संगीतज्ञों के संस्मरण (भूमिका)
sangitagyon ke sansmarn
पंडित भास्कर बुआ भखले को भी संगीत प्रचार की बड़ी अभिलाषा थी और उन्होंने सन् 1911 ईस्वी में पूना में भारत गायन समाज नामक स्कूल खोला जिसमें स्वयं पंडित जी और पंडित अष्टेकर विद्यार्थियों को सिखाते थे। पंडित जी का स्वर्गवास होने के बाद भी इनके शिष्यों न स्कूल को जारी रखा। इस समय इसके प्रिंसिपल केशवराव केलकर है। इस स्कूल को जीवित रखने के लिए नारायणराव बालगंधर्व, गोविंदराव टैम्बे और मास्टर कृष्णाराव ने बड़ा काम किया है।
पंडित भातखंडे की कोशिश से माधवराव सिंधिया के समय में ग्वालियर में भी संगीत का एक बड़ा स्कूल खुला। यह स्कूल सन् 1925 ईस्वी से अब तक बदस्तूर चला आ रहा है। इस स्कूल में कृष्णाराव शंकर पंडित और राजा भैया पूँछवाले संगीत अध्यापन के लिए रखे गए।
वर्तमान समय में संगीत का प्रचार काफ़ी हो रहा है और यह सबसे ज़्यादा बंबई राज्य में दिखाई देता है। बंबई में जितने संगीत स्कूल, गोष्ठियाँ (सर्किल) और नामी कलाकार मौजूद हैं, उतने पूरे भारत में भी कठिनाई से होंगे। सन् 1930 के लगभग पंडित देवधर ने स्कूल ऑफ़ इंडियन म्यूज़िक की नींव डाली जो अब तक ख़ूब चल रहा है। पंडित बाबूराव गोखले का संगीत विद्यालय, पंडित नारायण राव व्यास का व्यास संगीत विद्यालय, पंडित मनोहर बरवे का मनोहर संगीत विद्यालय, श्री चिदानंद नगरकर का भारतीय संगीत शिक्षापीठ, पंडित बालकृष्ण बुआ कपिलेश्वरी का सरस्वती संगीत विद्यालय आदि नगर की प्रमुख संगीत संस्थाएँ हैं। इनके अलावा कुल मिलाकर सौ-सवा-सौ और भी छोटे-बड़े संगीत के स्कूल मौजूद हैं।
बंबई में संगीत गोष्ठियाँ (म्यूज़िक सर्किल) भी बहुत हैं। बंबई म्यूज़िक सर्किल, इंडियन म्यूज़िक सर्किल, म्यूज़िक आर्ट सोसायटी, सबबर्न म्युज़िक सर्किल, दादर म्युज़िक सर्किल, आगरा घराना संगीत समिति आदि गोष्ठियाँ अच्छी चल रही है।
बंबई में बहुत से घरानों के गवैयों का निवास रहा है। इनमें से कुछेक प्रमुख नाम ये हैं : स्व० अल्लादिया ख़ाँ अतरौली वाले; आगरा के लताफ़त हुसैन, अनवर हुसैन, ख़ादिम हुसैन और यूनुस हुसैन ख़ाँ; मुरादाबाद घराने के स्व० अमान अली ख़ाँ और छज्जू ख़ाँ; ग्वालियर घराने के पंडित देवधर, पंडित नारायणराव व्यास, पंडित विनायकराव पटवर्धन और स्व० पंडित पलुस्कर आदि; स्व० अब्दुल करीम ख़ाँ, डागर बंधु, स्व० मोहम्मद ख़ाँ बीकानेर, अब्दुल हलीम ख़ाँ इंदौर वाले, अली अकबर ख़ाँ मैहर वाले, विलायत ख़ाँ और इनायत ख़ाँ सितारनवाज़, भीखन जी पखावजी, कुदऊ सिंह के घराने के लोग, अहमद जान थिरकवा, अज़मत हुसैन ख़ाँ अतरौली वाले, अमीर हुसैन तबलानवाज़, अल्लारखा ख़ाँ तबलानवाज़ लाहौर वाले, शमसुद्दीन तबलानवाज़ नारायणराव इंदौरकर, बाबूराव मंगेशकर, विष्णु पंत शिरोढ़कर, यशवंत केरकर, कृष्णा राव कुमठेकर सारंगीनवाज़, मजीद ख़ाँ, अमीरबख़्श और ख़ादिम हुसैन झज्जर वाले, बाबूराव कुमठेकर, अनंतराव केरकर, दंताराम पर्वतकर, रघुवीरजी रामनाथकर हारमोनियम नवाज़ आदि।
