प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
छोटे क़द और दुबले शरीरवाली भक्तिन अपने पतले ओठों के कोनों में दृढ़ संकल्प और छोटी आँखों में एक विचित्र समझदारी लेकर जिस दिन पहले-पहले मेरे पास आ उपस्थित हुई थी तब से आज तक एक युग का समय बीत चुका है। पर जब कोई जिज्ञासु उससे इस संबंध में प्रश्न कर बैठता है, तब वह पलकों को आधी पुतलियों तक गिराकर और चिंतन की मुद्रा में ठुड्डी को कुछ ऊपर उठाकर विश्वास भरे कंठ से उत्तर देती है—'तुम पचै का का बताई—यहै पचास बरिस से संग रहित है।’ इस हिसाब से मैं पचहत्तर की ठहरती हूँ और वह सौ वर्ष की आयु भी पार कर जाती है, इसका भक्तिन को पता नहीं। पता हो भी, तो संभवत: वह मेरे साथ बीते हुए समय में रत्ती भर भी कम न करना चाहेगी। मुझे तो विश्वास होता जा रहा है कि कुछ वर्ष और बीत जाने पर वह मेरे साथ रहने के समय को खींच कर सौ वर्ष तक पहुँचा देगी, चाहे उसके हिसाब से मुझे डेढ़ सौ वर्ष की असंभव आयु का भार क्यों न ढोना पड़े।
सेवक-धर्म में हनुमान जी से स्पर्द्धा करने वाली भक्तिन किसी अंजना की पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है—नाम है लछमिन अर्थात लक्ष्मी। पर जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है, वैसे ही लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी। वैसे तो जीवन में प्रायः सभी को अपने-अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है; पर भक्तिन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृद्धि-सूचक नाम किसी को बताती नहीं। केवल जब नौकरी की खोज में आई थी, तब ईमानदारी का परिचय देने के लिए उसने शेष इतिवृत्त के साथ यह भी बता दिया; पर इस प्रार्थना के साथ कि मैं कभी नाम का उपयोग न करूँ। उपनाम रखने की प्रतिभा होती, तो मैं सबसे पहले उसका प्रयोग अपने ऊपर करती, इस तथ्य को वह देहातिन क्या जाने, इसी से जब मैंने कंठी माला देखकर उसका नया नामकरण किया तब वह भक्तिन-जैसे कवित्वहीन नाम को पाकर भी गद्गद हो उठी।
भक्तिन के जीवन का इतिवृत्त बिना जाने हुए उसके स्वभाव को पूर्णतः क्या अंशत: समझना भी कठिन होगा। वह ऐतिहासिक झूँसी में गाँव-प्रसिद्ध एक सूरमा की इकलौती बेटी ही नहीं, विमाता की किंवदंती बन जाने वाली ममता की छाया में भी पली है। पाँच वर्ष की आयु में उसे हँडिया ग्राम के एक संपन्न गोपालक की सबसे छोटी पुत्रवधू बनाकर पिता ने शास्त्र से दो पग आगे रहने की ख्याति कमाई और नौ वर्षीया युवती का गौना देकर विमाता ने, बिना माँगे पराया धन लौटाने वाले महाजन का पुण्य लूटा।
पिता का उस पर अगाध प्रेम होने के कारण स्वभावतः ईर्ष्यालु और संपत्ति की रक्षा में सतर्क विमाता ने उनके मरणांतक रोग का समाचार तब भेजा, जब वह मृत्यु की सूचना भी बन चुका था। रोने-पीटने के अपशकुन से बचने के लिए सास ने भी उसे कुछ न बताया। बहुत दिन से नैहर नहीं गई, सो जाकर देख आवे, यही कहकर और पहना—उढ़ाकर सास ने उसे विदा कर दिया। इस अप्रत्याशित अनुग्रह ने उसके पैरों में जो पंख लगा दिए थे, वे गाँव की सीमा में पहुँचते ही झड़ गए। 'हाय लछमिन अब आई' की अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण दृष्टियाँ उसे घर तक ठेल ले गईं। पर वहाँ न पिता का चिह्न शेष था, न विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था। दु:ख से शिथिल और अपमान से जलती हुई वह उस घर में पानी भी बिना पिए उलटे पैरों ससुराल लौट पड़ी। सास को खरी-खोटी सुनाकर उसने विमाता पर आया हुआ क्रोध शांत किया और पति के ऊपर गहने फेंक-फेंककर उसने पिता के चिर विछोह की मर्मव्यथा व्यक्त की।
जीवन के दूसरे परिच्छेद में भी सुख की अपेक्षा दुख ही अधिक है। जब उसने गेहुँए रंग और बटिया जैसे मुखवाली पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले तब सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उपेक्षा प्रकट की। उचित भी था, क्योंकि सास तीन-तीन कमाऊ वीरों की विधात्री बनकर मचिया के ऊपर विराजमान पुरखिन के पद पर अभिषिक्त हो चुकी थी और दोनों जिठानियाँ काक-भुशंडी जैसे काले लालों की क्रमबद्ध सृष्टि करके इस पद के लिए उम्मीदवार थीं। छोटी बहू के लीक छोड़कर चलने के कारण उसे दंड मिलना आवश्यक हो गया।
जिठानियाँ बैठकर लोक-चर्चा करतीं और उनके कलूटे लड़के धूल उड़ाते; वह मट्ठा फेरती, कूटती, पीसती, राँधती और उसकी नन्हीं लड़कियाँ गोबर उठातीं, कडे पाथतीं। जिठानियाँ अपने भात पर सफ़ेद राब रखकर गाढ़ा दूध डालती और अपने लड़कों को औटते हुए दूध पर से मलाई उतारकर खिलातीं। वह काले गुड़ की डली के साथ कठौती में मट्ठा पाती और उसकी लड़कियाँ चने-बाजरे की घुघरी चबातीं।
इस दंड-विधान के भीतर कोई ऐसी धारा नहीं थी, जिसके अनुसार खोटे सिक्कों की टकसाल-जैसी पत्नी से पति को विरक्त किया जा सकता। सारी चुग़ली-चबाई की परिणति, उसके पत्नी-प्रेम को बढ़ाकर ही होती थी। जिठानियाँ बात-बात पर धमाधम पीटी-कूटी जाती; पर उसके पति ने उसे कभी उँगली भी नहीं छुआई। वह बड़े बाप की बड़ी बातवाली बेटी को पहचानता था। इसके अतिरिक्त परिश्रमी, तेजस्विनी और पति के प्रति रोम-रोम से सच्ची पत्नी को वह चाहता भी बहुत रहा होगा, क्योंकि उसके प्रेम के बल पर ही पत्नी ने अलगौझा करके सबको अँगूठा दिखा दिया। काम वही करती थी, इसलिए गाय-भैंस, खेत-खलिहान, अमराई के पेड़ आदि के संबंध में उसी का ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। उसने छाँट-छाँट कर, ऊपर से असंतोष की मुद्रा के साथ और भीतर से पुलकित होते हुए जो कुछ लिया, वह सबसे अच्छा भी रहा, साथ ही परिश्रमी दंपति के निरंतर प्रयास से उसका सोना बन जाना भी स्वाभाविक हो गया।
धूमधाम से बड़ी लड़की का विवाह करने के उपरांत, पति ने घरौंदे से खेलती हुई दो कन्याओं और कच्ची गृहस्थी का भार उनतीस वर्ष की पत्नी पर छोड़कर संसार से विदा ली। जब वह मरा, तब उसकी अवस्था छत्तीस वर्ष से कुछ ही अधिक रही होगी; पर पत्नी आज उसे बुढ़ऊ कह कर स्मरण करती है। भक्तिन सोचती है कि जब वह बूढ़ी हो गई, तब क्या परमात्मा के यहाँ वे भी न बुढ़ा गए होंगे, अतः उन्हें बुढ़ऊ न कहना उनका घोर अपमान है।
हाँ, तो भक्तिन के हरे-भरे खेत, मोटी-ताज़ी गाय-भैंस और फलों से लदे पेड़ देखकर जेठ-जिठौतों के मुँह में पानी भर आना ही स्वाभाविक था। इन सबकी प्राप्ति तो तभी संभव थी, जब भइयहू दूसरा घर कर लेती; पर जन्म से खोटी भक्तिन इनके चकमें में आई ही नहीं। उसने क्रोध से पाँव पटक-पटककर आँगन को कंपायमान करते हुए कहा—'हम कुकुरी बिलारी न होयँ, हमार मन पुसाई तौ हम दूसरा के जाब नाहिं त तुम्हार पचै की छाती पै होरहा भूँजब और राज करब, समुझे रहौ।'
उसने ससुर, अजिया ससुर और जाने कै पीढ़ियों के ससुरगणों की उपार्जित जगह-ज़मीन में से सुई की नोक बराबर भी देने की उदारता नहीं दिखाई। इसके अतिरिक्त गुरु से कान फुँकवा, कंठी बाँध और पति के नाम पर घी से चिकने केशों को समर्पित कर अपने कभी न टलने की घोषणा कर दी। भविष्य में भी संपत्ति सुरक्षित रखने के लिए उसने छोटी लड़कियों के हाथ पीले कर उन्हें ससुराल पहुँचाया और पति के चुने हुए बड़े दामाद को घरजमाई बनाकर रखा। इस प्रकार उसके जीवन का तीसरा परिच्छेद आरंभ हुआ।
भक्तिन का दुर्भाग्य भी उससे कम हठी नहीं था, इसी से किशोरी से युवती होते ही बड़ी लड़की भी विधवा हो गई। भइयहू से पार न पा सकने वाले जेठों और काकी को परास्त करने के लिए कटिबद्ध जिठौतों ने आशा की एक किरण देख पाई। विधवा बहिन के गठबंधन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया, क्योंकि उसका हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता। भक्तिन की लड़की भी माँ से कम समझदार नहीं थी, इसी से उसने वर को नापसंद कर दिया। बाहर के बहनोई का आना चचेरे भाइयों के लिए सुविधाजनक नहीं था, अतः यह प्रस्ताव जहाँ-का-तहाँ रह गया। तब वे दोनों माँ-बेटी ख़ूब मन लगाकर अपनी संपत्ति की देख-भाल करने लगीं और 'मान न मान मैं तेरा मेहमान' की कहावत चरितार्थ करने वाले वर के समर्थक उसे किसी-न-किसी प्रकार पति की पदवी पर अभिषिक्त करने का उपाय सोचने लगे।
एक दिन माँ की अनुपस्थिति में वर महाशय ने बेटी की कोठरी में घुस कर भीतर से द्वार बंद कर लिया और उसके समर्थक गाँववालों को बुलाने लगे। युवती ने जब इस डकैत वर की मरम्मत कर कुंडी खोली, तब पंच बेचारे समस्या में पड़ गए। तीतरबाज़ युवक कहता था, वह निमंत्रण पाकर भीतर गया और युवती उसके मुख पर अपनी पाँचों उँगलियों के उभार में इस निमंत्रण के अक्षर पढ़ने का अनुरोध करती थी। अंत में दूध-का-दूध पानी-का-पानी करने के लिए पंचायत बैठी और सबने सिर हिला-हिलाकर इस समस्या का मूल कारण कलियुग को स्वीकार किया। अपीलहीन फ़ैसला हुआ कि चाहे उन दोनों में एक सच्चा हो चाहे दोनों झूठे; पर जब वे एक कोठरी से निकले, तब उनका पति-पत्नी के रूप में रहना ही कलियुग के दोष का परिमार्जन कर सकता है। अपमानित बालिका ने ओठ काटकर लहू निकाल लिया और माँ ने आग्नेय नेत्रों से गले पड़े दामाद को देखा। संबंध कुछ सुखकर नहीं हुआ, क्योंकि दामाद अब निश्चिंत होकर तीतर लड़ाता था और बेटी विवश क्रोध से जलती रहती थी। इतने यत्न से सँभाले हुए गाय-ढोर, खेती-बारी जब पारिवारिक द्वेष में ऐसे झुलस गए कि लगान अदा करना भी भारी हो गया, सुख से रहने की कौन कहे। अंत में एक बार लगान न पहुँचने पर ज़मींदार ने भक्तिन को बुलाकर दिन भर कड़ी धूप में खड़ा रखा। यह अपमान तो उसकी कर्मठता में सबसे बड़ा कलंक बन गया, अतः दूसरे ही दिन भक्तिन कमाई के विचार से शहर आ पहुँची।
घुटी हुई चाँद को मोटी मैली धोती से ढाँके और मानो सब प्रकार की आहट सुनने के लिए कान कपड़े से बाहर निकाले हुए भक्तिन जब मेरे यहाँ सेवक-धर्म में दीक्षित हुई, तब उसके जीवन के चौथे और संभवत: अंतिम परिच्छेद का जो अर्थ हुआ, उसकी इति अभी दूर है।
भक्तिन की वेश-भूषा में गृहस्थ और वैरागी का सम्मिश्रण देखकर मैंने शंका से प्रश्न किया—क्या तुम खाना बनाना जानती हो! उत्तर में उसने ऊपर के ओठ को सिकोड़ और नीचे के अधर को कुछ बढ़ा कर आश्वासन की मुद्रा के साथ कहा—ई कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल राँध लेइत है, साग-भाजी छँउक सकित है, अउर बाक़ी का रहा!
