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राजेन्द्रसिंह बेदी

rajendrsinh bedi

तुर्के ग़मज़ाज़न

तुर्के ग़मज़ाज़न

राजेन्द्रसिंह बेदी

तुर्के ग़मज़ाज़न

और अधिकतुर्के ग़मज़ाज़न

    सन् 1636 की बात है, मुंशी प्रेमचंद के देहांत के सिलसिले में लाहौर के सस्थानीय होटल में शोक सभा हुई।

    मेरे साहित्यिक जीवन की शुरुआत ही थी। मुश्किल से दस-बारह कहानियाँ लिखी होंगी, जो साधारण कठिनाई के बाद धीरे-धीरे पत्र पत्रिकाओं में स्थान पाने लगीं। हम नए लिखने वालों की पूरी खेप-की-खेप मुंशी जी से प्रभावित थी, इसलिए हम सब को लग रहा था, जैसे हमारा आध्यात्मिक पिता हम से बिछुड़ गया है। इसी कारण अपना ग़म दूसरों को दिखाने और दूसरों के ग़म को अपना बनाने के लिए मैं भी सभा में पहुँच गया। एक ख़याल यह भी था कि प्रेमचंद के उचित और असली उत्तराधिकारियों से मिलेंगे, जिनसे प्रत्यक्ष परिचय तो था, लेकिन साक्षात्कार न हुआ था।

    सभा का कार्यक्रम आरंभ हुआ। कम ही ऐसा होता है कि अच्छा लिखने वाले अच्छा बोल पाएँ। कुछ लोगों ने बहुत ही अच्छे भाषण दिए। इस सभा में ऐसे भी थे, जिन्होंने छाती पीट-पीट कर मुहर्रम का समाँ बाँध दिया। ये सब ‘परचा बेचने वाले’ थे, जिन्हें यूँ ख़ाक-ख़ून में लथ-पथ देख कर मुझे शरत् चटर्जी के देवदास की याद आ गई, जो अपने पिता की मृत्यु पर घर के कोने से लगा रस्मी क्रंदन करने वालों को अपने दुनिया-दार भाई की ओर यह कह कर भेज देता है−“उधर!”

    सभा में कुछ लोग ‘इधर’ वाले भी थे। इनमें से एक उठा—साँवले रंग का—दीवार के साथ आड़ी लगी स्लेट का-सा माथा; तुषारकांति घोष के-से बाल; आँखों पर हैरल्ड लाइड का-सा चश्मा; धोती-कुर्ते में, ऊपर मस्जिद नीचे ठाकुर द्वारा; थका-थका; मरने से बरसों पहले मरा हुआ...

    “मैं कुछ कहना चाहता हूँ।” उसने अपनी डुड्डी उँगलियों को अँगूठे के साथ लगाते, हाथ सभापति महोदय की ओर बढ़ाते हुए कहा।

    सभापति ने इजाज़त दी भी न थी कि वह मेज़ पर पहुँच कर एक कर्कश स्वर और भोंडे लहज़े में शुरू भी हो गया। लगता था जैसे पंजाबी हथौड़े से हिंदी और उर्दू के कूबड़ निकाल रहा है— अभी लंदन के लिए रवाना हुआ, कलकत्ता पहुँच गया; फिर लोगों ने देखा— यह तो कोयंबटूर में घूम रहा है; नहीं दिल्ली में है; तभी किसी काल्पनिक जेट पर बैठ कर मंज़िल पर पहुँच भी गया। भाषण क्या था, एक ऐसे आदमी की चाल थी, जो ग़म के मारे ज़्यादा पी गया हो। लेकिन उसे किसी की परवाह न थी। वह ‘नाला पाबंद-ए-नय नहीं है’1 के-से अंदाज़ में बोलता जा रहा था और लगता था, मेज़ की एक ओर खड़ा, वह सारे जगत का पिता है और इर्द-गिर्द सब लोग उसके बच्चे-बाले हैं, जो खेल रहे हैं और उन्हें खेलने देना चाहिए..

    इन सब बातों के बावजूद, उसके भाषण में एक असर था, क्योंकि वह सीधा उसके दिल से निकला था, जो व्याकरण के नियमों को नहीं माना करता। उसमें एक दर्द था और एक कुलबुलाहट थी, जो केवल तबाहों और तब्बा (प्रतिभा शालियों) के हिस्से में आती है और जिसका तर्कहीन तर्क ‘परचा बेचने वालों’ को चकित कर दिया करता है। वह उन पत्रों का उल्लेख कर रहा था, जो मुंशी जी ने अपनी ज़िंदगी में उसे लिखे थे, जिनमें ‘पथ प्रदर्शन’ या ‘समस्याओं के समाधान’ की अपेक्षा अपने सहधर्मी से भावनात्मक अपनापे का आभास मिलता था और जो पत्र शोक के उस क्षण में महज़ पत्रों से बढ़ कर एक साहित्यिक निधि हो गए थे।

