वह अपना मुँह ख़ामोशी से भींच लेता और चक्के के गोल पहियों के चारों ओर घूमता हुआ सिर्फ़ अपने दाँतों का अस्तित्व अनुभव करता, जहाँ केवल एक ख़ामोश आगंतुक का आगमन होता था और थी उसकी ज़बान। वह अपनी मुट्ठियाँ भींचता और दाँत पीसता। क्रोध से लाल हुई आँखों और भारी पलकों से फाड़-फाड़कर देखता। नींद और थकान से उसके पपोटे फूल गए थे। कुछ भी भयानक घट सकता था।
उसके बग़ल में पुल की सीढ़ी पर बैठी उसकी पत्नी उसके बोलने की प्रतीक्षा कर रही थी। पुल बड़ा था—गर्मियों में उस छोटी-सी नदी के लिए बहुत बड़ा, लेकिन सर्दियों में, जब नदियाँ चढ़ जाती हैं, तो यह लोहे का होने के बावजूद कीड़े की तरह काँपने लगता था। काइदूना उसकी ओर देख नहीं रही थी, वह पास ही था। उसकी ओर देखकर क्या होता? जो कुछ भी बोलने को था, वह यही था कि कुछ ग़लत हुआ।
आँसुओं से भरी आँखों को बंद करके वह अपने बेटों के बारे में सोचती रही। अनाक्लेतो और सेरापीतो कल शाम अँधेरा घिरने पर पहाड़ों में चले गए थे ताकि सैनिकों के हाथ न पड़ जाएँ।
वे अब उनके साथ नहीं थे, कहाँ थे, मालूम नहीं। जो भी सैनिकों के हाथ पड़ जाता, उसे बग़ैर नाम पूछे गोली से उड़ा दिया जाता। सिर्फ़ उसका पति, बुएइओन अपनी इच्छा से वहाँ रह गया था। वह था ही ऐसा। लेकिन जब से पौ फटी थी, काइदूना तब से चक्कर काटती घूम रही थी, उस घटना की प्रतीक्षा में जो संभावित थी। वह अपनी अँगुलियों को चटखा रही थी, अपनी मुद्राएँ बदल रही थी। ठंडी साँसें ले रही थी। वह सब कुछ सहन नहीं कर पा रही थी।
सब पहले से तैयार हैं... उसने कहना शुरू किया। वास्तव में वहाँ अब दीवारों और खेतों के सिवा कुछ रह भी नहीं गया था...सब पहले से तैयार हैं, सब पहले से लिप्त हैं, सबने अपनी टोकरियाँ और फावड़े फेंक दिए हैं।
दब्बू बुएइओन बदल गया था। यह दूसरी प्रकृति थी। दूसरी उपज थी। उसने काइदूना को घृणा की नज़र से नहला दिया—बर्बर घृणा से, जैसे वह असुरक्षित होने पर किसी को सिर्फ़ इसलिए पीट देगा कि वह उसे समझता नहीं, उसके विचारों का अनुमान नहीं लगा सकता।
ताता, तुम्हारे बाप-बेटों को ले गए हैं, यह हो नहीं सकता...।
“और तुम क्या सोचते हो, तुम उन्हें छोड़कर आए हो?
ओह, नहीं ताता, लेकिन मेरा दिल जानता है कि तुम भयभीत हो और सोचती हो कि पहाड़ों में चला जाना चाहिए।
“मुझे कोई भय नहीं है...”
“और वहाँ कौन-सी सुरक्षा है, ख़ैर...
उसने कोई जवाब नहीं दिया, मानो बात की पुष्टि करते हुए वह चक्के को पंजों से पकड़कर झटके से उठ खड़ी हुई।
“मैं भी कितना मूर्ख हूँ! उसने विषय बदलने की ग़रज़ से कहा, जल्दी बाहर निकलने के चक्कर में मैं टमाटरों की बाबत तो भूल ही गई।
वह खेतों की ओर दौड़ गई, दूसरे सिरे पर सब्जियों और फलदार पौधों का बाग़ लगा था।
आँसुओं से उसका चेहरा भीग गया था। हाथों में रखे टमाटरों की तरह आँसू उसके गालों पर दुलक आए। वह समझ क्यों नहीं पाई, लेकिन वह जानती थी कि वे लोग उस ज़मीन के मालिक थे, जो सरकार ने उन्हें दी थी। उनकी सरकार ने तो ज़मीन उनके नाम कर दी थी, लेकिन दूसरे सैनिकों ने बिना किसी क़ानूनी अधिकार के उनसे छीन ली थी।
उसके भीतर यह विचार घुमड़ने लगा कि उसके पति और बेटों के साथ कुछ घटने वाला है। उसने रीढ़ से सिर के बालों तक सिहरन दौड़ती महसूस की, जैसे किसी ने हिमजल की बरसात कर दी हो।
उसने याद किया कि वह क्या करने आई थी। दर्द से छटपटाती उँगलियों से उसने वह चाक़ू निकाला जो उसका बेटा अनाक्लेती भागते समय छोड़ गया था, ताकि हाल ही में लगाए गए फलों के पौधों की निराई की जा सके।
मुझे क्षमा करना प्रभु! उसने काँपती आवाज़ में प्रार्थना की, लेकिन हम इस संपत्ति को क्यों छोड़ें, जिसकी क़ीमत उन्होंने नहीं दी। अच्छा हो, ये नारंगियाँ इस अन्याय के कारण कभी रसीली न हों। क्या मालूम था कि वे लोग यहाँ आकर क़ब्ज़ा जमा लेंगे! जानते हो, ज़हर उगाते?
बुएइओन ने उसे पौधों को नष्ट करते नहीं देखा, पत्ते और उसके आँसू दोनों गिर रहे थे। पुल के पास खड़ा वह सोच रहा था कि कौन उसे समझाता है! वह किसी रहस्यमय घटना को देख पा रहा था, जो घटित होने वाली थी।
“बेहतर यही है कि इन अभागे खेतों से, जिन्हें ग़रीबों ने मालिकों के मोटे पेटों को भरने के लिए अपने पसीने से सींचा है, ज़हर ही पैदा हो...इतने हतभाग्य...इतने...इतने...इतने...इतने...”
इतने पर उसका चाक़ू ज़मीन में घुसता और पौधों की जड़ों के साथ बाहर आता। अनेक पौधे बिंध गए। अनेक पूरी तरह नष्ट हो गए।
मुझे ईसाइयों के कपड़ों की तरह ढकने वाला यह पाला नारंगी की इस झाड़ी के बीजों में महरूम करेगा—तभी तो मुझे दुःख हो रहा है।
वह हँसी, उसके धूप से तपे चेहरे में उसके दाँत चमक उठे—लेकिन कड़वी हँसी! जिसमें आवाज़ नहीं होती...।
दाँतों में ठिठकी हँसी, जो शायद चीर-चीर देगी।
वह चाँटे मारती रही, क्योंकि सभी पीड़ित थे। सूरज सिर पर आ चुका था। उसके विनाशक परिश्रम का पसीना उसके आँसुओं में मिल गया था—उन आँसुओं से जो बेकार और गंदा पानी है, जो नमकीन होने के कारण प्यासे हैं, आँसू कभी ख़ुशी-भरे नहीं होते, फिर भी, उस बार, जब वे काग़ज़ात के साथ खेतों का मालिकाना हक़ देने आए थे, तो वह ख़ुशी से रोई थी। हाँ, ख़ुशी से, जिसने उसकी छाती फुला दी थी। उसने प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए हाथ जोड़ दिए थे। वह प्रभु वर्जिन मेरी और संत मातेओ को लाख-लाख धन्यवाद देती रही थी, जिनकी कृपा से उन्हें खेत मिल रहे थे।
और बुएइओन?
वह अपने पंजों के बल पर स्थिर खड़ा मग्न होकर सोचता रहा, कौन जानता है रहस्य क्या है!
हे ईश्वर! अचानक उसने दूर आता शोर सुना; कुछ क्षणों में ख़ामोशी छा गई। भय से काइदूना के हाथ से चाक़ू गिर गया। उसे इतना भी समय नहीं मिला कि वह उसे उठा ले।
बुएइओन को खोजने वह घर से निकली। लेकिन वह अपने स्थान पर स्थिर ठिठकी-सी खड़ी रही। पहली गूँज पर उसका हैट गिर गया था और दूसरी पर चाक़ू की मूठ से उसका सिर छिल गया था।
दूसरी ओर पानी, झाग और बूँदें ख़ुशी-भरे स्वरों के साथ चीनी मिल के चक्के पर गिरती रहीं—कभी-कभी उसके बड़े-बड़े चमकदार बुलबुले बनते और इधर-उधर फैल जाते। चक्के की गड़गड़ाती आवाज़ के बाद पानी की धार प्रचंड शोर करती और फिर नए दाँते बूँदों की उस गहन दीवार को काटने के लिए थाम लेते और उड़ते जलकणों से बने इंद्रधनुष के बीच उसे ऐसे गायक के स्वर में बदल देते, जो रोलरों की खड़खड़ाती आवाज़ से परेशान हो गया हो।
शाम ढल गई, रात हो गई, उसे बुएइओन का कोई चिह्न नहीं मिला। जब शाम ढल रही थी, रोशनी कम हो रही थी, तो वह बुएइओन को दूर तक तलाशती जिस रास्ते से कई बार गुज़री थी, अब अँधेरा घिर आने पर उसी रास्ते से अंधों की भाँति टटोल-टटोलकर चलती हुई बुएइओन को चीख़-चीख़कर पुकार रही थी, नाइके बुएइओन कुइके! वह उसका पूरा नाम पुकार रही थी, “नाइके बुएइओन कुइके!
थकान से चूर उसके पाँव लड़खड़ा रहे थे, उसके नीचे से बार-बार रेत दरकती और छोटे-छोटे पत्थर लुढ़क जाते, छोटे-छोटे मेढक और टिड्डे बार-बार इधर-उधर भागते, गोल पत्थर आवाज़ों को गुँजाते। नाइके कुइके! और फिर नाइके कुइके।”...“नाइके बुएइओन कुइके। उसका वास्तविक नाम यही था। बुएइओन नाम तो उसे तब मिला था, जब वह अनिवार्य सैनिक जीवन की अवधि पूरी कर रहा था। तभी साथियों ने उसकी शक्ति और भलमनसाहत को देखते हुए उसे इस नाम से पुकारना शुरू किया था।
उसके गालों पर आँसू फुंसियों की पपड़ियों की तरह सूख गए थे। सुबह की धुँध ने उसका चेहरा मानो गड्ढों से भर दिया था। न उसके बेटे, जो पहाड़ों में खो गए थे, न उसका पति, न उसके मकई के खेत, सिर्फ़ ख़ाली घर और वह स्वयं! कोई नहीं जानता कि उसने ये दिन कैसे जिए!
