दादू दयाल के 10 प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ दोहे
झूठे अंधे गुर घणें, भरंम दिखावै आइ।
दादू साचा गुर मिलै, जीव ब्रह्म ह्वै जाइ॥
इस संसार में मिथ्या-भाषी व अज्ञानी गुरु बहुत हैं। जो साधकों को मूढ़ आग्रहों में फँसा देते हैं। सच्चा सद्गुरु मिलने पर प्राणी ब्रह्म-तुल्य हो जाता है।
हस्ती छूटा मन फिरै, क्यूँ ही बंध्या न जाइ।
बहुत महावत पचि गये, दादू कछू न बसाइ॥
विषय-वासनाओं और विकारों रूपी मद से मतवाला हुआ यह मन रूपी हस्ती निरंकुश होकर सांसारिक प्रपंचों के जंगल में विचर रहा है। आत्म-संयम और गुरु-उपदेशों रूपी साँकल के बिना बंध नहीं पा रहा है। ब्रह्म-ज्ञान रूपी अंकुश से रहित अनेक महावत पचकर हार गए, किंतु वे उसे वश में न कर सके।
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टैग : माया
दादू प्रीतम के पग परसिये, मुझ देखण का चाव।
तहाँ ले सीस नवाइये, जहाँ धरे थे पाव॥
विरह के माध्यम से ईश्वर का स्वरूप बने संतों की चरण-वंदना करनी चाहिए। ऐसे ब्रह्म-स्वरूप संतों के दर्शन करने की मुझे लालसा रहती है। जहाँ-तहाँ उन्होंने अपने चरण रखे हैं, वहाँ की धूलि को अपने सिर से लगाना चाहिए।
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टैग : गुरु
जहाँ आतम तहाँ रांम है, सकल रह्या भरपूर।
अंतर गति ल्यौ लाई रहु, दादू सेवग सूर॥
जहाँ आत्मा है, वहीं ब्रह्म है। वह सर्वत्र परिव्याप्त हैं। यदि साधक आंतरिक वृत्तियों को ब्रह्ममय बनाए रहे, तो ब्रह्म सूर्य के प्रकाश के समान दिखाई पड़ने लगता है।
मीरां कीया मिहर सौं, परदे थैं लापरद।
राखि लीया, दीदार मैं, दादू भूला दरद॥
हमारे संतों ने अपनी अनुकंपा से माया और अहंकार के आवरण को उघाड़कर (मुक्त कर) हमें ब्रह्मोन्मुख कर दिया है। ब्रह्म-लीन रहने से हमें ब्रह्म-दर्शन हो गए हैं। ब्रह्म से अद्वैत की स्थिति में साधक अपने सारे कष्ट भूल जाते हैं।
मीठे मीठे करि लीये, मीठा माहें बाहि।
दादू मीठा ह्वै रह्या, मीठे मांहि समाइ॥
ब्रह्म-ज्ञान की मधुरता से युक्त संतों ने मधुर सत्संग का लाभ देकर साधकों को आत्म-ज्ञान और ब्रह्म-ज्ञान की मधुरता से युक्त कर दिया। जो साधक उस सत्संग का लाभ उठाकर मधुर हो जाता है, वह मधुर ब्रह्म में समा जाता है।
भरि भरि प्याला प्रेम रस, अपणैं हाथि पिलाइ।
सतगुर के सदकै कीया, दादू बलि बलि जाइ॥
सद्गुरु ने प्रेमा-भक्ति रस से परिपूर्ण प्याले अपने हाथ से भर-भरकर मुझे पिलाए। मैं ऐसे गुरु पर बार-बार बलिहारी जाता हूँ।
केते पारिख जौंहरी, पंडित ग्याता ध्यांन।
जांण्यां जाइ न जांणियें, का कहि कथिये ग्यांन॥
कितने ही धर्म-शास्त्रज्ञ पंडित, दर्शनशास्त्र के ज्ञाता और योगी-ध्यानी रूपी जौहरी, ब्रह्मरूपी रत्न की परख करते हैं। लेकिन वे अज्ञेय ब्रह्म के स्वरूप को रंच-मात्र भी नहीं जान पाते। फिर वे ब्रह्म संबंधी ज्ञान को कैसे कह सकते हैं।
दादू बिरहनि कुरलै कुंज ज्यूँ, निसदिन तलफत जाइ।
रांम सनेही कारनैं, रोवत रैंनि बिहाइ॥
विरहिणी कह रही है—जिस प्रकार क्रौंच-पक्षी अपने अंडो की याद में रात-दिन तड़पता है, उसी प्रकार ब्रह्म के वियोग में मैं रात-दिन तड़प रही हूँ। अपने प्रियतम का स्मरण करते और रोते-रोते मेरी रात बीतती है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere