लै ही रहे हौ सदा मन और
lai hi rahe hau sada man aur
लै ही रहे हौ सदा मन और को दैवो न जानत जान दुलारे।
देख्यौ न है सपनेहूँ कहूँ दुख, त्यागे सँकोच और सोच सुखारे।
कैसौ संयोग वियोग धौं आहि फरौ घनआनंद ह्वै मतवारे।
मो गति बूझि परै तबही जब होहु घरीकहूँ आप ते न्यारे॥
हे सुजान! आप सदा दूसरों का मन लेते रहते हैं, किसी को अपना मन देना तो जानते नहीं। आपने स्वप्न में भी और कहीं भी दु:ख देखा नहीं, फिर दु:ख के ही परिवार के जो संकोच और सोच हैं उनका परित्याग आपके लिए सहज है। न जाने संयोग कैसा और वियोग कैसा, आप न इन्हें जानते हैं और न इनका भेद ही समझते हैं। आपके निकट केवल अति आनंद है जिसमें आप मतवाले हैं। मेरी स्थिति तभी समझ में आ सकती है जब आप अधिक नहीं केवल घड़ी भर के लिए अपने आपसे पृथक् हों।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 134)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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