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जान के रूप लुभाय कै नैननि

jaan ke roop lubhay kai nainani

घनानंद

घनानंद

जान के रूप लुभाय कै नैननि

घनानंद

जान के रूप लुभाय कै नैननि बेंचि करी अधबीच ही लौंडी।

फैल गई घर बाहिर बात सु नीकैं भई इन काज कनौंडी।

क्यों करि थाह लहै घनआनँद चाह नदी तट ही अति औंडी।

हाय दई! बिसासों सुनै कछु है जग बाजति नेह की डौंडी॥

इन नेत्ररूपी दलालों को सुजान के रूप का लोभ हुआ। उस लोभ में पड़कर उस रूप को प्राप्त करने के लिए उन्होंने मुझे अधबीच में ही दासी बना डाला। यह बात भी चारों ओर फैल गई घर में और बाहर भी अपने परिवार में भी तथा अन्य लोगों में भी, अपने-पराए सभी जान गए। इन नेत्रों के कारण मुझे दुर्बल होना पड़ा, बदनाम भी होना पड़ा। इधर इस प्रेम की अथाह स्थिति है। उसकी थाह का पता तो तब चले जब कोई डुबकी मारने वाला हो, जो डूबने का भय करेगा वह भला उसकी थाह क्या लगा सकेगा। प्रेम की डुग्गी जग भर में बज गई, सबको पता चल गया, पर वह प्रिय विश्वासघाती ऐसा है कि उसने उसे सुना ही नहीं, मेरे अनुकूल नहीं हुआ।

स्रोत :
  • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 128)
  • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
  • रचनाकार : घनानंद
  • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
  • संस्करण : 1972

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