पहाड़ों से, जहाँ भगोड़े जाते हैं, लोग लौटते हैं—दुबलाए, थके, खोए-से, बढ़ी दाढ़ियाँ लिए, चिथड़े पहने, लेकिन लौटते हैं। सिर्फ़ वे ही नहीं लौटते, जिन्हें मौत लील गई हो। कहने के लिए...किसलिए कहने के लिए!...पहाड़ों से लोग लौटते हैं...अब उसके पोते हैं, उनके बेटों के बेटे...कहा जाता है कि उसके असली पोते नहीं हैं...लेकिन...लोग क्या जानते हैं?...वे उसके पोते हैं, असली पोते!...हाँ दादाओं को वे ज़िंदा चित्रफलक पर ऐसे ही लगते हैं। पहाड़ों से लोग लौटते हैं, सिर्फ़ वे नहीं लौटते जिन्हें मौत लील गई...लेकिन बुएइओन का फटा कपड़ा तक नहीं लौटता कुछ भी नहीं जैसे कभी उसका अस्तित्व ही न रहा हो।
...दादी, कहानी सुनाओ।
आह! एक बार की बात है...हम अमीर बन गए, उन्होंने हमें अमीर बना दिया...एक सरकार थी, जिसने लोगों को खेतों की मिल्कियत देकर अमीर बना दिया था। सुन रहे हो तुम लोग? हम उससे माँगने नहीं गए थे, उन्होंने तुम्हारे दादा नाइके कुइके को शहर के चौक में बुलाया और वहाँ एक झाड़ की छाया में...मैं उनके साथ गई थी, जैसे अगर वे आ जाएँ, तो आज भी जाऊँगी...तुम्हारे दादा बहुत ताक़तवर और सुंदर थे—मकई की रोटी की तरह...लेकिन सुंदर किसे कहते हैं...झाड़ की छाया में, चौक में शहर के बहुत से लोग इकट्ठे थे। उनमें से एक ने कहना शुरू किया। उसने बहुत-सी बातें कहीं। उनमें से काफ़ी हमारी समझ में नहीं आईं। लेकिन एक बात है...वह व्यर्थ की बात नहीं कर रहा था। अंत में उसने खेतों के काग़ज़ात दिए, जिनसे हम संपत्ति वाले बन गए, मालिक बन गए...असली मालिक, अपनी ज़मीन के स्वामी...
“यह तो सपने जैसी बात है दादी। पोती ने कहा, जो अब स्कूल जाती थी।
इसे तो इतिहास में ही रखना होगा...।
नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है...?
सच बेटी, उन्होंने इतिहास को भुला दिया है। जिससे उन्हें असुविधा होती है, उसे नहीं रखते, लेकिन मैं जो कह रही हूँ, वह हुआ नहीं था...
सच तो यह है दादी, हमारी टीचर कहती हैं कि इतिहास धुर अतीत है, जैसे हम बहुत-सी पुरानी चीज़ें देखते हैं।
अगर वह सच कहती हैं...क्योंकि पुरानी चीज़ें—इतिहास की तरह, जिसकी तुलना वह किसी भी पुरानी चीज़ से करते हैं—झूठ को जन्म देती हैं, लेकिन मैं जो कह रही हूँ, वह झूठ को जन्म नहीं देगा, वह सच है, सच, जो घटित हुआ था...उन्होंने ज़मीन ग़रीबों में बाँट दी थी।
यहीं?
“हाँ, यहीं...आह! अगर तुम लोगों ने हमें तब देखा होता, जब हम ज़मीन के काग़ज़ात लेकर शहर से लौटे थे! हम लोग इतनी बातें करते रहे थे कि तीन रात सोए तक नहीं थे!...उन्होंने आतंक की डोर ढीली छोड़ दी...ओह! लेकिन काम शुरू हो चुका था, तब तुम्हारे दादा ने सब कुछ ठीक-ठाक करने के लिए क़मीज़ की आस्तीन चढ़ा ली...
“और वे खेत कहाँ हैं दादी?
छूट गए। उन्होंने छीन लिए। दूसरों की ज़मीन की तरह, दूसरी ज़मीन की तरह, उन पर ऐसा ताप पड़ा कि...
उन्होंने छीन लिए अमीरों को देने के लिए...?
एक लंबे मौन, पर धीरे-धीरे पलकें उठाने-गिराने के बाद झुर्रियों से भरी काइदूना ने शब्दों को साफ़-साफ़ बोलने की कोशिश में होंठों को मिलाते हुए खरखराती आवाज़ में कहा, ‘‘न उन्हें, न हमें। सिर्फ़ विदेशी भाषा बोलने वालों को देने के लिए...दूसरी दुनिया के लोगों को...इसके लिए उन्होंने हम पर आकाश से बम बरसाए...
“तब वह दादी से ज़्यादा नहीं जानतीं?
फिर...मेरे बेटे वहाँ जाकर देखते हैं, हर तरफ झाड़-झंखाड़ और काँटे। मैं इस तरह की कल्पना नहीं करती, मैं वैसे ही देखती हूँ, जैसा था, जब मैंने देखा—विदेशियों के जहाज़ द्वारा पलक झपकते ही सब कुछ नष्ट कर दिए जाने से पहले—चीनी मिल, पुल बुइ इओन...सब कुछ मांस...सिर्फ़ उसे समझने की मनाही थी—ज़मीन को जवान मांस चाहिए था...मांस...हमारा मांस...जैसे तुम्हारा...क्योंकि यह ज़मीन भी किसी का मांस है। यह कुछ-कुछ माँ है, जो बेटे के बोने पर बेटी लौटाती है।
लेकिन जब उन्हें कुछ बोना नहीं था तो उन्होंने ले क्यों ली?
सिर्फ़ अपनी संपत्ति बनाने के लिए और कुछ नहीं...यही विदेशी चाहते थे कि हमें बर्बाद कर दें, हमारी ज़मीनों को बंजर बनाकर हमें बर्बाद कर दें ताकि वे निश्चित रूप से हमारी बर्बादी, हमारी ग़रीबी के स्वामी बन सकें...
यह तो सपना-सा है दादी!
हाँ, यह ऐसा सपना है, जैसे खुले में आग लगी हो, जो जल्दी बुझ जाएगी।
लेकिन आग फिर लग जाएगी...”
बेटी!
हमारी टीचर यही बताती हैं—एक आग, जो सबको अपने में लपेट लेगी, क्योंकि उड़ती हुई चिनगारियाँ छूट गई हैं और विचार उन्हें बुझा नहीं सकते। काइदूना चुप हो गई। उसने अपनी पोती अगुस्तीना को गोद में लेकर सहलाते हुए उसके कान में कहा, और मैं यह सब लोरी की तरह फिर से कहती हूँ...”