    यह अश्क था। इससे पहले मेरी अश्क से मुलाक़ात तक न हुई थी। मैंने उसको ‘सुदर्शन’ का मासिक पत्रिका ‘चंदन’ में पढ़ा ज़रूर था, लेकिन देखा न था। यहाँ तक कि उसकी तस्वीर भी मेरी नज़र से न गुज़री थी। जो लोग अश्क को जानते हैं, वे कहेंगे कि यह हो ही नहीं सकता, अश्क तो लेखन और संपादन के साथ उसके प्रचार का भी क़ायल है और उस लिखने वाले को नंबरी मूर्ख और घाम समझता है, जो सिर्फ़ लिखना ही जानता हो। बाद में मैंने भी देखा−अश्क−निहायत बे-तकल्लुफ़ अपनी कोई उल्टी-सीधी तस्वीर किसी संपादक या प्रकाशक के गले मढ़ देता है, जो उस बेचारे को छापनी ही पड़ती है। और क्या तस्वीर होती है! सामना एक चौथाई, तीन चौथाई या प्रोफ़ाइल, जिसमें जुल्फ़ें कंधों पर बिखरी हुई हैं या अगर ख़ूबसूरत शेव बनी है तो बालों को बड़ी सफ़ाई से कुंडलों में ढाल रखा है। कुछ देर देखने के बाद विश्वास हो जाता है− मर्द है...अभी नंगा है, अभी ढाँपे हुए...एक मिनट, एक परचा, एक किताब....पहले सिर पर गाँधी टोपी थी तो अब फ़ेल्ट हैट है, जो सिर पर जान-बूझ कर टेढ़ी रखी है और बाँका लग रहा है। उस पर सितम यह है कि ख़ुद भी मुस्कुरा रहा है...या सिर पर कराकुली है और आँखें  अध-खुली— ‘तुर्क-ए- ग़मज़ाज़न’2 मालूम हो रहा है, जो उसके हज़ारों पाठकों की आँखों को खल रहा है, इस पर भी दिल में घर किए हुए है। ‘हाफ़िज़’ के शब्दों में दिल के एकांत कक्ष में आराम कर रहा है और दुनिया को गुमान है कि महफ़िल में बैठा है3....मैं जो दाढ़ी को सिर्फ़ किसी दुश्मन के चेहरे पर देखना चाहता हूँ और इस डर के मारे आइना भी नहीं देखता, के चेहरे पर फ्रांसीसी ढंग की बकरोटी देख रहा हूँ...उसके बाद किसी तस्वीर में अश्क की शक्ल क्या होगी, यह किसी को मालूम नहीं, स्वयं अश्क को भी मालूम नहीं, क्योंकि पतले छरहरे तन, तलवार की धार के-से मन, चाणक्य की-सी बुद्धि और दूर पहुँचने वाली निगाहों के बावजूद उसी क्षण का पूरा आदर करता है, जिसे वह उस वक़्त जी रहा हो। वह महज़ इंद्रियों ही से ज़िंदगी का रस नहीं लेता, उसमें उसकी चेतना भी पूरे तौर पर शामिल रहती है। लगता है कि हाल और कील-ओ-काल (वर्तमान और तत्संबंधी तर्क-वितर्क) के सिलसिले में यदि कृष्णमूर्ति को किसी ने ग़लत पढ़ा है तो अश्क ने! हो सकता है किसी अगली तस्वीर में वह जोगिया बाना पहने हुए हो और एक हाथ से देखने वाले की ओर ‘छू’ भी कर रहा हो। बात यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाती। वह तस्वीर ऐसे उपन्यास में छप भी सकती है जो सर-ता-सर फूल की पत्ती हो और जिससे हीरे का जिगर भी कट सके4

    जाने कोई आदिम मैत्री अथवा अविच्छिन संबंध होने वाला था कि अश्क से परिचित हुए बिना मुझे विश्वास हो गया कि यह शख़्स अश्क के सिवा और कोई नहीं हो सकता। उस दौर के सब लिखने वालों में जो आदमी मुंशी जी के क़रीब था और उनसे था, वह केवल अश्क था। मुंशी जी ने अपनी ज़िंदगी में दूसरों को भी ख़त लिखे होंगे, लेकिन जिन ख़तों का हवाला अश्क दे रहा था, वे एक सहधर्मिता की ओर संकेत कर रहे थे....

    सभा समाप्त हुई। मैं उन दिनों डाकख़ाने में क्लर्क की हैसियत से काम कर रहा था, इसलिए जनता की शिकायतों से बहुत घबराता था। चुनाँचे, ऐहिस्ता-आहिस्ता, डरते-डरते मैं अश्क के पास पहुँच गया। वह एक एडिटर साहब के साथ बहस में उलझा हुआ था। बहस की ख़ातिर बहस करना अश्क का आज तक का शेवा है। यह बात नहीं कि जो बात वह कहना चाहता है, उसमें वज़न या दलील नहीं होती। सब कुछ होता है और नहीं भी होता, लेकिन अश्क तो इसमें एक ख़ास क़िस्म का मच्छंदरी मज़ा लेता है और इस संबंध में तर्क-वितर्क और वाद-विवाद के सभी अस्त्र प्रयोग करता है। एक आदमी अच्छी भली तर्कपूर्ण बातें कर रहा है, लेकिन अश्क उसे यह कह कर कि हम शायद दो भिन्न चीज़ों की बात कर रहे हैं, एक ऐसी सोच, ऐसी अचकचाहट में डाल देता है कि बहस करने वाले की रेल साफ़ पटरी पर से उतर जाती है और फिर जाते हैं कि एक बार रेल पटरी पर से उतर जाए तो क्या होता है। विरोधी तिलमिलाकर रह जाता है और यदि वह चतुर हो और ग़लत बहस न होने दे ठहाका मार कर हँसता उसे यह कहता हुआ मिलेगा− ‘तुम तो यार सीरियस हो गए’...अभी वह पूरे तौर पर समझ भी नहीं सका कि उसका हाथ थाम कर बड़े प्योर से कह रहा है— ‘असल में जो बात तुम कह रहे हो, वही मैं भी कह रहा हूँ...’ इसके बाद और क्या हो सकता है, सिवा इस बात के, कि दूसरा आँखें झपकता रह जाए, अपने आपको मूर्ख समझने लगे या फिर नाराज़ हो जाए कि मुझसे ख़ामख़्वाह ज़बान की कसरत कराई गई। परिणाम दोनों सूरतों में वही होता है। कोई नाराज़ हो जाए तो मैदान अश्क के हाथ में, न हो तो अश्क के हाथ में— चित भी अश्क की और पट भी अश्क की...जब मैं धीरे-धीरे अश्क के पास पहुँचा तो बहस करने वाले एडिटर साहब का बिगुल बज चुका था। अब मेरी बारी थी। मैंने आगे बढ़ते हुए कहा—

    “अश्क साहब—!”

