Font by Mehr Nastaliq Web

सतपुड़ा के भीतर से

satapuDa ke bhitar se

गोविन्द मिश्र

गोविन्द मिश्र

सतपुड़ा के भीतर से

गोविन्द मिश्र

और अधिकगोविन्द मिश्र

    सतपुड़ा से मेरा परिचय तब हुआ था, जब मैं मुंबई से अपने उपन्यास को आगे बढ़ाने के ख़्याल से दसेक दिनों के लिए पचमढ़ी पहली बार गया। छोटी पहाड़ियाँ, छोटे कद के वृक्ष किंतु घने, हर्र-बघर्रा-आँवला की गंध से सराबोर जंगल। आगंतुक को, बशर्ते वह शहर की चीज़ें शहर में छोड़कर ख़ुद को खाली करके आए, अपने आगोश में ले लेने वाला, आत्मीयता की ऊष्मा से भर देने वाला... सतपुड़ा। ऐसा बँधा मैं कि पचमढ़ी बार-बार आने लगा। तब पचमढ़ी पर्यटकों के शोर से दूर थी। मैंने ग़ौर किया कि यहाँ आने के दूसरे दिन ही छोटे पेड़ों, छोटी पहाड़ियों, छोटे जंगलों के बीच घुमाते हुए सतपुड़ा आपको एक अजीब विस्मृति में ले जाता है- आप अपने परिवार में किसके क्या हैं, कहाँ क्या करते हैं... यहाँ तक कि किस साल के किस माह की कौन सी तारीख़ में हैं... सारे फालतू सवाल झर जाते हैं। हम काल के अनंत प्रवाह में (“कालोहि निरवधि:) विपुल पृथ्वी (“विपुला पृथ्वी”) पर तैरते एक बिंदु हैं: सतपुड़ा सत्य की यह प्रतीति कराता है जो हमें एक अनोखे उल्लास से भर देती है।

    तब से पचमढ़ी बीसों बार गया होऊँगा और हर बार दस-दस दिनों के लिए, अकेले। ‘तुम्हारी रोशनी में’ और बाद के सभी उपन्यासों की गुत्थियाँ यहीं सुलझी, उन्हें आकार यहीं प्राप्त हुआ। हर मौसम में आया। तपती गर्मी, जब दोपहर बग़ैर सिर पर कुछ लपेटे आप बाहर नहीं निकल सकते, लेकिन सुबह-शाम सुहावनी। सवेरे छोटे-छोटे रसगुल्लों की तरह घास पर बिखरे सफ़ेद महुवे...बीनो तो ऊपर से टप-टप चुएँ। पेड़ों के बीच ठहरी महुवों की सोंधी-सोंधी गंध। महुवे खाकर लंगूर ख़ूब ऊधम मचाते, नशेड़ियों की तरह हल्ला-गुल्ला करते, होली डे होम्स के छप्परों पर कूदते और खप्परों पर बड़े-बड़े छेद कर देते। बरसात हुई तो मटकुली के आगे जगह-जगह पोखर बने हुए, देनवा नदी के रपटे पर ऊपर से पानी बहता मिले तो लटक गए, आप इस किनारे। जब तक पानी रपटे से उतर नहीं जाता, इंतिज़ार करिए। पचमढ़ी पहुँचे तो छोटे-बड़े झरने बस्ती में धमनियों से फैले, पानी ही पानी, होली डे होम्स के खप्परों से पानी कमरे में, बाथरूम में चुए...‘क्या करें साब, इन नशैलची बंदरों ने कूद-कूद कर सुराख़ कर दिए।’ जाड़े में पचमढ़ी आइए तो क्या गुनगुनी धूप लेकिन रात-प्रात दो बजे क़रीब जाड़ा ऐसा सिर में चढ़े कि विरह से नहीं, ठंड से बाक़ी रात बीते...‘करवट बदल बदल कर’!

