[अपने दृष्टिकोण से किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में अपना मत प्रकट करना उस व्यक्ति के देहांत के बाद ही ठीक जँचता है। यद्यपि पूरी और निर्दोष चीज़ वह भी न होगी, लेकिन इतना ज़रूर है कि उस समय तक उस व्यक्ति के चरित्र के सभी पहलू सामने आ चुके होते हैं...इससे पहले तो यही कहा जा सकता है कि मैंने अमुक व्यक्ति को प्रमुक अवसर पर कैसा पाया। ग़लत अथवा सही जो भी मेरी राय होगी, उसे छिपाने का प्रयास नहीं करूँगा...यदि कोई महाशय बेदी को मेरे वर्णन से बुरा या भला पाएँ तो इसका दोष मेरे सिर न धरें....गरज देखिए अब यह पानी चला− लेखक।]
सन् 1642 की गर्मियों में लगभग साढ़े ग्यारह बजे (बारह बजे नहीं) हम दोनों सिख साहित्यिकों की पहली भेंट हुई। उस वर्ष मैंने बी० ए० की परीक्षा पास की थी। सख़्त दिमाग़ी मेहनत के बाद मैं कुछ आराम कर रहा था कि जनाब शाहद अहमद का पत्र मिला। मालूम हुआ कि दिल्ली में ऑल इंडिया राईटर्स कान्फ्रेंस हो रही है और मैं भी निमंत्रित किया गया हूँ।
दिल्ली में कमेटी का एक बाग़ है और बाग़ में एक पुस्तकालय है। इस पुस्तकालय में हो कान्फ्रेंस होने वाली थी। स्थान काफ़ी रोमांटिक था। इस कारण पहले दिन ही जब मैं होटल से निकल कर गंतव्य स्थान की ओर बढ़ा तो निगाहें मार्ग से भटक कर इधर-उधर आवारा घूमने लगीं। सहसा एक ताँगेवाला पुकार उठा, “बच कर चलिए, घोड़ा काट खाता है।”
मुझे ज़िंदगी में पहली बार मालूम हुआ कि घोड़ा काटता भी है, मैं समझता था कि घोड़े केवल दुलत्तियाँ झाड़ा करते हैं। बिदक कर परे जो हटा तो कृष्णचंद्र दिखाई दिए। अभी संभलने न पाया था कि सआदत हसन मंटो पर निगाह पड़ी। सूरत से ही प्रकट होता था कि इन्हें होमियोपैथी के दृष्टिकोण से गंधक की एक ऊँची मात्रा की अपेक्षा है। और भी तरह-तरह की सूरतें दिखाई दीं। इनमें चौधरी नज़ीर अहमद भी थे जो ‘अदब-ए-लतीफ़’ के अंक इस तरह बाँट रहे थे जैसे ख़ुदा-रसीदा पीरों के मक़बरों पर भक्त लोग बताशे बाँटा करते हैं।
ठीक समय याद नहीं। साहित्यिक एक-एक करके एकत्र हो रहे थे! जब एक घंटा इंतिज़ार में ही गुज़र गया तो उपस्थित लोग कुछ परेशान होने लगे। अगर कोई और लोग होते तो ऐसी घबराहट में तितर-बितर होकर भाग खड़े होते, लेकिन साहित्यिकों ने बौखला कर...कार्यवाही आरंभ कर दी।
लगभग सवा ग्यारह बजे पहली बैठक समाप्त हुई तो देखा कि कुछ मनचले तक चले आ रहे हैं। इनमें से एक ‘मीरा जी’ भी थे, जो सूरत से सपेरा जी मालूम होते थे, अर्थात लंबे-लंबे बाल और होंठों पर मूँछों की छाया। इनसे एक क़दम पीछे राजेंद्रसिंह बेदी आ रहे थे।
हम दोनों ने एक-दूसरे को देखा तो अनायास ही ठिटक कर खड़े हो गए। हम एक दूसरे के नाम से परिचित थे, लेकिन सूरत से नहीं पहचानते थे। शायद मेरा ख़याल ग़लत हो, लेकिन मैं समझता हूँ कि हम केवल एक-दूसरे को दाढ़ियाँ देख कर ही रुक गए। बेदी मुझे और मैं बेदी को संदेह की दृष्टि से देखता रहा। यहाँ तक कि किसी ने हमारा परिचय करा दिया। शायद हम दोनों ने हाथ भी मिलाए, हमारे होंठों से कुछ रस्मी से वाक्य भी निकले और फिर ज़रा परे हट कर हम एक-दूसरे को घूर-घूर कर देखने लगे। एक ओर मैं, लक्का कबूतर की तरह अकड़ा हुआ और दूसरी ओर बेदी मंदिरों-मस्जिदों में दाना चुगने वाले कबूतर के समान स्थिर। आख़िर वह मुस्कुराने लगा। मैंने भी होंठों पर मुस्कुराहट लाने का प्रयास किया। इन सब हरकतों का कारण शायद यह था कि हम एक-दूसरे से असाधारण रूप से प्रभावित हुए थे।
बाद में जब एक बार पहली मुलाक़ात का ज़िक्र आया तो बेदी ने कहा कि तुम्हारी सूरत और प्रकृति से कठोरता और खुरदरापन झलकता था। बेदी की प्रकृति की जो पहली प्रतिक्रिया मुझ में हुई, वह मुझे अब तक याद है। मुख पर कुछ गहरी रेखाएँ, जो किसी गहरे दर्द, बल्कि यातना की परिचायक थीं, होंठों पर हल्की-हल्की, लेकिन कोमल और प्यारी मुस्कान। सबसे महत्त्वपूर्ण उसकी आँखें थीं− न बड़ी न चुँधी। न कृष्णचंद्र की तरह स्वप्निल और धुँधली-सी, न सत्यार्थी की तरह चमकदार और जिज्ञासा भरी....बल्कि उसकी आँखें यूँही सहज-सी खुली हुई थी और उनमें प्रेम और कोमलता ऐसे टपक रही थी कि देखने वाले को आभास होता था, जैसे उस पर भगवान् की कृपा हल्की-हल्की फुहार की तरह पड़ रही हो। हमारी पहली मुलाक़ात कुछ क्षणों तक ही सीमित रही।
इस घटना के दो-तीन महीने बाद मैं एम० ए० की शिक्षा प्राप्त करने लाहौर चला आया यहाँ मैं अपने एक संबंधी के घर उतरा और फिर किसी छात्रावास में अथवा पृथक् निवास-स्थान की तलाश में नगर की गलियाँ नापने लगा।
इन्हीं दिनों एक बार जब कि मैं ‘मकतबा-ए-उदू’ के कार्यालय में बैठा था, वहाँ बेदी आ निकला। रस्मी अभिवादन के बाद बातों-बातों में उसे जब यह पता चला कि मैं निवास स्थान की खोज में हूँ तो उसने मेरी सहायता करने का वचन दिया। इस प्रकार हमारे संबंध घनिष्ठ होते चले गए। मुझे वे दिन कभी नहीं भूलेंगे जब बेदी, देवेंद्र सत्यार्थी और मैं संत नगर, राम नगर और ऋषि नगर की गलियों में निवास स्थान की तलाश में घूमा करते थे। किसी मकान का द्वार खटखटाते, जो भी कोई बाहर आता तो सत्यार्थी की दरवेशाना सूरत देख उसकी ओर आकृष्ट होता। सत्यार्थी की लंबी दाढ़ी और मूँछों में से अतीव विनीत और सुरीली आवाज़ निकलती−
“जी...एजी− एक कमरा चाहिए− (मेरी ओर इशारा करके) इन ब्राह्मचारी जी लिए− जी।”
वह हमें सिर से पाँव तक बड़े ध्यानपूर्वक देखने लगता। मैं ज़रा मोटा ताज़ा नज़र आता था और बेदी की सूरत से अतीव गंभीरता और सौजन्य टपकता। अंत में एक बार फिर वह सत्यार्थी की फ़क़ीराना सूरत देखता और सोचने लगता कि शायद गुरु वसिष्ठ जी यहाँ ब्रह्मचारियों के लिए मठ खोलना चाहते हैं और इस बीच में यदि कोई रंगीन दुपट्टा उड़ता दिखाई देता तो सत्यार्थी को झुक कर चहक उठते, “क्यों जी क्या यहाँ देवियाँ भी रहती हैं जी?... फिर तो कोई उम्मीद नहीं जी....हमारे ब्रह्मचारी जी....अच्छा फिर।”
आख़िर मुझे संत नगर में रहने के लिए स्थान मिल ही गया। मेरे आवास से क़रीब दो फ़र्लांग पर बेदी का पैतृक घर था। इन दिनों वह अपने कुटुंब सहित वहीं रहता था। बाद में जब उसकी आय बढ़ गई तो उसे अचानक लगा कि वह मकान बहुत छोटा है, बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इस कारण वह मॉडल टाउन में एक छोटे से बंगले में रहने लगा।
सिखों में बेदी वे लोग होते हैं, जिनका वंशक्रम गुरुनानक जी से जा मिलता है। ये लोग बहुत सात्विक जीवन व्यतीत करते हैं। प्रायः मदिरा, माँस, जुआ इत्यादि त्याज्य वस्तुओं को त्याज्य समझते हैं। आरंभ में बेदी भी बहुत सात्विक जीवन बिताता था। माँस तक से, जिसका सिखों में मुसलमानों की तरह अत्यधिक प्रचलन है, वह दूर रहता था। यह सब पहले की बातें थीं। जब मैं उससे मिला तो उसे पूरी तरह ‘ईमान शिकन’ (ईमान फ़रोश नहीं) पाया।
बेदी नाटे क़द का है, लगभग चौंसठ इंच। दुबला-पतला (स्थूल होता जा रहा है) छाता गोल अथवा अंडाकार, जिसे ‘पिजंस चेस्ट’ (कबूतरी छाती) कह सकते हैं। रंग कलौसी लिए गेंहुआँ– अब रक्त का अधिकता के कारण बिलकुल गुलाब जामुन। हाथों के पीछे यद्यपि बाल हैं, परंतु खाल कोमल है। टाँगों और बाहों पर भी ख़ूब बाल हैं। सिर और मुँह पर तो सदा बहार छाई ही रहती है। पहले वह दाढ़ी के बाल बाँधकर समेट लिया करता था। ठाड़ी से ज़रा हट कर नीचे की ओर बालों की एक गुठली लटकती रहती थी। एक दिन जब कि वह अपने एक ख़ास मित्र यहाँ बैठा हुआ था (शायद वह मित्र मैं ही था) दाढ़ी की वह गुठली ग़ायब कर दी गई और वह अब तक ग़ायब है। उसका ललाट अधिक उन्नत नहीं है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि उसकी भौं और सिर के बालों के मध्य बहुत थोड़ा अंतर है। नाक पकौड़ा-सी। यदि संयोग से उसके मुख न लगी होती तो निश्चित ही बहुत भद्दी दिखाई देती। होंठ मोटे हैं, जिनका अधिकांश भाग मूँछों में छिपा रहता है। मैंने उसका एक चित्र प्रारंभिक यौवन-काल का भी देखा है। इसमें वह बिलकुल हब्शी दिखाई देता है गाल....गाल सिरे से ही नहीं है। उसके दाँत सफ़ेद, लेकिन कुछ बड़े-बड़े हैं। बाहर को निकले हुए अथवा ऊपर को उठे हुए बिलकुल नहीं। सामने के दाँतों में एक स्वाभाविक रूप से मैला है। कुल मिलाकर बेदी को देख कर आरंभ में तीव्र सिकुड़न का अनुभव होने लगता था, जैसे बैंगन थाली में पड़ा-पड़ा सूख जाए।
मैंने उसके अंग-प्रत्यंग का जैसा वर्णन किया, उससे पाठक को यह संदेह हो सकता है कि वह कुरूप होगा। एक बार उसने स्वयं मुझसे यही प्रश्न किया था, ‘क्या मैं बहुत कुरूप दिखाई देता हूँ?’
