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साहिर लुधियानवी

sahir ludhiyanwi

देवेन्द्र सत्यार्थी

देवेन्द्र सत्यार्थी

साहिर लुधियानवी

देवेन्द्र सत्यार्थी

और अधिकदेवेन्द्र सत्यार्थी

    मुझे अच्छी तरह याद है। उस रोज़ दिन भर बारिश होती रही। शाम के वक़्त बूँदें ज़रा थम गई थीं, लेकिन प्रकाश पर अभी तक बादल छाए थे। ऐसा लगता था कि अभी भी मेंह फिर बरसने लगेगा। मैं और गोपाल मित्तल ‘मकतबा-उर्दू’ से ब्रांडर्थ रोड की तरफ़ जा रहे थे। अनारकली के चौक पर किसी ने मित्तल का नाम लेकर आवाज़ दी। हमने मुड़ कर देखा, बाएँ हाथ, मुल्लाँ हुसैन हलवाई की दुकान के सामने, एक सिक्ख युवक हमें बुला रहा था। यह युवक राजेंद्र सिंह बेदी था, जिसे मैं एक बार पहले ‘हलक़ा-ए-अरबाब-ए-ज़ौक़’1 की मीटिंग में देख चुका था। उसके साथ एक और व्यक्ति था—लंबे-लंबे बाल, लंबी और घनी दाढ़ी, मैला और लंबी—ओवर कोट!

    “आओ, तुम्हें एक बहुत बड़े फ्रॉड से मिलाएँ।” गोपाल मित्तल ने कहा।

    “किससे?” मैंने पूछा।

    “देवेंद्र सत्यार्थी से।” उसने जवाब दिया।

    देवेंद्र सत्यार्थी उस वक़्त गाजर का हलवा खाने में तल्लीन था, इसलिए जब गोपाल मित्तल ने मेरा परिचय कराया तो उसने विशेष ध्यान न दिया।

    मैं उन दिनों दयाल सिंह कॉलेज, लाहौर में बी० ए० का विद्यार्थी और नया नया लुधियाना से लाहौर आया था। अदीबों से मेरा परिचय कम ही था।

    सत्यार्थी ने हलवे की प्लेट ख़त्म करने के बाद बेदी की तरफ़ देखा और कहा, “बड़ी मज़ेदार चीज़ है दोस्त! एक प्लेट और नहीं ले दोगे?” 

    बेदी उस वक़्त गोपाल मित्तल से किसी साहित्यिक विषय पर बातें कर रहा था।

    “ले लो।” उसने जल्दी से कहा।

    “लेकिन कैसे?” सत्यार्थी बोला, “तुम पैसे दो तब न!”

    “ओह!” बेदी ने ज़रा चौंकते हुए कहा और हलवाई को पैसे अदा करके हलवे की दूसरी प्लेट देवेंद्र सत्यार्थी के हाथ में थमा दी।

    सत्यार्थी फिर हलवा खाने में निमग्न हो गया।

    बेदी और मित्तल बातें करने लगे।

    मैं ख़ामोश एक तरफ़ खड़ा रहा।

    हलवे की दूसरी प्लेट ख़त्म करने के बाद सत्यार्थी ने अपनी जेब से एक मैला ख़ाकी रूमाल निकाल कर हाथ पोंछे। पास पड़ी हुई टीन की कुर्सी पर से अपना कैमरा और चमड़े का थैला उठाया और गोपाल मित्तल की तरफ़ बढ़ते हुए बोला, “यार मित्तल, एक ख़ुशख़बरी सुनोगे?”

    “क्या?” उसने कहा।

    “मैं प्रगतिशील हो गया हूँ।”

    “कब से?” गोपाल मित्तल ने मुस्कुराते हुए पूछा।

    “था तो शुरू ही से। लेकिन यह कहानी जो मैंने अभी-अभी लिखी है, इसके बाद तो सौ प्रतिशत हो गया हूँ।”

    “हूँ! तो गोया तुमने फिर एक कहानी लिखी है?”

    “लेकिन इस कहानी और मेरी पिछली कहानियों में फ़र्क है। यह कहानी मैंने विशुद्ध प्रगतिशीलता के सिद्धांतों को सामने रख कर लिखी है।” सत्यार्थी ने कहा और फिर बेदी की ओर हाथ बढ़ाते हुए बोला, 

    “अच्छा तो यार बेदी! अब तुम चलो, मैं ज़रा गोपाल मित्तल को कहानी सुना लूँ।”

    “और बेदी को क्यों नहीं?” गोपाल मित्तल ने बड़ी बेबसी के साथ बेदी की ओर देखते हुए कहा।

    “मैं यह कहानी दो बार सुन चुका हूँ।” बेदी मुस्कुराया, “इसके अलावा मुझे अभी भी रेडियो स्टेशन पहुँचना है। शाम की ख़बरों के बाद मेरी टॉक है।”

    “हाँ हाँ, आप जाइए।” सत्यार्थी ने बेदी को विदा करते हुए कहा।

    बेदी चला गया।

    मैं और गोपाल मित्तल एक दूसरे की ओर देखने लगे। सत्यार्थी ने अपने चमड़े के थैले में से काग़ज़ों का एक पुलिंदा निकाला और पन्ने उलटते हुए बोला :

    “तो फ़िर (यानी फिर) कहाँ बैठें?”

    “अब तुम आप ही बताओ।”

    “मेरा ख़याल है, सामने के लॉन में ठीक रहेगा।”

    “लेकिन लॉन में तो बारिश की वजह से पानी जमा हो गया है।”

    “ओह मुझे ख़याल ही नहीं रहा। तो फिर तुम यूँ करो, थोड़ी दूर मेरे साथ चलो। यहाँ से एक फ़र्लांग के फ़ासिले पर शीतला मंदिर है। वहाँ इत्मिनान से बैठ सकेंगे।”

    शीतला मंदिर का फ़र्श यात्रियों के आने-जाने से कीचड़ में लथपथ हो रहा था और उस कीचड़ में बड़े-बड़े कीड़े-मकौड़े कुलबुला रहे थे। मित्तल ने देवेंद्र सत्यार्थी की तरफ़ घूर कर देखा और पूछा, “तुम कहानी ज़रूर सुनाओगे?”

    “हाँ दोस्त! तुम नहीं सुनोगे तो मुझे बड़ा दुख होगा।” सत्यार्थी ने अनुनय के स्वर में कहा, “मैं तुम्हारी राय लेना चाहता हूँ।”

    “अच्छा तो एक मिनट इंतिज़ार करो।” मित्तल बोला और मंदिर से “बाहर निकल गया।

    थोड़ी देर के बाद एक ताँगा मंदिर के दरवाज़े के बाहर आ कर रुका और गोपाल मित्तल उस ताँगे में से गर्दन निकाल कर हमें पुकारा। हम दोनों जा कर ताँगे में बैठ गए। ताँगा चलने लगा। रास्ते भर गोपाल मित्तल ने कोई बात नहीं की। सत्यार्थी भी ख़ामोश बैठा रहा। ताँगा इंडिया कॉफ़ी हाउस के सामने जा कर रुक गया।

    “चलो।” गोपाल मित्तल ने सत्यार्थी से कहा। 

    “कहाँ? कॉफ़ी हाउस में?” सत्यार्थी का चेहरा जैसे एकदम खिल उठा।

    “हाँ...चलो उतरो!”

