नन्हा फ़नकार
nanha fankar
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा पाँचवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
वह लड़का एक चौकोर लाल पत्थर के पास बैठ गया। उसने जल्दी-जल्दी कोई प्रार्थना बुदबुदाई और छेनी हथौड़ा उठाकर अपने काम में जुट गया।
कुछ दिन पहले ही उसने इस पत्थर पर घंटियों की क़तारें और कड़ियाँ उकेरना शुरू किया था। लड़के ने एक अधबनी अधूरी घंटी पर छेनी की नोक टिकाई और सावधानीपूर्वक हथौड़े से घंटी पर नक़्क़ाशी करने में जुट गया।
हथौड़े के वार से पत्थर पर जो कटाव उभरता उससे पत्थर की किरचें छितरा जातीं और वह आँखें सिकोड़ लेता। साथ-साथ धीमी आवाज़ में वह कुछ गुनगुनाने भी लगता। उसके चारों ओर दूसरे संगतराश भी अपने-अपने काम में डूबे हुए थे।
केशव दस साल का था और अभी अपना काम सीख ही रहा था। पिता के एक बार करके दिखा देने पर वह सीधी लकीरों वाले और घुमावदार डिज़ाइन उकेर सकता था। अब तक उसने नक़्क़ाशी का जो भी काम किया था उनमें से इन घंटियों को बनाना ही सबसे ज़्यादा मुश्किल था। केशव जानता था कि एक दिन तो ऐसा ज़रूर आएगा जब वह बहुत बारीक जालियाँ, महीन-नफ़ीस बेल-बूटे, कमल के फूल, लहराते हुए साँप और इठलाकर चलते हुए घोड़े ये सब पत्थर पर उकेर पाएगा...ठीक उसी तरह जैसे उसके पिता बनाते हैं।
कई साल पहले, जब वह पैदा भी नहीं हुआ था, उसके माता-पिता गुजरात से आगरा आकर बस गए थे। बादशाह अकबर उस वक़्त आगरे का क़िला बनवा रहे थे और केशव के पिता को यहीं काम मिल गया। केशव का जन्म भी आगरे में ही हुआ था। उसे गुजरात के पुश्तैनी गाँव जाने का तो कभी मौक़ा ही नहीं मिला। आगरे की गलियाँ और अब सीकरी—बस यही उसका घर था।
चारों ओर हो रही छेनी-हथौड़ों की ठक-ठक, खड़खड़ के बीच केशव को किसी के क़दमों की आहट भी न सुनाई पड़ी। इसलिए अचानक कानों में एक आवाज़ पड़ने पर वह चौंक गया “माशा अल्लाह! ये घटियाँ कितनी सुंदर हैं। तुमने ख़ुद बनाई हैं?”
पीछे मुड़कर केशव ने आँखें उठाई तो उसे एक आदमी दिखा।
“बेशक, मैंने ही ये घटियाँ बनाई हैं। क्या मैं आपको पत्थरों पर नक़्क़ाशी करता नज़र नहीं आ रहा? देखते नहीं, मैं ही पत्थर को तराश रहा हूँ।” केशव ने बड़ी तल्ख़ी से जवाब दिया।
“दिखता तो है। पर तुम इतने छोटे लगते हो न...”आदमी हँसते हुए बोला।
“मैं दस साल का हूँ!”
