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चेरोखरवारों का गाँव

cherokharwaron ka ganw

विजयमोहन सिंह

विजयमोहन सिंह

चेरोखरवारों का गाँव

विजयमोहन सिंह

और अधिकविजयमोहन सिंह

    उन दिनों बनारस हावड़ा बनारस एक्सप्रेस से वह उस स्टेशन पर उतरता जहाँ ट्रेन मुश्किल से ढाई मिनट रुकती थी। पिछले 15-20 वर्षों में जाने कितनी बार उस स्टेशन पर उतरा होगा पर हर बार जब ट्रेन रुकने के ज़रा देर पहले ही खुरदरे पत्थर के प्लेटफ़ार्म पर पाँव रखता तो लगता कि उस प्लेटफ़ॉर्म पर पहली बार उतर रहा है। शायद ऐसा इसलिए लगता क्योंकि वह जितना लंबा चौड़ा प्लेटफ़ॉर्म था उस अनुपात में वहाँ ट्रेन पर चढ़ने वाले और उतरने वाले लोग बहुत कम होते थे। वह एक वीरान-सा प्लेटफ़ॉर्म था जिसके बीच में छोटे से शेड के नीचे स्टेशन मास्टर का कमरा, एक मालघर और एक उच्च श्रेणी वालों के लिए वेटिंग रूम था। टिकटघर काफ़ी दूर प्लेटफ़ॉर्म के कोने पर था जहाँ गर्मी, सर्दी या बरसात में भी खुले आसमान के नीचे लाइन में खड़ा होना पड़ता था। उच्च श्रेणी वालों के लिए उनके नौकर चाकर ही लाइन में खड़े होकर टिकट ख़रीद लाते थे। प्लेटफ़ॉर्म के एक तरफ़ खेत थे और दूसरी तरफ़ पुल से उतरने पर कुछ चाय और पान, सिगरेट की दुकानें थीं। दो चार इक्केवाले भी खड़े रहते थे पर ज़्यादा धूप या बरसात में वे भी गायब हो जाते थे। कभी कभी दूरदराज़ से आने वाली बस भी ज़रा देर के लिए रुकती थी जो हमेशा खचाखच भरी हुई होती थी। स्टेशन पर मनहूसियत और सुस्ती बरसती रहती थी। वह एक ऐसा स्टेशन था जहाँ आप कभी प्रतीक्षा नहीं करना चाहते ट्रेन से उतरते ही चाहते हैं कि तत्काल वहाँ से निकल जाएँ और ट्रेन पकड़ने के लिए आने पर मन होता है कि तुरंत ट्रेन जाए और आप उस पर बैठ कर वहाँ से भाग जाएँ।

    जब वह पहली बार इस प्लेटफ़ॉर्म पर उतरा था तो पिता के साथ था। वह अंग्रेज़ी राज का ज़माना था और ट्रेनें ठीक समय से चलती थीं। उनमें ज़्यादा भीड़भाड़ भी नहीं होती थी। इसका एक कारण तो यह था कि उस वक़्त देश की आबादी बमुश्किल 35-40 करोड़ के आसपास थी। लोग शायद तब तक पूरी तरह ट्रेनों में सफ़र करने के अभ्यस्त भी नहीं हुए थे ख़ासतौर पर ग्रामीण इलाकों के लोग। वे रेलगाड़ी से भय खाते थे और ज़्यादातर अपनी बैलगाड़ियों से ही चलना पसंद करते थे। उनके गंतव्य भी बहुत दूर नहीं होते थे अधिक से अधिक कोर्ट, कचहरी या अस्पताल तक।

    ट्रेनों में तब तक फ़र्स्ट, सेकेंड, इंटर और थर्ड क्लास के डिब्बे होते थे। किसी स्टेशन पर अगर कोई चिल्ला कर कह देता था कि अरे यह इंटर क्लास है तो देहाती भीड़ सहम कर आगे बढ़ जाती थी।...उसके पिता ज़्यादातर सेकेंड क्लास में सफ़र करते थे। उन दिनों फ़र्स्ट और सेकेंड क्लास से लगा हुआ एक अटेंडेंट क्लास भी होता था जिसमें उनके यात्रियों के सेवक चलते थे। प्रत्येक बड़े स्टेशन पर उतर कर वे देख लेते थे कि साहब या मालिक को किसी चीज की ज़रूरत तो नहीं है। अगर सुराही खाली हुई तो वे दौड़ कर भर लाते थे। गर्मियाँ हुईं और थर्मस बॉक्स में बर्फ़ नहीं हुई तो वे थर्मस लेकर बर्फ़ ख़रीद लाते थे। आम तौर पर सेकेंड क्लास के कमरों से (उन्हें कमरा कहना ही ज़्यादा उपयुक्त होगा)। बाथरूम संलग्न होता था और उनमें कुल चार रेक्सीन मढ़े हुए बड़े-बड़े बर्थ होते थे। फ़र्श जूट से ढकी हुई होती थी और उनकी दीवारें आधी आधी ऊँचाई तक पॉलिस की हुई लकड़ी की दीवार से ढकी हुई होती थीं।

    उसके पिता अपनी सुराही को एक हैंडिल वाले लकड़ी के ढाँचे में रखते थे। सुराही गर्मियों में खस की गीली चटाई में लिपटी रहती थी। बर्फ़ के लिए उनके पास एक खासा बड़ा फ़्लास्क होता था। वह अक्सर उनके साथ शहर के स्कूल के हॉस्टल से लौटता था। घर वालों के लिए पिता फल, मिठाई और नमकीन के टोकरे ले आते थे। मिठाई शहर की सबसे महँगी और मशहूर दुकान राम भंडार से ख़रीदी जाती थी। वे सूखी मिठाइयाँ होती थीं इसलिए बहुत दिनों तक ख़राब नहीं होती थीं। राम भंडार से मिठाई ख़रीदने का एक कारण यह भी था कि मिठाई निर्माता देशभक्त था और कांग्रेस पार्टी के तिरंगे झंडे के रंगों वाली एक विशेष प्रकार की बर्फ़ी बनाता था। वह पिस्ते के लड्डू भी बनाता था जिसे वह चाँदी के वरक में लपेट कर रखता था। कुछ मिठाइयाँ वह ऐसी भी बनाता था जिन्हें ज़्यादा दिनों तक रखा तो नहीं जा सकता था पर जो बेहद सुस्वादु होती थीं। इनमें से एक ताज़े मलाई से बनी मलाई गिलौरी होती थी जो मुँह में रखते ही घुल जाती थी। इसके अलावा ताजा संतरों से बनी संतरे की बर्फ़ी होती थी जिसे संतरों के गूदे को चीनी के सीरे में जमा कर बनाया जाता था। उनमें ताजा संतरों की ख़ुशबू और बर्फ़ी वाली मिठास होती थी। ‘राम भंडार’ की मिठाइयों की शुद्धता पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता था। उनकी ख्याति दूर-दूर तक थी और उन्हें राजे रजवाड़े थोक भाव से अपने यहाँ मँगवाते थे। मिठाइयों के अलावा गुलाब जल में भिगोए हुए चीनी के गोले बनाए जाते थे जो बेहद हल्के होते थे और पानी में डालते ही तत्काल घुल जाते थे। वह ख़ुशबूदार शरबत घर में आने वाले सम्मानित मेहमानों को ही दिया जाता था। बाक़ी लोगों को गुड़ की भेली और पानी ही मिलता था। शहर की ठंडाई भी ख़ूब मशहूर थी और गर्मियों में उसके सूखे मिश्रण को काफ़ी मिकदार में लाया जाता था। इस मिश्रण में मुख्य रूप से सौंफ, खरबूजे के बीज, गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ और बादाम होते थे। बनाने के लिए इस मिश्रण को पानी के छींटे देकर सिलबट्टे पर देर तक पीसा जाता था और फिर पानी मिले दूध में चीनी मिला दिया जाता था। गर्मियों में धूप ढलने पर घर के सभी लोगों का यह नियमित पेय होता था। लेकिन असली ठंडाई कुछ और तरीके से बनती थी (शायद अब भी बनती होगी) इस ठंडाई में पीसने से पहले भाँग की भिगोई हुई पत्तियाँ भी मिला दी जाती थीं और उसे तब तक पीसा जाता था जब तक बट्टे के साथ चिपक कर सिल भी ऊपर उठ आए। फिर इस मिश्रण को गाढ़े मलाई मिले ठंडे दूध में घोल दिया जाता था। यह हरियाली बूटी तभी अपना असली रंग लाती थी। पर चूँकि उसके घर में कोई तब भाँग का शौक़ीन नहीं था और लोग उसमें दूध मिलाया जाना पसंद करते थे इसलिए उसे केवल पानी मिला कर पिया जाता था।

    स्टेशन से उसके गाँव की दूरी दस मील थी जिसे वह घर से भेजे गए ताँगे या पुरानी फ़ोर्ड से तय करता था। स्टेशन से निकलने के बाद उस कस्बे को लगभग पूरा पार करना पड़ता था। सबसे पहले पिता के पुराने मित्र हरिहर बाबू का गार्डेन हाउस ‘श्री निवास’ पड़ता था। जहाँ वे या उनके परिवार वाले रात-बिरात रुक भी जाया करते थे। फिर एक तालाब के किनारे बने मंदिर के सामने से मुड़ कर कस्बे का मुख्य बाज़ार आता, जहाँ फलों और मिठाइयों की कुछ दुकानें, पोस्ट ऑफ़िस, एक दवाख़ाना और सरकारी अस्पताल था। उसके बाद एक लंबा वीरान सा रास्ता, जिसके दोनों ओर खेत और आम के बाग़ीचे थे। काफ़ी दूर जाने पर ‘खलवा इनार’ आता जिसके पास से दिन ढलने के बाद यात्री गुज़रने से डरते थे क्योंकि वहाँ वे अक्सर पास के खूँखार ग्रामवासियों द्वारा लूट लिए जाते थे।

