Font by Mehr Nastaliq Web

चिताणी अपने में

chitani apne mein

रामबक्ष जाट

रामबक्ष जाट

चिताणी अपने में

रामबक्ष जाट

और अधिकरामबक्ष जाट

    जब मैंने इस दुनिया में आँखें खोली अर्थात गाँव चिताणी, ज़िला नागौर, राजस्थान तब वहाँ सब मेरी जाति के ही लोग थे। उन्हीं से लड़ते-भिड़ते प्रेम-प्यार करते हुए बड़ा हुआ। उस समय लगता था कि इस पवित्र भारतभूमि में सिर्फ़ जाट ही जाट रहते हैं। शेष जातिवाले तो थोड़े बहुत है। जो हैं वे भी चाचा, ताऊ, बुआ, मौसी वगैरह हैं। इसलिए मुझे मेरी जाति का कभी एहसास ही नहीं हुआ।

    1969 में मैं पहली बार जोधपुर गया। वहाँ मुझे पता चला कि मेरी एक जाति है और मुझे उनके साथ रहना चाहिए। 1971 में में जोधपुर विश्वविद्यालय में पढ़ने गया, तब पता चला कि कुछ लोग राजपूत हैं और हमारा काम है कि सब जाट मिलकर राजपूतों की पिटाई करें और राजपूतों से बचकर रहें। बाक़ायदा लाठी-भाला-चाकू- छुरी चलती थी। क्यों? यह नहीं पता था। उसी समय प्रो. नामवर सिंह जोधपुर आए। पता चला कि वे राजपूत हैं। लेकिन वे तो बहुत अच्छे हैं। बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। फिर वे तो मुझे प्यार भी करते हैं। यहाँ मुझे निर्णय करना था। मुझे दिए गए विचार और मेरे अपने अनुभव में से किसी एक के अनुसार बदलना था।

    मैंने अपने अनुभव को वरीयता दी और राजपूत हमारे शत्रु है, यह मानना बंद कर दिया। मैं उनसे भी प्रेम प्यार से ही मिलता। धीरे-धीरे राजपूत समाज के लोगों ने भी मुझे कड़वी नज़र से देखना बंद कर दिया। फिर मेरी कक्षा में दोस्त मिले, वे भी सभी जातियों के मिले और प्रेमपूर्वक मिले। जाट भी मिले अच्छे दोस्त की तरह मिले। उन सबसे आज भी मित्रता का रिश्ता है। फिर विश्वविद्यालय के अध्यापकों में उस समय स्थानीय बनाम यूपी वालों का झगड़ा चला। बड़ा तीव्र था। छात्रों तक में था। डॉ. मैनेजर पांडेय हमारी कक्षा के अत्यंत प्रिय शिक्षक रहे। अब यूपी-बिहार वालों से चिढ़ने का मतलब हुआ नामवरजी और पाण्डेय जी से चिढ़ना। यह मुझे मंज़ूर नहीं था। इस कारण ठीक-सा प्रांतवाद भी मन में पनप नहीं पाया।

    गाँव में जातिवाद बहुत कम होता है, दूसरी चीज़ें ज़्यादा होती हैं। आमतौर से उनके मन में 30 प्रतिशत स्वार्थ, 30 प्रतिशत नाते-रिश्तेदारी, 30 प्रतिशत न्याय धार्मिक भावना और 10 प्रतिशत दया-मानवता होती है। आधुनिक शिक्षित बुद्धिजीवी में 30 प्रतिशत जातिवाद, 30 प्रतिशत प्रान्तवाद, 30 प्रतिशत अध्ययन, विचारधारा, प्रगतिशीलता और 10 प्रतिशत वैयक्तिक स्वार्थ। इसमें कभी कुछ कम, कभी कुछ ज़्यादा मात्रा हो जाती है। कई बार प्रांतवाद और जातिवाद स्वार्थ के साधन हो जाते हैं। कभी अध्ययन, विचारधारा भी छवि चमकाने के काम जाती है जो अंततः स्वार्थ सिद्धि में सहायक हो जाती है। गाँव में नाते-रिश्तेदारी भी स्वार्थ सिद्धि में सहायक हो जाती है। अतः बंटवारा करना हो 60 प्रतिशत स्वार्थ और 40 प्रतिशत न्याय भावना, यह गाँव जीवन का औसत हो सकता है। बुद्धिजीवियों में किसी विशेष क्षण में 100 प्रतिशत स्वार्थ हो सकता है। ख़तरा है। इसलिए मैं कहता हूँ कि गाँव में जातिवाद नहीं होता। स्वार्थवाद हो सकता है। है भी।