“दस! अच्छा,” वह आदमी पास पड़े पत्थर पर बैठते हुए बोला, “तब तो काफ़ी बड़े हो। मैंने भी तेरह साल की उम्र में एक लड़ाई में हिस्सा लिया था।”
अब केशव उस आदमी को अच्छी तरह देख पा रहा था। उसकी उम्र रही होगी तीस से ऊपर, क़द मँझोला था। वह सफ़ेद अँगरखा और पाजामा पहने हुए था। उसके लंबे बाल गहरे लाल रंग की पगड़ी में अच्छी तरह से ढके हुए थे।
“लगता है कोई बहुत बड़ा आदमी है,” केशव ने उस आदमी के गले में पड़ी बड़े-बड़े मोतियों की माला और उँगलियों की अँगूठियों को देखते हुए सोचा। तीखी नाक, बड़ी-बड़ी आँखें होंठों को ढकते हुए नीचे की तरफ़ आती घनी मूँछें। केशव उस आदमी के व्यक्तित्व का मुआयना कर ही रहा था कि तभी उस आदमी ने एक नक़्काशी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “इस लड़ी में अभी काफ़ी काम बाक़ी है।” इससे पहले कि केशव कोई जवाब देता, उसने किसी के तेज़ी से दौड़कर आने की आवाज़ सुनी। यह और कोई नहीं, महल का पहरेदार था। “हुज़ूर! माफ़ करें। मुझे आपके आने का पता ही नहीं चला।” हाँफ़ते हुए उसने कहा। फिर वह मुड़कर भौंचक से खड़े केशव को घूरते हुए बोला, “बेवक़ूफ़, खड़ा हो! हुज़ूरे आला के सामने बैठने की जुर्रत कैसे की तूने, झुककर सलाम कर इन्हें।”
अब केशव का माथा ठनका। उसे कुछ-कुछ समझ आ रहा था। बदहवासी में छेनी हाथ से छूटकर नीचे गिरी और वह जल्दी से उठकर खड़ा हो गया। अरे कहीं ये बादशाह अकबर तो नहीं! यह ख़याल आते ही उसने झुककर सलाम किया और ख़रगोश की-सी कातर नज़रों से अकबर को देखने लगा।
अकबर को पहरेदार की यह दख़लंदाज़ी भली न लगी।
उन्होंने खीझकर पहरेदार को वहाँ से जाने का इशारा करते हुए कहा, “ठीक है सिपाही! कुछ देर के लिए हमें अकेला छोड़ दो।”
पहरेदार तो चला गया मगर केशव असमंजस में था कि उसे क्या करना चाहिए। वापस अपना नक़्क़ाशी का काम शुरू करे या बादशाह के हुक्म के इंतज़ार में खड़ा रहे। दिल तो उसका अभी भी धक-धक कर रहा था। हाँ, पर अब वह डरा हुआ नहीं था, क्योंकि अकबर प्यार से उसे देखते हुए मुस्कुरा रहे थे।
“तुम्हारा नाम क्या है?” अकबर ने नरम आवाज़ में पूछा।
“केशव,” उसने नपा-तुला जवाब दिया।
“केशव, क्या तुम मुझे नक़्क़ाशी करना सिखाओगे?”
उलझन में पड़े केशव ने तुरंत सिर हिला दिया।
“तब तो तुम्हें मेरे लिए हथौड़े और छेनी का भी इंतज़ाम करना होगा।”
केशव फुर्ती से अपने पिता के पास भागा गया और उनका छेनी हथौड़ा उठाकर उलटे पाँव लौट आया।
दोस्ताना अंदाज़ में अकबर केशव के पास ज़मीन पर बैठ गए और पास में पड़े पत्थर को खींचते हुए बोले, “ठीक है, अब बताओ कि मुझे क्या करना है।”
केशव ने संदेह भरी नज़रों से अकबर की ओर देखा” हुज़ूर, क्या आप यह सब करेंगे?”
“क्यों नहीं? मुझे तो विश्वास है कि मैं सीख ही लूँगा।”
“नहीं...नहीं...मेरा मतलब ये नहीं था,” केशव सकपका गया। “दरअसल मैं कहना चाहता था कि आप इतने बड़े बादशाह हैं। ये ठीक नहीं लगता।” उसने कुछ अनमने भाव से कहा।
अकबर हँसकर बोले, “अच्छा, लेकिन पिछले हफ़्ते तो मैंने मिट्टी से भरी डलिया ढोने में किसी की मदद की थी। क्या यह काम उससे भी ज़्यादा मुश्किल है?”
केशव अभी भी असमंजस की स्थिति में था। वह अकबर के पास बैठ गया और उन्हें छेनी पकड़ने का सही तरीक़ा सिखाने लगा। फिर जैसे कि केशव के पिता ने उसे सिखाया था, उसने कोयले के टुकड़े से पत्थर पर लकीरें खींचकर एक आसान सा नमूना बनाया और गंभीरता से कहा “देखिए, सिर्फ़ इन्हीं लकीरों को बहुत ध्यान से तराशना है, अकबर ने पत्थर पर छेनी रखी और ज़ोर से हथौड़े से वार किया, जिससे कटाव ज़्यादा गहरा हो गया।
“अरे...अरे...नहीं, नहीं”, केशव ने तुरंत ग़लती पकड़ी। हथौड़े को आहिस्ता से मारना है, ...ऐसे!” उसने करके दिखाया, “और हाँ, अपनी आँखें थोड़ी मींचकर रखें वरना किरचें उड़कर आँखों में चली जाएँगी।” अकबर मुस्कराए, “जी हुज़ूर।”
जवाब में केशव भी मुस्कुरा उठा। वह लगभग भूल ही गया था कि उसकी बग़ल में बैठा यह व्यक्ति हिंदुस्तान का बादशाह है। एक अनाड़ी—से वयस्क पर अपने काम की धाक ज़माने में उसे मज़ा आ रहा था। वह बड़े ध्यान से देख रहा था कि अकबर किस तरह लकीरों को उकेर रहे हैं। बादशाह से ज़रा—सी भी चूक हो जाने पर फ़ौरन उसकी त्यौरियाँ चढ़ जाती।
काम करते-करते अकबर पूछ बैठते, “केशव, सही नहीं है क्या?” और केशव सिर हिलाकर अपनी असहमति जता देता।
अकबर इत्मीनान से बैठ गए और केशव को काम करता हुआ देखने लगे। अपने काम में खोए हुए उन दोनों को इस बात का एहसास नहीं हुआ कि आसपास मौजूद दूसरे संगतराश उन्हें बड़े कौतूहल से देख रहे हैं।
अकबर ने ग़ौर किया कि केशव पत्थर पर बने नमूने को ही नहीं तराश रहा था बल्कि अपनी तरफ़ से भी उनमें कुछ जोड़ रहा था जिससे वे डिज़ाइन ज़्यादा ख़ूबसूरत लग रहे थे।
लड़के के काम करने के अंदाज़ को देखकर अकबर ने धीमे से कहा, “केशव देखना एक दिन तुम बड़े फ़नकार बनोगे। हो सकता है कि एक दिन तुम मेरे कारख़ाने में काम करो।”
“कारख़ाना? कैसा कारख़ाना?”