उसे दूसरे विचारों ने जकड़ लिया। लोग मौत के शिकंजे से लौट आए हैं। एक आग ने सबको जला दिया और काग़ज़ात पर दस्तख़त करके ज़मीन उसके असली मालिकों को, धरती के बेटों को—जैसे नाइके बुएइओन कुइके, जो विदेशियों द्वारा आकाश से की गई बमबारी में मर गए थे या खो गए थे—लौटा दिया। और अब वह देखेगी लोगों की प्रसन्नता के बीच सिर पर बँधे धुँधलाते पक्षियों के पंखों का प्रतीक।
wo apna munh khamoshi se bheench leta aur chakke ke gol pahiyon ke charon or ghumta hua sirf apne danton ka astitv anubhav karta, jahan keval ek khamosh agantuk ka agaman hota tha aur thi uski zaban. wo apni mutthiyan bhinchta aur daant pista. krodh se laal hui ankhon aur bhari palkon se phaaD phaDkar dekhta. neend aur thakan se uske papote phool gaye the. kuch bhi bhayanak ghat sakta tha.
uske baghal mein pul ki siDhi par baithi uski patni uske bolne ki pratiksha kar rahi thi. pul baDa tha—garmiyon mein us chhoti si nadi ke liye bahut baDa, lekin sardiyon mein, jab nadiyan chaDh jati hain, to ye lohe ka hone ke bavjud kiDe ki tarah kanpne lagta tha. kaiduna uski or dekh nahin rahi thi, wo paas hi tha. uski or dekhkar kya hota? jo kuch bhi bolne ko tha, wo yahi tha ki kuch ghalat hua.
ansuon se bhari ankhon ko band karke wo apne beton ke bare mein sochti rahi. anakleto aur serapito kal shaam andhera ghirne par pahaDon mein chale gaye the taki sainikon ke haath na paD jayen.
ve ab unke saath nahin the, kahan the, malum nahin. jo bhi sainikon ke haath paD jata, use baghair naam puchhe goli se uDa diya jata. sirf uska pati, bueion apni ichha se vahan rah gaya tha. wo tha hi aisa. lekin jab se pau phati thi, kaiduna tab se chakkar katti ghoom rahi thi, us ghatna ki pratiksha mein jo sambhavit thi. wo apni anguliyon ko chatkha rahi thi, apni mudrayen badal rahi thi. thanDi sansen le rahi thi. wo sab kuch sahn nahin kar pa rahi thi.
sab pahle se taiyar hain. . . usne kahna shuru kiya. vastav mein vahan ab divaron aur kheton ke siva kuch rah bhi nahin gaya tha. . . sab pahle se taiyar hain, sab pahle se lipt hain, sabne apni tokariyan aur phavDe phenk diye hain.
dabbu bueion badal gaya tha. ye dusri prakrti thi. dusri upaj thi. usne kaiduna ko ghrinaa ki nazar se nahla diya—barbar ghrinaa se, jaise wo asurakshait hone par kisi ko sirf isliye peet dega ki wo use samajhta nahin, uske vicharon ka anuman nahin laga sakta.
tata, tumhare baap beton ko le gaye hain, ye ho nahin sakta. . . .
“aur tum kya sochte ho, tum unhen chhoDkar aaye ho?
oh, nahin tata, lekin mera dil janta hai ki tum bhaybhit ho aur sochti ho ki pahaDon mein chala jana chahiye.
“mujhe koi bhay nahin hai. . . ”
“aur vahan kaun si suraksha hai, khair. . .
usne koi javab nahin diya, mano baat ki pushti karte hue wo chakke ko panjon se pakaDkar jhatke se uth khaDi hui.
“main bhi kitna moorkh hoon! usne vishay badalne ki ghar se kaha, jaldi bahar nikalne ke chakkar mein main tamatron ki babat to bhool hi gai.
wo kheton ki or dauD gai, dusre sire par sabjiyon aur phaldar paudhon ka baagh laga tha.
ansuon se uska chehra bheeg gaya tha. hathon mein rakhe tamatron ki tarah ansu uske galon par dulak aaye. wo samajh kyon nahin pai, lekin wo janti thi ki ve log us zamin ke malik the, jo sarkar ne unhen di thi. unki sarkar ne to zamin unke naam kar di thi, lekin dusre sainikon ne bina kisi qanuni adhikar ke unse chheen li thi.
uske bhitar ye vichar ghumaDne laga ki uske pati aur beton ke saath kuch ghatne vala hai. usne reeDh se sir ke balon tak siharan dauDti mahsus ki, jaise kisi ne himjal ki barsat kar di ho.
usne yaad kiya ki wo kya karne i thi. dard se chhatpatati ungliyon se usne wo chaqu nikala jo uska beta anakleti bhagte samay chhoD gaya tha, taki haal hi mein lagaye gaye phalon ke paudhon ki nirai ki ja sake.
mujhe kshama karna prabhu! usne kanpti avaz mein pararthna ki, lekin hum is sampatti ko kyon chhoDen, jiski qimat unhonne nahin di. achchha ho, ye narangiyan is annyaye ke karan kabhi rasili na hon. kya malum tha ki ve log yahan aakar qabza jama lenge! jante ho, zahr ugate?
bueion ne use paudhon ko nasht karte nahin dekha, patte aur uske ansu donon gir rahe the. pul ke paas khaDa wo soch raha tha ki kaun use samjhata hai! wo kisi rahasyamay ghatna ko dekh pa raha tha, jo ghatit hone vali thi.
“behtar yahi hai ki in abhage kheton se, jinhen gharibon ne malikon ke mote peton ko bharne ke liye apne pasine se sincha hai, zahr hi paida ho. . . itne hatbhagy. . . itne. . . itne. . . itne. . . itne. . . ”
itne par uska chaqu zamin mein ghusta aur paudhon ki jaDon ke saath bahar aata. anek paudhe bindh gaye. anek puri tarah nasht ho gaye.
mujhe iisaiyon ke kapDon ki tarah dhakne vala ye pala narangi ki is jhaDi ke bijon mein mahrum karega—tabhi to mujhe duःkh ho raha hai.
danton mein thithki hansi, jo shayad cheer cheer degi.