दूसरे दिन तड़के हो सिर पर कई लोटे औंधा कर उसने मेरी धुली धोती जल के छींटों से पवित्र कर पहनी और पूर्व के अंधकार और मेरी दीवार से फूटते हुए सूर्य और पीपल का, दो लोटे जल से अभिनंदन किया। दो मिनट नाक दबाकर जप करने के उपरांत जब वह कोयले की मोटी रेखा से अपने साम्राज्य की सीमा निश्चित कर चौके में प्रतिष्ठित हुई, तब मैंने समझ लिया कि इस सेवक का साथ टेढ़ी खीर है। अपने भोजन के संबंध में नितांत वीतराग होने पर भी मैं पाक-विद्या के लिए परिवार में प्रख्यात हूँ और कोई भी पाक-कुशल दूसरे के काम में नुक्ताचीनी बिना किए रह नहीं सकता। पर जब छूत-पाक पर प्राण देने वाले व्यक्तियों का, बात-बात पर भूखा मरना स्मरण हो आया और भक्तिन की शंकाकुल दृष्टि में छिपे हुए निषेध का अनुभव किया, तब कोयले की रेखा मेरे लिए लक्ष्मण के धनुष से खींची हुई रेखा के सामने दुर्लभ्य हो उठी। निरुपाय अपने कमरे में बिछौने में पड़कर नाक के ऊपर खुली हुई पुस्तक स्थापित कर मैं चौके में पीछे पर आसीन अनधिकारी को भूलने का प्रयास करने लगी।
भोजन के समय जब मैंने अपनी निश्चित सीमा के भीतर निर्दिष्ट स्थान ग्रहण कर लिया, तब भक्तिन ने प्रसन्नता से लबालब दृष्टि और आत्मतुष्टि से आप्लावित मुसकुराहट के साथ मेरी फूल को थाली में एक अँगुल मोटी और गहरी काली चित्तीदार चार रोटियाँ रखकर उसे टेढ़ी कर गाढ़ी दाल परोस दी। पर जब उसके उत्साह पर तुषारपात करते हुए मैंने रुआँसे भाव से कहा—'यह क्या बनाया है?' तब वह हतबुद्धि हो रही।
रोटियाँ अच्छी सेंकने के प्रयास में कुछ अधिक खरी हो गई हैं; पर अच्छी हैं। तरकारियाँ थीं, पर जब दाल बनी है तब उनका क्या काम—शाम को दाल न बनाकर तरकारी बना दी जाएगी। दूध-घी मुझे अच्छा नहीं लगता, नहीं तो सब ठीक हो जाता। अब न हो तो अमचूर और लाल मिर्च की चटनी पीस ली जावे। उससे भी काम न चले, तो वह गाँव से लाई हुई गठरी में से थोड़ा-सा गुड़ दे देगी। और शहर के लोग क्या कलाबत्तू खाते हैं? फिर वह कुछ अनाड़िन या फूहड़ नहीं। उसके ससुर, पितिया ससुर, अजिया सास आदि ने उसकी पाक-कुशलता के लिए न जाने कितने मौखिक प्रमाण पत्र दे डाले हैं।
भक्तिन के इस सारगर्भित लेक्चर का प्रभाव यह हुआ कि मैं मीठे से विरक्ति के कारण बिना गुड़ के और घी से अरुचि के कारण रूखी दाल से एक मोटी रोटी खाकर बहुत ठाठ से यूनिवर्सिटी पहुँची और न्याय-सूत्र पढ़ते-पढ़ते शहर और देहात के जीवन के इस अंतर पर विचार करती रही।
अलग भोजन की व्यवस्था करनी पड़ी थी, अपने गिरते हुए स्वास्थ और परिवारवालों की चिंता-निवारण के लिए, पर प्रबंध ऐसा हो गया कि उपचार का प्रश्न ही खो गया। इस देहाती वृद्धा ने जीवन की सरलता के प्रति मुझे इतना जाग्रत कर दिया था कि मैं अपनी असुविधाएँ छिपाने लगी, सुविधाओं की चिंता करना तो दूर की बात।
इसके अतिरिक्त भक्तिन का स्वभाव ही ऐसा बन चुका है कि वह दूसरों को अपने मन के अनुसार बना लेती चाहती है; पर अपने संबंध में किसी प्रकार के परिवर्तन की कल्पना तक उसके लिए संभव नहीं। इसी से आज मैं अधिक देहाती हूँ; पर उसे शहर की हवा नहीं लग पाई। मकई का, रात को बना दलिया, सवेरे मठ्ठे से सोंधा लगता है। बाजरे के तिल लगाकर बनाए हुए पुए गर्म कम अच्छे लगते हैं। ज्वार के भुने हुए भुट्टे के हरे दानों की खिचड़ी स्वादिष्ट होती है। सफ़ेद महुए की लपसी संसार भर के हलवे को लजा सकती है; आदि वह मुझे क्रियात्मक रूप से सिखाती रहती है; पर यहाँ का रसगुल्ला तक भक्तिन के पोपले मुँह में प्रवेश करने का सौभाग्य नहीं प्राप्त कर सका। मेरे रात-दिन नाराज़ होने पर भी उसने साफ़ धोती पहनना नहीं सीखा; पर मेरे स्वयं धोकर फैलाए हुए कपड़ों को भी वह तह करने के बहाने सिलवटों से भर देती है। मुझे उसने अपनी भाषा की अनेक दंतकथाएँ कंठस्थ करा दी हैं; पर पुकारने पर वह 'आँय' के स्थान में 'जी' कहने का शिष्टाचार भी नहीं सीख सकती।
भक्तिन अच्छी है, यह कहना कठिन होगा, क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं। वह सत्यवादी हरिश्चंद्र नहीं बन सकती; पर 'नरो वा कुंजरो वा' कहने में भी विश्वास नहीं करती। मेरे इधर-उधर पड़े पैसे-रुपए, भंडार-घर की किसी मटकी में कैसे अंतरहित हो जाते हैं, यह रहस्य भी भक्तिन जानती है। पर, उस संबंध में किसी के संकेत करते ही वह उसे शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दे डालती है, जिसको स्वीकार कर लेना किसी तर्क-शिरोमणि के लिए संभव नहीं। यह उसका अपना घर ठहरा, पैसा-रुपया जो इधर-उधर पड़ा देखा सँभालकर रख लिया। यह क्या चोरी है! उसके जीवन का परम कर्तव्य मुझे प्रसन्न रखना है—जिस बात से मुझे क्रोध आ सकता है, उसे बदलकर इधर-उधर करके बताना, क्या झूठ है! इतनी चोरी और इतना झूठ तो धर्मराज महाराज में भी होगा, नहीं तो वे भगवान जी को कैसे प्रसन्न रख सकते और संसार को कैसे चला सकते!
शास्त्र का प्रश्न भी भक्तिन अपनी सुविधा के अनुसार सुलझा लेती है। मुझे स्त्रियों का सिर घुटाना अच्छा नहीं लगता, अतः मैंने भक्तिन को रोका। उसने अकुंठित भाव से उत्तर दिया कि शास्त्र में लिखा है। कुतूहलवश में पूछ ही बैठी—'क्या लिखा है?' तुरंत उत्तर मिला—'तीरथ गए मुँडाए सिद्ध।' कौन-से शास्त्र का यह रहस्यमय सूत्र है, यह जान लेना मेरे लिए संभव ही नहीं था। अतः मैं हारकर मौन हो रही और भक्तिन का चूड़ाकर्म हर बृहस्पतिवार को, एक दरिद्र नापित के गंगाजल से धुले उस्तरे द्वारा यथाविधि निष्पन्न होता रहा।
पर वह मूर्ख है या विद्या-बुद्धि का महत्त्व नहीं जानती, यह कहना असत्य कहना है। अपने विद्या के अभाव को वह मेरी पढ़ाई-लिखाई पर अभिमान करके भर लेती है। एक बार जब मैंने सब काम करने वालों से अँगूठे के निशान के स्थान में हस्ताक्षर लेने का नियम बनाया तब भक्तिन बड़े कष्ट में पड़ गई, क्योंकि एक तो उससे पढ़ने की मुसीबत नहीं उठाई जा सकती थी, दूसरे सब गाड़ीवान दाइयों के साथ बैठकर पढ़ना उसकी वयोवृद्धता का अपमान था। अतः उसने कहना आरंभ किया—'हमारे मलकिन तौ रात-दिन कितबियन माँ गड़ी रहती हैं। अब हमहूँ पढ़ै लागब तो घर-गिरिस्ती कउन देखी-सुनी।'
पढ़ानेवाले और पढ़नेवाले दोनों पर इस तर्क का ऐसा प्रभाव पड़ा कि भक्तिन इंस्पेक्टर के समान क्लास में घूम-घूमकर किसी के आ ई की बनावट किसी के हाथ की मंथरता, किसी की बुद्धि की मंदता पर टीका-टिप्पणी करने का अधिकार पा गई। उसे तो अँगूठा निशानी देकर वेतन लेना नहीं होता, इसी से बिना पढ़े ही वह पढ़नेवालों की गुरु बन बैठी। वह अपने तर्क ही नहीं, तर्कहीनता के लिए भी प्रमाण खोज लेने में पटु है। अपने-आपको महत्त्व देने के लिए ही वह अपनी मालकिन को असाधारणता देना चाहती है; पर इसके लिए भी प्रमाण की खोज-ढूँढ़ आवश्यक हो उठती है।
जब एक बार में उत्तर-पुस्तकों और चित्रों को लेकर व्यस्त थी, तब भक्तिन सबसे कहती घूमी—'ऊ बिचरिअउ तौ रात-दिन काम माँ झुकी रहती हैं, अउर तुम पचै घूमती फिरती हौ! चलौ तनिक हाथ बटाय लेउ।' सब जानते थे कि ऐसे कामों में हाथ नहीं बढ़ाया जा सकता, अतः उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट कर भक्तिन से पिंड छुड़ाया। बस इसी प्रमाण के आधार पर उसकी सब अतिशयोक्तियाँ अमरबेल-सी फैलने लगीं—उसकी मालकिन-जैसा काम कोई जानता ही नहीं, इसी से तो बुलाने पर भी कोई हाथ बटाने की हिम्मत नहीं करता।
पर वह स्वयं कोई सहायता नहीं दे सकती, इसे मानना अपनी हीनता स्वीकार करना है—इसी से वह द्वार पर बैठकर बार-बार कुछ काम बताने का आग्रह करती है। कभी उत्तर-पुस्तकों को बाँधकर, कभी अधूरे चित्र को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाई को आँचल से झाड़कर वह जैसी सहायता पहुँचाती है, उससे भक्तिन का अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। वह जानती है कि जब दूसरे मेरा हाथ बटाने की कल्पना तक नहीं कर सकते, तब वह सहायता की इच्छा को क्रियात्मक रूप देती है, इसी से मेरी किसी पुस्तक के प्रकाशित होने पर उसके मुख पर प्रसन्नता की आभा वैसे ही उद्भासित हो उठती है जैसे स्विच दबाने से बल्ब में छिपा आलोक। वह सूने में उसे बार-बार छूकर, आँखों के निकट ले जाकर और सब ओर घुमा-फिराकर मानो अपनी सहायता का अंश खोजती है और उसकी दृष्टि में व्यक्त आत्मघोष कहता है कि उसे निराश नहीं होना पड़ता। यह स्वाभाविक भी है। किसी चित्र को पूरा करने में व्यस्त, मैं जब बार-बार कहने पर भी भोजन के लिए नहीं उठती, तब वह कभी दही का शर्बत, कभी तुलसी की चाय वहीं देकर भूख का कष्ट नहीं सहने देती।
