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क्या इमारत ग़मों ने ढाई है: निराला

kya imarat ghamon ne Dhai haih nirala

उपेन्द्रनाथ अश्क

उपेन्द्रनाथ अश्क

क्या इमारत ग़मों ने ढाई है: निराला

उपेन्द्रनाथ अश्क

और अधिकउपेन्द्रनाथ अश्क

    पहले-पहल निरालाजी का नाम मैंने अपनी बी० ए० की पाठ्य-पुस्तक में पढ़ा। मैं उन दिनों बड़े ज़ोरों से उर्दू में ग़ज़लें लिखता था। हिंदी की ओर विशेष रुचि थी। केवल 50 नंबर की हिंदी थी और वे नंबर भी डिवीज़न में शामिल होते थे, इसलिए छात्र निहायत बेपरवाही से हिंदी पढ़ते थे। हमारे पंडित वयोवृद्ध थे, हमने उनसे मैट्रिक में भी हिंदी पढ़ी थी, एफ़० ए० में भी और जब हमारा कॉलेज बी० ए० तक हो गया और हमारा पहला ग्रुप थर्ड ईयर में बैठा तो वे ही हमें हिंदी पढ़ाने आए। छात्र उनका ज़रा भी रौब मानते थे, पर वे बड़ी निष्ठा से पढ़ाते थे। निरालाजी की कविता उन्होंने कुछ ऐसी व्याख्या से पढ़ाई कि वह मुझे कंठस्थ हो गयी। यह अजीब बात है कि उस पाठ्य-पुस्तक के किसी कवि का नाम मुझे याद नहीं, केवल दो नाम याद हैं—नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ और पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’। मुझे याद है ‘शंकर’ जी की कविता भी बड़ी ओज-भरी थी और मुझे वह भी कंठस्थ थी। पर आज यद्यपि उस कविता का एक भी वंद याद नहीं, पर निरालाजी की कविता उसी तरह याद है:

    तुम तुंग हिमालय शृंग और

    मैं चंचल गति सुर सरिता

    तुम विमल हृदव उच्छ्वास

    और मैं कांत कामिनी कविता

    तुम प्रेम और मैं शांति तुम सुरापान-घन-अंधकार

    मैं हूँ मतवाली भ्राँति

    लेकिन निराला हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं—फक्कड़, अलमस्त और औघड़—उनका व्यक्तित्व इतना विशाल और विषम है, यह सब मुझे नहीं मालूम था। कविता मुझे याद रह गई कि पंडितजी ने बड़े मनोयोग से पढ़ाई थी और मैंने ध्यान से सुनी थी। उसका छंद, प्रवाह और विचारों की गहराई और ऊँचाई मुझे भाई थी और चूँकि कविता याद रह गई, इसलिए कवि का नाम भी याद रह गया। लेकिन फिर जब 1934-35 में हिंदी की ओर झुका तो निरालाजी मेरे प्रिय कवि नहीं थे। मेरे मन पर शुरू-शुरू बच्चन का राज़ था—‘मधुबाला’ और ‘मधु- कलश’ की कविताएँ मुझे पूरी की पूरी याद थीं और अपने मित्रों को सुनाते हुए मैं झूम उठा करता था। फिर मैंने महादेवी वर्मा का नाम सुना। उनके कविता-संग्रह ‘नीरजा’ पर कोई पुरस्कार मिला था। मैं एक रुपए में वह पुस्तक ख़रीद लाया था और उसके गीतों को पढ़ते हुए रात भर जागता रहता था। उर्दू-दाँ होने के कारण बच्चन मुझे एकदम अपने से लगते थे—सरस, सुगम और बोधगम्य। महादेवी की कविताएँ सब-की-सब तो समझ में आई थीं, पर जाने उसमें कैसा दर्द, कैसी करुणा, कैसा प्रवाह और संगीत था कि समझ में आने पर भी गुन-गुनाने को मन होता था। मेरी पत्नी क्षय रोग में ग्रस्त थी, संघर्ष तीव्रतम था, मन उदास रहता था और ऐसे में महादेवी के गीत जाने मन के किन तारों को झनझना जाते थे। अपनी समझ के अनुसार मैं उनके अर्थ लगाकर रात-दिन उन्हें गुनगुनाया करता था।

    निराला के अस्तित्व का चेतन रूप से तव पता चला जब 1935 में पाठकजी (श्री वाचस्पति पाठक) से मेरा परिचय हुआ, जो शीघ्र ही मैत्री में बदल गया। पाठकजी निराला के मित्र ही नहीं थे, भक्त भी थे। वे जब-जब लाहौर आते थे, मेरे ही यहाँ ठहरते थे और कविता में मेरी रुचि देखकर उसके परिष्कार के लिए निराला की कविताएँ सुनाते थे। अजीब बात यह थी कि पाठकजी जिन कविताओं फो पढ़ते-पढ़ते झूम जाया करते थे, मुझे उनमें से एक भी अच्छी लगती थी। उनमें मुझे उस पहली कविता का-सा माधुर्य और रवानी दिखाई देती थी, जो मैंने कॉलेज में पढ़ी थी। 'हफ़ीज' जालंधरी और ‘अख़्तर’ शेरानी तब मेरे प्रिय कवि थे—उनकी सरल, प्रवहमान कविताओं से आशना मेरे कानों को निराला की क्लिष्ट, संस्कृतनिष्ठ, पौरुष भरे प्रतीकों और समासों से बोझिल भाषा-शैली बड़ी अजनबी और कठिन लगती थी। पाठकजी के संसर्ग में मैं ‘गुंजन’ के कवि को तो पसंद कर पाया, पर निराला बहुत दिन तक मेरी पहुँच से परे रहे। पाठकजी में निराला की कविताएँ और गीत सुनने और समझने पर दिमाग़ उनकी महानता मान लेता था, पर दिल बच्चन महादेवी और पंत की ओर ही भागता था।

    तभी कहीं मैंने निराला का चित्र देखा—गौर वर्ण; उन्नत ललाट; कंधों से किंचित् ऊपर लहराते केश; तीखी नाक; कमर तक अनावृत, स्वस्थ, सुगठित नगर—किसी यूनानी देवता-जैसी यह छवि सदा के लिए मानसपट पर अंकित हो गई। पाठकजी में ‘गीतिका’ नई-नई पड़ी थी। उस चित्र को देखकर उनकी कविताओं को पढ़ने और समझने का सचेत प्रयास किया और उनसे भेंट करने की प्रथम उत्कंठा जगी। मैं एक वर्ष पहले गोरखपुर के कवि-सम्मेलन में गया था और वापसी पर बच्चन, महादेवी तथा पंतजी के निवास पर जाकर उनसे मिल आया था, लेकिन इस बार फिर इलाहबाद और बनारस जाने का संयोग हुआ तो मैंने तय किया कि मैं विशेष रूप से लखनऊ जाऊँगा और निरालाजी से मिलकर आऊँगा। उन दिनों ‘दुलारे दोहावली’ के बड़े चर्चे थे और उसके प्रसंग में कई तरह के निरालाजी का नाम आता था, तरह-तरह की बातें सुनने को मिलती थीं और उनसे भेंट करने को बड़ा मन होता था।

    बरसात के दिन थे, सख़्त उमस थी, स्टेशन से उतरते ही पानी पड़ने लगा था। मैं बरसाती बूँदियों में इक्के पर नरोत्तम नागर के यहाँ पहुँचा था और सामान रखते ही मैंने उनसे कहा था कि मैं निरालाजी से मिलने आया हूँ, रात की ही गाड़ी से चला जाऊँगा, संभव हो तो दुलारे लाल भार्गव के भी दर्शन करा दो। नरोत्तम के होंठों पर बड़ी प्यारी मिस्कीन मुस्कराहट फैल गई थी, जो केवल उनकी अपनी है और जो मुझे तब ख़्वाह-म-ख़्वाह कुटिल लगी थी कि मैं उनकी एक पुस्तक ‘एक मातृ-व्रत’ पढ़ चुका था और ‘चकल्लस’ में भी उनके व्यंग्यपूर्ण लेख पढ़ता था। ‘अरे भाई आप बैठिए तो, आपको सबसे मिला देंगे।’ उन्होंने कहा।

    ‘गंगा पुस्तक-माला’ का दफ़्तर कहीं पास ही में था। नरोत्तम मुझे पहले वहीं ले गए। दुलारेलालजी से मिलकर निराला से मिलने को और भी मन हुआ। इक्के पर बैठकर हम उनके यहाँ गए। (तब वे कहाँ रहते थे, मुझे याद नहीं, इतना याद है कि नरोत्तम के घर से काफ़ी दूर रहते थे और वहाँ कहीं निकट ही घास की सट्टी थी।) दूसरी मंजिल के एक कमरे में तहमद लगाए, नंगे बदन में वे बैठे थे। नरोत्तम ने मेरा परिचय दिया। ‘विशाल भारत’ में मेरी दो-तीन कविताएँ और कहानियाँ छपी थीं और ‘सरस्वती’ और ‘हंस’ में लगातार में लिखने लगा था। मेरी कहानी ‘डाची’ की उन दिनों बड़ी चर्चा थी। श्री विनोद शंकर व्यास ने उसे ‘मधुकरी’ के लिए ले लिया था। नरोत्तम ने शायद यही कुछ उन्हें बताया। निरालाजी कुछ उद्विग्न हो उठे। खूँटी पर टँगा कुर्ता उन्होंने पहना और बोले, ‘चलो चौक चलें, वहीं तुम्हें कुछ खिलाते-पिलाते हैं।’

    मुझे उस भेंट के बारे में और कुछ भी याद नहीं। निरालाजी ने क्या बातें कीं, मैंने कुछ कहा या नहीं, कुछ भी तो याद नहीं। केवल इतना याद है कि हल्की-हल्की बूँदियाँ पड़ रही हैं और वे मस्त बाज़ार में चले जा रहे हैं और मैं तथा नरोत्तम उनके अगल-बग़ल हैं।...फिर एक रेस्तराँ में हम बैठे हैं, निरालाजी उस रेस्तराँ में समा नहीं पाते, लोहे की कुर्सी पर बैठे, वे गोल मेज़ पर कोहनियाँ टिकाए हैं और वह मेज़-कुर्सी बहुत छोटी लगती है और वे शामी कबाब का आर्डर देते हैं, मुझे सानुरोध खिलाते हैं और ख़ूब खाने और स्वस्थ रहने की नसीहत करते हैं।

    मैंने बाद में निरालाजी को कई बार देखा। पर यह चित्र सदा मेरे दिमाग़ पर नक़्श रहा और उस आत्मीयतापूर्ण व्यवहार की याद आज भी मेरे मन में सुरक्षित है।...लेकिन इसके बावजूद मैं उनके निकट हो सका, उनके प्रति मन में श्रद्धा उमगी।

    उनका यूनानी देवताओं का-सा रूप, निर्व्याज बे-तकल्लुफ़ी, अलमस्त फक्कड़पन मुझे अपनी ओर खींचता था, लेकिन उनका दुर्निवार अहम्, दूसरों को दिखाकर और कई बार चिढ़ाकर खाना-पीना और उड़ाना मुझे परे धकेलता था।

    अहम् कहीं नहीं है और किसमें नहीं है। ‘दरीचे के क़रीब’ नामक अपनी प्रसिद्ध कविता में नई उर्दू कविता का बानी—कवि राशिद—खिड़की से नीचे बाज़ार में बहता हुआ लोगों का बेपनाह हुजूम देखता है और देखता है कि:

    इनमें हर शख़्स के सीने के किसी गोशे में

    एक दुल्हन-सी बनी बैठी है

    टिमटिमाती हुई नन्हीं-सी खुदी की क़िंदिल

    लेकिन किसी में भी इतनी तवानाई (शक्ति) नहीं कि वह लपलपाकर ज्वाला बन जाए।...अहम् की वह क़िंदिल जहाँ ज्वाला बन जाती है, केवल दिखाई देती है, वरन् चौंधियाती है, खलती है। आज जब किसी का अहम् खलता है तो अपने अहम् की याद जाती है, लेकिन तब अपने अहम् का ज्ञान था और दूसरों ही का अहम् खलता था। निराला का अहम् उनके व्यक्तित्व ही की भाँति महान और उदार था और शिष्टाचार के पर्दे उसे ढाँप पाते थे। अंधे को भी उसकी ज्वाला दिखाई दे जाती थी और तब चूँकि अपने अहम् का भान था, इसलिए निराला का वह लपलपाता अहम् मुझे बेतरह खलता था।

    फिर दुर्भाग्य से माँ ने जिन दो-तीन चीज़ों के विरुद्ध मन में घृणा का भाव पैदा कर दिया था, वे सब निराला के यहाँ प्रचुर मात्रा में थीं। आज मैं खा भी लेता हूँ, पी भी लेता हूँ और उदारता को बड़ा गुण मानता हूँ, जो साधारण आदमी के बस का नहीं, पर इन्हीं तीनों के कारण माँ ने और हम छह भाइयों ने बचपन से जो यातनाएँ सहीं, उनके सबब मन में इनके प्रति अनायास ही विरोध का भाव था। मेरे पिता बड़े मनमौजी, फक्कड़, दबंग, घर-फूँक तमाशा देखने वाले तथा जी-भर खाने-पीने और उड़ाने वाले आदमी थे। अपने डिवीज़न में उनका दबदबा था और चाहे उनके अपने बेटे अभाव में पलते थे, पर उनकी उदारता पर पलने वाले, उनके साथ खाने-पीने-उड़ाने वाले बेटों की कमी थी। ऐसे स्टेशनों पर, जहाँ बस्ती का निशान था, दूर-दराज़ से उनके साथ खाने-पीने वाले जुटते थे। माँ उपेक्षा से कहती थीं—‘भैड़े-भैड़े यार मेरी फत्तो दे’—कौल के पक्के, किसी को यदि कोई वचन दिया तो गहने या घर गिरवी रखकर निभाया। उनकी उदारता और उद्दंडता के बीसियों क़िस्से प्रचलित थे, पर हम—उनके बेटों—ने उनकी इसी उदारता के कारण बचपन में बचपन देखा, युवावस्था में जवानी। उनका औदार्य चकित करता था, पर हमारे मन में नफ़रत भी जगाता था। इन्हीं संस्कारों के कारण निराला का व्यक्तित्व मेरे लिए सदा आकर्षण-विकर्षण का केंद्र रहा। मैं जब-जब उनके निकट-संपर्क में आया, मुझे इन परस्पर विरोधी भावनाओं का एह सास हुआ—कभी पहले भ। आकर्षण और फिर विकर्षण, कभी पहले विकर्षण और फिर आकर्षण...

    ...शायद 1939 की बात है। शिमला में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य-सम्मलेन का अधिवेशन हुआ। उसके अंतर्गत कवि-सम्मलेन में भाग लेने पाठकजी के साथ मैं भी पहुँचा। वहाँ चोर-बाज़ार की प्रसिद्ध धर्मशाला के ऊपर बने सिनेमा-हॉल में हमें ले जाया गया, जो शायद नया-नया बना था, पर चालू हुआ था। लकड़ी का साफ़ चमकता फ़र्श, लकड़ी का स्टेज—वहीं सब आगत कविगण ठहरे थे। मुझे अच्छी तरह याद है, निरालाजी बीच हॉल में बिस्तर लगाए बैठे थे और लोगों को चिढ़ाने के लिए बोतल रखे हुए पी रहे थे और अनायास मुझे धक्का-सा लगा था। अजीब बात है कि मैं उन दिनों ‘अख़्तर’ शेरानी का प्रशंसक था, और उनके यहाँ लगातार जाता था। ‘अख़्तर’ आठों याम धुत्त रहते थे। पर मुझे विकर्षण होता था। शायद इसका कारण यह हो कि वे कभी सामने पीते थे। बातें करते-करते उठकर चले जाते थे और अंदर स्नानागार में रखी बोतल से पी आते थे। अतीव भोले और उदार थे। उनको देखकर मन उदास हो आता था, पर उसमें वितृष्णा जगती थी। लेकिन निराला को यों चौड़े-दिहाड़े, दूसरों को चिढ़ाकर, पीते देख वितृष्णा हुई थी। अब तो ज़िंदगी ने मुझे व्यक्ति को देखकर उसके कृतित्व को देखना-परखना और उसकी प्रशंसा करना सिखा दिया है, पर तब चेतना उतनी जगी थी, व्यक्ति के व्यवहार के कारणों को ढूँढ़ना और उनसे सहानुभूति करना आया था और मुझे निरालाजी का वह रूप अखरा था...रात कवि सम्मेलन में एक ऐसी घटना हो गई कि उस वितृष्णा पर एक और परत चढ़ गई।

    बात यह है कि उन दिनों में नया-नया हिंदी में लिखने लगा था और जैसे नया मुसलमान अल्लाह-ही-अल्लाह चिल्लाता है, मैं भी हिंदी के गुण गाता था। लाहौर उर्दू-लेखकों का गढ़ था, जिनमें केवल मैं हिंदी में लिखने लगा था। मुझे बड़े विरोध का सामना करना पड़ता था—‘अजी साहब। हिंदी भी कोई भाषा है?’ या ‘अरे मियाँ ! इस किंतु-परंतु, अथवा अस्तू वाली भाषा में भी लतीफ़ शायरी हो सकती है?’ ऐसे वाक्य मुझे प्राय: सुनने पड़ते थे और मैं उत्तर में अपनी विनोदवृत्ति को भूल, (वह हिस तब मुझमें इतनी जगी भी थी) एकदम गंभीर हो जाता था और महादेवी और निराला की कविताएँ सुनाता और उनकी लताफ़त और नज़ाकत अपने उर्दू-दाँ दोस्तों को समझाता था। उक्त कवि सम्मेलन से दो दिन पहले कदाचित ‘डेविको बॉलरूम’ में अखिल भारतीय उर्दू मुशायरा हुआ था और शिमले भर में उसकी चर्चा थी। कवि सम्मेलन सुनने जो लोग आए, उनमें से अधिकांश ने मुशायरा सुना था और हम पंजाबियों की यह आकांक्षा थी कि हिंदी कवि-सम्मेलन उस मुशायरे से बढ़कर रहे। उस ज़माने में टेप रिकॉडिंग का अविष्कार हुआ था। शिमला में रेडियो स्टेशन था और बाहर के प्रोग्राम विशेष लाइनों पर सीधे रिले होते थे। रेडियो में उर्दू वालों का बोल-बाला था। ऑल इंडिया मुशायरे प्राय: ब्रॉडकॉस्ट होते थे, पर कवि सम्मेलनों को कोई पूछता था। लेकिन ‘सम्मेलन’ के संयोजकों ने सरकार पर जोर डालकर उसकी रिले का प्रबंध किया था और जैसे दो दिन पहले होने वाला ऑल इंडिया मुशायरा रिले हुआ था, उसी तरह यह अखिल भारतीय कवि सम्मेलन भी आध घंटे के लिए रिले होने जा रहा था। संयोजकों ने आगत कवियों में से प्रमुख के नाम उस आध घंटे में पढ़ने वालों में रखे थे। लेकिन दुर्भाग्य से कवि सम्मेलन के सभापति थे श्री गया-प्रसादजी शुक्ल ‘सनेही’—ब्रजभाषा के प्रसिद्ध अखाड़िए कवि। उन्होंने अध्यक्षीय उद्घाटन भाषण में खड़ी-बोली के नए कवियों पर कुछ आक्षेप कर दिया। कुद्ध होकर निरालाजी ने घोषणा की कि खड़ी बोली का कोई भी कवि इस सम्मेलन में कविता नहीं पढ़ेगा।

    उन दिनों कवि-सम्मेलनों में बच्चन की तूती बोलती थी। बच्चन एक बार पहले पंजाब का दौरा कर अपनी धूम भी गचा गए थे। श्रोताओं में से अधिकांश उन्हीं को सुनने आए हुए थे, लेकिन निराला की घोषणा के बाद बच्चन और राम-कुमार वर्मा ने ही नहीं, छोटे कवियों तक ने पढ़ने से इंकार कर दिया। ख़ैर रेडियो की रिले का समय गया और किसी तरह ‘सनेहीजी’ के ग्रुप के तथा कुछ ऐसे पंजाबी कवियों की सहायता से, जिनका उस सूची में कहीं नाम तक था, रेडियो का कार्यक्रम चलाया गया। बच्चन ने अंत में किसी शरारती बच्चे की तरह यह कहकर कि वे पढ़ेंगे, रेडियो पर कवि सम्मेलन का विरोध करने की भी कोशिश की।

    जब श्रोताओं को पता चला कि बच्चन नहीं पढ़ेंगे तो वह शोर मचा कि ख़ुदा की पनाह। एक तो श्रोता पंजाबी, दूसरे टिकट ख़र्च कर आए हुए। बच्चन को सुने बिना लोगों ने केवल स्वयं हॉल छोड़ने से इंकार कर दिया, बल्कि किसी कवि को हॉल से बाहर जाने देने की घोषणा कर दी। तब जाने ‘सनेहीजी’ ने अपने आक्षेप पर अफ़सोस प्रकट किया, या जाने संयोजकों ने निरालाजी से अपनी स्थिति को रक्षा चाही अथवा निरालाजी को ही ख़्याल आया कि उनका विरोध उनका मनचीता प्रभाव उत्पन्न कर चुका है, वे मोम हो गए और मंच पर खड़े होकर उन्होंने बड़े ही ओजपूर्ण शब्दों में अपनी बात कहते हुए नई कविता की महत्ता जताई और श्रोताओं को आश्वासन दिया कि सब लोग कविताएँ पढ़ेंगे और आपको पूर्णत: संतुष्ट करके तभी हॉल छोड़ेंगे। और सबसे पहले उन्होंने स्वयं कविता सुनाने की घोषणा की। सम्मेलन का संचालन तब ‘सनेही’ नहीं, जैसे निराला ही कर रहे थे।

    उस मानसिक स्थिति में, जिसका में उल्लेख कर चुका हूँ, में मन में बेहद भरा बैठा था। मैंने उस कवि सम्मेलन में कविता पढ़ी थी और मेरी कविता इतनी जमी थी कि मुझे प्रसन्नता भी हुई थी, पर हिंदी बालों के उस झगड़े और गुटबंदी का मेरा वह पहला अनुभव था। मुझे यह मानापमान एकदम निरर्थक लगता था। मुझे वह केवल हिंदी का, बल्कि पंजाब के हिंदी भाषियों का अपमान लगता था। लेकिन निरासा जब कविता पढ़ने लगे उन्होंने पहले ‘जूही की कली’ बोर फिर शायद ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविताएँ सुनाईं- तो में अपनी सब खिन्नता और क्रोध भूलकर मंत्र-मुग्ध-सा उन्हें देखता रह गया। कविताओं से कहीं ज़्यादा मुझे उनका कविता पढ़ना भाया। बच्चन प्राय: घुटनों के वल बैठकर कविता पढ़ते थे, दूसरे कवि भी प्राय: बैठकर ही कविता पढ़ते थे, लेकिन निराला अपने व्यक्तित्व की भव्यता से जैसे मंच को आच्छादित करते हुए, पूरे हाव-भाव से कविता पढ़ रहे थे और उनकी खिन्नता मिट गई और कविता पढ़ते समय की उनकी सारी भंगिमाएँ मेरे मानस पर अंकित हो गई।

    ...फिर 1941 में हिंदी सलाहकार के रूप में मैं दिल्ली रेडियो पर गया। शायद हिंदी वाले बहुत शोर मचा रहे थे। उन्हें शांत करने के लिए कुछ हिंदी की वार्ता-मालाएँ प्रसारित करने की ज़रूरत समझी गई थी, तभी हिंदी सलाहकार की आवश्यकता पड़ी थी। मैं अपनी घरेलू परेशानी के कारण घर और नौकरी छोड़कर बैंगलोर भाग जाने का निश्चय कर चुका था कि मेरे कथाकार मित्र कृष्णचंद्र ने मुझे वहाँ बुला लिया। मुझसे पहले अज्ञेय ग़ैर-सरकारी तौर पर यही काम करते थे और प्राय: अपने मित्रों और परिचितों को बुलाया करते थे। उनके द्वारा बनायी गई सूची में कुछ ऐसे भी नाम देखे, जिनकी कोई रचना मैंने कभी पड़ी थी। बहरहाल उस सूची को तिलांजलि देकर मैंने नई सूची बनाई, नई वार्ता-मालाएँ तजवीज़ीं और उस ज़माने का कोई ही ऐसा प्रमुख साहित्यकार होगा, जिसे मैंने अपनी नौकरी के पहले वर्ष दिल्ली बुलाने का प्रयास नहीं किया। नहीं बुला सका तो एक जैनेंद्र और दूसरे निराला को जैनेंद्र मेरे मित्र थे, अत्यंत घनिष्ठ। उन्होंने स्वयं ही मुझसे कहा था कि मैं उनके लिए कुछ करूँ। और जब मैंने जन्माष्टमी पर मथुरा की ओ० वी के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया तो यद्यपि मैंने जवानी उनकी अनुमति ले ली थी, पर जब उन्होंने कॉन्ट्रैक्ट नहीं भेजा और मैं उनके यहाँ गया तो प्रकट उन्होंने यही कहा कि बुखारी (श्री० ए० एस० बुख़ारी, जो ‘पतरस’ के छद्म नाम से प्रसिद्ध थे और ऑल इंडिया रेडियो के कंट्रोलर थे) बुलाने आएँ तो मैं जाऊँ, पर इशारे-इशारे में यह भी जता दिया कि उन्हें पारिश्रमिक कम दिया जा रहा है।...निरालाजी के बारे में पता चला कि उन्हें बुलाने का प्रयास किया गया है, वे 101 रुपए फ़ीस माँगते हैं। उस वक़्त रेडियो पर केवल 25 रुपए मिला करते थे। आज भी, जब हिंदी राष्ट्र भाषा हो गई है, कवियों की फ़ीस 30 या 50 से ज़्यादा नहीं हुई, जो उस वक़्त के चार-पाँच रुपए के बराबर है। वह तो उर्दू वालों का ज़माना था। मैं नए मुसलमान की-सी अपनी मानसिक स्थिति बता ही चुका हूँ, हिंदी-उर्दू के उस झगड़े में मेरा ख़्याल था कि हिंदी वालों को ज़्यादा-से-ज़्यादा रेडियो पर आकर हिंदी का प्रचार करना चाहिए। बाहर ख़ूब शोर भी मनाना चाहिए, पर रेडियो पर आने का कोई भी अवसर हाथ से जाने देना चाहिए। जैनेंद्र तो बाद में आए भी, पर निरालाजी एक यार नहीं आए तो फिर नहीं ही आए। जैनेंद्र के अहम् को मैंने कई रूपों में देखा है, पर जहाँ उनका अह‌म् कभी-कभी दयनीय हो उठता है, वहीं निराला के अहम् को मैंने कभी दयनीय होते नही देखा, उनके अहम् में बनावट का स्पर्श मैंने नहीं पाया—अनपड़, उद्दंड, लेकिन उनके व्यक्तित्व ही की तरह मसलहतों से बेनियाज़, गणनाओं से परे, ऊर्ध्वमुखी और दुर्दमनीय।

    लेकिन अपनी उस मानसिक अवस्था में यह अहम् मुझे एकदम बेकार लगता था और मुझे बेहद खीज होती थी और मेरा आकर्षण फिर विकर्षण में बदलने लगता था...

    ...फिर शायद 1942 या’ 43 की बात है, एक दिन पाठकजी दिल्ली आए और बोले कि चलो अबोहर। तुम्हें ही लिवा ले चलने को हम उतरे हैं।

    अबोहर में उस वर्ष ‘हिंदी साहित्य-सम्मेलन’ वार्षिक आधिवेशन होने जा रहा था। लेकिन सम्मेलन की राजनीति में मुझे किसी तरह की दिलचस्पी थी और गंभीर रह पाने के कारण यों भी मैं अधिवेशनों वग़ैरह से दूर रहता था। यही बात पाठकजी से कहकर मैंने टाल जाना चाहा।

    ‘अरे चलो, हमें कौन-सा वहाँ भाषण देना है।’ पाठकजी ने कहा, ‘तुम्हारे मित्र भ० प्र० वा० (भगवती प्रसाद बाजपेयी) साहित्य-परिषद के सभापति मनोनीत हुए हैं। उन्हें सभापति के रूप में देखने और उनका भाषण सुनने का सुअवसर फिर कब मिलेगा...’

    और मैं तैयार हो गया। गाड़ी में पाठकजी मैंने अपनी एक नई कविता सुनाई, जो दिल्ली में अत्यंत लोकप्रिय हुई थी। सुनकर वे बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने बताया कि निरालाजी अधिवेशन के अंतर्गत होने वाले कवि-सम्मेलन के सभापति चुने गए हैं। अबोहर में वे निश्चित रूप से होंगे और मैं अपनी वह कविता उन्हें ज़रूर सुनाऊँ।

    कविता क्या थी, पैरोडी थी। रेडियो पर उस ज़माने में उर्दू-कवियों और कथाकारों का पूरा जमघट था, किसी के दिमाग़ में ब्रेन-वेव जो आई तो उसने कहा कि रंगारंग प्रोग्राम में एक ‘सौती मुशायरा’ किया जाए—यानी ऐसी कविताएँ पढ़ी जाएँ, जिनमें स्वर तो हो पर अर्थ हो, लेकिन इस पर भी लगे कि कवि कुछ कह रहा है और उसकी शैली का आभास मिल जाए। फ़ैज (फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’) और नदीम (अहमद नदीम क़ासिमी) वहीं मौजूद थे। उन्होंने उसी वक़्त चंद शेर चुस्त कर दिए। ‘राशिद’ (कवि न० मु० राशिद) ने, कि वे प्रोग्राम इंचार्ज थे, मुझसे हिंदी में कविता लिखने को कहा। उस जल्दी में मुझे कुछ सूझा। जाने कैसे कॉलेज के दिनों की, निराला की वही कविता मुझे याद गई, जो छात्रावस्था में मुझे कंठस्थ हो गई थी और मैंने अर्थ-हीन स्वरों में उसकी पैरोडी कर दी। मेरी कविता ऐसी जमी कि जब कुछ ही दिन बाद दिल्ली के किसी कॉलेज में एक कवि-सम्मेलन हुआ तो गिरिजाकुमार माथुर ने, जो रेडियो पर वह कविता सुन चुके थे, अनुरोध किया कि मैं वही कविता पढ़ें। चूँकि निरालाजी को शिमला के कवि सम्मेलन में कविता पढ़ते मैंने देखा था और उनकी भंगिमाएँ मेरे दिमाग़ पर नक़्श थीं, इसलिए मैंने मंच पर पूरे हाव-भाव के साथ निरालाजी की तरह वह कविता पढ़ी। अर्थ तो थे नहीं, स्वर ऐसे थे कि अर्थ का आभास देते थे। हाव-भाव और एक्टिंग प्रमुख थी। मारे हँसी के छात्र लोट-पोट हो गए।