    एक बार भोपाल से रेलमार्ग द्वारा पिपरिया (रेलवे स्टेशन जहाँ से ऊपर पचमढ़ी जाते हैं) पहुँचा। मुश्किल से तीन-चार घंटे की यात्रा और आप रेल में बैठे-बैठे क्या क्या देख लेते हैं। विंध्याचल के भीतर से रेल जाती है, होशंगाबाद के पहले नर्मदा, इटारसी के बाद सतपुड़ा, बीच में बहती तवा (नर्मदा की सहायक नदी, जिसकी भी सहायक है देनवा) यानी देश के दो मुख्य पर्वत और दो बड़ी नदियाँ...सिर्फ़ चार घंटों में।

    पचमढ़ी फिर भी सतपुड़ा का नगरीय रूप है, सतपुड़ा की रानी ठहरी। मैं देखना चाहता था सतपुड़ा अपने अस्त-व्यस्त रूप में, भीतर से...। पर्यटक क्या, मानुसगंध से भी यथासंभव अछूता। सतपुड़ा जिस आत्मीयता से चिपकाता है... उसका उत्स कहाँ है।

    होशंगाबाद से पचमढ़ी के सड़क रास्ते कोई चालीस किलोमीटर दूर है सोहागपुर, वहाँ से दाएँ मुड़कर क़रीब बाइस किलोमीटर अंदर मड़ई जो इधर से सतपुड़ा के भीतर जाने का दरवाज़ा है एक तरह से। इस बार हमारी यात्रा मड़ई से भीतर-भीतर जंगल-जंगल होते हुए पचमढ़ी निकलने की थी। सोहागपुर से मुड़ते ही सतपुड़ा की बाहरी पहाड़ियाँ दिखाई देने लगती हैं। पहाड़ियों के ठीक नीचे देनवा नदी जिसे नाव से पारकर मड़ई गेस्ट हाउस में अब पहुँचे। अंग्रेज़ों के ज़माने के दो कमरों वाले इस गेस्ट हाउस में अब भी बिजली नहीं है, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए नहीं पहुँचाई गई। गेस्ट हाउस का उत्तारी हिस्सा गोलगुंबद जैसा हैं, काँच से ढका हुआ। एक ज़माने में गेस्ट हाउस के आस-पास शेर चीते जाते थे,ऊपर की काँच वाली खिड़कियों से उन्हें देखा जाता या शिकार किया जाता था। अब वह बात नहीं... इसलिए इत्मीनान से बाहर बैठा जा सकता है।

    हम चार थे- चंद्रा, पंडया, मोराब और मैं। सभी साठोत्तारी। सभी जंगल घूमने के शौक़ीन और ख़ूब घूमे हुए भी। चंद्रा फोटो आर्टिस्ट, नई से नई तकनीक वाला कैमरा रखने वाले, जितना शौक़ फ़ोटो खींचने का, उतना ही इसका कि उनके कैमरे के उपकरण दो-चार आस-पास के लोग संभालें, जब वे फोटो ले रहे हों। किशोर मोराब जवानी में संजीव कुमार लगते थे, अब चाँद पर हाथ फेरते हैं। शराब, टेनिस के साथ पूजा, योग, ध्यान और आध्यात्म को भी जीवन में गूंथे हैं। इस उम्र में संगीत सीखने संगीत सीखने संगीत विद्यालय जाते हैं। शरीर से हाथी पर भीतर पत्तो जैसे मुलायम। इतना धीमे बोलेंगे कि दूसरे के कानों को तकलीफ़ पहुँचे क़दम भरते हैं तो इस तरह कि पृथ्वी को कहीं चोट लगा बैठें। मिलने पर नमस्कार की जगह शुध्द संगीतमय- ‘भैया! जय रामजी की।’ पंडिया गोल-मटोल, फ़ुटबॉल। जीवन का सबसे बड़ा शौक़ खाना। यह पहला शख़्स मिला है जिसे खाने के पहले भी डकारें आती हैं। कहता है भूख की डकारें हैं।