    एकदम घूम कर अश्क ने अपनी नज़रें मुझ पर गाड़ दीं और मेरे आर-पार देखने लगा। यदि किसी कैमरे में आम रौशनी की बजाय एक्स-रे का प्रकाश हो तो बड़े से बड़ा रोमानी दृश्य भी क्या होगा? यही ना कि खोपड़ी से खोपड़ी टकरा रही है, एक कंकाल की बाँह उठी और दूसरे कंकाल गले में धँस गई और मालूम हुआ कि अपर सेक्स को आलिंगन के लिए नहीं, गला घोंटने के लिए अपनी ओर खींचा जा रहा है और फिर— गला भी कहाँ है?... मैंने कहा, “बड़ी मुद्दत से मेरी तमन्ना थी अश्क साहब...”

    “आप...?” और फिर अगले ही क्षण वह कह रहा था, “तुम कहीं राजेंद्रसिंह बेदी तो नहीं?”

    एकाएक जैसे मुझे अपना नाम भूल गया। कम-से-कम यह ज़रूर लगा कि राजेंद्रसिंह बेदी कोई दूसरा आदमी है, जिसे मैं जानता हूँ। तभी अपने-आप में आते हुए मैंने कहा— “हाँ अश्क साहब, मेरा ही नाम राजेंद्रसिंह बेदी है!”

    आदमी का अहं कहाँ तक पहुँचता है— दरअसल यह दुनिया कितना बड़ा जंगल है, कितना बड़ा मरु, जिसमें वह खोया-खोया फिरता है और हर दम यही चाहता है कि कोई उसे पहचान ले, कोई उसका नाम पुकार ले। और जब ऐसा हो जाए तो उसे कितनी बड़ी ख़ुशी होती है। एक बच्चा तो धीरे-धीरे अपना नाम सीखता है और अपने व्यक्तित्व को दूसरों से अलग करके देखने लगता है, लेकिन बड़ा होकर अपने मजाज़ी5 नाम को पा लेने के बाद, इस हक़ीक़ी6 नाम के लिए वह कितनी दौड़-धूप करता है और पहचाने जाने के बाद वह उसे भगवान के नाम से अलग करके नहीं देख सकता। फिर उसमें विलीन हो जाने की आकांक्षा के बावजूद अपना एक अलग व्यक्तित्व भी रखना चाहता है— यदि मैंने को मिले बिना उसे पहचान लिया तो उसने भी एक ही नज़र में मुझे जान लिया...फिर एक छोटा-सा लेखक और इतना बड़ा साहित्यिक मुझे मेरे नाम से जानता है।...यही नहीं, उसने मेरी उन एक-दो कहानियों का भी उल्लेख किया, जो उन दिनों थोड़े-थोड़े समय के अंतर से लाहौर की पत्रिकाओं में छपी थीं...वह उनकी प्रशंसा भी कर रहा था— क्या यह सच है?...इस विशाल मरु में मुझ जैसे अक्षम, डाकखाने के एक बाबू के लिए भी जगह है?....

    जगह थी या नहीं, इस वक़्त भी है या नहीं, इससे बहस नहीं, अश्क जिसे पसंद करता है, उसे स्वीकारता भी है और नाम-धाम की इस दुनिया में उसके लिए स्थान बनाने का सचेत प्रयास भी करता है। यह बात है जो मैंने अश्क में पर्याप्त मात्रा में पाई है। आज जबकि मैं अपने पीछे साहित्यिक जीवन के तीस वर्ष देखता हूँ, तो ग्लानि से अपनी गर्दन झुका लेता हूँ मैंने तो किसी नए लिखने वाले की मदद नहीं की। मैं भी अश्क की तरह उनकी प्रशंसा कर सकता था, आलोचना कर सकता था और उसके लिए रास्ते आसान कर सकता था। लेकिन मैं मैं हूँ और अश्क अश्क! आज भी जब मैं कभी अश्क से मिलता हूँ और उसे किसी नए लिखने वाले का नाम लेते हुए पाता हूँ तो मुझे अचंभा होता है, वह मोहब्बत, जो इंसान चौबीस घंटे अपने साथ करता है, नफ़रत में बदल जाती है और चूँकि आदमी हर हालत में अपने आपसे प्यार करना चाहता है, इसलिए अश्क से आदमी चिढ़ जाता है।...मेरी इस कमज़ोरी का क्या कारण है? शायद मेरे लिए उसे समझाना मुश्किल हो और किसी के लिए समझना मुश्किल! आसानी के लिए सिर्फ़ इतना कहूँगा...मुझमें शुरू ही से एक हीन-भाव-सा रहा है, बावजूद कोशिश के, दूसरों की प्रशंसा-स्तुति के, मैं उसे भटक नहीं नहीं सका। जैसे मुझे अपने-आप पर विश्वास नहीं...क्यों विश्वास नहीं? इसे जानने के लिए किसी को मेरी ज़िंदगी जीनी पड़ेगी और अश्क को क्यों विश्वास है, इसके लिए अश्क की ज़िंदगी जीनी पड़ेगी।

