumne mitti ki laaj rakh lee!
panjabi pahalvanon ki jamayat chaand sinh ki ankhen ponchh rahi thi. luttan ko raja sahab ne puraskrit hi nahin kiya, apne darbar mein sada ke liye rakh liya. tab se lutun raaj pahlavan ho gaya aur raja sahab use luttan sinh kahkar pukarne lage. raaj panDiton ne munh bichkaya—huzur! jati ka. . . sinh. . . !
mainejar sahab kshatriy the. kleen shevD chehre ko sankuchit karte hue, apni shakti lagakar naak ke baal ukhaaD rahe the. chutki se atyachari baal ko ragaDte hue bole—“han sarkar, ye anyay hai!
raja sahab ne musakurate hue sirf itna hi kaha—usne kshatriy ka kaam kiya hai.
usi din se luttan sinh pahlavan ki kirti door door tak phail gai. paushtik bhojan aur vyayam tatha raja sahab ki sneh drishti ne uski prasiddhi mein chaar chaand laga diye. kuch varshon mein hi usne ek ek kar sabhi nami pahalvanon ko mitti sunghakar asman dikha diya.
kala khaan ke sambandh mein ye baat mashhur thi ki wo jyon hi langot lagakar a lee kahkar apne prtidvandvi par tutta hai, prtidvandi pahlavan ko lakva maar jata hai. luttan usko bhi patakkar logon ka bhram door kar diya.
uske baad se ye raaj darbar ka darshaniy jeev hi raha. chiDiyakhane mein, pinjDe aur zanjiron ko jhakjhor kar baagh dahaDta—‘han uun, haan uun!’ sunne vale kahte—‘raja ka baagh bola’
thakurbaDe ke samne pahlavan garajta—maha veer!’ log samajh lete pahlavan bola.
melon mein wo ghutne tak lamba choga hoga pahne, ast vyast pagDi bandhakar matvale hathi ki tarah jhumta chalta. dukandaron ko chuhal karne ki sujhti. halvai apni dukan par bulata—pahlavan kaka! taza rasgulla bana hai, zara nashta kar lo.
pahlavan bachchon ki si svabhavik hansi hansakar kahta—are tani mani kahe! le aav DeDh ser! aur baith jata.
do ser rasgulla ko udrasth karke, munh mein aath das paan ki giloriyan thoons, thuDDi ko paan ke ras se laal karte hue apni chaal se mele mein ghumta. mele se darbar lautne ke samay uski ajib huliya rahti—ankhon par rangin abrakh ka chashma, haath mein khilaune ko nachata aur munh se pital ki siti bajata, hansta hua wo vapas jata. bal aur sharir ki vriddhi ke saath buddhi ka parinam ghatkar bachchon ki buddhi ke barabar hi rah gaya tha usmen.
dangal mein Dhol ki avaz sunte hi wo apne bhari bharkam sharir ka pradarshan karna shuru kar deta tha. uski joDi to milti hi nahin thi, yadi koi usse laDna bhi chahta to raja sahab luttan ko aagya hi nahin dete. isliye wo nirash hokar, langot lagakar deh mein mitti mal aur uchhalkar apne ko saanD ya bhainsa sabit karta rahta tha. buDhe raja sahab dekh dekhkar musakurate rahte.
yon hi pandrah varsh beet ge. pahlavan ajey raha. wo dangal mein apne donon putron ko lekar utarta tha. pahlavan ki saas pahle hi mar chuki thi, pahlavan ki stri bhi do pahalvanon ko paida karke svarg sidhar gai thi. donon laDke pita ki tarah hi gathile aur tagDe the. dangal mein donon ko dekhkar logon ke munh se anayas hi nikal paDta—“vah! baap se bhi baDhkar niklenge ai donon bete!
donon hi laDke raaj darbar ke bhavi pahlavan ghoshit ho chuke the. atः donon ka bharan poshan darbar se hi ho raha tha. pratidin pratःkal pahlavan svayan Dholak baja bajakar donon se kasrat karvata. duphar mein lete lete donon ko sansarik gyaan ki bhi shiksha deta—samjhe!” Dholak ki avaz par pura dhyaan dena. haan, mera guru koi pahlavan nahin, yahin Dhol hai, samjhe! Dhol ki avaz ke pratap se hi main pahlavan hua. dangal mein utarkar sabse pahle Dholon ko prnaam karna, samjhe!. . . aisi hi bahut si baten wo kaha karta. phir malik ko kaise khush rakha jata hai, kab kaisa vyvahar karna chahiye, aadi ki shiksha wo nitya diya karta tha.