“बस एक बार ये महल तैयार हो जाए और लोग आगरा से आकर यहाँ रहने लगे, तब मैं कारख़ाने बनवाऊँगा। इन कारख़ानों में मेरी सल्तनत के सबसे बढ़िया फ़नकार और शिल्पकार काम करेंगे। चित्र बनाने वाले कलाकार, ग़लीचों के बुनकर, संगतराश, पत्थर और लकड़ी पर नक़्काशी करने वाले शिल्पकार सभी वहाँ काम करेंगे।
केशव का चेहरा चमक उठा। वह मुस्कुराते हुए बोला, “मैं वहाँ ज़रूर काम करना चाहूँगा।”
अकबर उठ खड़े हुए। जाते हुए बड़े प्यार से केशव का कंधा थपथपाया और कहा, “अच्छा बेटा अपना काम जारी रखो।”
“हुज़ूर! क्या आप दुबारा आएँगे?” केशव ने बड़ी उत्सुकता से पूछा।
“मैं ज़रूर आऊँगा केशव!”
फिर तो पूरे दिन संगतराशों के बीच केशव की धूम मची रही। वह बार-बार बादशाह से हुई अपनी मुलाक़ात सबको सुनाता रहा। रात हो चली थी। केशव बहुत थका हुआ था, पर आँखों में नींद कहाँ? वह धीरे से अपने पिता के बिस्तर में घुस गया। पिता ने मुस्कुराकर कहा, “तुम तो अभी से इतने प्रसिद्ध हो गए हो।”
“बादशाह सलामत ने कहा है कि एक दिन मैं बहुत बड़ा कलाकार बनूँगा।” अपने सिर को पिता की बाँहों के सहारे टिकाकर केशव धीरे से बोला, “हमारे बादशाह बहुत ही नेक इंसान हैं।” “बिल्कुल सही।” पिता ने कहा कुछ सोचकर केशव ने पूछा, “बाबा, एक बात बताओ, बादशाह के पास आगरा में एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत महल हैं। फिर वे सीकरी में यह शहर क्यों बनवा रहे हैं?”
पिता ने कुछ याद करते हुए बताना शुरू किया, “हाँ बेटा, बादशाह का आगरा बहुत सुंदर शहर है। पर सीकरी में नया शहर बनवाने का भी एक ख़ास कारण है। मैंने सुना है कि जब बादशाह अकबर की कोई संतान नहीं थी। इस वजह से वे हर वक़्त परेशान रहते थे। वे बहुत से साधु-संतों और फ़कीरों के पास गए। भटकते-भटकते बादशाह ख़्वाजा सलीम चिश्ती के पास सीकरी आए। उन्होंने ही बादशाह को बताया कि उनके एक नहीं तीन-तीन संतानें होंगी।”
“शाहज़ादा सलीम, मुराद और दनियाल” केशव ने चहकते हुए कहा।
“बिल्कुल सही। तब बादशाह ने ख़्वाजा सलीम चिश्ती के सम्मान में सीकरी में नगर बसाने का फ़ैसला किया था।”
केशव ने कहा, “अच्छा! अब समझा। इसीलिए बादशाह अकबर ने अपने बेटे का नाम सलीम रखा है।”
“हाँ, और इसी कारण हम यहाँ एक नए शहर के लिए पत्थरों को तराश रहे हैं।”
“हुँ ऽऽऽ” केशव उनींदी आवाज़ में बोला।
पिताजी ने देखा कि उनका लाडला बेटा सो गया है।
- पुस्तक : रिमझिम (पृष्ठ 33)
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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