    गाँव में आपसी रिश्तों में व्यक्ति महत्त्वपूर्ण हो जाता है। वह यदि धूर्त, चालाक है तो उसे पसन्द नहीं किया जाता। उसकी न्याय बुद्धि से समीक्षा होती है या फिर गुटबाजी। गुट में किसी भी जाति का शामिल हो सकता है। चिताणी में पिछले कुछ वर्षों से दो गुट बन गए। ग्राम पंचायत के लिए एक बार वार्ड पंच का चुनाव होना था। दोनों गुटों में से किसी एक का वार्ड पंच बनना था। दोनों परस्पर विरोधी गुट। दोनों जाटों के। यदि जातिवाद प्रमुख होता तो किसी जाट को ही वार्ड पंच होना था। परंतु दूसरे गुट ने चाल चली। उन्होंने एक नायक (जनजाति) व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बना दिया। जाटों के वोट तो तय थे। पक्ष हो या विपक्ष मामला बराबर का था। नायकों के तीन-चार परिवार थे। उन्होंने एकमुश्त वोट दिया और चिताणी का वार्ड पंच बना जनजाति का व्यक्ति नायक। अब हमारी राष्ट्रीय पत्रकारिता सपने में भी नहीं सोच सकती कि नागौर के जाट बहुल गाँव का वार्ड पंच नायक बनेगा। चुनाव जाट और नायक में से किसी एक का होना था। यदि सभी जाट जातिवाद करते तो नायक नहीं जीत सकता था। परंतु चिताणी ने कहा जातिवाद मुर्दाबाद। जातिवाद शहरी मध्यवर्ग का मानस पुत्र है।

    कई बार लगता है कि अच्छा हुआ जो मेरा जन्म जाट जाति में हुआ। इसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह हुआ कि मेरे अनुभव ने मुझे जातिवादी नहीं बनाया। जाट होने का कोई फ़ायदा तो मिलता नहीं। तब क्यों जातिवादी बनें? तब जाति निरपेक्ष ही बनें। जिन लोगों को अपनी जाति के कारण फ़ायदा मिलता हैं वे जातिवादी बनें। वे यदि जाति निरपेक्ष बनने की कोशिश करते हैं तो वह कोशिश किसी नाज़ुक मौक़े पर उखड़ जाती है और पता चल जाता है कि ज्ञानरंजन तो कायस्थ हैं। अत्यंत कोमल, सुकुमार कवि केदारनाथ सिंह राजपूत हैं। अब क्या करें? हमें तो अच्छे ही लगते हैं। यह अमूल्य जानकारी मुझे फणीश्वरनाथ रेणु, निर्मल वर्मा, प्रसाद के बारे में नहीं मिली। यहाँ तक कि अज्ञेय के बारे में भी नहीं मिली। हजारीप्रसाद द्विवेदी तो प्रकट ही करते रहते हैं कि वे सनातनी हिंदू ब्राह्मण हैं। उन पर क्या आरोप लगाना?

    फिर जब दिल्ली आया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बन गया, तब इस जातिवाद के फिर दर्शन हुए। यहाँ तक अनुभव हुआ कि कुछ दलित विद्वानों में भी जातिवाद है। उनमें भी, जिनको एक लेखक के रूप में मैं पसंद करता रहा हूँ। सवर्णों में तो है ही। यह वाला बहुत बारीक वाला है। सवर्णों के बारीक जातिवाद को तो दलित लेखकों ने ही दिखाया। अन्यथा मुझे कभी दीखता ही नहीं। मैं मज़े से उनकी प्रगतिशीलता की तारीफ़ करता रहता।

    (दो)