wo chante marti rahi, kyonki sabhi piDit the. suraj sir par aa chuka tha. uske vinashak parishram ka pasina uske ansuon mein mil gaya tha—un ansuon se jo bekar aur ganda pani hai, jo namkin hone ke karan pyase hain, ansu kabhi khushi bhare nahin hote, phir bhi, us baar, jab ve kaghzat ke saath kheton ka malikana haक़ dene aaye the, to wo khushi se roi thi. haan, khushi se, jisne uski chhati phula di thi. usne prasannata vyakt karne ke liye haath joD diye the. wo prabhu varjin meri aur sant mateo ko laakh laakh dhanyavad deti rahi thi, jinki kripa se unhen khet mil rahe the.
aur bueion?
wo apne panjon ke bal par sthir khaDa magn hokar sochta raha, kaun janta hai rahasy kya hai!
he ishvar! achanak usne door aata shor suna; kuch kshnon mein khamoshi chha gai. bhay se kaiduna ke haath se chaqu gir gaya. use itna bhi samay nahin mila ki wo use utha le.
bueion ko khojne wo ghar se nikli. lekin wo apne sthaan par sthir thithki si khaDi rahi. pahli goonj par uska hat gir gaya tha aur dusri par chaqu ki mooth se uska sir chhil gaya tha.
dusri or pani, jhaag aur bunden khushi bhare svron ke saath chini mil ke chakke par girti rahin—kabhi kabhi uske baDe baDe chamakdar bulbule bante aur idhar udhar phail jate. chakke ki gaDagDati avaz ke baad pani ki dhaar prchanD shor karti aur phir nae dante bundon ki us gahan divar ko katne ke liye thaam lete aur uDte jalaknon se bane indradhnush ke beech use aise gayak ke svar mein badal dete, jo rolron ki khaDkhaDati avaz se pareshan ho gaya ho.
shaam Dhal gai, raat ho gai, use bueion ka koi chihn nahin mila. jab shaam Dhal rahi thi, roshni kam ho rahi thi, to wo bueion ko door tak talashti jis raste se kai baar guzri thi, ab andhera ghir aane par usi raste se andhon ki bhanti tatol tatolkar chalti hui bueion ko cheekh chikhkar pukar rahi thi, naike bueion kuike! wo uska pura naam pukar rahi thi, “naike bueion kuike!
thakan se choor uske paanv laDkhaDa rahe the, uske niche se baar baar ret darakti aur chhote chhote patthar luDhak jate, chhote chhote meDhak aur tiDDe baar baar idhar udhar bhagte, gol patthar avazon ko gunjate. naike kuike! aur phir naike kuike. ”. . . “naike bueion kuike. uska vastavik naam yahi tha. bueion naam to use tab mila tha, jab wo anivary sainik jivan ki avadhi puri kar raha tha. tabhi sathiyon ne uski shakti aur bhalmansahat ko dekhte hue use is naam se pukarna shuru kiya tha.
uske galon par ansu phunsiyon ki papDiyon ki tarah sookh gaye the. subah ki dhundh ne uska chehra mano gaDDhon se bhar diya tha. na uske bete, jo pahaDon mein kho gaye the, na uska pati, na uske maki ke khet, sirf khali ghar aur wo svyan! koi nahin janta ki usne ye din kaise jiye!
pahaDon se, jahan bhagoDe jate hain, log lautte hain—dublaye, thake, khoe se, baDhi daDhiyan liye, chithDe pahne, lekin lautte hain. sirf ve hi nahin lautte, jinhen maut leel gai ho. kahne ke liye. . . kisaliye kahne ke liye!. . . pahaDon se log lautte hain. . . ab uske pote hain, unke beton ke bete. . . kaha jata hai ki uske asli pote nahin hain. . . lekin. . . log kya jante hain?. . . ve uske pote hain, asli pote!. . . haan dadaon ko ve zinda chitraphlak par aise hi lagte hain. pahaDon se log lautte hain, sirf ve nahin lautte jinhen maut leel gai. . . lekin bueion ka phata kapDa tak nahin lautta kuch bhi nahin jaise kabhi uska astitv hi na raha ho.
. . . dadi, kahani sunao.
aah! ek baar ki baat hai. . . hum amir ban gaye, unhonne hamein amir bana diya. . . ek sarkar thi, jisne logon ko kheton ki milkiyat dekar amir bana diya tha. sun rahe ho tum log? hum usse mangne nahin gaye the, unhonne tumhare dada naike kuike ko shahr ke chauk mein bulaya aur vahan ek jhaaD ki chhaya mein. . . main unke saath gai thi, jaise agar ve aa jayen, to aaj bhi jaungi. . . tumhare dada bahut taqatvar aur sundar the—maki ki roti ki tarah. . . lekin sundar kise kahte hain. . . jhaaD ki chhaya mein, chauk mein shahr ke bahut se log ikatthe the. unmen se ek ne kahna shuru kiya. usne bahut si baten kahin. unmen se kafi hamari samajh mein nahin ain. lekin ek baat hai. . . wo byarth ki baat nahin kar raha tha. ant mein usne kheton ke kaghzat diye, jinse hum sampatti vale ban gaye, malik ban gaye. . . asli malik, apni zamin ke svami. . .
“yah to sapne jaisi baat hai dadi. poti ne kaha, jo ab school jati thi.
ise to itihas mein hi rakhna hoga. . . .
nahin, aisa kaise ho sakta hai. . . ?
sach beti, unhonne itihas ko bhula diya hai. jisse unhen asuvidha hoti hai, use nahin rakhte, lekin main jo kah rahi hoon, wo hua nahin tha. . .
sach to ye hai dadi, hamari teacher kahti hain ki itihas dhur atit hai, jaise hum bahut si purani chizen dekhte hain.
agar wo sach kahti hain. . . kyonki purani chizen—itihas ki tarah, jiski tulna wo kisi bhi purani cheez se karte hain—jhuth ko janm deti hain, lekin main jo kah rahi hoon, wo jhooth ko janm nahin dega, wo sach hai, sach, jo ghatit hua tha. . . unhonne zamin gharibon mein baant di thi.
yahin?