दिन भर के कार्य-भार से छुट्टी पाकर जब मैं कोई लेख समाप्त करने या भाव को छंदबद्ध करने बैठती हूँ, तब छात्रावास की रोशनी बुझ चुकती है, मेरी हिरनी सोना तख़्त के पैताने फ़र्श पर बैठकर पागुर करना बंद कर देती है, कुत्ता बसंत छोटी मचिया पर पंजों में मुख रखकर आँखें मूँद लेता है और बिल्ली गोधूलि मेरे तकिए पर सिकुड़कर सो रहती है।
पर मुझे रात की निस्तब्धता में अकेली न छोड़ने के विचार से कोने में दरी के आसन पर बैठकर बिजली की चकाचौंध से आँखें मिचमिचाती हुई भक्तिन, प्रशांत भाव से जागरण करती है। वह ऊँघती भी नहीं, क्योंकि मेरे सिर उठाते ही उसकी धुँधली दृष्टि मेरी आँखों का अनुसरण करने लगती है। यदि मैं सिरहाने रखे रैक की ओर देखती हूँ, तो वह उठकर आवश्यक पुस्तक का रंग पूछती है, यदि मैं क़लम रख देती हूँ, तो वह स्याही उठा लाती है और यदि मैं काग़ज़ एक ओर सरका देती हूँ, तो वह दूसरी फ़ाइल टटोलती है।
बहुत रात गए सोने पर भी मैं जल्दी ही उठती हूँ और भक्तिन को तो मुझसे भी पहले जागना पड़ता है—सोना उछल-कूद के लिए बाहर जाने को आकुल रहती है, बसंत नित्य कर्म के लिए दरवाज़ा खुलवाना चाहता है और गोधूलि चिड़ियों की चहचहाहट में शिकार का आमंत्रण सुन लेती हैं।
मेरे भ्रमण की भी एकांत साथिन भक्तिन ही रही है। बदरी-केदार आदि के ऊँचे-नीचे और तंग पहाड़ी रास्ते में जैसे वह हठ करके मेरे आगे चलती रही है, वैसे ही गाँव की धूलभरी पगडंडी पर मेरे पीछे रहना नहीं भूलती। किसी भी समय, कहीं भी जाने के लिए प्रस्तुत होते ही मैं भक्तिन को छाया के समान साथ पाती हूँ।
युद्ध को देश की सीमा में बढ़ते देख जब लोग आतंकित हो उठे, तब भक्तिन के बेटी-दामाद उसके नाती को लेकर बुलाने आ पहुँचे पर बहुत समझाने-बुझाने पर भी वह उनके साथ नहीं जा सकी। सबको वह देख आती है; रुपया भेज देती है; पर उनके साथ रहने के लिए मेरा साथ छोड़ना आवश्यक है; जो संभवतः भक्तिन को जीवन के अंत तक स्वीकार न होगा।
जब गत वर्ष युद्ध के भूत ने वीरता के स्थान में पलायन-वृत्ति जगा दी थी, तब भक्तिन पहली ही बार सेवक की विनीत मुद्रा के साथ मुझसे गाँव चलने का अनुरोध करने आई। वह लकड़ी रखने के मचान पर अपनी नई धोती बिछाकर मेरे कपड़े रख देगी, दीवाल में कीलें गाड़कर और उन पर तख़्ते रखकर मेरी किताबें सजा देगी, धान के पुआल का गोंदरा बनवाकर और उस पर अपना कंबल बिछाकर वह मेरे सोने का प्रबंध करेगी। मेरे रंग, स्याही आदि को नई हँडियों में सँजोकर रख देगी और काग़ज़-पत्रों को छींके में यथाविधि एकत्र कर देगी।
'मेरे पास वहाँ जाकर रहने के लिए रुपया नहीं है, यह मैंने भक्तिन के प्रस्ताव को अवकाश न देने के लिए कहा था; पर उसके परिणाम ने मुझे विस्मित कर दिया। भक्तिन ने परम रहस्य का उद्घाटन करने की मुद्रा बनाकर और पोपला मुँह मेरे कान के पास लाकर हौले-हौले बताया कि उसके पास पाँच बीसी और पाँच रुपया गड़ा रखा है। उसी से वह सब प्रबंध कर लेगी। फिर लड़ाई तो कुछ अमरौती खाकर आई नहीं है। जब सब ठीक हो जाएगा, तब यहीं लौट आएँगे। भक्तिन की कंजूसी के प्राण पूंजीभूत होते-होते पर्वताकार बन चुके थे; परंतु इस उदारता के डाइनामाइट ने क्षण भर में उन्हें उड़ा दिया। इतने थोड़े रुपए का कोई महत्त्व नहीं; परंतु रुपए के प्रति भक्तिन का अनुराग इतना प्रख्यात हो चुका है कि मेरे लिए उसका परित्याग मेरे महत्त्व की सीमा तक पहुँचा देता है।
भक्तिन और मेरे बीच में सेवक-स्वामी का संबंध है, यह कहना कठिन है; क्योंकि ऐसा कोई स्वामी नहीं हो सकता, जो इच्छा होने पर भी सेवक को अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोई सेवक भी नहीं सुना गया, जो स्वामी के चले जाने का आदेश पाकर अवज्ञा से हँस दे। भक्तिन को नौकर कहना उतना ही असंगत है, जितना अपने घर में बारी-बारी से आने-जाने वाले अँधेरे-उजाले और आँगन में फूलने वाले गुलाब और आम को सेवक मानना। वे जिस प्रकार एक अस्तित्व रखते हैं, जिसे सार्थकता देने के लिए ही हमें सुख-दुख देते हैं, उसी प्रकार भक्तिन का स्वतंत्र व्यक्तित्व अपने विकास के परिचय के लिए ही मेरे जीवन को घेरे हुए हैं।
परिवार और परिस्थितियों के कारण स्वभाव में जो विषमताएँ उत्पन्न हो गई हैं, उनके भीतर से एक स्नेह और सहानुभूति की आभा फूटती रहती है, इसी से उसके संपर्क में आने वाले व्यक्ति उसमें जीवन की सहज मार्मिकता ही पाते हैं। छात्रावास की बालिकाओं में से कोई अपनी चाय बनवाने के लिए देहली पर बैठी रहती है, कोई बाहर खड़ी मेरे लिए बने नाश्ते को चखकर उसके स्वाद की विवेचना करती रहती है। मेरे बाहर निकलते ही सब चिड़ियों के समान उड़ जाती हैं और भीतर आते ही यथास्थान विराजमान हो जाती हैं। इन्हें आने में रुकावट न हो, संभवतः इसी से भक्तिन अपना दोनों जून का भोजन सवेरे ही बनाकर ऊपर के आले में रख देती है और खाते समय चौके का एक कोना धोकर पाक-छत के सनातन नियम से समझौता कर लेती है।
मेरे परिचितों और साहित्यिक बंधुओं से भी भक्तिन विशेष परिचित है; पर उनके प्रति भक्तिन के सम्मान की मात्रा, मेरे प्रति उनके सम्मान की मात्रा पर निर्भर है और सद्भाव उनके प्रति मेरे सद्भाव से निश्चित होता है। इस संबंध में भक्तिन की सहजबुद्धि विस्मित कर देने वाली है।
वह किसी को आकार-प्रकार और वेश-भूषा से स्मरण करती है और किसी को नाम के अपभ्रंश द्वारा। कवि और कविता के संबंध में उसका ज्ञान बढ़ा है; पर आदर-भाव नहीं। किसी के लंबे बाल और अस्त-व्यस्त वेश-भूषा देखकर वह कह उठती है—'का ओहू कवित्त लिखे जानत हैं' और तुरंत ही उसकी अवज्ञा प्रकट हो जाती है—तब ऊ कुच्छौ करिहैं-धरिहैं ना—बस गली-गली गाउत-बजाउत फिरिहैं।
पर सबका दुख उसे प्रभावित कर सकता है। विद्यार्थी वर्ग में से कोई जब कारागार का अतिथि हो जाता है, तब उस समाचार को व्यथित भक्तिन बीता-बीता भरे लड़कन का जेहल-कलजुग रहा तौन रहा अब परलय होई जाई—उनकर माई का बड़े लाट तक लड़ै का चाहीं, कहकर दिन भर सबको परेशान करती है। बापू से लेकर साधारण व्यक्ति तब सबके प्रति भक्तिन की सहानुभूति एकरस मिलती है।
भक्तिन के संस्कार ऐसे हैं कि वह कारागार से वैसे ही डरती है, जैसे यमलोक से। ऊँची दीवार देखते ही, वह आँख मूँदकर बेहोश हो जाना चाहती है। उसकी यह कमज़ोरी इतनी प्रसिद्धि पा चुकी है कि लोग मेरे जेल जाने की संभावना बता-बताकर उसे चिढ़ाते रहते हैं। वह डरती नहीं, यह कहना असत्य होगा; पर डर से भी अधिक महत्त्व मेरे साथ का ठहरता है। चुपचाप मुझसे पूछने लगती है कि वह अपनी कै धोती साबुन से साफ़ कर ले, जिससे मुझे वहाँ उसके लिए लज्जित न होना पड़े। क्या-क्या सामान बाँध ले, जिससे मुझे वहाँ किसी प्रकार की असुविधा न हो सके। ऐसी यात्रा में किसी को किसी के साथ जाने का अधिकार नहीं, यह आश्वासन भक्तिन के लिए कोई मूल्य नहीं रखता। वह मेरे न जाने की कल्पना से इतनी प्रसन्न नहीं होती, जितनी अपने साथ न जा सकने की संभावना से अपमानित। भला ऐसा अँधेर हो सकता है। जहाँ मालिक वहाँ नौकर—मालिक को ले जाकर बंद कर देने में इतना अन्याय नहीं; पर नौकर को अकेले मुक्त छोड़ देने में पहाड़ के बराबर अन्याय है। ऐसा अन्याय होने पर भक्तिन को बड़े लाट तक लड़ना पड़ेगा। किसी की माई यदि बड़े लाट तक नहीं लड़ी, तो नहीं लड़ी पर भक्तिन का तो बिना लड़े काम ही नहीं चल सकता।
ऐसे विषम प्रतिद्वंद्वियों की स्थिति कल्पना में भी दुर्लभ है।
मैं प्रायः सोचती हूँ कि जब ऐसा बुलावा आ पहुँचेगा, जिसमें न धोती साफ़ करने का अवकाश रहेगा, न सामान बाँधने का, न भक्तिन को रुकने का अधिकार होगा, न मुझे रोकने का, तब चिर विदा के अंतिम क्षणों में यह देहातिन वृद्धा क्या करेगी और मैं क्या करूँगी?
