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संतो मीन गगन में गाज्यो

santo meen gagan mein gajyo

रज्जब

रज्जब

संतो मीन गगन में गाज्यो

रज्जब

संतो मीन गगन में गाज्यो।

निर्मल ठौर निशान बजायो, सो जल निधि सौं भाज्यो॥

चकवा चकवी रैन मिले हैं, जातक चिता समाना।

माँखी सौं मकड़ो मिल बैठी, पीवे अमृत पाना॥

पर्वत ऊपर पहुप प्रकाइयो, ओला अवनि जमाया।

आभों ऊपरि तिणका ऊग्या, गुरु सुख सो निरताया॥

दादुर खियो दामिनी सूती, सुन सद्गुरु की वाणी।

जन रज्जब यहु उलटी रचना, विरले पुरुषों जाणी॥

संतो! मन रूप मच्छ ब्रह्म रूप आकाश में जाकर अति हर्षित हुआ है, उसने विषय-जल से परिपूर्ण संसार-समुद्र से दौड़ कर तथा पवित्र अवस्था रूपी स्थान में जाकर प्रभु नाम का नगाड़ा बजाया है। ज्ञान दशा की रात्रि में बुद्धि वृत्ति रूपी चकवी और साक्षी आत्मा रूपी चकवा दोनों मिल गए हैं। चित्त का चातक पक्षी ज्ञान की चिता में समा गया है। ईर्ष्या वृत्ति की मकड़ी समता की मक्खी से मिल कर बैठ गई है अर्थात् समता से ईर्ष्या मिट गई है। इस समता की अवस्था में प्राणी प्रभु चिंतन के अमृत को पीता है। अनात्म अहंकार के पर्वत के ऊपर हृदय कमल रूपी पुष्प खिला है अर्थात् अहंकार से ऊपर उठने पर ही हृदय प्रसन्न रहने लगा है। क्षमा की पृथ्वी ने शांति के ओले जमाए हैं अर्थात् क्षमाशील होने पर ही शांति रहने लगी है। साधन के बादलों पर ज्ञान का तृण उगा है अर्थात् साधनों से ही तृप्ति का हेतु ज्ञान उत्पन्न हुआ है। यह ज्ञान गुरुमुख साधकों ने ही विचारा है। सद्गुरु की वाणी सुनकर भोगाशा रूप बिजली सो गई है (अर्थात् नष्ट हो गई है) और संतोष रूपी मेंढक नाच उठा है। यह उलटी रचना है। इसे विरले ज्ञानी पुरुषों ने ही जाना है।

स्रोत :
  • पुस्तक : श्री रज्जब वाणी (पृष्ठ 1075)
  • संपादक : रत्न स्वामी नारायणदास
  • रचनाकार : रज्जब
  • प्रकाशन : संत साहित्य प्रकाशन
  • संस्करण : 1980

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