    मैं तो कथा कहना चाहता हूँ परंतु मित्रों की रुचि अन्तर्कथा में ज़्यादा लग रही है। इसलिए वही सही। वैसे अंतर्कथा का निवास कथा में ही होता है। अब आपने देख लिया है और समझ लिया है कि मैं क्यों जातिवाद और प्रांतवाद में विश्वास नहीं करता? मेरे जीवन में सभी जातियों और प्रान्तों के शुभचिंतकों का योगदान रहा है। इसलिए मैं कभी बामणों, राजपूतों या बनियों की निंदा नहीं कर पाता। पिछड़े वर्ग का होते हुए भी इतनी उग्रता से बहुजनवाद नहीं कर पाता। भाई लोग थोड़ा नाराज़ रहते हैं। परंतु मेरे जीवन का अनुभव मुझे बताता है कि सभी जातियों के व्यक्ति भी मनुष्य ही होते हैं। जो सभी कुल मिलाकर बड़े बदतमीज़, अहंकारी तो क्या कहें चापलूसी पसंद होते हैं। फिर मेरे लिए सभी अपने हैं। अब आप ही बताओ कृतज्ञता के रास्ते पर चलूँ या कृतघ्नता के? यह अवश्य है कि मेरी जाति के लोग जब अच्छा काम करते हैं तो ख़ुशी होती है। वे जब बुरा काम करते हैं तो दुःख होता है। इतना जातिवाद शायद बचा रह गया है।

    बात यह है कि अभिधा को झूठ बोलने की कला नहीं आती। यह कला तो जादूगरनी व्यंजना को ख़ूब आती है। पलटी मारने की तो वह विशेषज्ञ है। और लक्षणा? वह तो जन्म की चुगलखोर है। उसकी क्या बात करें? इसलिए हम भी मानते हैं कि अभिधा उत्तम काव्य है। रामचंद्र शुक्ल के दबाव में नहीं। तो आज फिर गाँव चलते हैं। अब आपको गाँव का परिचय दे ही देते हैं। जिन दिनों की बात है। हमारे गाँव चिताणी में 25 परिवार रहते थे। कुल मत सिर्फ़ सौ। इसलिए चिताणी को धवा के कुछ मतों को जोड़कर वार्ड बना दिया गया था। इस कारण चिताणी में स्वाभाविक राजनीतिक हीनता ग्रंथि पनप गई थी। इस कारण गाँव में राजनीतिक एकता थी जो कई बरसों तक चली। हमारे गाँव में स्कूल था। पटवारी था। गाँव में कभी बस आती थी। कुम्हार था। नाई था। कोई दूकान थी। अस्पताल था। यहाँ कोई मनीऑर्डर भी नहीं आता था। गाँव में गाँव ही था। नई सदी में यहाँ वार्ड बन गया है। आजकल तो बूथ भी बन गया है।

    मुझे बहुत ग़ुस्सा आता है। ससुर फणीश्वरनाथ रेणु हमारे गाँव में पैदा क्यों हुए? बिहार में क्यों हो गए? होते तो वे प्रेम-प्यार में सब कहानी कह देते। मुझे इन बातों का तथ्यात्मक वर्णन नहीं करना पड़ता।

    आज़ादी से पहले हमारा गाँव जागीरदारों के अधीन था। जागीरदार भी हमारे गाँव में नहीं रहते थे। नोखा चांदावतां में रहते थे। हमारे गाँव में उनका एक नौकर रहता था। जिसे सब कणवारिया कहते थे। (अब इस पद की महिमा का गान तो प्रेमचंद ने किया और रेणु ने।) हमारे जागीरदार भले और समझदार आदमी थे शायद। उन्होंने इस पद के लिए किसी बुज़ुर्ग को नियुक्त किया था। और मेरी माँ ने इशारे से भी कभी उसे अवहेलना से याद नहीं किया। बाक़ी शोषण तो नियमानुसार था। उनके छोटे भाई पन्नेसिंह राजस्थान पुलिस में डी. आई. जी. थे। गाँव में जब एक बार डाका पड़ा, तो उन्होंने गाँव वालों की बड़ी मदद की। डाकू पकड़े गए। सुना है कि डाकू जान पहचान वाले थे। अजी असावरी के थे। उन दिनों गाँव के लोग बैलगाड़ी में अपनी उपज लादकर नोखा पहुँचाते थे। जागीरदार उन सबको भोजन करवा कर भेजते थे। इस भोजन की एक कहावत भी चलती है।

