शहर के मेन मार्केट के बीचोबीच, घंटों वाली फ़ौजी घड़ी के ठीक नीचे खिलौनों की एक आलीशान दुकान हुआ करती थी और जहाँ तक मुझे मालूम है। आज भी है।
यह दुकान एक सुसज्जित जादुई गुफा जैसी थी, जिसका एक हिस्सा चिड़ियाघर जैसा था तो दूसरा सरकसनुमा। कहीं रेलगाड़ियों की प्रदर्शनी थी, तो कहीं चाभी से चलने हिलने वाले बेशुमार प्राणियों का जमघट, कहीं गुड्डे-गुड़ियों के खेल, तो कहीं किताबों की मोहक लायब्रेरी। कहीं खेल-कूद के अनगिनत सामान तो कहीं बच्चों के लिए बक्सों में बंद गेमों का एक पूरा संग्रहालय। बस यूँ समझिए कि सर्दियों की छुट्टियों का भरपूर मज़ा लेने का अंतहीन सिलसिला यहाँ मौजूद था। पर पहले उस घंटों वाली फ़ौजी घड़ी की बात।
साल में एक बार हमें घंटाघर की उस घड़ी में दुपहर के बारह घंटों की टंकार सुनाने के लिए वहाँ ले जाया जाता। बकिंघम पैलेस के सिपाहियों की ‘टूपिंग ऑफ दि कलर’ रस्म की तरह यह हमारी ज़िंदगी की सबसे रंगीन, स्थायी और महत्वपूर्ण घटना बन चुकी थी। भव्य शोभायात्रा के शानदार प्रदर्शन में अपने आप में अनोखी। बारह बजने से कुछ मिनट पहले ही शहर के सारे विशिष्ट बाशिंदे फ़ौजी घड़ी के नीचे, घिसी टूटी टाइल्स के चबूतरे पर, जहाँ मोजेक से टमाटर के सॉसेज का एक विज्ञापन बना था, इस दृश्य को देखने के लिए इकट्ठे हो जाते थे।
वहाँ मैं था, जैक कॉरिगन था, और 43 नंबर घर वाला वह अपंग लड़का था और था अल्बर्ट स्किनर—जिसके डैड उसे कहीं भी लेकर नहीं जाते थे। स्कूल के ऑफ़िस में इस बात की सफ़ाई देने भी नहीं कि जब तब वह स्कूल से बेवजह भागा क्यों फिरता है।
अल्बर्ट स्किनर अपना मुंडा हुआ सफाचट सिर और पतलून से बाहर लटकती क़मीज़ लिए किसी एक के पीछे, सड़क के आवारा कुत्ते की तरह चिपक लेता। शहर जाकर फ़ौजी घड़ी के घंटे बजने के शानदार आयोजन के लिए तैयार, इतवार की अपनी ख़ास पोशाक में सजे-धजे ट्राम। हम ट्राम स्टॉप पर खड़े इंतज़ार कर रहे होते कि अचानक हवा में से किसी जिन्न की तरह अल्बर्ट प्रकट हो जाता।
और हमारी माँ, जैसा कि उन्हें कहना चाहिए होता, हैरान होकर कहती, “अल्बर्ट! तुम इस तरह, इस हाल में शहर जाओगे?”
“नहीं, जाना तो है, पर ट्राम के किराए के पैसे खो गए।” अल्बर्ट कहता।
इस पर माँ तरस खाकर कहतीं, “कोई बात नहीं, तुम हमारे साथ आ सकते हो, पर अपने को ज़रा साफ कर लो। कम से कम अपनी क़मीज़ को तो अंदर खोंस लो!”
और इस तरह क्रिसमस के दिनों में अल्बर्ट हमारे साथ फ़ौजी घड़ी के घंटे सुनता। और जब राजा के मशीनी सिपाही प्लास्टर ऑफ पेरिस के दुर्ग में वापस मुड़ जाते तो हम सबके साथ उसे भी आलीशान खिलौनों की दुकान की काँच की खिड़की पर अपनी नाक गड़ाने की इजाज़त मिल जाती।
काफ़ी देर उस खिड़की पर ध्यान जमा चुकने के बाद हमें पेपरमिंट की गोलियों का एक पैकेट मिलता। (‘इसे सबको आपस में बाँटकर खाना है!’) खड़खड़ाती ट्रामों में बैठकर हम घर लौटते, और तब जलते अलाव के सामने अपने ठंड से अकड़े पैरों को पिघलाते हुए हमें फादर क्रिसमस के नाम अपनी फ़रमाइश लिखनी होती...
‘डियर फादर क्रिसमस, इस बार क्रिसमस में मुझे चाहिए...’
‘समझ में नहीं आ रहा, क्या लिखें...’ हम एक-दूसरे की सामूहिक सलाह और प्रेरणा की तलाश में आपस में पूछते।
‘तुम फादर से एक स्लेज (बर्फ़ पर फिसलने वाली बिना पहिए की गाड़ी) क्यों नहीं माँगते? मैं तो अपने लिए वही मागूँगा।’
‘बेवक़ूफ़, स्लेज का क्या करना है तुम्हें? इस साल अगर बर्फ़ ही न पड़ी तो?’
अच्छा तो एक क्रिकेट बैट और स्टम्प्स और...!’
‘क्रिसमस में भी कोई क्रिकेट खेलता है? बेवक़ूफ़!’
अल्बर्ट स्किनर कुछ नहीं कहता। वैसे तो स्वैच्छिक संरचना न कर पाने के उन यातनादायक घंटों में किसी के पास भी कहने लायक कुछ नहीं होता था।
अपनी-अपनी कॉपियों के कोरे काग़ज़ों को घुटनों पर फैलाए, दाँतों तले अपनी स्याही वाली पेंसिलों को हम तब तक कुतरते जब तक हमारी जीभें बैंगनी न हो जातीं। ऐसा नहीं था कि हम सबमें मौलिक फ़रमाइशों की कोई कमी थी, बल्कि हक़ीक़त इससे उल्टी ही थी। स्लेज, क्रिकेट बैट, स्टंप्स, फाउंटेन पेन, डायनेमो और मिकी माउस की फिल्में—दरअसल इतनी ज़्यादा चीज़ें थीं कि उनमें से चुनाव करना मुश्किल था।
खिलौनों की वह आलीशान दुकान, जिसने हमारी कोरी कल्पनाओं में रंग भरे थे, सांता क्लॉज़ के जादुई पिटारे के बहुत नज़दीक थी। जैसे जन्नत में किसी उठती हुई दुकान की सेल लगी हो। धुएँ वाली बड़ी रेलगाड़ी घड़ी की सुइयों की तरह बाँए से दाँए चलती थी और छोटी बिजली की ट्रेन उल्टी घड़ी की तरह दाँए से बाँए ओर। और वहाँ नोआज़ आर्क था, ट्राम कंडक्टर सेट था। रोशनी से जगमगाते काँच के शेल्फ़ पर घूमता टाइपराइटर था और अदृश्य तारों के सहारे छत से लटकी एक परियों-सी ख़ूबसूरत साइकिल। इसके अलावा बोर्ड गेम्स थीं, केमिस्ट्री सेट और कारपेंटरी सेट थे, टिप टॉप-फिल्म फन-रेडियो और फन जिंगल, जोकर और जेस्टर के आकर्षक वार्षिक अंक थे। यानी कि हमारी उम्र का हर आधुनिक लड़का, जिन्हें देखकर अपनी जमा पूँजी लुटाने के लिए तैयार हो जाए, ऐसी हर चीज़ वहाँ मौजूद थी।
या यूँ कहा जाए कि वहाँ हर ऐसी चीज़ थी, जिसे देखकर अल्बर्ट स्किनर जैसा लड़का अपना सब कुछ देने के लिए तैयार हो जाए, फिर भी उसमें से कोई चीज़ उसे कभी न मिले। उस दुकान की अधिकांश चीज़ें ऐसी थीं, जिन्हें अल्बर्ट क्या, अच्छे खाते-पीते घर का लड़का भी अपने सारे सद्व्यवहार के बावजूद क्रिसमस के तकिए के नीचे पाने की उम्मीद नहीं रख सकता था।
उस आलीशान खिलौनों की दुकान की काँच की खिड़की का मुख्य आकर्षण हमेशा सामान्य इंसानों की पहुँच से बाहर का कोई अति-भव्य नमूना होता। जैसे, मेकैनो पर समूचा ब्लैकपूल टावर या हज़ारों ईंटों से बना विंडसर कैसेल का मॉडल या पीतल के डंडों पर सचमुच ऊपर-नीचे होते घूमते घोड़ों का ‘मेरी गो राउंड’ या फिर पहियों पर खड़ा चौंधियाती रोशनी वाला शाही बकिंघम पैलेस। हममें से किसी को भी बताए जाने की ज़रूरत नहीं थी कि ये सारी ऐय्याशियाँ फादर क्रिसमस के बजट से बाहर की चीज़ें थीं।
इस साल खिड़की में क्लाइड बैंक बंदरगाह पर पिछले दिनों लाँच किए गए विशालकाय जहाज ‘क्वीन मेरी’ का एक भव्य मॉडल था। चार फ़ीट लंबे इस मॉडल के झरोखों पर सचमुच की लाइट्स लगी थीं और उसकी चिमनियों से सचमुच के धुँए के छल्ले ऊपर उठते दिखाई देते थे। ख़ूबसूरती से तराशे गए कर्मचारियों, क्रू, लाइफबोट्स, केबिन ट्रंक्स और यात्रियों से लैस यह मॉडल ज़ाहिर है कि हम जैसों के लिए नहीं था।
उस दर्शनीय जहाज़ को चमत्कृत भाव से भरपूर देख चुकने के बाद हमने एक महँगे सपने की तरह उसे अपने दिमाग़ से स्थगित कर दिया था और फिर से अपनी स्याही वाली पेंसिलों को कुतरते हुए हम फादर क्रिसमस के नाम अपनी अपेक्षाकृत व्यावहारिक फ़रमाइशें (यानी प्लास्टिसीन, या चंद फुटकर सस्ते खिलौने या दो जनों के बीच रोलर स्केट्स का एक साझा जोड़ा) लिखने पर जुट गए थे।
‘हम’ यानी हम सब, अल्बर्ट स्किनर के अलावा। आठ इलेक्ट्रिक स्पोर्ट्स कार वाले रेसिंग ट्रैक या अपने मनपसंद फेलिक्स द कैट के दस्ताने पर बने हथगुड्डे के प्रस्ताव सहित कई संभावनाओं पर विचार कर चुकने के बाद अल्बर्ट ने बड़े शांत भाव से घोषणा की थी कि उसने सारे सुझावों को तरजीह दी है, पर वह फादर क्रिसमस से ‘क्वीन मेरी’ की ही माँग करने जा रहा है।
आप ठीक ही सोच रहे हैं कि अल्बर्ट की इस असंभव फ़रमाइश का स्वागत कुछ संशयात्मक ढंग से हुआ।
‘क्या? वह आर्केड विंडो पर रखा ‘क्वीन मेरी’? वह सारी लाइट्स और चिमनियों से उठते धुँए वाला जहाज़? तुम कहीं उसकी बात तो नहीं कर रहे हो?”
‘जी हाँ बिल्कुल ! मैं उसी की बात कर रहा हूँ। और क्यों न करूँ?’
‘यह बेसिर-पैर की हाँक रहा है। ए स्किनो, तुम उन सिपाहियों को क्यों नहीं माँग लेते, जो परेड करते हुए दरवाज़े से अंदर बाहर जाते हैं और घड़ी का घंटा बजाते हैं? ‘क्वीन मेरी’ के मुकाबले उन्हें पाना ज़्यादा आसान होगा!’
अगर मुझे वे सिपाही चाहिए होते तो मैं ज़रूर उन्हें माँग लेता, पर मुझे वे चाहिए ही नहीं। इसलिए मैंने उनसे ‘क्वीन मेरी’ की ही फ़रमाइश की है।’
‘उनसे किनसे? फादर क्रिसमस से?”
‘और नहीं तो क्या, क्वैकर ओट्स के डिब्बे पर बने बुड्ढे बाबा से?’
‘कम ऑन मैन! तुम हमें उल्लू बना रहे हो!’
‘मैं सच कह रहा हूँ, भगवान कसम! मैंने उनसे ‘क्वीन मेरी’ जहाज़ ही माँगा है।’
‘चलो, हमें फिर चिट्ठी देखने दो।’
‘चिट्ठी क्या मेरे पास पड़ी है? उसे तो मैंने चिमनी से अंदर डाल दिया है।’
‘हाँ, ज़रूर डाल दिया होगा! एनी वे, तुम्हारे डैड तुम्हें उसे लेकर देने वाले नहीं हैं, क्योंकि वे उसे अफोर्ड ही नहीं कर सकते!’
‘डैड का इससे क्या लेना-देना है? मैं उनसे थोड़े ही माँग रहा फादर क्रिसमस से माँग रहा हूँ, बेवक़ूफ़!’
‘तो फिर ज़रा हम भी सुनें स्किनो, और क्या-क्या माँगा है तुमने?’
‘कुछ नहीं। मुझे और कुछ नहीं लेना है! बस सिर्फ़ ‘क्वीन मेरी’ चाहिए मुझे और उसे मैं लेकर रहूँगा, देख लेना!’
उस समय तो बात यहीं ख़त्म हो गई, लेकिन हम सब की व्यक्तिगत धारणा थी कि अल्बर्ट कुछ ज़्यादा ही आशावादी हो रहा है। अव्वल तो रोशनियों से जगमगाता ‘क्वीन मेरी’ इतना विशालकाय और भव्य था कि शायद वह बिक्री के लिए था ही नहीं। दूसरे, हम सब जानते थे कि स्किनर परिवार में फादर क्रिसमस का इकलौता प्रतिनिधि, कोयले की खदान में काम करने वाला एक मनहूस, बददिमाग़ मज़दूर था, जो फ़िलहाल बेरोज़गार भी था।
सबको पता था कि अल्बर्ट को पिछले जन्मदिन पर जूतों की एक मामूली जोड़ी मिली थी, जबकि उसका दिल दरअसल पहियों वाले स्कूटर पर आया हुआ था।
लेकिन फिर भी अल्बर्ट सबके सामने ज़ोर देकर कहता रहा कि उसे इस बार क्रिसमस पर ‘क्वीन मेरी’ ही मिल रहा है ‘मेरे डैड से पूछ लो!’ वह कहता, अगर मेरा यकीन नहीं, तो मेरे डैड से पूछो।’
हममें से किसी में ग़ुस्सैले मिस्टर स्किनर से यह सवाल करने की हिम्मत नहीं थी। लेकिन कभी-कभार उसके घर जब हम कॉमिक्स एक्सचेंज करने जाते, तो वह ख़ुद ही इस विषय को छेड़ देता।
‘डैड, मिल रहा है न मुझे? नहीं डैड? इस बार क्रिसमस पर वह ‘क्वीन मेरी?’
आग के पास बैठकर एकाग्रता से लकड़ी के एक टुकड़े को छीलते मिस्टर स्किनर कोयला मज़दूरों वाले ख़ास अंदाज़ में बग़ैर सिर ऊपर उठाए गुर्राते, ‘एक झापड़ पड़ेगा कान के ऊपर, अगर ज़्यादा पटर-पटर की तो!’
और अल्बर्ट निहायत संतुष्ट भाव से हमारी ओर मुड़ता, ‘देखा, कहा था न मैंने! ‘क्वीन मेरी’ मिल रहा है मुझे मिल रहा है न, डैड! डैड! है न?’
कभी-कभी जब उसके डैड नशे में धुत काफ़ी ख़राब मूड में पब से लौटते (और ऐसा अक्सर ही होता था) तो अल्बर्ट की इन अनुनय भरी फ़रमाइशों का और भी चिड़चिड़ा उत्तर मिलता। ‘अब साली उस ब्लडी क्वीन मेरी का रोना बंद करेगा कि नहीं?’ मिस्टर स्किनर चिल्लाते, ‘नामुराद पिल्ले! समझता है मेरे पास पैसे पेड़ पर उगते हैं?’
लेकिन डैड के ज़ोरदार दुहत्थड़ से झनझनाता कान लिए अल्बर्ट बाहर निकलते ही अपने आँसू धकेलते हुए पहले से दुगुनी ज़िद में घोषणा करता, ‘फिर भी मुझे वह जहाज़ मिल रहा है। क्रिसमस आने पर देख लेना!’
क्रिसमस ईव को अब सिर्फ़ पंद्रह दिन रह गए थे। हममें से अधिकांश को अब तक अपनी माँओं से मिलने वाले संकेतों की बदौलत अंदाज़ा लग चुका था कि फादर क्रिसमस हमारे लिए क्या लाएँगे, या यूँ कहें कि क्या नहीं ला पाएँगे।
‘मुझे नहीं लगता, टेरी बेटे, कि फादर क्रिसमस इस साल इलेक्ट्रिक ट्रेन का सेट जुटा सकेंगे। वे कहते हैं, वो सेट बहुत महँगा है, हो सका तो वे तुम्हारे लिए पीछे से उठने वाली एक टिप अप लॉरी लाएँगे।’
हम सब काफ़ी व्यावहारिक थे, और इस नाते हमारे लिए फादर क्रिसमस की प्राथमिकताओं की सूची में अपने फिसड्डीपन को चुपचाप मंज़ूर करने के सिवा कोई चारा नहीं था। और हमने बहुत कोशिश की कि अल्बर्ट भी इस स्थिति को स्वीकार कर ले।
‘ऐसी कोई ज़बर्दस्ती तो नहीं है कि तुम्हें वह ‘क्वीन मेरी’ ही मिले, स्किनो!’
‘कौन कहता है कि नहीं है?’
‘मेरी मम्मी कहती है कि वह फादर क्रिसमस के झोले के लिए बहुत बड़ा है, उसमें अंट नहीं पाएगा!’
‘हाँ, बस इतना ही उन्हें मालूम है। उन्हें क्या पता कि वे जैकी कॉरिगन के लिए परियों वाली साइकिल लाने वाले हैं, तो अगर फादर के झोले में ‘क्वीन मेरी’ नहीं आ सकता तो वह सड़ी हुई खटारा परियों वाली साइकिल कैसे आएगी?’
‘नहीं आ सकती, तभी तो मुझे वह साइकिल नहीं मिल रही है, फादर मेरे लिए जॉन बुल की प्रिंटेड ड्रेस ला रहे हैं, उन्होंने मेरी मम्मी को बताया है।’
‘मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उन्होंने तुम्हारी मम्मी को क्या बताया है और क्या नहीं बताया! मेरे लिए तो वह ‘क्वीन मेरी’ ही लेकर आने वाले हैं!’
पूरी बहस मिस्टर स्किनर के रसोई की खिड़की पर अचानक प्रकट हो जाने से बीच में ही रुक गई, ‘अब अगर मैंने एक लफ़्ज़ भी तेरी ज़बान से उस साली क्वीन ब्लडी मेरी के बारे में सुना तो यह पक्का समझना कि तुझे क्रिसमस पर कुछ भी नहीं मिलने वाला! सुनाई दे रहा है या नहीं?’ और मामला वहीं ख़त्म हो गया।
लेकिन कुछ दिन बाद 43 नंबर के घर वाला अपंग लड़का चर्च की लेडीज़ गिल्ड के साथ फ़ौजी घड़ी के घंटे बजने का समारोह देखने गया तो उसने लौटकर बताया कि ‘क्वीन मेरी’ जहाज का शानदार मॉडल उस आलीशान दुकान की जगमगाती खिड़की से ग़ायब हो चुका है!
‘मुझे मालूम है!’ अल्बर्ट ने इधर-उधर देखा और यह तय कर चुकने के बाद कि उसके डैड उसकी आवाज़ की पहुँच के बाहर हैं, बड़े शांत भाव से कहा, ‘मुझे क्रिसमस पर वह जहाज मिल जो रहा है।’
और सचमुच उस वक़्त तो हमें उसके ग़ायब होने की यही एक ठोस वजह लगी, क्योंकि आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था कि उस आलीशान खिलौनों की दुकान की काँच की खिड़की का मुख्य प्रदर्शन बॉक्सिंग डे से पहले हटा दिया जाए। कुछ छोटी-मोटी चीज़ें ज़रूर खिड़की से ग़ायब हो जाया करती थीं, जैसे नोआ’ज़ आर्क या मोनोपोली की गेम्स या ऐसे ही कुछ नामालूम से खिलौने।
लेकिन इसका भी समझ में आ सकने वाला कारण था। फादर क्रिसमस के पास सबको बाँटने के लिए खिलौने कम पड़ जाते होंगे और तब कभी-कभार उनके लिए अपने उप-ठेकेदारों की मदद लेना ज़रूरी हो जाता होगा। पर मेकैनो का ब्लैकपूल टॉवर या शाही सवारी वाले गोल-गोल घूमने वाले घोड़े, इस तरह की चीज़ें आँखों को लुभाने के लिए रखी जाती थीं और उन्हें हटाए जाने का सवाल ही नहीं उठता था। फिर भी इस बार ‘क्वीन मेरी’ को हटा दिया गया था! आख़िर क्यों? क्या फादर क्रिसमस का दिमाग़ चल गया था? या मिस्टर स्किनर ने उन्हें रिश्वत देकर पटा लिया था? लेकिन रिश्वत के पैसे कहाँ से आए? क्या मिस्टर स्किनर की कोई लॉटरी लग गई थी? या फिर यह कि अल्बर्ट का अटूट विश्वास पहाड़ों को हिला देने की ताक़त रखता था? क्या वह समुद्र पर चलने वाले, चिमनी से सचमुच का धुआँ उगलने वाले और जगमगाते झरोखों से सचमुच की रोशनी बिखेरने वाले जहाज़ों को भी चला सकता था? या फिर, जैसा हममें से एक शंकालु लड़के ने कहा, ‘क्वीन मेरी’ को शहर के दूसरी ओर बसे संभ्रांत इलाक़े के किसी बिगड़ैल बच्चे के लिए ख़ासतौर पर ख़रीद लिया गया था?
‘बस, तुम लोग क्रिसमस तक रुको और फिर देखना,’ अल्बर्ट ने कहा।
और फिर आई क्रिसमस की सुबह। घरों में सारी चॉकलेटें खा चुकने के बाद और जब पूरी सड़कें बादामों के खोलों और संतरों के छिलकों से भर गई तो हम सब अपने-अपने उपहार देखने और दिखाने के लिए एक जगह इकट्ठा हुए। जिन्हें काठ के बने हुए किले चाहिए थे, वे अपनी पेंटिंग की किताब में किलों की चित्रकारी कर ख़ुश थे, जिन्हें बिजली से दौड़ने वाली रेसिंग कार चाहिए थीं, वे डिंकी टॉयज़ की बित्ता भर कारों से संतुष्ट हो गए थे और जिन्होंने रोलर स्केट्स की माँग की थी, वे अपने पेंसिल बॉक्सों से बहल गए थे। पर अल्बर्ट! उसका तो कहीं नामो-निशान नहीं था।
सच पूछा जाए तो किसी को उम्मीद नहीं थी कि वह दिखाई भी देगा। पर जैसे ही हमने उसके बारे में अटकलें लगाना शुरू किया कि फादर क्रिसमस उसके लिए क्या लाए होंगे—एक नई जर्सी या शायद हेलमेट या...वह उछलता-कूदता, कुलांचे भरता, सड़क को ख़ुशी से पैरों तले रौंदता, आता हुआ दिखाई दिया, ‘मिल गया! मिल गया! मुझे मिल गया!’
किताबें और खिलौने, कंचे और कूचियाँ सबको जैसे गटर में उपेक्षित छोड़कर हम अल्बर्ट को घेरकर खड़े हो गए। अल्बर्ट, जिसने अपनी बाँहों के घेरे में कुछ ऐसा उठा रक्खा था, जो पहली नज़र में लकड़ी के किसी कुंदे-सा लगता था। धीरे-धीरे हमने उसे ध्यान से देखा, उस कुंदे के दोनों सिरों को खुरदुरे तरीक़े से तराश कर जहाज़ का अगला और पिछला हिस्सा बनाया गया था और चिमनियों की जगह धागों की तीन रीलें फिट की हुई थीं। टिन के पतरे से जहाज़ की ‘प्लिमसोल रेखा’ बनायी गई थी और झरोखों के लिए कार्डबोर्ड के गोल टुकड़े चिपके थे। सामने के नाम वाले हिस्से को छोड़कर उस पूरी चीज़ को काले चिपचिपे ऑयल पेंट से रंगा गया था।
‘द क्वीन मेरी’ सामने सफ़ेद काँपते अक्षरों में लिखा था। बड़ा टी, छोटा एच, बड़ा ई, ‘क्वीन’ में बड़ा क्यू, दो बड़े ई और छोटा एन। मेरी के लिए बड़ा एम, छोटा ए, बड़ा आर, छोटा व्हाई, शुरू से ही मिस्टर स्किनर का लेखन कला से कोई ख़ास सरोकार नहीं रहा था।
‘देखा!’ अल्बर्ट ने ख़ुशी से किलकारी भरते हुए कहा, ‘मैंने कहा था न, वे मेरे लिए यही लेकर आएँगे और वे ले आए, देखो।’
हम सबकी प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया कुछ दबी-दबी होने के बावजूद काफ़ी सहज और सच्ची थी। अल्बर्ट का ‘क्वीन मेरी’ कला का एक अनगढ़ नमूना ज़रूर था, लेकिन फिर भी इसमें कोई शक नहीं था कि उस नमूने में हथेलियों के पूरे दुलार के साथ कड़ी मशक़्क़त के घंटों खपाए गए थे। लकड़ी के उस कुंदे को जहाज़ की आकृति देने में ही जलते अलाव के सामने लकड़ी छीलते हुए न जाने कितनी रातें जागते हुए गुज़ारी गई होंगी।
मिस्टर स्किनर अपनी पतलून में क़मीज़ और जैकेट खोंसते हुए तब तक घर से बाहर आ गए थे और अपने बग़ीचे के गेट के सामने खड़े थे। उछाह में भरकर अल्बर्ट अपने डैड की ओर दौड़ा और दोनों बाँहें चौड़ी खोलकर उनसे लिपट गया। फिर उसने ‘क्वीन मेरी’ को ऊपर हवा में हिलाकर दिखाया।
‘देखो डैड! देखो, क्या मिला मुझे क्रिसमस में! देखो फादर क्रिसमस क्या लेकर आए मेरे लिए! लेकिन तुम्हें तो पता ही था कि वो लाएँगे, शुरू से ही पता था! पता था न! बोलो!’