नहीं, हरगिज़ नहीं। इसलिए कि भगवान ने बिलकुल अवकाश के समय बचे-खुचे अंगों को इस सुदृढ़ता से संकलित किया है कि एकदम प्रशंसा करनी पड़ती है। वह सुंदर नहीं, लेकिन उसकी आकृति अत्यंत आकर्षक है।
प्रायः बेदी गोष्ठी में धीमीवर मंद कोमल स्वर में बात-चीत करता है। बहुत धीरे-धीरे बोलता है। यह बात नहीं है कि वह प्रत्येक वाक्य आवश्यकता से अधिक सोच-सोच कर कहता है, बल्कि उसके बोलने के ढंग में एक संतुलन और व्यवस्था पाई जाती है।
फ़िराक़ गोरखपुरी और बेदी में एक बात समान रूप मिलती है। अपने ध्यान में खोए या गंभीर बैठे हों तो एकदम इनकी अवस्था बहुत ज़्यादा दिखाई देने लगती है, पचास-साठ वर्ष नहीं, बल्कि सैंकड़ों-हज़ारों वर्ष! लेकिन जैसे ही हँसते हैं तो उनके चेहरे पर एक दूध पीते बच्चे की सी मासूमियत और ताज़गी दिखाई देने लगती है। एक अँधेरी रात में, जब कि हम दोनों खेतों में घूम रहे थे, मैंने उससे कहा,
“बेदी कभी-कभी तुम बहुत बूढ़े दिखाई देने लगते हो।”
एकदम उसके पैर रुक गए। उसने अजीब नज़रों से मेरी ओर देखा, “वाक़ई?”
उसके मुख पर चिंता के चिन्ह प्रकट होने लगे। तारों के धूमिल प्रकाश में, जब कि वह सिर झुकाए खड़ा था, मुझे उसका व्यक्तित्व अनोखा-सा दिखाई देने लगा। क्षण भर रुकने के बाद उसने पुनः एक-एक पग चलना शुरू कर दिया, “मेरी नसें कमज़ोर हैं,” उसने कहा, “नसों की कमज़ोरी के कारण ही ऐसा होता है।”
बेदी को अपनी गतिविधि पर पूरा नियंत्रण प्राप्त है। अपने हाथों, बाँहों, टाँगों, आँखों, होंठों यहाँ तक कि अपने मुख की रेखाओं पर भी उसे पूरा नियंत्रण प्राप्त है। उसके मस्तिष्क और शरीर में एक अद्भुत संतुलन स्थापित हो गया है। वह अपनी परिसीमाओं से भली-भाँति परिचित है। उसने उनके विरुद्ध युद्ध की घोषणा नहीं कि, बल्कि सम्मान जनक समझौता कर लिया है। लेकिन मानसिक दृष्टिकोण के साथ शरीर का सामंजस्य तथा संतुलन एक बड़े संयम का परिचय देता है, जैसे बेदी वर्षों चेतन और अचेतन रूप से अपने आपको इसके लिए तैयार करता रहा हो। वह छोटे-छोटे क़दम उठा कर बड़े बाँकपन से चलता है। मुझे आशा है कि उसके मित्रों, बल्कि उसके परिचितों का भी उसके पैरों की चाल, बल्कि डगों पर ज़रूर ही ध्यान गया होगा।
इन सब के बावजूद मित्रों की गोष्ठी में वह अजीब तरह का खिलंदरा और दोस्त-नवाज़ आदमी दिखाई देता है।
वह छोटे से बच्चे की तरह चपल, चुलबुला और शरीर है। हँसी-मज़ाक़ का शौक़ीन, आवारा घूमने का सौदाई, बकवास करने का प्रेमी और मित्रों के लिए रुपया ख़र्च करने में फ़िज़ूल ख़र्ची की सीमा तक विशाल-हृदय।
कृष्णचंद्र ने एक स्थान पर उसे झील के समान गहरा बताया है, लेकिन वह झूम कर उठी हुई घटा के समान ऊँचा भी है। शायद कृष्ण से बेदी की अंतरंग मित्रता नहीं रही है, वरना वह बेदी की अथाह, निर्बाध, स्वच्छंद और छलकती हुई ज़िंदा-दिली पर गंभीरता और बड़प्पन का मोटा आवरण न डाले रहता। उसके प्रत्येक हाव-भाव में एक चुलबुलापन, प्रत्येक अदा में एक बाँकपन और प्रत्येक बात में एक नयापन उसकी दृष्टि से छिपा न रहता। बात-बात में इतना चांचल्य और बिलकुल बच्चों जैसे कामों में उसकी प्रखर प्रतिभा, कुछ इस प्रकार समोई हुई है कि बयान के लिए शब्द नहीं मिलते।
अन्य बातों के अतिरिक्त वह विभिन्न व्यक्तियों की हँसी की नक़ल उतारने में बहुत कुशल है। धूम मचाते हुए ढोल की हँसी, कंकरों में बहते हुए पानी की तरलमय आवाज़ की सी हँसी, थैले में गुम होती हुई हँसी, कहने का मतलब यह कि उसे विभिन्न प्रकार की हँसियों की नक़ल उतारने में पूर्ण निपुणता प्राप्त है उपेन्द्रनाथ अश्क की हँसी की नक़ल मुझे सबसे अधिक पसंद आई। इतनी भयानक और अमानवीय हँसी पहले सुनने का कभी अवसर नहीं आया था। कभी रात के सन्नाटे में साइकिल पर गोल बाग़ (लाहौर) से गुज़रते हुए मैं कहता, “बेदी मुझे साइकिल चलानी पड़ रही है और तुम मज़े में बैठे हो। कम से कम कोई हँसी ही सुना डालो।”
इस पर बेदी राग विद्या के पंडितों की तरह सिर हिला कर पूछता, “अच्छा तो कौन-सी हँसी सुनोगे?”
मैं ‘अश्क’ के क़हक़हे को फ़रमाइश करता। जब वह एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा कर फेफड़ों की पूरी शक्ति से क़हक़हा उड़ाता तो अवश्य ही खंडहरों में हूँकने वाले उल्लू डर जाते होंगे और वृक्षों की टहनियों से लटकी हुई चिमगादड़ों की पकड़ ढीली पड़ जाती होगी।
उसकी साइकिल का उल्लेख आ गया तो उसका वर्णन भी कम दिलचस्प न होगा। लेकिन कठिनाई यह आ पड़ी कि श्री गणेश कहाँ से करूँ। हैंडिल-पैंडिल, रिम, फ़्रेम, टायर, ट्यूबें गद्दी प्रत्येक वस्तु ढचरा। गद्दी आगे, पीछे, दाएँ, बाँएँ, ऊपर, नीचे हर तरफ़ झूमती झुकती थी। इस अनोखी गद्दी पर जमे रहना बस बेदी का ही काम था। ब्रेक और घटी एकदम ग़ायब और फ्री ह्वील भी काम न करता था। पैंडिल घुमाए जाइए, ज़ंजीर पकड़ ही न करती थी। बेदी कहता, “जब मैं साइकिल पर बैठ कर एक ही स्थान पर खड़े-खड़े तेज़ी से पैंडिल घुमाता हूँ तो रास्ता चलने वाले रुक कर करने लगते हैं कि आख़िर जब पैंडिल घूम रहे हैं तो पहिए क्यों नहीं चलते। वे समझते हैं कि मैं गिर पड़ूँगा मगर उनके देखते-देखते ज़ंजीर पकड़ करती है, पहिया घूमने लगता है और मैं चल देता हूँ...।”
इसी प्रकार व्यावहारिक जीवन में भी दर्शकों ने समझा था कि बेदी गिरा, गिरा! लेकिन वह उनके देखते-देखते यह जा, वह जा...(अहा!)