संगीत प्रचारक मंडल
सन् 1931 ईस्वी में मैंने बंबई के सब गवैयों की एक बैठक बुलाई जिसका उद्देश्य यह था कि बंबई में जहाँ संगीत का इतना प्रचार है, वहाँ उत्तरी हिंदुस्तान के गवैयों की तरफ़ से कोई गायनशाला और सर्किल कायम किया जाए ताकि उत्तर भारत के गवैयों में परस्पर संपर्क बढ़े। बैठक का यह भी उद्देश्य था कि इस पाठशाला के लिए बहुमत से एक पाठ्यक्रम शुरू किया जाए। बैठक में संगीत सम्राट अल्लादिया ख़ाँ और उनके सुपुत्र मज्जी ख़ाँ, आफ़ताबे मौसी की फ़ैयाज़ हुसैन ख़ाँ, संगीतरत्न अब्दुल करीम ख़ाँ, अमान अली ख़ाँ, अनवर हुसैन ख़ाँ, ख़ादिम हुसैन ख़ाँ आदि मौजूद थे। सभापति अल्लादिया ख़ाँ साहब थे। सबसे पहले अमान अली ख़ाँ का भाषण हुआ। वह बोले, “स्कूल में मेरा तैयार किया हुआ कोर्स रखा जाए जिसे मैंने बरसों की मेहनत से बनाया है, वरना मैं शरीक ना होऊँगा।” अब्दुल करीम ख़ाँ साहब बोले, “हमें एकता की सख़्त ज़रूरत है। हम सबको मिलकर प्रसिद्ध राग-रागनियों का एक पाठ्यक्रम तैयार करना चाहिए ताकि संगीत शास्त्र की बढ़ती हो और विद्यार्थियों को लाभ हो। बहुत से रागों पर कोई मतभेद नहीं है। उन्हें ज्यों का त्यों रखा जा सकता है। अछोप राग अवश्य अलग-अलग ढंग से गाए जाते है। उसके लिए भारत भर के गवैयों को बुला कर एक ढंग निर्धारित कर लेना चाहिए। सब लोग अपने-अपने ख़ानदान के ध्रुपद सुनाए और जिनकी सनद हो जाए वे रख लिए जाएँ। यही एक ढंग मतभेद मिटाने का है।” सब के अंत में सभापति अल्लादिया ख़ाँ साहब ने अप्पने भाषण में कहा “हमसे पूछा जाए तो कोई भी पाठ्यक्रम ग़लत नहीं।” उन्होंने एक-दो चीज़ें मालकोस की सुनाई जिनका स्वरूप अलग-अलग था और उनमें अलग-अलग ढंग से स्वर लगाए जो बहुत ही सुंदर मालूम हुए।
उस मीटिंग में एकता उत्पन्न होने को कोई आशा नही दिखाई दी। फिर भी मैंने एक और मीटिंग बुलाई और इसके लिए सब लोगों को खत भी लिखे। मगर एक-दो को छोड़कर किसी ने खत का जवाब तक नही दिया और मुझे बहुत निराशा हुई। आख़िरकार मैंने अपने घराने के लोगों को अपने यहाँ इकट्ठा किया और अल्लादिया ख़ाँ साहब और मज्जी ख़ाँ साहब को भी अपने घर आने का निमंत्रण दिया। ये दोनों ख़ुशी से आए और हमारी सभा के सभापति बने। हमने एक गायन मंडली खोल कर संगीत की उन्नति करने के लिए जलसा करके फंड इकट्ठा करने का निश्चय किया। एक महीने के बाद ही संगीत प्रचारक मंडल के नाम से एक संस्था की नींव डाली गई जिसमें हर महीने संगीत का कार्यक्रम होने लगा। यह मंडल सन् 1936 में खोला गया और इसके मंत्री अज़मत हुसैन ख़ाँ, उप-मंत्री शांताराम तैलंग तथा अनवार हुसैन ख़ाँ और अध्यक्ष संगीत सम्राट अल्लादिया ख़ाँ साहब हुए। अपने एक विश्वासी शिष्य को हमने कोषाध्यक्ष बनाया। एक साल बाद हमने बंबई में एक म्युज़िक कांफ्रेंस बुलाई। अध्यक्ष पद ग्रहण करने की प्रार्थना हमने महाराजा धर्मपुर से की और वह मान भी गए। यह कांफ्रेंस सन् 1937 ईस्वी में कावसजी जहाँगीर हाल में हुई और उसका सारा ख़र्च हमारे मंडल ने उठाया। इसी समय पंडित ओंकारनाथ, पंडित देवधर, पंडित डी०वी० पलुस्कर और पंडित नारायणराव व्यास भी एक कांफ्रेंस करने वाले थे। हमने इन लोगों से प्रार्थना की कि एक ही समय में दो की बजाय हम मिलकर एक ही कांफ्रेंस क्यों न करें। हमारी प्रार्थना ये लोग मान गए और यह कांफ्रेंस क्यों न करें। हमारी प्रार्थना ये लोग मान गए और यह कांफ्रेंस ख़ूब ज़ोरदार हुई।
इस सम्मेलन में भारत के सभी बड़े-बड़े गवैये, बीकानेर, हारमोनियम, सितार और तबलानवाज़ तथा आरकैस्ट्रा वाले शामिल हुए। गांधर्व महाविद्यालय की ओर से भी कई अच्छे कलाकार इसमें शामिल हुए और सम्मेलन पूरी तरह सफल हुआ। इसी कांफ्रेंस में हमारे मंडल ने कुछ प्रस्ताव भी पास किए जो ये हैं:
(1) मंडल को मज़बूत बनाने के लिए कोशिश ज़ारी रखनी चाहिए।
(2) फ़ंड बढ़ाया जाना चाहिए।
(3) काफ़ी रुपए जमा होने के बाद एक बड़ा स्कूल या कालेज खोला जाए।
(4) उन कलाकारों को भी सदस्य बनाने की कोशिश करनी चाहिए जो अभी तक इसके सदस्य नहीं बने।
हमें अपने मंडल की प्रगति का पूरा-पूरा भरोसा था। पर एकाएक हमारे कोषाध्यक्ष का रवैया ही बदल गया। वह मंडल के सब कलाकारों को अपने आधीन समझने लगे और अपने आप को मंडल का पूरा-पूरा मालिक। वह बिना किसी की राय लिए जलसा मुकर्रर कर देते। जलसे में कलाकारों के उठने-बैठने में बेजा रुकावटें पैदा करते, जिसको इच्छा होती दावत देते और सभी से अकड़ के साथ बात करते। उनकी यें बाते मंडल के सभी सदस्यों को बुरी लगतीं। इन बातों से मंडल तंग आ गया और उनको उनके पद से अलग कर दिया गया। इस पर वह बहुत बिगड़े और उन्होंने एक नई चाल चली। वह कहने लगे कि हिंदुस्तानी संगीत प्रचारक मंडल मेरे नाम पर रजिस्टर्ड हुआ है। इसलिए इस नाम का उपयोग कोई और नही कर सकता। हमने कहा कि हमें इस नाम की ज़रूरत नही है, हम कोई दूसरा नाम रख लेंगे। इसके बाद हमने उसका दूसरा नाम ‘गायन वर्धक संस्था’ रख लिया और बाक़ी सारी की सारी कारवाई वैसी की वैसी जारी रही। मगर उनकी चाल सफल हो गई और वह मंडल का सारा फ़ंड हज़म कर गए। यद्यपि वह हमारे शिष्य थे और हमने उन्हें बड़ी मेहनत से तैयार किया था तथा उन पर बहुत भरोसा करते थे, परंतु जो व्यवहार उन्होंने हमारे साथ किया उसकी हमको स्वप्न में भी आशा न थी।
इस्लामी दृष्टि से संगीत की मान्यता
कितने ही धार्मिक मुसलमानों से हमने सुना है कि संगीत धर्म-विरोधी कला है और इसे इस्लाम में हराम ठहराया है। मगर खोज करने से पता चलता है कि उनके पास ऐसा कोई प्रमाण या दलील नहीं जिससे इस बात को सही मान लिया जाए। उनकी एक दलील यह है कि नाच-रंग और शराबखोरी भी संगीत में शामिल है। पर यह तो स्पष्ट संगीत को व्यर्थ बदनाम करना है। संगीत एक महान पवित्र कला है और पवित्र मन वाले लोगों ने इसे पहचाना ही नहीं। संगीत तो ऐसी ज़बर्दस्त विद्या है जो हज़ारों साल से चली आ रही है। बुज़ुर्गों से सुना है कि भगवान ने जब आदम का पुतला तैयार किया तो उसमें दाखिल होने के लिए आदम को आज्ञा दी, मगर आदम ने उस अँधेरी कोठरी में प्रवेश करने में घबराहट प्रकट की। तब भगवान की आज्ञा से एक सुरीला नगमा पैदा हुआ जिससे आदम पर मस्ती छा गई और उसी मस्ती की-सी हालत में वह फौरन पुतले में दाखिल हो गया। बस क्या था, हज़रत आदम उठ बैठे और उठकर भगवान का सजदा किया।
