माणस जनमु दुलंभु गुरमुखि पाइआ
manas janamu dulambhu guramukhi paia
माणस जनमु दुलंभु गुरमुखि पाइआ।
मनु तनु होइ चुलंभु जे सतगुर भाइआ॥
चलै जनमु सवारि बखरु सच लै।
पति पाए दरबारि सतिगुर सबदि भै॥ रहाउ॥
मनि तनि सचु सलाहि साचे मनि भाइआ।
लालि रता मनु मानिआ गुरु पूरा पाइआ॥
हउ जीवा गुण सारि अंतरि तू वसै।
तूं वसहि मन माहि सहजे रसि रसै॥
मूरख मन समझाइ आखउ केतड़ा।
गुरमुखि हरि गुण गाइ रंगि रंगेतड़ा॥
नित नित रिदै सभालि प्रीतमु आपणा।
जे चलहि गुण नालि नाही दुखु संतापणा॥
मनमुख भरमि भुलाणा ना तिसु रंगु है।
मरसी होइ विडाणा मनि तनि भंगु है॥
गुर की कार कमाइ लाहा घरि आणिआ।
गुर बाणी निरबाणु सबदि पछाणिआ॥
इक नानक की अरदासि जे तुधु भावसी।
मै दीजै नाम निवासु हरि गुण गावसी॥
मनुष्य का जन्म बहुत ही दुर्लभ है, (वास्तव में) गुरुमुखी को ही (यह जीवन) घास है, (तात्पर्य यह कि गुरुमुख ही मानव जीवन की वास्तविक कीमत जानते है)। यदि सरुगुर को (मनुष्य) लगने लगा, तो उसके मन तन और मन ही शीतल हो जाते है।
सद्गुरु की शिक्षा और भय के द्वारा (मनुष्य) सच्चाई का सौदा लेकर और अपना जन्म सँवार कर (इस संसार से) विदा होता है, (वह परमात्मा के) दरबार से प्रतिष्ठा पाता है।
तन और मन से सत्य (परमात्मा की) स्तुति करने पर मन सच्चे (हरी को) अच्छा लगने लगा। पूर्ण गुरु के पा जाने पर, मन लाल (प्रियतम) में अनुरक्त होकर मान गया।
मैं (तेरे) गुणों का स्मरण करके जीता हूँ, (हे प्रभु), तू मेरे अंतःकरण में वसता है। (हे प्रभु), तू (मेरे) मन में निवास करता है, (और मन) सहज ही भाव से आनंद से भर जाता है।
(हे मेरे) मूर्ख मन, (मैं) तुझे कितना समझा कर कहूँ? गुरु के द्वारा हरि के गुणों को गाकर, (उसके) रंग में रंग जा।
अपने प्रियतम (परमात्मा) को नित्य हृदय में स्मरण कर। यदि गुणों को (अपने) साथ लेकर चले, तो दुःख संताप नहीं देगा।
मनमुख (माया के) भ्रम में भटक गया है उसे कोई रंग (आनंद) नहीं है, (भाव यह है कि मनमुख से प्रेम की लगन लगती ही नहीं)। (मनमुख) मरकर बेगाना हो जाता है (और उसके) तन और मन विघ्र स्वरूप हो जाते है।
गुरु का कार्य करके (उसका) लाभ घर में ले आया। गुरु की वाणी और उसके उपदेश द्वारा सहजावस्था (निर्वाण पद, चतुर्थ पद, तुरीयपद) को पहचान लिया।
(हे प्रभु), यदि तुझे अच्छा लगे, तो नानक की यह प्रार्थना है कि तुझे नाम के निवास दे, (ताकि) (तेरा) गुण गाऊँ।
- पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 246)
- संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
- रचनाकार : गुरु नानक
- प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2003
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