    अगले ही क्षण हम दो मित्रों की तरह बातें कर रहे थे, जैसे वर्षों से एक दूसरे को जानते हों...शायद गर्मियों का मौसम था और आसमान पर एक ग़ुबार सा छाया हुआ था— नीचे की धूल और गर्द थी जो कच्चे इलाक़ों से, बेशुमार घोड़ों की टापों या बे-लगाम हवा के साथ ऊपर चली गई थी और कण-कण नीचे उतर रही थी। हम पैदल चल रहे थे। अश्क बातें कर रहा था और मैं सुन रहा था। वह बहुत बातें करना चाहता था। ऐसा क्यों था, इसका कारण मुझे बाद में मालूम हुआ। उस समय हमारी बातें एक नए-ब्याहे जोड़े की-सी बातें थीं, जो रात भर एक-दूसरे को कुछ कहते-सुनते रहते हैं और अगले दिन अपनी ही बातों का तात्पर्य न पा कर हैरान होते हैं। पैदल चलते बातें करते हुए, हम अनारकली के निकट पहुँच गए, जहाँ अश्क ने मुझे अपना घर दिखाया।

    अश्क का घर अनारकली बाज़ार से ज़रा हट कर, पीछे की एक घनी, बसी गली में था, जिसमें प्रायः स्त्रियाँ आमने-सामने अपने-अपने मकान एक-दूसरी के साथ बातें करती सुनार्इ देती हैं, “भाबो!...आज तेरे घर क्या पका है?” और वह उत्तर में कहती है— “आज कुछ नहीं पका, ये बाहर खाना खा रहे हैं न, तू दाल की एक कटोरी भेज देना।”....और कहीं आप अपने ध्यान में जा रहे हों तो ऊपर से कूड़ा गिरता है और आपकी तबिअत तक साफ़ कर देता है। गली में इतनी भी जगह नहीं कि कोई उछल कर एक ओर हो जाए। फिर आमने-सामने की खिड़कियाँ...कोई लड़का खिड़की में खड़ा, सामने की खिड़की में झुकी हुई लड़की का हाथ पकड़ कर, उसकी हथेली खुजा देता है, जो लाहौर का एक आम दृश्य है और जिससे पता चलता है कि इश्क़ के मामले में लाहौर शहर से अच्छी जगह दुनिया भर में और कहीं नहीं!...और इसी गली में अश्क रहता था। यद्यपि ‘अश्क’ और ‘इश्क़’ के उच्चारण में अंतर होता है, लेकिन लगता है, बात घूम-फिर कर वहीं पहुँचती है। कौन जाने कब इश्क़ अश्क में बदल जाए या इसके उलट हो जाए।....अश्क का घर ‘दो-मंज़िला था, जिसकी ऊपर की मंज़िल में अश्क के दन्दानसाज़ भाई डॉक्टर शर्मा बीवी बच्चों के साथ रहते थे और नीचे अश्क और उसका पुस्तकालय— काम करने की जगह— जिस पर पहुँचने के लिए ‘पतले के स्वर्ग’ और ‘मोटे के नरक’ क़िस्म की सीढ़ियों पर से हो कर जाना पड़ता था— एक रस्सा था, जो लोगों के हाथ लग लग कर मैला हो चुका था और जिसे पकड़ कर न चढ़ने पर लुढ़क जाने का भय था... इसी तंग अँधेरे मकान में अश्क रहता था। यहीं वह किसी चित्रकार की विशी-वाशी (Wishy Washy) शैली में लिखता, काटता, फिर लिखता— पहली रेखाओं को मिटा कर दूसरी रेखाएँ बनाने लगता। लिखना उसकी आदत थी और इबादत भी, जो ज़िंदगी से परे थी तो मौत से भी परे।

    अश्क छोटी उम्र में ही अपनी रोज़ी कमाने लगा। उसके पिता स्टेशन मास्टर थे, जिन्हें शराब पीने और घर से बेपरवाह रहने की आदत थी। वे घर की ओर रुख़ भी करते तो डाँट-फटकार और मारपीट के लिए—बीवी से लड़ रहे हैं, उस पर गरज रहे हैं, या कि बच्चे को उल्टा लटका कर उसे बेदर्दी से पीट रहे हैं। उनकी शक्ल जाबिर थी और अक़्ल अभी जाबिर। जो फ़ैसला हो गया, अटल है। उस निर्मम व्यक्तित्व वाले पुरुष के साथ गाय-जैसी प्रकृति वाली स्त्री का विवाह हो गया, जो अश्क की माँ थी। अपने पति के अत्याचारों ने जिसकी प्रकृति पर दुख की स्थाई रेखाएँ बना दी थीं। अश्क की रचनाओं में गृह कलह के साथ-साथ माता-पिता के विरोधी चरित्र भी आते हैं। और उस ज़बरदस्त शख़्सियत वाले बाप के कारण ही था कि एक दिन अश्क ने ज़िंदगी में अपनी जगह पाने के लिए पिता की छत्र-छाया छोड़ दी। पुत्र ने चुनौती दी, पिता ने स्वीकार कर ली और दोनों जीत गए। क्योंकि ज़िंदगी की विरोधी हवाओं और आँधियों से टक्कर लेने वाला, स्वयं ऐसे राज-रोग में ग्रसित हो कर मौत का मुँह चिढ़ाता हुआ, बच कर निकल आने वाला, घोर विपन्नता और उस पर मित्रों और संबंधियों की बे-रुख़ी के बावजूद, साहित्यिक गुटबंदियों और ईर्ष्या-द्वेष से पटे हुए शहर इलाहाबाद में लेखन प्रकाशन के काम को सुदृढ़ता से चला ले जाने वाला एक ऐसे ही बाप का बेटा हो सकता था।