“haan, yahin. . . aah! agar tum logon ne hamein tab dekha hota, jab hum zamin ke kaghzat lekar shahr se laute the! hum log itni baten karte rahe the ki teen raat soe tak nahin the!. . . unhonne atank ki Dor Dhili chhoD di. . . oh! lekin kaam shuru ho chuka tha, tab tumhare dada ne sab kuch theek thaak karne ke liye qamiz ki astin chaDha li. . .
“aur ve khet kahan hain dadi?
chhoot gaye. unhonne chheen liye. dusron ki zamin ki tarah, dusri zamin ki tarah, un par aisa taap paDa ki. . .
unhonne chheen liye amiron ko dene ke liye. . . ?
ek lambe maun, par dhire dhire palken uthane girane ke baad jhurriyon se bhari kaiduna ne shabdon ko saaf saaf bolne ki koshish mein honthon ko milate hue kharakhrati avaz mein kaha, ‘‘n unhen, na hamein. sirf videshi bhasha bolne valon ko dene ke liye. . . dusri duniya ke logon ko. . . iske liye unhonne hum par akash se bam barsaye. . .
“tab wo dadi se zyada nahin jantin?
phir. . . mere bete vahan jakar dekhte hain, har taraph jhaaD jhankhaD aur kante. main is tarah ki kalpana nahin karti, main vaise hi dekhti hoon, jaisa tha, jab mainne dekha—videshiyon ke jahaz dvara palak jhapakte hi sab kuch nasht kar diye jane se pahle—chini mil, pul bui ion. . . sab kuch maans. . . sirf use samajhne ki manahi thi—zamin ko javan maans chahiye tha. . . maans. . . hamara maans. . . jaise tumhara. . . kyonki ye zamin bhi kisi ka maans hai. ye kuch kuch maan hai, jo bete ke bone par beti lautati hai.
lekin jab unhen kuch bona nahin tha to unhonne le kyon lee?
sirf apni sampatti banane ke liye aur kuch nahin. . . yahi videshi chahte the ki hamein barbad kar den, hamari zaminon ko banjar banakar hamein barbad kar den taki ve nishchit roop se hamari barbadi, hamari gharib ke svami ban saken. . .
yah to sapna sa hai dadi!
haan, ye aisa sapna hai, jaise khule mein aag lagi ho, jo jaldi bujh jayegi.
lekin aag phir lag jayegi. . . ”
beti!
hamari teacher yahi batati hain—ek aag, jo sabko apne mein lapet legi, kyonki uDti hui chingariyan chhoot gai hain aur vichar unhen bujha nahin sakte. kaiduna chup ho gai. usne apni poti agustina ko god mein lekar sahlate hue uske kaan mein kaha, aur main ye sab lori ki tarah phir se kahti hoon. . . ”
use dusre vicharon ne jakaD liya. log maut ke shikanje se laut aaye hain. ek aag ne sabko jala diya aur kaghzat par dastakhat karke zamin uske asli malikon ko, dharti ke beton ko—jaise naike bueion kuike, jo videshiyon dvara akash se ki gai bambari mein mar gaye the ya kho gaye the—lauta diya. aur ab wo dekhegi logon ki prasannata ke beech sir par bandhe dhundhlate pakshiyon ke pankhon ka pratik.
wo apna munh khamoshi se bheench leta aur chakke ke gol pahiyon ke charon or ghumta hua sirf apne danton ka astitv anubhav karta, jahan keval ek khamosh agantuk ka agaman hota tha aur thi uski zaban. wo apni mutthiyan bhinchta aur daant pista. krodh se laal hui ankhon aur bhari palkon se phaaD phaDkar dekhta. neend aur thakan se uske papote phool gaye the. kuch bhi bhayanak ghat sakta tha.
uske baghal mein pul ki siDhi par baithi uski patni uske bolne ki pratiksha kar rahi thi. pul baDa tha—garmiyon mein us chhoti si nadi ke liye bahut baDa, lekin sardiyon mein, jab nadiyan chaDh jati hain, to ye lohe ka hone ke bavjud kiDe ki tarah kanpne lagta tha. kaiduna uski or dekh nahin rahi thi, wo paas hi tha. uski or dekhkar kya hota? jo kuch bhi bolne ko tha, wo yahi tha ki kuch ghalat hua.
ansuon se bhari ankhon ko band karke wo apne beton ke bare mein sochti rahi. anakleto aur serapito kal shaam andhera ghirne par pahaDon mein chale gaye the taki sainikon ke haath na paD jayen.
ve ab unke saath nahin the, kahan the, malum nahin. jo bhi sainikon ke haath paD jata, use baghair naam puchhe goli se uDa diya jata. sirf uska pati, bueion apni ichha se vahan rah gaya tha. wo tha hi aisa. lekin jab se pau phati thi, kaiduna tab se chakkar katti ghoom rahi thi, us ghatna ki pratiksha mein jo sambhavit thi. wo apni anguliyon ko chatkha rahi thi, apni mudrayen badal rahi thi. thanDi sansen le rahi thi. wo sab kuch sahn nahin kar pa rahi thi.
sab pahle se taiyar hain. . . usne kahna shuru kiya. vastav mein vahan ab divaron aur kheton ke siva kuch rah bhi nahin gaya tha. . . sab pahle se taiyar hain, sab pahle se lipt hain, sabne apni tokariyan aur phavDe phenk diye hain.
dabbu bueion badal gaya tha. ye dusri prakrti thi. dusri upaj thi. usne kaiduna ko ghrinaa ki nazar se nahla diya—barbar ghrinaa se, jaise wo asurakshait hone par kisi ko sirf isliye peet dega ki wo use samajhta nahin, uske vicharon ka anuman nahin laga sakta.
tata, tumhare baap beton ko le gaye hain, ye ho nahin sakta. . . .
“aur tum kya sochte ho, tum unhen chhoDkar aaye ho?
oh, nahin tata, lekin mera dil janta hai ki tum bhaybhit ho aur sochti ho ki pahaDon mein chala jana chahiye.
“mujhe koi bhay nahin hai. . . ”
“aur vahan kaun si suraksha hai, khair. . .
usne koi javab nahin diya, mano baat ki pushti karte hue wo chakke ko panjon se pakaDkar jhatke se uth khaDi hui.
“main bhi kitna moorkh hoon! usne vishay badalne ki ghar se kaha, jaldi bahar nikalne ke chakkar mein main tamatron ki babat to bhool hi gai.
wo kheton ki or dauD gai, dusre sire par sabjiyon aur phaldar paudhon ka baagh laga tha.
ansuon se uska chehra bheeg gaya tha. hathon mein rakhe tamatron ki tarah ansu uske galon par dulak aaye. wo samajh kyon nahin pai, lekin wo janti thi ki ve log us zamin ke malik the, jo sarkar ne unhen di thi. unki sarkar ne to zamin unke naam kar di thi, lekin dusre sainikon ne bina kisi qanuni adhikar ke unse chheen li thi.
uske bhitar ye vichar ghumaDne laga ki uske pati aur beton ke saath kuch ghatne vala hai. usne reeDh se sir ke balon tak siharan dauDti mahsus ki, jaise kisi ne himjal ki barsat kar di ho.
usne yaad kiya ki wo kya karne i thi. dard se chhatpatati ungliyon se usne wo chaqu nikala jo uska beta anakleti bhagte samay chhoD gaya tha, taki haal hi mein lagaye gaye phalon ke paudhon ki nirai ki ja sake.
mujhe kshama karna prabhu! usne kanpti avaz mein pararthna ki, lekin hum is sampatti ko kyon chhoDen, jiski qimat unhonne nahin di. achchha ho, ye narangiyan is annyaye ke karan kabhi rasili na hon. kya malum tha ki ve log yahan aakar qabza jama lenge! jante ho, zahr ugate?
bueion ne use paudhon ko nasht karte nahin dekha, patte aur uske ansu donon gir rahe the. pul ke paas khaDa wo soch raha tha ki kaun use samjhata hai! wo kisi rahasyamay ghatna ko dekh pa raha tha, jo ghatit hone vali thi.
“behtar yahi hai ki in abhage kheton se, jinhen gharibon ne malikon ke mote peton ko bharne ke liye apne pasine se sincha hai, zahr hi paida ho. . . itne hatbhagy. . . itne. . . itne. . . itne. . . itne. . . ”
itne par uska chaqu zamin mein ghusta aur paudhon ki jaDon ke saath bahar aata. anek paudhe bindh gaye. anek puri tarah nasht ho gaye.
mujhe iisaiyon ke kapDon ki tarah dhakne vala ye pala narangi ki is jhaDi ke bijon mein mahrum karega—tabhi to mujhe duःkh ho raha hai.
danton mein thithki hansi, jo shayad cheer cheer degi.
wo chante marti rahi, kyonki sabhi piDit the. suraj sir par aa chuka tha. uske vinashak parishram ka pasina uske ansuon mein mil gaya tha—un ansuon se jo bekar aur ganda pani hai, jo namkin hone ke karan pyase hain, ansu kabhi khushi bhare nahin hote, phir bhi, us baar, jab ve kaghzat ke saath kheton ka malikana haक़ dene aaye the, to wo khushi se roi thi. haan, khushi se, jisne uski chhati phula di thi. usne prasannata vyakt karne ke liye haath joD diye the. wo prabhu varjin meri aur sant mateo ko laakh laakh dhanyavad deti rahi thi, jinki kripa se unhen khet mil rahe the.
aur bueion?
wo apne panjon ke bal par sthir khaDa magn hokar sochta raha, kaun janta hai rahasy kya hai!
he ishvar! achanak usne door aata shor suna; kuch kshnon mein khamoshi chha gai. bhay se kaiduna ke haath se chaqu gir gaya. use itna bhi samay nahin mila ki wo use utha le.
bueion ko khojne wo ghar se nikli. lekin wo apne sthaan par sthir thithki si khaDi rahi. pahli goonj par uska hat gir gaya tha aur dusri par chaqu ki mooth se uska sir chhil gaya tha.
dusri or pani, jhaag aur bunden khushi bhare svron ke saath chini mil ke chakke par girti rahin—kabhi kabhi uske baDe baDe chamakdar bulbule bante aur idhar udhar phail jate. chakke ki gaDagDati avaz ke baad pani ki dhaar prchanD shor karti aur phir nae dante bundon ki us gahan divar ko katne ke liye thaam lete aur uDte jalaknon se bane indradhnush ke beech use aise gayak ke svar mein badal dete, jo rolron ki khaDkhaDati avaz se pareshan ho gaya ho.
shaam Dhal gai, raat ho gai, use bueion ka koi chihn nahin mila. jab shaam Dhal rahi thi, roshni kam ho rahi thi, to wo bueion ko door tak talashti jis raste se kai baar guzri thi, ab andhera ghir aane par usi raste se andhon ki bhanti tatol tatolkar chalti hui bueion ko cheekh chikhkar pukar rahi thi, naike bueion kuike! wo uska pura naam pukar rahi thi, “naike bueion kuike!
thakan se choor uske paanv laDkhaDa rahe the, uske niche se baar baar ret darakti aur chhote chhote patthar luDhak jate, chhote chhote meDhak aur tiDDe baar baar idhar udhar bhagte, gol patthar avazon ko gunjate. naike kuike! aur phir naike kuike. ”. . . “naike bueion kuike. uska vastavik naam yahi tha. bueion naam to use tab mila tha, jab wo anivary sainik jivan ki avadhi puri kar raha tha. tabhi sathiyon ne uski shakti aur bhalmansahat ko dekhte hue use is naam se pukarna shuru kiya tha.
uske galon par ansu phunsiyon ki papDiyon ki tarah sookh gaye the. subah ki dhundh ne uska chehra mano gaDDhon se bhar diya tha. na uske bete, jo pahaDon mein kho gaye the, na uska pati, na uske maki ke khet, sirf khali ghar aur wo svyan! koi nahin janta ki usne ye din kaise jiye!
pahaDon se, jahan bhagoDe jate hain, log lautte hain—dublaye, thake, khoe se, baDhi daDhiyan liye, chithDe pahne, lekin lautte hain. sirf ve hi nahin lautte, jinhen maut leel gai ho. kahne ke liye. . . kisaliye kahne ke liye!. . . pahaDon se log lautte hain. . . ab uske pote hain, unke beton ke bete. . . kaha jata hai ki uske asli pote nahin hain. . . lekin. . . log kya jante hain?. . . ve uske pote hain, asli pote!. . . haan dadaon ko ve zinda chitraphlak par aise hi lagte hain. pahaDon se log lautte hain, sirf ve nahin lautte jinhen maut leel gai. . . lekin bueion ka phata kapDa tak nahin lautta kuch bhi nahin jaise kabhi uska astitv hi na raha ho.
