जिस समय देवनाथ मेवालाल की पान की दुकान पर ‘विल्स फ़िल्टर्ड’ का पैकेट ख़रीद रहे थे उसी समय बग़लवाली दुकान से एक आवाज़ सुनाई पड़ी जो उस गली का नाम पूछ रही थी, जिसमें वे रहते थे।
हालाँकि उस गली में अकेले वही नहीं रहते थे, सैंकड़ों लोग रहते थे, पूछने वाला आदमी कहीं भी, किसी के भी घर जा सकता था लेकिन आवाज़ कुछ जानी-पहचानी-सी लग रही थी। कुतुहल के बावजूद वे उस तरफ देखने की हिम्मत नहीं जुटा सके, चेहरा दूसरी ओर घुमाए रहे। उन्होंने झटपट घर तक पहुँचने वाला वह सँकरा रास्ता पकड़ा जो आम नहीं था।
जाड़े में सूरज ढलते-ढलते ही शाम घिरने लगती है और ठंड बढ़नी शुरू हो जाती है।
घर में घुसने के पहले ही उन्होंने देख लिया कि अंदर वाले कमरे में उनके दोनों बच्चे हंगामा मचाए हुए है और पत्नी आशा इस धमाचौकड़ी पर सौ जान से निछावर हुई जा रही है। वे थोड़ी हड़बड़ी में थे। उन्होंने बच्चों को डाँटा, और ऊपर भगाया, आशा से बताया कि सिर दर्द से फटा जा रहा है और आराम करने जा रहा हूँ। कोई आए तो बोल देना, “बीमार हैं।” उन्होंने हिदायत दी, “और देखो! नीचे उतरने की ज़रुरत नहीं, जंगले से ही बोलना।”
आशा घबड़ाई। उसने उनका माथा छुआ— थोड़ा जलता हुआ-सा लगा। उसे परेशानी इस बात से हुई कि अभी-अभी सिगरेट के लिए बाहर निकलने से पहले एक़दम ठीक-ठाक थे। उसने माथे पर तेल दाबने का आग्रह किया लेकिन देवनाथ उखड़ गए, “जितना कहते हैं, उतना ही सुना करो।”
वह मन मारे सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ी।
उन्होंने दरवाज़ा उढ़काया, रज़ाई खींची और मुँह ढककर लेट गए। सेमल की रुई वाली तकिया के बीचों-बीच सिर दबाया ताकि अगल-बग़ल के हिस्से उठ जाएँ और उनसे दोनों कान ढक जाएँ।
फिर अचानक रज़ाई फेंककर वे सीढ़ियों पर दौड़े, “यह मत कहना कि बीमार हूँ, कहना कि बाहर गए हैं—आउट ऑफ़ स्टेशन।”
अपनी ओर से पूरा एहतियात बरतकर वे नीचे आए और पहले की तरह लेट गए। उनका ध्यान बार-बार ‘ख़तरे’ पर केंद्रित हो रहा था और वे बार-बार दिमाग़ को उधर से भगा रहे थे और किसी ऐसी बात पर स्थिर करना चाहते थे जो रोचक भी हो और लाभदायक भी, “इससे नींद आने में सहूलत होगी” उन्होंने सोचा और कोशिश करके वह ‘बिंदु’ पकड़ लिया। ‘मानस नगर’ में वे जो बंगला बनवाएँगे, उसमें चारदीवारी के चारों कोनों पर अशोक के पेड़ होंगे, सामने ख़ूबसूरत-सा लॉन होगा और ‘अतिथि कक्ष’ इतना सुसज्जित और भव्य होगा कि कमिश्नर साहब सर्किट हाउस में ठहरने के बजाए यहीं रुकना पसंद करें। उस समय तक वे भी ‘ए’ क्लास में पहुँच गए रहेंगे और उन्हें आने में आपत्ति न होगी। ‘अतिथि कक्ष’ का नक़्शा कैसा हो, यह सोचने हुए उन्होंने ‘मसूरी’ और ‘नैनीताल’ के कुछ कॉटेजों को याद करना शुरू किया।
इसी बीच बाहर कुछ हलचल की आहट मिली और आशा ने दरवाज़ा खोल दिया। “सुनो, इस चौक में आसपास देऊ नाम का कोई किराएदार तो नहीं है न?”
उन्होंने पत्नी की ओर ताकते हुए अपना माथा ठोंका।
“मैं कब से मकान-मालकिन से कह रही हूँ लेकिन कोई बूढ़ा देहाती ज़िद कर रहा है कि नहीं, यही है।” आशा ने सफ़ाई दी।
देवनाथ उठकर बैठ गए, रज़ाई एक किनारे की और पाँव चप्पल में घुसेड़ा। उन्हें पत्नी की बुद्धि पर तरस आया और सोचा— समझदार के लिए इशारा ही काफ़ी होता है लेकिन...” वे ग़ुस्से में बग़ैर उससे बोले, ‘ड्राइंग रुम’ पार करते हुए बाहर आ गए।
“अरे बेंचू बाबा!” वे आँखे मलते हुए दरवाज़े पर खड़े थे, “कहाँ से चले आ रहे हैं? कोई परेशानी तो नहीं हुई?”
