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महात्मा गांधी

mahatma gandhi

डॉ भगवानदास

डॉ भगवानदास

महात्मा गांधी

डॉ भगवानदास

और अधिकडॉ भगवानदास

    [काशी के वयोवृद्ध विद्वान डॉक्टर भगवानदास की विद्वता अगाध है। वे देश के सम्मानित नेता है। अस्सी वर्ष की अवस्था में उन्होंने महात्मा गाँधी के संस्मरण लिखे हैं, जो बहुत महत्त्वपूर्ण और ज्ञान-वर्धक है। पढ़िए।]

    मैं पहले-पहले महात्मा जी से कब मिला? यह सोचना पड़ेगा। मैं अस्सी बरस का हुआ, अब स्मरण-शक्ति निर्बल हो चुकी है। मेरा अनुमान है कि मैंने पहले-पहल फ़रवरी के प्रथम सप्ताह में उनके दर्शन किए थे। लार्ड हार्डिंज्ज ने काशी विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया था। महात्मा जी उस समारोह में उपस्थित थे या नही, यह मुझे स्मरण नही है और यही स्मरण है कि मैंने उस भव्य समारोह में उन्हें देखा था, जिसे लार्ड हार्डिंज्ज ने दिल्ली दरबार का लघु संस्करण कहा था। किंतु यह निश्चित है कि मैंने उन्हें 8 फ़रवरी को देखा था, जब उन्होंने महाराजाओं, नवाबों, उच्च सरकारी पदाधिकारियों को खदेड़ मारा था। काशी विश्विद्यालय के लिए पैसे से लेकर गिन्नी तक का दान लेने वाले मालवीयजी ने सब छोटे-बड़ों की सभा 8 फरवरी को बुलाई। उसमें कई रियासतों के राजा भी सम्मिलित हुए। मालवीयजी ने कम से एक-एक करके सभी प्रमुख व्यक्तियों से विश्वविद्यालय को दान करने के लिए अपील करने का अनुरोध किया। गाँधी जी खड़े हुए, उनका भाषण आरंभ होते ही वहाँ से महाराजाओं,राजाओं इत्यादि का समूह खिसकने लगा।

    उसी वर्ष, फिर दूसरी बार में दिसंबर में लखनऊ में उनसे मिला। वहाँ मैं एक छोटे से तंबू से शिवप्रसाद जी के साथ ठहरा था। श्री सुरेंद्रनाथ बनर्जी और लोकमान्य तिलक ने भी कांग्रेस में भाषण किए और कांग्रेस के इसी अधिवेशन में सीटों के संरक्षण के लिए वह दुखदाई हिंदू-मुस्लिम समझौता हुआ जिसने अंत में देश के टुकड़े करवाए। मैंने महात्मा जी को यहाँ एक कुटिया में एक दिन सवेरे देखा। कुटिया संभवतः छप्पर या बॉस की बनी हुई थी। मैंने झाँककर देखा कि वे एक मोटा-सा गवर्मेंट गजट पढ़ रहे हैं। जब तक उन्होंने गजट के लंबे पत्रों को देखना बंद कर दिया, मैं बैठा रहा। उस समय वह कोई निजी सेक्रेटरी नही रखते थे; मै बिना सूचित किए ही पहुँच गया था और मुझे याद नही, संभवतः हिंदी अथवा अंग्रेजो में। क्या मैं अंदर सकता हूँ? कहकर अंदर गया था। कुटिया का द्वार खुला था। उन्होंने धीरे से सर हिलाकर अंदर आने की अनुमति दी। उनकी आँखे अब भी गजट के पन्नो पर लगी हुई थीं। जब उन्होंने गजट देखने के पश्चात् मेरी ओर देखा तो मैंने हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उन्होंने भी उसी प्रकार अभिवादन का उत्तर दिया। तब मैंने पूछा— “महात्मा जी, आपने हाल ही में जो परिचय पत्र प्रचलित किया है जिसमे आपने देश को असहयोग करने तथा खादी पहनने का आदेश दिया है, वह आपातकाल के लिए है अथवा संपतकाल के लिए ? उन्होंने उत्तर दिया—“आपातकाल के लिए।” मैंने कहा—“अब मुझे अधिक कुछ नही पूछना है।” मैं नमस्कार करके लौटा। उसी दिन सांयकाल के समय मैंने महात्माजी को कांग्रेस महासमिति की बैठक में देखा। मैं कांग्रेस महासमिति का सदस्य नही था, इसलिए मैं तंबू की कानवास की दीवार के एक छिद्र से जमाव देख रहा था। इसी बीच किसी ने मुझे देख लिया और भीतर आने का संकेत किया। संभवतः वह व्यक्ति श्रीमोतीलाल नेहरु थे या श्रीगोकर्णनाथ मिश्र (लखनऊ बार के नेता, तदुपरांत अवध चीफ कोर्ट के जज)। मैं भीतर जाकर एक कोने में बैठा गया। उस समय मैंने महात्मा को बैठे हुए सदस्यों की पहली पंक्ति के पीछे खड़े देखा। वे उस समय की पक्की काठियावाड़ी वेश-भूषा में थे; चूड़ीदार पायजामा और घुटनों तक लटकने वाला बिना बटन का अंग्रेज़ पहने थे तथा एक लंबी खादी की पगड़ी रस्सी-सी लपेटे हुए थे। उसी समय बहुमूल्य वस्त्र पहने दो ताल्लुकदार भीतर आए और गाँधीजी से भिड़ते-भिड़ते बचे। एक ने कहा—“यह कौन देहाती यहाँ गया है?” पहले की आँख निकल आई और वह फैल गया। दोनों तत्क्षण ही चुपचाप एक कोने की ओर खिसक गए। बैठक में मेरी प्रिय माता श्रीमती एनी बेसेंट भी उपस्थित थीं। घटनाक्रम इतनी द्रुतगति से चलता है कि नयी पीढ़ी यह विस्मृत कर देती है की महात्मा गाँधी ने नहीं बल्कि श्रीमती एनी बेसेंट ने हिंद के लिए सविनय अवज्ञा और असहयोग आंदोलन की बात सोची थी। उन्होंने यहाँ स्वराज्य (होमरूल) आंदोलन आरंभ किया था। और इसी के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने उनको नजरबंद कर दिया था।

    दूसरी बार मैंने बंबई में जून सन 1921 ई. में कांग्रेस महासमिति की बैठक में महात्मा गाँधी के दर्शन किए। मैं इस बार कांग्रेस महासमिति का सदस्य था। लोकमान्य तिलक का स्वर्गवास हो चुका था। सरदार-ग्रह में मुझे उनकी पूर्ण पुरुषाकार मूर्ति देखने को मिली; यही मैं शिवप्रसादजी के साथ ठहरा हुआ था। संभवत मैंने इसी बैठक में पहले-पहल अली-बंधुओ को देखा था। बैठक की समाप्ति पर 6 फ़ुट 2 इंच लंबे शौकत अली ने जलपान के समय कहा--“आप लोग ये बढ़िया चीजे ख़ूब खाइए, क्योंकि कुछ सालों तक हम लोगों को ऐसा मौक़ा फिर नहीं मिलेगा।” निकट भविष्य में कराची के कारागार में दंड भोगने की ओर उनका संकेत था।

    दूसरे पहर चौपाटी के मैदान में विशाल जनसमुदाय एकत्र हुआ। देशबंधू चित्तरंजन दास, मोतीलाल नेहरु, एम. आर. जयकर तथा अन्य नेताओं ने संक्षेप में पंद्रह-पंद्रह मिनटों तक भाषण किए। महात्माजी भी भाषण करने वालों में थे। उनका भाषण बहुत ही संक्षिप्त होता था, वे केवल तथ्य की बात कहते थे अनावश्यक शब्द अथवा ध्वनि-वैचित्र्य का आश्रय नहीं ग्रहण करते थे। जितना उद्देश्य-सिद्धि के लिए पर्याप्त होता था, उतने ही से काम चलाते थे। विदेशी वस्त्रों को जलने का निर्णय किया गया जो अनुचित था। दूसरे दिन मिल के पास कपड़े जलाए गए। परंतु जो भारतीय वस्त्र होली में जलाने के लिए ले गए, वे नाममात्र को थे और उनके पीछे भी वास्तविकता नही थी। दूसरे दिन मैं महात्मा गाँधी से एक भव्य मकान की तीसरी मंज़िल में मिला। उस समय कांग्रेस महासमिति के बहुत से सदस्य भी उपस्थित थे। मैंने गाँधी जी से पूछा–“महात्माजी औपनिवेशिक आधार पर स्वराज्य का तो कुछ अर्थ निकलता है, परंतु केवल ‘स्वराज्य’ शब्द का कुछ अर्थ नहीं और यदि इसका अर्थ है भी तो प्रत्येक व्यक्ति की रूचि के अनुसार ही है। हिंदू इसका अर्थ हिंदू-राज्य, मुसलमान मुस्लिम-राज्य, ज़मीदार ज़मीदार-राज्य, पूंजीपति पूंजीपति-राज्य, मज़दूर मज़दूर-राज्य, समझता है। और लोग वही इसी तरह सोचते है। इसका अर्थ यही होता है कि भयानक वर्ग-संघर्ष और गृह-युद्ध। इसका अर्थ एकता नहीं, जिसका आप उपदेश देते हैं।” उन्होंने कहा–“यदि कोई स्वराज्य का अर्थ पूछे तो उए बताइए कि इसका अर्थ रामराज्य है।” मैंने कहा—“इसका अर्थ होगा सरल माध्यम से समझना। दूसरे, यदि आप यह समझते है कि रामराज्य में सभी आनंदित थे, कोई निर्धन नहीं था तो यह बहुत बड़ी भूल होगी।” मैंने वाल्मीकि रामायण के कुछ उदाहरण दिए। तदंतर वे दूसरे सदस्यों की ओर आकृष्ट हो गए और मैं लौट आया।

