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अंतरि वसै न बाहरि जाइ

antari wasai na bahari jai

गुरु नानक

गुरु नानक

अंतरि वसै न बाहरि जाइ

गुरु नानक

और अधिकगुरु नानक

    अंतरि वसै बाहरि जाइ। अंमृतु छोडि काहे बिखु खाइ॥

    ऐसा गिआनु जपहु मन मेरे। होवहु चाकर साचे केरे॥ ॥रहाउ॥

    गिआनु धिआनु सभु कोई रवै। बांधनि बांधिआ सभु जगु भवै॥

    सेवा करे सुचाकरु होइ। जलिथलि मही अलि रवि रहिआ सोइ॥

    हम नही चंगे बुरा नहीं कोई। प्रणवति नानकु तारे सोइ॥

    अंतर्मुखी रहकर साधक को हृदय-निवास करना चाहिए। इंद्रियों की बाहरी दौड़ के साथ, बाहर भागते-भटकते नहीं रहना चाहिए। हृदय के अमृत भाव को छोड़कर बाहर की विषयासक्तियों में लिप्त रहकर विष का आस्वाद नहीं करना चाहिए अर्थात् विषयासक्तियों का भोग, विष-परिणामी होता है। इस प्रकार का भाव-चिंतन होना अपेक्षित है। हमेशा सेवक-भाव से चर्या-निरत रहो। अर्थात् सच्चे (बादशाह) की सेवा में संलग्न बने रहना चाहिए। ज्ञान-ध्यान में तो सब कोई रमण रहता है, संलग्न बना रहता है और सारे संसार के बंधन बाँधे रहता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 239)
    • संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
    • रचनाकार : गुरु नानक
    • प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
    • संस्करण : 2003

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