भक्तिन की कहानी अधूरी है; पर उसे खोकर मैं इसे पूरी नहीं करना चाहती।
chhote qad aur duble sharirvali bhaktin apne patle othon ke konon mein driDh sankalp aur chhoti ankhon mein ek vichitr samajhdari lekar jis din pahle pahle mere paas aa upasthit hui thi tab se aaj tak ek yug ka samay beet chuka hai. par jab koi jigyasu usse is sambandh mein parashn kar baithta hai, tab wo palkon ko aadhi putaliyon tak girakar aur chintan ki mudra mein thuDDi ko kuch uupar uthakar vishvas bhare kanth se uttar deti hai—tum pachai ka ka batai—yahai pachas baris se sang rahit hai. ’ is hisab se main pachhattar ki thaharti hoon aur wo sau varsh ki aayu bhi paar kar jati hai, iska bhaktin ko pata nahin. pata ho bhi, to sambhavtah wo mere saath bite hue samay mein ratti bhar bhi kam na karna chahegi. mujhe to vishvas hota ja raha hai ki kuch varsh aur beet jane par wo mere saath rahne ke samay ko kheench kar sau varsh tak pahuncha degi, chahe uske hisab se mujhe DeDh sau varsh ki asambhav aayu ka bhaar kyon na Dhona paDe.
sevak dharm mein hanuman ji se sparddha karne vali bhaktin kisi anjna ki putri na hokar ek anamdhanya gopalika ki kanya hai—nam hai lachhmin arthat lakshmi. par jaise mere naam ki vishalata mere liye durvah hai, vaise hi lakshmi ki samriddhi bhaktin ke kapal ki kunchit rekhaon mein nahin bandh saki. vaise to jivan mein praayः sabhi ko apne apne naam ka virodhabhas lekar jina paDta hai; par bhaktin bahut samajhdar hai, kyonki wo apna samriddhi suchak naam kisi ko batati nahin. keval jab naukari ki khoj mein aai thi, tab iimandari ka parichay dene ke liye usne shesh itivritt ke saath ye bhi bata diya; par is pararthna ke saath ki main kabhi naam ka upyog na karun. upnaam rakhne ki pratibha hoti, to main sabse pahle uska prayog apne uupar karti, is tathya ko wo dehatin kya jane, isi se jab mainne kanthi mala dekhkar uska naya namakran kiya tab wo bhaktin jaise kavitvhin naam ko pakar bhi gadgad ho uthi.
bhaktin ke jivan ka itivritt bina jane hue uske svbhaav ko purnatः kya anshtah samajhna bhi kathin hoga. wo aitihasik jhunsi mein gaanv prasiddh ek surma ki eklauti beti hi nahin, vimata ki kinvdanti ban jane vali mamta ki chhaya mein bhi pali hai. paanch varsh ki aayu mein use hanDiya gram ke ek sampann gopalak ki sabse chhoti putravdhu banakar pita ne shaastr se do pag aage rahne ki khyati kamai aur nau varshiya yuvati ka gauna dekar vimata ne, bina mange paraya dhan lautane vale mahajan ka punya luta.
pita ka us par agadh prem hone ke karan svbhavatः iirshyalu aur sampatti ki raksha mein satark vimata ne unke marnantak rog ka samachar tab bheja, jab wo mrityu ki suchana bhi ban chuka tha. rone pitne ke apashkun se bachne ke liye saas ne bhi use kuch na bataya. bahut din se naihar nahin gai, so jakar dekh aave, yahi kahkar aur pahna—uDhakar saas ne use vida kar diya. is apratyashit anugrah ne uske pairon mein jo pankh laga diye the, ve gaanv ki sima mein pahunchte hi jhaD ge. haay lachhmin ab ai ki aspasht punravrittiyan aur aspasht sahanubhutipurn drishtiyan use ghar tak thel le gain. par vahan na pita ka chihn shesh tha, na vimata ke vyvahar mein shishtachar ka lesh tha. duhakh se shithil aur apman se jalti hui wo us ghar mein pani bhi bina piye ulte pairon sasural laut paDi. saas ko khari khoti sunakar usne vimata par aaya hua krodh shaant kiya aur pati ke uupar gahne phenk phenkkar usne pita ke chir vichhoh ki marmavytha vyakt ki.
jivan ke dusre parichchhed mein bhi sukh ki apeksha dukh hi adhik hai. jab usne gehune rang aur batiya jaise mukhvali pahli kanya ke do sanskran aur kar Dale tab saas aur jithaniyon ne oth bichkakar upeksha prakat ki. uchit bhi tha, kyonki saas teen teen kamau viron ki vidhatri bankar machiya ke uupar virajman purkhin ke pad par abhishikt ho chuki thi aur donon jithaniyan kaak bhushanDi jaise kale lalon ki krambaddh srishti karke is pad ke liye ummidvar theen. chhoti bahu ke leek chhoDkar chalne ke karan use danD milna avashyak ho gaya.
jithaniyan baithkar lok charcha kartin aur unke kalute laDke dhool uDate; wo mattha pherti, kutti, pisti, randhati aur uski nanhin laDkiyan gobar uthatin, kaDe pathtin. jithaniyan apne bhaat par safed raab rakhkar gaDha doodh Dalti aur apne laDkon ko autte hue doodh par se malai utarkar khilatin. wo kale guD ki Dali ke saath kathauti mein mattha pati aur uski laDkiyan chane bajre ki ghughri chabatin.
is danD vidhan ke bhitar koi aisi dhara nahin thi, jiske anusar khote sikkon ki taksal jaisi patni se pati ko virakt kiya ja sakta. sari chughli chabai ki parinati, uske patni prem ko baDhakar hi hoti thi. jithaniyan baat baat par dhamadham piti kuti jati; par uske pati ne use kabhi ungli bhi nahin chhuaii. wo baDe baap ki baDi batvali beti ko pahchanta tha. iske atirikt parishrami, tejasvini aur pati ke prati rom rom se sachchi patni ko wo chahta bhi bahut raha hoga, kyonki uske prem ke bal par hi patni ne algaujha karke sabko angutha dikha diya. kaam vahi karti thi, isliye gaay bhains, khet khalihan, amrai ke peD aadi ke sambandh mein usi ka gyaan bahut baDha chaDha tha. usne chhaant chhaant kar, uupar se asantosh ki mudra ke saath aur bhitar se pulkit hote hue jo kuch liya, wo sabse achchha bhi raha, saath hi parishrami dampati ke nirantar prayas se uska sona ban jana bhi svabhavik ho gaya.
dhumdham se baDi laDki ka vivah karne ke upraant, pati ne gharaunde se khelti hui do kanyaon aur kachchi grihasthi ka bhaar untis varsh ki patni par chhoDkar sansar se vida li. jab wo mara, tab uski avastha chhattis varsh se kuch hi adhik rahi hogi; par patni aaj use buDhuu kah kar smran karti hai. bhaktin sochti hai ki jab wo buDhi ho gai, tab kya parmatma ke yahan ve bhi na buDha ge honge, atः unhen buDhuu na kahna unka ghor apman hai.
haan, to bhaktin ke hare bhare khet, moti tazi gaay bhains aur phalon se lade peD dekhkar jeth jithauton ke munh mein pani bhar aana hi svabhavik tha. in sabki prapti to tabhi sambhav thi, jab bhaiyhu dusra ghar kar leti; par janm se khoti bhaktin inke chakmen mein aai hi nahin. usne krodh se paanv patak patakkar angan ko kampayman karte hue kaha—ham kukuri bilari na hoyan, hamar man pusai tau hum dusra ke jaab nahin ta tumhar pachai ki chhati pai horaha bhunjab aur raaj karab, samujhe rahau.
usne sasur, ajiya sasur aur jane kai piDhiyon ke sasuragnon ki uparjit jagah zamin mein se sui ki nok barabar bhi dene ki udarta nahin dikhai. iske atirikt guru se kaan phunkava, kanthi baandh aur pati ke naam par ghi se chikne keshon ko samarpit kar apne kabhi na talne ki ghoshna kar di. bhavishya mein bhi sampatti surakshit rakhne ke liye usne chhoti laDakiyon ke haath pile kar unhen sasural pahunchaya aur pati ke chune hue baDe damad ko gharajmai banakar rakha. is prakar uske jivan ka tisra parichchhed arambh hua.
bhaktin ka durbhagya bhi usse kam hathi nahin tha, isi se kishori se yuvati hote hi baDi laDki bhi vidhva ho gai. bhaiyhu se paar na pa sakne vale jethon aur kaki ko parast karne ke liye katibaddh jithauton ne aasha ki ek kiran dekh pai. vidhva bahin ke gathbandhan ke liye baDa jithaut apne titar laDane vale sale ko bula laya, kyonki uska ho jane par sab kuch unhin ke adhikar mein rahta. bhaktin ki laDki bhi maan se kam samajhdar nahin thi, isi se usne var ko napsand kar diya. bahar ke bahnoi ka aana chachere bhaiyon ke liye suvidhajanak nahin tha, atः ye prastav jahan ka tahan rah gaya. tab ve donon maan beti khoob man lagakar apni sampatti ki dekh bhaal karne lagin aur maan na maan main tera mehman ki kahavat charitarth karne vale var ke samarthak use kisi na kisi prakar pati ki padvi par abhishikt karne ka upaay sochne lage.
ek din maan ki anupasthiti mein var mahashay ne beti ki kothari mein ghus kar bhitar se dvaar band kar liya aur uske samarthak ganvvalon ko bulane lage. yuvati ne jab is Dakait var ki marammat kar kunDi kholi, tab panch bechare samasya mein paD ge. titarbaz yuvak kahta tha, wo nimantran pakar bhitar gaya aur yuvati uske mukh par apni panchon ungliyon ke ubhaar mein is nimantran ke akshar paDhne ka anurodh karti thi. ant mein doodh ka doodh pani ka pani karne ke liye panchayat baithi aur sabne sir hila hilakar is samasya ka mool karan kaliyug ko svikar kiya. apilhin faisla hua ki chahe un donon mein ek sachcha ho chahe donon jhuthe; par jab ve ek kothari se nikle, tab unka pati patni ke roop mein rahna hi kaliyug ke dosh ka parimarjan kar sakta hai. apmanit balika ne oth katkar lahu nikal liya aur maan ne agney netron se gale paDe damad ko dekha. sambandh kuch sukhkar nahin hua, kyonki damad ab nishchint hokar titar laData tha aur beti vivash krodh se jalti rahti thi. itne yatn se sanbhale hue gaay Dhor, kheti bari jab parivarik dvesh mein aise jhulas ge ki lagan ada karna bhi bhari ho gaya, sukh se rahne ki kaun kahe. ant mein ek baar lagan na pahunchne par zamindar ne bhaktin ko bulakar din bhar kaDi dhoop mein khaDa rakha. ye apman to uski karmathta mein sabse baDa kalank ban gaya, atः dusre hi din bhaktin kamai ke vichar se shahr aa pahunchi.
ghuti hui chaand ko moti maili dhoti se Dhanke aur mano sab prakar ki aahat sunne ke liye kaan kapDe se bahar nikale hue bhaktin jab mere yahan sevak dharm mein dikshit hui, tab uske jivan ke chauthe aur sambhavtah antim parichchhed ka jo arth hua, uski iti abhi door hai.
bhaktin ki vesh bhusha mein grihasth aur vairagi ka sammishran dekhkar mainne shanka se parashn kiya—kya tum khana banana janti ho! uttar mein usne uupar ke oth ko sikoD aur niche ke adhar ko kuch baDha kar ashvasan ki mudra ke saath kaha—ii kaun baDi baat aay. roti banay janit hai, daal raandh leit hai, saag bhaji chhanuk sakit hai, aur baqi ka raha!
dusre din taDke ho sir par kai lote aundha kar usne meri dhuli dhoti jal ke chhinton se pavitra kar pahni aur poorv ke andhkar aur meri divar se phutte hue surya aur pipal ka, do lote jal se abhinandan kiya. do minat naak dabakar jap karne ke upraant jab wo koyle ki moti rekha se apne samrajya ki sima nishchit kar chauke mein pratishthit hui, tab mainne samajh liya ki is sevak ka saath teDhi kheer hai. apne bhojan ke sambandh mein nitant vitarag hone par bhi main paak vidya ke liye parivar mein prakhyat hoon aur koi bhi paak kushal dusre ke kaam mein nuktachini bina kiye rah nahin sakta. par jab chhoot paak par praan dene vale vyaktiyon ka, baat baat par bhukha marna smran ho aaya aur bhaktin ki shankakul drishti mein chhipe hue nishedh ka anubhav kiya, tab koyle ki rekha mere liye lakshman ke dhanush se khinchi hui rekha ke samne durlabhya ho uthi. nirupay apne kamre mein bichhaune mein paDkar naak ke uupar khuli hui pustak sthapit kar main chauke mein pichhe par asin andhikari ko bhulne ka prayas karne lagi.
