ता के गुरु चरनन चित लागा
ta ke guru charnan chit laga
ता के गुरु चरनन चित लागा।
ता के मन की भरम भुलानी, धंधा धोखा भागा॥
सो जन सोवत अवचकही में, सिंह सरीखे जागा।
धनि सुत जन धन भवन न भावत, धावत बन बैरागा॥
हरखित हंस दसा चलि आयो, दुरि गयो दुरमत कागा।
पाँचहूँ को परपंच न लागै, कोटि करै जो दागा॥
साँच अमल तहँ झूठ न झाँकै, दया दीनता पागा।
सत्त सुकृत संतोष समानो, ज्याँ सूई मध धागा॥
लै मन पवन उरध को धावै, उपजु सहज अनुरागा।
धरनी प्रेम मगन जन कोई, सोइ जन सूर सुभागा॥
- पुस्तक : धरनीदास की बानी (पृष्ठ 25)
- रचनाकार : धरनीदास
- प्रकाशन : वेलवेडियर छापाखाना इलाहाबाद
- संस्करण : 1931
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