    खलवा इनार (खलवा कुआँ) तक पहुँचने के बाद वह राहत की साँस लेता था क्योंकि उसके दो मील बाद कोरान सरइयाँ और डेढ़ मील बाद उसका गाँव। खलवा इनार के आसपास दूर-दूर तक बंजर पथरीली ज़मीन थी। कोई पेड़ पौधा नहीं था या शायद दो चार बबूल के कंटीले पेड़ थे। वहाँ हमेशा एक पथरीली ख़ामोशी पसरी रहती थी। खलवा इनार सड़क से काफ़ी नीचे की ज़मीन पर था। वहाँ की बोली में खाल यानी खलवा नीचे की ज़मीन को कहा जाता था। जैसे वहाँ के मुहावरे में ऊँच-खाल, ऊबड़-खाबड़ के लिए इस्तेमाल किया जाता था। अगर वह अपर इंडिया एक्सप्रेस से उतरता तो खलवा इनार तक पहुँचते-पहुँचते अँधेरा घिर आता था और वह जगह डरावनी लगने लगती थी। निश्चित रूप से बदमाशों के लिए वह आदर्श जगह थी।

    कोरान सरइयाँ मुगलों के ज़माने की कोई सराय रही होगी। यात्रियों के लिए वहाँ रुकना अनिवार्य सा हो जाता था। वह मूलतः एक चौराहा था जिससे आसपास की कई प्रमुख जगहों की ओर जाया जा सकता था। इसी कारण वहाँ छोटा-मोटा बाज़ार सा बन गया था। एक सड़क सीधे लगभग 15 मील जाकर ‘ग्रैंड ट्रंक रोड’ से मिल जाती थी जो नेशनल हाइवे था। पर चारों दिशाओं में जाने वाली ये सड़कें बेहद खस्ताहाल थीं। बीच-बीच में ट्रक आकर उन पर रोड़े डाल जाते थे। उन्हें कुछ दूर तक बिछा भी दिया जाता था। पर उनमें सीमेंट, बालू आदि मिला कर किसी स्टीम रोलर से हमवार नहीं किया जाता था। नतीजतन उन पर चलना या गाड़ी चलाना और भी दुश्वार हो जाता था। कुछ दूर बाद रोड़ों को सड़क पर बिछाने की ज़हमत भी नहीं उठाई जाती थी और उनके ढूह सड़क के अगल बगल यूँ ही पड़े रहते थे। बारिश होती तो सड़क मिट्टी और उन रोड़ों से मिल कर पथरीले कीचड़ का दलदल सी बन जाती थी जिसे भारी बोझों से लदी हुई बैलगाड़ियाँ चल कर गीली नालियों में तब्दील कर देती थीं। तब इक्के ताँगे या जीपें सड़क की बजाए बगल की ख़ाली ज़मीन पर से ही गुज़रना पसंद करती थीं। उसके जैसे शहरी युवकों के लिए यह काफ़ी कष्टप्रद स्थिति होती थी और गाँव तक पहुँचने के बाद कई दिनों तक कमर और पीठ दर्द से दुहरी होती रहती थी।

    कोरान सरइयाँ पहुँचने के बाद अपने गाँव पहुँचने के दो विकल्प होते थे, या तो नहर वाली सड़क पकड़ी जाए जो गाँव की सीमा तक पहुँचा देती थी या उसी सड़क पर सीधे वासुदेव गाँव तक चला जाए और वहाँ से मुड़ कर एक मील बाद अपने गाँव के पीछे से प्रवेश किया जाए। यह सड़क बिल्कुल कच्ची थी और बरसात में पानी से लबालब भर जाती थी जिससे पानी में डूबे गड्ढों का पता नहीं चलता था और ताँगे के पहिए अक्सर उनमें गिर कर फँस जाते थे जिन्हें निकालना कर्ण के कीचड़ में धँसे रथ के पहियों को निकालने से कम कठिन नहीं होता था। तब वह ताँगे को वहीं छोड़ कर पैदल ही गाँव चला जाता था और वहाँ से किसी को भेज देता था जो ताँगे वाले के साथ मिल कर ताँगे को किसी तरह ठेलठाल कर घर ले आता था।

    अतः वह ज़्यादातर नहर वाली सड़क ही चुनता था। यद्यपि वह सड़क केवल नहर का इंस्पेक्शन करने वाले सरकारी मुलाज़िमों के लिए ही बनी थी पर आसपास के ज़मींदारों के वाहनों को उस पर चलने की छूट थी। फिर भी सड़क को मोटी लोहे की जंज़ीर डाल कर ताले से बंद रखा जाता था। ताले की चाभी पास ही रहने वाले नहर के ओवरसियर के पास होती थी। ख़बर दिए जाने पर नहर का कोई कर्मचारी चाभी लाकर ताला खोल देता था। अगर ओवरसियर साहब अपने बँगले पर होते तो चाय के लिए रुक जाने को कहते। परंतु यात्रा की थकान से चूर वे लोग शायद ही कभी उनका आमंत्रण स्वीकार कर पाते थे। कुछ दूर चलने के बाद सड़क दो नहरों के बीच से गुज़रती। इस पर ताँगा तो नहीं, पर अगर कार हुई तो उसे बेहद सावधानी से चलाना पड़ता क्योंकि यदि सड़क पर कीचड़ हुआ तो इतनी फिसलन भरी हो जाती थी कि स्टेयरिंग द्वारा पहियों पर नियंत्रण रख पाना मुश्किल हो जाता था। वे दाएँ-बाएँ किसी तरफ़ मनमाने ढंग से घूम सकते थे। एक बार तो कार फिसल कर नदी में गिर ही पड़ी थी। पर गनीमत थी कि उसमें पानी था, पर पानी इतना ज़्यादा नहीं था कि कार उसमें डूब जाए इसके अलावा कार फिसल कर सीधे नहर में उतर गई थी और वह उलटी नहीं थी। उसमें बैठे लोग सही सलामत बाहर निकल आए थे।

    आगे चल कर सड़क ‘भट्ठा के पुल’ से मुड़ कर उसके गाँव की ओर चली जाती थी। उसे भट्ठा का पुल इसलिए कहा जाता था कि वहाँ आस-पास ईंटों के भट्ठे लगाए जाते थे। पर यह तब हुआ होगा जब गाँव में कुछ लोग पक्के मकान बनाने लगे होंगे।

    कुछ ही आगे जाने के बाद गाँव की सरहद पर बने घर दिखने लगते थे और वह अचानक ख़ुश हो जाता था। फिर ‘पंचमोरिया’ का छोटा सा बाँध आता जो पाँच नालों से पानी उगलता हुआ नहर को दो हिस्सों में बाँट देता था। इसके बाद मिठइया पुल आता जिससे मुड़ कर वह अपने गाँव में प्रवेश करता। मिठइया पुल पर गुड़ से बनी हुई मिठाइयाँ, बताशे, अमरूद, बेर और जामुन आदि बेचने वाले बैठे रहते थे। वे मुख्यतः उन छात्रों का इंतिज़ार करते जो गाँव के स्कूल में पढ़ने के लिए आस-पास के छोटे गाँवों से आते थे। पर पुल से मुड़ने के बाद एक दूसरी मुसीबत सामने जाती थी। सड़क का वह हिस्सा उस पर बनी पुलिया के बावजूद अक्सर पानी में डूबा रहता था क्योंकि उसके दोनों ओर जलकुंभियों से भरी तलैया थी और उसका पानी प्रायः सड़क तक बह आता था। आसमान से गिरे तो खजूर पर अटके! वाहन वहाँ भी अक्सर फँस जाते थे।

    इसके बाद भी विघ्न बाधाओं का अंत नहीं था। गाँव में घुसने के बाद सबसे पहले कायस्थों का मुहल्ला पड़ता था। वे अपेक्षाकृत साफ़-सुथरे घर और साफ़-सुथरे कपड़ों वाले लोग थे। लेकिन वह अपने आपको बंद रखने वाले लोगों का मुहल्ला था। गाँव के बाक़ी लोगों से उनका लेना-देना कम ही होता था। गाँव के बाक़ी लोग भी उन्हें कुछ ईर्ष्या और हिकारत से देखते थे क्योंकि वे नियमित रूप से गोश्त खाते और शराब पीते थे। कायस्थ टोली के बाद तुरहा टोली आती थी जो मुसीबतों का आख़िरी मुक़ाम सड़क को थी उससे गुज़र कर चौगान तक जाने के लिए ऊपर से चढ़ना पड़ता था। पर वहाँ वह तंग हो जाती थी और दोनों तरफ़ बने घरों से निकलने वाले कूड़े कचरे से बज-बजाती रहती थी। उस कूड़े कचरे में जूठन, कच्ची सब्जियों के छिलके, मासिक धर्म के लत्तों से लेकर मल मूत्र आदि सब कुछ होता था। वहाँ गुज़रते हुए दुर्गंध से नाक फटती थी। उसके बाद गाँव के एक प्रमुख ज़मींदार ‘चनचूर बाबू’ (चंद्रचूड़ बाबू) के नये और पुराने घर को जोड़ते हुए पुलनुमा गलियारे के नीचे से गुज़रना पड़ता था। सड़क के दोनों तरफ़ उनके विशाल घर के शौचालयों की बाल्टियाँ आगंतुकों का स्वागत करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहती थीं।

    अपने गाँव में प्रवेश करने के लिए उसे हमेशा इन नारकीय दुश्वारियों से गुज़रना पड़ता।

    और अंत में आता वह खुला चौगान या चौक जहाँ गाँव के तीनों ज़मींदारों की हवेलियाँ थीं। उसका घर सबसे अंत में काफ़ी ऊँचाई पर था। वहाँ तक पहुँचने के लिए वाहनों को काफ़ी मशक्कत करनी पड़ती थी। मोटर गाड़ियाँ फ़र्स्ट गियर में गुर्राती हुई धुआँ फेंकने लगती थीं। उनकी गुर्राहट या घोड़ों के टापों की आवाज़ सुन कर कोई दौड़ता हुआ आता और बड़ी बड़ी बर्छियाँ लगे हुए उस विशाल द्वार को खोल कर एक ओर खड़ा हो जाता। अहाते में घुसते ही वह अपने आपको सुरक्षित और तनावमुक्त महसूस करता। ख़ासतौर पर सर्दियों की छुट्टियाँ उसके लिए घर को सुखद ऊष्मा तथा पुरसुकून परिवेश में बदल देतीं। हॉस्टल के ठिठुरते कमरों और ठंडे क्लासरूमों से निजात पाकर वह घर के बाहरी हिस्से वाली (उसे मर्दों वाला हिस्सा कहा जा सकता था क्योंकि बीच के छोटे से मैदान के पार बना घर का हिस्सा जनानाख़ाना था) छत पर बैठ कर जब वह सुबह की गुनगुनी धूप में चाय पीता या नाश्ता करता तो उसे हॉस्टल की कैंटीन की कसैली चाय याद आती जो वह धुएँ से भरे हुए कमरे में लकड़ी की कुर्सी पर बैठ कर पीता था। काफ़ी ऊँचाई पर बनी वह छत आसपास के बाक़ी घरों से दूर थी। वहाँ बैठ कर उसे महसूस होता कि वह किसी स्टीमर या जहाज़ के डेक पर बैठा है। जब हवा ज़्यादा तेज़ हो जाती तो वह कुर्सियाँ उठवा कर बरामदे के उस हिस्से में डलवा लेता जिसके नीचे आरामदेह धूप पहले से ही पसरी होती थी। तभी अख़बार जाता और वह स्टूल पर पाँव फैला कर काफ़ी देर तक गुनगुनी धूप का मज़ा लेता हुआ अख़बार पढ़ता रहता। फिर नहाने का पानी गर्म हो जाता और वह अलसाया सा बाथरूम में घुस जाता। वहाँ भी झिर्रियों से धूप आती थी।

    अँधेरा घिरते ही अंदर के बने कमरे में दहकते हुए सुर्ख कोयले वाली नक्काशीदार लोहे की अँगीठी रख दी जाती थी। वहाँ उसके भाइयों के अलावा गाँव के कुछ पढ़े लिखे सफ़ेदपोश लोग भी जाते थे। वे आग तापने और रेडियो सुनने आते थे (टी.वी. तब नहीं था और बहुत दिनों तक गाँव में रेडियो भी शायद उसी के घर था)। रेडियो उसके यहाँ दूसरे महायुद्ध के दौरान सन्‌ 40 के आस-पास ख़रीदा गया था। वह हॉलैंड में बना फ़िलिप्स रेडियो था और कार में लगायी जाने वाली एक्साईड बैट्री से संचालित होता था। रेडियो में लगातार लोमहर्षक और ख़ौफनाक ख़बरें आती थीं। पूरे यूरोप में हिलटर कहर बरपा रहा था जर्मनी में यहूदियों पर किए जाने वाले दानवीय अत्याचारों के अलावा वह पोलैंड, चेकोस्लाविया, हंगरी और फ़्रांस के साथ जो कुछ कर रहा था उसकी ख़बरें दिल दहलाने वाली थीं। लगातार बमबारी के बीच ध्वस्त होते इंग्लैंड से चर्चिल की धीरज भरी आवाज़ सुनाई पड़ती और अख़बारों में उसकी दो विजेता मुद्रा वाली उँगलियाँ छपती थीं? इसके कुछ ही दिनों बाद रेडियो पर जापान की ख़बरें आने लगीं। जिसमें हवाई जहाज़ बम बरसाते हुए बर्मा से हिंदुस्तान की ओर बढ़ रहे थे और कलकत्ते पर बम गिराए जाने की अफ़वाहें आने लगी थीं। इसके बाद आज़ाद हिंद फ़ौज के गठन की ख़बरें और किसी अनजान जगह से आज़ाद रेडियो पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जोशीले भाषण भी कभी-कभार सुनाई पड़ जाते थे।...रेडियो बाहर की बड़ी छत पर रख दिया जाता था और गाँव के तमाम लोग छत पर जमा होकर रेडियो सुनते थे। यद्यपि भारत के लोग भी लड़ाई में शामिल होकर दूरदराज़ के मोर्चों पर चले गए थे और वे अंग्रेज़ों की ओर से लड़ रहे थे पर भारत में अंग्रेज़ों से नफ़रत और गोरों से ख़ौफ बढ़ता जा रहा था। सन्‌ 42 में तो मार्शल ला के दौरान गोरे सैनिकों ने तबाही का जो मंज़र दिखलाया उसकी तुलना कुछ लोगों की राय में 1857 के गदर के बाद की तबाही से की जा सकती थी। उसके गाँव के लोग डरे हुए चूज़ों की तरह अपने-अपने दरबों में दुबके रहते थे। हर पल नई अफ़वाह आती कि गोरे यहाँ पहुँच गए हैं। वहाँ पहुँच गए हैं, उन्होंने कितने घर लूटे, कितनों को मारा।...उसके बाद उसके गाँव में भी धड़ाधड़ गिरफ़्तारियाँ होने लगीं। उसके पिता चूँकि 1920 और 30 के दौरान कई बार कांग्रेसी होने के कारण जेल जा चुके थे इसीलिए उनके बड़े भाई यानी बड़े बाबू जी ने उन्हें अंडरग्राउंड हो जाने पर मजबूर कर दिया और घर के चारों ओर दीवारों पर गेरू से बड़े-बड़े अक्षरों में वी यानी विक्टरी लिखवा दिया था जो उन दिनों अंग्रेज़ी राज के प्रति वफ़ादारी का प्रतीक माना जाता था।

    सन्‌ 42 में ही उसकी बड़ी बहन और बड़े भाई की शादी हुई। स्थानीय अंग्रेज़ी हुकूमत उन पर मेहरबान हो गई थी। बड़े बाबू जी अव्वल दर्जे के कूटनीतिज्ञ भी थे। सन्‌ 42 में अंग्रेज़ों ने बड़े पैमाने पर आंदोलनकारियों की गिरफ़्तारियाँ शुरू कर दी थीं। देश के शीर्षस्थ नेता तो पहले ही गिरफ़्तार कर लिए गए थे और पूरा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ विश्रृंखल होकर नेतृत्वविहीन लगने लगा था किंतु उभरते युवा नेताओं की एक पीढ़ी ने सहसा नेतृत्व की कमान सँभाल ली थी और वे सचमुच करो या मरो की नीति का अनुसरण कर रहे थे। ये लोग सन्‌ 1857 के विद्रोहियों की तरह कमअक्ल, जाहिल और लुटेरे नहीं थे। ये सिपाही भी नहीं थे। ये स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के पढ़े लिखे छात्र तथा अध्यापक थे जिनमें जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव और राम मनोहर लोहिया जैसे बौद्धिक तथा विचारक लोग भी थे। सन्‌ 42 का आंदोलन निर्णायक आंदोलन था और महायुद्ध से जर्जर ब्रिटिश राज अपनी आख़िरी साँसें ले रहा था। इसलिए उनके दमनचक्र में जोर नहीं था। वे जानते थे कि भारत छोड़ने का समय गया है। इसलिए उनमें सन्‌ 1857 वाला क्रूर नृशंस प्रतिशोध नहीं था। तब वे भारत में पूरी तरह जम जाने के लिए संघर्ष कर रहे थे पर अब वे अपनी आखिरी घड़ियाँ गिनते हुए दमन की औपचारिकताएँ निभा रहे थे।

    अक्सर आंदोलनकारियों को गिरफ़्तार करने के लिए थानेदार और सिपाही गाँव में आते तो उनका कयाम उसके घर की छत ही होती थी। थानेदार साहब वहाँ कुर्सी पर जम जाते और आसपास के गाँवों के आंदोलनकारियों को पकड़ने के लिए सिपाही दौड़ा दिए जाते थे। थानेदार साहब मज़े से खाते-पीते और अपनी शिथिल स्थूल काया के साथ आरामकुर्सी पर पसर जाते। दरअसल प्रायः होता यह दिखावा। थानेदार साहब कुर्सी पर पसरे होते और उनके सिपाही गाँवों में धरपकड़ का नाटक करते होते तभी उनके घर के अंदरूनी हिस्से में उसके पिता के कुछ पुराने जेल के दिनों के मित्र और कांग्रेसी नेता भी बैठ कर सलाह मशवरा करते होते। घर में उनके खाने पीने की व्यवस्था चलती रहती। अब अदना थानेदार को तो फ़िक्र थी और उसको हिदायत थी कि अपने मेज़बान गाँव के ज़मींदार के घर की तलाशी लेता। इन नेताओं में से अनेक भारत स्वतंत्र होने पर विधायक, सांसद और मंत्री आदि बने।