kintu uski shiksha diksha, sab kiye karaye par ek din pani phir gaya. vriddh raja svarg sidhar ge. ne rajakumar ne vilayat se aate hi rajya ko apne haath mein le liya. raja sahab ke samay shithilta aa gai thi, rajakumar ke aate hi door ho gai. bahut se parivartan hue. unhin parivartnon ki chapetaghat mein paDa pahlavan bhi. dangal ka sthaan ghoDe ki res ne liya.
pahlavan tatha donon bhavi pahalvanon ka dainik bhojan vyay sunte hi rajakumar ne kaha—tairibul!
ne mainejar sahab ne kaha—hauribul
pahlavan ko saaf javab mil gaya, raaj darbar mein uski avashyakta nahin. usko giDgiDane ka bhi mauqa nahin diya gaya.
usi din wo Dholak kandhe se latkakar, apne donon putron ke saath apne gaanv mein laut aaya aur vahin rahne laga. gaanv ke ek chhor par, gaanv valon ne ek jhopDi baandh di. vahin rahkar wo gaanv ke naujvanon aur charvahon ko kushti sikhane laga. khane pine ka kharch ganvvalon ki or se bandha hua tha. subah shaam wo svayan Dholak bajakar apne shishyon aur putron ko daanv pench vaghaira sikhaya karta tha.
gaanv ke kisan aur khetihar mazdur ke bachche bhala kya khakar kushti sikhte! dhire dhire pahlavan ka skool khali paDne laga. ant mein apne donon putron ko hi wo Dholak baja bajakar laData raha—sikhata raha. donon laDke din bhar mazduri karke jo kuch bhi late, usi mein guzar hoti rahi.
akasmat gaanv par ye vajrapat hua. pahle anavrishti, phir ann ki kami, tab maleriya aur haize ne milkar gaanv ko bhunna shuru kar diya.
gaanv praayः suna ho chala tha. ghar ke ghar khali paD ge the. roz do teen lashen uthne lagin. logon mein khalbali machi hui thi. din mein to kalrav, hahakar tatha hriday vidarak rudan ke bavjud bhi logon ke chehre par kuch prabha drishtigochar hoti thi, shayad surya ke parkash mein suryoday hote hi log kankhate kunkhate karahte apne apne gharon se bahar nikalkar apne paDosiyon aur atmiyon ko DhaDhas dete the—
are kya karogi rokar, dulhin! jo gaya so to chala gaya. wo tumhara nahin tha; wo jo hai usko to dekho.
“bhaiya! ghar mein murda rakhke kab tak rooge? kafan? kafan ki kya zarurat hai, de aao nadi mein. ityadi.
kintu, suryast hote hi jab log apni apni jhopaDiyon mein ghus jate to choon bhi nahin karte. unki bolne ki shakti bhi jati rahti thi. paas mein dam toDte hue putr ko antim baar beta! kahkar pukarne ki bhi himmat mataon ki nahin hoti thi.
ratri ki vibhishika ko sirf pahlavan ki Dholak hi lalkarkar chunauti deti rahti thi. pahlavan sandhya se subah tak, chahe jis khayal se Dholak bajata ho, kintu gaanv ke arddhmrit, aushadhi upchaar pathya vihin praniyon mein wo sanjivni shakti hi bharti thi. buDhe bachche javanon ki shaktihin ankhon ke aage dangal ka drishya nachne lagta tha. spandan shakti shunya snayuon mein bhi bijli dauD jati thi. avashya hi Dholak ki avaz mein na to bukhar hatane ka koi gun tha aur na mahamari ki sarvanash shakti ko rokne ki shakti hi, par ismen sandeh nahin ki marte hue praniyon ko ankh mundte samay koi taklif nahin hoti thi, mrityu se ve Darte nahin the.