    अश्क के माता-पिता छह बेटे इस संसार में लाए (लाए तो सात थे, पर एक शैशव ही में चल बसा था) और सब-के-सब नर। जालंधर के मुर्दुम खेज़ खित्त (नर-रत्न-प्रसू भूमि) में जिनका पालन पोषण हुआ था। जहाँ का हर आदमी शायर है या गायक; जहाँ हर बरस हरवल्लभ का मेला लगता है; जहाँ पूरे हिंदुस्तान से शास्त्रीय संगीत के विशारद खिंचे चले आते हैं और गाते हुए डरते हैं, क्योंकि उस शहर का बच्चा-बच्चा ‘विद्या-बान’ है, जो सीधा कलेजे में लगता है। जानता है, कहाँ कोई सुर लग गया। फिर वह लिहाज़ थोड़े ही करेगा? जहाँ कहीं भी कोने में बैठा है, वहीं से पुकार उठेगा और वर्षों अपने अथवा अपने गुरु के सामने घुटने टेकने और संगीत सीखने की दावत देगा। सर्दियों की रात में अलाव के गिर्द बैठ कर वह बैतबाज़ी करेगा, जो सुबह तक चलेगी।....उस शहर का हर आदमी अपने-आपको प्रतिभाशाली समझता है और यदि उसकी प्रतिभा को स्वीकार न किया जाए तो एक हाथ है, जो सीधा न मानने वाले की पगड़ी की ओर आता है, फिर गालियों और मार-पीट तक नौबत आ सकती है...ये छहों भाई उस शहर की उपज थे और यह आश्चर्य की बात नहीं कि इनमें से हरेक अपनी जगह एक माना हुआ व्यक्ति था— ऐसे व्यक्तित्व का स्वामी, जिससे वही इनकार करे, जिसकी शामत आर्इ हो। मालूम होता है घूँसा भी दलील का एक हिस्सा है। यदि किसी कारण वह घूँसा न तान सके तो फिर यूँही शोर मचा रहा है। मकान से ‘मर गया, मार दिया’ की आवाज़ें आ रही हैं और लोग इस कान से सुन कर उस कान से निकाल देते हैं। एक दिन की बात हो तो कोई कुछ करे भी। हर रोज़ इस मकान से कोई-न-कोई गरज सुनाई देती है। छह-के-छह शेर। कोई बड़ा अपने वज़न से दूसरे को दबा ले, पीट डाले, लेकिन छोटा भी गरजने से बाज नहीं आ सकता। कुछ नहीं तो घायल हो कर ही चिल्ला रहा है, शोर मचा रहा है। शोर के बिना कोई बात हो ही नहीं सकती। चारों ओर एक हड़बोंग-सी मची है। दो इधर आ रहे हैं, तीन उधर जा रहे हैं। कछार से निकल रहे हैं, कछार में दाखिल हो रहे हैं। ख़ून बह रहा है, मरहम-पट्टी हो रही है— इसलिए मारा जा रहा है कि मार क्यों खाई? और फिर सब की गरज एक और पाटदार आवाज़, एक और बड़ी गरज में दब जाती है—“चुप!”— यह पिता जी की आवाज़ है— एक शेर बब्बर की गरज, जिसे सुन कर पूरे जंगल में ख़ामोशी छा जाती है। इस गिरि बेले में कोई लोमड़ी नहीं, एक भी बहन नहीं (हुई, पर बची नहीं)। गाय माँ काँपती रह जाती है, जबकि पिता सामने बोतल रख कर बैठ जाते हैं। भूल करते हैं, लेकिन ब्राह्मण होने के नाते भूल बख़्शवाना भी जानते हैं। गा रहे हैं— ‘शामाजी मेरे अवगुन चित न धरो!’

    अश्क के पिता को अपने ब्राह्मण होने पर नाज़ था। वे उस परशुराम की संतान थे, जिसने हाथ में कुल्हाड़ा लेकर इक्कीस बार क्षत्रियों का नाश किया था। क्षत्री, लड़ना और मारना-मरना जिनका पेशा था और जो किसी के सामने न दबे, आज भी परशुराम की इस संतान से दबते हैं। लगता है अश्क के पिता की शराबनोशी एक-दो बच्चों के बाद बढ़ गई— अच्छे भले सुरेंद्रनाथ, उपेंद्रनाथ के-से नाम रखते हुए वे सीधी परशुराम तक पहुँच गए, जो इन छह भाइयों में तीसरा था।...इसका कारण यह था कि वे जालंधर के उस मुहल्ले में रहते थे, जहाँ क्षत्रियों (खत्रियों) के साथ ब्राह्मणों की हमेशा से ठनी रहती है। साल भर पहले मुहल्ले के क्षत्रियों ने अश्क के पिता की अनुपस्थिति में उनके पागल चचा को निर्दयता से पीटा था, जबकि अश्क की माँ और परदादी साँस रोके हुए देखती रह गई थीं। तभी से एक संकल्प था जो अश्क की प्रगट कमज़ोर और गाय माँ के दिल में जाग उठा था और उस संकल्प कारण ही नवजात शिशु का नाम परशुराम रखा गया था। बचपन ही से उस बच्चे से कहा गया— ‘अरे! तू...परशुराम हो कर रोता है, जिसने क्षत्रियों के कुल का नाश कर दिया और आँख तक न झपकी और बच्चा रोते-रोते चुप हो जाता... और सोचने लगता, बड़ा हो कर वह सब क्षत्रियों का नाश कर देगा...चौथे बेटे का नाम अश्क के पिता ने इंद्रजीत रखा—ब्राह्मण रावण का सुपुत्र, देवताओं के राजा इंद्र को ज़ेर करने वाला, क्षेत्री लक्ष्मण को शक्ति-बाण मार कर उसे मूर्छित करने वाला...अश्क के माता-पिता का बस चलता तो वे पूरी रामायण नए सिरे से लिखते, जिसमें यह प्रमाणित होता कि ब्राह्मण रावण नायक था और क्षत्री रामचंद्र खलनायक!