    युद्ध ख़त्म होने पर जिस तरह महँगाई बेतरह बढ़ गई थी और ज़रूरत की चीज़ें नापैद हो गई थीं उसकी मार उसका गाँव भी झेल रहा था। पर वह परिवर्तन ज़रूरी भी था। गाँव के पढ़े-लिखे लड़के नौकरियों के लिए बाहर जाने लगे थे। अब वे केवल मज़दूर बनने के लिए बाहर नहीं जाते थे। अपनी पढ़ाई के शुरुआती दौर में उसने अपने गाँव को उसी रूप में देखा था। उसका अपना परिवार जहाँ अपेक्षाकृत खुला और गाँव के लोगों तथा उनकी ज़िंदगी के क़रीब था वहीं गाँव के बाक़ी दो ज़मींदारों की ज़िंदगी कुछ गोपनीय तथा अलसायी सी रहती थी। अतः अचरज की बात नहीं थी कि उसका घर ऊँचाई पर स्थित खुली छतों वाला था जहाँ की अधिकांश गतिविधियों को बाहर से देखा जा सकता था, पर बाक़ी दो ज़मींदारों के घरों की केवल खिड़कियाँ नज़र आती थीं और उन पर भी पर्दे पड़े होते थे। उन खिड़कियों से कभी-कभी केवल ग्रामोफ़ोन पर बेगम अख़्तर की ग़ज़लें और ठुमरियों की आवाज़ जाती थी। जबकि उसका घर एक खुला सदाव्रत आश्रम था। उसके यहाँ रात-बिरात कभी भी कोई रुक सकता था। चूँकि उसके बड़े बाबू जी एक नीम-हकीम थे इसलिए अक्सर पौ फटने से पहले या आधी रात को भी गुहार सुनाई देती फाटक खोलो, राजमहल अलखोर को साँप ने काट लिया है या फलाँ महतो की बहू बिच्छू के डंक से छटपटा रही है। कोई उल्टी और दस्त से बेहाल है। बड़े बाबू जी के पास इन सभी मर्ज़ों के इलाज के लिए एक फौरी दवाख़ाना था मसलन साँप और बिच्छू का ज़हर मिटाने के लिए वे एक होमियोपैथिक लैक्सस नाम की दवा रखते थे, भिगो कर सुँघवाया करते थे जिससे ज़्यादातर मरीज़ (अगर ज़हर पूरी तरह असर कर गया हो) अक्सर चंगे हो जाते थे। उल्टी दस्त के लिए वे बताशे में अर्क कपूर की कुछ बूँदें डाल कर खिला दिया करते थे। बड़े बाबू जी के मरने पर बड़े भाई अपनी घोड़ा डाक्टरी की पढ़ाई अधूरी छोड़ कर घर की देखभाल के साथ साथ इन मरीज़ों की देखभाल भी करने लगे थे। बाहरी फाटक के पास वाले कमरे को डिस्पेंसरी में तब्दील कर दिया गया था। वह हकीम ग़ुलाम हुसैन की निगरानी में चलता था। बाक़ी मर्ज़ों के इलाज के अलावा वे तरह-तरह की ताकत वाली यूनानी दवाइयाँ भी तैयार करते थे और गाँव के किशोरों में हस्तमैथुन, स्वप्नदोष आदि ‘बचपन के कुटेवों’ का ख़ौफ़ पैदा कर उनका इलाज भी करते थे। कुछ लोगों का कहना था कि हकीम ग़ुलाम हुसैन के पास अपने गाँव के ही नहीं आस-पास के गाँवों के लोग भी आते थे। उनके पास अनेक युवतियों, विधवाओं, संभ्रांत अधेड़ों आदि के राज़ दफ़न थे। शायद इसीलिए कुँआरी युवतियाँ अवैध गर्भपात के लिए दाइयों के पास जाकर हकीम ग़ुलाम हुसैन के पास आती थीं क्योंकि दाइयाँ उनके रहस्यों को छिपाती कम, फैलाती ज़्यादा थीं। उनके रहस्य रातों रात इस तरह पूरे गाँव में फैल जाते कि उनका जीना मुश्किल हो जाता। लड़की अगर ऊँची जाति और ख़ानदान की हुई तो उसे किसी दूरदराज़ के रिश्तेदार के यहाँ भेज दिया जाता था और वहीं से उसकी शादी-वादी करके पूरा मामला रफ़ा-दफ़ा कर दिया जाता था।

    हकीम ग़ुलाम हुसैन के पास सस्ते खुरदरे काग़ज़ पर अटपटे ढंग से प्रिंट की गई अश्लील किताबों का ज़ख़ीरा था जिसे वे गाँव के स्कूली छात्रों और अविवाहित अधेड़ों को कुछ पैसों की एवज में पढ़ने को दिया करते थे। कह सकते हैं कि उनके यहाँ ऐसे कथा साहित्य का एक अघोषित पुस्तकालय था जिसका पता उसका सदुपयोग करने वाले कुछ गुप्त सदस्यों को ही था।

    आश्चर्यजनक ढंग से उसके गाँव में अविवाहित अधेड़ ब्राह्मणों की संख्या काफ़ी थी। इनमें से तीन तो उसके यहाँ ही पहरेदारी करते थे और तीनों पहलवान थे। इनमें सीताराम दुबे तो उस पूरे अंचल के मशहूर पहलवान माने जाते थे। पंचकौड़ी दुबे ने अब पहलवानी छोड़ दी थी और उसके यहाँ पहरेदारी के अलावा कथावाचन का काम भी करते थे। उन्हें किस्सा गुलबकावली, हातिमताई, सिंदबाद जहाज़ी, बेताल पच्चीसी, कच-देवयानी, सत्यवान सावित्री, सत्य हरिश्चंद्र, भक्त प्रहलाद, दुष्यंत शकुंतला आदि के साथ ही भृगु ऋषि, अष्टावक्र मुनि, दुर्वाषा ऋषि और नारद मुनि आदि की सैकड़ों कहानियाँ कंठाग्र थीं। स्वयं पढ़ने से पहले उसने ये कहानियाँ पंचकौड़ी दुबे से ही सुनी थीं। सेक्सटन ब्लेक, टिंकर और कानन डॉयन आदि की जासूसी कहानियाँ तो उसकी बड़ी माँ उसे पढ़ कर सुनाती थीं जिनके कवर पर चवन्नी छपी होती थी यानी एक किताब एक चवन्नी में आती थी। बाद में वह ख़ुद हॉस्टेल से छुट्टियों में आते हुए ज्ञानवापी, बुलानाला, वाराणसी से ऐसी किताबें उनके लिए ख़रीद कर लाने लगा। तीसरे पहलवान गुप्तेश्वर दुबे थे जो कहने को तो पहलवान थे पर सींकिया थे। उनका शरीर लुआठी की तरह काला कलूटा था और गुस्सा हमेशा उनकी नाक पर रहता था। बात बात में वे मरने मारने पर उतारू हो जाते थे। लोग कहते थे कि लंबी उमर तक अविवाहित रहने के कारण ही वे चिड़चिड़े हो गए थे। कालांतर में सीताराम दुबे और पंचकौड़ी दुबे तो अपेक्षाकृत संपन्न होने के कारण पड़ोस के गाँव दसियाँव से दो विधवाओं को ख़रीद लाए थे (यह अलग बात है कि कुछ ही दिनों में ये चतुर विधवाएँ उनका रुपया पैसा और गहना गुरिया लेकर चंपत हो गई थीं) पर बिचारे गुप्तेश्वर दुबे अंत तक टापते ही रह गए।

    गाँव के अन्य अविवाहित ब्राह्मणों में एक श्रीराम दुबे थे। वे भी पहलवान माने जाते थे पर एक नंबर के लौंडेबाज़ थे। वे गरीब घरों के सुंदर छोकरों को पैसा देकर अपना ‘लौंडा’ बना कर रखते थे। ये छोकरे उनका हमबिस्तर होने के अलावा वह सब करते थे जो नौकर करते हैं यानी बाज़ार से सौदा-सुलफ़ ले आना, खाना पकाना और श्रीराम दुबे की ‘सर्वांग मालिस’ करना। श्रीराम दुबे बोलते बहुत कम थे पर वे जहाँ कहीं बैठते उनकी गिद्धदृष्टि नमकीन लौंडों की तलाश में लगी रहती थी जिन्हें वे चूज़ों की तरह मौका मिलते ही दबोच लेते थे। उन्हें फुसला कर खेत खलिहान में ले जाते थे और बाद में जलेबी इमरती का दोना पकड़ा कर या इकन्नी-दुअन्नी देकर वापस भेज देते थे। उनकी यह छवि गाँव में इतनी स्थापित हो चुकी थी कि गाँव में इसे कोई अन्यथा रूप से नहीं लेता था।

    जाड़ों में उसके घर में शाम को जमने वाली बैठकें अधिक पुर-रौनक़ हो जाती थीं क्योंकि वहाँ आने वाले गाँव के भद्र पुरुष बाहर की ठिठुरती सर्दी से वहीं सबसे अधिक सुकून पाते थे। इसका कारण केवल कमरे के बीचों-बीच दहकती अँगीठी की सुखद आँच ही नहीं थी, गरमागरम चाय के प्यालों और गर्म कुरकुरी पकौड़ियों का स्वाद भी था। कमरा गर्म रहता और वे अँगीठी के चारों ओर कुर्सियों पर जम जाते। कभी जब शहर से बड़े भाई के दोस्त जाते तो वे लोग देर रात तक ब्रिज या शतरंज खेलते थे। रात का खाना वहीं जाता और हाथ धोने के लिए गर्म पानी और तामचीनी के तसले भी।

