हे महाराणी पत्नी तुम्हें नमस्कार है, तुम संसार का बंधन महा-जगड़वाल की मूलाधार हो। एक बार विवाह कर तुम्हारे जाल में फँस जाना चाहिए फिर क्या सामर्थि कि इस छंदान को तोड़ कोई कहीं भाग सके! यह तुम्हारी ही कृपा है कि आदमी एक जोरू कर खुद संसार भर की जोरू आप बनाता है। अति अल्प वय दस ही बारह वर्ष की उम्र में तुम्हारे जात में फँसने से हिन्दू जाति की कमजोरी, हीन बल क्षीण, वीर्य हीन-सत्व हो जाने का तुम्ही मुख्य कारण हो। हम लोग अल्प बुद्धिवाले किस गिनती में हैं, त्रिकालज्ञ पाणिनि ऐसे महर्षियों ने भी तुम्हारी कदर की है—‘‘पत्युनों यज्ञ संयोगे’’, पति शब्द को तुक् का आगम हो यज्ञ के संयोग में। तात्पर्य यह कि धर्मशास्त्र में ‘‘पल्पा सहाधिकारात्’’ के आधार पर यज्ञ दान आदि बड़े-बड़े धर्म के कामों में तुम्हें अपने संग ले तभी पुरुश को उन-उन धर्म के कृत्यों का अधिकार है।
शास्त्र वालों ने तुम्हारा महत्व और गौरव यहाँ तक माना है कि ‘‘अनाश्रमी न तिष्ठेत्’’ बिना गृहस्थ हुए न रहें, ऐसा लिख गए हैं, जो इस कारण संयुक्तिक भी मालूम होता है। कहा है—
‘‘ऋणानिन त्रीराययाकृतमनो मोक्षे निवेशयेत्’’
विद्या पढ़, पुत्र पैदा कर, बड़े-बड़े यज्ञ और दान के उपरांत तब मन को मोक्ष में लगावै अर्थात् संन्यासग्रहण करे। ऐसा न होता तो कितने ऐसे सभ्य समाज के सिरमौर संशोधन और देश हित का बीड़ा उठाए महा महंत माननीय मान्यवर क्यौं सदैव पत्नी-पत्नी रटते, उनके वद्धांजलि वशंवद रहते और बिना उनकी आज्ञा एक कदम आगे पाँव न रखते।
तस्मात् हे पत्नि! लोक और वेद दोनों तुम्हारी नमस्या और अपचिती में सावधान और प्रवण है। हे पत्नि! तुम्हारे कोमल अंग-सौष्ठव का संपर्क, तुम्हारे अधरामृत का पान, वाचाख कोकिला लाप, कुहू-नाद को तिरस्कार करने वाला तुम्हारे कोकिल-कंठ-निर्गत शब्दों को जिसने अपने कानों का अतिथि न किया, उस लंडूरे का जीवन ही क्या! कारण रसायन द्वयक्षरात्मक पत्नी शब्द सुन और तुम्हारा मोहिनी रूप देख कौन ऐसा युवक है जो अप्यायित हो आनंद निर्भर न हो जाता हो।
हे आदि रस की अधिष्ठात्री! शूर-वीर साहब लोग मुल्क के इंतिज़ाम की चतुराई में कहीं से नही चूकते पर तुम्हारे समस्त नाज़ नखरों पर अपना अधिकार जमाना तो दूर रहा, एक साधारण गौने के इंतिज़ाम में उनकी सब भूल जाती है। छोटे-भइये औसत दर्जे की तनखाह पाने पर भी सदा कर्जदार बने रहते हैं।
जिस घर में तुम अपना सौम्य-रूप धारण किए हो, वहाँ समग्र सम्पत्ति हँस रही है। जहाँ तुम्हारा भयंकर प्रचंड और उदंड रूप घर के एक-एक प्राणी को विकल किए है, वहाँ दरिद्रता का वास रुदन और क्रंदन का सहकारी हो हाहाकार मचाए हुए है। सेवा करने में दासी, एकांत में सलाह देने वाली मित्र, घर-गृहस्थी की बातों में उपदेश देने वाली गुरु, पति-भक्ता, पति प्राणापत्नी उन्हीं को मिलती है जिन्होंने किसी पुण्य तीर्थ में अच्छी तपस्या कर रक्खी है। गजगामिनी, जिसकी चाल के आगे हंसों की अपनी चाल का घमंड चला जाता है, जिस पिक वैनी की वचन माधुरी सुन कोकिला लज्जित हो मौन-व्रत धारण कर लेती है, जिसके नवनीत कोमल अंगो के साथ होड़ होने में चमेली की कोमलता पत्थर-सी कड़ी मालूम होती है, शोभा और सौंदर्य की अधिष्ठात्री लक्ष्मी जिसके लावराव जलधि की लहरी में अचम्भे में आप गोता खाने लगती हैं—
‘‘एक नारी सुंदरी वा दरी वा’’
भर्तृहरि की यह उक्ति ऐसी ही रूह धर्मिणी के मिलने से सुघटित होती हो। इत्यादि, इस पत्नी के गुणाणवि को कहाँ तक पल्लवित करते जाएँ। इसकी फल स्तुति में विश्वगुणादर्श का यह श्लोक उपयुक्त मालूम होता है—
व्यापारान्तरमुत्सुज्य वीक्षमाणो बधुसुखम।
यो गृहष्वेव निद्राति दरिद्राति स दुर्मति:।।
सब काम काज छोड़ जो वनिता-भक्त पत्नी के मुख की छवि निरखता हुआ घर में सोया करता है, वह मूर्ख अवश्यमेव दरिद्र का दास बन जाता है।
- पुस्तक : भारतेन्दुकालीन व्यंग परम्परा (पृष्ठ 62)
- संपादक : ब्रजेंद्रनाथ पांडेय
- रचनाकार : बालकृष्ण भट्ट
- प्रकाशन : कल्याणदास एंड ब्रदर्स
- संस्करण : 1956
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