‘चल, परे भी हट अब, कमबख़्त!’ मिस्टर स्किनर ने कहा। फिर अपने ख़ाली पाइप में संतुष्ट भाव से एक सुट्टा मारकर उन्होंने आदतन अल्बर्ट के सर पर हल्की-सी चपत जमाई और घर के भीतर चले गए।
shahr ke men market ke bichobich, ghanton vali fauji ghaDi ke theek niche khilaunon ki ek alishan dukan hua karti thi aur jahan tak mujhe malum hai. aaj bhi hai.
ye dukan ek susajjit jadui gupha jaisi thi, jiska ek hissa chiDiyaghar jaisa tha to dusra sarakasanuma. kahin relgaDiyon ki pradarshani thi, to kahin chabhi se chalne hilne vale beshumar praniyon ka jamghat, kahin guDDe guDiyon ke khel, to kahin kitabon ki mohak layabreri. kahin khel kood ke anaginat saman to kahin bachchon ke liye bakson mein band gemon ka ek pura sangrhalay. bas yoon samajhiye ki sardiyon ki chhuttiyon ka bharpur maza lene ka anthin silsila yahan maujud tha. par pahle us ghanton vali fauji ghaDi ki baat.
saal mein ek baar hamein ghantaghar ki us ghaDi mein duphar ke barah ghanton ki tankar sunane ke liye vahan le jaya jata. bakingham pailes ke sipahiyon ki ‘tuping auph di kalar’ rasm ki tarah ye hamari zindagi ki sabse rangin, sthayi aur mahatvpurn ghatna ban chuki thi. bhavya shobhayatra ke shanadar pradarshan mein apne aap mein anokhi. barah bajne se kuch minat pahle hi shahr ke sare vishisht bashinde fauji ghaDi ke niche, ghisi tuti tails ke chabutre par, jahan mojek se tamatar ke sausej ka ek vigyapan bana tha, is drishya ko dekhne ke liye ikatthe ho jate the.
vahan main tha, jaik kauringan tha, aur 43 nambar ghar vala wo apang laDka tha aur tha albart skinar jiske DaiD use kahin bhi lekar nahin jate the. skool ke aufis mein is baat ki safai dene bhi nahin ki jab tab wo skool se bevajah bhaga kyon phirta hai.
albart skinar apna munDa hua saphachat sir aur patlun se bahar latakti qamiz liye kisi ek ke pichhe, saDak ke avara kutte ki tarah chipak leta. shahr jakar fauji ghaDi ke ghante bajne ke shanadar ayojan ke liye taiyar, itvaar ki apni khaas poshak mein saje dhaje traam. hum traam staup par khaDe intzaar kar rahe hote ki achanak hava mein se kisi jinn ki tarah albart prakat ho jata.
aur hamari maan, jaisa ki unhen kahna chahiye hota, hairan hokar kahti, “albart! tum is tarah, is haal mein shahr jaoge?”
“nahin, jana to hai, par traam ke kiraye ke paise kho ge. ” albart kahta.
is par maan taras khakar kahtin, “koi baat nahin, tum hamare saath aa sakte ho, par apne ko zara saaph kar lo. kam se kam apni qamiz ko to andar khons lo!”
aur is tarah krismas ke dinon mein albart hamare saath fauji ghaDi ke ghante sunta. aur jab raja ke mashini sipahi plastar auph peris ke durg mein vapas muD jate to hum sabke saath use bhi alishan khilaunon ki dukan ki kaanch ki khiDki par apni naak gaDane ki ijazat mil jati.
kafi der us khiDki par dhyaan jama chukne ke baad hamein peparmint ki goliyon ka ek paiket milta. (‘ise sabko aapas mein bantakar khana hai!) khaDkhaDati tramon mein baithkar hum ghar lautte, aur tab jalte alav ke samne apne thanD se akDe pairon ko pighlate hue hamein phadar krismas ke naam apni farmaish likhni hoti. . .
albart skinar kuch nahin kahta. vaise to svaichchhik sanrachna na kar pane ke un yatnadayak ghanton mein kisi ke paas bhi kahne layak kuch nahin hota tha.
apni apni kaupiyon ke kore kaghzon ko ghutnon par phailaye, danton tale apni syahi vali pensilon ko hum tak tak kutarte jab tak hamari jibhen baingni na ho jatin. aisa nahin tha ki hum sabmen maulik farmaishon ki koi kami thi, balki haqiqat isse ulti hi thi. slej, kriket bait, stamps, phaunten pen, Daynemo aur miki maus ki philmen darasal itni zyada chizen theen ki unmen se chunav karna mushkil tha.
khilaunon ki wo alishan dukan, jisne hamari kori kalpnaon mein rang bhare the, santa klauj ke jadui pitare ke bahut najdik thi. jaise jannat mein kisi uthti hui dukan ki sel lagi ho. dhuen vali baDi relgaDi ghaDi ki suiyon ki tarah bane se dane chalti thi aur chhoti bijli ki tren ulti ghaDi ki tarah danii se banii or. aur vahan noaz aark tha, traam kanDaktar set tha. roshni se jagmagate kaanch ke shelf par ghumta taipraitar tha aur adrishya taron ke sahare chhat se latki ek pariyon si khubsurat saikil. iske alava borD gems theen, kemistri set aur karpentri set the, tip taup philm phan reDiyo aur phan jingal, jokar aur jestar ke akarshak varshik ank the. yani ki hamari umr ka har adhunik laDka, jinhen dekhkar apni jama punji lutane ke liye taiyar ho jaye, aisi har cheez vahan maujud thi.
ya yoon kaha jaye ki vahan har aisi cheez thi, jise dekhkar albart skinar jaisa laDka apna sab kuch dene ke liye taiyar ho jaye, phir bhi usmen se koi cheez use kabhi na mile. us dukan ki adhikansh chizen aisi theen, jinhen albart kya, achchhe khate pite ghar ka laDka bhi apne sare sadvyavhar ke bavjud krismas ke takiye ke niche pane ki ummid nahin rakh sakta tha.
us alishan khilaunon ki dukan ki kaanch ki khiDki ka mukhya akarshan hamesha samanya insanon ki pahunch se bahar ka koi ati bhavya namuna hota. jaise, mekaino par samucha blaikpul tavar ya hazaron iinton se bana vinDsar kaisel ka mauDal ya pital ke DanDon par sachmuch uupar niche hote ghumte ghoDon ka ‘meri go raunD’ ya phir pahiyon par khaDa chaundhiyati roshni vala shahi bakingham pailes. hammen se kisi ko bhi bataye jane ki zarurat nahin thi ki ye sari aiyyashiyan phadar krismas ke bajat se bahar ki chizen theen.
is saal khiDki mein klaiD baink bandargah par pichhle dinon laanch kiye ge vishalakay jahaj ‘kveen meri’ ka ek bhavya mauDal tha. chaar feet lambe is mauDal ke jharokhon par sachmuch ki laits lagi theen aur uski chimaniyon se sachmuch ke dhune ke chhalle uupar uthte dikhai dete the. khubsurti se tarashe ge karmchariyon, kru, laiphbots, kebin tranks aur yatriyon se lais ye mauDal zahir hai ki hum jaison ke liye nahin tha.
us darshaniy jahaz ko chamatkrit bhaav se bharpur dekh chukne ke baad hamne ek mahnge sapne ki tarah use apne dimagh se sthagit kar diya tha aur phir se apni syahi vali pensilon ko kutarte hue hum phadar krismas ke naam apni apekshakrit vyavaharik farmaishen (yani plastisin, ya chand phutkar saste khilaune ya do janon ke beech rolar skets ka ek sajha joDa) likhne par jut ge the.
