दुध बिनु धेनु पंख बिनु पंखी जल बिनु उतभुज कामि नाही।
किआ सुलतानु सलाम विहूणा अंधी कोठी तेरा नामु नाही॥
की बिसरहि दुखु बहुता लागै। दुखु लागै तूं विसरु नाही॥ ॥रहाउ॥
अखी अंधु जीभ रसु नाही कंनी पवणु न वाजै।
चरणी चलै पजूता आगै विणु सेवा फल लागै॥
अखर बिरख बाग भुइ चोखी सिंचत भाउ करेही।
सभना फलु लागै नामु एकौ बिनु करमा कैसे लेही॥
जेते जीउ तेते सभि तेरे विणु सेवा फलु किसै नाही।
दुखु सुख भाणा तेरा होवै विणु नावै जीउ रहै नाही॥
मति विचि मरणु जीवणु होरु कैसा जा जीवा तां जुगति नही।
कहै नानकु जीवाले जीआ जह भावै तह राखु तुही॥
दूध के बिना गाय, पर के बिना पक्षी और जल के बिना उद्भिज (किसी) काम के नहीं रहते। सलाम के बिना सुलतान किस काम का है? (अर्थात जिस सुलतान की कोई सलाम नहीं करता, वह व्यर्थ है)। (इसी प्रकार) जिस कोठरी (हृदय में) तेरा नाम नहीं है, वह व्यर्थ है।
(हे प्रभु), तू क्यों विस्मृत होता है? (तेरे विस्मृत होने से) बहुत दुःख लगता है। (मुझे इसी बात से) दुःख लगता है कि (तू मुझे) विस्मृत न हो।
(वृद्ध) आँखों से अँधा है, (उसके) जीभ में रस नहीं है (और उसके) कानो से पवन (शब्द) नहीं सुनाई पड़ता, पकड़े जाने पर ही चरणों से आगे चलता है, (तात्पर्य यह कि वह दूसरों से पकड़ कर चलाए जाने पर, चल सकता है); (हे प्रभु) बिना (तुम्हारी) सेवा किए हुए यही (वृद्धावस्था का) फल लगता है। (भाव, वह कि बिना परमात्मा को अराधना किए मनुष्य को बारंबार योनि के अंतर्गत आकर, वृद्धावस्था आदि के दुखों को भोगना पड़ता है)।
(गुरु के) अक्षर (उपदेश) बाग के वृक्ष हैं, (शुद्ध हृदय) अच्छी पृथ्वी है, (जिसमें ये वृक्ष उत्पन्न होते हैं)। (परमात्मा से) प्रेम करना ही (इन वृक्षों को) सीचना है। (ऐसा करने से) सभी वृक्षों में नाम रूपी एक फल लगेगा। किंतु बिना (शुभ) कर्मों के (यह नाम रूपी फल) कैसे लगेगा?
(हे प्रभु), जितने भी जीव हे, वे सब तेरे ही है। बिना (परमात्मा और गुरु की) सेवा के किसी को भी फल नहीं प्राप्त होता है। तेरी ही आज्ञा के दुःख सुख होते हैं, बिना। (तेरे) नाम के जीवन नहीं हो सकता।
(गुरु की) बुद्धि द्वारा (जो अहंभवा से) भरना है, (वही वास्तविक) जीवन है। (इसके बिना) और जीवन केसे हो सकता है? (यदि और) प्रकार के जीवन (व्यतीत भी करें) तो वह (वास्तविक) जीवन की युक्ति नहीं है। नानक कहते हैं कि जीवों को वह अपनी मरजी के अनुसार जीवित रखता है। (हे प्रभु), तुझे जैसा अच्छा लगे, वैसा रखा।
- पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 187)
- संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
- रचनाकार : गुरु नानक
- प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2003
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