    बड़े भाई को खाना खिलाने का शौक़ था। जब कोई बाहर से दोस्त या रिश्तेदार जाता तो उन्हें छोटी मोटी दावत करने का बहाना मिल जाता था। आमंत्रित किए जाने वालों की लिस्ट बनाई जाती और उससे शुद्ध हिंदी में एक निमंत्रणपत्र लिखवाया जाता जिस पर कोई नौकर वहाँ जाकर दस्तख़त ले आता। खाने का मेनू कार्ड प्रायः तयशुदा ही होता था। उसके पिता चूँकि शुद्ध शाकाहारी थे इसलिए ज़्यादातर उसी परंपरा का पालन किया जाता। इस पूर्व निर्धारित मेनू कार्ड में पूरियाँ, उड़द की कचौड़ियाँ, पुए, आलू, गोभी, मटर आदि की रसेदार सब्जी और खीर होती थी। सब कुछ गर्मागरम परोसा जाता। उसके घर के बने पुए ख़ासतौर पर मशहूर थे क्योंकि तलने के बाद उनके भीतर हलवानुमा आटे की गुठली नहीं बनती थी। वे गोलगप्पे की तरह फूले और कुरकुरे होते थे। चूँकि घर के डाइनिंग टेबिल पर केवल आठ लोगों के बैठने की व्यवस्था थी इसलिए ऐसे आयोजन बीच के हॉल में या बाहर के बड़े बरामदे में किए जाते थे जिसमें चिकें लगी रहती थीं। इन दावतों में कभी शराब नहीं परोसी जाती थी (दरअसल उसने अपने घर में कभी शराब देखी भी नहीं) वहाँ कहीं सिगरेट होती थी। अगर आगंतुकों में किसी को तलब होती तो वह बाहर जाकर बीड़ी सिगरेट पी आता था। लेकिन चूँकि उनके भाई पान खाने के शौक़ीन थे इसलिए चाँदी के बड़े से पानदान में महीन पत्तों वाले मगही पान की गिलौरियाँ हमेशा मौजूद रहती थीं। साथ में बनारस से लाया गया नफ़ीस ज़ाफ़रानी ज़र्दा। इसके साथ प्रयोग किए जाने वाले चूना, ख़ैर वगैरह घर में ही बड़ी सावधानी और नफ़ासत से तैयार किए जाते थे। सुपारी के महीन कतरे भी इस तरह सरौंतों से काटे जाते थे कि दाँतों या जीभ में कहीं चुभें नहीं।

    बाद में नई पीढ़ी यानी वे तीन भाई जब बड़े होने लगे और सबसे बड़े भाई के ऊपर घर की ज़िम्मेदारी आई तो इस मेनू कार्ड में एक इज़ाफ़ा ज़रूर हुआ। बड़े भाई चूँकि चिड़ियों का शिकार करते थे (जलपाखी, हारिल, तीतर, बटेर आदि) और गोश्त के शौक़ीन थे तो कभी-कभी ख़ास रिश्तेदारों के लिए गोश्त पकने लगा। तब भी मुर्गे का गोश्त कभी घर में नहीं आया। बकरे का गोश्त ही पकता। लेकिन चूँकि गाँव में रोज़ बकरा नहीं कटता था और जिस दिन कटता उस दिन उसके लिए मारामारी हो जाती थी। इसलिए पहले से ही नौकर चाकर जाकर उसे आरक्षित करा आते थे। गोश्त घर के मुख्य रसोईघर में नहीं बनता था उसे बाहर के एक ‘मेक सिफ़्ट’ रसोईघर में एक ख़ास बावर्ची ही पकाता था। चूँकि खाना लकड़ी की चैलियों से ही मिट्टी के चूल्हे पर पकता था इसीलिए अक्सर बकरे का गोश्त पकने में घंटों लग जाते थे और मेहमानों का धैर्य जवाब देने लगता था। शाकाहारी मेहमान खाकर जब दाँत खोदते होते थे तब कहीं जाकर मांसाहारी मेहमान की बारी आती थी। इस दरम्यान वे ब्रिज, शतरंज या कैरम आदि से जी बहलाने की कोशिश करते थे। खाना बिना किसी अपवाद के शुद्ध घी में ही पकता था जिसमें ज़्यादातर घी तो घर की गाय भैसों से ही उपलब्ध हो जाता था पर जब भोजन अधिक मात्रा में पकाना होता तो घी पास के अहीर टोले से ख़रीद कर लाया जाता। जब डालडा का प्रचलन बढ़ने लगा और बाक़ी ज़मींदारों तथा अन्य अपेक्षाकृत संपन्न घरों ने भी डालडा अपनाना शुरू किया तब भी उसके घर के लोग उससे गुरेज़ ही करते रहे। वे कहते कि डालडा से पका खाना खाने से गला जलता है पर जल्दी ही लोगों का गला जलना बंद हो गया और डालडा का इस्तेमाल धड़ल्ले से होने लगा।

    लेकिन कुछ चीज़ें थीं जो सरसों के शुद्ध घानी वाले तेल से ही पकायी जाती थीं। मसलन पकौड़ियाँ तो सरसों के तेल में ही तली जाकर तल्ख़ और कुरकुरी होती थीं। इसके अलावा बैंगन, आलू तथा परवल, करेले आदि के भुरते भी बिना दो चार बूँद सरसों का तेल डाले चटख नहीं लगते थे। पकौड़ियों, भुरतों के अतिरिक्त चने के ताज़ा पत्तों का साग भी सरसों के तेल में ही बनाया जाता था। कुछ और घरेलू खाने के नुस्खे (रेसिपिज़) थे जिनमें सरसों का तेल अनिवार्य होता था। इनमें से एक थी बैंगन आलू की पंचफोरन वाली सूखी सब्जी जिसे मंगरैल, अजवाइन मेथी, हींग और सौंफ़ का फ़ोरन (तड़का) देकर बनाया जाता था। यह ‘फ़ोरन’ सरसों के तेल में ही करकरा कर डाला जाता था। कभी-कभी आम की काली पड़ गई खटाई को सरसों के तेल में तली गई साबुत लाल मिर्च में मसल कर एक ख़ास तरह की चटनी तैयार की जाती थी जिसे घर की औरतें और नौकरानियाँ सब्जी कम पड़ जाने पर दाल भात के साथ खाती थीं। कभी-कभार वह भी इस नायाब नुस्खे का ज़ायका ले लेता था।

    उसका गाँव भी अधिसंख्य बाक़ी गाँवों की तरह टोलों में बँटा हुआ था। कायथ टोली, तुरहा टोली, उपाध्याय टोली, अहीर टोली, मुसहर टोली आदि। जब भी वह गाँव के पीछे वाले रास्ते से आता तो मुसहर टोली सबसे पहले पड़ती थी। मुसहर लोगों के घर कुछ-कुछ एस्कीमों लोगों की तरह औंधे बने होते थे। फ़र्क़ था कि वे बर्फ़ के घर होकर ख़ूब अच्छी तरह लिपे-पुते मिट्टी के घर होते थे। उनमें घुसने के लिए द्वार भी बहुत छोटा और गुफ़ानुमा होता था। अंदर फ़र्श शायद गड़हे की तरह होती थी जिससे ऊपर की गुमंदनुमा छत बहुत नीची नहीं लगती थी। ये मुसहर निश्चित रूप से वहाँ के आदिवासियों के अवशेष रहे होंगे। वे सुडौल देह वाले लंबे छरहरे थे और उनकी त्वचा काली और चमकीली थी। उनके दाँत भी मज़बूत और उजले होते थे। वे मज़दूरी करते थे और उनकी औरतें संपन्न लोगों के खेतों में खेत काटने, बोझा ढोने और ‘ओसौनी’ आदि का काम करती थीं। वे भी बेहद सुंदर और आकर्षक होती थीं। उनकी काली चमकीली त्वचा में अद्भुत कमनीयता थी। खेतों की रखवाली करने वाले ऊँची जाति के पहरेदारों की काक दृष्टि उन पर लगी रहती थी और वे मौक़े-बेमौक़े खेत खलिहानों में ही उन्हें धर दबोचते थे। बदले में उन्हें अंगिया, चोली, टिकुली, आलता या चवन्नी अठन्नी पकड़ा दिया जाता था। जो थोड़ी अड़ियल होतीं और मना करती थीं तो उन पर बोझा चुराने या काम में कोताही करने का आरोप लगा कर उनकी मज़दूरी काट दी जाती थी। यह क्रिया व्यापार पता नहीं कब से चला रहा था। चोरी छिपे कभी-कभी उन्हें रंगीन मिज़ाज ऊँची जाति के छैला बाबुओं के घर भी भेज दिया जाता था जहाँ से वे साफ़-सुथरे कपड़ों में साड़ी जंफर की पोटलियाँ लेकर निकलती थीं। मुसहरों का आहार भी अलग था। वे खेतों में अनाज तलाशने वाले मूसों (चूहों) को मार कर खाते थे। शायद इसीलिए उन्हें ‘मुसहर’ कहा जाता था। मूस का मुलायम मांस गाँव के कुछ किशोरों और युवकों को भी पसंद था और वे मुसहरों से मूसों को अन्नी-दुअन्नी में ख़रीद कर वहीं खेत में आग पर पका लेते थे और हरी मिर्च, नमक तथा सरसों का तेल मिला कर उसे चटनी के साथ चटखारे ले लेकर खाते थे। ये मुसहर लोग पनियल (पानी के) साँपों को भी उनका सिर काट कर भून लेते थे और खाते थे। उन्हें तब तक तो तेल मसाले मुहैय्या होते थे और वे उनके इस्तेमाल के अभ्यस्त हुए थे इसलिए उनका आहार मुख्यतः सीधे आग पर भुना हुआ होता था। तब के मुसहर बहुत सीधे और शांत स्वभाव के होते थे और वे बहुत कम बोलते थे। पर बाद में वे क्रमशः उग्र होने लगे थे।

