गोकुल के कुल को तजि कै
gokul ke kul ko taji kai
गोकुल के कुल को तजि कै भजि कै बन बीथिन में बढ़ि जैये।
त्यों ‘पद्माकर’ कुंज कछार बिहार पहारन में चढ़ि जैये।
है नंदनंद गुबिंद जहाँ-तहाँ नंद के मंदिर में मढ़ि जैये।
यों चित चाहत ए री भटू मनमोहन लै कै कहूँ कढ़ि जैये॥
प्रेमासक्त गोपिका कहती है कि मेरी इस गोकुल के कुल या गायों के झुंड को त्यागकर, वन के उन रास्तों पर भागने की इच्छा होती है, जिन पर प्रियतम श्रीकृष्ण गायें जंगल में गए हुए हैं। पद्माकर कवि कहते हैं कि इसी प्रकार श्रीकृष्ण के लीला-स्थल कुंजों, कछारों तथा पहाड़ों पर भी भाग कर मैं चढ़ जाऊँ। जहाँ-जहाँ भी नंद-नंदन श्रीकृष्ण हैं, वहाँ-वहाँ और नंद के महलों में तो जाकर मैं चित्र की भाँति वहाँ की दीवारों पर ही मढ़ जाऊँ। मेरा मन यह चाहता है कि मन को मोहित करने वाले श्रीकृष्ण को अपने साथ लेकर कहीं निकल जाऊँ, ताकि उनसे मेरा एक क्षण का वियोग भी नहीं हो।
- पुस्तक : पद्मावत पंचामृत (पृष्ठ 276)
- संपादक : विश्वनाथप्रसाद मिश्र
- रचनाकार : पद्माकर
- प्रकाशन : श्री रामरत्न पुस्तक भवन, काशी
- संस्करण : 1992
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