jis din pahlavan ke donon bete kroor kaal ki chapetaghat mein paDe, asahya vedna se chhataptate hue donon ne kaha tha—baba! utha patak do vala taal bajao!
chatak chat dha, chatak chat dha. . . sari raat Dholak pitta raha pahlavan. beech beech mein pahalvanon ki bhasha mein utsahit bhi karta tha. —maro bahadur!
praatः kaal usne dekha—uske donon bachche zamin par nispand paDe hain. donon pet ke bal paDe hue the. ek ne daant se thoDi mitti khod li thi. ek lambi saans lekar pahlavan ne
musakurane ki cheshta ki thi—donon bahadur gir paDe!
us din pahlavan ne raja shyamanand ki di hui reshmi janghiya pahan li. sare sharir mein mitti malkar thoDi kasrat ki, phir donon putron ko kandhon par ladkar nadi mein baha aaya. logon ne suna to dang rah ge. kitnon ki himmat toot gai.
kintu, raat mein phir pahlavan ki Dholak ki avaz, pratidin ki bhanti sunai paDi. logon ki himmat duguni baDh gai. santapt pita mataon ne kaha—donon pahlavan bete mar ge, par pahlavan ki himmat to dekho, DeDh haath ka kaleja hai!
chaar paanch dinon ke baad. ek raat ko Dholak ki avaz nahin sunai paDi. Dholak nahin boli. pahlavan ke kuch diler, kintu rugn shishyon ne pratःkal jakar dekha—pahlavan ki laash chit paDi hai.
ansu ponchhte hue ek ne kaha—guru ji kaha karte the ki jab main mar jaun to chita par mujhe chit nahin, pet ke bal sulana. main zindagi mein kabhi chit nahin hua. aur chita sulgane ke samay Dholak baja dena. wo aage bol nahin saka.
jaDe ka din. amavasya ki rat—thanDi aur kali. maleriya aur haize se piDit gaanv bhayartt shishu ki tarah thar thar kaanp raha tha. purani aur ujDi baans phoos ki jhopaDiyon mein andhkar aur sannate ka sammilit samrajya! andhera aur nistabdhata!
andheri raat chupchap ansu baha rahi thi. nistabdhata karun sisakiyon aur ahon ko balpurvak apne hriday mein hi dabane ki cheshta kar rahi thi. akash mein tare chamak rahe the. prithvi par kahin parkash ka naam nahin. akash se tutkar yadi koi bhavuk tara prithvi par jana bhi chahta to uski jyoti aur shakti raste mein hi shesh ho jati thi. anya tare uski bhavukta athva asphalta par khilakhilakar hans paDte the.
siyaron ka krandan aur pechak ki Daravni avaz kabhi kabhi nistabdhata ko avashya bhang kar deti thi. gaanv ki jhompaDiyon se karahne aur kai karne ki avaz, hare raam! he bhagvan! ki ter avashya sunai paDti thi. bachche bhi kabhi kabhi nirbal kanthon se ‘maan maan pukarkar ro paDte the. par isse ratri ki nistabdhata mein vishesh badha nahin paDti thi.
kutton mein paristhiti ko taDne ki ek vishesh buddhi hoti hai. ve din bhar raakh ke ghuron par gathri ki tarah sikuDkar, man markar paDe rahte the. sandhya ya gambhir ratri ko sab milkar rote the.
ratri apni bhishantaon ke saath chalti rahti aur uski sari bhishanta ko, taal thokkar, lalkarti rahti thi—sirf pahlavan ki Dholak! sandhya se lekar pratःkal tak ek hi gati se bajti rahti—chat dha, giD dha,. . . chat dha, giD dha! yani a ja bhiD ja, aa ja bhiD ja!. . . beech beech men—chatak chat dha, chatak chat dha! yani uthakar patak de! uthakar patak de!
yon to wo kaha karta tha—luttan sinh pahlavan ko hol inDiya bhar ke log jante hain, kintu uske hol inDiya ki sima shayad ek jile ki sima ke barabar hi ho. jile bhar ke log uske naam se avashya parichit the.
luttan ke mata pita use nau varsh ki umr mein hi anath banakar chal base the. saubhagyvash shadi ho chuki thi, varna wo bhi maan baap ka anusran karta. vidhva saas ne paal pos kar baDa kiya. bachpan mein wo gaay charata, dharoshn doodh pita aur kasrat kiya karta tha. gaanv ke log uski saas ko tarah tarah ki taklif diya karte the; luttan ke sir par kasrat ki dhun logon se badla lene ke liye hi savar hui thi. niymit kasrat ne kishoravastha mein hi uske sine aur banhon ko suDaul tatha mansal bana diya tha. javani mein qadam rakhte hi wo gaanv mein sabse achchha pahlavan samjha jane laga. log usse Darne lage aur wo donon hathon ko donon or 45 Digri ki duri par phailakar, pahalvanon ki bhanti chalne laga. wo kushti bhi laDta tha.
ek baar wo dangal dekhne shyamangar mela gaya. pahalvanon ki kushti aur daanv pench dekhkar usse nahin raha gaya. javani ki masti aur Dhol ki lalkarti hui avaz ne uski nason mein bijli utpann kar di. usne bina kuch soche samjhe dangal mein sher ke bachche ko chunauti de di.
sher ke bachche ka asal naam tha chaand sinh. wo apne guru pahlavan badal sinh ke saath, panjab se pahle pahal shyamangar mele mein aaya tha. sundar javan, ang pratyang se sundarta tapak paDti thi. teen dinon mein hi panjabi aur pathan pahalvanon ke giroh ke apni joDi aur umr ke sabhi patthon ko pachhaDkar usne sher ke bachche ki taytil praapt kar li thi. isliye wo dangal ke maidan mein langot lagakar ek ajib kilkari bharkar chhoti dulki lagaya karta tha. deshi naujavan pahlavan, usse laDne ki kalpana se bhi ghabrate the. apni taytil ko satya prmanit karne ke liye hi chaand sinh beech beech mein dahaDta phirta tha.
shyamangar ke dangal aur shikar priy vriddh raja sahab use darbar mein rakhne ki baten kar hi rahe the ki luttan ne sher ke bachche ko chunauti de di. samman praapt chaand sinh pahle to kinchit, uski spardha par musakuraya phir baaz ki tarah us par toot paDa.
shaant darshkon ki bheeD mein khalbali mach gai—pagal hai pagal, mara—ain! mara mara!. . . par vaah re bahadur! luttan baDi safai se akrman ko sanbhalakar nikalkar uth khaDa hua aur paintra dikhane laga. raja sahab ne kushti band karvakar luttan ko apne paas bulvaya aur samjhaya. ant mein, uski himmat ki prshansa karte hue, das rupye ka not dekar kahne lage—
jao mela dekhkar ghar jao!. . .
nahin sarkar, laDenge. . . hukum ho sarkar. . . !
tum pagal ho,. . . jao!. . .
mainejar sahab se lekar sipahiyon tak ne dhamkaya—deh mein gosht nahin, laDne chala hai sher ke bachche se! sarkar itna samjha rahe hain. . . !
duhai sarkar, patthar par matha patakkar mar jaunga. . . mile hukum! wo haath joDkar giDgiData raha tha.
bheeD adhir ho rahi thi. baje band ho ge the. panjabi pahalvanon ki jamayat krodh se pagal hokar luttan par galiyon ki bauchhar kar rahi thi. darshkon ki manDli uttejit ho rahi thi. koi koi luttan ke paksh se chilla uthta tha—use laDne diya jaye.
akela chaand sinh maidan mein khaDa vyarth musakurane ki cheshta kar raha tha. pahli pakaD mein hi apne prtidvandvi ki shakti ka andaza use mil gaya tha.
vivash hokar raja sahab ne aagya de di—“laDne do!
baje bajne lage. darshkon mein phir uttejna phaili. kolahal baDh gaya. mele ke dukandar dukan band karke dauDe—chand sinh ki joDi chaand ko kushti ho rahi hai!
chat dha, giD dha, chat dha, giD dha. . .
bhari avaz mein ek Dhol jo ab tak chup tha—bolne laga—
Dhaak Dhina, Dhaak Dhina, Dhaak Dhina. . .
(arthat vaah patthe! vaah patthe!)
luttan ko chaand ne kaskar daba liya tha.