bhojan ke samay jab mainne apni nishchit sima ke bhitar nirdisht sthaan grhan kar liya, tab bhaktin ne prasannata se labalb drishti aur atmatushti se aplavit musakurahat ke saath meri phool ko thali mein ek angul moti aur gahri kali chittidar chaar rotiyan rakhkar use teDhi kar gaDhi daal paros di. par jab uske utsaah par tusharpat karte hue mainne ruanse bhaav se kaha—yah kya banaya hai? tab wo hatbuddhi ho rahi.
rotiyan achchhi senkne ke prayas mein kuch adhik khari ho gai hain; par achchhi hain. tarkariyan theen, par jab daal bani hai tab unka kya kam—sham ko daal na banakar tarkari bana di jayegi. doodh ghi mujhe achchha nahin lagta, nahin to sab theek ho jata. ab na ho to amchur aur laal mirch ki chatni pees li jave. usse bhi kaam na chale, to wo gaanv se lai hui gathri mein se thoDa sa guD de degi. aur shahr ke log kya kalabattu khate hain? phir wo kuch anaDin ya phoohD nahin. uske sasur, pitiya sasur, ajiya saas aadi ne uski paak kushalta ke liye na jane kitne maukhik prmaan patr de Dale hain.
bhaktin ke is saragarbhit lekchar ka prabhav ye hua ki main mithe se virakti ke karan bina guD ke aur ghi se aruchi ke karan rukhi daal se ek moti roti khakar bahut thaath se yunivarsiti pahunchi aur nyaay sootr paDhte paDhte shahr aur dehat ke jivan ke is antar par vichar karti rahi.
alag bhojan ki vyavastha karni paDi thi, apne girte hue svaasth aur parivarvalon ki chinta nivaran ke liye, par prbandh aisa ho gaya ki upchaar ka parashn hi kho gaya. is dehati vriddha ne jivan ki saralta ke prati mujhe itna jagrat kar diya tha ki main apni asuvidhayen chhipane lagi, suvidhaon ki chinta karna to door ki baat.
iske atirikt bhaktin ka svbhaav hi aisa ban chuka hai ki wo dusron ko apne man ke anusar bana leti chahti hai; par apne sambandh mein kisi prakar ke parivartan ki kalpana tak uske liye sambhav nahin. isi se aaj main adhik dehati hoon; par use shahr ki hava nahin lag pai. makii ka, raat ko bana daliya, savere maththe se sondha lagta hai. bajre ke til lagakar banaye hue pue garam kam achchhe lagte hain. jvaar ke bhune hue bhutte ke hare danon ki khichDi svadisht hoti hai. safed mahue ki lapsi sansar bhar ke halve ko laja sakti hai; aadi wo mujhe kriyatmak roop se sikhati rahti hai; par yahan ka rasgulla tak bhaktin ke pople munh mein pravesh karne ka saubhagya nahin praapt kar saka. mere raat din naraz hone par bhi usne saaf dhoti pahanna nahin sikha; par mere svayan dhokar phailaye hue kapDon ko bhi wo tah karne ke bahane silavton se bhar deti hai. mujhe usne apni bhasha ki anek dantakthayen kanthasth kara di hain; par pukarne par wo anya ke sthaan mein jee kahne ka shishtachar bhi nahin seekh sakti.
bhaktin achchhi hai, ye kahna kathin hoga, kyonki usmen durgunon ka abhav nahin. wo satyavadi harishchandr nahin ban sakti; par naro va kunjro va kahne mein bhi vishvas nahin karti. mere idhar udhar paDe paise rupye, bhanDar ghar ki kisi matki mein kaise antarhit ho jate hain, ye rahasya bhi bhaktin janti hai. par, us sambandh mein kisi ke sanket karte hi wo use shastrarth ke liye chunauti de Dalti hai, jisko svikar kar lena kisi tark shiromani ke liye sambhav nahin. ye uska apna ghar thahra, paisa rupya jo idhar udhar paDa dekha sanbhalakar rakh liya. ye kya chori hai! uske jivan ka param kartavya mujhe prasann rakhna hai—jis baat se mujhe krodh aa sakta hai, use badalkar idhar udhar karke batana, kya jhooth hai! itni chori aur itna jhooth to dharmaraj maharaj mein bhi hoga, nahin to ve bhagvan ji ko kaise prasann rakh sakte aur sansar ko kaise chala sakte!
shaastr ka parashn bhi bhaktin apni suvidha ke anusar suljha leti hai. mujhe striyon ka sir ghutana achchha nahin lagta, atः mainne bhaktin ko roka. usne akunthit bhaav se uttar diya ki shaastr mein likha hai. kutuhalvash mein poochh hi baithi—kya likha hai? turant uttar mila—tirath ge munDaye siddh. kaun se shaastr ka ye rahasyamay sootr hai, ye jaan lena mere liye sambhav hi nahin tha. atः main harkar maun ho rahi aur bhaktin ka chuDakarm har brihaspativar ko, ek daridr napit ke gangajal se dhule ustre dvara yathavidhi nishpann hota raha.
par wo moorkh hai ya vidya buddhi ka mahattv nahin janti, ye kahna asatya kahna hai. apne vidya ke abhav ko wo meri paDhai likhai par abhiman karke bhar leti hai. ek baar jab mainne sab kaam karne valon se anguthe ke nishan ke sthaan mein hastakshar lene ka niyam banaya tab bhaktin baDe kasht mein paD gai, kyonki ek to usse paDhne ki musibat nahin uthai ja sakti thi, dusre sab gaDivan daiyon ke saath baithkar paDhna uski vayovriddhta ka apman tha. atः usne kahna arambh kiya—hamare malkin tau raat din kitabiyan maan gaDi rahti hain. ab hamhun paDhai lagab to ghar giristi kaun dekhi suni.
paDhanevale aur paDhnevale donon par is tark ka aisa prabhav paDa ki bhaktin inspektar ke saman klaas mein ghoom ghumkar kisi ke aa ii ki banavat kisi ke haath ki mantharta, kisi ki buddhi ki mandta par tika tippni karne ka adhikar pa gai. use to angutha nishani dekar vetan lena nahin hota, isi se bina paDhe hi wo paDhnevalon ki guru ban baithi. wo apne tark hi nahin, tarkhinta ke liye bhi prmaan khoj lene mein patu hai. apne aapko mahattv dene ke liye hi wo apni malkin ko asadharanta dena chahti hai; par iske liye bhi prmaan ki khoj DhoonDh avashyak ho uthti hai.
jab ek baar mein uttar pustkon aur chitron ko lekar vyast thi, tab bhaktin sabse kahti ghumi—uu bichariau tau raat din kaam maan jhuki rahti hain, aur tum pachai ghumti phirti hau! chalau tanik haath batay leu. sab jante the ki aise kamon mein haath nahin baDhaya ja sakta, atः unhonne apni asmarthata prakat kar bhaktin se pinD chhuDaya. bas isi prmaan ke adhar par uski sab atishyoktiyan amarbel si phailne lagin—uski malkin jaisa kaam koi janta hi nahin, isi se to bulane par bhi koi haath batane ki himmat nahin karta.
par wo svayan koi sahayata nahin de sakti, ise manna apni hinta svikar karna hai—isi se wo dvaar par baithkar baar baar kuch kaam batane ka agrah karti hai. kabhi uttar pustkon ko bandhakar, kabhi adhure chitr ko kone mein rakhkar, kabhi rang ki pyali dhokar aur kabhi chatai ko anchal se jhaDkar wo jaisi sahayata pahunchati hai, usse bhaktin ka anya vyaktiyon se adhik buddhiman hona prmanit ho jata hai. wo janti hai ki jab dusre mera haath batane ki kalpana tak nahin kar sakte, tab wo sahayata ki ichchha ko kriyatmak roop deti hai, isi se meri kisi pustak ke prakashit hone par uske mukh par prasannata ki aabha vaise hi udbhasit ho uthti hai jaise svich dabane se balb mein chhipa aalok. wo sune mein use baar baar chhukar, ankhon ke nikat le jakar aur sab or ghuma phirakar mano apni sahayata ka ansh khojti hai aur uski drishti mein vyakt atmghosh kahta hai ki use nirash nahin hona paDta. ye svabhavik bhi hai. kisi chitr ko pura karne mein vyast, main jab baar baar kahne par bhi bhojan ke liye nahin uthti, tab wo kabhi dahi ka sharbat, kabhi tulsi ki chaay vahin dekar bhookh ka kasht nahin sahne deti.
din bhar ke karya bhaar se chhutti pakar jab main koi lekh samapt karne ya bhaav ko chhandbaddh karne baithti hoon, tab chhatravas ki roshni bujh chukti hai, meri hirni sona takht ke paitane farsh par baithkar pagur karna band kar deti hai, kutta basant chhoti machiya par panjon mein mukh rakhkar ankhen moond leta hai aur billi godhuli mere takiye par sikuDkar so rahti hai.
par mujhe raat ki nistabdhata mein akeli na chhoDne ke vichar se kone mein dari ke aasan par baithkar bijli ki chakachaundh se ankhen michamichati hui bhaktin, prshaant bhaav se jagran karti hai. wo uunghati bhi nahin, kyonki mere sir uthate hi uski dhundhli drishti meri ankhon ka anusran karne lagti hai. yadi main sirhane rakhe raik ki or dekhti hoon, to wo uthkar avashyak pustak ka rang puchhti hai, yadi main qalam rakh deti hoon, to wo syahi utha lati hai aur yadi main kaghaz ek or sarka deti hoon, to wo dusri fail tatolti hai.
bahut raat ge sone par bhi main jaldi hi uthti hoon aur bhaktin ko to mujhse bhi pahle jagna paDta hai—sona uchhal kood ke liye bahar jane ko aakul rahti hai, basant nitya karm ke liye darvaza khulvana chahta hai aur godhuli chiDiyon ki chahchahahat mein shikar ka amantran sun leti hain.
mere bhrman ki bhi ekaant sathin bhaktin hi rahi hai. badri kedar aadi ke uunche niche aur tang pahaDi raste mein jaise wo hath karke mere aage chalti rahi hai, vaise hi gaanv ki dhulabhri pagDanDi par mere pichhe rahna nahin bhulti. kisi bhi samay, kahin bhi jane ke liye prastut hote hi main bhaktin ko chhaya ke saman saath pati hoon.
yuddh ko desh ki sima mein baDhte dekh jab log atankit ho uthe, tab bhaktin ke beti damad uske nati ko lekar bulane aa pahunche par bahut samjhane bujhane par bhi wo unke saath nahin ja saki. sabko wo dekh aati hai; rupya bhej deti hai; par unke saath rahne ke liye mera saath chhoDna avashyak hai; jo sambhvatः bhaktin ko jivan ke ant tak svikar na hoga.
jab gat varsh yuddh ke bhoot ne virata ke sthaan mein palayan vritti jaga di thi, tab bhaktin pahli hi baar sevak ki vinit mudra ke saath mujhse gaanv chalne ka anurodh karne aai. wo lakDi rakhne ke machan par apni nai dhoti bichhakar mere kapDe rakh degi, dival mein kilen gaDkar aur un par takhte rakhkar meri kitaben saja degi, dhaan ke pual ka gondra banvakar aur us par apna kambal bichhakar wo mere sone ka prbandh karegi. mere rang, syahi aadi ko nai hanDiyon mein sanjokar rakh degi aur kaghaz patron ko chhinke mein yathavidhi ekatr kar degi.