बेंचू बाबा के सिर पर गगरा था। उन्होंने हाँफते हुए उसे उतारा, हाथ में उठाए ‘ड्राइंग रुम’ में दाख़िल हुए और लाठी एक कोने में खड़ी की। फिर भेड़ के ऊन वाला कंबल सोफ़े की बाँह पर रखा, पगड़ी खोली और चेहरे को छिपाए दाढ़ी-मूँछों के झाड़ को उसके एक किनारे से रगड़ा और कमरे के चारों तरफ़ ऊपर-नीचे नज़र डाली। अंत में, शीशा मढ़े मेज़ की दूसरी तरफ़ क़ालीन बिछे तख़्त पर देवनाथ की ओर देखते हुए आँखें मिचमिचाकर मुसकराए।
कुछ देर चुपचाप मुसकराते रहने के बाद उठकर उनके पास पहुँचे और दोनों हथेलियों से सिर, जबड़े, कंधे, बाँहें, घुटने टटोलकर-दबाकर छूकर देखा। फिर अपनी आँखें उनके चेहरे के पास ले गए और फफक पड़े, “बचवा! देऊ! तू ही है न! सपना हो गया तू। अरे, अपना गाँव-घर है। बाप-दादा की निशानी है। कोई दूर भी नहीं गया है। कभी-कभी तो आया कर। काम वही देगा। घूम-फिरकर वही आएगा, बताये देते हैं।”
बाबा अपनी आदत के मुताबिक़ इस तरह चिल्ला-चिल्लाकर बोल रहे थे जैसे देवनाथ बहरे हों।
अब तक देवनाथ के दोनों बच्चे दरवाज़े पर खड़े हो गए थे और कुतूहल और डर से बाबा को देख रहे थे। वे उन्हें देखते, फिर एक-दूसरे की ओर ताकने लगते।
दरवाज़े पर बच्चों के खड़ा होने से ड्राइंग रूम में कुछ अंधेरा जैसा हो गया था जिसका आभास बाबा को मिल गया। उन्होंने देवनाथ से पूछा, “अपने ही पोते हैं न?” देवनाथ ने जैसे ही सिर हिलाया, बाबा हाथ बढाए खड़े हो गए। उन्होंने लपकते हुए छाती पर हाथ रखकर अपना परिचय दिया, “पहचानते हो बाबा को?”
बच्चे उन्हें आगे बढ़ते देखकर उल्टे पाँव भागे।
“नहीं पहचानते और पहचानेंगे भी कैसे?” वे देवनाथ को देखकर हँसने लगे और अपनी जगह आ बैठे, “देखो! कितने बड़े हो गए हैं सब। समय जाते देर नहीं लगती, जब इत्ते से थे, तभी मैंने देखा था।”
देवनाथ ने हामी भरी लेकिन उनकी हँसी में साथ नहीं दिया। वे उठे और अंदर गए। मेज़ पर गिलास और पानी में भरा जग रखा और कुछ लाने के लिए ऊपर चले गए।
आशा गैस पर चाय बना रही थी और बच्चे उसके अगल-बग़ल खड़े होकर उसे वह सारा कुछ सुना रहे थे जो नीचे देख गए थे। छोटा उसका गाउन खींच-खींचकर कुछ अचंभे की बातें बता रहा था।
“सिर्फ़ चाय से नहीं चलेगा?” रसोई के दरवाज़े पर खड़ा होकर देवनाथ बोले।
आशा उनकी ओर मुड़ी, “यह देहाती भुच्च है कौन जी?”
“गाँव पर हमारे घर के बग़ल वाले नहीं हैं सुदामा? हमारे पट्टीदार? उन्ही के बाप हैं?” उन्होंने ख़ुलासा किया।
“देऊ”, बड़ा बच्चा धीरे-से बोल और ताली पीटते हुए अंदर भागा। देवनाथ ने उसे दौड़ाने का अभिनय किया और सारे लोग एक साथ हँस पड़े।
आशा गंभीर हो गई और कुछ देर सोचती हुई खड़ी रही। वह सोच रही थी चाय के ‘सिवा’ की चीज़ के बारे में। उसे कुछ सूझ गया। वह रसोईघर से निकलकर पीछे वाले कमरे में गई, अटर-पटर किया और तश्तरी में दो मिठाइयाँ रखकर आ गई।
देवनाथ तश्तरी अपनी नाक के पास ले गए और मुँह बनाया, “ये तो मुँकुड़ियाई लग रही हैं और बहुत बदबू भी कर रही हैं। कब की हैं?”
“पिछले हफ़्ते ही तो अगरवाल दे गया था! जाने कैसी भिजवाई कि किसी ने छुआ तक नहीं। महरी ले गई सब! बस यही दो रह गई थीं उनके भाग से।” उसने तश्तरी रख दी और चाय ढालने लगी।
“और कल जो शामलाल दे गया था?”