    जागीरदार का घर रावला कहलाता है। किसी किसी किसान के मन में आता है कि खाना दो बार खा लें। इतनी भीड़ में किसको पता चलेगा। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाता। तब कहावत बनी कि इतनी पोल नहीं है कि कोई रावला में दो बार जीम ले। इसका एक निहितार्थ यह भी है कि एक बार जीम लो वही बहुत है। यह सब मैंने सुन रखा था। जब देश आज़ाद हुआ, तो भी हमारे गाँव से उनका अपनत्व बना रहा। उन्होंने सीर की ज़मीन के रूप में हमारे गाँव में अपने नाम की जमीन नहीं रखी। किसानों को सौंप दी। उस समय एक ऐसा वर्ष था, जब आप चाहो तो जागीरदार को लाटा दो, चाहो तो सरकार को बीघोड़ी दो। वही लगान। इतना भी नहीं जानते! गाँव में किसी को समझ में नहीं रहा था कि क्या करें? लाटा दें या बीघोड़ी दें? तब मेरे पिताजी और मंगाराम जी जोधपुर गए। किसान केसरी बलदेवराम मिर्धा से मिले। और एक आदेश निकलवाया कि वे बीघोड़ी देंगे। वही लगान देंगे। बलदेवराम जी ने हिदायत दी कि यह आदेश तुम दोनों पर बाध्यकारी है। यदि तुम लोगों ने जागीरदार को लाटा पहुँचा दिया, तब भी बिघोड़ी तो देनी ही पड़ेगी। कितना डर लगा होगा उन्हें। गाँव में एकदम अकेले हो गए थे। तब भी उन्होंने हिम्मत की और अपना अनाज अपने घर ले आये। उस समय भी हमारे जागीरदार ने धैर्य रखा। हालात को स्वीकार कर लिया। अन्यथा जागीरदारों के अत्याचारों की कोई अपील नहीं होती थी। अब रेणु होते तो यह बीच की अंतर्कथा लिखते।

    इस प्रकरण का एक क्षेपक भी है। जब ज़मीन का पट्टा होने वाला था, तब पिताजी ने अपनी बहुत सारी ज़मीन से इस्तीफ़ा दे दिया। यदि इस्तीफ़ा नहीं दिया होता और सारी ज़मीन अपने पास ही रखते तो हमारा परिवार तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद से भी अधिक ज़मीन वाला होता। असल में हमारे परिवार की पिछली चार पीढ़ियों के उत्तराधिकारी मेरे पिताजी ही थे। हमारे परिवार का एक भाई इंदौर के पास काटकूट चला गया था। गाँव से झगड़े के दिनों में वे उसको बहुत याद करते थे। पिताजी ने देखा था कि अँग्रेज़ी राज में लगान के भय से किसान कैसे डरते और दुबकते रहते थे। जब लगान वसूल करने वाला आता तो किसान फूस के ढेर में छिप जाते थे। हमारी गाँव में नहीं, यह दृश्य सेनणी में दिखाई-सुनाई देता था। इसलिए इतनी ज़मीन और उसकी नामालूम कितनी बीघोड़ी? और यह बीघोड़ी नक़द देनी होती। और नक़द कितना मुश्किल होता, यह उन्होंने देख रखा था। तो फिर गाँव धनवान कैसे था?

    हमारे गाँव के कुछ लोग ब्याज पर रुपए उधार देते थे। यह अतिरिक्त आय उन्हें पैसेवाला बना देती थी। कुछ लोगों ने भेड़ें पाल ली थीं। अब आप भेड़ वालों को कमज़ोर मत समझना। इनकी लाठी में बहुत ताक़त होती थी। ये लोग 6 महीने अपनी भेड़ों को चराने डांग में चले जाते थे। समूह बनाकर जाते थे। उनके पास तेल से चमकाई हुई मज़बूत लाठी होती थी और शेरों से टकराने वाले कुत्ते होते थे। ये जब गाँव में आते थे, तो पूरा गाँव इनसे और इनके कुत्तों से मन ही मन डरता रहता था। एक बार मेरी बड़ी बहन पद्मा को इनके एक कुत्ते ने काट लिया था। नहीं, इन्होंने गाँव में किसी के साथ कभी मारपीट नहीं की। हाँ, गाँव इनसे दूर-दूर रहता और इनके प्रवास की कहानियाँ भी हाँ-हाँ कर सुनता। सहमत होते हुए भी सुनते रहते। ऐसे समय में हमारे परिवार से इनमें से एक रायचंद जी से झगड़ा हो गया।