बेदी परले सिरे का घुमक्कड़ भी है...मान लीजिए मैं संत नगर वाले कमरे में बैठा-बैठा तंग आ जाता हूँ। सोचता हूँ कि चलो आज शहर की किताबों को दुकानों का ही चक्कर लगा लें। साइकिल उठाता हूँ, कुछ दूर जाता हूँ कि सामने से बेदी साइकिल पर सवार आता दिखाई देता है। नज़रें मिलते ही हम एक-दूसरे को ललकारते हैं अभिवादन अथवा हा मिलाने की नौबत नहीं आती। पूछता हूँ, “किधर को?”
“तुम्हारी तरफ़।”
“मेरी तरफ़!” और फिर मैं सोचने लगता हूँ कि अगर संयोग से भेंट न होती तो? परंतु अब इसकी क्या चिंता, हम साथ-साथ चल देते हैं। गोल बाग़ में एक बेंच पर जा बैठते हैं। बेदी ने दो नई कहानियाँ लिखी हैं—‘नामुराद’ और ‘कोखजली’। वह पढ़ता है, मैं सुनता हूँ। फिर कॉफ़ी हाउस में जाते और ठंडी कॉफ़ी पी कर लौट आते हैं। थोड़ी देर बातें करते हैं कि वर्षा होने लगती है। एक बार फिर कॉफ़ी हाउस में जाते हैं, अबकी गर्म काफ़ी पीते हैं। शाम हो जाती है और हम सर गंगाराम की प्रतिमा के निकट पड़ी हुई बेंच पर जा बैठते हैं, यहाँ तक कि रात हो जाती है... बातें-बातें-बातें...जब वह लौटने लगता है तो मुझे भी घर (माडल टाऊन) ले जाता है। हम काम की बातें बहुत कम करते हैं। साहित्य, दर्शन, मनोविज्ञान, राजनीति इत्यादि पर बहुत कम बात-चीत होती है। हमारी बात-चीत गंभीरता से बिलकुल दूर और बे-सिर-पैर की होती है। इस प्रकार घंटों बातें किए चले जाते हैं, लेकिन थकान का अनुभव नहीं करते।
भेंट होते ही बेदी मुस्कुराएगा। एकाध फब्ती कसेगा या कहेगा एक लतीफ़ा सुनो। “एक दिन अकबर सोकर जागा तो उसने बरामदे में से देखा कि मुल्ला दो प्याज़ा...।” इस प्रकार बात-चीत के शुरू में ही वह एक मोहक वातावरण उत्पन्न कर लेता है। एक दिन मुझसे मिलने के लिए आया। उस समय वह जल्दी में था। मुझे दो-चार मज़ेदार बातें सुझ गई, जिन्हें सुनकर वह बहुत हँसा और प्रसन्न हुआ। संयोग से उसे कोई बात न सूझी तो शीघ्रता से उठते हुए बोला, “अच्छा यार चलता हूँ। कहीं ऐसा न हो कि ऐसी मज़ेदार बातों के बाद जो आज तुमने संयोग से कह डाली हैं कोई ऐसी बात कह दो जिससे इनका मज़ा भी किरकिरा हो जाए।”
एक बार मैं बहुत सख़्त बीमार पड़ गया। इस विचार से कि अकेले में मुझे कष्ट न हो, वह मुझे माडल टाऊन में अपने घर ले गया। बीमारी में पहला मकान हाथ से निकल गया और स्वस्थ होने पर नए मकान की खोज की तो वह मिला नहीं ओर विवश हो कर मुझे वहाँ दो-तीन महीने रहना पड़ा। आख़िर जब मकान मिल जाने पर मैं उससे विदा हुआ तो हाथ मिलाते हुए हँस कर बोला, मेहमान के आने की प्रसन्नता तो ख़ैर होती ही है, लेकिन उसके चले जाने से जो आनंद मिलता है, उसका अनुमान तुम कर ही नहीं सकते।”
बेदी को दो बातों से विशेष रूप से चिढ़ है। एक तो समय की पाबंदी और दूसरे कसरती गठीला शरीर।
शुरू में उसकी पहली लत के कारण मुझे बहुत परेशानी उठानी पड़ी। वेदी ने अपनी इस लत के पक्ष में कभी कोई तर्क उपस्थित नहीं किया, बल्कि सदा खेद ही प्रकट किया। लेकिन इस लत के पीछे छिपे गुण और सौंदर्य के क्या कहने! वह किस प्रकार ठोस अलबेलेपन के साथ ज़िंदगी जी रहा था। आख़िर समय की पाबंदी क्यों हो? मान लीजिए कि घर में मुन्ना पहली बार काँपती टाँगों पर खड़ा हो जाता है तो कैसा शानदार तमाशा होता है। बड़े बच्चे तालियाँ बजा-बजा कर शोर मचाने लगते हैं− ‘मुन्ना खड़ा हो गया, मुन्ना खड़ा हो गया।’ उधर प्रातःकाल की धूप चमक रही है, हवा में कुछ ठंडक है...और पत्नी काम-धंधे में इधर−उधर घूम रही है। एक दम पति को अनुभव होता है कि उसने कई दिन से पत्नी की ओर ध्यान ही नहीं दिया, जब कि पत्नी पहले की अपेक्षा अधिक आकर्षक हो गई है अथवा यदि मनुष्य स्टूल पर बैठा आगे-पीछे भूल रहा है, भविष्य की मधुर कल्पना ही सही, भूतकाल के किसी हृदय लुभाने वाले क्षण की स्मृति ही सही, कोई छोटा और सुंदर रंगमहल ही सही, तो क्या मनुष्य इन मोहक वस्तुओं से मुँह मोड़ कर इसलिए चल दे कि उसने किसी व्यक्ति को निश्चित समय पर मिलने का वचन दे रखा है...समय की पाबंदी के कारण हमारे जीवन से कमनीयता और कोमलता तिरोहित हो चुकी है है और उनका स्थान खुरदरेपन और कठोरता ने ले लिया है। वह संसार कितना सुंदर था, जब निकटवर्ती मित्र एक-दूसरे से निश्चित समय पर मिलने का वादा नहीं किया करते थे और फिर जब नदी के तट पर गीली रेत में लोटते हुए, अथवा ख़रगोशों के पीछे कुत्ते दौड़ाते हुए अथवा अपनी प्रेमिकाओं का स्मृति में कोई गीत गुनगुनाते हुए अकस्मात् किसी अंतरंग मित्र से उनकी भेंट हो जाती थी तो फिर उन्हें विदा होने की जल्दी न होती थी। उन्होंने किसी से निश्चित समय पर मिलने का वादा न किया होता था। समय की पाबंदी मशीनी युग का अभिशाप है। फिर भी कुछ महान आत्माएँ सृष्टि के आदिकाल से मनुष्य के हृदय में दबी हुई इस स्वस्थ उमंग की पुकार अनजाने में ही सुन लेती हैं।
बेदी की इस प्रकार की आदतें इतनी पुष्ट और ‘विशुद्ध’ हैं कि वह स्वयं उनकी व्याख्या नहीं कर सकता।
मुगदर, डंड़ बैठक से बेदी को कोई लगाव नहीं। लेकिन वह ऐसे खेल कूद का शौक़ीन है जिसमें न केवल हाथ-पाँव खुलते हों, बल्कि हृदय को बिलकुल स्वाभाविक प्रसन्नता प्राप्त होती है। नहर पर नहाता है तो बेदरेग़ छलाँगे लगाता, डुबकियाँ खाता चला जाता है।
हमें हँसी मुफ़्त में मिली थी और हम उसे मुफ़्त ही में लुटाया करते थे। अगर किसी मनुष्य के निकट व्यक्तिगत रूप से हँसी का कोई महत्व है तो वह यह है कि वह दुख के समय उसका सहारा ले सके। विषम परिस्थितियों में हँसना आसान हो जाता है। मनुष्य उसकी शरण लेने के लिए कोई-न-कोई बहाना ढूँढ लेता है। केवल अनुकूल परिस्थितियों ही में मनुष्य हँसने से बचने लगता है। वह इसका मूल्य निश्चित कर देता है और अहं की भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि मनुष्य समाज की सम्मिलित प्रसन्नता में एक मुस्कुराहट तक मुफ़्त शामिल करने को सहमत नहीं होता। हँसी पर वह मुहर भी नए-नए सिद्धांतों की देन है। किसी-न-किसी स्वयं उद्भूत विचार के प्रभाव में अहं का भाव उत्पन्न हो जाता है और अपने इस अहं को अधिक पुष्ट करने के लिए मनुष्य से जो बन पड़ता है, करता है। दूसरी बातों के अलावा एक बात यह भी पैदा हो सकती है कि मनुष्य शारीरिक शक्ति को प्राकृतिक साधनों द्वारा निरर्थक सीमा तक बढ़ाने का प्रयत्न करने लगे। अतः शरीर के असाधारण रूप से फूले दंड इत्यादि स्वास्थ्य के नहीं, बीमारी के चिन्ह हैं। केवल स्वास्थ्य विज्ञान के दष्टिकोण से भी यह बात ठीक नहीं है। शायद इन्हीं बातों को सोच-समझ कर सूझ-बूझ रखने वाले हिंदू ऋषियों ने योगासन निकाले और उन्हें प्रचलित किया। कभी-कभी भय और मानवीय न्याय में विश्वास के कारण भी मनुष्य की प्रवृत्ति ग़लत मार्ग पकड़ लेती है। इस दोष का प्रमुख कारण यह है कि पार्थिव उन्नति की अपेक्षा नैतिक विकास की चाल बहुत धीमी रही है। किसी भी विकसित और सभ्य समाज में गर्दन के बेहूदा तनाव, पट्ठों का अकड़ाव, साधारण रूप से चौड़ा सीना अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता। इसके विपरीत स्वस्थ, निर्दोष, पुष्ट, सुघड़ अंगों वाला शरीर अवश्य ही अपेक्षा की दृष्टि से देखा जाएगा। शरीर सीधा होना चाहिए, न ऐंठा हुआ न ढीला ढाला, बल्कि संतुलित और संभला हुआ।
एक बार बेदी ने अपने विशिष्ट ढंग से मुस्कुराते हुए बताया, “अभी उस दिन चलते-चलते मैंने कसरती शरीर वाले एक मित्र के बाज़ू पर हाथ रख दिया। उसने एक झटके से दंड को फुलाया। मैंने उसे धीरे से थामे रखा। थोड़ी देर बाद वह बेचैनी सी महसूस करने लगा। अब वह इस बात की बाट जोह रहा था कि मैं हाथ हटा लूँ ताकि वह बाज़ू ढीला छोड़ सके।”
वास्तव में मनुष्य अस्वाभाविक दशा में अधिक देर तक नहीं रह सकता।
यूँ हम तीन-तीन चार-चार दिन निरंतर साथ रहे हैं, लेकिन जिन दिनों मुझे बीमार हो कर उसके घर जा कर रहना पड़ा, मुझे उसके जीवन को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला।
इन्हीं दिनों की एक घटना है कि हम घर से गोश्त लेने के लिए निकले। दुकान उसके बँगले से डेढ़-दो मील दूर थी और रास्ते में खेत भी पड़ते थे। लौटते हुए खेत के किनारे एक बड़े-से पेड़ को देख कर हम दोनों ने सलाह की कि इस पर चढ़ें। सो रुपए ज़मीन में गाड़ दिए गए, गोश्त की पोटली पेड़ की टहनी से लटका दी और फिर ‘दाना-ओ-दाम’ तथा ‘ग्रहण’ का प्रसिद्ध कथाकार, चार बच्चों का बाप और एक बा-ज़ब्ता पत्नी का पति राजेन्द्रसिंह बेदी मेरे देखते-देखते बंदर की-सी फुर्ती के साथ पेड़ पर चढ़ गया। उसके साथ-साथ मैं भी था, लेकिन हल्का-फुल्का बेदी चोटी की कोमल टहनियों पर, जहाँ मेरा पहुँचना कठिन था, भूल-भूल कर मेरा मज़ाक़ उड़ा रहा था।