    अश्क की माता के बारे में ज्योतिषियों ने कहा था कि वह ‘सातपूती’ है, अव्वल तो उसके बेटी हो नहीं सकती, होगी भी तो बचेगी नहीं, कन्या दान का सुख उसके भाग्य में नहीं। चुनाँचे यही हुआ। लड़के-ही-लड़के चले आए और ऐसी शिक्षा के सहारे एक-से-एक दबंग, एक-से-एक लड़ाका! दुनिया के इतिहास में पठानों की प्रतिशोध-प्रियता ख्यात है, क्योंकि वे अपनी जायदाद की तरह अपनी लड़ाइयों को भी उत्तराधिकार के रूप में अपनी संतान को दे जाते हैं। लेकिन अश्क के माता-पिता उनसे किसी तरह कम नहीं थे। आख़िर एक दिन आया कि उन भाइयों ने मुहल्ले के सारे क्षत्रियों को पीट-पीट कर अस्पताल भिजवा दिया। प्रकट है कि परशुराम इस युद्ध का नायक था। अकेले उसने शत्रुओं के परे-के-परे बिछा दिए। यद्यपि वह स्वयं भी घायल हुआ और क़ानूनी शिकंजे में भी फँस गया, लेकिन सबको प्रसन्नता इस बात की थी कि पागल दादा की आत्मा कहीं ऊपर आकाश में यह सब देख कर प्रसन्न हो रही होगी।

    सो ये थे अश्क के नाटक ‘छठा बेटा’ और उसके वृहद उपन्यास ‘गिरती दीवारें के प्रमुख पात्र। अश्क इन भाइयों में दूसरा है....फिर घर में भाभियों का आगमन शुरू हुआ शेरों के पास बकरियाँ बँधने लगीं। अब आप ही बताइए, वे क्या खातीं, क्या पीतीं? उस आपसी मार-धाड़, घर भर के हंगामे में वे खा-पी भी लेतीं तो क्या तन को लगता? अनारकली वाले मकान से पहले अश्क अपने बड़े भाई के साथ चंगड़ मुहल्ले के अत्यंत सील-भरे, तंग और अँधेरे कमरे में रहता था, जिसमें ताज़ी हवा के बदले वे एक दूसरे की साँसों पर जीते। इस ‘हैरताबाद’ में औरतों ने बहुत किया तो रो लिया नहीं तो :

    ‘घुट के मर जाऊँ, यह मर्ज़ी मेरे सैयाद की है’

    अश्क की बीवी—शीला—जब ब्याही आर्इ तो गेहुएँ रंग की एक गोल मटोल लड़की थी, जो बात-बात पर हँसती थी। इस के वातावरण में उसका दम घुटने लगा। इस पर भी वह अपनी पहली फ़ुर्सत में खिलखिला उठती। लगता था, कोई बात भी उसकी हँसी को नहीं दबा सकती। मैं शीला से मिला तो नहीं, पर अश्क के लाहौर वाले कमरे में और बाद में इलाहाबाद में अश्क के बड़े लड़के उमेश के कमरे में शीला की तस्वीर ज़रूर देखी है, जिसमें वह हँस रही है। मौत भी उसकी हँसी को नहीं दबा सकी...अश्क उन दिनों बहुत व्यस्त रहता था। वह अपनी रचनाओं को टोह-टोह कर देख रहा था, उन्हें बाज़ार ले जा रहा था, यह देखने के लिए कि बिकती हैं कि नहीं। कुछ बिक सकीं और कुछ नहीं। कुछ पैसे वसूल हुए, कुछ नहीं हुए; लेकिन उन्हीं रचनाओं के बल पर उसे उर्दू दैनिक ‘भीष्म’ और फिर ‘वंदे मातरम्’ में सहायक संपादक की जगह मिल गर्इ। अवकाश के क्षणों में वह घोस्ट राइटिंग 7(Ghost Writing) किया करता— अश्क के लिखे हुए हिदायतनामे लाखों की संख्या में बिके, लेकिन चंद टिकलियों के सिवा उसके हाथ में कुछ नहीं आया। फिर एक और दुर्घटना हुई। अश्क के ससुर पागल हो गए, उसकी सास लाहौर आकर एक सेठ के यहाँ चौका-बर्तन पर नौकरी करने लगी। दामाद के घर का तो वह पानी भी न पी सकती थी और अपने पति के निकट रहना चाहती थी। इससे अश्क और शीला की भावनाएँ घायल हो गर्इं। अश्क ने निश्चय किया कि वह सामाजिक रूप से शीला को ऐसा पद और प्रतिष्ठा देगा, जिससे उसके दिल से हीन भाव मिट जाए। उसने सबजजी के कम्पीटिशन में बैठने की ठानी।

    अब वह वकालत पढ़ने लगा। दिन को साहित्यिक काम, कॉलेज की पढ़ाई, ट्यूशन और रात को अध्ययन-मनन। कोठे-कोठे जितनी बड़ी पुस्तकें लेकिन जिस मिट्टी से अश्क का ख़मीर उठाया गया था, जिस हड्डी से उसकी रीढ़ बनी थी, वह किसी भी परिश्रम से लोहा ले सकती थी। इसी बीच। शीला ने उमेश— अश्क के सब से बड़े पुत्र को जन्म दिया। घर के वातावरण और ख़ुराक की कमी के कारण वह बीमार हो गई और अभी अश्क एफ० ई० एल० की परीक्षा भी न दी थी कि डॉक्टरों ने यक्ष्मा का संदेह प्रकट कर दिया। अश्क ने हार नहीं मानी। एफ़० ई० एल० उसने फ़र्स्ट डिवीज़न में पास किया। एल० एल० बी० में वह उसे लाहौर ले आया और वहाँ शहर से आठ मील दूर गुलाब देवी अस्पताल में उसे भरती करा दिया। अब वह एक ओर साहित्य सृजन करता, दूसरी ओर क़ानून की पढ़ाई करता और तीसरी ओर हफ़्ते में दो-तीन बार मॉडल टाउन से भी परे अस्पताल में शीला से मिलने जाता। उसे वास्तव में विश्वास नहीं था कि नियति उस ठठोल को इस नीचता की सीमा तक ले जाएगी। वह समझता था, शीला अच्छी हो जाएगी, लेकिन इधर इतने श्रम, इतनी तपस्या से अश्क ने डिस्टिंक्शन से क़ानून की परीक्षा पास की, उधर शीला चल बसी। विधाता ने एक हाथ से दिया, दूसरे से सभी कुछ छीन लिया। अब ज़िंदगी में कोई क़ायदा, कोई क़ानून न रहा। अश्क ने सबजजी का विचार छोड़ दिया। जिसके लिए वह जज बनना चाहता था, वह तो जा चुकी थी...उसने अत्यधिक दुख, अत्यधिक शोक, बेपनाह थकावट के आलम में क़लम उठार्इ और साहित्य सृजन रत हो गया। क्योंकि यह साहित्य सृजन ही था, जिसमें अपने आपको ग़र्क कर देने से, वह अपने जीवन की उस महान दुर्घटना को किसी हद तक भूल सकता था...घर के झगड़े, परिस्थितियों की विकटता, समाज का ज़ुल्म ही था, जिसे अश्क ने अपने साहित्य की विषय वस्तु बनाया— इस ज़माने में वह अपना उपन्यास ‘गिरती दीवारें’ लिखना शुरू कर चुका था, जिसे अश्क की जीवनी भी कहा जा सकता है और जो उसका सब से बड़ा कारनामा है। इसके साथ ही छोटी-छोटी कहानियाँ— कोंपल, गोखरू, संगदिल (पाषाण), नन्हा, पिंजरा आदि भी उसने उन्हीं दिनों लिखीं, जिन पर उसकी असीम उदासी की स्पष्ट छाप है।

    शायद अश्क मेरी इस बात की साक्षी दे कि उसने प्रेम केवल एक स्त्री से किया और वह शीला से। क्योंकि उस ज़माने में अपनी सारी चेतना के बावजूद, वह नहीं जानता था कि प्रेम होता क्या है। और न शीला ही जानती थी। वे दोनों जी रहे थे कभी अपने लिए, कभी एक-दूसरे के लिए। और यह ऐसा प्रेम था, जिसकी हर अदा में अनायासता थी, जो किसी नाम का मोहताज था, न गुण का।... इसके बाद भी अश्क ने मोहब्बत की, लेकिन जुनून उसमें से ग़ायब हो चुका था। उसमें एक परिपक्वता आ चुकी थी, जिसकी वजह से वह अपनी दूसरी शादी के एक महीने बाद ही माया—अपनी दूसरी बीवी को छोड़ सका और कौशल्या—अपनी वर्तमान पत्नी से कह सका— जानेमन! मैं ज़िंदगी का सफ़र करते-करते थक गर्इ हूँ। मुझ में जवानी की वह लपक नहीं रही। यदि तुम उसकी आशा रखत हो तो व्यर्थ है। मैं उस प्रेम के योग्य नहीं जो ज्वाला-सा लपकता है, वह प्यार मैं तुम्हें दे सकता हूँ, जो धीमी आँच पर पकता है और इसीलिए स्वादिष्ट होता है।

    तो यूँ मुझे अपने घर लाकर अश्क ने मेरे साथ सैकड़ों ही बातें कर डालीं। अपना खाया, पिया—सब मेरे सामने उगल दिया। अनुभवी आदमी प्रायः अपना सब कुछ यूँ नहीं कह डालते और फिर वह भी उस आदमी से, जो उनसे पहली बार मिला हो। लेकिन मुझ से बहुत कुछ कहना चाहता था। यह तो अच्छा हुआ, मैं मिल गया, नहीं तो वह दीवारों से बातें करता, सड़क पर खड़े किसी बिजली के खम्भे से अपने दिल की दास्तान दोहरा देता...तब तक रात आधी से अधिक जा चुकी थी। ग़ुबार दब चुका था, इस पर भी आसमान कुछ साफ़ न था। कहीं-कहीं कोई सितारा आत्म प्रदर्शन की धुन में धुंध, धुएँ और धूल के वरण को चीरता फाड़ता, अपना टिमटिमाता हुआ रूप दिखाने लगता। अश्क की बातें सुनते वक़्त मैं कई बार हँसा, कई बार मेरी आँखों में आँसू भर आए।...अब मेरा मन ऊबने लगा था। कुछ इस बात का ख़याल भी था कि सतवंत—मेरी पत्नी—घर में प्रतीक्षा कर रही होगी। जब तक पुरुष के सैलानी होने का विश्वास न हो जाए, हर स्त्री अपने पति के पीछे घोड़े दौड़ा देती है। उनमें से कुछ गधे निकल आते हैं, जिनमें से एक मेरा संबंधी था, जो मुझे ढूँढ़ने के लिए भेजा गया था। अश्क मुझे कुछ दूर तक छोड़ने के लिए मकान के नीचे उतरा। वह दूर न जा सकता था, क्योंकि घर में जाते ही उसने धोती-कुर्ते को बनियान और तहबंद से बदल लिया था। लेकिन फिर बातों के नए शोशे छोड़ते हुए हम अनारकली के बड़े बाज़ार से निकल कर बाइबल सोसाइटी के सामने चले आए और फिर वहाँ से होते हुए नाल रोड पर...मेरे घर की तरफ़...गोलबाग़ पहुँच कर, जहाँ मेरा वह संबंधी, जैसा कि बाद में पता चला :

    चिट्ठिए दर्द फ़िराक वालिए
    लैजा लैजा सुनेहड़ा सोहने यार दा

    गाता हुआ पास से गुज़र गया और हम बेफ़िक्री के आलम में एक बेंच पर बैठ गए...आहिस्ता-आहिस्ता मुझ में अपनी पत्नी से कारण एक घबराहट सी पैदा हो रही थी। मैंने उठने की कोशिश की, लेकिन अश्क कविता सुना रहा था।

    चल दोगी कुटिया सूनी कर
    इसी घड़ी इस याम
    युग-युग तक जलते रहने का
    मुझे सौंप कर काम

    और मैं उसकी प्रशंसा कर रहा था। मुझे कविता ज़रूर अच्छी लग रही थी, पर घर का ख़याल भी सता रहा था। अब हालत यह थी कि मैं तो कंबल को छोड़ना चाहता था, पर कंबल मुझे नहीं छोड़ रहा था। आख़िर मैंने जी कड़ा किया, लेकिन जो शब्द मेरे मुँह से निकले, उसकी हैसियत क्षमा याचना से अधिक कुछ न थी। मैं उठा तो कभी मेरे साथ उठ गया...बातें करता हुआ...वह मेरे घर के सामने खड़ा था।

    बच्चे ने दरवाज़ा खोला और मैं जल्दी-जल्दी अंदर गया। बैठक खोल कर बत्ती जलाई और को अंदर बैठाया। इतनी गर्मी के बावजूद सतवंत—मेरी बीवी—नीचे मेरी प्रतिक्षा कर रही थी। वह एक श्रम क्लर्क की बीवी थी, जो दफ़्तर से छुट्टी के आधे घंटे के अंदर-अंदर पति को अपने घुटने के पास बैठा हुआ देखना चाहती है और अब तो रात आधी से ज़्यादा गुज़र चुकी थी और ‘बुरे-बुरे ख़याल मेरे मन में आ रहे थे।’...

    “कहाँ रहे इतनी रात तक?” उसने मुझसे पूछा।

    “जहन्नुम में।” मैंने कहा, “तुम ज़रा मेरे साथ बैठक में आओ। एक बहुत बड़ा साहित्यिक मुझ से मिलने आया।”

    “हाँ मगर— इस वक्त?”

    “हाँ...तुम आओ तो।”

    और में सतवंत का हाथ पकड़ उसे बैठक की ओर से चला। उस वक़्त तक सतवंत साहित्यिकों को आदर के योग्य कोई चीज़ समझती थी। जल्दी-जल्दी एक-दो घूँट में उसने अपना ग़ुस्सा पी लिया और अपने चेहरे की ‘जैसे कुछ हुआ ही नहीं’ के नख-शिख से सँवारते हुए मेरे पीछे बैठक में चली आई और एक काले-कलूटे आदमी को, उस वेष में देख कर डर गई। अश्क उस समय भाटी दरवाज़े का कोई ऐसा गुंडा लग रहा था, जिससे लाहौर की सब स्त्रियाँ डरती थीं और जिसे सामने से आते देख कर सड़क छोड़ कर एक ओर खड़ी हो जाती थीं। मुझे सतवंत का यह अंदाज़ अच्छा न लगा। मैं कर ही क्या सकता था। मैंने पहले अश्क की ओर हाथ बढ़ाया— “उपेंद्रनाथ अश्क।” और फिर पत्नी की ओर— “सतवंत मेरी पत्नी।”

    छूटते ही अश्क ने मेरी पत्नी का नाम पुकारा—“सतवंत, बुरा मत मानना, मैं ऐसे ही चला आया हूँ।” और उसने अपनी बनियान और तहबंद की ओर संकेत किया, “बात यह है मैं ज़रा मलंग आदमी हूँ।...”

    और फिर ज़ोर से मेरे हाथ पर हाथ मारते हुए वह हँसा— एक ऐसी हँसी, जिससे फेफड़े फट जाएँ। एक चिड़िया, जिसने ऊपर कार्निस के पास घोंसला बना रखा था, फड़फड़ा उठी। सामने के घर की बत्ती जली और किसी ने बालकनी पर से झाँका...इससे पहले कि मेरी पत्नी कुछ कहती, अश्क उससे कह रहा था— “ सतवंत!...बहुत भूख लगी है।”....                                                                        

    स्रोत :
    • पुस्तक : उर्दू के बेहतरीन संस्मरण (पृष्ठ 107)
    • संपादक : अश्क
    • रचनाकार : राजेन्द्रसिंह बेदी
    • प्रकाशन : नीलाभ प्रकाशन
    • संस्करण : 1662

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