    “यार मित्तल, तुम सचमुच कम्युनिस्ट हो। अब तो मुझे यक़ीन हो गया है कि सोवियत रूस में लेखकों और कलाकारों का ख़ास ख़याल रखा जाता होगा।”

    सत्यार्थी फिर मुस्कुराया और कॉफ़ी हाउस की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मसौदे के पन्ने उलटने लगा।

    यह मेरी उससे पहली मुलाक़ात थी।

    इसके बाद वह मुझे कई बार मिला। कभी किसी जनरल मर्चेंट की दुकान के सामने, कभी किसी डाकख़ाने के गेट पर, कभी किसी किताबों की दुकान में, कभी मैक्लोड रोड और निस्बत रोड के चायख़ानों में और कभी यूँही राह चलते।

    हर बार वह मेरे निकट कर मुझसे पूछता, “कहिए, आपका मिज़ाज कैसा है? इस वक़्त किधर से आ रहे थे? कहाँ जाइएगा? आपने कोई नई नज़्म लिखी?”...और जब मैं चलने लगता तो वह मुझे रोक कर कहता, “माफ़ कीजिए, मुझे आपका नाम याद नहीं रहा।”

    मैं उसे फिर से अपना नाम बता देता।

    “हाँ, हाँ, हाँ।” वह कहता और फिर झूमता हुआ एक तरफ़ को चला जाता। इसी तरह कोई दो महीने गुज़र गए। आहिस्ता-आहिस्ता मुझे यक़ीन होने लगा कि यह व्यक्ति कभी मुझसे कोई नया सवाल नहीं पूछेगा औ कभी इसको मेरा नाम याद नहीं होगा।

    एक शाम मैं अपने एक दोस्त के साथ निस्बत रोड गुज़र रहा था कि से सामने से सत्यार्थी आता हुआ दिखाई दिया।

    “हलो, हलो, आपका मिज़ाज कैसा है?” उसने पूछा।

    “आपकी मेहरबानी है,” मैंने जवाब दिया, “इस वक़्त मैं लॉ कॉलेज होस्टल से आ रहा हूँ। ये मेरे दोस्त राम प्रकाश हैं। हम दोनों सिनेमा देखने जा रहे हैं। मैंने कोई नर्इ नज़्म नहीं लिखी, मेरा नाम साहिर लुधियानवी है। कहिए, आप सिनेमा देखने चलेंगे?”

    “नहीं!” सत्यार्थी ने जवाब दिया। उसके स्वर की नर्मी और उपेक्षा पहले ही जैसी थी। मैंने देखा, उसका चेहरा एकदम उदास हो गया था। मुझे अपने बात करने के अंदाज़ पर खेद होने लगा, प्रतिशोध की भावना के बावजूद, जो अपनी लगातार उपेक्षा किए जाने के कारण मेरे दिल में पैदा हो गर्इ थी, मैं सत्यार्थी की इज़्ज़त करता था, क्योंकि ‘वह मैं हूँ ख़ानाबदोश’ का लेखक था और उसने गाँव-गाँव घूम कर भारत की विभिन्न भाषाओं के अढ़ाई लाख से ज़्यादा गीत इकट्ठा किए थे, जिन से मैंने भारत की सभ्यता, कला और संस्कृति के बारे में बहुत कुछ सीखा था। मैंने निश्चय किया कि मुझे उससे माफ़ी माँग लेनी चाहिए।

    लेकिन वह उस वक़्त जा चुका था।

    फिर बहुत दिनों तक मेरी और उसकी भेट नहीं हुई। इसके बाद जब वह मुझे लाहौर के एक प्रसिद्ध उर्दू प्रकाशक की दुकान पर मिला तो उसे मेरा नाम याद था।

    सत्यार्थी प्रकाशक की दुकान पर उससे माफ़ी माँगने के लिए आया था। कुछ दिन पहले उसने ‘अगले तूफ़ान-ए-नूह तक’ के शीर्षक से उर्दू की साहित्यिक संस्था ‘हलक़ा-ए-अरबाब-ए-ज़ौक़’ की साप्ताहिक गोष्ठी में उस प्रकाशक के ख़िलाफ़ एक कहानी पढ़ी थी, जिस पर प्रकाशक बेहद ख़फ़ा था। लेकिन जब सत्यार्थी ने उसे बताया कि यह कहानी वह उसकी पत्रिका में बिना पारिश्रमिक के देने को तैयार है तो प्रकाशक ने उसे माफ़ कर दिया और उसे अपने साथ निज़ाम होटल में चाय पिलाने ले गया। मैं और फ़िक्र तौंसवी भी साथ थे। रास्ते में देवेंद्र सत्यार्थी प्रकाशक के कंधे पर हाथ रख कर चलने लगा और बोला, “चौधरी! तुम्हारी पत्रिका उस जिन्न पेट की तरह है, जो एक बस्ती में घुस आया था और उस वक़्त तक बस्ती से बाहर जाने पर राज़ी नहीं हुआ था, जब तक वहाँ के लोगों ने उसे यह यक़ीन नहीं दिला दिया कि वो हर रोज़ गुफ़ा में एक आदमी भेंट के तौर पर भेजते रहेंगे।...तुम भी वैसे ही एक जिन्न हो और तुम्हारी पत्रिका तुम्हारा पेट है। हम बेचारे अदीब और शायर हर महीने उसके लिए खाना जुटाते हैं, लेकिन उसकी भूख मिटने में नहीं आती...और यह फ़िक्र तौंसवी,” उसने फ़िक्र की तरफ़ मुड़ते हुए कहा, “यह तुम्हारा गुमाशता है, जो हर वक़्त हमें धमकाता रहता है कि अगर जिन्न का राशन पहुँचाने में देर हुई तो जिन्न तुम्हारी किताबें, तुम्हारे मसौदे, तुम्हारी रायल्टी सब खा जाएगा, कुछ बाक़ी नहीं छोड़ेगा।”

    प्रकाशक चुपचाप सुनता रहा।

    “अब मुझी को देखो।” सत्यार्थी फिर बोला, “मैंने तुम्हारे ख़फ़ा होने के डर से तुम्हें मुफ़्त कहानी देना मंज़ूर कर लिया। लेकिन तुम ही बताओ, क्या मेरा जी नहीं चाहता कि मैं साफ़ और सुथरे कपड़े पहनूँ, मेरे जूते तुम्हारे जूतों की तरह क़ीमती और चमकीले हों। मेरी बीवी अपने जिस्म पर रेशमी साड़ी पहने और मेरी बच्ची तुम्हारी बच्ची की तरह ताँगे में स्कूल जाए। लेकिन कोई मेरी भावनाओं का ख़याल नहीं करता, कोई मुझे मेरी कहानी का मेहनताना बीस रुपए से ज़्यादा नहीं देता और तुम हो कि वो बीस रुपए भी हज़म कर जाते हो। ख़ैर तुम्हारी मर्ज़ी। चाय पिलाए देते हो, यही बहुत है।”

    प्रकाशक फिर भी चुपचाप सुनता रहा।

    हम लोग होटल के गेट में दाख़िल हो गए। सत्यार्थी ने प्रकाशक के कंधे से हाथ उठा लिया और अलग कर चलने लगा।

    मैं उसी रोज़ शाम की गाड़ी से लायलपुर जा रहा था। होटल में पहुँच कर प्रकाशक ने मुझसे पूछा, “आप वापस कब आएँगे?” 