शाम के समय उसका छोटा भाई हरबंस सिंह और मैं जब सैर के लिए निकलते तो बेदी मेरी पीठ पर एक घूँसा मार कर अपने भाई को संबोधित करते हुए कहता, “देख मैंने इसकी पीठ पर घूँसा जमाया है, लेकिन यह मुझे हरगिज़ कुछ न कहेगा। कारण? मैं इसकी अपेक्षा दुर्बल हूँ न, इसलिए मुझसे उलझना इसकी शान के खिलाफ़ है।” यह कह कर एक धौल और जमा देता और स्वयं हर संकट से सुरक्षित साथ-साथ चला जाता।
मेरे विचार में बेदी का घरेलू जीवन मधुर है। यद्यपि यह सत्य है कि श्रीमती बेदी पढ़ी-लिखी नहीं, लेकिन उनमें सुघड़ गृहिणी के अन्य गुण पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं।
एक स्थान पर बेदी ने लिखा है कि उसके पिता जितने रूपवान थे, उसकी माता उतनी ही कुरूप थीं। अब मामला कुछ उसके विपरीत ही समझना चाहिए।
श्रीमती बेदी घर के काम-काज में कठोर से कठोर परिश्रम से नहीं कतरातीं। बेदी स्वभाव से ही विश्राम प्रिय व्यक्ति है। शायद परिश्रम का अभ्यास उसने अपनी श्रीमती से ही सीखा है। बेदी के मित्रों में अच्छे-अच्छे व्यक्तियों की कमी नहीं, लेकिन साथ ही उन बेकार और फ़ालतू मित्रों की भी कमी नहीं, जिन्हें पंजाबी भाषा में ‘लबड़ कट्टे’ कहते हैं अर्थात् खाना-पीना अजब और काम करना ग़ज़ब। उसका सबसे अयोग्य और बोझिल प्रकार का मित्र मैं था। प्रायः घरों में देखा गया है कि पति तो बड़े चाव से मित्रों को निमंत्रित करते हैं और पत्नी नाक-भौं चढ़ाती हैं। लेकिन मैंने श्रीमती बेदी के तेवर में कभी बल नहीं देखे। यदि मुझ जैसे अतिथि को भी तेवरों में बल डाले बिना सहन किया जा सकता है तो फिर कोई उनके लए कठिनाई का कारण नहीं बन सकता। जब मैंने बेदी से यह बात कही तो बोला, “हाँ यदि मैं घर में सब आवश्यक वस्तुएँ लाकर रख दूँ तो मेरी श्रीमती मित्रों के आने पर कोई एतराज़ नहीं करतीं।”
एक दिन किसी बात पर पति-पत्नी में झगड़ा हो गया। उस दिन रोटी भी न पकी और बेदी दफ़्तर चला गया। मैं घर पर अकेला रह गया और कुछ न सूझा तो कान दबा कर बाज़ार से रोटी खाई, दिन भर घर में घुसने का नाम न लिया। शाम के समय सब की दृष्टि से बचता हुआ ड्राइंग रूम में घुस कर बैठ गया, देखा कि बेदी अभी तक घर न लौटा था। मैं फिर भाग जाने की चिंता में था कि श्रीमती बेदी आईं और कहने लगीं, “आज घर में झगड़ा हो गया था, लेकिन आप यह न सोचिएगा कि झगड़ा घर में आपकी मौजूदगी के कारण हुआ है। आप दिन भर से भूखे होंगे, आइए अब खाना तैयार है, खा लीजिए।”
श्रीमती बेदी कुशाग्र बुद्धि अवश्य हैं, किंतु आचार की यह श्रेष्ठता और हृदय की कोमलता कदाचित बेदी की शिक्षा का परिणाम है। एक बार बेदी का अतिथि बनने के बाद फिर किसी और का अतिथि बनने को दिल नहीं चाहता।
बेदी घरेलू जीवन में बहुत व्यस्त रहता है। यदि कभी नौकर न हो तो कई छोटे-मोटे काम भी उसे स्वयं ही भुगताने पड़ते हैं। कभी-कभी मैं आश्चर्य करने लगता हूँ कि इतने उत्तरदायित्व निभाने के बाद भी वह लेखन के लिए कैसे समय निकाल लेता है। जिन दिनों मैं बेदी के ड्राइंग रूम में सोया करता था तो कभी-कभार जब मुँह-अँधेरे आँख खुली तो देखता कि वह टेबिल लैंप जलाए लिखने में व्यस्त है। मैं काग़ज़ों, समाचारपत्रों, पत्रिकाओं और पुस्तकों के ढेर में बैठकर जाँघ पर क़ाग़ज़ रख कर लिखता हूँ, लेकिन बेदी मेज़ के आगे बैठ कर लिखता है। यद्यपि बहुत लापरवाह व्यक्ति है, लेकिन दवात का ढकना बंद करने का वह इतना पाबंद है कि यदि एक मिनट के लिए भी जाना पड़े तो वह दवात को बिना ढके छोड़ कर नहीं जाता। कहानियाँ लिख-लिख कर फाड़ डालता है। फ़लाबियर की तरह पांडुलिपि को बार-बार काटता-छाँटता और अंत तक कोई न कोई संशोधन करता रहता है।
उसे बहुत जल्द उठने का अभ्यास है। सर्दियों में तीन-चार बजे तक अवश्य ही उठ बैठता। घर के शेष व्यक्ति सोए पड़े होते। वह लड़ाकू बटेर की तरह बिफर कर मेज़ के सामने जा बैठता। उस समय उसकी आँखों की कोरों में कीचड़ लगी होती। ढीली-ढाली क़मीज़ के सारे बटन खुले होते। सिर पर बालों का जूड़ा एक ओर को झुका हुआ, दाढ़ी अस्त-व्यस्त, गुद्दी के बाल घूम कर घोड़े के अयाल के समान गर्दन पर गिरे होते।
जब घर के लोग जाग उठते तो बेदी ‘अफ़साना निगारी’ छोड़ कर ज़िंदगी की वास्तविकताओं की ओर पलटता। सूर्य निकलता तो उसे घर से मील भर की दूरी से दूध लाने की सूझती। जाने से पहले वह ड्राइंग रूम में आता, उसका छोटा भाई हरबंस सिंह और उसका मित्र कमरे में बैठे होते...मैं हरबंस सिंह को भी पसंद करता हूँ। वह उसका छोटा-सा मुँह, छोटी-छोटी आँखें, छोटी-छोटी दाढ़ी और छोटी-छोटी बातें और इन सब पर तुर्रा यह कि दबाने के लिए छोटा-सा टेंटुआ....तो बेदी सर्दी से सिकुड़ता हुआ आता। सोचता कि नौकर भाग गए, मुझे प्रत्येक दिन दूध लेने के लिए जाना पड़ता है। संभव है कि आज इन ‘लबड़ कट्टों’ में से किसी को ध्यान आ जाए और वह स्वयं ही कह दे कि लाओ बेदी आज मैं दूध ले आता हूँ। हरबंस सिंह फ़र्श पर लेटा उपन्यास पढ़ने में तल्लीन होता। वह कट्टर साहित्यिक श्रेणी का जीव, उससे निराश होकर बेदी मेरी ओर देखता।