“तुम तो ख़ामख़ा एक न एक फुचंग लगाते रहते हो। उनके लिए तो मिठाई ही बड़ी बात है। मिलती कहाँ होगी गाँव में?” उसने तश्तरी के बग़ल में चाय भी रख दी।
देवनाथ ने अपने भीतर बाबा के लिए हमदर्दी महसूस की। यह ठीक है कि उन्हें अच्छे-ख़राब का पता नहीं चलेगा और पसंद आएगी। लेकिन जिस टोन में आशा ने कहा था, उन्हें थोड़ा खल गया।
उन्होंने चुपचाप प्याला और तश्तरी उठाई और नीचे आए। उन्होंने अपने ड्राइंग रूम की इस दुर्गति की कल्पना नहीं की थी। यह तो अच्छा हुआ था कि अभी थोड़े दिन पहले क़ालीन उठवाकर रखवा दिया था वरना सब चौपट था। दरवाज़े से लेकर मेज़ और सोफ़ा तक का फ़र्श पानी में भीगा था। ज़ाहिर था कि बाबा ने हाथ-पैर धोए होंगे और कुल्ला किया होगा। उनकी लाठी तो कोने में खड़ी थी लेकिन दूसरे सामानों के साथ वे अंदर वाले कमरे में चले गए थे।
भीगे पैरों के निशान चौखट की ओर जाते दिखाई पड़े। “गया! गया सारा कुछ।” उनके भीतर डर पैदा हुआ। उन्होंने आवाज़ दी, “बाबा!” और अंदर घुसे। बाबा उनकी पलंग पर लेटे हुए थे। उनके एक पैर पर दूसरा पैर था जिसके तलवे बिवाय से फटे और मिट्टी से सने थे। उन्होंने साफ़-सुथरे धुले चादर पर तीन-चार गहरे मटमैले निशान देखे और उनका दिल बैठ गया। उन्हें बुरा तो बहुत लगा लेकिन अफ़सोस अपने पर ही हुआ, “अगर बाथरूम दिखाकर समझा दिया होता तो ऐसा न होता। लेकिन उन्हें भी तो पूछ लेना चाहिए था।”—उन्होंने मन ही मन कहा।
“लीजिए, चाय है।” देवनाथ ने मेज़ पर तश्तरियाँ रखते हुए कहा।
बाबा कराहते हुए उठे और एक मिठाई उठाकर उसे ग़ौर से देखा, बचे हुए बग़ल के दाँतों से कुटका, देवनाथ को देखते हुए सिर हिलाया और मुँह खोलकर अंदर फेंक दिया। बताओ, ऐसी चीज़ें देहात में कहाँ मयस्सर होती हैं?
मिठाइयाँ ख़त्म करने के बाद उन्होंने चाय दो-तीन बार फूँकी और ज़ोर से सुड़क ली। पहले ही घूँट में जीभ जल गई। उन्होंने ‘जुड़ाने’ के लिए नीचे रख दिया।
“यह कोठा भी अपना ही है?” उन्होंने उँगली से छत की ओर इशारा किया, फिर कमरे में दिखाई पड़ने वाली एक-एक चीज़ के बारे में तफ़सील से पूछने लगे। फ़ोटो, पेंटिंग, मिट्टी और धातु की मूर्तियाँ, खिलौने, ‘टू इन वन’, कैसेट स्टैंड, ड्राइंग रूम के सोफ़ा, क़ालीन—वे पूछते जाते और छू-छूकर देखते जाते। ज्य़ादातर चीज़ें उनकी समझ में नहीं आ रही थीं। और कुछ थी जिनका दाम सुनकर वे चौंक उठते और बताते कि इतने में तो एक बैल या भैंस या गन्ना पिराई की मशीन आ जाती। फ़ोटो दीवारों के ऊपर थे इसलिए उन्हें लाठी के हूरे से छूकर पूछा। लेकिन सबसे अधिक हैरत उन्हें हुई फूलदान में रखे हुए पत्तियों समेत गुलाब के फूल को देखकर। यह कैसा फूल है जो इतने दिनों में न सूखा है, न बढ़ा है और बिना खाद-माटी के केवल पानी में हरा-भरा है?
देवनाथ उनके पीछे-पीछे घूमते हुए झुँझला रहे थे लेकिन भीतर ही भीतर ख़ुश भी हो रहे थे कि बाबा जाकर घूम-घूमकर देहात में उनके वैभव का ढिंढोरा पीटेंगे।
“यह प्लास्टिक का है।” उन्होंने हँसते हुए ऊँची आवाज़ में बताया।
“हूँ! तभी तो!” बाबा फूलदान समेत गुलाब नाक तक ले गए, उसकी पत्तियों और पंखड़ियों को चुटकियों में मसला और फिर उसकी जगह रख दिया, “ख़ुश कर दिया बेटा! अरियात-करियात में कमाने वाले तो बहुत हैं लेकिन तैने जितना जुटाया है, तेरी जो इज्जत और शोहरत है, भगवान करे, बनी रहे।”
देवनाथ उनके पीछे खड़े होकर नम्र भाव से हथेलियाँ मीजते रहे।
“अच्छा, यह बता कि सब ससुराल से मिला था या ख़रीदा है?” उन्होंने फ़िर पलंग पर बैठते हुए जिज्ञासा की। इसके सिवा दो-चार और बातें, जिनमें उनकी तनख़्वाह और ऊपरी आमदनी भी थी, पूछकर, संतुष्ट होकर और अभिमान से छाती तान करके चाय गटक ली, फिर जालीदार खिड़की के पास खड़े हुए, अँगूठे से दाईं नाक दबाई और साँस खींचकर ज़ोर से छिनका, “बहुत ख़ूब देऊ! बस एक गैया ही बाकी है। वह भी हो जाए तो लड़कों बच्चों के लिए गोरस की चिंता ही ख़तम!”
