फहरे निसान दिसानि ज़ाहिर
phahre nisaan disaani ज़.aahir
फहरे निसान दिसानि ज़ाहिर, धवल दल बक पंत से।
हय हियनि हर्षित बीरबर, फूले फिरत रति कंत से॥
बल के सवार सपूत अति, मज़बूत नद-से उमड़ि कै।
अरि-अरि ओरे-सी परैं, घनघोर गोली घुमड़ि कै॥
वर्षा ऋतु को सेना का रूपक देते हुए कवि पद्माकर वर्णन करते हुए करते हैं कि सभी ओर वर्षा ऋतु रूपी सेना के निशान अर्थात ध्वजाएँ फहर रही हैं, जो कि बगुलों के झुंडों की पंक्तियों की भाँति सफ़ेद हैं। आशय यह है कि बगुलों की सफ़ेद पंक्तियाँ वर्षा ऋतु रूपी सेना के निशान हैं, उसकी पताकाएँ हैं। इस अवसर पर रसिक-प्रेमी लोगों के हृदय रूपी घोड़े बड़े प्रसन्न होकर हिनहिना रहे हैं और कामदेव के समान श्रेष्ठ वीर घूम रहे हैं। घनघोर घटाओं के उमड़ने-घुमड़ने से दुश्मनों की ओर ओले के समान गोलियाँ गिर रही हैं।
- पुस्तक : पद्मावत पंचामृत (पृष्ठ 231)
- संपादक : विश्वनाथप्रसाद मिश्र
- रचनाकार : पद्माकर
- प्रकाशन : श्री रामरत्न पुस्तक भवन, काशी
- संस्करण : 1992
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