    मड़ई पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो आया था। गेस्ट हाउस के बाहर हमने नशिस्त जमाई। पूर्णमासी के ठीक बाद वाला दिन था। पूरब की पहाड़ियों से चाँद निकलने को हुआ कि उजास देनवा के पानी में उतराने लगी, ऊपर से हम तक बड़े-बड़े पेड़ों से छनकर रही थी। हम उजास की सिहरन महसूस कर रहे थे कि दो छोटे हिरन कभी इसे, कभी उसे, अपने मुँह और सीगों से खुजला देते....आँखे निश्छल, मुहँ एकदम साफ़, धुला हुआ-सा। छोटे-छोटे सीगों से उनकी भाषा निकल रही थी। हमारी तरफ़ देखो। कभी खुजलाना, कभी कई बार खुजलाकर मनुहार करना और कभी सींग गड़ाकर ज़िद्द करना: खाने को दो, भूख लगी है। हम डरते थे, लेकिन वे हमारे शरीर पर सींग इस तरह फिराते थे कि चोट लगे...यहाँ तक कि खाने को मिलने पर नाराज़गी में जो वे सींगों को नीचे से थोड़ा गड़ाकर ऊपर को निकालते...वह भी इस सफ़ाई से कि खरोंच भी आए। हम इस बहस में उलझे थे कि जीवन में सबसे कीमती चीज़ क्या है- स्वास्थ्य, धन, प्रतिष्ठा या फिर प्रेम...और हिरन के वे बच्चे जैसे कहते होते, नहीं, नहीं...वह सब कुछ नहीं। महत्वपूर्ण है आज, यह वक़्त, इसमें हमारा होना, जीवित होना। सतपुड़ा के नीचे चाँद तले देनवा के किनारे...जो भी होने की प्रतीति दे वह सब महत्वपूर्ण है। मड़ई से राष्ट्रीय उद्यान लग जाता है। भीतर शेर, चीते हैं। कम हिरन होते होंगे जो स्वाभाविक मृत्यु पाते हों, आज नहीं कल उन्हें शेर का भोजन बनना ही है। दरम्यान जो है, वही है यह फुदकना, खाने के लिए वह मचलना, बीच-बीच में प्यार-मोहब्बत भी। कुदरत ने जो निर्धारित किया, उस रास्ते चलना। आदमी की ज़िंदगी भी कुल मिलाकर फ़र्क कहाँ...पर वह सोच-सोचकर गर्क कर डालता है जैसे हम यहाँ बहस कर रहे थे। अरे पिओ...इस फ़िज़ाँ को पिओ...यही महत्वपूर्ण है।

    सुबह उन दो हिरनों की खाने की तलाश फिर शुरू हो गई थी। लगता था वे गेस्ट हाउस के आसपास ही रहते हैं। यों भी हिरनियों के छोटे शावकों को वन के जंगली जानवरों से सुरक्षा रहती है। शावक शुरू-शुरू में तेज़ भागकर अपनी सुरक्षा नहीं कर पाते। फिर उन्हीं में से कुछ यहीं रहे आते हैं।

    रास्ते के लिए पानी, खाना ले हम मड़ई से निकल पड़े। पचमढ़ी तक का यह रास्ता कोई सत्तार किलोमीटर का था। जहाँ वह सतपुड़ा की श्रेणियों के बीच से निकलता वहाँ रास्ता मुरम के जैसा दिखता, जहाँ किसी श्रेणी के पहाड़ के ऊपर से जाता वहाँ गायब हो जाता था। जीप जहाँ से जाती वह जगह चिकनी, सँकरी होती, खासा ख़तरनाक। जीप ज़रा इधर-उधर हुई कि नीचे खाई में लुढ़क सकती थी। फ़ोर व्हील ड्राइव और अनुभवी ड्राइवर मुकेश, ये ही हमारी सुरक्षा थे। रास्ते में हिरन-चीतल, एक जगह काला हिरन भी, जंगली भैंसे, जिनकी यहाँ की विशेष प्रजाति को ग़ौर कहते हैं, को अगल-बगल देखते हुए हम आगे बढ़े। ग़ौर की टाँगों का निचला हिस्सा जैसे सफ़ेद मोज़े पहन रखे हों, सींग नीचे रक्तिम, ऊपर काले। लगड़ा फ़ॉरेस्ट कैम्प के आगे सोनभद्र नदी मिली। यह सतपुड़ा के भीतर-भीतर बोरी की तरफ़ से इधर आती है। एक तरफ़ पहाड़ी पर गहरे सरोवर-सी टिकी, दूसरी तरफ़ बरसाती पतले-पतले झरनों सी कल कल आगे बहती...। बीच में जीप भर निकलने की जगह। वहाँ एक-एक बीत्ता पानी। नीचे रेत, ऊपर जमाए गए बाँसों के गट्ठर पर रपटा जैसा बनाया गया था। सरोवर वाले हिस्से में कहीं-कहीं मुँह पानी के ऊपर उठाए घड़याल दिखते। झरने वाले हिस्से में नहाने का लुत्फ़ उठाया जा सकता था लेकिन घड़याल भले ही दूसरे हिस्से में हों, पर वे बहुत पास थे, ख़तरा नहीं उठाया जा सकता था।