इसी तरह की कितनी ही कथाएँ इस्लामी परंपरा में संगीत के संबंध में हमको मिलती है। इनमें से कुछेक में यहाँ पेश करता हूँ।
(1) हज़रत दाऊद बड़े ऊँचे दर्जे के पैगंबर हुए हैं। भगवान ने इन्हें कई आलौकिक चीज़ें दी थीं जिनमें सबसे बड़ी उनकी सुरीली आवाज़ थी। जिस वक्त वह अपनी लोचदार और सुरीली आवाज़ से प्रार्थना करते तो इंसान तो इंसान जंगल के चरिंदे-परिंदे भी आपके इर्द-गिर्द जमा हो जाते और बे-ख़ुद हो जाते।
(2) हमारे पैगंबर मुहम्मद मुस्तफ़ा सुरीलेपन को बहुत पसंद फ़रमाते थे। क़ुरान शरीफ़ को निहायत पुरअसर तरीके से पढ़ते थे। आपने हुक्म दिया था कि क़ुरान शरीफ़ को कराअत के साथ पढ़ो। अगर आदमी बद-आवाज़ हो तो वह बहुत आहिस्ता से पढ़े। इसी तरह हरेक मुअज्जिन (अज़ान देने वाला) ख़ुश-आवाज़ तलाश करके मुकर्रर किया जाता था। हज़रत बिलाल हब्शी के नाम से इस्लाम की दुनिया ख़ूब वाकिफ़ है। इनके सुरीले गले से हज़रते सलअम बहुत ख़ुश थे और अज़ान देने के वास्ते इनको मुकर्रर किया था। बहुत-से सुरीली आवाज़ वाले लोग अरबी नस्ल के भी उनकी ख़िदमत में थे। मगर हब्श के रहने वाले हज़रत बिलाल की आवाज़ का सुरीलापन सबसे निराला और अद्भूत था। उनसे बेहतर मुअज्जिन कोई नही हो सकता था। उनकी सुरीली आवाज़ में दर्द कूट-कूट कर भरा हुआ था और उसका असर असाधारण होता था। उनकी आवाज़ कानों में पहुँचते ही एक कशिश-सी पैदा करती थी और लोगों के दिल इनकी तरफ़ खिंच जाते थे। इस बात से साफ़ ज़ाहिर है कि यह सब करिश्मा संगीत का ही था और संगीत ख़ुदा और रसूल की प्यारी चीज़ है। ऐसी चीज़ को वही हराम ठहराएगा जो वास्तविकता से अपरिचित होगा। इन मिसालों के अलावा आज भी हम अरबी लहज़े में और कराअत में संगीत का अनुभव करते हैं जिसमें चढ़े-उतरे बारहों स्वर सुनाई देते हैं। अगर यह सच है तो कराअत को मौसीक़ी से अलहदा कैसे कर सकते हैं? मैंने कई जगहों पर हाफ़िज़ों को क़ुरान-ए-मजीद कराअत में पढ़ते सुना है और मैं बिना किसी संदेह के यह कह सकता हूँ कि मैंने वह कराअत कहीं भैरवी राग में, कहीं कालिंगड़ा में और कहीं जोगिया वगैरह में सुनी है। इसलिए मुझे तो कोई गुंजाइश नज़र नही आती कि इस चीज़ को संगीत से अलग समझा जाए। यही वजह थी कि हज़रत ने संगीत को कहीं हराम नहीं कहा बल्कि उसको ऊँची जगह दी है।
(3) कई बार ख़ुद सरकारें दोआलम ने भी गाना सुना है। एक मरतबा ईद के मौके पर जब सरकार ईद की नमाज़ से फ़ारिग़ होकर घर पर तशरीफ़ लाए तो मरदाने की कुछ लड़कियों ने ख़िदमत में आकर डफ बजा कर नाचना-गाना शुरू कर दिया जिसे हुज़ूर बहुत ख़ुशी के साथ सुनते रहे। किसी ख़ास मुसाहिब ने वजह जाननी चाही तो हुज़ूर ने फ़रमाया कि आज ईद का दिन है।
