अंदरि हीरा लालु बणाइआ। गुर कै सबदि परखि परखाइआ॥
जिन सचु पलै सचु बखाणहि, सचु कसवटी लावणिआ॥
हउ वारी जीउ वारी गुरकी, वाणी मंनि बसावणिआ।
अंजन माहि निरंजन पाइआ, जोती-जोति मिलावणिआ॥रहाउ॥
इसु काइआ अंदरि बहुतु पसारा। नामु निरंजनु अति अगम अपारा॥
गुरमुखि होवै सोई पाए, आये बखसि मिलावणिआ॥
मेरा ठाकुरु सचु द्रिढाए। गुर परसादी सचु चिति लाए॥
सचो सचु बरतै सभनी थाई, सचे सचि समावणिआ॥
बे परुवाहु सचु मेरा पिआरा। किलविख अवगण काटणहारा॥
प्रेम प्रीति सदा धिआइअ, भाइ भगति द्रिढावणिआ॥
तेरी भगति सची जे भावै। आप देइ न पछोतावै॥
सभना जीआ का एको दाता, सबदे मारि जीवावणिआ॥
हरि तुधु वाझहु मै कोई नाही। हरि तुधै सैवीतै तुधु सालाही॥
आपे मेलि लैहू प्रभ साचे, पूरै करमि तू पावणिआ॥
मै होरु न कोई तुधै जेहा, तेरी नदरी सीझसि देहा॥
अनदिनु सारि सभालि हरि राखहि, गुर मुखि सहजि समावणिआ॥
तुवु जे वडु मै होरु न कोई, तुधु आपे सिरजी आपे गोई॥
तू आवेही घड़ि भंनि सवारहि, नानक नाम सुहावणिआ॥
- पुस्तक : संत काव्य-धारा (पृष्ठ 157)
- संपादक : परशुराम चतुर्वेदी
- रचनाकार : अमरदास
- प्रकाशन : किताब महल, इलाहाबाद
- संस्करण : 1981
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