    गाँव की दख्खिन पट्टी के छोर पर कुछ महापातर (महापात्र) लोग भी रहते थे। माना तो इन्हें भी ब्राह्मण ही जाता था पर ब्राह्मण लोग तो उन्हें हेय दृष्टि से देखते ही थे, गाँव के बाक़ी लोग भी उनसे नफ़रत करते थे। उन्हें आमतौर पर केवल मृतक भोज में आमंत्रित किया जाता था और श्रेष्ठ ब्राह्मणों के भोज में उन्हें सम्मिलित नहीं किया जाता था। वे क्रुद्ध और बंद स्वभाव के लोग थे। मृतक भोज में उन्हें श्राद्ध के बाद सबसे अंत में बुलाया जाता था और भोज के बाद वे ही सबसे अधिक दान दक्षिणा आदि पाने के अधिकारी होते थे। उन्हें रुपए पैसे आदि के अलावा खटिया, रजाई, तकिया, गद्दा तथा पाँच जोड़े वस्त्र भी दिए जाते थे (धोती, कुर्ता, टोपी, अँगरखा और अँगौछा)। इसमें कोई कमी या कोताही होने पर वे बड़ा बवेला मचाते थे और अच्छे-अच्छे लोगों की भद्द कर देते थे। अंत भला तो सब भला, इस ख़्याल से लोग आमतौर पर इनकी सारी माँगें मान लेते थे। जिस तरह किसी बच्चे के जन्म के बाद खोजे लोग (अब जिन्हें किन्नर कहा जाता है) घर वालों और माँ बाप की ऐसी तैसी कर देते हैं वैसे ही ये महापात्र किसी के मरने के बाद शोक संतप्त परिवार वालों की ऐसी-तैसी कर देते थे। लोग कहते थे कि इनके घरों में हर सुबह पसेरी पटकी जाती है कि हे भगवान आज कोई ज़रूर मरे ताकि तेरही पर सुअन्न तो प्राप्त हो ही कपड़े लत्ते और ओढ़ने बिछौने का इंतिज़ाम हो जाए। सारा गाँव इनसे शायद इन्हीं कारणों से नफ़रत करता था। पर अनेक प्रांतों में ये महापात्र शायद बड़े पूज्य ही नहीं माने जाते इनमें अनेक ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर आसीन लोग भी होते हैं।

    ...युवावस्था से ही मधुमेह के मरीज़ बड़े बाबू जी जब अचानक बहुत बीमार पड़ गए तो उन्हें शहर लाया गया। जाँच पड़ताल से पता चला कि उन्हें इलाज के लिए लंबे अरसे तक शहर में रहना पड़ेगा, इसलिए उसके पिता के एक पुराने मित्र का शहर के बाहर गार्डेन हाउस किराए पर ले लिया गया। वह काफ़ी बड़ा बँगलानुमा घर था जो आम के बग़ीचे के बीच में बना था। बड़े बाबू जी के साथ केवल बड़ी माँ, उसके पिता और नौकर-नौकरानियाँ ही नहीं बल्कि ख़ुद उसे हॉस्टल से निकाल कर उस बँगले में रहने के लिए बुला लिया गया। वहाँ से वह बस के द्वारा शहर के दूसरे छोर पर गंगा और वरुणा के संगम पर बने स्कूल में जाने लगा। उसकी बस को बाकायदे पूरा शहर पार करना पड़ता था। उसी दौर में वह उस शहर के सारे प्रमुख मुहल्लों और सड़कों से परिचित हो गया। वह बँगला शहर की जिस सड़क पर था वह एक बहुत वीरान सी सड़क थी जिस पर उन दिनों केवल तीन चार घर थे। उस बँगले के अलावा वहाँ एक खँडहरनुमा घर में पोस्ट ऑफ़िस था। उसके कुछ आगे कर्नल वैद्या का घर था जो एक रिटायर्ड आर्मी के डॉक्टर थे। वहाँ सबसे नया बना घर डॉ. जानकी का था जो एक दक्षिण भारतीय महिला थीं और पास ही विश्वविद्यालय के परिसर में बने अस्पताल में डॉक्टर थीं। उनके पति एक निरीह से दिखने वाले तमिल ब्राह्मण थे। चूँकि स्कूल की बस उनके बँगले के सामने से नहीं गुज़रती थी इसलिए उसे हर सुबह बस पकड़ने के लिए डॉ. जानकी के घर जाना पड़ता था। अक्सर वह जल्दी ही तैयार होकर डॉ. जानकी के घर पहुँच जाता था। तब तक उनका घर बिल्कुल ख़ामोश पड़ा रहता था जैसे सभी सोए हुए हों। केवल डॉ. जानकी के पति गैराज से डॉ. जानकी की कार धोते हुए दिखाई देते ताकि जब वे तैयार होकर अस्पताल जाने के लिए निकलें तो कार को धुली-धुलाई पाएँ। वह बाहर के बरामदे में पड़ी कुर्सियों पर बैठ कर शेखर की प्रतीक्षा करता जो अक्सर देर से बाहर आता। कभी-कभार कोई नौकर या नौकरानी तश्तरी में केला, कोई मिठाई और नमकीन उसे दे जाती। शेखर एक चुप्पा लड़का था जो उससे हैलो के अलावा कुछ नहीं बोलता था। वे चुपचाप बस में अलग अलग बैठ जाते और वैसे ही स्कूल से वापस आते। शेखर से कभी उसकी दोस्ती नहीं हो पायी, हाँ एक बार एक सुंदर लाल चित्तीदार ताजे अमरूद को लेकर झगड़ा जरूर हुआ था। स्कूल में जिस खटीक से बच्चे रिसेस में अमरूद ख़रीदते थे उसी की टोकरी पर झुके हुए शेखर ने वह अमरूद उठा लिया जिसे वह लड़कों की भीड़ में धक्का मुक्की करते हुए कब से उठाने का इंतिज़ार कर रहा था। वह बेहद भूखा था। जैसे ही शेखर ने वह अमरूद उठाया उसने पता नहीं क्यों और कैसे उसे धक्का देते हुए अमरूद छीन लिया। शेखर ज़मीन पर गिर गया और उठ कर गुर्राता हुआ क्लासरूम की ओर बढ़ गया। बहुत बाद के दिनों में उसे एहसास हुआ कि ऐसा उसने शायद शेखर की स्नाबिश चुप्पी और उससे एक दूरी रखने वाली प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया में किया था।...उसने शेखर के घर जाना छोड़ दिया और जब तक वहाँ रहा बस को आगे के मोड़ से पकड़ने लगा। बहुत बाद में एक दिन सिनेमा के लिए टिकट ख़रीदते हुए उसने देखा कि शेखर उसके आगे खड़ा है। वे दोनों उसी विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे- अलग-अलग संकायों में। शेखर से वर्षों बाद उस दिन भी हैलो-हॉय के अलावा कोई बात नहीं हो सकी।

    शहर के सभी अस्पतालों में और सभी प्रमुख चिकित्सकों द्वारा इलाज के बावजूद बड़े बाबू जी की तबीयत में कोई सुधार नहीं हो रहा था। वे बीच के बड़े कमरे में पलँग पर चित पड़े हल्के-हल्के कराहते रहते पर उस असाध्य बीमारी में भी उनका गुस्सा बरकरार था और वे अचानक किसी पर भी बिगड़ जाते। प्रायः उनकी झड़प उसके पिता से भी हो जाती थी। एक बार उसके पिता इतने दुखी हो गए कि उन्होंने निर्णय किया कि वे उसके और उसकी माँ के साथ वापस गाँव चले जाएँगे।

    उसके गाँव से लौटने से कुछ रोज़ पहले अचानक लगा कि बड़े बाबू जी कुछ स्वस्थ हो रहे हैं। उन्होंने एक सुबह उसे बुलाया और रिक्शे पर एक नौकर के साथ बैठ कर पास ही बहती गंगा के उस शांत कछार पर गए जहाँ दूर तक रेत ही रेत थी। वहाँ गंगा की ओर खड़े होकर उन्होंने कहा कि तुम लोग गाँव वापस जा रहे हो जाओ। मैं भी जल्दी ही आऊँगा। वे कभी गाँव नहीं लौटे। उनकी मृत्यु से कुछ रोज़ पहले वह पिता के साथ फिर वापस शहर गया था। तब वे आखिरी साँसें ले रहे थे। कई बार लगा कि वे गए पर वे हर बार वापस लौट आते थे। एक दिन सुबह उठने पर उसने सुना कि वे जा चुके हैं। उसके पिता सामने के मैदान में अर्थी तैयार करा रहे थे। तभी कार से बड़ी माँ के बड़े भाई (यानी बड़े बाबू जी के साले) उतरे (बड़े बाबू जी ने पिछले तीस वर्षों से उनसे कोई संबंध नहीं रखा था) और उन्होंने उसके पिता से पूछा, ‘कैसे हैं?’ पिता ने मुड़ कर अर्थी की ओर इशारा कर दिया। वे मुड़ कर कार में बैठे और वापस चले गए।

    बड़े बाबू जी की मृत्यु के बाद भी वे लोग कुछ दिन और उस बँगले में रहे क्योंकि उसके और उसके बड़े भाई दोनों के इम्तिहान चल रहे थे। अचानक वह मनहूस बँगला और मनहूस लगने लगा। बँगले के पीछे खुला मैदान था और उसके बाद गंगा का कछार। शाम होते ही सामने की सड़क बिलकुल सूनी हो जाती थी। कभी-कभार उसकी ऊबड़खाबड़ सड़क पर कोई रिक्शा खड़खड़ाता हुआ गुज़र जाता। वहाँ कोई स्ट्रीट लाईट नहीं थी। काफ़ी आगे चौराहे पर कुछ रोशनियाँ टिमटिमाती हुई नज़र आतीं। वही दौर था जब उसने सिनेमा देखना शुरू किया था। इम्तिहान ख़त्म होते ही बड़े भाई उसके साथ कोई फिल्म देखने जाते, शायद तभी उसने के.एल. सहगल वाली तानसेन, शकुंतला और रतन जैसी फ़िल्में देखी थीं। ‘रतन’ फ़िल्म के गानों ने उसे संगीत के प्रति इस क़दर अनुरक्त बना दिया कि ‘आब्सेशन’ की हद तक पैदा हुई उस अनुरक्ति से वह आज भी मुक्त नहीं हो सका है। कभी-कभी भरी दोपहरी में जब रेतीली तेज़ गर्म हवाएँ चलती होतीं और घरवाले खा पीकर अलसाए से पड़े होते वह भाग कर गंगा के किनारे चला जाता और वहाँ नंगे बदन केवल जाँघिया में गंगा के गुनगुने पानी में देर तक किसी घड़ियाल या सूईंस की तरह पड़ा रहता। ऊपर धूल भरा तपता आसमान आग उगलता रहता। वहाँ गंगा का पानी काफ़ी छिछला था और वह हर वक़्त स्थिर रहता। कभी उसे घर से चवन्नी या अठन्नी मिल जाती तो भाग कर चौराहे पर लस्सी वाले की दुकान पर पहुँच जाता जो चार आने में लस्सी का भरा हुआ ग्लास पकड़ा देता जिसमें बर्फ़ के टुकड़े तैरते रहते और उसमें ग़ुलाबजल की ख़ुशबू बसी होती।