—are gaya gaya! darshkon ne taliyan bajai—halua ho jayega, halua! hansi khel “nahin sher ka bachcha hai. . . bachchu!
chat giD dha, chat giD dha, chat giD gha. . .
(mat Darna, mat Darna, mat Darna. . . )
luttan ki gardan par kehuni Dalkar chaand chitt karne ki koshish kar raha tha.
vahin dafna de, bahadur! badal sinh apne shishya ko utsahit kar raha tha.
luttan ki ankhen bahar nikal rahi theen. uski chhati phatne phatne ko ho rahi thi. rajmat, bahumat chaand ke paksh mein tha. sabhi chaand ko shabashi de rahe the. lutun ke paksh mein sirf Dhol ki avaz thi, jiski taal par wo apni shakti aur daanv pench ki pariksha le raha tha—apni himmat ko baDha raha tha. achanak Dhol ki ek patli avaz sunai paDi—
luttan ko aspasht sunai paDa, Dhol kah raha tha—danv kato, bahar ho ja daanv kato, bahar ho ja!
logon ke ashcharya ki sima nahin rahi, luttan daanv katkar bahar nikla aur turant lapakkar usne chaand ki gardan pakaD li.
vaah re mitti ke sher!
“achchha! bahar nikal aaya? isiliye to. . . . janmat badal raha tha.
moti aur bhaunDi avazvala Dhol baj utha—chatak chat dha, chatak chat dha. . . (utha patak de! utha patak de!)
luttan ne chalaki se daanv aur zor lagakar chaand ko zamin par de mara.
dhina dhina, dhik dhina! (arthat chit karo, chit karo!)
luttan ne antim zor lagaya—chand sinh charon khane chit ho raha.
‘dha giD giD, dha giD giD, dha giD giD,’. . . (vaah bahadur! vaah bahadura! vaah bahadurra!)
janta ye sthir nahin kar saki ki kiski jay dhvani ki jaye. phalatः apni apni ichchhanusar kisi ne maan durga ki, mahavir ji ki, kuch ne raja shyamanand ki jay dhvani ki. ant mein sammilit jay! se akash goonj utha.
vijyi luttan kudta phandata, taal thonkta sabse pahle bajevalon ki or dauDa aur Dholon ko shraddhapurvak prnaam kiya. phir dauDkar usne raja sahab ko god mein utha liya. raja sahab ke qimti kapDe mitti mein san ge. mainejar sahab ne apatti ki hen hen. . . are re!” kintu raja sahab ne svayan use chhati se lagakar gadgad hokar kaha—jite raho, bahadur! tumne mitti ki laaj rakh lee!
panjabi pahalvanon ki jamayat chaand sinh ki ankhen ponchh rahi thi. luttan ko raja sahab ne puraskrit hi nahin kiya, apne darbar mein sada ke liye rakh liya. tab se lutun raaj pahlavan ho gaya aur raja sahab use luttan sinh kahkar pukarne lage. raaj panDiton ne munh bichkaya—huzur! jati ka. . . sinh. . . !
mainejar sahab kshatriy the. kleen shevD chehre ko sankuchit karte hue, apni shakti lagakar naak ke baal ukhaaD rahe the. chutki se atyachari baal ko ragaDte hue bole—“han sarkar, ye anyay hai!
raja sahab ne musakurate hue sirf itna hi kaha—usne kshatriy ka kaam kiya hai.
usi din se luttan sinh pahlavan ki kirti door door tak phail gai. paushtik bhojan aur vyayam tatha raja sahab ki sneh drishti ne uski prasiddhi mein chaar chaand laga diye. kuch varshon mein hi usne ek ek kar sabhi nami pahalvanon ko mitti sunghakar asman dikha diya.
kala khaan ke sambandh mein ye baat mashhur thi ki wo jyon hi langot lagakar a lee kahkar apne prtidvandvi par tutta hai, prtidvandi pahlavan ko lakva maar jata hai. luttan usko bhi patakkar logon ka bhram door kar diya.
uske baad se ye raaj darbar ka darshaniy jeev hi raha. chiDiyakhane mein, pinjDe aur zanjiron ko jhakjhor kar baagh dahaDta—‘han uun, haan uun!’ sunne vale kahte—‘raja ka baagh bola’
thakurbaDe ke samne pahlavan garajta—maha veer!’ log samajh lete pahlavan bola.
