देहु कलाली येक पिआला
dehu kalali yek piala
देहु कलाली येक पिआला, ऐसा अवधू होई मतिवाला।
कहै कलाली पिआला देऊँ, पीवन हारै का सिर लेऊँ॥
ऐरी कलाली तैं क्या कीआ, सिर कै साटै पिआला दीआ।
सिर कै साटै महंगा भारी, पीवैगा अपना सिर डारी॥
चंद सूर दोउ सनमुख होई, पीवै पिआला मरै न कोई।
सहज सुंनि मैं भट्टी स्रवै, पीवै रैदास गुरुमुखि द्रवै॥
हे कलाली! तू मुझे मदिरा का एक ऐसा प्याला पिला दे जिससे यह योगी मस्त हो जाय। कलाली कहती है−मैं प्याला तो दे दूँगी किंतु बदले में पीने वाले का सिर लेती हूँ। योगी बोला−ए कलाली! तू यह क्या करती है? सिर के बदले में मदिरा का प्याला देती है? कलाली बोलती है−मदिरा का यह प्याला सिर से अधिक महंगा है। इसे वही पी सकता है जो अपना सिर काट देता है। किंतु इसे जो पीएगा, वह अमर हो जाएगा। उसके सम्मुख चंद्र और सूर्य होते हैं जहाँ वह अमरत्व प्राप्त करता है। सहज और शून्य−मंडल में इस मदिरा को तैयार करने वाली भट्टी बनी है जहाँ से हर समय मदिरा−रस टपकता रहता है। रैदास कहते हैं, सद्गुरु की कृपा से कोई विरला ही इसे पी सकता है।
- पुस्तक : रैदास ग्रंथावली (पृष्ठ 200)
- रचनाकार : जगदीश शरण
- प्रकाशन : साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2011
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