    “दो-तीन रोज़ में।” मैंने जवाब दिया।

    “तुम कहीं बाहर जा रहे हो?” सत्यार्थी ने पूछा।

    “हाँ, दो-एक रोज़ के लिए लायलपुर जा रहा हूँ।” मैंने कहा।

    “लायलपुर?” वह बोला। और फिर न जाने किस सोच में डूब गया। फिर थोड़ी देर के बाद उसने पूछा, “अगर मैं तुम्हें अपना कैमरा दे दूँ तो क्या तुम मेरे लिए किसानों के झूमर नाच की तस्वीर उतार लाओगे?”

    “मेरे लिए तो यह बहुत मुश्किल है।” मैंने कहा, “तुम ख़ुद क्यों नहीं चलते?”

    “मैं?... मेरा जी तो बहुत चाहता है।” वह बोला, “लेकिन...” वह एक मिनट रुका और फिर थैले से काग़ज़ों का एक पुलिंदा निकाल कर प्रकाशक से बोला, “चौधरी! यह मेरी नई कहानी है, अगर तुम इसके बदले में मुझे बीस रुपए दे दो तो... ”

    प्रकाशक ने कहानी ले कर जेब में रख ली और बोला, “आप साहिर से क़र्ज़ ले लीजिए। जब आप लोग लौटेंगे तो मैं उन्हें रुपए दे दूँगा।”

    “तुम अपनी कहानी वापस ले लो।” मैंने सत्यार्थी से कहा, “आज-कल मेरे पास रुपए हैं।” 

    लेकिन प्रकाशक ने कहानी वापस नहीं की। सत्यार्थी चुपचाप मेरे साथ चल पड़ा। रास्ते में मैंने उससे कहा, “तुम जल्दी से घर जा कर बतलाते आओ। अभी गाड़ी छूटने में काफ़ी वक़्त है।”

    “नहीं, इसकी कोई ज़रूरत नहीं।” वह बोला, “मेरी बीवी मेरी आदत जानती है। अगर मैं दो-चार दिन के लिए घर से ग़ायब हो जाऊँ तो उसे उलझन या परेशानी नहीं होती।”

    “तुम्हारी मर्ज़ी।” मैंने कहा और उसको साथ ले कर चल पड़ा।

    गाड़ी मुसाफ़िरों से खचाखच भरी हुई थी और कहीं तिल धरने की जगह नहीं थी। बहुत से लोग बाहर पायदानों पर लटक रहे थे और वे लोग, जिन्हें पायदानों पर भी जगह नहीं मिली थी, गाड़ी की छत पर चढ़ने का प्रयास कर रहे थे। सिर्फ़ फ़ौज़ी डिब्बों में जगह थी, लेकिन उनमें ग़ैर-फ़ौजी सवार नहीं हो सकते थे।

    “अब क्या किया जाए?” मैंने सत्यार्थी से पूछा।

    “ठहरो, मैं किसी सिपाही से बात करता हूँ।” वह बोला।

    कुछ फ़ायदा नहीं,” मैंने कहा, “वो जगह नहीं देंगे।”

    “तुम आओ तो सही।” वह मुझे बाज़ू से घसीटते हुए बोला और जा कर एक फ़ौजी से कहने लगा, “मैं शायर हूँ, लायलपुर जाना चाहता हूँ। आप मुझे अपने डिब्बे में बिठा लीजिए। मैं राह में आपको गीत सुनाऊँगा।”

    “नहीं-नहीं, हम को गीत-वीत कुछ नहीं चाहिए।” डिब्बे में बैठे हुए सिपाही ने ज़ोर से हाथ झटकते हुए कहा।

    “क्या माँगता है?” एक दूसरे फ़ौजी ने अपनी सीट पर से उठते हुए तीसरे फ़ौजी से पूछा।

    तीसरे फ़ौजी ने बंगला भाषा में उसे कुछ जवाब दिया।

    “मैं सचमुच शायर हूँ,” सत्यार्थी ने कहा, “मुझे सब भाषाएँ आती हैं।” और फिर वह बंगला बोलने लगा।

    फ़ौजी आश्चर्य से उसका मुँह ताकने लगे।

    “तमिल जानता है?” एक नाटे क़द के काले-भुजंग फ़ौजी ने डिब्बे की खिड़की में से सिर निकाल कर उससे पूछा।

    “तमिल, मराठी, गुजराती, पंजाबी सब जानता हूँ!” सत्यार्थी ने कहा, “आपको सब भाषाओं के गीत सुनाऊँगा।”

    “अच्छा?” तमिल सिपाही ने कहा।

    “हाँ!” सत्यार्थी बोला और तमिल में उससे बातें करने लगा।

    तभी इंजन ने सीटी दे दी।

    “तो क्या मैं अंदर आ जाऊँ?” सत्यार्थी ने पूछा।

    दरवाज़े के पास बैठा हुआ सिपाही कुछ सोचने लगा। 

    “गीत पसंद न आएँ तो अगले स्टेशन पर उतार देना।” सत्यार्थी बोला।

    फ़ौजी हँस पड़ा और बोला, “आ जाओ!”

    सत्यार्थी मेरे हाथ से अटैची ले कर जल्दी से अंदर घुस गया।

    मैं डिब्बे के सामने बुत बना खड़ा रहा।

    “आओ आओ, चले आओ।” सत्यार्थी ने सीट पर जगह बनाते हुए दोनों हाथों के इशारे से मुझे बुलाया।

    फ़ौजियों ने घूर कर मेरी तरफ़ देखा।

    मैं दो क़दम पीछे हट गया।

    “यह भी शायर है,” सत्यार्थी ने कहा, “यह भी गीत सुनाएगा। हम दोनों गीत सुनाएँगे।”

    सिपाहियों ने मुझे सिर से पैर तक ग़ौर से देखा। मालूम होता था कि उन्हें मेरे शायर होने का विश्वास नहीं हो रहा है। शायद वे सोच रहे थे कि यह तेइस चौबीस वर्ष का छोकरा वही चीज़ कैसे हो सकता है, जो यह लंबी दाढ़ी वाला संन्यासी है।

    “तुम भी सब भाषाएँ जानते हो?” एक सिपाही ने दरवाज़ा खोलते हुए मुझसे पूछा।

    “नहीं।” मैंने जवाब दिया।

    “हूँ।” उसने कुछ इस ढंग से कहा मानो कह रहा हो, ‘फिर तुम क्या जानते हो, तुम्हारा क्या फ़ायदा है?’

    मैं सत्यार्थी के साथ सीट पर बैठ गया। जब ट्रेन चल पड़ी तो मैंने सत्यार्थी से कहा, “मैं अगले जंक्शन पर उतर जाऊँगा।”

    “लेकिन उतर कर जाओगे किस डिब्बे में?” उसने कहा।

    मैं ख़ामोश हो गया।

    सिपाही बड़े चाव और दिलचस्पी से सत्यार्थी के साथ बातें करने लगे। सत्यार्थी बड़े प्यार के साथ उनके गाँव, गाँव के निकट बहती हुई नदियों, नदियों के किनारे लहलहाते हुए खेतों, रस्मों, त्योहारों की बातें करता रहा। जैसे वह उन सब को जानता हो, उन्हीं में से एक हो। और जब बातें ख़त्म हो गर्इं तो सत्यार्थी उन्हें गीत सुनाने लगा। सिपाही उससे प्रभावित हुए। सत्यार्थी ने कहा, “लय के बिना गीत का मज़ा आधा रह जाता है। फिर भी मुझको इस वक़्त जितने गीत याद आए, मैंने आपको सुना दिए। लोगों में से जिसको गाना आता हो, वह गा कर सुनाए।”

    तमिल सिपाही ने कहा, “मैं गाना जानता हूँ। बोलो, कौन सा गीत सुनोगे?”