mere paas vahan jakar rahne ke liye rupya nahin hai, ye mainne bhaktin ke prastav ko avkash na dene ke liye kaha tha; par uske parinam ne mujhe vismit kar diya. bhaktin ne param rahasya ka udghatan karne ki mudra bana kar aur popala munh mere kaan ke paas lakar haule haule bataya ki uske paas paanch bisi aur paanch rupya gaDa rakha hai. usi se wo sab prbandh kar legi. phir laDai to kuch amrauti khakar aai nahin hai. jab sab theek ho jayega, tab yahin laut ayenge. bhaktin ki kanjusi ke praan punjibhut hote hote parvtakar ban chuke the; parantu is udarta ke Dainamait ne kshan bhar mein unhen uDa diya. itne thoDe rupye ka koi mahattv nahin; parantu rupye ke prati bhaktin ka anurag itna prakhyat ho chuka hai ki mere liye uska parityag mere mahattv ki sima tak pahuncha deta hai.
bhaktin aur mere beech mein sevak svami ka sambandh hai, ye kahna kathin hai; kyonki aisa koi svami nahin ho sakta, jo ichchha hone par bhi sevak ko apni seva se hata na sake aur aisa koi sevak bhi nahin suna gaya, jo svami ke chale jane ka adesh pakar avagya se hans de. bhaktin ko naukar kahna utna hi asangat hai, jitna apne ghar mein bari bari se aane jane vale andhere ujale aur angan mein phulne vale gulab aur aam ko sevak manna. ve jis prakar ek astitv rakhte hain, jise sarthakta dene ke liye hi hamein sukh dukh dete hain, usi prakar bhaktin ka svtantr vyaktitv apne vikas ke parichay ke liye hi mere jivan ko ghere hue hain.
parivar aur paristhitiyon ke karan svbhaav mein jo vishamtayen utpann ho gai hain, unke bhitar se ek sneh aur sahanubhuti ki aabha phutti rahti hai, isi se uske sampark mein aane vale vyakti usmen jivan ki sahj marmikta hi pate hain. chhatravas ki balikaon mein se koi apni chaay banvane ke liye dehli par baithi rahti hai, koi bahar khaDi mere liye bane nashte ko chakhkar uske svaad ki vivechana karti rahti hai. mere bahar nikalte hi sab chiDiyon ke saman uD jati hain aur bhitar aate hi yathasthan virajman ho jati hain. inhen aane mein rukavat na ho, sambhvatः isi se bhaktin apna donon joon ka bhojan savere hi banakar uupar ke aale mein rakh deti hai aur khate samay chauke ka ek kona dhokar paak chhat ke sanatan niyam se samjhauta kar leti hai.
mere parichiton aur sahityik bandhuon se bhi bhaktin vishesh parichit hai; par unke prati bhaktin ke samman ki matra, mere prati unke samman ki matra par nirbhar hai aur sadbhav unke prati mere sadbhav se nishchit hota hai. is sambandh mein bhaktin ki sahajbuddhi vismit kar dene vali hai.
wo kisi ko akar prakar aur vesh bhusha se smran karti hai aur kisi ko naam ke apabhransh dvara. kavi aur kavita ke sambandh mein uska gyaan baDha hai; par aadar bhaav nahin. kisi ke lambe baal aur ast vyast vesh bhusha dekhkar wo kah uthti hai—ka ohu kavitt likhe janat hain aur turant hi uski avagya prakat ho jati hai—tab uu kuchchhau karihain dharihain na—bas gali gali gaut bajaut phirihain.
par sabka dukh use prabhavit kar sakta hai. vidyarthi varg mein se koi jab karagar ka atithi ho jata hai, tab us samachar ko vyathit bhaktin bita bita bhare laDkan ka jehal kaljug raha taun raha ab parlay hoi jai—unkar mai ka baDe laat tak laDai ka chahin, kahkar din bhar sabko pareshan karti hai. bapu se lekar sadharan vyakti tab sabke prati bhaktin ki sahanubhuti ekras milti hai.
bhaktin ke sanskar aise hain ki wo karagar se vaise hi Darti hai, jaise yamlok se. uunchi divar dekhte hi, wo ankh mundakar behosh ho jana chahti hai. uski ye kamzori itni prasiddhi pa chuki hai ki log mere jel jane ki sambhavna bata batakar use chiDhate rahte hain. wo Darti nahin, ye kahna asatya hoga; par Dar se bhi adhik mahattv mere saath ka thaharta hai. chupchap mujhse puchhne lagti hai ki wo apni kai dhoti sabun se saaf kar le, jisse mujhe vahan uske liye lajjit na hona paDe. kya kya saman baandh le, jisse mujhe vahan kisi prakar ki asuvidha na ho sake. aisi yatra mein kisi ko kisi ke saath jane ka adhikar nahin, ye ashvasan bhaktin ke liye koi mulya nahin rakhta. wo mere na jane ki kalpana se itni prasann nahin hoti, jitni apne saath na ja sakne ki sambhavna se apmanit. bhala aisa andher ho sakta hai. jahan malik vahan naukar—malik ko le jakar band kar dene mein itna anyay nahin; par naukar ko akele mukt chhoD dene mein pahaD ke barabar anyay hai. aisa anyay hone par bhaktin ko baDe laat tak laDna paDega. kisi ki mai yadi baDe laat tak nahin laDi, to nahin laDi par bhaktin ka to bina laDe kaam hi nahin chal sakta.
aise visham prtidvandviyon ki sthiti kalpana mein bhi durlabh hai.
main praayः sochti hoon ki jab aisa bulava aa pahunchega, jismen na dhoti saaf karne ka avkash rahega, na saman bandhne ka, na bhaktin ko rukne ka adhikar hoga, na mujhe rokne ka, tab chir vida ke antim kshnon mein ye dehatin vriddha kya karegi aur main kya karungi?
bhaktin ki kahani adhuri hai; par use khokar main ise puri nahin karna chahti.
chhote qad aur duble sharirvali bhaktin apne patle othon ke konon mein driDh sankalp aur chhoti ankhon mein ek vichitr samajhdari lekar jis din pahle pahle mere paas aa upasthit hui thi tab se aaj tak ek yug ka samay beet chuka hai. par jab koi jigyasu usse is sambandh mein parashn kar baithta hai, tab wo palkon ko aadhi putaliyon tak girakar aur chintan ki mudra mein thuDDi ko kuch uupar uthakar vishvas bhare kanth se uttar deti hai—tum pachai ka ka batai—yahai pachas baris se sang rahit hai. ’ is hisab se main pachhattar ki thaharti hoon aur wo sau varsh ki aayu bhi paar kar jati hai, iska bhaktin ko pata nahin. pata ho bhi, to sambhavtah wo mere saath bite hue samay mein ratti bhar bhi kam na karna chahegi. mujhe to vishvas hota ja raha hai ki kuch varsh aur beet jane par wo mere saath rahne ke samay ko kheench kar sau varsh tak pahuncha degi, chahe uske hisab se mujhe DeDh sau varsh ki asambhav aayu ka bhaar kyon na Dhona paDe.
sevak dharm mein hanuman ji se sparddha karne vali bhaktin kisi anjna ki putri na hokar ek anamdhanya gopalika ki kanya hai—nam hai lachhmin arthat lakshmi. par jaise mere naam ki vishalata mere liye durvah hai, vaise hi lakshmi ki samriddhi bhaktin ke kapal ki kunchit rekhaon mein nahin bandh saki. vaise to jivan mein praayः sabhi ko apne apne naam ka virodhabhas lekar jina paDta hai; par bhaktin bahut samajhdar hai, kyonki wo apna samriddhi suchak naam kisi ko batati nahin. keval jab naukari ki khoj mein aai thi, tab iimandari ka parichay dene ke liye usne shesh itivritt ke saath ye bhi bata diya; par is pararthna ke saath ki main kabhi naam ka upyog na karun. upnaam rakhne ki pratibha hoti, to main sabse pahle uska prayog apne uupar karti, is tathya ko wo dehatin kya jane, isi se jab mainne kanthi mala dekhkar uska naya namakran kiya tab wo bhaktin jaise kavitvhin naam ko pakar bhi gadgad ho uthi.
bhaktin ke jivan ka itivritt bina jane hue uske svbhaav ko purnatः kya anshtah samajhna bhi kathin hoga. wo aitihasik jhunsi mein gaanv prasiddh ek surma ki eklauti beti hi nahin, vimata ki kinvdanti ban jane vali mamta ki chhaya mein bhi pali hai. paanch varsh ki aayu mein use hanDiya gram ke ek sampann gopalak ki sabse chhoti putravdhu banakar pita ne shaastr se do pag aage rahne ki khyati kamai aur nau varshiya yuvati ka gauna dekar vimata ne, bina mange paraya dhan lautane vale mahajan ka punya luta.
pita ka us par agadh prem hone ke karan svbhavatः iirshyalu aur sampatti ki raksha mein satark vimata ne unke marnantak rog ka samachar tab bheja, jab wo mrityu ki suchana bhi ban chuka tha. rone pitne ke apashkun se bachne ke liye saas ne bhi use kuch na bataya. bahut din se naihar nahin gai, so jakar dekh aave, yahi kahkar aur pahna—uDhakar saas ne use vida kar diya. is apratyashit anugrah ne uske pairon mein jo pankh laga diye the, ve gaanv ki sima mein pahunchte hi jhaD ge. haay lachhmin ab ai ki aspasht punravrittiyan aur aspasht sahanubhutipurn drishtiyan use ghar tak thel le gain. par vahan na pita ka chihn shesh tha, na vimata ke vyvahar mein shishtachar ka lesh tha. duhakh se shithil aur apman se jalti hui wo us ghar mein pani bhi bina piye ulte pairon sasural laut paDi. saas ko khari khoti sunakar usne vimata par aaya hua krodh shaant kiya aur pati ke uupar gahne phenk phenkkar usne pita ke chir vichhoh ki marmavytha vyakt ki.
jivan ke dusre parichchhed mein bhi sukh ki apeksha dukh hi adhik hai. jab usne gehune rang aur batiya jaise mukhvali pahli kanya ke do sanskran aur kar Dale tab saas aur jithaniyon ne oth bichkakar upeksha prakat ki. uchit bhi tha, kyonki saas teen teen kamau viron ki vidhatri bankar machiya ke uupar virajman purkhin ke pad par abhishikt ho chuki thi aur donon jithaniyan kaak bhushanDi jaise kale lalon ki krambaddh srishti karke is pad ke liye ummidvar theen. chhoti bahu ke leek chhoDkar chalne ke karan use danD milna avashyak ho gaya.
jithaniyan baithkar lok charcha kartin aur unke kalute laDke dhool uDate; wo mattha pherti, kutti, pisti, randhati aur uski nanhin laDkiyan gobar uthatin, kaDe pathtin. jithaniyan apne bhaat par safed raab rakhkar gaDha doodh Dalti aur apne laDkon ko autte hue doodh par se malai utarkar khilatin. wo kale guD ki Dali ke saath kathauti mein mattha pati aur uski laDkiyan chane bajre ki ghughri chabatin.
is danD vidhan ke bhitar koi aisi dhara nahin thi, jiske anusar khote sikkon ki taksal jaisi patni se pati ko virakt kiya ja sakta. sari chughli chabai ki parinati, uske patni prem ko baDhakar hi hoti thi. jithaniyan baat baat par dhamadham piti kuti jati; par uske pati ne use kabhi ungli bhi nahin chhuaii. wo baDe baap ki baDi batvali beti ko pahchanta tha. iske atirikt parishrami, tejasvini aur pati ke prati rom rom se sachchi patni ko wo chahta bhi bahut raha hoga, kyonki uske prem ke bal par hi patni ne algaujha karke sabko angutha dikha diya. kaam vahi karti thi, isliye gaay bhains, khet khalihan, amrai ke peD aadi ke sambandh mein usi ka gyaan bahut baDha chaDha tha. usne chhaant chhaant kar, uupar se asantosh ki mudra ke saath aur bhitar se pulkit hote hue jo kuch liya, wo sabse achchha bhi raha, saath hi parishrami dampati ke nirantar prayas se uska sona ban jana bhi svabhavik ho gaya.