melon mein wo ghutne tak lamba choga hoga pahne, ast vyast pagDi bandhakar matvale hathi ki tarah jhumta chalta. dukandaron ko chuhal karne ki sujhti. halvai apni dukan par bulata—pahlavan kaka! taza rasgulla bana hai, zara nashta kar lo.
pahlavan bachchon ki si svabhavik hansi hansakar kahta—are tani mani kahe! le aav DeDh ser! aur baith jata.
do ser rasgulla ko udrasth karke, munh mein aath das paan ki giloriyan thoons, thuDDi ko paan ke ras se laal karte hue apni chaal se mele mein ghumta. mele se darbar lautne ke samay uski ajib huliya rahti—ankhon par rangin abrakh ka chashma, haath mein khilaune ko nachata aur munh se pital ki siti bajata, hansta hua wo vapas jata. bal aur sharir ki vriddhi ke saath buddhi ka parinam ghatkar bachchon ki buddhi ke barabar hi rah gaya tha usmen.
dangal mein Dhol ki avaz sunte hi wo apne bhari bharkam sharir ka pradarshan karna shuru kar deta tha. uski joDi to milti hi nahin thi, yadi koi usse laDna bhi chahta to raja sahab luttan ko aagya hi nahin dete. isliye wo nirash hokar, langot lagakar deh mein mitti mal aur uchhalkar apne ko saanD ya bhainsa sabit karta rahta tha. buDhe raja sahab dekh dekhkar musakurate rahte.
yon hi pandrah varsh beet ge. pahlavan ajey raha. wo dangal mein apne donon putron ko lekar utarta tha. pahlavan ki saas pahle hi mar chuki thi, pahlavan ki stri bhi do pahalvanon ko paida karke svarg sidhar gai thi. donon laDke pita ki tarah hi gathile aur tagDe the. dangal mein donon ko dekhkar logon ke munh se anayas hi nikal paDta—“vah! baap se bhi baDhkar niklenge ai donon bete!
donon hi laDke raaj darbar ke bhavi pahlavan ghoshit ho chuke the. atः donon ka bharan poshan darbar se hi ho raha tha. pratidin pratःkal pahlavan svayan Dholak baja bajakar donon se kasrat karvata. duphar mein lete lete donon ko sansarik gyaan ki bhi shiksha deta—samjhe!” Dholak ki avaz par pura dhyaan dena. haan, mera guru koi pahlavan nahin, yahin Dhol hai, samjhe! Dhol ki avaz ke pratap se hi main pahlavan hua. dangal mein utarkar sabse pahle Dholon ko prnaam karna, samjhe!. . . aisi hi bahut si baten wo kaha karta. phir malik ko kaise khush rakha jata hai, kab kaisa vyvahar karna chahiye, aadi ki shiksha wo nitya diya karta tha.
kintu uski shiksha diksha, sab kiye karaye par ek din pani phir gaya. vriddh raja svarg sidhar ge. ne rajakumar ne vilayat se aate hi rajya ko apne haath mein le liya. raja sahab ke samay shithilta aa gai thi, rajakumar ke aate hi door ho gai. bahut se parivartan hue. unhin parivartnon ki chapetaghat mein paDa pahlavan bhi. dangal ka sthaan ghoDe ki res ne liya.
pahlavan tatha donon bhavi pahalvanon ka dainik bhojan vyay sunte hi rajakumar ne kaha—tairibul!
ne mainejar sahab ne kaha—hauribul
pahlavan ko saaf javab mil gaya, raaj darbar mein uski avashyakta nahin. usko giDgiDane ka bhi mauqa nahin diya gaya.
usi din wo Dholak kandhe se latkakar, apne donon putron ke saath apne gaanv mein laut aaya aur vahin rahne laga. gaanv ke ek chhor par, gaanv valon ne ek jhopDi baandh di. vahin rahkar wo gaanv ke naujvanon aur charvahon ko kushti sikhane laga. khane pine ka kharch ganvvalon ki or se bandha hua tha. subah shaam wo svayan Dholak bajakar apne shishyon aur putron ko daanv pench vaghaira sikhaya karta tha.