    “कोड़ी दा कोड़ी दा काद लाली,” सत्यार्थी बोला, “मिल कर फँसो, मिल कर फँसो मछलियो!− इस डिब्बे में, जहाँ हर प्रांत के फ़ौजी जमा हैं, इससे अच्छा और कोई गीत नहीं हो सकता।”

    “क्या मतलब?” तमिल सिपाही ने पूछा।

    “क्या हम मछलियाँ हैं?” पंजाबी सिपाही चिल्लाया।

    “ग़ुस्सा मत करो मेरे दोस्त।” सत्यार्थी ने उसी धैर्य और इत्मिनान से कहा, “हम सब मछलियाँ हैं। तुम बंदूक़ वाली मछली हो, मैं दाढ़ी वाली मछली हूँ।”

    सिपाही हँसने लगे।

    “और हम सब मछेरों के जाल में फँसे हुए हैं।” सत्यार्थी ने कहा।

    सिपाही फिर गंभीर हो गए।

    ट्रेन तेज़ी से भागी जा रही थी। बाहर चारों ओर गहरा अँधेरा था और उस अँधेरे में इक्का-दुक्का तारे जगमगा रहे थे। सिपाहियों ने हमें सोने के लिए जगह बना दी और कहा, “आप लोग आराम कीजिए। सुबह हम आपको जगा देंगे।”

    अगले दिन जब हम उन साहब के मकान पर पहुँचे, जिन से मुझे, मिलना था तो वे घर में नहीं थे। मालूम हुआ कि आज एक स्थानीय मैजिस्ट्रेट के यहाँ उनकी दावत है। वे मैजिस्ट्रेट मुझे भी जानते थे, इसलिए हम लोग सीधे वहीं चले गए।

    बातों में सत्यार्थी ने बताया कि वह झूमर नाच की तस्वीर लेना चाहता है।

    मैजिस्ट्रेट साहब ने कहा, “आजकल तो किसान फ़सल काट रहे हैं। नाच छोड़ उन्हें दम लेने की भी फ़ुरसत नहीं।”

    “फ़िर?” सत्यार्थी बोला, “मैं तो बड़ी आस ले कर आया था।

    “मैजिस्ट्रेट साहब ख़ामोश हो गए। जब हम चलने लगे तो उन्होंने सत्यार्थी को रोक कर कहा, “आप ज़रूर तस्वीर लेना चाहते हैं?”

    “हाँ।” सत्यार्थी ने कहा। 

    “अच्छा, तो कल दो बजे के क़रीब आप थाने में तशरीफ़ लाइए। मैं बंद-ओ-बस्त कर दूँगा।”

    “थाने में?” सत्यार्थी ने आश्चर्य से मेरी तरफ़ घूरते हुए कहा।

    “हाँ हाँ, हम थाने के कुछ सिपाही भेज कर दस-बीस किसानों को, जो नाचना जानते हों, चौकी पर बुला लेंगे। आप जी भर के तस्वीरें ले लीजिएगा।”

    “जी नहीं, आप तकलीफ़ न कीजिए। मैं फिर कभी आ जाऊँगा।” सत्यार्थी बोला, “थानेदार के सामने भला किसान ख़ाक नाचेंगे?”

    अगले दिन हम लोग वहाँ से लौट आए। रास्ते भर सत्यार्थी मैजिस्ट्रेट की योजना पर हँसता रहा।

    यूनिवर्सिटी के इम्तिहानों के बाद मैं लुधियाना आ गया और चार पाँच महीने तक घर ही पर रहा। इसके बाद अचानक प्रीत नगर के वार्षिक सम्मेलन में मेरी और उसकी मुलाक़ात हो गई।

    कान्फ़्रांस में कोई आठ-दस हज़ार मर्द औरतों की भीड़ थी। पंजाब के प्रत्येक भाग से लोग उस अजीब बस्ती को देखने के लिए आए थे, जिसके अहाते में मस्जिद, मंदिर, गुरुद्वारा या गिरजा बनाने की इजाज़त नहीं, जहाँ के निवासी संयुक्त रसोई में खाना खाते हैं और जहाँ की औरतें आज़ादी और बेबाकी के साथ घूमती फिरती हैं।

    जब सत्यार्थी पंडाल में दाख़िल हुआ तो भीड़ में से बहुत से पुरुषों ने उठ कर उसके हाथ चूमे और बहुत सी स्त्रियों ने उसके चरण छुए। सत्यार्थी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उत्सुक तथा श्रद्धा-भरी नज़रों में से होता हुआ मंच के पास जा कर बैठ गया।

    कार्यक्रम की पहली चीज़ एक नाटक था, जिसे प्रीतनगर के छात्र और छात्राएँ प्रस्तुत कर रहे थे। नाटक के बाद पहले पंजाबी और फिर उर्दू कवि-सम्मेलन था। सत्यार्थी ने भी एक पंजाबी कविता सुनार्इ जिसका मतलब कुछ इस प्रकार था :

    हिंदुस्तान!— हिंदुस्तान! 

    तेरे हल लहूलुहान हैं।

    तेरा बदन चीथड़ों में लिपटा हुआ है, 

    तेरी पोरों से खून बह रहा है,

    -हिंदुस्तान!

    सदियों का भूखा-प्यासा उड़ीसा दम तोड़ रहा है। 

    आसाम का बिहू नृत्य सूखे ढाँचों के मरणासन्न कंपन में 

    परिरगत हो गया है।

    बंगाल पर मौत के गिद्ध मँडरा रहे हैं। 

    कालिदास से कहो कि ‘मेघदूत’ उठा कर परे फेंक दे, 

    उदय शंकर से कहो कि वह अजन्ता का नृत्य बंद कर दे। 

    आज चारों ओर भूख है, मौत है, नग्नता है और दरिद्रता है। 

    महानदी की आँखों से दुख के आँसू बह रहे हैं।

    और सदियों पुरानो बाँसुरी के गले में गीत सूख गए हैं।

    मंच पर खड़ा वह कोई अलौकिक व्यक्ति दिखाई दे रहा था, जिसक व्यक्तित्व किसी विचारक, संन्यासी और कवि के व्यक्तित्व का सम्मिश्रण लग रहा था। वह अपनी कविता में भारत के विभिन्न प्रदेशों की चर्चा इस अनायासता से कर रहा था कि सुनने वाले अपने आपको उन प्रदेशों में साँस लेते महसूस करते थे। एक के बाद दूसरे प्रदेश की जनता विशिष्ट संस्कृति की पृष्ठभूमि में विशिष्ट वस्त्र धारण किए और विशिष्ट भाषा बोलती धीरे-धीरे उनकी आँखों के सामने उभरती और फिर क्षितिज के कोनों में गुम हो जाती। यह सफल चित्रण सत्यार्थी की वर्षों की साधना और भारत भ्रमण का फल था। मुझे लगा कि भारत का कोई कवि, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, भारत की आत्मा का चित्र प्रस्तुत करने सत्यार्थी की बराबरी नहीं कर सकता।

    पंजाबी कवि-सम्मेलन की समाप्ति पर जब पंद्रह मिनट का विश्राम दिया गया तो उर्दू ‘प्रीत लड़ी’ के सहायक संपादक शमशेर सिंह ‘ख़ंजर’ ने मुझे बताया कि उर्दू मुशाइरे के सभापति अभी तशरीफ़ नहीं लाए। मैंने कहा, “शाम के वक़्त मैंने डॉक्टर अख़्तर हुसैन रायपुरी को यहाँ देखा था। उनसे कहिए कि वो मुशाइरे की सदारत कर दें।” शमशेर सिंह ‘ख़ंजर’ एक टाँग और एक लकड़ी के सहारे अख़्तर हुसैन रायपुरी को ढूँढने चला गया। सत्यार्थी ने मेरे क़रीब आ कर पूछा, “तुम शमशेर सिंह

    “ख़ंजर’ को कब से जानते हो?”