    मैं गाँव का इकलौता विद्यार्थी था। पहला दसवीं पास। फिर आगे जोधपुर विश्वविद्यालय में। यह शायद 1971 या 72 की बात होगी। इस बीच भेड़ों का आकर्षण हमारे घर में भी घुस गया। पिताजी ने 15 या 20 भेड़ें ख़रीदी और मेरे एक भाई को रायचंद जी की साथ भेज दिया। वहाँ कुछ झगड़ा हुआ और उन्होंने भाई के अनुसार 1500 रुपए के आसपास दबा लिए। नहीं, मारपीट नहीं की, की भी होगी तो भाई ने बताया नहीं। ख़ैर, सब लोग गाँव गए और वह हिसाब और झगड़ा भी गाँव गया।

    अब क्या करें? रुपयों की तो कोई बात नहीं। परंतु गाँव में परिवार की छवि महत्त्वपूर्ण होती है। छवि सिर्फ़ शहर में ही कमाने-जीने-मरने में सहायक नहीं होती। गाँव में भी होती है। पिताजी ने जवानी के दिनों में निडरता की छवि बना रखी थी। यह अगर चली गई, तो कोई भी भेड़ वाला हमारे खेत में घुस कर फसल बर्बाद कर सकता था। हम उसको रोक भी नहीं सकते। पारिवारिक चिंता खाए जा रही थी। पिताजी ने मुझे इस चिंता से अवगत कराया। मुझे भी अपने पिता की तरह एक सीमा के बाद डर नहीं लगता। उसी समय जोधपुर में रेडियो और टेप रिकॉर्डर गया था और दोनों एक ही सेट में मिलने लग गए थे। मैंने अपने एक परिचित से एक दिन के लिए वह सेट माँगा। एक कैसेट ख़रीदी और चाचा रायचंद जी के पास रेडियो बजाते-बजाते गया। फिर रेडियो बंद किया और टेप चालू कर दी। हमारे पास अब सबूत हो गया। शाम को औपचारिक रूप से गाँव की बैठक बुलाई और मैंने वह टेप सुना दी। गाँव मुझ से डर गया। और मन ही मन मुझे एक ख़तरनाक व्यक्ति मानने लगा। अब क्या बेवक़ूफ़ी की थी। सोचो। आज के दबंग होते तो मुझसे रेडियो छीनकर तोड़ देते और मेरे दो थप्पड़ मारकर भगा देते, तो मैं क्या करता? ऐसे पवित्र विचार उस समय मेरे मन में भी नहीं आए, तो रायचंद चाचा के कैसे आते। परंतु कोई भी यह नहीं चाहता था कि यह झगड़ा यहीं सुलट जाए। लोग रायचंद को भी सीधा होते हुए देखना चाहते थे। रायचंद चाचा दबंगई के मूड में थे। जो भी हो। मैं नागौर कचहरी पहुँचा, मैंने पूछा कि यहाँ का पालकीवाला वकील कौन है? हालाँकि वहाँ मेरे थोड़ी दूर के फूफा हेमसिंह चौधरी भी थे। मैंने उनसे बात नहीं की। गाँव के लोग उन्हें तटस्थ कर सकते थे। शिवराम जोशी को वकील किया। उन्होंने सिर्फ़ पूछा कि फ़ौजदारी या दीवानी? दीवानी मुकदमा हुआ। फ़ीस नहीं पूछोगे? 50 रुपए। फारबिसगंज की तरह अदालत में धूम मची। कई दिनों तक इस मुक़दमें ने गाँव की बोरियत दूर की। कई दिनों-महीनों बाद नागौर पशु मेले में दोनों के सारे रिश्तेदार जुटे और 150 रुपए ले देकर मामला ख़त्म हुआ। पिताजी ने बड़े संकोच और गर्व से मुझे अवगत कराया। बाद में मैंने अपने भाइयों को समझाया कि कभी मेरे भरोसे किसी से झगड़ा मत करना। किया भी नहीं। फिर धीरे-धीरे चाचा से मेरी वापिस दोस्ती हुई और गाँव ने भी मान लिया कि मैं ख़तरनाक आदमी नहीं हूँ। बस लड़ना मत। इसमें भी एक क्षेपक है। बस अंतिम। गाँव में इस लड़ाई के दौरान मैंने सबसे सहायता माँगी। मूलाराम चाचा को जब कहा तो उन्होंने साफ़ इंकार किया और बोले। वे भकलबोले माने जाते थे। अर्थात् बिना सोचे-समझे खटाक बोल देने वाले। बोले, तुमने यह झगड़ा शुरू किया, तब मुझसे पूछा? मैंने कहा, नहीं। तब अपने बूते से लड़ो। जो जीतेगा, हम उसकी चापलूसी करेंगे। हमारे लिए तो यह मनोरंजन है। हम तो चाहते हैं कि तुम जीतो। तुम जीतो चाहे जीतो, रायचंद बहुत अकड़ में रहता है। उसका हारना अच्छा लगेगा। अब देखो, कभी-कभी 'ठीकरी भी घड़ो फोड़ देवे' अर्थात् घड़े का टूटा हुआ छोटा सा हिस्सा 'ठीकरी' (वह मैं) साबुत घड़े (रायचंद चाचा) को फोड़ दे अर्थात् हरा सकती है। बहरहाल हम दोनों के अलावा कोई भी इस खेल में शामिल नहीं हुआ। हमारे लिए यह भले ही जान जोखिम हो, गाँव के लिए यह मनोरंजन की बात थी। बहरहाल गाँव में ट्रैक्टर आया। ट्यूबवेल बना और तब इस भेड़ युग का अंत हुआ। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि गाँव में सबसे पहला ट्रैक्टर इन भेड़ वालों ने ही ख़रीदा। इस परिवर्तन से गाँव में बहुत बदलाव हुए। सबसे बड़ी बात कि गाँव से कऊँ ख़त्म हो गई।

