ससि औ सूर पवन भरि मेला, दृढ़ करि आसन बैठु अकेला।
उलटै नाल गगन घर जावै, बिगसै कँवल चंद दरसावै॥
घंटा रव तहँ बाज निसाना, अनहद धुन सुनियत बिनु काना।
सुत्र असुन्न में डोर बँधाना, उड़े हंस चढ़ि करत पयाना॥
अगम अगोचर अबिगत खेला, प्रान पुरुष तहँ करत है मेला।
मन अरु पवन सहज घर आयो, ऐसो गति संतन मन भायो॥
मेटल सुन्न मिलल परगासा, जन्म-जन्म कै पूजलि आसा।
जन गुलाल सतगुरु बलिहारी, जाति-पाँति अब छुटल हमारी॥
- पुस्तक : गुलाल साहेब की बानी (पृष्ठ 27)
- रचनाकार : गुलाल
- प्रकाशन : बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग
- संस्करण : 1932
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