    क़रीब एक बरस से!”

    “मैं छ: बरस से जानता हूँ और उससे एक सवाल करना चाहता हूँ, लेकिन हौसला नहीं होता।” सत्यार्थी ने कहा।

    “कौन सा सवाल?” मैंने पूछा।

    “मैं उस से पूछना चाहता हूँ कि उसने अपना उपनाम ‘ख़ंजर’ टाँग टूटने से पहले रखा था या बाद में?”

    और फिर वह ओवर कोट की जेबों में हाथ डाल कर ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। सामने से एक पंजाबी कवयित्री आ रही थी। सत्यार्थी की हँसी एक दम गंभीरता में बदल गई और उसने तत्काल ओवर कोट की जेबों में से हाथ निकाल लिए।

    “कहिए, किधर जा रही हैं आप? उर्दू मुशाइरा नहीं सुनिएगा।” उसने कवयित्री को संबोधित करते हुए कहा।

    “ज़रूर सुनूँगी।” कवयित्री ने कहा, “बैठे-बैठे कुछ थक-सी गई थी, इसलिए इधर चली आई।”

    “हाँ-हाँ, ज़रूर सुनिए! आज मैं भी अपनी एक उर्दू नज़्म सुनाऊँगा। साहिर, तुमने इनकी नज़्म सुनी थी?”

    “जी हाँ, बहुत ख़ूबसूरत नज़्म थी।”

    “और उसमें रवानी और शिद्दत और गहराई कितनी थी। वाह वा, मैं तो सोचता हूँ कि मुझे शायरी करना छोड़ देना चाहिए।” सत्यार्थी बोला।

    “यह आप क्या कह रहे हैं?” कवयित्री कहने लगी, “आप तो इतना अच्छा लिखते हैं।”

    “जी हाँ, जी हाँ।” सत्यार्थी बोला, “लेकिन वह बात पैदा नहीं होती।”

    इतने में शमशेर सिंह ‘ख़ंजर’ वापस आ गया। उसने बताया कि अख़्तर हुसैन रायपुरी वापस चले गए हैं और शायरों की तीन टोलियाँ विभिन्न शायरों का नाम सभापतित्व के लिए प्रस्तावित कर रही हैं।

    मैंने पूछा, “फिर तुमने क्या फ़ैसला किया?”

    “मैं कोई फ़ैसला नहीं कर सका।” वह बोला।

    कवयित्री मुस्कुराई और पूछने लगी, “आपके यहाँ सदर बनाने तक पर झगड़े होते हैं?”

    “कुछ ऐसा ही है।” मैंने कहा।

    “क्यों?” उसने पूछा।

    मुझे जैसे इस सादगी पर प्यार आ गया। मैंने कहा, “अभी शायरों के सामने अधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य नहीं हैं। हो जाएँगे तो वो इन छोटी-छोटी बातों पर झगड़ना बंद कर देंगे।”

    कवयित्री चुप हो गई।

    मैंने पूछा, “आप क्या हमारी कोई मदद नहीं कर सकतीं?”

    “मैं?... मैं क्या मदद कर सकती हूँ?” वह बोली।

    “आप हमारे मुशाइरे की सदर बनना मंज़ूर कर लीजिए।”

    “पर मैं तो पंजाबी ज़बान में लिखती हूँ।”

    “यही तो एक अच्छी बात है।” मैंने कहा, “वरना ज़ाहिर है कि एक मुशाइरे के तीन सदर नहीं बनाए जा सकते। दो गिरोह हर हालत में नाराज़ होंगे।” 

    “लेकिन यह भी तो हो सकता है,” वह बोली, “कि मेरे सदर बनने से तीनों नाराज़ हो जाएँ।”

    “नहीं, आप लड़की हैं, इसलिए ऐसा नहीं होगा।” शमशेर सिंह ‘ख़ंजर’ बोला।

    कवयित्री कुछ शरमा सी गई। वह कुछ कहना चाहती थी, पर कह न सकी। मैंने ‘ख़ंजर’ से कहा, “आप जा कर स्टेज सेक्रेटरी को इनका नाम सदारत के लिए दे दीजिए।”

    ख़ंजर चला गया। 

    एक मिनट बाद कवयित्री भी चली गई।

    “ओ हरामज़ादे!” सत्यार्थी चीख़ा। और फिर वह भी चला गया।

    मुझे उसका एक लेख याद आ गया, जिसमें उसने लिखा था, “वेरी नाग के नीले पानी में थकन से चूर पाँव डालें मैं सोच रहा था कि मैंने अपनी उम्र का बेहतरीन हिस्सा व्यर्थ ही ख़ानाबदोशी की ज़िंदगी में नष्ट कर दिया। व्यर्थ लोक गीतों की खोज में भटकता रहा, व्यर्थ ही घाट-घाट का पानी पीने को ही आदर्श बनाए ज़िंदगी बरबाद करता रहा... ”

    मंच पर खड़ा वह एक अलौकिक व्यक्ति दिखाई दे रहा था, लेकि मंच से उतरते ही वह एक साधारण मानव बन गया था और उसके सीने में व्यक्तिगत असफलताओं की पीड़ा जाग उठी थी−आयु का श्रेष्ठतम भाग नष्ट हो जाने की पीड़ा!

    मुशाइरे के दूसरे दिन प्रीत नगर के कुछ वासियों की ओर से उर्दू और पंजाबी के साहित्यकारों को एक संयुक्त पार्टी दी गई। कवयित्री और सत्यार्थी साथ-साथ बैठे थे। चाय के साथ शायरी का दौर भी चल रहा था। सब शायरों ने एक-एक नज़्म सुनाई। लेकिन जब सत्यार्थी की बारी आई वह ख़ामोश बैठा रहा।

    कवयित्री ने “आप कुछ सुनाइए न।”

    “छोड़िए जी,” सत्यार्थी बोला, “मेरी नज़्मों में क्या रखा है?” और उसने चाय की प्याली मुँह से लगा ली।

    तभी एक कोने से आवाज़ आई, “घटना... घटना!”