    तदुपरांत गाँधीजी के दर्शन 1928 में हुए। गाँधीजी, कस्तूरबा, महादेव देसाई, मीरा बेन तथा उनकी मंडली के अन्य सदस्य मेरे और मेरे ज्येष्ठ पुत्र के अतिथि के रूप में हमारे पुराने मकान के सेवाश्रम में ठहरे। उस समय मैं बनारस म्युनिसिपल बोर्ड के दीर्घकालीन अध्यक्षता-पद के कार्य से थककर अपने शेष दिन शांति के साथ बिताने के उद्देश्य से चुनार चला गया था। परंतु दुर्भाग्यवश आशा पूरी नहीं हो सकी। गाँधीजी अपना संयमित भोजन अलग और निश्चित समय पर करते थे। परंतु कस्तूरबा तथा अन्य व्यक्ति, जो निषिद्ध पेय—काफ़ी अथवा चाय का प्रयोग नहीं क्र सकते थे, दूसरे कमरे में भोजन करने और उन पेयों का आनंद लेते थे। मेरे निमंत्रण पर वे चुनार आए। वहां प्रमुख नागरिकों ने उनको एक हजार रुपए की थैली भेट की। हम लोग केवल सात सौ रुपए जमा कर पाए। श्रीप्रकाश ने वहां भोंपू (ध्वनि-विस्तारक यंत्र) का काम किया और जगन्नाथ-रथयात्रा के रथ से मच का काम लिया गया। आस-पास के ग्रामीण भी एकत्र हो गए थे। श्रीप्रकाश महात्माजी के संक्षिप्त भाषण का एक-एक वाक्य दुहराते गए। भीड़ इतनी थी कि हम लोग कठिनता से मिर्ज़ापुर के लिए गाडी पकड़ पाए। मैंने महात्माजी के दूध के लिए एक लाल बकरी की व्यवस्था कर दी थी। बकरी के दूध का रहस्य श्री सी एफ एंड्रयू ने हमसे सेवाश्रम में बताया था। कुछ महीने पहले वे सेवाश्रम में हमारे अतिथि के रूप में ठहरे थे। जब गाँधीजी दक्षिण अफ़्रीका में थे तब उन्होंने कलकत्ते के ग्वालों द्वारा गायों के साथ ‘फूका’ का प्रयोग सुनकर यह प्रतिज्ञा की थी कि भविष्य में वे दूध नहीं पिएँगे। परंतु उस समय उनका स्वास्थ्य अच्छा था और वे पर्याप्त दुर्बल थे, क्योंकि बोअर युद्ध में ब्रिटिश सेना के लिए उन्हें बहुत काम करना पड़ा था। उन्होंने रेडक्रॉस संघटित किया और स्ट्रेचरों पर मुर्दों तथा घायल सिपाहियों को रण-भूमि से लाने की व्यवस्था की। वे स्वयं शत्रु की गोलियों की बौछार की उपेक्षा करके घायलों को लाने में सहायता करने के लिए युद्ध स्थल जाते थे। डाक्टरों ने कहा कि यदि उन्होंने दूध नहीं पीआ तो वे मर जाएँगे। गाँधीजी ने सोचा और निश्चित किया, जिससे डाक्टर संतुष्ट हो गए।

    सन 1930 ई. में जब गाँधीजी जेल में थे तो उन्होंने मुझे बुलाकर कई दिन लगातार हरिजनों के मंदिर-प्रवेश के संबंध में सलाह ली। उनमे और पंडितो के बीच इस पर विवाद हो रहा था।

    इसी वर्ष मुझे गाँधीजी से मिलने का एक अवसर और मिला; जब सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन अस्वस्थ हुईं। गाँधीजी सरदार पटेल के साथ हँसी कर बैठे कि तुम्हारी नाक कट गई। उस समय सरदार पटेल अपनी नाक का एक साधारण आपरेशन कराया था।

    इसके अनंतर मैंने गाँधीजी के दर्शन 1934 में किए। बनारस तथा अन्य स्थानों के भयानक दंगे अभी समाप्त ही हुए थे। गाँधी-इर्विन समझौते की भी घोषणा हो चुकी थी। गाँधीजी ने सत्याग्रह स्थगित कर दिया था और अब कांग्रेस महासमिति की बैठक बुलाई गई थी। सब सदस्य काशी विद्यापीठ में ठहराए गए। केवल मौलाना अबुलक़लाम आज़ाद होटल में ठहरे। अलीबंधू कांग्रेस से अलग होकर मुस्लिम लीग में सम्मिलित हो गए थे। मैंने सरदार वल्लभभाई पटेल को यहाँ दूसरी बार देखा। प्रथम बार सन 1921 में लखनऊ में कांग्रेस महासमिति की बैठक में देखा था। सरदार मंत्री होने की अपेक्षा प्रधान सेनापति होने के अधिक उपयुक्त हैं। गाँधीजी के पक्के भवन होने पर भी ‘अहिंसा’ पर उनका सदैव गाँधीजी से मतभेद रहता था। मौलाना अबुल क़लाम स्पष्ट रूप से अपना मतभेद प्रकट करते थे। शेष अन्य कांग्रेस सदस्य व्यक्तिगत मतभेद रखते थे। वे तिलकजी के सिद्धांत पर विश्वास करते थे, जिसका प्रतिपादन सभी दंड विधानों में है और जो यहूदी पैगंबर मोजेज, मुस्लिम पैगंबर मुहम्मद और हिंदू अवतारों में राम और कृष्ण के वचनों और कार्यो में पाया जाता है। रक्षा के लिए जो हिंसा की जाए वह हिंसा नहीं दंड है। हिंसा और दंड में आकाश पाताल का अंतर है। इसके अनंतर कांग्रेस के अधिवेशन से पहले गाँधीजी ने इस तथा अन्य ऐसे ही कारणों से त्यागपत्र दे दिया। फिर भी यदि मानव-प्रकृति के इस प्राचीन सिद्धांत का अनुसरण हिंदू समाज करता, तो इसे और हिंदू धर्म को मुस्लिम लीग निगल गई होती। इसको स्वार्थी, पुराणपंथी अंधे पंडितो ने भी स्वीकार किया।

    काशी विद्यापीठ में कांग्रेस महासमिति की बैठक हुई। उस साल आम उपज असाधारण रूप से अच्छी थी। महात्माजी सत्य के साथ एक प्रयोग कर रहे थे। यहाँ सत्य भोजन था और साधारणत: प्रयोग विफल रहा। आयुर्वेद का कहना है कि यदि आम के शुद्ध मीठे रस का सेवन 40 दिन तक बराबर किया जाए तो कायाकल्प हो जाता है। परंतु कुछ ऐसी गड़बड़ी हुई कि गाँधीजी को रात में अजीर्ण हो गया। मैंने बनारस के सबसे पुराने डॉक्टरो को बुलाया, वे सब सेवा की भावना से बिना फीस आए। उन्होंने बड़ी श्रद्धा से गाँधीजी की परीक्षा की और निर्णय किया कि उनमे कोई ख़राबी नही है। उनके तपस्वी जीवन ने बीमारी पर विजय पा ली थी। डॉक्टरो के सामने मैंने कह डाला—“महात्माजी कुपथ्य करते हैं।” यह स्वाभाविक था कि वे मेरे इस कथन का अर्थ दूसरा निकालते। उन्होंने कहा—“आप ऐसा करते है।” मैंने स्पष्ट करते हुए कहा—“ साधारण कुपथ्य नही, आप आधी-आधी रात तक लोगो से वार्तालाप करते रहते हैं और फिर दो घंटे पश्चात् अपने सोते हुए सेकेट्रियों को जगाकर असंख्य पत्र लिखा कर उन्हें व्याकुल कर देते हैं। मेरी समझ में यही कुपथ्य है।” उनके क्षुब्ध मुखमंडल पर हास्य की रेखा खेल गई और साब प्रसन्न दिखाई देने लगे।

    उसी संध्या हो लगभग 9 बजे रात्रि में मैंने प्रमुख सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों के एक शिष्टमंडल का उनसे वार्तालाप कराया। इसमें उस समय के काशी विद्यापीठ के अध्यापक आचार्य नरेंद्रदेव, श्री संपूर्णानंद इत्यादि थे। मैंने महात्माजी से कहा—“इन नवयुवको में कुछ आपके सबसे अच्छे कार्यकर्त्ता हैं। काशी विद्यापीठ के इनके विद्यार्थी सभी प्रांतो में गए है और वहाँ उन्होंने बहुत अच्छा कार्य किया है। उन्होंने हिंदुस्तानी के प्रचार द्वारा हिंदू-मुस्लिम एकता, अस्प्रश्योदार और कड़ी का प्रचार किया है। वे धरना देने जेल जाने पुलिस की लाठी खाने में सबसे पहले रहें हैं और इस प्रकार उन्होंने मातृभूमि को स्वराज्य की ओर ले जाने में बड़ा सहयोग दिया है। आप उनको अवसर दीजिए जिससे वे कांग्रेस नेताओं और सोशलिस्टों-कम्युनिस्टों के बीच उत्पन्न गंभीर मिथ्या भ्रम को सामने ला सक। दोनों पक्षों के बीच बहुत कम मतभेद हैं, परंतु हैं महत्त्वपूर्ण। स्टालिन के शब्दों में जितना काम उतना पारिश्रमिक सोशलिज़्म है और जितनी आवश्यकता उतना पारिश्रमिक कम्युनिज़्म है। गाँधीजी और शिष्टमंडल में एक घंटे से अधिक शांत वातावरण में बातचीत हुई। मैं चुपचाप बैठा रहा। मैं समझता हूँ की कांग्रेस की ओर मेरा मिथ्या-भ्रम दूर हो गया, परंतु दुर्भाग्यवश वह फिर उत्पन्न हो गया था। स्वातंत्र्य संग्राम के वीर सैनिक नरीमैन भी बैठक में आए थे, वे भी कांग्रेस महासमिति के सदस्य थे। उनको निकालने में कांग्रेस ने भूल की थी। वह सेवाश्रम में ही ठहरे थे, क्योंकि अजीर्ण के कारण उनको विशेष भोजन की आवश्यकता थी। रामगढ़ कांग्रेस के पहले इस अवसर पर असाधारण वीर सुभाषचंद्र बोस को भी सेवाश्रम में एक दिन के लिए अतिथि के रूप में पाकर हमने (इस समय मैं अनुभव करता हूँ) अपने को बहुत सम्मानित अनुभव किया था।

    दूसरी बार मैंने गाँधीजी को आज़ाद, कहाँ अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ाँ (प्रथम बार) तथा उनकी पुत्री सूफ़िया, सरदार पटेल, डॉ. विधानचंद्र राय (प्रथम बार), सुश्री उमा नेहरु, जवाहरलाल नेहरु, सरोजिनी नायडू तथा अन्यान्य नेताओं के साथ 1936 में देखा। इस अवसर पर महात्मा गाँधी व्यावहारिक रूप से भारतमाता-मंदिर का उद्घाटन करने आए थे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संस्मरण और आत्मकथाएँ (पृष्ठ 25-34)
    • संपादक : धुनीराम त्रिपाठी
    • रचनाकार : डॉ भगवान दास
    • प्रकाशन : हिंदी प्रचारक पुस्तकालय
    • संस्करण : 1953
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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