    सोनभद्र को पीछे छोड़ ऊपर पहाड़ी पर चढ़े तो एक जगह लंगूरों की संसद लगी हुई थी। एक ऊँची-सी चट्टान पर एक बड़ा लंगूर स्पीकर-सा बैठा था। सामने क़रीब-क़रीब आयताकार लाइनों में बैठे ढेर लंगूर, सब सामने वाले बड़े लंगूर की तरफ़ मुख़ातिब, सबके चेहरे गंभीर। हमारी संसद में जो हो-हल्ला, शोर शराबा, कभी-कभी बाहुबल का प्रदर्शन भी देखने को मिलता है, उसके मुक़ाबले यह सभा कितनी सुसभ्य और शालीन, बंदरों के स्वभाव के विपरीत जबकि संसद का मनुष्य स्वयं को चिंतलशील प्राणी कहता है। सांसद है, तो हमारा भाग्यविधाता, भले वह चिंतन सिर्फ़ अपने भाग्य का करता हो।

    उस पहाड़ी के दूसरी तरफ़ नीचे जैसे ही हम उतरे, तो एक मोड़ पर हमारे ड्राइवर ने हुलफुलाकर कहा- ‘टाइगर’ और जीप थोड़ा तेज़ कर दी। वह शेरनी थी, मोड़ के बगल वाले बड़े टीले के नीचे-नीचे चलने लगी। फिर बाएँ मुड़कर ठीक हमारे सामने गयी, जीप वाले कच्चे रास्ते पर। वह आगे-आगे, जीप पीछे-पीछे। उस तरह चलते हुए उसका पीछे का हिस्सा भर दिखता था-साधारण कद के एक जानवर जैसा ही। चार-पाँच मिनट गुज़र गए, मुकेश बीस-पचीस गज की दूरी पर जीप रखे था। थोड़ी देर में शेरनी पलटी और हमारी तरफ़ यों देखा, जैसे हम माटी के ढेले हों। उसकी एक उपेक्षा भरी निगाह, इधर हमारी धौंकनी चलने लगी। जीप जल्दी से पीछे नहीं हो सकती थी, आगे जा नहीं सकते थे, एक छलांग में वह जीप पर हो सकती थी। हम वहीं रूक गए, जीप स्टार्ट रखी। शेरनी के हमारी तरफ़ रुख़ करने के दौरान दिखाई दिया उसके शरीर का विस्तार: साफ़, उजला, फैला और सुता हुआ...। कहीं से एक भी ऐसी चीज़ नहीं जो भव्य से नीचे हो, उसके हमारी तरफ़ देखने का अंदाज़ भी।

    कि वह फिर अपने रास्ते चल दी। वह आगे-आगे, हम पीछे-पीछे। एक मिनट के बाद उसने बाईं तरफ़ की एक चट्टान पर पेशाब की एक पिचकारी छोड़ी और कच्चा रास्ता छोड़ दाईं तरफ़ की चट्टानों पर चली गयी। इस तरह शेर के उस तक पहुँचने के लिए उसने अपने निशान छोड़े थे। रास्ते से हमने उसे फिर भरपूर देखा। फैला चुस्त शरीर...वन की ताज़गी और ऊर्जा से भरा हुआ। हम मुग्ध देखे जा रहे थे कि वह चट्टान से नीचे उतर ओझल हो गई।

    किशोर मुराब के पास शेरों के इस तरह प्राकृतिक अवस्था में दिखने के ढेरों किस्से हैं क्योंकि वे तब से यहाँ हैं जब जहाँ आज नया भोपाल है वहाँ भी जंगल होता था, पहाड़ियाँ हरी-भरी थीं...लेकिन मैंने तो शेर इस अवस्था में सिर्फ़ रणथम्भौर अभयारण्य में देखा था। वह भी शेरनी थी, वन के दोनों रास्तें जीपें थम गयी थीं। जब रानी साहिबा की सवारी बीच रास्ते से इधर से उधर हुई, एक झलक। यहाँ तो हमारे अलावा कोई नहीं और हमें पूरे सात आठ मिनट दर्शन होते रहे। शेर को यों देखना कितनी बड़ी ख़ुशनसीबी है क्योंकि आधुनिक आदमी की व्यापार-बुद्धि के चलते हिंदुस्तान में शेर अब 1800 के क़रीब ही बचे हैं। उनमें से एक को देख रहे थे हम!

