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अपना हरि बिन और न कोई

apna hari bin aur na koi

चरनदास

चरनदास

अपना हरि बिन और न कोई

चरनदास

और अधिकचरनदास

    अपना हरि बिन और कोई॥

    मातु पिता सुत बंधु कुटुंब सब, स्वारथ ही के होई।

    या काया कूँ भोग बहुत दै, मरदन करि करि धोई॥

    सो भी छूटत नेक तनिक सी, संग चाली वोई।

    घर की नारि बहुत ही प्यारी, तिनमें नाहीं दोई॥

    जीवत कहती साथ चलूँगी, डरपन लागी सोई।

    जो कहिये यह द्रव्य आपनी, जिन उज्जल मति खोई॥

    आवत कष्ट रखत रखवारी, चलत प्रान लै जोई।

    या जग में कोई हितू दीखै, मैं समझाऊँ तोई॥

    चरनदास सुकदेव कहैं यों सुनि लीजै नर लोई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी के जनपद संत (पृष्ठ 168)
    • रचनाकार : चरनदास
    • प्रकाशन : मोेतीलाल बनारसी, दिल्ली
    • संस्करण : 1963

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