मैं चुपचाप स्थिर सोफ़े पर बैठा होता। मेरे हाथ में पुस्तक होती न पत्रिका होती। सब कुछ जानते हुए भी चुप रहता, बिलकुल सुस्त, बेकार और नाकारा...बेदी की आकृति से ही प्रकट होता जैसे वह कह रहा हो, ‘मैं जानता था...पहले ही जानता था,’ और फिर बड़ी तेज़ी से चिमगादड़ के समान कमरे के तीन-चार चक्कर काटता और फिर अंत में कमंडल पकड़ कर चल देता।
लौट कर नहाता दाँत अवश्य साफ़ करता। नियम से स्नान भी करता मैं कभी दाँत साफ़ नहीं करता। बहुत कम नहाता हूँ− वह शीशे के सामने दाढ़ी बाँधने के लिए आ खड़ा होता। मेरी ओर देख कर मुस्कुराता हुआ कहता, “यार! खुदा ने क्या-क्या सूरतें बनाई हैं। एक तुम हो कि महीना भर से नहीं नहाए होगे, लेकिन मालूम होता है जैसे अभी नहा कर चले आ रहे हो। एक हम हैं कि अभी नहा कर चले रहे हैं, लेकिन सूरत से लगता है कि महीना भर से नहीं नहाए।”
मैं ख़ूब जानता हूँ कि वह मुझे ख़ुश करने के लिए बातें बनाता है− और मैं ख़ुश हो जाता हूँ।
बात-चीत ही में नहीं, पत्रों में भी उसका यह बे-किनार हास्य और चुल-बुलापन टपकता है।
एक बार वह मुझ से मिलने के लिए आया, मैं मकान पर नहीं था। एक पत्र छोड़ गया, जो इस प्रकार आरंभ होता है− ‘तीन बार मिलने के लिए आ चुका, तीनों बार तुम नहीं मिले। तीन ही बार तुम पर ख़ुदा की ला’नत...।’
दिल्ली से मेरे नाम लिखी चिट्ठी को एक नज़र देखिए :
माई डियर बलवंत सिंह,
एक छोटी-सी ख़ती लिखी थी तुम्हें, लेकिन पता नहीं क्या हुआ साली का, उल्टा मेरे ख़त का इंतिज़ार कर रहे होगे। तुम्हारा काम नहीं हो सका। सुनते हैं हिटलर ‘अंडर ग्राउंड’ (ज़मीन के अंदर) चला गया है और इटली में 10 लाख जर्मनों ने हथियार डाल दिए हैं। इसलिए सरकार कह रही है कि तुम क़लम डाल दो, यानी वह हमें निकालने की फ़िक्र में है। बहुत करूँ तो 6 माह (क्या मुद्दत है!) और अंदर रह सकता हूँ। लेकिन मुझे दिल्ली रास न आई। मुम्किन है कि एक महीने के अंदर-अंदर इस महकमे को छोड़ दूँ और आज़ाद भाले (फ्री लैसिंग) का काम शुरू कर दूँ।
दूसरी सूरत यह है कि फ़िल्मों में चला जाऊँ, लेकिन कोई बात पक्की नहीं हुई। अभी ज़ाईदन मसदर की सीग़ागरदानी नहीं कर पाया, लेकिन बाहर ही से बोल रहा हूँ। तुम्हें यक़ीन आए या न आए, मैं तुम्हें भूला नहीं। मुझे अपने आपसे शिकायत है कि एक दोस्त था, उसका भी कुछ न हो सका। वापसी डाक से मुझे इत्तिला दो कि पोज़ीशन किस लंबाई तक ख़राब है। भई हराम खाए जो तुम पर तरस खा रहा हो। मुझे पता है कि तुम इस तरस खाने को पसंद नहीं करते और क़सम खाते हुए मैं हराम को हराम ही समझता हूँ, बल्कि हलाल को भी हराम, हराम को हलाल नहीं। हलाल को हराम नहीं और न ही हलाल को हलाल। मेरा मतलब साफ़ है।
जब से दिल्ली आया हूँ कोई मकान नहीं मिला— जिसके पास रहता हूँ उससे ताल्लुक़ात ख़राब हो जाते हैं। हालाँकि बक़ौल तुम्हारे मैं लोगों की बहू-बेटियों को लोगों की बहू-बेटियाँ ही समझता हूँ... ”
वह प्रत्येक मित्र, भाई, बहन, पत्नी और बच्चे की रग-रग से परिचित है। वह ख़ूब अच्छी तरह जानता है कि अमुक व्यक्ति को मैं अमुक बात कहूँगा तो उस पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी। हँसी मज़ाक़ के अवसर पर वह किसी का लिहाज़ नहीं करता। पत्नी से लेकर मित्र तक सब पर फब्तियाँ कसता है। व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि सबके झुरमुट में बैठ कर एक साथ सब को प्रसन्न कर लेता है।
मान लीजिए सर्दियों की ऋतु है। दिन के ग्यारह बजे के समय हल्की गर्म धूप चमक रही है। घर के लोग अपने कामों में व्यस्त हैं। मैं लोहे की एक बहुत ही छोटी-सी कुर्सी पर, जो वास्तव में बेदी के मुन्ने की मिल्कियत है, कूल्हा टेक कर बैठ जाता हूँ। मैंने अभी तक शरीर के चारों ओर कंबल लपेट रखा है। सिर में एक जगह कुछ खुजली सी होती है। उलझे हुए रूखे बालों में मैं उँगली घुसेड़ कर खुजाने लगता हूँ और सोचता हूँ कि अब बालों को धो डालना चाहिए, कहीं जुएँ न पड़ जाएँ। बच्चे आँगन में इधर-उधर भागते फिरते हैं। हरबंस समाचारपत्र पढ़ रहा। है। श्रीमती बेदी एक अन्य अतिथि गृहिणी के साथ रसोई घर में बैठी हैं।। ठीक इसी अवसर पर बेदी एक कच्छा पहने नंगे बदन भीतर वाले कमरे से निकलता है और मुझे दिखा दिखा कर बिना उभरी मांस-पेशियों को टटोलता है जैसे कोई व्यक्ति अँधेरे कमरे में उस काली बिल्ली को तलाश करे जो वास्तव में वहाँ न हो। हमारी नज़रें मिलती हैं तो दिल के तार बज उठते हैं। वह भेड़ की नक़ल उतारते हुए बड़ी लय के साथ, ‘बे’ की आवाज़ निकालता है और मैं तुरंत उत्तर में ‘दे’ की ध्वनि उच्चरित करता हूँ। दोनों ओर से यह आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगता है। बच्चे खेल छोड़-छाड़ कर हम बड़ों का मुँह तकने लगते हैं। हरबंस को समाचारपत्र पढ़ना दूभर हो जाता है...सुनने वालों को अनुभव होने लगता है जैसे संध्या की गोधूलि बेला में भेड़ों का बहुत बड़ा रेवड़ धूल उड़ाता गाँव को लौट रहा है...श्रीमती बेदी चूल्हे के सामने से उठ कर रसोईघर के दरवाज़े की चौखट के सहारे आ खड़ी होती हैं और हम बड़े-बड़े ‘फ़साना निगारों’ के कौतुक को आश्चर्य से देखती हैं। पड़ोस वालों का लापरवाह नौकर हमारी आवाज़ें सुनता है तो काम-काज छोड़ कर हमारे आँगन में जाता है। यद्यपि उसका गधापन इसी बात से स्पष्ट हो जाता है, लेकिन वह इसी पर संतोष नहीं करता, क्योंकि वह गधे की बोली बोल सकता है। अतः वह टाँगें चौड़ी करके खड़ा हो जाता है और मुँह उठा कर बिलकुल कुलीन गधे की तरह ढेंचू-ढेंचू की ध्वनि निकालने लगता है। महफ़िल और गर्म हो जाती है और प्रत्युत्तर में मैं मुँह से बिल्लियाँ लड़ाने लगता हूँ। इतने ज़ोर-शोर से जैसे वह लड़ते-लड़ते एकदम छत से नीचे आ गिरी हों। इस पर एक कोलाहल मच जाता है। बच्चों का शोर, हमारे अट्टहास, उधर गृहिणी मारे हँसी के दरवाज़े के पीछे लोट-पोट इधर श्रीमती बेदी चूल्हे पर रखी दाल को ही भूल जाती हैं।
बेदी जीवन की कठोर वास्तविकताओं से उलझ चुका है। वह आवश्यकताओं की कठोरता और मनुष्य की सीमाओं से भली-भाँति परिचित है। वह शारीरिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और मानसिक यातनाओं में डूब कर उभरा है। वह दूध पीते बच्चे की सरलता और विनय के साथ जीवन के अंधड़ों में दिलचस्पी लेता रहा है। अपने शैशव का उल्लेख करते उसने लिखा है− हमारे घर में बहुत शोर मचता था। शोर, शोर, शोर। इसके बाद एकदम रात का सन्नाटा और भी बड़ा शोर प्रतीत होता था और अब तक बहुत बड़े अंधड़ के बाद वह शांति के इस अथाह सन्नाटे का अनुभव करने लगता है।
इस बेपनाह शोर और हंगामे के अतिरिक्त हम कितनी ही बार रात के सन्नाटे में निर्जन उद्यानों में भूमि को समतल करने वाले बेलचों पर बैठे रहे हैं और वह भी ऐसी एकाग्रता के साथ कि कई बार हमने एक ही उड़ान में अपने आपको अत्यंत पावन लोक में विचरते पाया है। उस विनम्रता और श्राह्लाद को जो हृदयों पर छा जाता था, मैं अब भी अनुभव करता हूँ। इस बात की संभावना है कि बेदी नीच, कमीना, शराबी और विलासी हो जाए। संभव है कि इबलीस (शैतान) उसका हाथ पकड़ कर उसे एक ऊँचे पहाड़ पर ले जाए और संसार के सब राज्य और उनका वैभव दिखाए और कहे, “अगर तू झुक कर मुझे सजदा करे तो यह सब कुछ तुझे दे दूँगा।1” तो यह कोई नई बात न होगी और इसके बावजूद बेदी अधिक देर तक सजदे में भी न रह सकेगा, क्योंकि पूरब की बजाए पच्छिम से उदय होना स्वयं सूरज के सामर्थ्य के बाहर है। बेदी के सीने में पवित्र की चिनगारी मौजूद है। “अग्नि इस संसार की वस्तु नहीं। जब संसार की प्रत्येक वस्तु तैयार हो गई तो फिर अग्नि विशेष रूप से प्रकाश से लाई गई।”2
किसी सुनसान रात में उसके निकट पहुँच कर कभी-कभी एक अद्भुत प्रकार की पवित्रता और पावनता का अनुभव होने लगता है। उसकी आँखों में ईश्वरीय ज्योति से भरपूर उदासी झलकने लगती है। उसकी अनुभव-परायणता प्राचीन मिश्री काहनों का स्मरण कराती है, जिनके सीने ईश्वरीय प्रकाश से देदीप्यमान थे अथवा उस विचारक की याद ताज़ा हो जाती है, जिसने उन तत्त्वों को अपनी दूरदर्शी दृष्टि से देख पाया हो, जो भावी मानव के कष्टों का कारण बनेंगे! और फिर जैसे निर्जन बन में पुकारने वाले की आवाज़ सुनाई देती हो−
“भगवान का मार्ग तैयार करो 3
- पुस्तक : उर्दू के बेहतरीन संस्मरण (पृष्ठ 102)
- संपादक : अश्क
- रचनाकार : बलवंत सिंह
- प्रकाशन : नीलाभ प्रकाशन
- संस्करण : 1862
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