    सत्यार्थी से हँसी रोके न रुकी। भक से उसका मुँह खुला और सारी चाय दाढ़ी और कोट पर बिखर गर्इ। वह मैले ख़ाकी रूमाल से चेहरे पर ओट किए अपनी कुर्सी से उठा और नल पर जा कर मुँह धोने लगा। जब वह मुँह धो कर लौटा तो उसका चेहरा बेहद उदास था। कवयित्री के साथ की कुर्सी ख़ाली छोड़ कर वह एक कोने में दुबक कर बैठ गया। फिर उसने कोई बात नहीं की।

    पार्टी ख़त्म होने के बाद मैंने सत्यार्थी से उसकी ख़ामोशी का कारण पूछा तो वह बहुत दुखे हुए दिल के साथ कहने लगा :

    “मैं सभ्य लोगों की सोसाइटी में बहुत कम बैठा हूँ। मैंने अपनी सारी उम्र किसानों और ख़ानाबदोशों में बिताई है। और अब, जब मुझे मॉडर्न क़िस्म की महफ़िलों में बैठना पड़ता है तो मैं घबरा जाता हूँ। मैं ज़्यादा-से-ज़्यादा सावधानी बरतने की कोशिश करता हूँ, फिर भी मुझसे ज़रूर कोई न कोई ऐसी हरकत हो जाती है जो समाज की नज़र में ग्राम तौर से अच्छी नहीं समझी जाती।”

    मुझे सत्यार्थी की इस बात से बहुत दुख हुआ। उसने सचमुच बहुत बड़ी क़ुर्बानी दी थी। लोक-गीतों की तलाश में उसने हिंदुस्तान का कोना-कोना छान मारा था। अनगिनत लोगों के सामने हाथ फैलाया था। बीसियों क़िस्म की बोलियाँ सीखी थीं, किसानों के साथ किसान और ख़ानाबदोशों के साथ ख़ानाबदोश बन कर अपनी जवानी की उमंगों-भरी रातों का गला घोंट दिया था। लेकिन उसकी सारी कोशिश, सारी मेहनत और सारी क़ुर्बानी के बदले में उसे क्या मिला? − एक भूख-भरी ज़िंदगी और एक हृदय!

    प्रीत नगर से वापस आ कर मैंने लाहौर में ‘अदब-ए-लतीफ़’ के संपादन विभाग में नौकरी कर ली। सत्यार्थी अपना अधिकांश समय मेरे साथ बिताने लगा। हर रोज़ सुबह-सवेरे वह मुझे बिस्तर से उठा देता और रात गए तक मेरे साथ घूमता रहता। कभी-कभी जब उसकी तबीअत लहर पर होती तो वह मुझे पंजाब के देहाती गीत सुनाने लगता :

    केहड़े पिंड मकलावे जाना

    नी, टाहली दे संदूक़ वालिए

    (ऐ शीशम के संदूक़ वाली! तेरा गौना किस गाँव में होने वाला है? )

    अग्ग बाल के धुएँ दे पज्ज रोवाँ

    ते-भैड़े दुख यारियाँ दे

    (आग जला कर आँखों में धुआँ लग जाने के बहाने रोती हूँ। प्रेम के दुख बहुत बुरे होते हैं।)

    गीत सुनाते-सुनाते वह चुप हो जाता और कहता, “चाहे मेरी आर्थिक स्थिति कितनी ही बुरी क्यों न हो, लेकिन मैं महान हूँ।”

    “इसमें क्या शक है?” मैं जवाब देता।

    वह मेरे कंधे पर हाथ मार कर हँसने लगता और कहता, “तुम भी महान हो।” और फिर ठहाका मारता, “हम दोनों महान हैं।”

    उसने तमाम कॉलेजों और होस्टलों में अपने अड्डे बना रखे थे। हर रोज़ वह किसी-न-किसी होस्टल में चला जाता और बैठा गप्पें हाँकता रहता। विद्यार्थी उससे बड़े चाव और आदर से मिलते। चाय पिलाते, खाना खिलाते और यदि सत्यार्थी राज़ी होता तो उसे अपने साथ सिनेमा भी ले जाते।

    एक दोपहर जब मैं दफ़्तर में दाख़िल हुआ तो एक ख़ुश-पोश नौजवान पहले से मेरा इंतिज़ार कर रहा था।

    “मैं देवेंद्र सत्यार्थी हूँ।” उसने कहा।

    मेरी आँखें आश्चर्य से खुली की खुली रह गई। दाढ़ी-मूँछ साफ़ और सिर पर कॉलेजियन कट के संक्षिप्त से बाल। यह देवेंद्र सत्यार्थी को क्या हुआ?” मैंने सोचा।

    “बैठो।” उसने मुझे हैरान खड़े देख कर कहा।

    मैं बैठ गया।

    थोड़ी देर हम दोनों ख़ामोश बैठे रहे। फिर मैं उसे अपने साथ पास के एक होटल में ले गया। जब ब्वॉय चाय ले आया तो मैंने पूछा, “तुमने आख़िर यह क्यों किया?”

    “यूँही!” वह बोला।

    “यह तो कोई जवाब न हुआ।” मैंने कहा, “आख़िर कुछ तो वजह होगी।”

    “वजह?” वजह दरअसल यह है, वह बोला, “कि मैं उस रूप से तंग आ गया था। पहले-पहल जब मैं गीत इकट्ठा करने निकला था तो मेरी दाढ़ी नहीं थी। उस वक़्त मुझे गीत इकट्ठे करने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। लोग मुझ पर भरोसा नहीं करते थे। लड़कियाँ मेरे पास बैठते हुए हिचकिचाती थीं। फिर मैंने दाढ़ी और सिर के बाल बढ़ा लिए और बिलकुल संन्यासियों की-सी शक्ल बना ली इस रूप ने मेरे लिए बहुत सी आसानियाँ पैदा कर दीं। देहाती मेरी इज़्ज़त करने लगे। लड़कियाँ मुझे साधु समझ कर मुझसे कवच माँगने लगीं। मैंने देखा, उन्हें मेरे क़रीब आने में झिझक महसूस नहीं होती थी। घंटों बैठा उनसे गीत सुनता रहता। अब मुझे भीख भी आसानी से मिल जाती थी और बिना टिकट रेल का सफ़र करने में भी सुविधा हो गई थी। धीरे-धीरे दाढ़ी और जटाएँ मेरे व्यक्तित्व का अंग बन गई।”

    “फिर?” मैंने पूछा।

    “फिर मैं शहर में आ गया,” वह बोला, “और लिखने को रोज़ी का ज़रिया बना लिया। मैं दूसरे लेखको को देखता तो उन्हें एक-दूसरे से इंतिहाई बे-तकल्लुफ़ पाता। सारे वक़्त वो एक-दूसरे से हँसते-खेलते और मज़ाक़ करते रहते। लेकिन ये ही लोग मुझसे बात करते तो उनके लहजे में तकल्लुफ़ आ जाता। मुझमें और उनमें आदर का एक बनावटी-सा पर्दा खड़ा हो जाता। मुझे यूँ लगता, जैसे मैं उनके दिलों से बहुत दूर हूँ। आम लोग भी जब मेरे सामने आते तो अदब से बैठ जाते, जैसे वो किसी देवता के सामने बैठे हों− अपने से ऊँची और अलग हस्ती के सामने।”

    “फिर?” मैंने कहा।

    “आम मर्दों की निगाह पड़ते ही लड़कियों के चेहरों पर सुखीं दौड़ जाती, उनके गाल तमतमा उठते। लेकिन जब मैं उनकी तरफ़ देखता उनके गालों का रंग वही रहता। वो फ़ैसला न कर सकतीं कि मैं उनकी तरफ़ पिता के प्रेम-भाव से देख रहा हूँ या प्रेमी के?... मैं उस ज़िंदगी से तंग आ गया था।” वह बोला, “मैंने फ़ैसला कर लिया कि मैं अपनी इस शक्ल को बदल दूँगा। मैं देवता नहीं हूँ, इंसान हूँ और मैं इंसान बन कर रहना चाहता हूँ।”

    “फिर?” मैंने आख़िरी बार पूछा।

    “फ़िर?... फ़िर मैं इस वक़्त तुम्हारे सामने बैठा हूँ। क्या मेरी शक्ल आम इंसानों की-सी नहीं हैं?”