‘ham’ yani hum sab, albart skinar ke alava. aath ilektrik sports kaar vale resing traik ya apne manapsand pheliks da kait ke dastane par bane hathguDDe ke prastav sahit kai sambhavnaon par vichar kar chukne ke baad albart ne baDe shaant bhaav se ghoshna ki thi ki usne sare sujhavon ko tarjih di hai, par wo phadar krismas se ‘kveen meri’ ki hi maang karne ja raha hai.
aap theek hi soch rahe hain ki albart ki is asambhav farmaish ka svagat kuch sanshyatmak Dhang se hua.
‘kyaa? wo arkeD vinDo par rakha ‘kveen meri’? wo sari laits aur chimaniyon se uthte dhune vala jahaj? tum kahin uski baat to nahin kar rahe ho?”
‘ji haan bilkul ! main usi ki baat kar raha hoon. aur kyon na karun?’
‘yah besir pair ki haank raha hai. e skino, tum un sipahiyon ko kyon nahin maang lete, jo pareD karte hue darvaze se andar bahar jate hain aur ghaDi ka ghanta bajate hain? ‘kveen meri’ ke mukable unhen pana zyada asan hoga!’
agar mujhe ve sipahi chahiye hote to main zarur unhen maang leta, par mujhe ve chahiye hi nahin. isliye mainne unse ‘kveen meri’ ki hi farmaish ki hai. ’
‘unse kinse? phadar krismas se?”
aur nahin to kya, kvaikar ots ke Dibbe par bane buDDhe baba se?’
‘kam aun main! tum hamein ullu bana rahe ho!’
‘main sach kah raha hoon, bhagvan kasam! mainne unse ‘kveen meri’ jahaz hi manga hai. ’
‘chalo, hamein phir chitti dekhne do. ’
‘chitthi kya mere paas paDi hai? use to mainne chimani se andar Daal diya hai. ’
‘haan, zarur Daal diya hoga! eni ve, tumhare DaiD tumhein use lekar dene vale nahin hain, kyonki ve use aphorD hi nahin kar sakte!’
‘DaiD ka isse kya lena dena hai? main unse thoDe hi maang raha phadar krismas se maang raha hoon, bevaquf!’
‘to phir zara hum bhi sunen skino, aur kya kya manga hai tumne?’
‘kuchh nahin. mujhe aur kuch nahin lena hai! bas sirf ‘kveen meri’ chahiye mujhe aur use main lekar rahunga, dekh lena!’
us samay to baat yahin khatm ho gai, lekin hum sab ki vyaktigat dharna thi ki albart kuch zyada hi ashavadi ho raha hai. avval to roshaniyon se jagmagata ‘kveen meri’ itna vishalakay aur bhavya tha ki shayad wo bikri ke liye tha hi nahin. dusre, hum sab jante the ki skinar parivar mein phadar krismas ka iklauta pratinidhi, koyle ki khadan mein kaam karne vala ek manhus, badadimagh mazdur tha, jo filhal berozgar bhi tha.
sabko pata tha ki albart ko pichhle janmdin par juton ki ek mamuli joDi mili thi, jabki uska dil darasal pahiyon vale skutar par aaya hua tha.
lekin phir bhi albart sabke samne zor dekar kahta raha ki use is baar krismas par ‘kveen meri’ hi mil raha hai ‘mere DaiD se poochh lo!’ wo kahta, agar mera yakin nahin, to mere DaiD se puchho. ’
hammen se kisi mein ghussaile mistar skinar se ye saval karne ki himmat nahin thi. lekin kabhi kabhar uske ghar jab hum kaumiks ekschenj karne jate, to wo khud hi is vishay ko chheD deta.
‘DaiD, mil raha hai na mujhe? nahin DaiD? is baar krismas par wo ‘kveen meri?’
aag ke paas baithkar ekagrata se lakDi ke ek tukDe ko chhilte mistar skinar koyala mazduron vale khaas andaz mein baghair sir uupar uthaye gurrate, ‘ek jhapaD paDega kaan ke uupar, agar zyada patar patar ki to!’
aur albart nihayat santusht bhaav se hamari or muDta, ‘dekha, kaha tha na mainne! ‘kveen meri’ mil raha hai mujhe mil raha hai na, DaiD! DaiD! hai na?’
kabhi kabhi jab uske DaiD nashe mein dhut kafi kharab mooD mein pab se lautte (aur aisa aksar hi hota tha) to albart ki in anunay bhari farmaishon ka aur bhi chiDchiDa uttar milta. ‘ab sali us blDi kveen meri ka rona band karega ki nahin?’ mistar skinar chillate, ‘namurad pille! samajhta hai mere paas paise peD par ugte hain?’
lekin DaiD ke zordar duhatthaD se jhanajhnata kaan liye albart bahar nikalte hi apne ansu dhakelte hue pahle se duguni jid mein ghoshna karta, ‘phir bhi mujhe wo jahaj mil raha hai. krismas aane par dekh lena!’
krismas iiv ko ab sirf pandrah din rah ge the. hammen se adhikansh ko ab tak apni manon se milne vale sanketon ki badaulat andaz lag chuka tha ki phadar krismas hamare liye kya layenge, ya yoon kahen ki kya nahin la payenge.
‘mujhe nahin lagta, teri bete, ki phadar krismas is saal ilektrik tren ka set juta sakenge. ve kahte hain, wo set bahut mahnga hai, ho saka to ve tumhare liye pichhe se uthne vali ek tip ap lauri layenge. ’
hum sab kafi vyavaharik the, aur is nate hamare liye phadar krismas ki prathamiktaon ki suchi mein apne phisaDDipan ko chupchap manzur karne ke siva koi chara nahin tha. aur hamne bahut koshish ki ki albart bhi is sthiti ko svikar kar le.
‘aisi koi zabardasti to nahin hai ki tumhein wo ‘kveen meri’ hi mile, skino!’
‘kaun kahta hai ki nahin hai?’
‘meri mami kahti hai ki wo phadar krismas ke jhole ke liye bahut baDa hai, usmen ant nahin payega!’
‘haan, bas itna hi unhen malum hai. unhen kya pata ki ve jaiki kaurigan ke liye pariyon vali saikil lane vale hain, to agar phadar ke jhole mein ‘kveen meri’ nahin aa sakta to wo saDi hui khatara pariyon vali saikil kaise ayegi?’
‘nahin aa sakti, tabhi to mujhe wo saikil nahin mil rahi hai, phadar mere liye jaun bul ki printeD Dres la rahe hain, unhonne meri mammi ko bataya hai. ’
‘mujhe koi farq nahin paDta ki unhonne tumhari mammi ko kya bataya hai aur kya nahin bataya ! mere liye to wo ‘kveen meri’ hi lekar aane vale hain!’
puri bahs mistar skinar ke rasoi ki khiDki par achanak prakat ho jane se beech mein hi ruk gai, ‘ab agar mainne ek laphj bhi teri zaban se us sali kveen blDi meri ke bare mein suna to ye pakka samajhna ki tujhe krismas par kuch bhi nahin milne vala! sunai de raha hai ya nahin?’ aur mamla vahin khatm ho gaya.
lekin kuch din baad 43 nambar ke ghar vala apang laDka charch ki leDiz gilD ke saath fauji ghaDi ke ghante bajne ka samaroh dekhne gaya to usne lautkar bataya ki ‘kveen meri’ jahaj ka shanadar mauDal us alishan dukan ki jagmagati khiDki se ghayab ho chuka hai!
