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सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

sarafroshi ki tamanna ab hamare dil mein hai

मन्मथनाथ गुप्त

मन्मथनाथ गुप्त

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

मन्मथनाथ गुप्त

और अधिकमन्मथनाथ गुप्त

    दिन के बारह बजे जब संतरी बदल गए तो नए संतरियों ने बहुत ध्यान से फाँसी घर की कोठरियों को देखा। ताले देखे, जंगले देखे, फिर क़ैदियों की तरफ़ देखा।

    एक कोठरी ख़ाली थी।

    बाक़ी तीन कोठरियों मे तीन फाँसी वाले बंद थे। पर उन में से किसी ने भी आज खाना नहीं खाया था। उन का खाना मिट्टी के बर्तनों में ज्यों का त्यों रखा हुआ था। फाँसी वालों को मिट्टी के बर्तन इसलिए दिए जाते हैं कि वे धातु के बर्तनों से सिर फोड़ लें!

    रामदरस ज़मादार ने सुमेर ज़मादार से दृष्टि-विनिमय किया, फिर वे जा कर छोटे से हाते के दरवाज़े पर बैठ गए। यों फाँसी घर के संतरियों को बैठने का हुक्म नही था। उन के लिए हुक्म यह था कि एक ज़मादार फाँसी की कोठरियों का एक तरफ़ से चक्कर लगाए, दूसरा दूसरी तरफ़ से, यानी हर चक्कर में वे दो बार मिलें।

    इसीलिए रामदरस और सुमेर हाते के दरवाज़े पर बैठ गए, जिस से कोई आता हुआ दिखाई पड़े तो वे चक्कर मारने लगें।

    फाँसी घर के क़ैदियों ने खाना क्यों नहीं खाया था, यह दोनों ज़मादारों को अच्छी तरह पता था। आज सवेरे चौथी कोठरी में बंद कृपालसिंह को फाँसी दे दी गई थी। इसी कारण फाँसी घर में यह मातम छा गया था। नंबर एक और नंबर तीन कोठरियों के रहने वालों की अपीलें ख़ारिज हो चुकी थी; हाँ, नंबर चार वाले की अपील अभी बाक़ी थी, पर उस में भी कोई गुंजाइश नहीं थी। उस ने दिन-दहाड़े खेत में दो व्यक्तियों की हत्या कर डाली थी। खेत का मामूली झगड़ा था।

    रामदरस ने सुमेर से कहा—इन में से कोई छूटने वाला नहीं।

    सुमेर को भी यहाँ ड्यूटी देते हुए महीनों हो गए थे, वह सब को अच्छी तरह जानता था। उदासीनता के साथ बोला जो जैसा करता है, वह वैसा भोगता है।

    रामदरस ने कहा—यह बात नहीं, कई बार बड़े-बड़े भयंकर मुज़रिम साफ़ बरी हो जाते हैं।

    सुमेर ने इसे अपने तर्क का प्रतिवाद नहीं समझा, बोला—जाको राखे साइयाँ

    दोनो बीड़ी पीने लगे। हाँ, उन की दृष्टि जेल के फाटक की ओर लगी रही।

    थोड़ी देर बाद रामदरस बोला—आज तो सब को जैसे साँप सूँघ गया है। तुम बैठो, मैं इन को बीड़ी पिलाता हूँ।

    'बैठो' का मतलब सुमेर को मालूम था। उस का अर्थ था, तुम पहरे पर रहो, मैं बीड़ी पिलाता हूँ। क़ैदियो को बीड़ी पिलाना ग़ैर-क़ानूनी था, पर क़ानून से ऊपर भी तो कुछ होता है। आख़िर ये भी तो इंसान है, इन्हीं के साथ घंटो बैठना है। जो किया है, उसे तो भोगेंगे ही, पर इस तरह खाना छोड़ने से क्या फ़ायदा? जब तक साँस, तब तक आस।

    रामदरस ने तीनों फाँसी वालों को बीड़ियाँ दी और स्वयं बीच में खड़ा हो कर आत्म-प्रसाद का आनंद लेने लगा जैसे वह मानवता के साथ कोई बहुत भारी उपकार कर रहा हो। सचमुच बीड़ी पीकर सब लोग उठ खड़े हुए थे और जहाँ एकदम मुर्दनी छाई हुई थी, वहाँ कम से कम कुछ चहल-पहल हो गई थी।

    अभी फाँसी वाले बीड़ी पी नहीं चुके थे कि उधर से सुमेर ने कोई इशारा किया तो रामदरस ने फ़ौरन तीनो फाँसी वालो से बीड़ी के बचे हुए हिस्से ले लिए और जल्दी से बोला—तुम लोग रोटी खाओ।

    फिर वह दरवाज़े की तरफ़ चला गया। रामदरस ने झाँक कर देखा और समझ गया कि चौथी कोठरी का निवासी रहा है। पर यह तो कोई गोरा चिट्टा तेजस्वी व्यक्ति मालूम होता था। साथ में दो संतरियों के अतिरिक्त दो नंबरदार और स्वयं जेलर साहब थे।

    रामदरस और सुमेर ऐसे खड़े हो गए जैसे अभी तक वे गश्त लगा रहे थे और अब आहट सुन कर इधर आए हैं। रामदरस ने इस बीच एक काम और कर डाला, वह जल्दी से फाँसी वालों के पास गया और बोला—दो नंबर का आदमी रहा है।

    जेलर साहब के साथ-साथ वह छोटा सा जुलूस फाँसी घर के हाने के दरवाज़े पर आया। कहीं से बड़ा ज़मादार गया और उसने हाते का ताला खोला। सब लोग भीतर दाख़िल हुए और फिर बड़े ज़मादार ने स्वयं भीतर कर दरवाज़े को ताला मार दिया।

    दो नंबर कोठरी खोल दी गई। जो व्यक्ति इसके अंदर रहने के लिए आया था, वह कोठरी के दरवाज़े तक आया, फ़िर सूँघ कर अधिकारी आवाज़ में बोला—'इसे साफ़ कराओ, इस में बदबू रही है! फिनायल डलवाओ।'

    यह कह कर उस ने घूम कर अन्य तीन साथियों को बारी बारी देखा और हँसा—हँसी के द्वारा ही उन का अभिवादन किया। सब फाँसी वाले उसे देख कर प्रफ़ुल्लित हो गए। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि यह भी कोई फाँसी वाला था, पर था वह फाँसी वाला ही। ब्रिटिश सरकार तीन सौ अन्य फाँसी वालों को छोड़ सकती थी, पर इस रामप्रसाद बिस्मिल को नहीं छोड़ सकती थी; क्योंकि वह सन् '14 से यानी गत 13 साल से ब्रिटिश साम्राज्य को उलटने का षड्यंत्र कर रहा था। पहले उस ने गेंदालाल दीक्षित के साथ षड्यंत्र किया, पर वह पकड़ा नहीं जा सका।

    मैनपुरी में षड्यंत्र का बड़ा भारी मुक़दमा चला, पर वह उस संबंध में गिरफ़्तार नहीं किया जा सका। यहाँ तक कि वह अंत तक फ़रार रहा और जब 1919 में सरकार ने कुछ क्रांतिकारियों को आम माफ़ी के सिलसिले में छोड़ दिया, तो उसे भी छोड़ना पड़ा।

    उन्हीं दिनों जालियानवाला हत्याकांड हुआ। महात्मा गांधी देश के नेता के रूप में सामने आए, पर इस युवक को इस से संतोष नहीं हुआ। महात्मा गांधी ने भी तो चौरी-चौरा में जो पुलिस वाले ज़िंदा जला दिए गए, उस के उपलक्ष्य में चले-चलाए आंदोलन को बीच में ही रोक दिया।

    फिर से क्रांतिकारी आंदोलन भड़क उठा। जाने कहाँ के दिलजले और सिर पर कफ़न बाँचे हुए लोग इकट्ठे हो गए और अब की विराट् रूप में दल बना कर क्रांति का आवाहन चला। शचींद्रनाथ सान्याल, चंद्रशेखर आज़ाद, मुकुंदी लाल, दामोदर स्वरूप सेठ, सुरेश चक्रवर्ती, राजेंद्र लाहिड़ी, रोशनसिंह, अशफ़ाक उल्ला और जाने कितने ही अज्ञात नाम और अज्ञातधाम युवकों ने मिलकर हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन क़ायम किया, जिस का उद्देश्य था क्रांति के द्वारा ऐसे समाज की स्थापना, जिस में मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण संभव रह जाए।

    अब तक इस फाँसी घर में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं आया था। बड़े ज़मादार दौड़े, भंगी आया, सफ़ैया आया, झाड़ वाला आया, झाड़ू आई, फिनायल आई और कोठरी की अच्छी तरह सफ़ाई हुई जैसी कि शायद कभी नहीं हुई थी।

    सफ़ाई होने के बाद बड़े ज़मादार ने कहा—'पंडित जी, तैयार हैं।

    बिस्मिल उठे, कमरे को अच्छी तरह देखा, फिर बोले—सूख जाने दो।

    कह कर वह फिर चहलक़दमी शुरू करने ही वाले थे कि एकाएक उन का मन पसीज गया कि हैं ये अँग्रेज़ों के ग़ुलाम, पर हैं तो अपने भाई, इन्हें क्यों कष्ट दें। वह एकाएक कोठरी के अंदर चले गए और भीतर जाते हुए बोले—लाओ मेरी पुस्तकें।

    थोड़ी देर में कोठरी बंद हो गई। सब लोग चले गए, हाँ, दो और संतरी रह गए। पूरे फाँसी घर के लिए दो संतरी थे और अकेले रामप्रसाद बिस्मिल पर दो संतरी! जेलर को पहले ही चेतावनी दे दी गई थी कि बाहर से चंद्रशेखर आज़ाद तथा अन्य साथी काकोरी षड्यंत्र के फाँसी वालों को भगाने की चेष्टा कर रहे हैं।

    सब फाँसी वाले अपनी कोठरियों से अनुमान करने लगे कि पंडित जी क्या कर रहे हैं। थोड़ी देर में बिस्मिल चिल्ला-चिल्ला कर गीता के श्लोक गाने लगे, उस के बाद शायद यह समझ कर कि यहाँ गीता के श्लोंको से लोगों को उतना लाभ नही पहुँचेगा जितना दूसरे गीतों से। वस्तु उन्होंने गाना शुरू किया—

    सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है। अब अगले वलवले हैं और अरमानों की भीड़ सिर्फ़ मिट जाने की हसरत इक दिल-ए-बिस्मिल में है रहरए राहे मुहब्बत रह जाना राह में, लज्ज़त-ए-सहारनेनदी दरिएमणि में है। शहीद सुरशेमिल्लत में तेरे ऊपर निसार, अब तेरा हिम्मत की चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।

    सब लोग स्तब्ध होकर उन का गीत सुन रहे थे और सवेरे से फाँसी घर के हाते में जो मुर्दनी छाई थी, वह बात की बात में दूर हो गई थी। ज़मादार भी गौरव का अनुभव करने लगे कि अब कोई क़ैदी की तरह बंदी आया है। काकोरी मुक़दमे के विषय में उन्होंने पहले ही सुना था और उन्हें मालूम या कि पंडित मोतीलाल नेहरू आदि की तरफ़ में एक कमेटी बनी है जो इस मुक़दमे की पैरवी कर रही है। वे यह भी जानते थे कि काकोरी के पास जो रेल डकैती हुई थी, उसी से यह मुक़दमा चला है। बिस्मिल इसी षड्यंत्र के नेताओ में थे।

    बिस्मिल का मन इतना विस्तृत था कि वह हर समय बड़े-बड़े सपने देखा करते थे। एक तो हाईकोट में मुक़दमा हो रहा था, उस की पैरवी की तैयारी यह कर रहे थे, दूसरे उन्हें चोरी से अपनी आत्मकथा भी लिखनी थी। थोड़ा-थोड़ा लिखा जाता और चोरी से बार्डर के हाथ 'स्वदेश' के दफ़्तर में भेज दिया जाता और वहाँ क्रांतिकारियों के परम मित्र स्वयं अमर शहीद गणेशशकर विद्यार्थी के हाथों में पांडुलिपि पहुँच जाती। यह पुस्तक बाद में 'काकोरी के शहीद' नाम से प्रकाशित हुई, पर तुरंत ही ज़ब्त कर ली गई। अब तीस साल बाद यह पुस्तक पुनर्मुद्रित हुई है।

    लिखाई चलती रही, पर साथ ही जो तीन हतभाग्य उन के साथी बन गए थे, उन के लिए भी वह समय निकाल कर एक काय क्रम करते थे। वह स्वयं धार्मिक प्रकृति के थे और धर्म में उन का अगाध विश्वास था। इस बात को लेकर उन में और कई साथियों में जो अभी पूरे निरीश्वरवादी तो नहीं हुए थे, पर उस ओर बढ़ रहे थे, बड़ी चखचख रहती थी, पर इन बेचारे फाँसी वाला का उन बातों को बताकर संशय में नहीं डालना था, वह उन्हें परलोक और परजन्म की बात समझाते थे और बताते थे कि यह जन्म सैंकड़ों अन्य जन्मों में एक है, मृत्यु तो इस प्रकार है जैसे एक कपड़ा बदलकर दूसरा पहन लिया। भगवान् बड़ा दयालु है, यह सब-कुछ क्षमा कर देता है, बशर्ते कि करने वाला पश्चात्ताप करे।

    जब रामप्रसाद बिस्मिल फाँसी वालों से ये बातें कहते थे, तो कोई उन का प्रतिवाद नहीं करता था, जैसे कि हवालात के कई साथी किया करते थे। उस समय तो वह प्रतिवाद बहुत बुरा लगता था, पर आज यह याद कर के कि कोई प्रतिवाद नही कर रहा है, हृदय में एक टीस ही उठती थी। क्योंकि जीवन-मृत्यु के उन साथियों से फिर मिलना नहीं होना था। सब लोग अलग-अलग जेलों में बाँट दिए गए थे और पूर्व-निश्चय के अनुसार इस समय फाँसी की सज़ा पाए हुए क्रांतिकारियों के अतिरिक्त सब लोग अनशन कर रहे होंगे। कोई परवाह नहीं, जान चली जाए तो जाए, पर प्रदीप जल रहा है; अभी वह टिमटिमा रहा है, पर जल्दी ही वह एक विशाल अग्निकांड का रूप धारण करेगा, जिस में ब्रिटिश साम्राज्य खाक हो जाएगा।

    तीनों साधारण फाँसी वालों में से एक-एक कर के सब फाँसी पर चढ़ते चले गए, पर क्रांतिकारी दल के इस लौह-पुरुष ने फाँसी पर टँगने के लिए जाने वालों को ऐसा दृढ़ बना दिया कि वे ख़ुशी से फाँसी पर चढ़ते चले गए। कपड़ा ही तो बदलना है, इस में क्या धरा है! नया शरीर मिलेगा, तब पहले की ग़लतियाँ नही होगी।

    हर फाँसी वाला, जिस दिन फाँसी पर चढ़ना होता, उस दिन सवेरे फाँसी पर चढ़ने के पहले उन की कोठरी के सामने ठिठक कर खड़ा हो जाता। यद्यपि यह बिलकुल ग़ैर-क़ानून बात थी, फ़िर भी जेल अधिकारियों ने इसे स्वीकार कर लिया था। बिस्मिल उसे सांत्वना के वाक्य कहते। वह पैर छूकर चल देता। बिस्मिल पीछे से कहते—घबराओ मत, मैं भी जल्दी ही रहा हूँ।

    फाँसी वाला तो चला जाता, पर बिस्मिल चिल्ला-चिल्ला कर बहुत ज़ोर से गीता के श्लोकों की आवृत्ति करते और मन होता तो 'सरफ़रोशी की तमन्ना' गाते। फाँसी लगने का स्थान बग़ल ही में था, केवल एक ही दीवार बीच में पड़ती थी। जिस समय वह व्यक्ति फाँसी पर चढ़ जाता था, उस के कान में बिस्मिल की आवाज़ होती थी।

    पुराने फाँसी वाले जाते गए, उन के स्थान पर नए फाँसी वाले आते गए। बिस्मिल ने उन्हें उसी प्रकार से समझाना जारी रखा। उस में कभी कोई शिथिलता, कोई कमी नहीं आई।

    19 दिसंबर 1927 का वह दिन भी आया, जब स्वयं रामप्रमाद बिस्मिल को फाँसी पर चढ़ाने के लिए ले जाया गया। वह धीर गंभीर चरणों से फाँसी के तख़्ते की ओर गए। और अंत में वह 'ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो' कहते हुए फाँसी पर चढ़ गए। उन का सुंदर सोने का तन थोड़ी ही देर में मांस का लोथड़ा-मात्र रह गया। पर जिस दिन वह फाँसी के हाते में गए थे, उस दिन बचे हुए लोगों में जो मायूसी छा गई थी, वह मायूसी वहाँ नही छाई। सब फाँसी वाले रोए, यहाँ तक कि ज़मादारों ने भी चुपके-चुपके आँसू बहाए, पर किसी के मन में निराशा नहीं थी। वह मर कर भी अमरत्व का संदेश छोड़ गए थे और यह सब से बड़ी बात है कि ऐन फाँसी का फंदा गले में डालते समय उन्होंने ईश्वर का नाम लिया, गीता के श्लोक कहे, बल्कि केवल 'ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो' कहा!

    स्रोत :
    • पुस्तक : ज्ञानोदय (पृष्ठ 593)
    • संपादक : लक्ष्मीचंद्र जैन
    • रचनाकार : मन्मथनाथ गुप्त
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1960

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