बच्चों का ख़याल आते ही वे फिर बैठ गए, “देवनाथ! जब मैं तेरे पास चलने को हुआ तभी विचार आया कि उसे तो कच्चा रस बड़ा अच्छा लगता था और सिवान में बड़े चाव और उल्लास से हो रहा खाता घूमता था। अब उसे कहाँ मिलता होगा? लड़के हैं, बाले हैं, पतोह हैं—ये सब तरस जाते होंगे। शहर में सब कुछ है लेकिन यह सब तो नहीं है न! सुदामा बड़बड़ाते रहे, लेकिन मैंने कहा— नहीं, जब हम बेटे के यहाँ जा रहे हैं तो ऐसे नहीं जाएँगे। खरपत से तोखवा नीम वाले खेत से मटर उखड़वाया, होरहा भुनवाया और कोल्हुआड़ से गगरे-भर रस मँगवाया। यह देखो...” उन्होंने गगरे में ऊपर झाँकता आम का पल्लव बाहर निकाला और फ़र्श पर बूँदें टपकाते पत्तों समेत अंदर डाल दिया, “और यह देखो।” उन्होंने गमछे में बँधी झोली खोलनी ही शुरू की कि देवनाथ के प्राण सूखने लगे। उन्हें लगा कि अब वे मुट्ठी-भर उठाकर ऊपर से नीचे गिराएँगे और सारा बिस्तर गंदगी से भर जाएगा लेकिन बाबा ने दिखाकर बाँध दिया।
“तो दे आओ। कहाँ मयस्सर होता होगा सबको!” उन्होने अपनी बात ख़तम की।
देवनाथ फ़र्श पर फैली हुई बूँदों को देख रहे थे और सोच रहे थे—थोड़ी देर बाद यहाँ चीटियाँ और चिऊँटे आएँगे, पूरी फ़र्श चिट-चिट करने लगेगी और दोनों कमरे इस जाड़े मे धुलवाए बग़ैर काम न चलेगा।
“आप चले किस मतलब से हैं, यह तो बताया नहीं?” देवनाथ ने पूछा।
“मतलब?” बाबा को यह सवाल बड़ा ही अटपटा लगा। वे कुछ देर घूरते रहे, “तू मुझसे मतलब पूछ रहा है? बाप किस मतलब से बेटे के यहाँ जाता है?”
देवनाथ अपनी ग़लती पर अचकचाए, “नहीं बाबा, मेरे पूछने का मतलब था कि किसलिए आए हैं?”
“हाँ, तो ऐसे पूछ!” बाबा ने राहत की साँस ली, “है यह बेटा कि अस्पताल में भरती होना है। जिस किसी अस्पताल में करवा दो। अब बर्दाश्त नहीं होता। कभी-कभी ऐसा दरद उठता है पेट में कि पूछो मत। ग़श आ जाता है। तीन साल से। लेकिन इधर जब चाहे, होने लगता है।”
बाबा बोलते गए और देवनाथ मुँह लटकाए चुपचाप सुनते रहे, टट्टी के बारे में, पेशाब के बारे में, भूख के बारे में, घुटनों और रीढ़ के दर्द के बारे में, साँस फूलने के बारे में—और इन सब बातों से नतीजा निकलता था कि अस्पताल में भर्ती हुए बिना काम न चलेगा। देवनाथ बड़े आदमी हैं, उनका इतना नाँव-गाँव है और सभी डॉक्टर-हक़ीम उनके दोस्त-मित्र होंगे। वे चाहेंगे तो भर्ती भी हो जाएँगे और दवा-दारू का बंदोबस्त भी हो जाएगा।
“ऐसे”, उन्होंने गंजी नीचे से उठाई और धोती की मुर्री की ओर इशारा किया, “चिंता न करना। सुदामा की चोरी के कुछ रुपए बचा के रखे हैं मैंने...लेकिन ऐसा करो, यह रस और हो रहा पहले ऊपर पहुँचा आओ। बच्चे जोह रहे होंगे कि बाबा क्या लाए हैं?”
देवनाथ या तो सुन नहीं रहे थे या बड़े ग़ौर से सुन रहे थे। वे गुमसुम फ़र्श की ओर ताक रहे थे जहाँ चीटियाँ क़तारें बनाने में लग गई थीं। उनके माथे पर चिंता की रेखाएँ थी क्योंकि बाबा उन्हें कहीं से रोगी नज़र नहीं आ रहे थे। वे थोड़ी देर चुटकियों में अपनी भौंहें मसलते रहे।
“चिंता क्यों करता है पागल!” बाबा ने उठकर उनकी पीठ थपथपाई और बाँह पकड़कर खड़ा कर दिया, “उठ! दे आ!”
देवनाथ ने बत्ती जलाई और गगरा-गमछा लेकर ऊपर चले।
डाइनिंग हॉल में कुर्सियों पर बैठकर बच्चे किताब पढ़ रहे थे, “गर्मी का मौसम था। एक पेड़ पर मैना बैठी थी...” गगरा देखते ही वे किताब-कॉपी छोड़ कर दौड़े। दोनों ने उसके भीतर एकसाथ ही झाँका कि बड़े ने हाथ डालकर उसके अंदर से लकड़ी निकाली तो आम का पल्लव नज़र आया। दूसरे ने चिल्लाकर उसकी गरदन पर चिपका गोबर दिखाया और दोनों ने मम्मी से कहा, “देखो, कहा था न हमने? बुढ़वा देखने से ही गंदा लग रहा था।”
आशा कुर्सी पर बैठे-बैठे सब्जी काट रही थी। उसकी नज़र बराबर देवनाथ पर थी जो दूसरे सिरे पर कुर्सी खींचकर बैठ गए थे और चुप थे।
“रात को ठहरेगा क्या?” उसने पूछा।
देवनाथ ने झल्लाकर कहा, “मैंने तुमसे कहा था कि कह देना, नहीं है। अब भोगो!”
“अक़ल नहीं है क्या तुम्हें? शहर का होता तो लौट भी जाता लेकिन ये...”