    “है और बिलकुल है।” मैंने कहा, “लेकिन एक बात बताओ। हज्जाम ने तुम से क्या चार्ज किया?”

    “पाँच रुपए।” सत्यार्थी ने कहा, “लेकिन तुम यह क्यों पूछ रहे हो?”

    “यूँही” मैंने कहा।

    और फिर हम दोनों मुस्कुराने लगे।

    कवयित्री ने सुना तो हैरान रह गई। “मैं सत्यार्थी जी को इस नए रूप में एक नज़र देखना चाहती हूँ। क्या आप उन्हें यहाँ ला सकेंगे?” उसने मुझसे पूछा।

    “मैं कोशिश करूँगा।” मैंने जवाब दिया।

    अगले दिन मैंने सत्यार्थी को बताया कि कवयित्री उससे मिलना चाहती है।

    “सच?” उसने आँखें फाड़ते हुए पूछा।

    “सच” मैंने कहा।

    “तो फ़िर कब चलोगे?”

    “कल किसी वक़्त आ जाना। मैं घर पर ही रहूँगा।”

    “बहुत अच्छा।” उसने कहा।

    अगले दिन सुबह ठीक पौने छः बजे उसने मुझे बिस्तर से उठा दिया।

    “तुम रात को सोये भी थे या नहीं?” मैंने पूछा।

    “यार, एक बात बताओ।” उसने बड़े भेद-भरे स्वर में कहा, “मैं कवयित्री की तस्वीर लेना चाहता हूँ। क्या वह राज़ी हो जाएगी?”

    “वहीं तो चल रहे हो। पूछ लेना।”

    “मैं कैमरा लेत आया हूँ।” वह बोला।

    “बहुत अच्छा किया। दुश्मन के घर निहत्थे नहीं जाना चाहिए।” मैंने कहा।

    “सत्यार्थी को देखते ही कवयित्री खिल उठी। “अरे! आप तो बिलकुल नौजवान हैं।” वह बोली।

    सत्यार्थी कुछ कहना चाहता था। लेकिन तभी कवियत्री का पति कमरे में दाख़िल हो गया।

    “आपने इन्हें पहचाना?... ये देवेंद्र सत्यार्थी हैं।” कवयित्री ने कहा।

    कवयित्री के पति ने सत्यार्थी को सिर से पैर तक घूरा फिर उसके पास बैठ कर धीरे-धीरे बातें करने लगा।

    सत्यार्थी ने कहा, “मैं आप दोनों की तस्वीर लेना चाहता हूँ।”

    “तस्वीर? तस्वीर क्या कीजिएगा?” कवयित्री ने मुस्कुराते हुए पूछा।

    “अपने एलबम में लगाऊँगा...मैंने सब अदीबों की तस्वीरें ली हैं।”

    “आपको शायद मालूम नहीं, “कवयित्री ने अपने पति से कहा, “सत्यार्थी जी बहुत अच्छे फ़ोटोग्राफ़र हैं।”

    “मैं बहुत अच्छा कहानीकार और कवि भी हूँ।” सत्यार्थी ने कहा।

    कवयित्री झेंप गई।

    “तो फ़िर बताइए,” सत्यार्थी ने कहा, “मैंने सब अदीबों की तस्वीरें ली हैं।”

    “आप इन से सीधे पूछिए।” कवयित्री के पति ने मुस्कुराते हुए कहा, “मुझे तो आप जानते हैं, अदब से कोई सरोकार नहीं।”

    “अदब से न सही, अब लिखने वाली से तो है।” सत्यार्थी ने कहा, “आपकी इजाज़त के बिना मैं तस्वीर कैसे ले सकता हूँ?”

    “मैंने इन्हें हर बात की इजाज़त दे रखी है।” कवयित्री के पति ने कहा।

    “तो फिर आप दोनों चलिए।”

    “कहाँ?” कवयित्री ने पूछा।

    “कहाँ?” कवयित्री ने पूछा।

    “छत पर।” सत्यार्थी ने कहा, “वहाँ लाइट मिल सकेगी।”

    सब लोग छत पर चले गये। सत्यार्थी कोई दो घंटे तक कवयित्री और उसके पति की तस्वीरें उतारता रहा। तीन तस्वीरें उसने कवयित्री की उसके पति के साथ लीं और सात अलग। बाहर निकल कर वह बोला, “मैंने तीनों तस्वीरों में कवयित्री के पति को उससे ज़रा फ़ासिले पर खड़ा किया है ताकि कवयित्री की तस्वीर का अलग प्रिंट निकालने में आसानी रहे।”

    इसी तरह एक महीना बीत गया। हर दूसरे-तीसरे दिन सत्यार्थी कवयित्री की तस्वीर का इनलार्जमेंट बना लाता और मुझसे कहता, “चलो, यह इनलार्जमेंट उसे दे।”

    एक दिन सत्यार्थी ने कवयित्री से कहा, “मैं आपकी कुछ और तस्वीरें लेना चाहता हूँ।”

    “और तस्वीरें क्या कीजिएगा?” कवयित्री ने मुस्कुराते हुए कहा, “उस दिन इतनी बहुत सी तस्वीरें तो आप ले चुके हैं।”

    “आप मुझे कोई ऐसा वक़्त दीजिए, जब आपके पति घर पर न हों।”

    “वह किस लिए?”

    “दरअसल बात यह है... ” सत्यार्थी ने कहा और फिर वह लायलपुर के मैजिस्ट्रेट और किसानों का क़िस्सा सुनाने लगा।

    “तो माफ़ कीजिए,” उसने पूरा किस्सा सुनाने के बाद कहा, “आप के पति के सामने आपका फ़ोटो लेना भी बिलकुल ऐसा ही है, जैसा थानेदार के सामने किसान नचवाना।”

    कवयित्री का पति दूसरे कमरे में सारी बातें सुन रहा था। वह सत्यार्थी पर बहुत ख़फ़ा हुआ। साथ ही साथ कवयित्री पर भी बिगड़ा।

    अगले दिन कवयित्री ने मुझे दफ़्तर में एक चिट्ठी भेज कर बुलाया और कहा, “आप जानते हैं, मेरी ज़िंदगी बढ़ी मजबूर क़िस्म की ज़िंदगी है। सत्यार्थी जी ने उस दिन कुछ ऐसी बातें कह दीं, जिस पर वे सख़्त नाराज़। सत्यार्थी जी से कह दीजिए कि मेरी तस्वीरों के जो निगेटिव उनके पास हैं, वे किसी के हाथ मेरे पति को वापस भिजवा दें।”

    “बहुत अच्छा।” मैंने कहा। 

    सत्यार्थी ने निगेटिव वापस कर दिए। कवयित्री के पति ने कहा, “आप इनकी क़ीमत ले लीजिए।”

    सत्यार्थी की आँखों में जैसे ख़ून उतर आया।

    “मैं बहुत ग़रीब हूँ, यह सही है। लेकिन मैंने अभी तक फ़ोटोग्राफ़ी को रोज़ी का साधन नहीं बनाया। जब बना लूँगा तो आप को ख़बर दे दूँगा।” और वह अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ।

    फिर दो-तीन महीने तक मैंने उसकी सूरत नहीं देखी। इसी बीच मुझे बंबई की एक फ़िल्म कंपनी में नौकरी मिल गर्इ। मैं सत्यार्थी से मिलने उसके घर गया।

    वह टेबल लैंप की हल्की रौशनी में अपने छोटे-से कमरे में मेज़ पर झुका हुआ कुछ लिख रहा था। क़दमों की चाप सुन कर उसने दरवाज़े की तरफ़ घूम कर देखा।

    “हैलो साहिर?”