    पर जल्दी ही वे लोग वापस अपने गाँव गए।

    बड़े बाबू जी जब तक जीवित थे तो वे प्रति सप्ताह प्रभातफेरी ज़रूर करवाते थे। प्रभातफेरी करने वाले ज़्यादातर वे किशोर होते थे जो उन्हीं के द्वारा खोले गए मिडिल और हाईस्कूल में पढ़ते थे। उनके साथ कुछ अध्यापक और गाँव के कुछ उत्साही समाज सुधारक होते थे। वे पूरे गाँव में ‘उठ जाग मुसाफ़िर भोर भयो, अब रैन कहाँ जो सोवत है’ गाते हुए लोगों को जगाते थे और उन्हें भी अपने सफ़ाई अभियान में शामिल कर गाँव के किसी एक हिस्से में जमा कूड़े-कचरे को साफ़ करते थे।

    बड़े बाबू जी पक्के आर्यसमाजी थे और प्रत्येक इतवार को घर की छत पर हवन कराते थे। इसमें भी गाँव के वही कुछ युवा और उत्साही समाज सुधारक ही शामिल होते थे। हवन के बाद ‘भक्ति दर्पण’ के कुछ भजनों का सस्वर पाठ होता था और अंत में शुद्ध घी में बना हुआ हलवा वितरित किया जाता था। लेकिन जब कभी घूमता हुआ कोई आर्यसमाजी भजनिक जाता तो हारमोनियम पर गाए उसके कर्कश स्वरों वाले भजनों को बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता। बीच-बीच में रुक कर वह चीखता हुआ उपदेश देने लगता तो वह और भी ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त हो जाता। तभी से उसे उपदेशों, भजनों और हारमोनियम से नफ़रत हो गई।

    बड़े बाबू जी शिक्षा के प्रसार तथा समाज सुधार आदि कार्यों के अलावा अपने अपरिमित क्रोध के लिए भी विख्यात थे। ज़मींदार होने के कारण प्रजा को सज़ा देने का वैधानिक अधिकार तो उन्हें था ही पर वे अक्सर बिना किसी क़सूर के ही अपने क्रोध के शिकार व्यक्ति को पकड़ कर मँगा लेते थे और फिर उसकी जम कर धुनाई करवाते थे। घर के नौकर-चाकर तो उनसे थर थर काँपते थे। यदि एक आवाज़ पर कोई नहीं आता तो फिर उसकी शामत जाती थी। किंतु अजीब बात थी कि जब बहुत दिनों तक वे किसी की पिटाई नहीं करते थे तो वे लोग उदास और दुखी हो जाते थे और पिटने के नए उपाय तथा तरीके ढूँढ़ने लगते थे। इसका कारण यह था कि किसी को पिटाई करने के बाद बड़े बाबू जी अवसादग्रस्त हो जाते थे। उन्हें लगता कि उनके सुधार संबंधी कार्य, हवन, भजन, शास्त्रों का अध्ययन आदि सब व्यर्थ है। उन्हें जीवन निरर्थक लगने लगता था तब या तो कुछ दिनों के लिए ऋषिकेश, हरिद्वार आदि चले जाते थे या अपने आक्रोश के शिकार को बुला कर बुदबुदाते हुए उसे दो चार रुपए दे देते थे और यह कह कर भगा देते थे कि आइंदा वह ऐसी हरकत करे। वे किस हरकत के लिए मना कर रहे हैं यह तो उन्हें पता होता था और पिटने वाले को। पर वह कान पकड़ता और ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर दौड़ जाता था। अक्सर ऐसे व्यक्ति के यहाँ उस दिन मिठाई आती, गोश्त, मछली पकती या देशी ठेके से वह पौवा पीकर लड़खड़ाते हुए बड़े बाबू जी के गुण गाता हुआ घर आता।

    बड़े बाबू जी के रहने पर यह सुख-दुख उनसे हमेशा के लिए छिन गया था।

    पर बड़े बाबू जी के मरने से गाँव के दूसरे ज़मींदारों को ख़ुशी ही हुई होगी क्योंकि उनके रहते उन लोगों की तो कोई पूछ होती और वे किसी पर हावी हो पाते थे। यदि कोई पीड़ित व्यक्ति दबी ज़बान से कह देता कि तब ठीक है अब बड़े बाबू साहब ही कुछ करेंगे तो उनकी सिट्टी-पिट्टी ग़ुम हो जाती थी और वे बगले झाँकने लगते थे। पर अब बड़े बाबू जी के रहने पर वे लोग ‘परम स्वतंत्र सिर पर कोऊ’ हो गए थे। सचमुच गाँव में निरंकुशता तथा स्वेच्छाचारिता का दौर तभी शुरू हुआ था।

    मरने के बाद बड़े बाबू जी का दाह संस्कार और श्राद्ध आदि आर्यसमाजी विधि विधान से ही हुआ— यही उनका आदेश था। लेकिन गाँव के पुराणपंथी उससे बेहद कुपित हुए। उन्होंने पूरे आयोजन का ही बहिष्कार करने का निर्णय किया। मगर यह बहिष्कार गाँव के तुंदियल पेटू ब्राह्मणों को महँगा पड़ा, शुद्ध घी में बनी हुई हाथी चुकान पूड़ियाँ, कटहल दम, आलू, गोभी की रसेदार सब्जी, कोहड़े की खटमिठ्ठी तरकारी, बूँदी का रायता, ख़ूब मोटी मलाई जमी सगाव दही और चीनी तथा अंत में सवा सवा रुपए की दक्षिणा ! इस भोज के बारे में चटखारे ले लेकर बखान करने वाले लोगों से सुन कर उनके कलेजे पर साँप लोट गए।

    इन्हीं दिनों पं. जय गोविंद तिवारी का उनके घर में प्रवेश हुआ था। पं. जय गोविंद तिवारी विशालकाय व्यक्ति थे। उनका चेहरा और तोंद स्वामी दयानंद सरस्वती की याद दिलाते थे। उन्हें संस्कृत बिलकुल नहीं आती थी और अवसर विशेष पर पढ़े जाने वाले मंत्र भी उन्हें कम ही याद रहते थे। विवाह, यज्ञोपवीत, श्राद्ध आदि अवसरों पर पूजा कराते हुए जब वे बीच में ही कुछ भूल जाते थे तो ज़ोर-ज़ोर से शंख बजाने लगते थे। उनकी माँ उन्हें भोंपू पंडित कहती थी। ऐसे ही जय गोविंद तिवारी को परंपरागत पंडितों द्वारा बहिष्कार किए जाने पर उसके घर का पुरोहित बनाया गया। यह पुरोहिती नियमित आमदनी का एकमात्र स्रोत भी थी। पुरोहित हर तीसरे चौथे दिन आकर घोषणा करता कि आज गणेश चतुर्थी या चतुदर्शी है। कार्तिक या शरद पूर्णिमा है। अक्षय नवमी आदि है। इन अवसरों पर तथाकथित पूजा पाठ के बाद पान फूल, अक्षत, चंदन, नारियल आदि ही नहीं हल्दी रँगी धोती, अँगौछा के साथ ही सवा रुपए की दक्षिणा भी उन्हें प्राप्त हो जाती थी। इसके अलावा त्योहार थोड़ा बड़ा हुआ तो उस दिन वे जजमान के यहाँ जीमते भी थे। पंडित परंपरा के अनुसार ब्राह्मण जजमान के यहाँ पका हुआ ‘कच्चा खाना’ (यानी चावल, दाल, रोटी आदि) नहीं खाते थे। उस दिन उनके लिए घर का ब्राह्मण रसोइया शुद्ध घी में पूरी, कचौड़ी, दही बड़ा और मसालेदार सब्जियाँ आदि पकाता था। हाँ, जाते हुए परिवार के लिए ‘छाना’ के रूप में वे कच्चा चावल, दाल, हल्दी की गाँठ और पकाने के लिए घी आदि भी नए अँगौछा में बाँध कर ले जाते थे।

    पं. जय गोविंद तिवारी बड़े हँसोड़ आदमी थे और बात-बात पर (कभी-कभी बिना बात के भी) छत उड़ाने वाले ठहाके लगाया करते थे। उनके पास अपने से संबंधित चुटकुलों का जखीरा था। वे निर्द्वंद्व भाव से बिना किसी पाखंड के बताया करते थे कि किस प्रकार वे निरीह ग्रामीणों को मूर्ख बना कर दान दक्षिणा और पकवान आदि प्राप्त करते थे। उनका एक विख्यात किस्सा यह था (जिसे वे जाने कितनी बार सुना चुके थे) कि एक बार पौ फटते ही वे किसी सुदूर के जजमान के यहाँ पूजा पाठ कराने चले गए थे। लौटते-लौटते साँझ हो गई और अपना गाँव अभी भी दूर था। वे थकान से ही नहीं, भूख प्यास से भी व्याकुल हो रहे थे। तभी वे एक खलिहान से गुज़रे और देखा कि हाथ की मशीन से गन्ना पेरा जा रहा है और पास ही विशाल गोल चूल्हे पर बड़े से कड़ाह में गुड़ बन रहा है। दूसरी तरफ़ तरल गर्म गुड़ के बाँस के सूखे पत्तों पर गढ़े में डाल कर गुड़ की चकरी बनायी जा रही है। वे ठिठक गए और विस्मय विमुग्ध दृष्टि से इस ‘दिव्य दृश्य’ को देखने लगे। जब लोगों ने देखा कि एक विशालकाय त्रिमुंडधारी गौर वर्ण ब्राह्मण कौतूहल से यह सब देख रहा है तो उन्होंने पूछा कि महाराज आप कौन हैं और इतने चकित होकर क्या देख रहे हैं? तिवारी जी ने अपनी बुलंद आवाज़ में कहा— मैं द्रविण देश का निवासी ब्राह्मण हूँ और देख रहा हूँ कि काष्ठ दंड से किस प्रकार रस की धारा निःसृत हो रही है और इस गड्ढे में से यह बिलंद-बिलंद क्या निकाला जा रहा है? लोगों ने पूछा कि क्या आपके देश में यह नहीं बनता है और क्या आपके देश में गन्ने नहीं होते? तिवारी जी ने आश्चर्य से पूछा— गन्ना? यह क्या होता है? तब लोगों ने विनम्र भाव से अनुरोध किया कि महाराज स्वयं चख कर देख लीजिए यह क्या होता है? लोगों ने उन्हें दूध मिला कर गन्ने का रस तो पिलाया ही, बाँस के पत्ते पर गाढ़ा गुड़ भी खाने को दिया और साथ ही उनसे रात वहीं बिताने का अनुरोध भी किया। तिवारी जी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर वहीं दूध, दही, घी आदि से बना हुआ सुस्वाद आहार ग्रहण किया और रात को अभी अभी अन्न से पृथक किए गए ताजे पुआल के गर्म मोटे गद्दे पर भेड़ के बालों से बना कंबल ओढ़ कर रात बिताई। सुबह ग्रामवासियों ने उन्हें पर्याप्त अन्न, ताजा गुड़ और गन्ने का एक गट्ठर देकर गाँव के सिवान तक विदा किया। तिवारी जी यह किस्सा कह कर अपनी तोंद पर हाथ फेरते हुए ज़ोरदार ठहाका लगाते थे।

    गाँव में कोई भी आदमी तिवारी जी को या उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेता था और तिवारी जी किसी चीज़ को गंभीरता से नहीं लेते थे, यहाँ तक कि ज़िंदगी को भी नहीं। कुछ दिनों बाद इसी तरह ठहाका लगाते हुए तिवारी जी दिवंगत हो गए।

    कुछ पुराने लोग उसके गाँव को ‘चेरोखरवारों का गाँव’ भी कहते थे। चेरोखरवार एक घुमंतू और लड़ाकू जाति थी जो बहुत पहले घूमते-घामते वहाँ आकर बस गई थी। उन्होंने बक्सर और सासाराम के बीच के कई इलाकों पर अधिकार कर लिया था। उनकी वंश परंपरा कितनी पुरानी थी यह तो पता नहीं किंतु मध्यकाल के इतिहास में उनका ज़िक्र अक्सर मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यकाल के बाद किसी समय मध्य देश के उज्जयिनी और भोजपुर इलाकों से कुछ राजपूत भाग कर यहाँ बस गए थे। उनका इन चेरोखरवारों से कोई बड़ा युद्ध हुआ हो इसका उल्लेख तो कहीं नहीं मिलता किंतु धीरे धीरे यह घुमंतू जाति वहाँ से कहीं और चली गई। उसके गाँव तथा आस-पास के गाँवों के राजपूतों को इसीलिए उज्जैन राजपूत कहा जाने लगा था और उस पूरे इलाके का नाम ‘भोजपुर’ पड़ गया था। वे लंबे, गोरे और ऊँची नासिका वाले लोग थे और अपने को आर्यों के शुद्ध रक्त वाला वंशज मानते थे और बाक़ी राजपूतों को लोह तमिया (लोहे और तांबे का मिश्रण) या बारह आने चौदह आने वाला राजपूत मानते थे यानी उनका रक्त सोलह आने शुद्ध नहीं था।

    चेरोखरवार बहुत सभ्य या सुसंस्कृत रहे हों इसका भी कोई प्रमाण नहीं मिलता गाँव के बीचों बीच उसके घर के पास एक छोटी सी पहाड़ी जरूर है जिसे गाँव के लोग अब भी गढ़ कहते हैं। शायद यहीं उनका कोई गढ़ या ठिकाना रहा होगा लेकिन इस धीरे-धीरे ढहते जाते गढ़ से अभी तक वहाँ कभी किसी किले के होने का सबूत नहीं मिलता। शायद कभी किसी खुदाई से कुछ पता चले पर वह राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग के दायरे में नहीं आता। पहले इस पहाड़ी के ऊपर घना जंगल था पर गाँव के लोग छुप छुप के इसके पेड़ों को काटते रहे और अब यह काफ़ी कुछ गंजा हो चला है। कभी कभी उसे संदेह होता है कि जिस चौड़े ऊँचे टीले पर उनका घर है वह भी कभी इस गढ़ का ही हिस्सा रहा होगा। अब उसके घर और गढ़ के बीच एक छः सात बीघों वाली कच्ची नीची ज़मीन है जिसे उन लोगों ने खेतनुमा बना लिया है और उसमें ख़ूब सब्जियाँ उगती हैं।

    यह गढ़ अब आसपास के घरों में रहने वाली स्त्रियों और बच्चों के लिए ‘सुलभ शौचालय’ बन कर रह गया है। ज़्यादा अँधेरा हो जाने पर चूँकि इस गढ़ की तरफ़ कोई नहीं जाता इसलिए गाँव के कुछ मनचले युवकों ने उसे अपना ‘सहेट स्थान’ (प्रेमियों के मिलने की जगह) भी बना लिया है। वहाँ कभी कभी गर्भपात करा कर फेंके गए भ्रूण शिशुओं के शव भी प्राप्त होते हैं।

    इस गढ़ में जगह-जगह छोटी-छोटी गुफाएँ थीं जिनमें ख़तरनाक जंगली जानवर तो नहीं पर बड़ी तादाद में साहिल ज़रूर रहते थे। चूहों के आकार प्रकार वाला यह जानवर चूहों से काफ़ी बड़ा होता है और उसके पूरे शरीर में रोमों की जगह सूजों के आकार वाले काँटे होते हैं। वैसे तो यह इन काँटों को अपने शरीर से चिपका कर रखता है पर किसी आक्रमण का ख़तरा महसूस होते ही वह इन्हें छतरी की तरह फैला लेता है जिससे लोमड़ी, सियार, कुत्ते और साँप जैसे जंतु, इसके पास नहीं फटकते। लेकिन आमतौर पर यह बहुत संकोची जीव होता है और ज़रा आहट होते ही भाग कर अपनी गुफा में छिप जाता है। इसके ये काँटे अमूमन फँसे रहते हैं। वे काले सफ़ेद और चमकीले होते हैं और लगता है प्लास्टिक से बने हों। स्कूली बच्चे उनकी महीन नोक से निब बाँध कर उन्हें कलम की तरह इस्तेमाल करते थे। गाँव के मुसहर उन्हें खेत के चूहों की तरह ही मिल जाने पर पका कर खा जाते थे। खेत वाले चूहों की तरह ही इनका मांस भी अत्यंत मुलायम और सुस्वाद माना जाता था। चूहों की तरह ही इनके शरीर की हड्डियाँ नाममात्र की होती हैं।

    चेरोखरवारों के लिए कभी जो गाँव दुर्गम शरणस्थली था वही परिवर्तित तथा विकसित होते दौर में वहाँ के लिए अभिशाप बन गया। चूँकि उसके आसपास से कोई राजमार्ग नहीं गुज़रता था इसलिए सरकार के लिए केवल एक गाँव और कुछ डेरा पट्टियों पर सड़क बनवाने का कोई तुक नहीं था। अतः उसके गाँव तक पहुँचने के लिए आज तक कोई अच्छी सड़क नहीं बनी। निकटतम रेलवे स्टेशन आज भी दस मील दूर है। जैसा बताया जा चुका है कि प्राइमरी मिडिल और हाईस्कूल तो उसके पिता ने चौथे दशक में खोल दिए थे पर अस्पताल और पोस्ट ऑफिस आदि खोलना उनके बस की बात नहीं थी, सो आज तक उसका गाँव अस्पताल विहीन है, वहाँ कोई कायदे का एलोपैथिक डॉक्टर नहीं है डिस्पेंसरी है। पोस्ट ऑफ़िस ज़रूर खुल गया है।

    कहने को गाँव में बिजली के खंभे हैं पर अक्सर उनमें तार नहीं होते या तार होते हैं तो उनमें बिजली नहीं होती। गाँव अभी भी मुख्यतः लालटेन युग में ही है। कुछ लोगों के पास जेनरेटर जरूर है पर एक तो जेनरेटरों का इस्तेमाल चौबीसों घंटे नहीं किया जा सकता दूसरे उनसे उत्पन्न होता शोर और धुआँ धक्कड़ गाँव वालों को अपने प्रदूषण से ‘विकास का आभास’ कराता रहता है।

    गाँव में हैंडपंप बहुत लग गए हैं इसलिए गाँव की गलियाँ पहले से भी अधिक कीचड़ से सनी रहने लगी हैं। पहले एक तुरहा टोली थी पर अब प्रायः हर गली तुरहा टोली बन गई हैं। गाँव की आबादी चौगुनी हो गई है (लगभग 20 हजार)। परचून, दवाइयों और मिठाइयों की दुकानें बहुत हैं, अनेक लोगों के पास टेलिविज़न और मोबाइल है। यानी विकास के सारे उपकरण गए हैं। शराबख़ाने बढ़ गए हैं, गाँजे, भाँग के साथ आधुनिक ‘ड्रग्स’ भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।

    अँधेरा घिरते ही टेलिविजन से निकलते गीतों, इक्कीसवीं सदी के विज्ञापनों, नशे में चूर गाली-गलौज की आवाज़ों और बजबजाती नाबदानों की दुर्गंध में डूब जाता है—‘चेरोखरवारों का गाँव’।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ब्रजमोहन सिंह
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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