    अब थोड़ी-सी चर्चा कऊँ की कर लेते हैं। इस कऊँ को आप अलाव समझो। यह कऊँ मेरे घर के बाहर के चबूतरे पर बाबा घासीराम जी लगाते थे। जब तक वे जीवित रहे तब तक सर्दियों में शाम छह बजे ये प्रज्वलित हो जाती थी। चबूतरी तो हमारे मकान से जुड़ी हुई थी, परंतु इस कऊँ के कारण यह बाबा की हो गई। पिताजी ने कभी एतराज नहीं किया। इसके साथ हुक्का और चिलम चलती थी। चाय और बीड़ी का तब तक आविष्कार नहीं हुआ था। हुक्का थोड़ा रईस था। उसके नखरे बहुत थे, इसलिए आरामदायक चिलम चलती थी। बीड़ी संस्कारी नहीं थी। बीड़ी में व्यक्तिवाद था। चिलम अपनी प्रकृति में सामाजिक थी। अकेला आदमी कम पीता था। बीड़ी पी सकता था। इसलिए भी यहाँ पर चिलम चलती थी।

    यह वह ज़माना था, जब सर्दियों में सब बेरोजगार रहते थे। शाम को सब घर से खा-पीकर जाते और अपनी कहते और दूसरों की सुनते। कोई सामूहिक समस्या होती, उसका भी निपटारा हो जाता। यहाँ की चर्चा पूरे गाँव में फैल जाती और मान्य हो जाती। युवा यहाँ आते, तो चुप रहते और तमीज़ सीखते। यह सब संस्कृति हल-बैल की खेती का अंग थी। जब हल-बैल पराजित हो गए और ट्रैक्टर और ट्यूबवेल पूरी तरह छा गए, तब इस कऊँ संस्कृति का लोप हो गया। तब गाँव में शराब का आगमन हो पाया। शराब के आगमन के पूर्व चाय और बीड़ी का आगमन हुआ। अब चिलम पुरानेपन का प्रतिनिधित्व करने लगी, उसी तरह जैसे नई-नई कारों के पदार्पण के बाद अम्बेसडर कार लगने लगी थी। वैसे आजकल शाम आठ बजे के बाद गाँव में किसी को फोन नहीं करना चाहिए। गाँव बहुत विकसित हो गए हैं। मुझे इस नए गाँव के बारे में कुछ नहीं कहना। और इस शराब के सौंदर्य के बारे में बिलकुल नहीं कहना।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मेरी चिताणी (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : रामबक्ष जाट
    • प्रकाशन : अनन्य प्रकाशन
    • संस्करण : 2019
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए