तू काहे को जग में आया
tuu kaahe ko jag me aayaa
तू काहे को जग में आया, जो पै नाम से प्रीति न लाया रे।
तृष्ना काम सवाद घनेरे, मन से नहिं बिसराया।
भोग बिलास आस निस बासर, इत उत चित भरमाया रे॥
त्रिकुटी तिरथ प्रेम जल निर्मल, सुरत नहीं अन्हवाया।
दुर्मति करम मैल सब मन के, सुमिरि-सुमिरि न छुड़ाया रे॥
कहँ से आये कहँ को जैहे, अंत खोज नहिं पाया।
उपजि-उपजि के बिनसि गये सब, काल सबै जग खाया रे॥
कर सतसंग आपने अंतर, तजि तन मोह औ माया।
जन दूलन बलि-बलि सतगुरु के, जिन मोहिं अलख लखाया रे॥
- पुस्तक : संतबानी (पृष्ठ 7)
- रचनाकार : दूलनदास
- प्रकाशन : प्रोप्रैटर वेलवेडियर छापाखाना इलाहाबाद
- संस्करण : 1914
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