“लीपा-पोती मत करो। कह रहे थे कि चौक में कहीं अपने यहाँ का बुद्धू गोड़ रहता है। वहाँ भी जा सकते थे और हम न मिलते तो कौन जाने, चले ही जाते।”
आशा चुप हो गई और आलू छीलने लगी।
“अस्पताल में भरती होने के लिए आए हैं। एक तो किसी तरह भरती कराओ, दूसरे देखभाल करो, दवा-दारू ख़रीदो, डॉक्टर के कहे के मुताबिक़ खाना बनवा के पहुँचाओ।”
“क्यों नहीं कह देते कि फ़ुर्सत नहीं है मुझे!”
“तुम्हें कुछ पता नहीं है गाँव का। पिता के बड़े भाई हैं ये। सगे भाई। अभी दस साल पहले अलग हुए थे। अपने बेटे से ज़्यादा मानते रहे हैं मुझे। ऐसे ही लौट जाएँगे तो लोग ताना मारेंगे— कहिए, क्या हुआ आपरेशन का? किस हौसले से गए थे? अपना बेटा है, आकाश-पाताल एक कर देगा, कुछ उठा नहीं रखेगा। समझा?”
“अपने बेटे को क्यों नहीं लाए?”
“सुदामा? सोचा होगा कि वह चला जाएगा तो खेती बरबाद हो जाएगी। अकेला लड़का है। दूसरे, वह इन्हें घास भी तो नहीं डालता। परवाह ही कहाँ है उसे इनकी। अरेरेरे...”
देवनाथ लपके। बच्चे गगरा घसीटकर मोरी के पास ले गए थे और सारा रस ढुलका रहे थे। जब तक वे पकड़ते वह ख़ाली हो चुका था। उठाकर उसे हिलाया तो मालूम हुआ, एक-आध लोटा बच गया है। उन्होंने बड़े को कान पकड़कर हटाया।
“जाने कैसा बदबू कर रहा था पापा!” बड़े ने बताया।
आशा बोली, “छोड़ दो। सुबह महरी को दे देंगे।”
देवनाथ फिर माथा पकड़कर बैठ गए। उनकी बुद्धि काम नहीं कर रही थी। आशा भी गंभीर होकर चावल बीनने लगी थी। बीच-बीच में नज़रें उठाती और उन्हें देख लेती। जब देवनाथ की आँखें उसकी आँखों से मिली तो भुनभुनाई, “समझ लो तुम! इतना कहे देती हूँ कि मुझसे रोज़-रोज़ का खाना नहीं बनेगा। यही है तो कोई नौकर रखो, चाहे जो करो। एक-दो दिन की बात और है। बाबा या जो भी होंगे, तुम्हारे होंगे। मेरे कुछ नहीं हैं। अपनी पतोहू लाएँ, किराए का कमरा लें या धर्मशाला में रखें, बनवाएँ-खाएँ। मैं यह सब लफड़ा नहीं पालती!”
बच्चे भी बुजुर्गों की तरह गाल पर हाथ रखे कुर्सियों पर चुपचाप बैठ गए थे और पापा-मम्मी की बातें ध्यान से सुन रहे थे। जब एक बोलता तो वे बोलने वाले की ओर नहीं, सुनने वाले की ओर देखते और प्रतिक्रियाएँ समझने की कोशिश करते।
लेकिन देवनाथ को देखकर नहीं लग रहा था कि उन्होंने आशा की बातें सुनी हों। वे सिगरेट पीते हए कभी सिर खुजाते और कभी पिंडली!
“एक मुश्किल और है! अगर इन्हें भरती करवाया, तीमारदारी की, दवा की, खाना पहुँचाया और मान लो, ठीक हो गए तो गाँव-जवार में घूम-घूम कहते फिरेंगे, गुण गाएँगे, बड़ाई करेंगे और उसके बाद सारी ज़िंदगी भुगतो। जिसे भी जुक़ाम होगा, रोग के नाम पर शहर घूमने, हवा-पानी बदलने, सर्कस देखने आया करेगा। आपरेशन और मरने वालों की तो बात ही छोड़ो।” वे अपने आप बोलते रहे।
आशा मुँह फुलाए हुए उठी और गैस जलाकर अदहन रख दिया।
देवनाथ ने सिगरेट फेंकी और नीचे चले।
बाबा पलंग पर खर्राटे ले रहे थे। उनकी आँखें थोड़ी-थोड़ी खुली थी और ओंठ ‘फुर्र-फुर्र’ करते हुए साँस के साथ फड़क रहे थे। उनके ओठों के बाएँ किनारे से लार बहकर तकिए को भिगो रही थी। सबसे भोंडी बात यह थी कि कमरे में जाने कहाँ से मक्खियाँ आ गई थी और उनके चेहरे और गरदन पर उड़ने लगी थी।
देवनाथ ने तुरंत अपना सूट पहना और टाई की गाँठ ठीक की, बाबा को जगाया और बाहर आकर स्कूटर स्टार्ट करने लगे। उन्हें लाठी के साथ निकलते देखकर फिर उसे खड़ा कर दिया।
“इसकी ज़रूरत नहीं! डॉक्टर के यहाँ चल रहे हैं, राय-बात करेंगे।” उन्होंने ऊँचे स्वर में कहा और लाठी अंदर रख दी।
वे जिस समय आशा से मशविरा कर रहे थे, उन्हें अपने दोस्त डॉक्टर गर्ग याद आ रहे थे जो शहर के एक किनारे रहते थे और थोड़े दिन पहले ही किसी काम से इनके घर आए थे। पेट्रोल के ही ख़र्च की बात थी वरना उनसे काम बन सकता था। उन्होंने छोटा-मोटा मोह छोड़ने का फ़ैसला किया था और अब शहर के बीच से बाबा को उड़ाए लिए जा रहे थे।
पीछे बैठे बाबा को डर भी लग रहा था और मज़ा भी आ रहा था। वे देवनाथ की सीट का पिछुआ कसकर पकड़े हुए इस तरह तन गए थे जैसे रस्सी पकड़े हुए हेंगा पर खड़े हों। वे अगल-बगल बत्तियों से जगमगाती हुई दूकानों को देख लेना चाहते थे लेकिन मुश्किल यह पड़ रही थी कि बाएँ देखते तो दाएँ की दुकानें छूट जातीं और दाएँ देखते तो बाएँ की। और कभी-कभी तो डर के मारे दोनों तरफ़ की दूकानें बिना देखे ही निकल जातीं। लेकिन भीड़-भड़ाके के बीच जिस बारीकी से देवनाथ स्कूटर निकाल रहे थे, बाबा उनके कौशल पर रीझ-रीझ उठते थे और अनजाने ही कभी उनके मुँह से ‘वाह’ फूट पड़ता और कभी ‘हँसी’। स्कूटर जब खुली सड़क से गुज़रा तो उन्हें थोड़-थोड़ी सिहरन महसूस होने लगी। उन्होंने पगड़ी खींचकर कान ढँकना ही चाहा कि एक बड़ी इमारत के सामने वह खड़ा हो गया।
उन्हें इस तरह उसका अचानक रुकना अच्छा नहीं लगा लेकिन देवनाथ उसकी हैंडिल पकड़े खड़े हो गए थे। बाबा के उतरने के ढंग से स्कूटर उलटते-उलटते बचा। उसे गरियाते हुए वे ज़मीन पर खड़े हुए और दुकानों पर सरसरी नज़र डालते हुए देवनाथ के पीछे ‘दवाख़ाना’ में घुसे। मरीज़ों की भीड़ देखकर उन्हें इत्मीनान हुआ कि देवनाथ कोई ऐसे-वैसे डॉक्टर के पास नहीं लाया है।
जहाँ लोग बारी-बारी से बुलाए जाने पर पर्दे के अंदर जा रहे थे, वहीं देवनाथ बिना किसी रोक-टोक के बे-खटके अंदर चले गए। इस बात पर बाबा ने चारों ओर देखा। उन्होंने अपने सामने बेंच पर बैठे मरीज़ से ख़ुश होकर बताया, “अपना बेटा है! साहब है!” थोड़ी देर बाद ही एक आदमी सहारा देकर उन्हें भीतर ले गया।
डॉक्टर की उम्र कोई ज़्यादा नहीं थी फिर भी अनुभवी और क़ाबिल लग रहा था। देवनाथ की तरह उसने भी उन्हें ‘बाबा’ कहा और प्रेम से बातें शुरू की। देहात के बारे में, घर के बारे में, खेती-बारी के बारे में। उन्होंने संदेह से देवनाथ को देखा, जैसे यह कैसा डॉक्टर है जो रोग के बारे में पूछ ही नहीं रहा है। लेकिन उसने धीरे-धीरे जब उनकी पलकें, पपोटे, जीभ, पीठ, छाती, घुटने मशीन लगाकर, औज़ार से ठोंक-ठोंककर देखना शुरू किया तो उन्हें समझते देर नहीं लगी। उसने कई एक सवाल किए और इन्होंने साँसे ले-लेकर विस्तार से बताए।
उसके बाद वह एक ओर पर्दे के पीछे ले गया और पीठ के बल लिटाकर पेट इधर से, उधर से दबाकर टट्टी, पेशाब, हाज़मे और दर्द के क़िस्म के बारे में देर तक पूछता रहा। अंत में कपड़े ठीक करके बाहर जाने के लिए कहकर कुर्सी पर आ बैठा।
उसने देवनाथ से अपना संदेह ज़ाहिर किया, “शायद आरंभिक स्टेज़ है। एक्स-रे, जाँच वग़ैरह तो कराएँ ही, बायोप्सी ज़रूरी है। चिंता की कोई बात नहीं, ठीक हो जाएगा।”
बाबा ने अंतिम वाक्य सुन लिया और देवनाथ के बगल में खड़े हो गए। लेकिन तब तक अंग्रेज़ी में बातें होने लगी थी और उन दोनों की अड़वी-तड़वी उनके पल्ले नहीं पड़ रही थी।
बाबा को अपना मुँह जोहते हुए देखकर डॉक्टर ने कहा, “देवनाथ जी को बता दिया कि आपको कुछ नहीं है।”
गले में अटके आला, मेज़ और कमरे के दूसरे औज़ारों को देखते हुए कृतज्ञ भाव से बाबा ने हाथ जोड़े, “भगवान आपको लंबी उमर दे, सरकार !”
कहने के तुरंत बाद ही वे शर्मा गए। स्कूटर पर बैठने के पहले देवनाथ से हँसते हुए बोले, “तहसील की आदत है, देऊ। ज़बान से “सरकार” निकल गया। डॉक्टर साहब नाराज़ तो न होंगे?”
देवनाथ का जवाब स्कूटर की आवाज़ में खो गया। दोनों जब रवाना हुए तो बाबा ख़ुशी से पिहक रहे थे, “अब जान में जान आई है बेटा। संतोष हुआ है। लेकिन तू ग़मगीन क्यों है?”
देवनाथ ग़मगीन तो नहीं थे, चिंतित ज़रूर थे। वे जिस मुसीबत से बचने के लिए दौड़-धूप कर रहे थे, वह उन्हें गले पड़ती हुई नज़र आ रही थी। यह तो था कि अस्पताल और जाँच के बवाल को अपने सिर नहीं लेना चाहते थे लेकिन कहीं न कहीं उनके मन में यह भी था कि अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, अच्छे हो सकते हैं। कोई पराए भी नहीं हैं, अलगा-गुज़ारी न होती तो सब एक ही थे।
उन्हें परेशानी से बचने का एक दूसरा उपाय भी सूझ रहा था लेकिन अड़चनें वहाँ भी थी। मान लो, सुदामा से बताएँ और अपने बड़प्पन का फ़ायदा उठाते हुए लापरवाही के लिए उसे डाँटे तो भी वह बौड़म आदमी ठहरा। ले-दे के यही पहुँचेगा और कौन जाने, पूरा घर-दुआर पटक जाए। फिर एक की जगह पूरी बारात सँभालें। वह तो छोड़ के अपनी खेती-बारी देखने वापस लौट जाएगा और यहाँ मरो।
फ़िलहाल के लिए उन्हें लगा कि चुप मार जाओ और इस बात की चर्चा कहीं किसी से मत करो।
घर के आगे स्कूटर से उतरते हुए बाबा ने पूछा, “डॉक्टर का पुर्ज़ा तेरे पास...”
“इससे आपको मतलब?” देवनाथ ने प्यार से बिगड़ते हुए कहा, “आप खाना खाएँ, मैं अभी आ रहा हूँ।”
बाज़ार चलते समय उनके दिमाग़ में जो दवाएँ आई थीं, उन्हें वे रास्ते में भी ख़रीद सकते थे, लेकिन बाबा पीछे-पीछे लगे रहते और देखते कि कितने पैसे खर्च हो रहे हैं? ऐसे तो पूछने पर कुछ भी बताने के लिए स्वतंत्र थे। साथ ही रास्ते में होने पर इतनी आसानी से मिलने वाली दवाओं के महत्त्व के बारे में उन्हें संदेह हो जाता। उन्होंने काफ़ी सोचने-विचारने के बाद तीन पैसे वाली ‘बी कांप्लेक्स’ की सौ गोली, पाँच पैसे वाली ‘लिव फ़िफ्टी टू’ की पचास और ऐसे ही दर्द की दस टिकियाँ लीं। उन्हें अलग-अलग शीशियों में रखवाया। उन्हें राहत मिली कि सारा मामला दस रुपए के अंदर ही निपट गया।
अब वे बाबा के सामने बैठकर थकी हुई लंबी-लंबी साँसे ले रहे थे और साँस फूलने के कारण चाहते हुए भी बोल नहीं पा रहे थे।
बाबा खा-पीकर कंबल ओढ़े अपनी गंजी खोपड़ी पर चंपी कर रहे थे और उन्हें देखकर सुख से मुसकरा रहे थे। गंध से ही देवनाथ को पता चल गया था कि यह तेल नहीं, डेटॉल है जो उनके दाढ़ी बनाने के सामानों के बीच रखा हुआ था। बाबा को भी शक था क्योंकि वे बार-बार हथेली का गाज देखते और उसे अपनी नाक के पास ले जाते।
इस वक़्त देवनाथ को उनकी यह हरक़त देखकर न ग़ुस्सा आ रहा था और न झुँझलाहट हो रही थी। वे साँस को सामान्य बनाने की कोशिश में लगे थे।
“ये हैं आपकी दवाएँ!” उन्होंने शीशियाँ बाबा के आगे रख दीं। फिर एक-एक करके बताना शुरू किया कि इन्हें कैसे-कैसे और कब-कब खाना है?
बाबा ने शीशियों पर निगाह नहीं डाली। वे चुपचाप उन्हें देखते रहे। उनकी पकी हई बरौनियाँ बिना हिले-डुले पलकों के सिरों पर खड़ी रहीं। उनके होंठों से एक धीमी आवाज़ आई, “तैने खाना खाया?”
“अभी नहीं। खा लेंगे।”
बाबा ने पलकें गिराई और सिसकने लगे, अगहन-कातिक से कहता आ रहा था सुदामा से कि चलो, अस्पताल दिखा दो। कोई एक दिन निकालो। बस, चले चलो। लेकिन उसे मौक़ा नहीं। उसकी मेहर ऐसे-ऐसे विंग बोलती है कि चौके से बग़ैर खाए उठ जाना पड़ता है। आज ही जब रस लेके चला तो रोक लिया सुदामा ने। कहा— कोस-भर सिर पर गगरा लादे कैसे जाओगे? हमने कहा कि खरपत को लगा दो। मोटर तक पहुँचा दे। तो बोला— ख़ाली नहीं है। उसके मन में तो चोर था कि इतने रस में जो ही दो-चार पिंडिया गुड़ होता। उसकी मेहर से कहा कि थोड़ी खुरचन वाली भेली दे दो। होरहा के बाद क्या खा के पानी पिएगा? लेकिन बेटा, अपना दुखड़ा रोएँ भी तो किसके आगे रोएँ?”
वे कहते-कहते फूट-फूटकर रोने लगे, “और एक तू है। जब हम चले थे तो सारा गाँव मुझ पर हँस रहा था। समझ रहा था कि तू हमें भी पट्टी पढ़ा देगा। लेकिन तू है कि दिन-भर से अपना हर्जा करके दौड़ रहा है और वह भी किसके लिए? एक बार भी नहीं पूछा कि इतने की दवा कैसे आएगी?”
वे बोलते जा रहे थे, रोते जा रहे थे और नाक पोंछते जा रहे थे, “जब छोटा था तो अपने कंधे पर बिठाए-बिठाए खेतवाही करता था, पूरा गाँव घूमता था, भदाहूँ के मेला ले जाता था। हाँ, मारा था केवल एक बार। और बड़ी मार मारा था। पैना-पैना! सो भी तेरे बाप के कारण। तब वह ज़िंदा था। उसने कह दिया कि भैया देवनाथ को ख़राब कर रहे हैं और ग़लती तेरी भी थी। तैने औरों के बहकावे में आकर रात के बख़त सोते अलगू को खटिया समेत उठाकर संवत में डाल दिया था।”
वे पूरे हाव-भाव के साथ सुनाते हुए रोते-रोते हँसने लगे, “बस, तेरी एक ही आदत ख़राब थी। कंधे पर बैठे मूतने वाली। तू ससुर...”
वे वाक्य पूरा नहीं कर सके, हँसते रहे। फिर आँख, नाक और जबड़ों पर उगी सफ़ेद भीगी खूटियाँ पोंछकर देवनाथ को अपने पास बुलाया। फैले हुए कंबल को खींचते हुए उन्हें इतना क़रीब बिठाया जितने से उनका हाथ सिर के बाल सहला सके। सिर और पीठ पर हाथ फेरते हुए उन्होंने रहस्यपूर्ण ढंग से उनकी आँखों में झाँका, “डॉक्टर ने तुमसे भी बताया न कि कहीं कुछ नहीं है?”
“हाँ, तो! आपने भी तो सुना!” पहले तो देवनाथ उनके पूछने के तरीक़े से दहल गए थे लेकिन तुरंत सँभाल लिया।
“बस, यही सुनना चाहता था।” बाबा ने उनकी पीठ ठोंकी और ख़ुश हो उठे, “जा! अब खा के सो जा। कल तड़के ही चले जाएँगे।”
“नहीं, कल कैसे जाएँगे? अभी-अभी तो आए हैं।”
“अरे अब हो गई न तेरी वाली! जा, जाके खा।”
वे धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ‘डाइनिंग हॉल’ के दरवाज़े तक आए और खड़े हो गए। अंदर के कमरे में अँधेरा था लेकिन कोई सोया नहीं था। आशा बच्चों को सुना रही थी बुढ़ऊ की खुराक़ और उनके चपर-चपर खाने के ढंग और कमरे के कबाड़े के बारे में और इस बारे में कि तुम्हारे पापा के गाँव के लोग कितने फूहड़ और कितने गँवार और कितने मरभक होते हैं। और बाप रे! कितना चिल्ला-चिल्लाकर बोलते हैं, रे रे करके!
“मम्मी, पापा ने बाहर ताला लगा दिया होगा न?” किसी बच्चे ने जमुहाते हुए धीमे स्वर में पूछा। फिर आशा और बच्चों की आवाज़ बंद हो गई। शायद उन्हें नींद आ रही हो।
वे वहाँ कुछ देर और खड़े रहे। किचेन दिखाई पड़ रहा था लेकिन उन्हें भूख नहीं थी। उनकी नज़र उस गगरे पर चली गई जो बाबा के सिर पर बस और पैदल साठ-सत्तर मील का फ़ासला तय करके मोरी के पास पहुँचा था। वे भावुक हो गए और उनकी आँखें भीग आईं।
वे दबे पाँव जंगले के पास आए और चौखट पर बैठ गए। बाहर जाड़े की ठंड और सन्नाटा था। उनकी आँखों के आगे ऊसर के बीच बसा अपना नन्हा-सा प्यारा गाँव उभर आया। वह बग़ीचा, वह होला-पाती, वह चलबा, वह चिबिल्ली, आँधी में आमों की लूट, ईख के टोटों की बुवाई, संवत के मुर्रा और छछूँदर, बाहे और धनखर गेड़कर मछलियों की पकड़, डोरे में बाँधकर जोलाहे उड़ाना, सिंघाड़े चुराना, तैराकी सीखने के लिए पोखर में भौरे पकड़ना! तब से आज कितने साल हो गए हैं? सारा कुछ यूँ—चुटकी बजाते-बजाते हवा में खो गया है। वे भी इतने ही सरल और आसान रहे होंगे जितने कि बाबा! और बाबा अब जा रहे हैं— कल के लिए नहीं, हमेशा के लिए। वे उन्हें रोक सकते हैं लेकिन नहीं...
उन्हें भूख महसूस होने लगी लेकिन गगरे के कारण खाने की मेज़ पर जाने की हिम्मत नहीं पड़ी। उन्होंने सिगरेट जलाई और धुआँ छोड़ा।
“छोड़ो जी, चलो!” उन्होंने अपने आप से कहा।
वे उठ खड़े हुए और अपने चूतड़ झाड़ने लगे, “सारी ज़िंदगी और सारी दुनिया और सारा ज़माना तुम्हारे सामने पड़ा है और तुम एक बेमतलब के बूढ़े को लेकर मुँह लटकाए बैठे हो!”
- पुस्तक : हिंदी कहानी संग्रह (पृष्ठ 361)
- रचनाकार : काशीनाथ सिंह
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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