‘mujhe malum hai!’ albart ne idhar udhar dekha aur ye tay kar chukne ke baad ki uske DaiD uski avaz ki pahunch ke bahar hain, baDe shaant bhaav se kaha, ‘mujhe krismas par wo jahaj mil jo raha hai. ’
aur sachmuch us vaqt to hamein uske ghayab hone ki yahi ek thos vajah lagi, kyonki aaj se pahle kabhi aisa nahin hua tha ki us alishan khilaunon ki dukan ki kaanch ki khiDki ka mukhya pradarshan bauksing De se pahle hata diya jaye. kuch chhoti moti chizen zarur khiDki se ghayab ho jaya karti theen, noa’za aark ya monopoli ki gems ya aise hi kuch namalum se khilaune.
lekin iska bhi samajh mein aa sakne vala karan tha. phadar krismas ke paas sabko bantne ke liye khilaune kam paD jate honge aur tab kabhi kabhar unke liye apne up thekedaron ki madad lena zaruri ho jata hoga. par mekaino ka blaikpul tauvar ya shahi savari vale gol gol ghumne vale ghoDe, is tarah ki chizen ankhon ko lubhane ke liye rakhi jati theen aur unhen hataye jane ka saval hi nahin uthta tha. phir bhi is baar ‘kveen meri’ ko hata diya gaya tha! akhir kyon? kya phadar krismas ka dimagh chal gaya tha? ya mistar skinar ne unhen rishvat dekar pata liya tha? lekin rishvat ke paise kahan se aaye? kya mistar skinar ki koi lautri lag gai thee? ya phir ye ki albart ka atut vishvas pahaDon ko hila dene ki taqat rakhta tha? kya wo samudr par chalne vale, chimani se sachmuch ka dhuan ugalne vale aur jagmagate jharokhon se sachmuch ki roshni bikherne vale jahazon ko bhi chala sakta tha? ya phir, jaisa hammen se ek shankalu laDke ne kaha, ‘kveen meri’ ko shahr ke dusri or base sambhrant ilaqe ke kisi bigDail bachche ke liye khastaur par kharid liya gaya tha?
‘bas, tum log krismas tak ruko aur phir dekhana,’ albart ne kaha.
aur phir aai krismas ki subah. gharon mein sari chaukleten kha chukne ke baad aur jab puri saDken badamon ke kholon aur santron ke chhilkon se bhar gai to hum sab apne apne uphaar dekhne aur dikhane ke liye ek jagah ikattha hue. jinhen kaath ke bane hue kile chahiye the, ve apni penting ki kitab mein kilon ki chitrkari kar khush the, jinhen bijli se dauDne vali resing kaar chahiye theen, ve Dinki tauyaz ki bitta bhar karon se santusht ho ge the aur jinhonne rolar skets ki maang ki thi, ve apne pensil baukson se bahal ge the. par albart! uska to kahin namo nishan nahin tha.
sach puchha jaye to kisi ko ummid nahin thi ki wo dikhai bhi dega. par jaise hi hamne uske bare mein ataklen lagana shuru kiya ki phadar krismas uske liye kya laye honge—ek nai jarsi ya shayad helmet ya. . . wo uchhalta kudta, kulanche bharta, saDak ko khushi se pairon tale raundta, aata hua dikhai diya, ‘mil gaya! mil gaya! mujhe mil gaya!’
kitaben aur khilaune, kanche aur kuchiyan sabko jaise gatar mein upekshit chhoDkar hum albart ko gherkar khaDe ho ge. albart, jisne apni banhon ke ghere mein kuch aisa utha rakkha tha, jo pahli nazar mein lakDi ke kisi kunde sa lagta tha. dhire dhire hamne use dhyaan se dekha, us kunde ke donon siron ko khurdure tariqe se tarash kar jahaz ka agla aur pichhla hissa banaya gaya tha aur chimaniyon ki jagah dhagon ki teen rilen phit ki hui theen. tin ke patre se jahaz ki ‘plimsol rekha’ banayi gai thi aur jharokhon ke liye karDborD ke gol tukDe chipke the. samne ke naam vale hisse ko chhoDkar us puri cheez ko kale chipachipe auyal pent se ranga gaya tha.
‘da kveen meri’ samne safed kanpte akshron mein likha tha. baDa ti, chhota ech, baDa ii, ‘kveen’ mein baDa kyu, do baDe ii aur chhota en. meri ke liye baDa em, chhota e, baDa aar, chhota vhai, shuru se hi mistar skinar ka lekhan kala se koi khaas sarokar nahin raha tha.
‘dekha!’ albart ne khushi se kilkari bharte hue kaha, ‘mainne kaha tha na, ve mere liye yahi lekar ayenge aur ve le aaye, dekho. ’
hum sabki prshansatmak pratikriya kuch dabi dabi hone ke bavjud kafi sahj aur sachchi thi. albart ka ‘kveen meri’ kala ka ek angaDh namuna zarur tha, lekin phir bhi ismen koi shak nahin tha ki us namune mein hatheliyon ke pure dular ke saath kaDi mashaqqat ke ghanton khapaye ge the. lakDi ke us kunde ko jahaz ki akriti dene mein hi jalte alav ke samne lakDi chhilte hue na jane kitni raten jagte hue guzari gai hongi.
mistar skinar apni patlun mein qamiz aur jaiket khonste hue tab tak ghar se bahar aa ge the aur apne bagiche ke get ke samne khaDe the. uchhaah mein bharkar albart apne DaiD ki or dauDa aur donon banhen chauDi kholkar unse lipat gaya. phir usne ‘kveen meri’ ko uupar hava mein hilakar dikhaya.
‘dekho DaiD ! dekho, kya mila mujhe krismas men! dekho phadar krismas kya lekar aaye mere liye! lekin tumhein to pata hi tha ki wo layenge, shuru se hi pata tha! pata tha na! bolo!’
‘chal, pare bhi hat ab, kambakht!’ mistar skinar ne kaha. phir apne khali paip mein santusht bhaav se ek sutta markar unhonne adatan albart ke sar par halki si chapat jamai aur ghar ke bhitar chale ge.
shahr ke men market ke bichobich, ghanton vali fauji ghaDi ke theek niche khilaunon ki ek alishan dukan hua karti thi aur jahan tak mujhe malum hai. aaj bhi hai.
ye dukan ek susajjit jadui gupha jaisi thi, jiska ek hissa chiDiyaghar jaisa tha to dusra sarakasanuma. kahin relgaDiyon ki pradarshani thi, to kahin chabhi se chalne hilne vale beshumar praniyon ka jamghat, kahin guDDe guDiyon ke khel, to kahin kitabon ki mohak layabreri. kahin khel kood ke anaginat saman to kahin bachchon ke liye bakson mein band gemon ka ek pura sangrhalay. bas yoon samajhiye ki sardiyon ki chhuttiyon ka bharpur maza lene ka anthin silsila yahan maujud tha. par pahle us ghanton vali fauji ghaDi ki baat.
saal mein ek baar hamein ghantaghar ki us ghaDi mein duphar ke barah ghanton ki tankar sunane ke liye vahan le jaya jata. bakingham pailes ke sipahiyon ki ‘tuping auph di kalar’ rasm ki tarah ye hamari zindagi ki sabse rangin, sthayi aur mahatvpurn ghatna ban chuki thi. bhavya shobhayatra ke shanadar pradarshan mein apne aap mein anokhi. barah bajne se kuch minat pahle hi shahr ke sare vishisht bashinde fauji ghaDi ke niche, ghisi tuti tails ke chabutre par, jahan mojek se tamatar ke sausej ka ek vigyapan bana tha, is drishya ko dekhne ke liye ikatthe ho jate the.
vahan main tha, jaik kauringan tha, aur 43 nambar ghar vala wo apang laDka tha aur tha albart skinar jiske DaiD use kahin bhi lekar nahin jate the. skool ke aufis mein is baat ki safai dene bhi nahin ki jab tab wo skool se bevajah bhaga kyon phirta hai.
albart skinar apna munDa hua saphachat sir aur patlun se bahar latakti qamiz liye kisi ek ke pichhe, saDak ke avara kutte ki tarah chipak leta. shahr jakar fauji ghaDi ke ghante bajne ke shanadar ayojan ke liye taiyar, itvaar ki apni khaas poshak mein saje dhaje traam. hum traam staup par khaDe intzaar kar rahe hote ki achanak hava mein se kisi jinn ki tarah albart prakat ho jata.
aur hamari maan, jaisa ki unhen kahna chahiye hota, hairan hokar kahti, “albart! tum is tarah, is haal mein shahr jaoge?”
“nahin, jana to hai, par traam ke kiraye ke paise kho ge. ” albart kahta.
is par maan taras khakar kahtin, “koi baat nahin, tum hamare saath aa sakte ho, par apne ko zara saaph kar lo. kam se kam apni qamiz ko to andar khons lo!”
aur is tarah krismas ke dinon mein albart hamare saath fauji ghaDi ke ghante sunta. aur jab raja ke mashini sipahi plastar auph peris ke durg mein vapas muD jate to hum sabke saath use bhi alishan khilaunon ki dukan ki kaanch ki khiDki par apni naak gaDane ki ijazat mil jati.
kafi der us khiDki par dhyaan jama chukne ke baad hamein peparmint ki goliyon ka ek paiket milta. (‘ise sabko aapas mein bantakar khana hai!) khaDkhaDati tramon mein baithkar hum ghar lautte, aur tab jalte alav ke samne apne thanD se akDe pairon ko pighlate hue hamein phadar krismas ke naam apni farmaish likhni hoti. . .
albart skinar kuch nahin kahta. vaise to svaichchhik sanrachna na kar pane ke un yatnadayak ghanton mein kisi ke paas bhi kahne layak kuch nahin hota tha.
apni apni kaupiyon ke kore kaghzon ko ghutnon par phailaye, danton tale apni syahi vali pensilon ko hum tak tak kutarte jab tak hamari jibhen baingni na ho jatin. aisa nahin tha ki hum sabmen maulik farmaishon ki koi kami thi, balki haqiqat isse ulti hi thi. slej, kriket bait, stamps, phaunten pen, Daynemo aur miki maus ki philmen darasal itni zyada chizen theen ki unmen se chunav karna mushkil tha.
khilaunon ki wo alishan dukan, jisne hamari kori kalpnaon mein rang bhare the, santa klauj ke jadui pitare ke bahut najdik thi. jaise jannat mein kisi uthti hui dukan ki sel lagi ho. dhuen vali baDi relgaDi ghaDi ki suiyon ki tarah bane se dane chalti thi aur chhoti bijli ki tren ulti ghaDi ki tarah danii se banii or. aur vahan noaz aark tha, traam kanDaktar set tha. roshni se jagmagate kaanch ke shelf par ghumta taipraitar tha aur adrishya taron ke sahare chhat se latki ek pariyon si khubsurat saikil. iske alava borD gems theen, kemistri set aur karpentri set the, tip taup philm phan reDiyo aur phan jingal, jokar aur jestar ke akarshak varshik ank the. yani ki hamari umr ka har adhunik laDka, jinhen dekhkar apni jama punji lutane ke liye taiyar ho jaye, aisi har cheez vahan maujud thi.
ya yoon kaha jaye ki vahan har aisi cheez thi, jise dekhkar albart skinar jaisa laDka apna sab kuch dene ke liye taiyar ho jaye, phir bhi usmen se koi cheez use kabhi na mile. us dukan ki adhikansh chizen aisi theen, jinhen albart kya, achchhe khate pite ghar ka laDka bhi apne sare sadvyavhar ke bavjud krismas ke takiye ke niche pane ki ummid nahin rakh sakta tha.
us alishan khilaunon ki dukan ki kaanch ki khiDki ka mukhya akarshan hamesha samanya insanon ki pahunch se bahar ka koi ati bhavya namuna hota. jaise, mekaino par samucha blaikpul tavar ya hazaron iinton se bana vinDsar kaisel ka mauDal ya pital ke DanDon par sachmuch uupar niche hote ghumte ghoDon ka ‘meri go raunD’ ya phir pahiyon par khaDa chaundhiyati roshni vala shahi bakingham pailes. hammen se kisi ko bhi bataye jane ki zarurat nahin thi ki ye sari aiyyashiyan phadar krismas ke bajat se bahar ki chizen theen.
is saal khiDki mein klaiD baink bandargah par pichhle dinon laanch kiye ge vishalakay jahaj ‘kveen meri’ ka ek bhavya mauDal tha. chaar feet lambe is mauDal ke jharokhon par sachmuch ki laits lagi theen aur uski chimaniyon se sachmuch ke dhune ke chhalle uupar uthte dikhai dete the. khubsurti se tarashe ge karmchariyon, kru, laiphbots, kebin tranks aur yatriyon se lais ye mauDal zahir hai ki hum jaison ke liye nahin tha.
us darshaniy jahaz ko chamatkrit bhaav se bharpur dekh chukne ke baad hamne ek mahnge sapne ki tarah use apne dimagh se sthagit kar diya tha aur phir se apni syahi vali pensilon ko kutarte hue hum phadar krismas ke naam apni apekshakrit vyavaharik farmaishen (yani plastisin, ya chand phutkar saste khilaune ya do janon ke beech rolar skets ka ek sajha joDa) likhne par jut ge the.
‘ham’ yani hum sab, albart skinar ke alava. aath ilektrik sports kaar vale resing traik ya apne manapsand pheliks da kait ke dastane par bane hathguDDe ke prastav sahit kai sambhavnaon par vichar kar chukne ke baad albart ne baDe shaant bhaav se ghoshna ki thi ki usne sare sujhavon ko tarjih di hai, par wo phadar krismas se ‘kveen meri’ ki hi maang karne ja raha hai.
aap theek hi soch rahe hain ki albart ki is asambhav farmaish ka svagat kuch sanshyatmak Dhang se hua.
‘kyaa? wo arkeD vinDo par rakha ‘kveen meri’? wo sari laits aur chimaniyon se uthte dhune vala jahaj? tum kahin uski baat to nahin kar rahe ho?”
‘ji haan bilkul ! main usi ki baat kar raha hoon. aur kyon na karun?’
‘yah besir pair ki haank raha hai. e skino, tum un sipahiyon ko kyon nahin maang lete, jo pareD karte hue darvaze se andar bahar jate hain aur ghaDi ka ghanta bajate hain? ‘kveen meri’ ke mukable unhen pana zyada asan hoga!’
agar mujhe ve sipahi chahiye hote to main zarur unhen maang leta, par mujhe ve chahiye hi nahin. isliye mainne unse ‘kveen meri’ ki hi farmaish ki hai. ’
‘unse kinse? phadar krismas se?”
aur nahin to kya, kvaikar ots ke Dibbe par bane buDDhe baba se?’
‘kam aun main! tum hamein ullu bana rahe ho!’
‘main sach kah raha hoon, bhagvan kasam! mainne unse ‘kveen meri’ jahaz hi manga hai. ’
‘chalo, hamein phir chitti dekhne do. ’
‘chitthi kya mere paas paDi hai? use to mainne chimani se andar Daal diya hai. ’
‘haan, zarur Daal diya hoga! eni ve, tumhare DaiD tumhein use lekar dene vale nahin hain, kyonki ve use aphorD hi nahin kar sakte!’
‘DaiD ka isse kya lena dena hai? main unse thoDe hi maang raha phadar krismas se maang raha hoon, bevaquf!’
‘to phir zara hum bhi sunen skino, aur kya kya manga hai tumne?’
‘kuchh nahin. mujhe aur kuch nahin lena hai! bas sirf ‘kveen meri’ chahiye mujhe aur use main lekar rahunga, dekh lena!’
us samay to baat yahin khatm ho gai, lekin hum sab ki vyaktigat dharna thi ki albart kuch zyada hi ashavadi ho raha hai. avval to roshaniyon se jagmagata ‘kveen meri’ itna vishalakay aur bhavya tha ki shayad wo bikri ke liye tha hi nahin. dusre, hum sab jante the ki skinar parivar mein phadar krismas ka iklauta pratinidhi, koyle ki khadan mein kaam karne vala ek manhus, badadimagh mazdur tha, jo filhal berozgar bhi tha.
sabko pata tha ki albart ko pichhle janmdin par juton ki ek mamuli joDi mili thi, jabki uska dil darasal pahiyon vale skutar par aaya hua tha.
lekin phir bhi albart sabke samne zor dekar kahta raha ki use is baar krismas par ‘kveen meri’ hi mil raha hai ‘mere DaiD se poochh lo!’ wo kahta, agar mera yakin nahin, to mere DaiD se puchho. ’
hammen se kisi mein ghussaile mistar skinar se ye saval karne ki himmat nahin thi. lekin kabhi kabhar uske ghar jab hum kaumiks ekschenj karne jate, to wo khud hi is vishay ko chheD deta.
‘DaiD, mil raha hai na mujhe? nahin DaiD? is baar krismas par wo ‘kveen meri?’
aag ke paas baithkar ekagrata se lakDi ke ek tukDe ko chhilte mistar skinar koyala mazduron vale khaas andaz mein baghair sir uupar uthaye gurrate, ‘ek jhapaD paDega kaan ke uupar, agar zyada patar patar ki to!’
aur albart nihayat santusht bhaav se hamari or muDta, ‘dekha, kaha tha na mainne! ‘kveen meri’ mil raha hai mujhe mil raha hai na, DaiD! DaiD! hai na?’
kabhi kabhi jab uske DaiD nashe mein dhut kafi kharab mooD mein pab se lautte (aur aisa aksar hi hota tha) to albart ki in anunay bhari farmaishon ka aur bhi chiDchiDa uttar milta. ‘ab sali us blDi kveen meri ka rona band karega ki nahin?’ mistar skinar chillate, ‘namurad pille! samajhta hai mere paas paise peD par ugte hain?’
lekin DaiD ke zordar duhatthaD se jhanajhnata kaan liye albart bahar nikalte hi apne ansu dhakelte hue pahle se duguni jid mein ghoshna karta, ‘phir bhi mujhe wo jahaj mil raha hai. krismas aane par dekh lena!’
krismas iiv ko ab sirf pandrah din rah ge the. hammen se adhikansh ko ab tak apni manon se milne vale sanketon ki badaulat andaz lag chuka tha ki phadar krismas hamare liye kya layenge, ya yoon kahen ki kya nahin la payenge.
