Font by Mehr Nastaliq Web

जोगु न खिंथा जोगु न डंडै

jogu n khi.ntha jogu n Da.nDai

गुरु नानक

गुरु नानक

जोगु न खिंथा जोगु न डंडै

गुरु नानक

जोगु खिंथा जोगु डंडै जोगु भसम चड़ाईऐ।

जोगु मुंदी मूंडि मुडाईऐ जोगु सिंङी वाईऐ॥

अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ॥

गली जोगु होई।

एक दृसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीऐ सोई॥ रहाउ॥

जोगु बाहरि मड़ी मसाणी जोगु ताड़ी लाईऐ।

जोगु देसि दिसंतरि भविऐ जोगु तीरथि नाईऐ॥

अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगतिइव पाईऐ॥

सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईऐ।

निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईऐ॥

अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोगति इव पाईऐ॥

नानक जीवति मरि रहीऐ ऐसा जोगु कमाईऐ।

वाजे बाइबहु सिंङी वाजै तउ निरभउ पद पाईऐ॥

अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति तउ पाईए॥

योग (की प्राप्ति) तो कंथा (पहनने) में है, डंडा (लेने) में है, और शरीर पर भस्म लगाने में है। योग तो (कानों में) मुद्रा (पहनने) में है, मुँड मुडबाने में (सिर घोटाने में) और शृंगी (बाजा) बजाने ही में है। (यदि) माया के बीच में (रहते हुए) निरंजन (माया से रहित हरी) से (युक्त) रहा जाए, (तो यही) योग की (वास्तविक) युक्त है (और इसी से योग) प्राप्त होता है।

(निरी, कोरी) बातों से ही योग (की प्राप्ति) नहीं होती। (जो) एक दृष्टि करके (सभी को) समान समझे, (उसी को वास्तविक) योगी कहा जाता है।

योग बाहर—क़ब्रों (समाधिस्थलो) (अथवा) स्मशानों (के बीच रहने में) नहीं है (और ब्रह्म) ध्यान लगाने में भी योग नहीं है। देश, देशान्तरों के भ्रमण करने में भी योग नहीं है और तीर्थादिकों के स्नान में ही योग (की प्राप्ति होती) है। (यदि) माया के बीच में (रहते हुए) निरंजन (माया से रहित हरी) से (युक्त) रहा, जाय (तो यही) योग की (वास्तविक) युक्ति है (और इसी से योग) प्राप्त होता है।

सद्गुरु मिले, (तभी) भ्रम टूट सकता है (और विषयों की ओर) दौड़ते हुए (मन को) रोककर रखा जा सकता है; तभी (आत्मानंद का) निर्झर (निरंतर) झरने लगता है और सहजावस्था में वृत्ति (धुनि) लग जाती है (और) (अपने) घर ही में (आत्म-स्वरूप में ही परमात्मा का) परिचय प्राप्त हो जाता है। (यदि) माया के बीच में (रहते हुए) निरंजन (माया से रहित हरी) से (युक्त) रह जाए, (तो यही) योग की (वास्तविक) युक्ति है (और इसी से योग) प्राप्त होता है।

हे नानक, ऐसा योग कमाओ कि जीवितावस्था में ही (अहंकार से) मर कर रहो। (जब) बिना बजाए ही (नाम की) शृंगी बजती रहे, तभी निर्भय पद की प्राप्ति होती है। (यदि) माया के बीच में (रहते हुए) निरंजन (माया से रहति हरी) से युक्त रहा जाय, (तो यही) योगी की (वास्तविक) युक्ति है (और तभी योग) प्राप्त होता है।

स्रोत :
  • पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 243)
  • संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
  • रचनाकार : गुरु नानक
  • प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
  • संस्करण : 2003

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY