यूँ निर्पख मन भया हमारा
yoon nirpakh man bhaya hamara
यूँ निर्पख मन भया हमारा।
इन दोनों का देख पसारा॥
माला पहरय्यों तसबी लागै, यासी हूँ कछु नाहीं।
ऐसे समझ तजे सब बंधन, क्या पहरै गल माहीं॥
वरत कियों रोज़े रिस माने, इन में कहा बड़ाई।
ऐसे जानि तजे सब लंधन, संकट पाशा छुड़ाई॥
देवल जाउँ मसीत मरै जलि, या में क्या सिधि पाई।
ऐसे समझ रहे दोनों सौं, उर अंतर ल्यौ लाई॥
दाग़ देउ तो गोर गुमानणि, गाड़े मान मसाणं।
ऐसे जानि धरय्या चौड़ै में, दोनों रहे डिफाणं॥
एक हि तज्यो एक बल बाँधे, टलै न सौकि अड़ी।
ऐसे समझ रहत जन रज्जब, दोनों त्याग खड़ी॥
हिंदू और मुसलमान दोनों का ही भ्रम-विस्तार देखकर हमारा मन इस प्रकार निष्पक्ष हो गया है कि माला पहनता हूँ तो तसबीह वाले ईर्ष्या करने लगते हैं। इनसे कुछ भी नहीं होता। ऐसा समझकर सभी बधंन छोड़ दिए हैं। इनको गले में पहनने से क्या है? व्रत करता हूँ तो रोज़ा करने वाले क्रोध करते हैं, इनके करने में बड़ाई भी क्या है? ऐसा जान के सब बंधन छोड़कर दुःख की फाँसी को हटाया है। मंदिर में जाता हूँ तो मस्जिद वाले जल मरते हैं, इनमें जाने वालों को क्या सिद्धि प्राप्त हुई है? ऐसा समझ कर मंदिर-मस्जिद दोनों में जाना बंद करके, हृदय में ही प्रभु से वृत्ति लगाता हूँ। मुर्दे को दाग़ देते हैं तो क़ब्र वाले अपनी श्रेष्ठता का अभिमान करते हैं। ऐसा चिल्लाने से रह जाते हैं। एक को त्यागने से दूसरा रूठता है, ऐसा समझ कर हम निष्पक्ष रहते हैं। हमारी वृत्ति हिंदू-मुसलमान दोनों के पक्ष को छोड़कर प्रभु में स्थित है।
- पुस्तक : श्री रज्जब वाणी (पृष्ठ 1095)
- संपादक : रत्न स्वामी नारायणदास
- रचनाकार : रज्जब
- प्रकाशन : संत साहित्य प्रकाशन
- संस्करण : 1980
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