‘mujhe nahin lagta, teri bete, ki phadar krismas is saal ilektrik tren ka set juta sakenge. ve kahte hain, wo set bahut mahnga hai, ho saka to ve tumhare liye pichhe se uthne vali ek tip ap lauri layenge. ’
hum sab kafi vyavaharik the, aur is nate hamare liye phadar krismas ki prathamiktaon ki suchi mein apne phisaDDipan ko chupchap manzur karne ke siva koi chara nahin tha. aur hamne bahut koshish ki ki albart bhi is sthiti ko svikar kar le.
‘aisi koi zabardasti to nahin hai ki tumhein wo ‘kveen meri’ hi mile, skino!’
‘kaun kahta hai ki nahin hai?’
‘meri mami kahti hai ki wo phadar krismas ke jhole ke liye bahut baDa hai, usmen ant nahin payega!’
‘haan, bas itna hi unhen malum hai. unhen kya pata ki ve jaiki kaurigan ke liye pariyon vali saikil lane vale hain, to agar phadar ke jhole mein ‘kveen meri’ nahin aa sakta to wo saDi hui khatara pariyon vali saikil kaise ayegi?’
‘nahin aa sakti, tabhi to mujhe wo saikil nahin mil rahi hai, phadar mere liye jaun bul ki printeD Dres la rahe hain, unhonne meri mammi ko bataya hai. ’
‘mujhe koi farq nahin paDta ki unhonne tumhari mammi ko kya bataya hai aur kya nahin bataya ! mere liye to wo ‘kveen meri’ hi lekar aane vale hain!’
puri bahs mistar skinar ke rasoi ki khiDki par achanak prakat ho jane se beech mein hi ruk gai, ‘ab agar mainne ek laphj bhi teri zaban se us sali kveen blDi meri ke bare mein suna to ye pakka samajhna ki tujhe krismas par kuch bhi nahin milne vala! sunai de raha hai ya nahin?’ aur mamla vahin khatm ho gaya.
lekin kuch din baad 43 nambar ke ghar vala apang laDka charch ki leDiz gilD ke saath fauji ghaDi ke ghante bajne ka samaroh dekhne gaya to usne lautkar bataya ki ‘kveen meri’ jahaj ka shanadar mauDal us alishan dukan ki jagmagati khiDki se ghayab ho chuka hai!
‘mujhe malum hai!’ albart ne idhar udhar dekha aur ye tay kar chukne ke baad ki uske DaiD uski avaz ki pahunch ke bahar hain, baDe shaant bhaav se kaha, ‘mujhe krismas par wo jahaj mil jo raha hai. ’
aur sachmuch us vaqt to hamein uske ghayab hone ki yahi ek thos vajah lagi, kyonki aaj se pahle kabhi aisa nahin hua tha ki us alishan khilaunon ki dukan ki kaanch ki khiDki ka mukhya pradarshan bauksing De se pahle hata diya jaye. kuch chhoti moti chizen zarur khiDki se ghayab ho jaya karti theen, noa’za aark ya monopoli ki gems ya aise hi kuch namalum se khilaune.
lekin iska bhi samajh mein aa sakne vala karan tha. phadar krismas ke paas sabko bantne ke liye khilaune kam paD jate honge aur tab kabhi kabhar unke liye apne up thekedaron ki madad lena zaruri ho jata hoga. par mekaino ka blaikpul tauvar ya shahi savari vale gol gol ghumne vale ghoDe, is tarah ki chizen ankhon ko lubhane ke liye rakhi jati theen aur unhen hataye jane ka saval hi nahin uthta tha. phir bhi is baar ‘kveen meri’ ko hata diya gaya tha! akhir kyon? kya phadar krismas ka dimagh chal gaya tha? ya mistar skinar ne unhen rishvat dekar pata liya tha? lekin rishvat ke paise kahan se aaye? kya mistar skinar ki koi lautri lag gai thee? ya phir ye ki albart ka atut vishvas pahaDon ko hila dene ki taqat rakhta tha? kya wo samudr par chalne vale, chimani se sachmuch ka dhuan ugalne vale aur jagmagate jharokhon se sachmuch ki roshni bikherne vale jahazon ko bhi chala sakta tha? ya phir, jaisa hammen se ek shankalu laDke ne kaha, ‘kveen meri’ ko shahr ke dusri or base sambhrant ilaqe ke kisi bigDail bachche ke liye khastaur par kharid liya gaya tha?
‘bas, tum log krismas tak ruko aur phir dekhana,’ albart ne kaha.
aur phir aai krismas ki subah. gharon mein sari chaukleten kha chukne ke baad aur jab puri saDken badamon ke kholon aur santron ke chhilkon se bhar gai to hum sab apne apne uphaar dekhne aur dikhane ke liye ek jagah ikattha hue. jinhen kaath ke bane hue kile chahiye the, ve apni penting ki kitab mein kilon ki chitrkari kar khush the, jinhen bijli se dauDne vali resing kaar chahiye theen, ve Dinki tauyaz ki bitta bhar karon se santusht ho ge the aur jinhonne rolar skets ki maang ki thi, ve apne pensil baukson se bahal ge the. par albart! uska to kahin namo nishan nahin tha.
sach puchha jaye to kisi ko ummid nahin thi ki wo dikhai bhi dega. par jaise hi hamne uske bare mein ataklen lagana shuru kiya ki phadar krismas uske liye kya laye honge—ek nai jarsi ya shayad helmet ya. . . wo uchhalta kudta, kulanche bharta, saDak ko khushi se pairon tale raundta, aata hua dikhai diya, ‘mil gaya! mil gaya! mujhe mil gaya!’
kitaben aur khilaune, kanche aur kuchiyan sabko jaise gatar mein upekshit chhoDkar hum albart ko gherkar khaDe ho ge. albart, jisne apni banhon ke ghere mein kuch aisa utha rakkha tha, jo pahli nazar mein lakDi ke kisi kunde sa lagta tha. dhire dhire hamne use dhyaan se dekha, us kunde ke donon siron ko khurdure tariqe se tarash kar jahaz ka agla aur pichhla hissa banaya gaya tha aur chimaniyon ki jagah dhagon ki teen rilen phit ki hui theen. tin ke patre se jahaz ki ‘plimsol rekha’ banayi gai thi aur jharokhon ke liye karDborD ke gol tukDe chipke the. samne ke naam vale hisse ko chhoDkar us puri cheez ko kale chipachipe auyal pent se ranga gaya tha.
‘da kveen meri’ samne safed kanpte akshron mein likha tha. baDa ti, chhota ech, baDa ii, ‘kveen’ mein baDa kyu, do baDe ii aur chhota en. meri ke liye baDa em, chhota e, baDa aar, chhota vhai, shuru se hi mistar skinar ka lekhan kala se koi khaas sarokar nahin raha tha.
‘dekha!’ albart ne khushi se kilkari bharte hue kaha, ‘mainne kaha tha na, ve mere liye yahi lekar ayenge aur ve le aaye, dekho. ’
hum sabki prshansatmak pratikriya kuch dabi dabi hone ke bavjud kafi sahj aur sachchi thi. albart ka ‘kveen meri’ kala ka ek angaDh namuna zarur tha, lekin phir bhi ismen koi shak nahin tha ki us namune mein hatheliyon ke pure dular ke saath kaDi mashaqqat ke ghanton khapaye ge the. lakDi ke us kunde ko jahaz ki akriti dene mein hi jalte alav ke samne lakDi chhilte hue na jane kitni raten jagte hue guzari gai hongi.
mistar skinar apni patlun mein qamiz aur jaiket khonste hue tab tak ghar se bahar aa ge the aur apne bagiche ke get ke samne khaDe the. uchhaah mein bharkar albart apne DaiD ki or dauDa aur donon banhen chauDi kholkar unse lipat gaya. phir usne ‘kveen meri’ ko uupar hava mein hilakar dikhaya.
‘dekho DaiD ! dekho, kya mila mujhe krismas men! dekho phadar krismas kya lekar aaye mere liye! lekin tumhein to pata hi tha ki wo layenge, shuru se hi pata tha! pata tha na! bolo!’
‘chal, pare bhi hat ab, kambakht!’ mistar skinar ne kaha. phir apne khali paip mein santusht bhaav se ek sutta markar unhonne adatan albart ke sar par halki si chapat jamai aur ghar ke bhitar chale ge.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 65)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।