    मैं अंदर चला गया।

    सत्यार्थी ने दाढ़ी और सिर के बाल फिर से बढ़ा लिए थे।

    “मैं कल शामकी गाड़ी से जा रहा हूँ।” मैंने कहा।

    “क्यों?”

    “मुझे एक फ़िल्म कंपनी में नौकरी मिल गई है।”

    “अच्छा?” उसने कहा, “तब तो आज तुमसे लंबी-चौड़ी बातें होनी चाहिएँ।” उसने फ़ाउंटेन पेन बंद करके मेज़ पर रख दिया।

    इतने में सत्यार्थी की पत्नी अंदर आ गई। सूरत शक्ल से वह उन्तीस तीस बरस की लगती थी। मैंने हाथ जोड़ कर नमस्ते की।

    “नमस्ते!” वह बोली। 

    सत्यार्थी ने मेरी तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “ये आज यहीं रहेंगे और खाना भी यहीं खाएँगे।”

    वह जा कर खाना ले आई। सत्यार्थी की नौ वर्षीया बच्ची कविता भी आ गर्इ। हम सब खाना खाने लगे। सत्यार्थी की बीवी हमारे क़रीब बैठी पंखे से हवा करती रही।

    “खाना ठीक है?” उसने पूछा।

    “सिर्फ़ ठीक ही नहीं, बेहद मज़ेदार है।” मैंने कहा।

    “हम लोग बहुत ग़रीब हैं।” वह बोली।

    अचानक मुझे अपने सूट का ख़याल आ गया।

    “मेरे पास यही एक सूट है,” मैंने कहा, “और यह भी मेरे मामा ने बनवा कर दिया है।”

    वह हँसने लगी−एक निहायत बेझिझक और पवित्र हँसी। और जब वह खाने के जूठे बर्तन उठा कर चली गर्इ तो सत्यार्थी ने मुझसे कहा, “इस औरत ने मेरे साथ अनगिनत दुख झेले हैं। हिंदुस्तान का कोई सूबा ऐसा नहीं, जहाँ यह मुझ भिखारी के साथ भिखारिन बन कर मारी मारी न फिरी हो। अगर यह मेरा साथ न देती तो शायद मैं अपने उद्देश्य में सफल न हो सकता।”

    “तुम्हारी ज़िंदगी क़ाबिल-ए-रश्क है।” मैंने कहा।

    “ज़िंदगी?.... शायद ज़िंदगी से तुम्हारा मतलब बीवी है। मेरी बीवी वाक़ई काबिल-ए-रश्क है, हालाँकि कई बार इसकी मामूली शक्ल-सूरत से मैं बेज़ार भी हो गया हूँ।”

    मैं दीवार पर लगी हुई तस्वीरों की तरफ़ देखने लगा। लेनिन...टैगोर...इक़बाल...

    “इन तीनों की शक्ल-सूरत के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?” मैंने मुस्कुराते हुए पूछा। “इन तीनों का मेरी ज़िंदगी पर गहरा असर है।” सत्यार्थी बोला और फिर न जाने किन यादों में खो गया।

    “जब मैं बिलकुल नौ उम्र था,” थोड़ी देर बाद उसने कहा, “तो मैंने आत्महत्या करने का इरादा किया था। कुछ दोस्तों को पता चल गया। वो मुझे पकड़ कर डॉक्टर इक़बाल के पास ले गए। इक़बाल बहुत देर तक मुझे समझाते रहे।...उनकी बातों ने मुझ पर बहुत गहरा असर किया और मैंने आत्महत्या का ख़याल छोड़ दिया।...फिर मैंने लेनिन को पढ़ा और मेरे दिल में गाँव-गाँव घूम कर देहाती गीत इकट्ठा करने का ख़याल पैदा हुआ। टैगोर ने मेरे इस ख़याल को सराहा और मेरा हौसला बढ़ाया। मैं गीत जमा करता रहा और अब, जब ये तीनों मर चुके हैं तो रातों की ख़ामोश तनहाई में उन गीतों को उर्दू, हिंदी या अंग्रेज़ी में ढालते समय कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है, जैसे किसान औरतें और मर्द मेरे गिर्द घेरा बनाए खड़े हों और कह रहे हों, ‘संन्यासी! हमने तुम्हें अपना समझा था, तुम पर भरोसा किया था। तुम हमारी सदियों की पूँजी को हम से छीन कर शहरों में बेच दोगे, यह हमें भूल कर भी शक न हुआ था। लेकिन तुम हममें से नहीं थे। तुम शहर से आए थे और शहर को लौट गए। अब तुम उन गीतों को, जो हमारे दुख-सुख के साथी थे, जिन पर अब तक किसी व्यक्ति के नाम की मुहर नहीं लगी थी, अपने नाम की छाप के साथ बाज़ार में बेच रहे हो और अपना और अपने बीवी-बच्चों का पेट पाल रहे हो। तुम बहुरूपिये हो, फ़रेबी, धोखेबाज़!’ और फिर वे जलती हुई आँखों से मुझे घूरने लगते हैं।”

    “यह तुम्हारी भावुकता है।” मैंने कहा, “तुमने इन गीतों को गाँव के सीमित वातावरण से निकाल कर असीम कर दिया है। तुमने एक मरती हुई संस्कृति की गोद में महकने वाले फूलों को पतझड़ के पंजों से बचा कर उनकी महक को अमर बना दिया है। यह तुम्हारा कारनामा है। आज़ाद और समाजवादी भारत में जब शिक्षा ग्राम हो जाएगी और औद्योगिक जीवन शबाब पर आएगा तो यही किसान, जो आज तुम्हारी कल्पना में तुम्हें जलती हुई आँखों से घूरते हैं, तुम्हें मोहब्बत और प्यार से देख कर मुस्कुराएँगे, उनके बच्चे तुम्हें आदर और श्रद्धा के भाव से याद करेंगे और अवकाश के क्षणों में तुम्हारे इन लेखों और कहानियों को पढ़ेंगे, जिनमें तुमने उनके पूर्वजों के दिल की धड़कनें समो दी हैं और एक बार फिर वो उस संस्कृति को देख सकेंगे, जो उस वक़्त ख़त्म हो चुकी होगी।”

    वह मुस्कराने लगा।

    अगले दिन मैं लाहौर से चला आया और बंबई में फ़िल्मी गीत लिखने लगा। थोड़े दिनों के बाद मैंने सुना कि सत्यार्थी ने लाहौर छोड़ दिया है और दिल्ली के किसी सरकारी पत्र के संपादन विभाग में नौकरी कर ली है। मुझे विश्वास है कि सत्यार्थी का लिबास पहले की तरह मैला कुचैला नहीं होता होगा। उसके जूते भी अब लाहौर के प्रसिद्ध प्रकाशक के जूतों की तरह क़ीमती और चमकीले होंगे। नन्हीं मुन्नी कविता अब बड़ी हो गई  होगी और ताँगे में स्कूल जाती होगी। लेकिन किसान?... 

    शायद अब भी सत्यार्थी उनके बारे में सोचता हो।    

    स्रोत :
    • पुस्तक : उर्दू के बेहतरीन संस्मरण (पृष्ठ 33)
    • संपादक : अश्क
    • रचनाकार : देवेन्द्र सत्यार्थ
    • प्रकाशन : नीलाभ प्रकाशन
    • संस्करण : 1662
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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