(4) एक बार जब हुज़ूर जंगेबदर से मुज़फ़्फ़रों मंसूर मदीने में जिहाद से वापस आए और कुरैश की लड़कियों ने आपको घेर लिया और गाना-बजाना शुरू कर दिया तो आप सुनते रहे। उस समय आपके चेहरे पर ख़ुशी थी। किसी साहाबी ने इस चीज़ को बंद करना चाहा तो लड़कियों ने कहा कि हमने मन्नत मानी है कि सरकार के वापस आने पर हम नाचेंगी और गाएँगी। उस समय ख़ुद सरकार ने यह कहा कि इनको न रोको। उन्होंने जो मन्नत मानी है उसे पूरा करने दो।
(5) आमिर बिन साद कहता है कि मैं अबू मसूद अंसारी के पास एक शादी में गया। वहाँ औरतें गा रही थीं। मैंने कहा, ‘तुम रसूलिल्लाह के साहाबी हो और औरतों का गाना सुनते हो?’ वह बोले , ‘तेरा जी चाहे तो हमारे साथ बैठ, अगर नही चाहे तो चला जा। हमें ब्याह-शादी में इजाज़त दी गई है कि डफ के साथ गाना सुनें।’ यह हदीस ‘सही निसाही’ में है और शेख़ अब्दुल हक़ मुहद्दिस रहमतुल्ला अलैह ने मदारिज़ में लिखा है।
इन बड़ी मिसालों के अलावा और बहुत-सी मिसालें किताबों में मौजूद हैं। जिनसे मालूम होता है कि धर्म के बड़े-बड़े बुज़ुर्गों ने संगीत को पसंद किया है और अक्सर औलिया अल्लाह को यह चीज़ बहुत पसंद होती थी। जैसे हज़रत अब्दुल्ला इबने जाफ़रे तय्यार, रजे अल्लाहो ताआला अनहो इमाम अहमद बिन हम्बल, हज़रत जुनैद बगदादी, हज़रत ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी और चिश्ती तथा सोहरावर्दी ख़ानदान के तमाम लोग और अक्सर औलिया अल्लाह गाना सुनते थे तथा संगीत का बहुत लिहाज़ करते थे।
संगीत और हिकमत
संगीत का हिकमत से गहरा संबंध है जिसको समझने वाले अच्छी तरह से जानते हैं। सबसे पहले लय को ले लीजिए जिसको वज़न भी कह सकते हैं। इसका हिकमत में बड़ा दखल है। इंसान की नब्ज़ और साँस लय में चलती है। अगर यह लय से ख़ारिज हो जाती है तो इंसान बीमार हो जाता है और बढ़ने से मौत के नज़दीक पहुँच जाता है। कहने का मतलब यह है कि ज़िंदगी का दारोमरदार इन्हीं चीज़ों पर है और यह लय संगीत का आधा हिस्सा मानी जा सकती है। कुछ बुज़ुर्गों ने इस राज़ को समझा था कि ज़िंदगी का दारोमदार क़ुदरत ने साँसों के शुमार पर रखा है। इसलिए वे अपनी साँस को बढ़ाने का प्रयत्न करते थे। वे एक ही सुर पर क़ायम हो जाते और इतनी देर तक ठहरते कि दूसरी साँस लिए बिना चारा ही न रहता। इसका नतीज़ा यह हुआ कि जितनी देर में वह पहले चार साँस लेते थे, वहाँ एक से ही काम निकल आता था और इस तदवीर में सुरों में भी अच्छी तासीर पैदा होती थी। साथ ही इससे उनकी उम्र भी बढ़ती थी। मैंने बड़े-बूढ़ों से सुना है कि दरवेश, साधु और योगी इस चीज़ पर पूरा-पूरा अमल करते थे। इसी कारण उनकी उम्रें दो-दो चार-चार सौ बरस तक की होती थी। हमारे दादा साहब गुलाम अब्बास ख़ाँ की उम्र 120 साल की हुई। मैंने उन्हें अच्छी तरह देखा है। उन्होंने भी अपनी साँस को बहुत बढ़ाया था। गाना उनका बहुत ही पुरअसर होता था। साँस बढ़ाने की कोशिश तो वह बुढ़ापे में भी करते रहे और साँस को कभी तेज़ नही होने दिया। उनको कभी भागते-दौड़ते भी नही देखा। वह हमेशा बहुत धीमी चाल से चलते थे जिससे साँस की रफ़्तार तेज़ न हो। उन्ही से मुझे यह भी मालूम हुआ कि वह तीस बरस तक ब्रह्मचारी रहे। वह खुराक बहुत कम मगर ताकत देने वाली खाते थे और साँस के वज़न को क़ायम रखते थे।
गाने से कितने ही रोग भी अच्छे होते हुए सुनने में आए हैं। हैदराबाद दक्खन के महाराजा कृष्णप्रसाद को आख़िरी ज़माने में बुरे सपनों का मर्ज़ पैदा हो गया था और रात-रात भर नींद न आती थी। बहुतेरा इलाज, दवा-दारू करने के बाद हकीमों ने राय दी कि आप रात को गाना सुना करें। महाराजा को भी यह राय पसंद आई और वह रात को सोने से पहले अब्दुल करीम ख़ाँ वगैरह सरकारी गवैयों को बुलवाते और गाना सुनते। धीरे-धीरे उन्हें नींद आने लगी और जो शिकायत थी वह जाती रही। इसी तरह मेरे एक घनिष्ठ मित्र अन्ना साहब नांदनीकर वैद्य है, जो बेलगाँव में रहते हैं। ख़ुद उनको भी दिल की धड़कन की बीमारी हो गई थी और उनका दिल इतना धड़कता था कि बेहोश हो जाते थे। एकाएक उनके ख़्याल में यह बात आई कि गाना सुनना चाहिए । और उसके बाद वह हर रोज़ शाम को किसी कलावंत को या तो अपने घर बुलाते या ख़ुद उसके घर जाकर घंटा-दो घंटा गाना सुनते थे। थोड़े ही दिनों में उनके दिल को चैन आने लगा और धड़कन जाती रही। यह बात मैंने ख़ुद वैद्य जी के मुहँ से सुनी है।
ख़ुद गाने वाले के लिए बहुत बार संगीत बड़ी अच्छी दवा साबित होता है। अक्सर देखा गया है कि गाने वालों को फेफड़े की बीमारी बहुत कम होती है क्योंकि उनके फेफड़ों को वर्जिश का मौक़ा मिलता रहता है। उनसे गंदी हवा निकलती रहती है और अच्छी हवा पहुँचती है जिससे कोई बड़ी बीमारी पास नही आने पाती। गाने वाले के दिल को अपने गाने से बड़ी प्रसन्नता होती है और उसे आराम और शांति मिलती है।
संगीत और कविता
कविता में भी बड़ी चीज़ लय है। कवित्त, दोहरा, पद, ग़जल, रुबाई सब किसी न किसी लय में ही होते हैं। अगर ये लय से खारिज़ होंगे तो बेताले मानें जाएँगे। दूसरी बात यह है कि जो समझदार और कामिल शायर होगा, वह अक्सर ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करेगा जिनमें संगीत होगा। इसके अलावा यह भी है कि कवित्त, दोहरा, छंद, पद, गज़ल, रुबाई, मसन्वी वगैरह सीधे तौर पर पढ़ दी जाए तो उनमें चार गुना रंग आ जाएगा। आजकल के मुशायरों में हमें यह बात आमतौर से नज़र आती है कि जो ग़जलें तरन्नुम के साथ अर्थात् गाकर पढ़ी जाती हैं, उनका असर सुनने वालों पर बहुत गहरा पड़ता है और मुशायरे में भी बड़ा रंग आ जाता है। इस बात से यह साफ़ ज़ाहिर है कि संगीत का शायरी के साथ भी कम लगाव नहीं है।
- पुस्तक : संगीतज्ञों के संस्मरण (पृष्ठ 15-24)
- रचनाकार : विलायत हुसैन खां
- प्रकाशन : संगीत नाटक अकादमी
- संस्करण : नवम्बर 1953
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