    अपने विकर्षण की बात मैं कह ही चुका हूँ। शायद साहित्य-सम्मेलन के जयपुर अधिवेशन के अवसर पर गेस्ट हाउस में निरालाजी ठहरे हुए थे। बैरे से उन्होंने मुर्ग़-मुसल्लम बनाने को कहा था और पाठकजी के मित्र के नाते मुझे भी बुला लिया था। मुर्ग़ शायद बुड्ढा था अथवा बैरा अच्छी तरह पका सका था। मैं संकोचवश बैठ गया था, मुझसे वह खाया जाता था, निरालाजी मज़े से उसे चींथते रहे और मुझे चिढ़ाते रहे। फिर वहीं खाना खाकर जाने कहाँ से उन्होंने इत्र की शीशी निकाली और पाठकजी के या शायद किसी दूसरे के सिर पर पूरी-की-पूरी उलट दी। मेरे लिए वह सब एकदम अजीब था और मैं उनकी उपस्थिति से सदा कतराता था, दूर से उन्हें देखता था, पर निकट जाता था। मैंने पाठकजी से कहा कि मैं कविता नहीं सुनाऊँगा, जाने वे नाराज़ हो जाएँ।

    लेकिन पाठकजी कब मानने वाले थे, उनकी विनोद-वृत्ति की कोई सीमा नहीं। मध्याह्न को निरालाजी के कमरे में महफ़िल जमी हुई थी। निरालाजी मसनद के सहारे अध-लेटे अध-बैठे थे और कुछ कवि अपनी कविताएँ उन्हें सुना रहे थे कि पाठकजी ने कहा कि अश्क ने एक मज़ेदार कविता लिखी है और मुझे आदेश दिया कि मैं सुनाऊँ।

    मैं सकुचाया तो निरालाजी ने कहा, ‘सुनाओ!’

    तब किसी तरह की भूमिका के बिना मैं पूरे हाव-भाव के साथ कविता पढ़ने लगा:

    तुम पाम दाम के ढलमठाम

    मैं पाल पलीपलपील

    तुम हरम चरम के तुलमताम

    मैं तरर-तामली तील

    तुम द्रम्य और मैं द्रांति

    तुम धुरामान धुम धुँधभार

    मैं चीम जीम जुम जांति

    तुम शुगाँ शुगाँ के कान कोम...

    कि निरालाजी ने कहा, ‘अरे भाई इसका कोई मतलब भी है?’ और ज़ोर से ठहाका मारकर हँस दिए।

    मैंने पूरी कविता सुनाई तो उन्हें इतना लुत्फ़ आया कि रात को जब उनके सभापतित्व में कवि-सम्मेलन हुआ और मेरी बारी आई और मैं अपनी एक प्रिय कविता (जिसका शीर्षक भी तब ‘तुम और मैं’ था) सुनाकर चलने लगा, तो उन्होंने वही पैरोडी सुनाने का अनुरोध किया।

    अबोहर का वह कवि सम्मेलन बेहद दिलचस्प था—कवियों के कारण नहीं, श्रोताओं के कारण। पंजाब में तब उर्दू का साम्राज्य था। शहरों में छिट-पुट हिंदी के केंद्र थे। अबोहर बहावलपुर रियासत के साथ लगने के कारण हिंदी के लिए एकदम मरु था। स्वामी केशवानंद के कारण वहाँ हिंदी का एक बहुत बड़ा पुस्त कालय स्थापित हो गया था, प्रचार केंद्र भी थे, मंडी में कुछ मारवाड़ी हिंदी में दिलचस्पी भी लेते थे, पर मंच के भागे श्रोताओं में जो लोग बैठे थे, उनमें सिर पर बड़े-बड़े चौक (गुंबद के आकार का गहना) सजाए और घाघरे पहने बैठी स्त्रियों का बाहुल्य था। मैंने श्रोताओं से कहा कि जो कविता में आपको सुनाने जा रहा हूँ, उसको समझने का कष्ट करने की ज़रूरत नहीं, केवल सुनने और देखने का कष्ट करने की ज़रूरत है और चूँकि निरालाजी ने स्वयं कहा था, किसी प्रकार का संकोच था, मैंने मुक्त-भाव से कविता पढ़ी। पहले ही बंद के बाद सभा-मंडप क़हक़हा-ज़ार बन गया और जब मैंने निरालाजी ही की तरह हवा में बाँह झटकते हुए कहा:

    तुम बंदित फंदित दगन दीन,

    मैं हुकुर पुकुर खर पारि।

    तो बो ठहाका गूँजा कि उसकी अनुगूँज माइक पर भी सुनाई दी...निरालाजी बड़े प्रसन्न हुए और उन्होने मंच से उतरते वक्त मेरी पीठ थपथपा दी। वहीं बच्चन ने कहा, ‘तुम्हारी इस हुकुर-पुकुर खर पारि के बाद अब कौन जमेगा।’

    कहने की ज़रूरत नही कि निरालाजी की वह सरलता, उदारता—विशेषकर अपनी उस ऊँचे भावों से गुंफित कविता को ऐसी पैरोडी सुनकर नाराज़ होने के बदले ख़ूब प्रसन्न होना—मुझे बड़ा अच्छा लगा। पाठकजी तो मेरे साथ मेरे छोटे भाई के यहाँ ठहरे थे, जो वहाँ म्युनिसिपल कमेटी में मुलाज़िम हैं। उनका अपना मकान है, गाय है, खाने के शौक़ीन हैं और हमें किसी तरह की कठिनाई थी। लेकिन पाठकजी निराला के संबंध में चिंतित थे। उन्हों के आदेश पर मैंने निरालाजी को दोपहर के खाने पर निमंत्रित किया और उन्होंने सरलता से स्वीकार कर लिया।

    मुझे उस दिन को भी पूरी याद है, क्योंकि कुल मिलाकर मुझे ख़ुशी नहीं हुई थी। वितृष्णा ही हुई थी। मेरा यह आकर्षण फिर विकर्षण में चदल गया था।

    मैं निरालाजी को अच्छी तरह जानता था—न उनके मूड्स से परिचित था, असंतुलन से, विक्षिप्तता से। दूसरे दिन अधिवेशन के याद में, पाठकजी और निरालाजी पैदल ही घर की ओर चल दिए। मेरे भाई का घर सभा-मंडप से कोई आध-एक मील पर था। निरालाजी कुछ दूर तक तो पाठकजी से बात करते रहे, फिर कुछ परे हो गए और अपने आप अंग्रेज़ी में बड़बड़ाने लगे। बार-बार उनके होंठों पर एक प्रसिद्ध महिला का नाम आता था। कुछ दूर तक मैं पाठकजी के साथ बातें करता चलता रहा, फिर मेरा ध्यान बार-बार उनकी ओर जाने लगा। आख़िर मैंने पाठकजी से पूछ ही लिया। उन्होने कहा, ‘तुम उनकी चिता करो, उनकी ऐसी ही आदत है।’...पर कोशिश करने पर भी में पाठकजी से बातचीत कर सका और उधर से ध्यान हटा सका।

    घर पहुँचकर निरालाजी फिर नॉर्मल हो गए। प्रसन्नता से उन्होंने खाना खाया। खाने की प्रशंसा की। फिर उन्होंने मुझसे कवि ‘राशिद’ की कविताएँ सुनीं और फिर जैसे मेरा दाय देकर उन्होंने मुझे एक ओर कर दिया। जब मैंने उनकी बातों के बीच में कुछ कहना चाहा तो उन्होंने मुझे झिड़क दिया। मैं उन्हें वापस छोड़ने गया और मेरा मन बड़ा खिन्न रहा। मेरी दशा उस मेज़बान की-सी थी, जो अपने मेहमान को प्रसन्न करने के लिए सब कुछ करे, पर उसे लगे कि कहीं कुछ त्रुटि रह गयी है और उस त्रुटि को जान पाए और कभी अपने ऊपर खीझे और कभी अपने मेहमान पर...पिछली रात का वह आकर्षण फिर एक अव्यक्त विकर्षण में बदल गया।

    फिर कई वर्ष तक निरालाजी से भेंट नहीं हुई। मैं बंबई चला गया। फ़िल्मी जीवन में खो जाने और अपने साहित्यिक को बचाने के प्रयास में बीमार हो गया। 1948 के शुरू में जब सारी जमा-पूँजी बीमारी की भेंट हो गई थी और साज-सामान पाकिस्तान की और बीमारी से पूरी तरह मुक्त हुबा था और भविष्य के संबंध में चिंतित था कि मेरे छोटे भाई ने चिट्ठी के साथ किसी समा चार-पत्र का एक तराशा भेजा, जिससे मालूम हुआ कि उत्तर प्रदेश की सरकार ने निरालाजी को और मुझे बीमारी के कारण 5000 रु० का अनुदान दिया है और तब मुझे पता चला कि निरालाजी बीमार हैं।

    अनुदान 5000 रु० का नहीं, दो सौ रुपए महीने का था। मेरे भाई की चिट्ठी के साथ ही, पहले स्वर्गीया होमवती देवी की और फिर श्रीमती महादेवी वर्मा की चिट्ठियाँ मिली। मेरे पास पैसा ख़त्म हो गया था, अभी में नेगिटिव हुआ था, कुछ महीने और वहाँ रहने की समस्या थी। जव महादेवीजी के पत्र से मालूम हुआ कि इकट्ठा रुपया नहीं मिल सकता और 200 रुपया महीना ‘साहित्यकार संसद’ द्वारा ही मिलेगा तो मैंने बाबू संपूर्णानंदजी को एक व्यक्तिगत पत्र लिखा और अपनी स्थिति समझाई कि मुझे इकट्ठा रुपया मिलना चाहिए ताकि में कुछ महीने और पंचगनी रह सकूँ। उन्होंने लोटती डाक अपने हाथ से बड़ा स्नेह-भरा पत्र लिखा कि साल-ब-साल ग्रांट स्वीकृत होती है और ये साल भर के अनुदान का 2400 रुपया वहीं भिजवा रहे हैं।

    कुछ महीने बाद में नेगिटिव हो गया और पंचगनी छोड़ने को समस्या उप-स्थित हुई तो मैंने इलाहाबाद ही को चुना—जहाँ पाठकजी थे, श्रीपत राय थे और जहाँ की सरकार ने बिन माँगे बीमारी में मेरी सहायता की थी।

    गत बारह वर्ष से मैं इलाहाबाद में हूँ और निरालाजी भी यहीं थे, पर मैं तीन बार से ज़्यादा उनसे नहीं मिल सका और उन तीनों मुलाक़ातों की स्मृति मन में स्पष्ट रूप से अंकित है कि उनमें उनके मनोविज्ञान का एक-एक सूत्र निहित है। मुझे चाहे तीनों बार उनसे मिलकर किंचित् विकर्षण हुआ, पर उन्हें समझने के सूत्र भी हाथ लगे और मेरे निकट दूसरे के मन को समझना ही स्वीकारना है।

    ....पहली बार यह जानकर कि ये पाठकजी के यहाँ आए हुए हैं, मैं मिलने गया। वे कमरे में टहल रहे थे और कुछ अपने आप बड़बड़ा रहे थे। मैं प्रणाम कर तख़्त के कोने पर बैठ गया तो उन्होंने मेरा हाल-चाल पूछा। उन्हीं दिनों शायद ‘संगम’ में या किसी दूसरी पत्रिका में उनकी एक कविता मुझे बड़ी अच्छी लगी थी। मैंने उसकी प्रशंसा की तो उन्होंने कुछ नहीं कहा। फिर टहलने लगे—उसी तरह बड़बड़ाते हुए—लेकिन टहलते-टहलते पत्रिकाओं में से एक-एक कर उन्होंने तीन-चार पत्र-पत्रिकाओं निकाली, जिनमें उनकी कविताएँ थी और उन पृष्ठों को खोलकर, जिन पृष्ठों पर कि कविताएँ छपी थी, वे उन्हें मेरे सामने रखने गए। और फिर उसी तरह बड़बड़ाते टहलते रहे।

    मैंने कविताएँ पढ़ने का प्रयास किया, लेकिन नहीं पढ़ सका। मेरा ध्यान बार-बार उस मानसिक अवस्था की परतों के कहीं नीचे छिपे चेतन अहं की बात सोचने लगा और कविताओं के शब्द दिखाकर भी अदृश्य होते गए, मन सहसा उदास हो आया और मैं कुछ क्षण बैठकर उन्हें प्रणाम कर चला आया।

    ...दूसरी बार एक-आध महीने बाद ही मैं और कौशल्या डॉक्टर जगदीश गुप्त के यहाँ दारागंज गए। वापसी पर कौशल्या ने इच्छा प्रकट की कि निरालाजी के दर्शन करते चलें। मैं टाल जाना चाहता था, पर कुछ जगदीशजी की उपस्थिति के कारण और कुछ पत्नी के भावुक अनुरोध की रक्षा में, चला गया। पत्नी उन्हें प्रणाम कर बैठ गईं, जगदीशजी भी बैठ गए, मैं अभी खड़ा ही था कि निरालाजी ने अत्यंत कुद्ध हो मुझे डाँटना शुरू कर दिया कि मैंने सरकार को ठगकर उससे हज़ारों लूट लिए हैं और मैं बिक गया हूँ आदि-आदि...मेरी दृष्टि कौशल्या पर गई। उसका चेहरा उतर गया था। कोई बराबर वाला होता तो मैं मुँह-तोड़ जवाब देता अथवा घंटों उसका मज़ाक बनाता, बड़ा होता तो समझाने की कोशिश करता कि रुपया मैंने नहीं लिया, मेरी पत्नी ने मेरी बीमारी में लिया है, समुचित ब्याज पर लिया है और वह ब्याज समेत उसकी किस्तें चुका रही है। पर उन्हें यह सब बताना व्यर्थ लगा। क्रोध ज़रूर आया—उन पर नहीं कि उनकी मानसिक दशा से मैं परिचित था, उन साहित्यिक बंधुओं पर, जो दो दिन पहले उनसे मिलने गए थे और शायद उनके कान में वह सब डाल आए थे। मुझे मालूम था कि उन्हीं में से एक महानुभाव ने स्व० गोविंद वल्लभ पंत से ऐसा ही कुछ कहकर मेरा अनुदान बंद करा दिया था। पर उस सब क्रोध में भी क्षण भर को उसी अचेतना की परतों के नीचे छिपी उनकी चेतना का ध्यान हो आया जो सरकार को धोखा देकर रुपया लेने की बुराई जानती थी और सरकारी सहायता को (अपने मतानुसार) ग़लत मानती थी।

    फिर मैं उनसे मिलने नहीं गया। कई बार वे लीडर प्रेस आए, कलकत्ता में उनका अभिनंदन हुआ, सम्मेलन में उनके सभापतित्व में कोई सभा हुई, पर मैं नहीं गया। लेकिन गत वर्ष जब एक दिन नागरजी (श्री अमृतलाल नागर) से सुना कि वे बहुत बीमार हैं और नागरजी उनसे मिलने जा रहे हैं तो मैं नहीं रह सका। मैंने नागरजी से अपनी इच्छा प्रकट की, पर साथ ही पिछली भेंट का उल्लेख करते हुए डर का इज़हार भी किया। नागरजी ने कहा कि मैं ज़रूर चलूँ और निरालाजी बड़े प्रसन्न होंगे और नागर कोई ऐसी-वैसी बात नहीं होने देंगे। और मैं तैयार हो गया। अमृतराय निराला के परम भक्त हैं, वे ही अपनी कार में नागरजी को ले जा रहे थे, मुझे भी कृपापूर्वक उन्होंने कार में बैठा लिया। रास्ते में नागरजी निरंतर निराला के संस्मरण सुनाते रहे।

    हम पहुँचे तो निरालाजी बाईं ओर तख़्त पर बैठे थे। मैं उन्हें ‘नमस्कार’ कर सामने जा बैठा, नागर उनके चरण छू तख़्त के सामने लगी कुर्सी पर बैठ गए; अमृत उनके पास ही तख़्त के किनारे बैठे और अभिभूत होकर उन्होंने उनकी तबीयत का हाल पूछा। निरालाजी ने एक नज़र मुझ पर डाली। शायद उन्होंने मुझे नहीं पहचाना। फिर वे अमृत की ओर मुड़े और उन्होंने नागरजी से उनका परिचय चाहा।

    नागरजी ने बताया कि प्रेमचंद के सुपुत्र हैं।

    ‘बड़के कि छुटके?’ निरालाजी ने पूछा।

    ‘छोटे।’

    ‘यूँ आर बॉर्न विद सिलवर स्पून इन योर माऊथ।’ निरालाजी ने गुरु-गंभीर वाणी में अमृत की बोर देखकर कहा।

    तभी दो-तीन लड़‌कियाँ उनके दर्शनों को गईं। अमृत उठकर नागरजी के बराबर दूसरी कुर्सी पर जा बैठा। लड़‌कियाँ निरालाजी के साथ ही सिकुड़-सिमटकर बैठ गईं। नागरजी अथवा वहीं बैठे किसी दूसरे महानुभाव ने एक लड़की से निरालाजी का कोई गीत गाकर सुनाने को कहा। कुछ संकोच के साथ वह निरालाजी का एक गीत गाने लगी।

    लड़की ने मुश्किल से एक चरण गाया होगा कि निरालाजी कुछ बड़बड़ाने लगे...हार्मोनियम और तबला और रियाज़—यही शब्द सुनाई दिए, फिर वे कुछ उद्विग्न होकर उठे, दरवाज़े में जा खड़े हुए और स्वर-संधान कर भाषण-सा देने लगे।

    लड़की शर्मायी-सी चुप हो गई। नागरजी ने स्थिति संभालने के लिए निरालाजी से अनुरोध किया कि वे अपनी कोई कविता सस्वर सुनाए।

    ‘हिंदी इज़ नॉट माई मदर टंग, आई बुड स्पीक इन बैसवाड़ी।’ कुछ ऐसी ही बात उन्होंने अंग्रेज़ी में कही और वहीं दरवाज़े में खड़े-खड़े बैसवाड़ी में स्वागत —भाषण करने लगे—लंबे ऊँचे वैसे ही, पर यह यूनानी देवताओं का-सा स्वास्थ्य कहाँ! चुपचाप दीवार से लगा में उन्हें निर्निमेष देखता रहा—कनपटियों और कल्लों में गढ़े पड़ गए हैं, गोरा चेहरा सँवला गया है, उसमें केवल बड़ी लंबी नाक और निरंतर भटकती आँखें ही ध्यान खींचती हैं सीने की वह पृष्टता नहीं रही, पसलियाँ दिखाई देने लगी हैं, पेट बेहद बढ़ गया है, कमर में केवल घुटनों के ऊपर तक अँगोछा बाँधे हैं, दरवाज़े से आतीं रोशनी में उनकी रानों और पिंडलियों की कृशता दिखाई देती है—उन्हें अपना कोई होश नहीं, लेकिन इस सारी बेहोशी में कहीं होश का तार है जो विपन्नता के उस आग्रह और इस के द्वारा झनझनाकर उनसे कहलवा देन— ‘क्या इमारत ग़मों ने ढाई है, क्या इमारत ग़मों ने ढाई है...

    मैं उन्हें देखता हूँ और मन-ही-मन दोहराए जाता हूँ- क्या इमारत ग़मों ने ढाई है, क्या इमारत ग़मों ने ढाई है....

    स्रोत :
    • पुस्तक : अश्क 75 द्वितीय भाग (पृष्ठ 43)
    • रचनाकार : उपेन्द्रनाथ अश्क
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1986

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