dhumdham se baDi laDki ka vivah karne ke upraant, pati ne gharaunde se khelti hui do kanyaon aur kachchi grihasthi ka bhaar untis varsh ki patni par chhoDkar sansar se vida li. jab wo mara, tab uski avastha chhattis varsh se kuch hi adhik rahi hogi; par patni aaj use buDhuu kah kar smran karti hai. bhaktin sochti hai ki jab wo buDhi ho gai, tab kya parmatma ke yahan ve bhi na buDha ge honge, atः unhen buDhuu na kahna unka ghor apman hai.
haan, to bhaktin ke hare bhare khet, moti tazi gaay bhains aur phalon se lade peD dekhkar jeth jithauton ke munh mein pani bhar aana hi svabhavik tha. in sabki prapti to tabhi sambhav thi, jab bhaiyhu dusra ghar kar leti; par janm se khoti bhaktin inke chakmen mein aai hi nahin. usne krodh se paanv patak patakkar angan ko kampayman karte hue kaha—ham kukuri bilari na hoyan, hamar man pusai tau hum dusra ke jaab nahin ta tumhar pachai ki chhati pai horaha bhunjab aur raaj karab, samujhe rahau.
usne sasur, ajiya sasur aur jane kai piDhiyon ke sasuragnon ki uparjit jagah zamin mein se sui ki nok barabar bhi dene ki udarta nahin dikhai. iske atirikt guru se kaan phunkava, kanthi baandh aur pati ke naam par ghi se chikne keshon ko samarpit kar apne kabhi na talne ki ghoshna kar di. bhavishya mein bhi sampatti surakshit rakhne ke liye usne chhoti laDakiyon ke haath pile kar unhen sasural pahunchaya aur pati ke chune hue baDe damad ko gharajmai banakar rakha. is prakar uske jivan ka tisra parichchhed arambh hua.
bhaktin ka durbhagya bhi usse kam hathi nahin tha, isi se kishori se yuvati hote hi baDi laDki bhi vidhva ho gai. bhaiyhu se paar na pa sakne vale jethon aur kaki ko parast karne ke liye katibaddh jithauton ne aasha ki ek kiran dekh pai. vidhva bahin ke gathbandhan ke liye baDa jithaut apne titar laDane vale sale ko bula laya, kyonki uska ho jane par sab kuch unhin ke adhikar mein rahta. bhaktin ki laDki bhi maan se kam samajhdar nahin thi, isi se usne var ko napsand kar diya. bahar ke bahnoi ka aana chachere bhaiyon ke liye suvidhajanak nahin tha, atः ye prastav jahan ka tahan rah gaya. tab ve donon maan beti khoob man lagakar apni sampatti ki dekh bhaal karne lagin aur maan na maan main tera mehman ki kahavat charitarth karne vale var ke samarthak use kisi na kisi prakar pati ki padvi par abhishikt karne ka upaay sochne lage.
ek din maan ki anupasthiti mein var mahashay ne beti ki kothari mein ghus kar bhitar se dvaar band kar liya aur uske samarthak ganvvalon ko bulane lage. yuvati ne jab is Dakait var ki marammat kar kunDi kholi, tab panch bechare samasya mein paD ge. titarbaz yuvak kahta tha, wo nimantran pakar bhitar gaya aur yuvati uske mukh par apni panchon ungliyon ke ubhaar mein is nimantran ke akshar paDhne ka anurodh karti thi. ant mein doodh ka doodh pani ka pani karne ke liye panchayat baithi aur sabne sir hila hilakar is samasya ka mool karan kaliyug ko svikar kiya. apilhin faisla hua ki chahe un donon mein ek sachcha ho chahe donon jhuthe; par jab ve ek kothari se nikle, tab unka pati patni ke roop mein rahna hi kaliyug ke dosh ka parimarjan kar sakta hai. apmanit balika ne oth katkar lahu nikal liya aur maan ne agney netron se gale paDe damad ko dekha. sambandh kuch sukhkar nahin hua, kyonki damad ab nishchint hokar titar laData tha aur beti vivash krodh se jalti rahti thi. itne yatn se sanbhale hue gaay Dhor, kheti bari jab parivarik dvesh mein aise jhulas ge ki lagan ada karna bhi bhari ho gaya, sukh se rahne ki kaun kahe. ant mein ek baar lagan na pahunchne par zamindar ne bhaktin ko bulakar din bhar kaDi dhoop mein khaDa rakha. ye apman to uski karmathta mein sabse baDa kalank ban gaya, atः dusre hi din bhaktin kamai ke vichar se shahr aa pahunchi.
ghuti hui chaand ko moti maili dhoti se Dhanke aur mano sab prakar ki aahat sunne ke liye kaan kapDe se bahar nikale hue bhaktin jab mere yahan sevak dharm mein dikshit hui, tab uske jivan ke chauthe aur sambhavtah antim parichchhed ka jo arth hua, uski iti abhi door hai.
bhaktin ki vesh bhusha mein grihasth aur vairagi ka sammishran dekhkar mainne shanka se parashn kiya—kya tum khana banana janti ho! uttar mein usne uupar ke oth ko sikoD aur niche ke adhar ko kuch baDha kar ashvasan ki mudra ke saath kaha—ii kaun baDi baat aay. roti banay janit hai, daal raandh leit hai, saag bhaji chhanuk sakit hai, aur baqi ka raha!
dusre din taDke ho sir par kai lote aundha kar usne meri dhuli dhoti jal ke chhinton se pavitra kar pahni aur poorv ke andhkar aur meri divar se phutte hue surya aur pipal ka, do lote jal se abhinandan kiya. do minat naak dabakar jap karne ke upraant jab wo koyle ki moti rekha se apne samrajya ki sima nishchit kar chauke mein pratishthit hui, tab mainne samajh liya ki is sevak ka saath teDhi kheer hai. apne bhojan ke sambandh mein nitant vitarag hone par bhi main paak vidya ke liye parivar mein prakhyat hoon aur koi bhi paak kushal dusre ke kaam mein nuktachini bina kiye rah nahin sakta. par jab chhoot paak par praan dene vale vyaktiyon ka, baat baat par bhukha marna smran ho aaya aur bhaktin ki shankakul drishti mein chhipe hue nishedh ka anubhav kiya, tab koyle ki rekha mere liye lakshman ke dhanush se khinchi hui rekha ke samne durlabhya ho uthi. nirupay apne kamre mein bichhaune mein paDkar naak ke uupar khuli hui pustak sthapit kar main chauke mein pichhe par asin andhikari ko bhulne ka prayas karne lagi.
bhojan ke samay jab mainne apni nishchit sima ke bhitar nirdisht sthaan grhan kar liya, tab bhaktin ne prasannata se labalb drishti aur atmatushti se aplavit musakurahat ke saath meri phool ko thali mein ek angul moti aur gahri kali chittidar chaar rotiyan rakhkar use teDhi kar gaDhi daal paros di. par jab uske utsaah par tusharpat karte hue mainne ruanse bhaav se kaha—yah kya banaya hai? tab wo hatbuddhi ho rahi.
rotiyan achchhi senkne ke prayas mein kuch adhik khari ho gai hain; par achchhi hain. tarkariyan theen, par jab daal bani hai tab unka kya kam—sham ko daal na banakar tarkari bana di jayegi. doodh ghi mujhe achchha nahin lagta, nahin to sab theek ho jata. ab na ho to amchur aur laal mirch ki chatni pees li jave. usse bhi kaam na chale, to wo gaanv se lai hui gathri mein se thoDa sa guD de degi. aur shahr ke log kya kalabattu khate hain? phir wo kuch anaDin ya phoohD nahin. uske sasur, pitiya sasur, ajiya saas aadi ne uski paak kushalta ke liye na jane kitne maukhik prmaan patr de Dale hain.
bhaktin ke is saragarbhit lekchar ka prabhav ye hua ki main mithe se virakti ke karan bina guD ke aur ghi se aruchi ke karan rukhi daal se ek moti roti khakar bahut thaath se yunivarsiti pahunchi aur nyaay sootr paDhte paDhte shahr aur dehat ke jivan ke is antar par vichar karti rahi.
alag bhojan ki vyavastha karni paDi thi, apne girte hue svaasth aur parivarvalon ki chinta nivaran ke liye, par prbandh aisa ho gaya ki upchaar ka parashn hi kho gaya. is dehati vriddha ne jivan ki saralta ke prati mujhe itna jagrat kar diya tha ki main apni asuvidhayen chhipane lagi, suvidhaon ki chinta karna to door ki baat.
iske atirikt bhaktin ka svbhaav hi aisa ban chuka hai ki wo dusron ko apne man ke anusar bana leti chahti hai; par apne sambandh mein kisi prakar ke parivartan ki kalpana tak uske liye sambhav nahin. isi se aaj main adhik dehati hoon; par use shahr ki hava nahin lag pai. makii ka, raat ko bana daliya, savere maththe se sondha lagta hai. bajre ke til lagakar banaye hue pue garam kam achchhe lagte hain. jvaar ke bhune hue bhutte ke hare danon ki khichDi svadisht hoti hai. safed mahue ki lapsi sansar bhar ke halve ko laja sakti hai; aadi wo mujhe kriyatmak roop se sikhati rahti hai; par yahan ka rasgulla tak bhaktin ke pople munh mein pravesh karne ka saubhagya nahin praapt kar saka. mere raat din naraz hone par bhi usne saaf dhoti pahanna nahin sikha; par mere svayan dhokar phailaye hue kapDon ko bhi wo tah karne ke bahane silavton se bhar deti hai. mujhe usne apni bhasha ki anek dantakthayen kanthasth kara di hain; par pukarne par wo anya ke sthaan mein jee kahne ka shishtachar bhi nahin seekh sakti.
bhaktin achchhi hai, ye kahna kathin hoga, kyonki usmen durgunon ka abhav nahin. wo satyavadi harishchandr nahin ban sakti; par naro va kunjro va kahne mein bhi vishvas nahin karti. mere idhar udhar paDe paise rupye, bhanDar ghar ki kisi matki mein kaise antarhit ho jate hain, ye rahasya bhi bhaktin janti hai. par, us sambandh mein kisi ke sanket karte hi wo use shastrarth ke liye chunauti de Dalti hai, jisko svikar kar lena kisi tark shiromani ke liye sambhav nahin. ye uska apna ghar thahra, paisa rupya jo idhar udhar paDa dekha sanbhalakar rakh liya. ye kya chori hai! uske jivan ka param kartavya mujhe prasann rakhna hai—jis baat se mujhe krodh aa sakta hai, use badalkar idhar udhar karke batana, kya jhooth hai! itni chori aur itna jhooth to dharmaraj maharaj mein bhi hoga, nahin to ve bhagvan ji ko kaise prasann rakh sakte aur sansar ko kaise chala sakte!
shaastr ka parashn bhi bhaktin apni suvidha ke anusar suljha leti hai. mujhe striyon ka sir ghutana achchha nahin lagta, atः mainne bhaktin ko roka. usne akunthit bhaav se uttar diya ki shaastr mein likha hai. kutuhalvash mein poochh hi baithi—kya likha hai? turant uttar mila—tirath ge munDaye siddh. kaun se shaastr ka ye rahasyamay sootr hai, ye jaan lena mere liye sambhav hi nahin tha. atः main harkar maun ho rahi aur bhaktin ka chuDakarm har brihaspativar ko, ek daridr napit ke gangajal se dhule ustre dvara yathavidhi nishpann hota raha.
