नित प्रत करूँ हजामताँ, रटू राम को नाम॥
दरपण साँच विवेक को, कैंची विरत विराम।
जल छिड़कूँ सुख शाँति को, मुँडन करूँ तमाम॥
लम्बी चोटी गरब की, बाँधूँ गाँठ दुराम।
अगल-बगल का रुगचा, लोभ ईरसा काम॥
करूँ सफाई ध्यान ती, नाखूँ खोरे हाम।
हेडूँ माया को मारग, रगड़ूँ गुठली आम॥
लोभ मोह अर क्रोध का, नख छाटूँ बिन दाम।
सहजो समचित भाव रख, सेवा करूँ हजाम॥
भेदभाव राखूँ नहीं, ऊजल नाई काम।
सैन राजा रंक ने, जाणू एक समान॥
सैन भगत कहते हैं—मैं प्रतिदिन हजामतें करता हूँ और राम का नाम रटता हूँ। सत्य और विवेक का दर्पण दिखाता हूँ और कैंची से बाल काटता हूँ। सिर पर सुख और शाँति का जल छिड़क कर मुंडन करता हूँ। लंबी चोटी, जो गर्व का प्रतीक है उसे दोहरी करके गाँठ लगाकर बाँध देता हूँ। बगलों के बाल ऐसे काटता हूँ मानो लोभ, ईर्ष्या और काम के प्रभाव को समाप्त कर देता हूँ। सब काम सफाई से करता हूँ और सारी केश राशि को जजमान की गोदी में उसके सामने डाल देता हूँ। अर्थात् समस्त दोषों का निवारण कर देता हूँ। सिर पर मुँडन के पश्चात् आम की गुठली रगड़कर सारा मैल हटा देता हूँ, अर्थात् समस्त रहे-सहे दोष भी हटा देता हूँ। लोभ, मोह और क्रोध के नाखून छाँट देता हूँ। सैन कहते हैं—मैं सहज और समभाव से सभी वर्णों-राजा, रंक को एक भाव से जानता हूँ। भेदभाव नहीं करता, नाई का काम उज्ज्वल काम है।
- पुस्तक : संत सैन भगत (पृष्ठ 317)
- संपादक : अशोेक मिश्र
- रचनाकार : संत सैन भगत
- प्रकाशन : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश
- संस्करण : 2013
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