इहु तनु धरती बीजु करमा करो सलिल आपउ सारिंगपाणी।
मनु किरसाणु हरि रिदै जंमाइ लै इउ पावसि पद निरबाणी॥
काहे गरबसि मूड़े माइआ।
पित सुतो सगल कालत्र माता तेरे होहि न अंति सखाइआ॥ ॥रहाउ॥
बिखै बिकार दुसट किरखा करे इन तजि आतमै होइ धिआई।
जप तप संजमु होहि जब राखे कमलु बिगसै मधु आस्रमाई॥
बीस सपताहरो बासरो संग्रहै तीनि खोड़ा नित कालु सारै।
दस अठार मै अपरंपरो चीनै कहै नानकु इव इक तारै॥
(हे साधक), इस शरीर को धरती तथा शुभ कर्मों को बीज बनाओ, सारगपाणि (परमात्मा) को सोचने के लिए जल (बनाओ)। मन ही किसान हो और हरि को अपने हृदय में जमा लो। (इस प्रकार तुम) निर्वाण पद (फल) को प्राप्त कर लोगे।
ऐ मूर्ख, माया (सांसारिक ऐश्वर्य) का अभिमान क्यों कर रहे हो? (तुम्हारे) पिता सारे पुत्र, स्त्री, माता अंत में तुम्हारे सहायक नहीं होगे।
(साधक) दुष्ट विषय-विकारी को (बल पूर्वक) खीच कर बाहर निकाल कर इनका त्याग करे और आत्मस्थित होकर ध्यान करे। जब (दृढ़तापूर्वक) संयम रख जाता है, तभी जप-तप होते हैं, (हृदय) कमल प्रस्फुटित होता है औ मधु टपकता है (आनंद की वर्षा होती है)।
(साधक) बीस (पंच महाभूत, पंच तंमात्राएँ, पंच ज्ञानोंद्रिय और पंच कर्मेंद्रिय) तथा साथ (पंचप्राण, मन और बुद्धि) के निवास स्थान (बासरो), अर्थात शरीर को एकत्र (वशीभूत) करे और तीनो अवस्थाओं (बाल्यावस्था, युवावस्था तथा वृद्धावस्था अथवा जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुति) में का का स्मरण करे; (छः शास्त्र तथा चार वेद) और अठारह (पुराणों) में अपरपार परमात्मा को पहचान। नानक कहते है कि इस प्रकार (ऐसे साधक को) एक (परमात्मा) तार देगा।
- पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 157)
- संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
- रचनाकार : गुरु नानक
- प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2003
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