par wo moorkh hai ya vidya buddhi ka mahattv nahin janti, ye kahna asatya kahna hai. apne vidya ke abhav ko wo meri paDhai likhai par abhiman karke bhar leti hai. ek baar jab mainne sab kaam karne valon se anguthe ke nishan ke sthaan mein hastakshar lene ka niyam banaya tab bhaktin baDe kasht mein paD gai, kyonki ek to usse paDhne ki musibat nahin uthai ja sakti thi, dusre sab gaDivan daiyon ke saath baithkar paDhna uski vayovriddhta ka apman tha. atः usne kahna arambh kiya—hamare malkin tau raat din kitabiyan maan gaDi rahti hain. ab hamhun paDhai lagab to ghar giristi kaun dekhi suni.
paDhanevale aur paDhnevale donon par is tark ka aisa prabhav paDa ki bhaktin inspektar ke saman klaas mein ghoom ghumkar kisi ke aa ii ki banavat kisi ke haath ki mantharta, kisi ki buddhi ki mandta par tika tippni karne ka adhikar pa gai. use to angutha nishani dekar vetan lena nahin hota, isi se bina paDhe hi wo paDhnevalon ki guru ban baithi. wo apne tark hi nahin, tarkhinta ke liye bhi prmaan khoj lene mein patu hai. apne aapko mahattv dene ke liye hi wo apni malkin ko asadharanta dena chahti hai; par iske liye bhi prmaan ki khoj DhoonDh avashyak ho uthti hai.
jab ek baar mein uttar pustkon aur chitron ko lekar vyast thi, tab bhaktin sabse kahti ghumi—uu bichariau tau raat din kaam maan jhuki rahti hain, aur tum pachai ghumti phirti hau! chalau tanik haath batay leu. sab jante the ki aise kamon mein haath nahin baDhaya ja sakta, atः unhonne apni asmarthata prakat kar bhaktin se pinD chhuDaya. bas isi prmaan ke adhar par uski sab atishyoktiyan amarbel si phailne lagin—uski malkin jaisa kaam koi janta hi nahin, isi se to bulane par bhi koi haath batane ki himmat nahin karta.
par wo svayan koi sahayata nahin de sakti, ise manna apni hinta svikar karna hai—isi se wo dvaar par baithkar baar baar kuch kaam batane ka agrah karti hai. kabhi uttar pustkon ko bandhakar, kabhi adhure chitr ko kone mein rakhkar, kabhi rang ki pyali dhokar aur kabhi chatai ko anchal se jhaDkar wo jaisi sahayata pahunchati hai, usse bhaktin ka anya vyaktiyon se adhik buddhiman hona prmanit ho jata hai. wo janti hai ki jab dusre mera haath batane ki kalpana tak nahin kar sakte, tab wo sahayata ki ichchha ko kriyatmak roop deti hai, isi se meri kisi pustak ke prakashit hone par uske mukh par prasannata ki aabha vaise hi udbhasit ho uthti hai jaise svich dabane se balb mein chhipa aalok. wo sune mein use baar baar chhukar, ankhon ke nikat le jakar aur sab or ghuma phirakar mano apni sahayata ka ansh khojti hai aur uski drishti mein vyakt atmghosh kahta hai ki use nirash nahin hona paDta. ye svabhavik bhi hai. kisi chitr ko pura karne mein vyast, main jab baar baar kahne par bhi bhojan ke liye nahin uthti, tab wo kabhi dahi ka sharbat, kabhi tulsi ki chaay vahin dekar bhookh ka kasht nahin sahne deti.
din bhar ke karya bhaar se chhutti pakar jab main koi lekh samapt karne ya bhaav ko chhandbaddh karne baithti hoon, tab chhatravas ki roshni bujh chukti hai, meri hirni sona takht ke paitane farsh par baithkar pagur karna band kar deti hai, kutta basant chhoti machiya par panjon mein mukh rakhkar ankhen moond leta hai aur billi godhuli mere takiye par sikuDkar so rahti hai.
par mujhe raat ki nistabdhata mein akeli na chhoDne ke vichar se kone mein dari ke aasan par baithkar bijli ki chakachaundh se ankhen michamichati hui bhaktin, prshaant bhaav se jagran karti hai. wo uunghati bhi nahin, kyonki mere sir uthate hi uski dhundhli drishti meri ankhon ka anusran karne lagti hai. yadi main sirhane rakhe raik ki or dekhti hoon, to wo uthkar avashyak pustak ka rang puchhti hai, yadi main qalam rakh deti hoon, to wo syahi utha lati hai aur yadi main kaghaz ek or sarka deti hoon, to wo dusri fail tatolti hai.
bahut raat ge sone par bhi main jaldi hi uthti hoon aur bhaktin ko to mujhse bhi pahle jagna paDta hai—sona uchhal kood ke liye bahar jane ko aakul rahti hai, basant nitya karm ke liye darvaza khulvana chahta hai aur godhuli chiDiyon ki chahchahahat mein shikar ka amantran sun leti hain.
mere bhrman ki bhi ekaant sathin bhaktin hi rahi hai. badri kedar aadi ke uunche niche aur tang pahaDi raste mein jaise wo hath karke mere aage chalti rahi hai, vaise hi gaanv ki dhulabhri pagDanDi par mere pichhe rahna nahin bhulti. kisi bhi samay, kahin bhi jane ke liye prastut hote hi main bhaktin ko chhaya ke saman saath pati hoon.
yuddh ko desh ki sima mein baDhte dekh jab log atankit ho uthe, tab bhaktin ke beti damad uske nati ko lekar bulane aa pahunche par bahut samjhane bujhane par bhi wo unke saath nahin ja saki. sabko wo dekh aati hai; rupya bhej deti hai; par unke saath rahne ke liye mera saath chhoDna avashyak hai; jo sambhvatः bhaktin ko jivan ke ant tak svikar na hoga.
jab gat varsh yuddh ke bhoot ne virata ke sthaan mein palayan vritti jaga di thi, tab bhaktin pahli hi baar sevak ki vinit mudra ke saath mujhse gaanv chalne ka anurodh karne aai. wo lakDi rakhne ke machan par apni nai dhoti bichhakar mere kapDe rakh degi, dival mein kilen gaDkar aur un par takhte rakhkar meri kitaben saja degi, dhaan ke pual ka gondra banvakar aur us par apna kambal bichhakar wo mere sone ka prbandh karegi. mere rang, syahi aadi ko nai hanDiyon mein sanjokar rakh degi aur kaghaz patron ko chhinke mein yathavidhi ekatr kar degi.
mere paas vahan jakar rahne ke liye rupya nahin hai, ye mainne bhaktin ke prastav ko avkash na dene ke liye kaha tha; par uske parinam ne mujhe vismit kar diya. bhaktin ne param rahasya ka udghatan karne ki mudra bana kar aur popala munh mere kaan ke paas lakar haule haule bataya ki uske paas paanch bisi aur paanch rupya gaDa rakha hai. usi se wo sab prbandh kar legi. phir laDai to kuch amrauti khakar aai nahin hai. jab sab theek ho jayega, tab yahin laut ayenge. bhaktin ki kanjusi ke praan punjibhut hote hote parvtakar ban chuke the; parantu is udarta ke Dainamait ne kshan bhar mein unhen uDa diya. itne thoDe rupye ka koi mahattv nahin; parantu rupye ke prati bhaktin ka anurag itna prakhyat ho chuka hai ki mere liye uska parityag mere mahattv ki sima tak pahuncha deta hai.
bhaktin aur mere beech mein sevak svami ka sambandh hai, ye kahna kathin hai; kyonki aisa koi svami nahin ho sakta, jo ichchha hone par bhi sevak ko apni seva se hata na sake aur aisa koi sevak bhi nahin suna gaya, jo svami ke chale jane ka adesh pakar avagya se hans de. bhaktin ko naukar kahna utna hi asangat hai, jitna apne ghar mein bari bari se aane jane vale andhere ujale aur angan mein phulne vale gulab aur aam ko sevak manna. ve jis prakar ek astitv rakhte hain, jise sarthakta dene ke liye hi hamein sukh dukh dete hain, usi prakar bhaktin ka svtantr vyaktitv apne vikas ke parichay ke liye hi mere jivan ko ghere hue hain.
parivar aur paristhitiyon ke karan svbhaav mein jo vishamtayen utpann ho gai hain, unke bhitar se ek sneh aur sahanubhuti ki aabha phutti rahti hai, isi se uske sampark mein aane vale vyakti usmen jivan ki sahj marmikta hi pate hain. chhatravas ki balikaon mein se koi apni chaay banvane ke liye dehli par baithi rahti hai, koi bahar khaDi mere liye bane nashte ko chakhkar uske svaad ki vivechana karti rahti hai. mere bahar nikalte hi sab chiDiyon ke saman uD jati hain aur bhitar aate hi yathasthan virajman ho jati hain. inhen aane mein rukavat na ho, sambhvatः isi se bhaktin apna donon joon ka bhojan savere hi banakar uupar ke aale mein rakh deti hai aur khate samay chauke ka ek kona dhokar paak chhat ke sanatan niyam se samjhauta kar leti hai.
mere parichiton aur sahityik bandhuon se bhi bhaktin vishesh parichit hai; par unke prati bhaktin ke samman ki matra, mere prati unke samman ki matra par nirbhar hai aur sadbhav unke prati mere sadbhav se nishchit hota hai. is sambandh mein bhaktin ki sahajbuddhi vismit kar dene vali hai.
wo kisi ko akar prakar aur vesh bhusha se smran karti hai aur kisi ko naam ke apabhransh dvara. kavi aur kavita ke sambandh mein uska gyaan baDha hai; par aadar bhaav nahin. kisi ke lambe baal aur ast vyast vesh bhusha dekhkar wo kah uthti hai—ka ohu kavitt likhe janat hain aur turant hi uski avagya prakat ho jati hai—tab uu kuchchhau karihain dharihain na—bas gali gali gaut bajaut phirihain.
par sabka dukh use prabhavit kar sakta hai. vidyarthi varg mein se koi jab karagar ka atithi ho jata hai, tab us samachar ko vyathit bhaktin bita bita bhare laDkan ka jehal kaljug raha taun raha ab parlay hoi jai—unkar mai ka baDe laat tak laDai ka chahin, kahkar din bhar sabko pareshan karti hai. bapu se lekar sadharan vyakti tab sabke prati bhaktin ki sahanubhuti ekras milti hai.
bhaktin ke sanskar aise hain ki wo karagar se vaise hi Darti hai, jaise yamlok se. uunchi divar dekhte hi, wo ankh mundakar behosh ho jana chahti hai. uski ye kamzori itni prasiddhi pa chuki hai ki log mere jel jane ki sambhavna bata batakar use chiDhate rahte hain. wo Darti nahin, ye kahna asatya hoga; par Dar se bhi adhik mahattv mere saath ka thaharta hai. chupchap mujhse puchhne lagti hai ki wo apni kai dhoti sabun se saaf kar le, jisse mujhe vahan uske liye lajjit na hona paDe. kya kya saman baandh le, jisse mujhe vahan kisi prakar ki asuvidha na ho sake. aisi yatra mein kisi ko kisi ke saath jane ka adhikar nahin, ye ashvasan bhaktin ke liye koi mulya nahin rakhta. wo mere na jane ki kalpana se itni prasann nahin hoti, jitni apne saath na ja sakne ki sambhavna se apmanit. bhala aisa andher ho sakta hai. jahan malik vahan naukar—malik ko le jakar band kar dene mein itna anyay nahin; par naukar ko akele mukt chhoD dene mein pahaD ke barabar anyay hai. aisa anyay hone par bhaktin ko baDe laat tak laDna paDega. kisi ki mai yadi baDe laat tak nahin laDi, to nahin laDi par bhaktin ka to bina laDe kaam hi nahin chal sakta.
aise visham prtidvandviyon ki sthiti kalpana mein bhi durlabh hai.
main praayः sochti hoon ki jab aisa bulava aa pahunchega, jismen na dhoti saaf karne ka avkash rahega, na saman bandhne ka, na bhaktin ko rukne ka adhikar hoga, na mujhe rokne ka, tab chir vida ke antim kshnon mein ye dehatin vriddha kya karegi aur main kya karungi?
bhaktin ki kahani adhuri hai; par use khokar main ise puri nahin karna chahti.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।