. . . dadi, kahani sunao.
aah! ek baar ki baat hai. . . hum amir ban gaye, unhonne hamein amir bana diya. . . ek sarkar thi, jisne logon ko kheton ki milkiyat dekar amir bana diya tha. sun rahe ho tum log? hum usse mangne nahin gaye the, unhonne tumhare dada naike kuike ko shahr ke chauk mein bulaya aur vahan ek jhaaD ki chhaya mein. . . main unke saath gai thi, jaise agar ve aa jayen, to aaj bhi jaungi. . . tumhare dada bahut taqatvar aur sundar the—maki ki roti ki tarah. . . lekin sundar kise kahte hain. . . jhaaD ki chhaya mein, chauk mein shahr ke bahut se log ikatthe the. unmen se ek ne kahna shuru kiya. usne bahut si baten kahin. unmen se kafi hamari samajh mein nahin ain. lekin ek baat hai. . . wo byarth ki baat nahin kar raha tha. ant mein usne kheton ke kaghzat diye, jinse hum sampatti vale ban gaye, malik ban gaye. . . asli malik, apni zamin ke svami. . .
“yah to sapne jaisi baat hai dadi. poti ne kaha, jo ab school jati thi.
ise to itihas mein hi rakhna hoga. . . .
nahin, aisa kaise ho sakta hai. . . ?
sach beti, unhonne itihas ko bhula diya hai. jisse unhen asuvidha hoti hai, use nahin rakhte, lekin main jo kah rahi hoon, wo hua nahin tha. . .
sach to ye hai dadi, hamari teacher kahti hain ki itihas dhur atit hai, jaise hum bahut si purani chizen dekhte hain.
agar wo sach kahti hain. . . kyonki purani chizen—itihas ki tarah, jiski tulna wo kisi bhi purani cheez se karte hain—jhuth ko janm deti hain, lekin main jo kah rahi hoon, wo jhooth ko janm nahin dega, wo sach hai, sach, jo ghatit hua tha. . . unhonne zamin gharibon mein baant di thi.
yahin?
“haan, yahin. . . aah! agar tum logon ne hamein tab dekha hota, jab hum zamin ke kaghzat lekar shahr se laute the! hum log itni baten karte rahe the ki teen raat soe tak nahin the!. . . unhonne atank ki Dor Dhili chhoD di. . . oh! lekin kaam shuru ho chuka tha, tab tumhare dada ne sab kuch theek thaak karne ke liye qamiz ki astin chaDha li. . .
“aur ve khet kahan hain dadi?
chhoot gaye. unhonne chheen liye. dusron ki zamin ki tarah, dusri zamin ki tarah, un par aisa taap paDa ki. . .
unhonne chheen liye amiron ko dene ke liye. . . ?
ek lambe maun, par dhire dhire palken uthane girane ke baad jhurriyon se bhari kaiduna ne shabdon ko saaf saaf bolne ki koshish mein honthon ko milate hue kharakhrati avaz mein kaha, ‘‘n unhen, na hamein. sirf videshi bhasha bolne valon ko dene ke liye. . . dusri duniya ke logon ko. . . iske liye unhonne hum par akash se bam barsaye. . .
“tab wo dadi se zyada nahin jantin?
phir. . . mere bete vahan jakar dekhte hain, har taraph jhaaD jhankhaD aur kante. main is tarah ki kalpana nahin karti, main vaise hi dekhti hoon, jaisa tha, jab mainne dekha—videshiyon ke jahaz dvara palak jhapakte hi sab kuch nasht kar diye jane se pahle—chini mil, pul bui ion. . . sab kuch maans. . . sirf use samajhne ki manahi thi—zamin ko javan maans chahiye tha. . . maans. . . hamara maans. . . jaise tumhara. . . kyonki ye zamin bhi kisi ka maans hai. ye kuch kuch maan hai, jo bete ke bone par beti lautati hai.
lekin jab unhen kuch bona nahin tha to unhonne le kyon lee?
sirf apni sampatti banane ke liye aur kuch nahin. . . yahi videshi chahte the ki hamein barbad kar den, hamari zaminon ko banjar banakar hamein barbad kar den taki ve nishchit roop se hamari barbadi, hamari gharib ke svami ban saken. . .
yah to sapna sa hai dadi!
haan, ye aisa sapna hai, jaise khule mein aag lagi ho, jo jaldi bujh jayegi.
lekin aag phir lag jayegi. . . ”
beti!
hamari teacher yahi batati hain—ek aag, jo sabko apne mein lapet legi, kyonki uDti hui chingariyan chhoot gai hain aur vichar unhen bujha nahin sakte. kaiduna chup ho gai. usne apni poti agustina ko god mein lekar sahlate hue uske kaan mein kaha, aur main ye sab lori ki tarah phir se kahti hoon. . . ”
use dusre vicharon ne jakaD liya. log maut ke shikanje se laut aaye hain. ek aag ne sabko jala diya aur kaghzat par dastakhat karke zamin uske asli malikon ko, dharti ke beton ko—jaise naike bueion kuike, jo videshiyon dvara akash se ki gai bambari mein mar gaye the ya kho gaye the—lauta diya. aur ab wo dekhegi logon ki prasannata ke beech sir par bandhe dhundhlate pakshiyon ke pankhon ka pratik.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 270-276)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : माइगुएल एंजल आस्तुरियस रोसालेस
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।