    ड्राइवर मुकेश वायरलैस पर इधर-उधर ख़बर दे रहा था। शेरनी, जमुनानाला के पास। उसने आगे, मरका नाला कैंप पर जीप रोकी। यहाँ वन विभाग के दो हाथी थे। अब शायद उस शेरनी को एक जगह हाथियों की उपस्थिति से छेंककर रखने का कार्यक्रम बने लेकिन यहाँ कहाँ किसी पर्यटक को दिखाना है। कभी-कभी शेर-शेरनी के समीप लाने के लिए भी छेंकना होता है। शेरों की संख्या बढ़ाने के प्रयास चल रहे हैं।

    आगे जीप एक जगह पत्थर के टुकड़ों वाले रपटे से गुज़री, रपटे के ऊपर झरने सा बहता पानी...इतना साफ़ कि एक-एक पत्थर दिखता था। हम ठीक से देख भी पाए कि मुकेश जीप को दूसरी तरफ़ निकाल ले गया। नहाने की मंशा उसे बता चुके थे, फिर भी। मेरी तबीयत छूटी हुई जगह में अटक कर रह गयी थी।

    यह कोई नाला नहीं, नागद्वारी नदी थी, पतली, छोटी-सी। मुकेश हमें थोड़ा घूम कर वहाँ ले आया जो उसके हिसाब से हमारे नहाने के लिए ज़्यादा उपयुक्त जगह थी। पानी यहाँ बंधा था, सीमेंट की एक दीवार जैसी उठी थी। मुझे वह जगह नहीं जमी, वापस रपटे की तरफ़ लौटे। जिधर जीप खड़ी हुई, उस तरफ़ नदी का बहाव तेज़ था। किनारे पर ऊँची-ऊँची घास भी थी। उधर के किनारे पर थोड़ी रेत और चट्टानें थी। नहाने के लिए वह किनारा उपयुक्त था। बहती नदी...मेरा मन तत्काल पानी को छू लेने के लिए उछलने लगता है। अगर पानी ज़्यादा हो, छुलछुल बहता हो तो फट से नदी में घुस जाने को इच्छा होने लगती है। शायद बचपन में बाँदा की केन नदी के ऐसे ही घाट थे, जिसे छुलछुलिया घाट कहते थे,जहाँ मैं दिनों-दिन, महीनों, सालों नहाया होऊँगा। वहाँ की याद है जो सोयी हुई भीतर बैठी रहती है। ऐसी जगहें देखकर कुनमुनाने लगती है। तो मैने आव देखा ताव, अपना बैग कंधे पर लटाका, जूते उतार, पैंट घुटनों तक मोड़, रपटे से उस पार जाने के लिए बहाव में उतर गया। रपटे पर पानी तो एक बीत्ता से ज़्यादा नहीं था पर बहाव में तेज़ी थी। पानी के नीचे पत्थरों के छोटे-बड़े टुकड़े, काई लगे। फिसलकर गिरने की पूरी संभावना, पर मैं बिना सोचे समझे जो चल देता हूँ। इसके पीछे भी मेरे भीतर बैठी बचपन की एक ग्रंथि है। अतर्रा में...मैं कुछ ही सालों का रहा होऊँगा। एक गली में एक मधुमक्खी भिनभिनाती हुई मेरे ऊपर उड़ती, मुझे काटने की धमकी देती रही थी। मैं हाथों के झटकों से उसे परे करने की कोशिश करता, वह उड़ जाती पर फिर जाती। कभी जाकर छत्तो में छिप जाती। मैं भनभनाता हुआ घर गया, एक लट्ठ लेकर आया और धच्च से छत्तो पर मारा। मधुमक्खियाँ गुस्सा होकर मुझ पर पिल पड़ीं। मेरे पूरे सिर को चींथ डाला। मैं बुखार में पड़ गया। उन्हीं दिनों मधुमक्खियों के काटे एक बच्चे की मृत्यु हुई थी लेकिन मैं बच गया।

    तब मैं ख़ूब संभल-संभलकर पैर जमाते हुए चल रहा था, पर कई जगह फिसलते-फिसलते बचा। आश्वस्ति यही थी कि गिरूँगा तो पानी पर ही। जो नहीं सोच सका वह यह कि पानी के नीचे पत्थर हैं, चोट तो उनकी लगेगी, वह भी ढलती उम्र की हड्डियों पर। पानी कितना बचाएगा?

    मारने वाले और बचाने वाले अक्सर एक ही जगह मौजूद होते हैं। आपकी नियति कि किसका पलड़ा भारी पड़े। मेरे अपने लिए हमेशा बचाने वालों का पलड़ा भारी बैठा है और मैं हूँ कि अक्सर श्रेय ख़ुद को देने बैठ जाता हूँ जैसे कि तब बिना गिरे उस पार पहुँचकर हल्का गर्व महसूस कर रहा था कि मैं अब भी स्वयं को संतुलित रख सकता हूँ, एक वज़नी बैग कंधे पर लटका कर, बहते पानी और काई लगे पत्थरों पर चलते हुए भी।

    मेरे दूसरे साथियों ने मूर्खता नहीं की क्योंकि वे कुछ करने के पहले सोचते थे। मुकेश उन्हें एक-एक करके उसी तरफ़ की एक सुरक्षित जगह से नदी के उथले पानी में उतार इस तरफ़ ले आया, चिकने रपटे से बचाकर।

    हम दो घंटे नहाए, रपटे के नीचे जहाँ पानी पतली, मोटी, छोटी-छोटी धारों में गिरता था। धारों के नीचे सिर रखकर। पानी की पड़-पड़, पड़-पड़ खोपड़े पर...। पानी के साथ रेत और छोटे-छोटे पत्थरों पर कुछ दूर तक बहना, फिर लौटना। बाहर-भीतर सिर्फ़ नागद्वारी...। दूसरी कोई आवाज़ नहीं, सिर्फ़ नागद्वारी के बहने की तरह-तरह की आवाज़। हम नागद्वारीमय हो गए थे। नदी में ही घुसे-घुसे खाया-पिया।

    चले तब तक धूप तेज़ हो गयी थी। रास्ता घाटी से होकर पहाड़ी पर से था... इसलिए तपती चट्टानों की भी गर्मी। नीमधान कैंप पहुँचे तो दरख़्तों की छाँव में सोने का मन होने लगा लेकिन आगे चलते गए।

    उतार आया तो गर्मी से थोड़ी राहत मिली। शेरनाला रपटा...पानी पेड़ों से क़रीब-क़रीब ढका हुआ। एक ऐसा बरगद का पेड़ जिसकी जड़ें एक विशाल शिला पर चिपकी हुईं थीं जैसे जिस्म के भीतर नसें। मुरम का वह रास्ता पनारपानी पहुँचकर पचमढ़ी वाली पक्की सड़क से मिला। पनारपानी में नदी में होने वाले पौधों की नर्सरी है। यह पचमढ़ी के महादेव की तरफ़ वाला इलाका था। हमें ठहरना भी इसी तरफ था।

    ज्यों ही पचमढ़ी की मुख्य सड़क पर आए तो चारों तरफ़ रंग ही रंग। पीला, गुलाबी, लाल, हल्का बादामी, हरा-नीला ... कौन रंग जो नहीं थे। ये रंग फूलों के नहीं, नए आते पत्तों के थे। विभिन्न अवस्थाओं में पत्तो, कोई अभी फूटे, कोई चार दिन के... नहीं नए, पुराने। ताज्जुब कि जंगल के बीच से आते हुए हमें अलग-थलग ऐसे कुछ पेड़ तो दिखे थे जो पूरे के पूरे लाल थे- लेकिन यहाँ चूंकि पहाड़ियों पर पेड़ घने और अलग-अलग प्रजाति के थे तो जैसे तरह-तरह के रंग, इकट्ठे एक ही पहाड़ी पर उछले थे। अपराह्न में भी कैसा अद्भुत दृश्य। एक इस नज़ारे के लिए ही आती गर्मियों के दिनों पचमढ़ी आया जा सकता है...। जब नीचे मैदान में पचमढ़ी की चढ़ाई शुरू होने के पहले तक भी पेड़ उजाड़, सूने, सूखे और उबास छोड़ते होते हैं। पचमढ़ी पहुँचते ही नए-नए किसलयों के, रंगों से भरे मिलते हैं...चहचहाते पत्तो लिए, खिलखिलाते।

