सखि हे ध्रिग ध्रिग जिवन
sakhi he dhrig dhrig jivan
सखि हे ध्रिग ध्रिग जिवन जिवेला जग मांह।
बिनु गुर ज्ञान फिरेला बन मांह॥
जो अति कामिनि कनक उरेह।
भुखन बसन फिरि तन होइहें खेह॥
तरुनी के तेज फिरि हीन भैले गात।
सुखि गैले तरिवर छीन भेले पात॥
बुंद बुला तन उपजि बिलाए।
देहे धरि-धरि सभ मरि मरि जाए॥
सासुर सभ सुख गुन के रास।
बिनु पिया पंथ एह फिरत उदास॥
तेजु देहु मान मगन पुर जाहु।
कहें दरिया फल आम्रित खाहु॥
ऐसे मनुष्यों के जीवन को धिक्कार है जो गुरु के ज्ञान के बिना संसाररूपी जंगल में भटकते रहते हैं। यदि उन्हें काल्पनिक या चित्र के समान झूठी स्त्रियों और धन-संपत्ति के लिए उमंग है, तो उन्हें समझना चाहिए कि सुंदर गहने और वस्त्र अंत में शरीर के साथ ही मिट्टी में मिल जाते हैं। जैसे वृक्ष के सूखने पर पत्ते गिर जाते हैं, उसी प्रकार अंत में युवती का आकर्षक शरीर भी निस्तेज हो जाता है। यह शरीर पानी के बुलबुले की तरह पैदा होता है तथा नष्ट हो जाता है। सभी जीव बार-बार शरीर धारण करके जन्म लेते और मरते हैं। आत्मारूपी स्त्री का ससुराल सारे सुखों और गुणों का भंडार है जहाँ उसका प्रियतम परमात्मा निवास करता है। परंतु परमात्मा रूपी प्रियतम का मार्ग मिले बिना आत्मारूपी स्त्री सदा उदास ही फिरती रहती है। इसलिए हमें अपने इस शरीर के अभिमान को त्यागकर प्रभु-प्रेम में मग्न होकर अपने मूल धाम को जाना चाहिए और वहाँ सच्चे अमृत के फल को चखना चाहिए जो हमें सदा के लिए अमर बना देता है।
- पुस्तक : संत दरिया (बिहार वाले) (पृष्ठ 301)
- संपादक : काशीनाथ उपाध्याय
- रचनाकार : संत दरिया (बिहार वाले)
- प्रकाशन : राधास्वामी सत्संग ब्यास, पंजाब
- संस्करण : 2016
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