gaanv ke kisan aur khetihar mazdur ke bachche bhala kya khakar kushti sikhte! dhire dhire pahlavan ka skool khali paDne laga. ant mein apne donon putron ko hi wo Dholak baja bajakar laData raha—sikhata raha. donon laDke din bhar mazduri karke jo kuch bhi late, usi mein guzar hoti rahi.
akasmat gaanv par ye vajrapat hua. pahle anavrishti, phir ann ki kami, tab maleriya aur haize ne milkar gaanv ko bhunna shuru kar diya.
gaanv praayः suna ho chala tha. ghar ke ghar khali paD ge the. roz do teen lashen uthne lagin. logon mein khalbali machi hui thi. din mein to kalrav, hahakar tatha hriday vidarak rudan ke bavjud bhi logon ke chehre par kuch prabha drishtigochar hoti thi, shayad surya ke parkash mein suryoday hote hi log kankhate kunkhate karahte apne apne gharon se bahar nikalkar apne paDosiyon aur atmiyon ko DhaDhas dete the—
are kya karogi rokar, dulhin! jo gaya so to chala gaya. wo tumhara nahin tha; wo jo hai usko to dekho.
“bhaiya! ghar mein murda rakhke kab tak rooge? kafan? kafan ki kya zarurat hai, de aao nadi mein. ityadi.
kintu, suryast hote hi jab log apni apni jhopaDiyon mein ghus jate to choon bhi nahin karte. unki bolne ki shakti bhi jati rahti thi. paas mein dam toDte hue putr ko antim baar beta! kahkar pukarne ki bhi himmat mataon ki nahin hoti thi.
ratri ki vibhishika ko sirf pahlavan ki Dholak hi lalkarkar chunauti deti rahti thi. pahlavan sandhya se subah tak, chahe jis khayal se Dholak bajata ho, kintu gaanv ke arddhmrit, aushadhi upchaar pathya vihin praniyon mein wo sanjivni shakti hi bharti thi. buDhe bachche javanon ki shaktihin ankhon ke aage dangal ka drishya nachne lagta tha. spandan shakti shunya snayuon mein bhi bijli dauD jati thi. avashya hi Dholak ki avaz mein na to bukhar hatane ka koi gun tha aur na mahamari ki sarvanash shakti ko rokne ki shakti hi, par ismen sandeh nahin ki marte hue praniyon ko ankh mundte samay koi taklif nahin hoti thi, mrityu se ve Darte nahin the.
jis din pahlavan ke donon bete kroor kaal ki chapetaghat mein paDe, asahya vedna se chhataptate hue donon ne kaha tha—baba! utha patak do vala taal bajao!
chatak chat dha, chatak chat dha. . . sari raat Dholak pitta raha pahlavan. beech beech mein pahalvanon ki bhasha mein utsahit bhi karta tha. —maro bahadur!
praatः kaal usne dekha—uske donon bachche zamin par nispand paDe hain. donon pet ke bal paDe hue the. ek ne daant se thoDi mitti khod li thi. ek lambi saans lekar pahlavan ne
musakurane ki cheshta ki thi—donon bahadur gir paDe!
us din pahlavan ne raja shyamanand ki di hui reshmi janghiya pahan li. sare sharir mein mitti malkar thoDi kasrat ki, phir donon putron ko kandhon par ladkar nadi mein baha aaya. logon ne suna to dang rah ge. kitnon ki himmat toot gai.
kintu, raat mein phir pahlavan ki Dholak ki avaz, pratidin ki bhanti sunai paDi. logon ki himmat duguni baDh gai. santapt pita mataon ne kaha—donon pahlavan bete mar ge, par pahlavan ki himmat to dekho, DeDh haath ka kaleja hai!
chaar paanch dinon ke baad. ek raat ko Dholak ki avaz nahin sunai paDi. Dholak nahin boli. pahlavan ke kuch diler, kintu rugn shishyon ne pratःkal jakar dekha—pahlavan ki laash chit paDi hai.
ansu ponchhte hue ek ne kaha—guru ji kaha karte the ki jab main mar jaun to chita par mujhe chit nahin, pet ke bal sulana. main zindagi mein kabhi chit nahin hua. aur chita sulgane ke samay Dholak baja dena. wo aage bol nahin saka.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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