    गेस्ट हाउस की चढ़ाई के बाईं ओर वह कच्चा चबूतरा जहाँ जब मैं पहली बार पचमढ़ी आया था तो शहर से पैदल महादेव तक आए थे, ट्रैकिंग करते कोई पंद्रह किलोमीटर। तब इसी चबूतरे पर अड्डा जमाया था, आसपास से कंडे बीनकर यहाँ बाटी बनी थीं, घी गुड़ मिलाकर बाटी के लव भी। हमारा लीडर...इत्तिफ़ाक़ से उसका नाम भी महादेव था, केंद्रीय विद्यालय का एक साधारण कर्मचारी। वह और तब की पचमढ़ी के कितने लोग दुनिया से चले गए, मैं पीछे छूट गया...पचमढ़ी के रंगों को देखता फिर रहा हूँ। पचमढ़ी में हर बार कुछ नया झलक जाता है जिससे चिपकता हूँ।

    पर महादेव की याद रही है...। कितना स्वार्थ-विहीन, दूसरों के लिए कुछ भी करने को तत्पर। बुंदेली कवि इसुरी की पंक्तियाँ, जो मेरे चलते रहने और महादेव के चले जाने...दोनों को मिलाकर जीवन का रहस्य देखती है- याद आती हैं-

    “ऐंगर (पास) बैठ जाओ, कछु कानै (कहना है)

    काम जनम भर रानै (रहेगा)

    इत (यहाँ) की बात इतईं (यही) रै (रह) जैहै (जायेगी)

    कैबै (कहने को) खां रै (रह) जैहै (जाएगी)

    ऐसे हते (थे) फलाने (वे)”

    जैसे सतपुड़ा कह रहा था, ‘ऐंगर, पास बैठ जाओ’ यहाँ छुटपुट दुकानों की कतारें उग आई थीं, पर्यटकों के लिए, वे अब हटा दी गयी हैं। यह वन विभाग की ज़मीन है। यह सही है कि गंदगी फैलती है, पर्यावरण प्रदूषित होता है लेकिन उन छोटे-छोटे दुकानदारों की जीविका का साधन भी तो यही है। दूसरी तरफ़ देखो तो जो पचमढ़ी आज तक साफ़- सुथरी है, बची हुई है तो इस वजह से कि नगर का प्रशासन फ़ौज के पास है। भोपाल के नेता-अफ़सर पचमढ़ी को सेना से छीनने के चक्कर में हैं ताकि उसे पर्यटन के लिए विकसित कर सकें, पैसे कमा सकें। जहाँ वे कामयाब हुए कि पचमढ़ी का कबाड़ा हुआ। वनों की रक्षा के लिए सरकारें पोस्टरें तो ख़ूब चिपकाती है लेकिन पर्यटन के नाम पर उनका सत्यानाश करने की पहल भी सरकारें ही करती हैं।

    शाम वन विभाग के गेस्ट हाउस के बरामदे में। ठीक सामने चौरागढ़ का मंदिर। मंदिर भी शिवलिंग के आकार का है। देर रात तक वहाँ की हल्की टिमटिमाती रोशनी हम तक आती रही। किशोर भाई ने गाने गाए, पंडया हमारी तरफ़ पीठ करके साफ़ आसमान में चाँद देखता रहा, जवानी के दिनों को पकड़ने की कोशिश कर रहा था...। वे दिन जब खाना नहीं ‘चाह’ बरबाद करती थी। वे दिन कब के गए पर जैसे आज भी पीठ पर चिपके हैं। सवेरे जब मैं बिस्तर से उठा तो किशोर भाई पहले ही नहा धोकर, बरामदे में बैठकर पाठ कर रहे थे। पाठ की पुस्तक जैसे ही बंद की कि गुनगुनाने लगे, ‘मैं चोर हूँ काम है चोरी, दुनिया में हूँ बदनाम...हाय हाय!

    जैसे मुझमें...वैसे किशोर में भी सतपुड़ा नई ऊर्जा भर रहा था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी समय
    • रचनाकार : गोविंद मिश्र
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए