जिवड़ा जाय कहा तूँ रहसी वे
jiwDa jay kaha toon rahsi we
जिवड़ा जाय कहा तूँ रहसी वे।
करणहार करतार न जांणयौ, सलिल मोह संगि बहसी वे॥
काची परख सराफी खोटी, ता तैं परदुख सहसी वे।
राम नाम निज भेद न जाणयों, काल चटा तैं गहसी वे॥
हरि प्रीतम सूँ प्रीति न बांधी, झूठ तहाँ जाइ ठहसी वे।
जब जम आया झूठ बिलाया, रसन तालवै फहसी वे॥
जब इहि जीवड़ै किया पयाणा, बहुड़ि न यहु तन लहसी वे।
जन हरीदास माया अपराधिणि, बहौत भांति करि दहसी वे॥
- पुस्तक : महाराज हरिदासजी की वाणी
- संपादक : मंगलदास स्वामी
- प्रकाशन : निखिल भारतीय निरंजनी महासभा
- संस्करण : 1962
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